कक्षा में भाषा विविधता एवं बहुभाषा के प्रयोग को शिक्षण का प्रभावी उपकरण किस प्रकार बनाया जा सकता है? स्पष्ट करें ।
भारत में बोली जाने वाली भाषाओं ने बड़ी संख्या में यहाँ की संस्कृति और पारम्परिक विविधता को बढ़ाया है। 1600 से अधिक मातृभाषाएँ हैं। अधिकतर भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें 10,000 से अधिक लोगों द्वारा बोला जाता है और कुछ को इनसे भी कम लोगों द्वारा बोला जाता है। भारत में कुल मिलाकर 800 से ऊपर भाषाएँ थी जिनमें से 50 भाषाएँ 25 साल के अन्तराल में विलुप्त हो गई ।
भारतीय संविधान में संघ सरकार के संचार के लिए दो भाषाओं (हिन्दी तथा अंग्रेजी) को मान्यता प्रदान की है परन्तु भारत के व्यक्तिगत राज्यों में उनके कार्यों के सम्पादन के लिए वहाँ की राजभाषा को प्रयोग किया जाता है। भारत में प्रमुख रूप से पाँच भाषा सम्बन्धी परिवार हैं जिनमें इंडो आर्यन (75%), द्रविड़ ( 20% ) तथा अन्य परिवार ऑस्ट्रो-एशियाटिक, चीन, तिब्बती और आइसोलेट परिवार की भाषा है।
भारत के संविधान के अनुसार इस समय 22 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय भाषाएँ हैं जो भारतीय भाषाओं की अधिकाधिक सूची में शामिल हैं 8वीं अनुसूची के अनुसार मूलरूप से 14 भाषाओं को शामिल किया गया था लेकिन 71वें और 92वें संशोधन के बाद 8 और भाषाओं को इस सूची में जोड़ा गया। इस प्रकार भारत में 22 भाषाएँ प्रचलित हैं- असमिया, बांग्ला, बोड़ों, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगू और ऊर्दू । संघ की अधिकारिक भाषाओं में हिन्दी और अंग्रेजी है।
- भौगोलिक स्थिति पूर्ण रूप से भाषाई विविधता के लिए उत्तरदायी है क्योंकि एक स्थान के लोग एक ही भाषा में बात करते हैं जिससे उनके बीच आपसी सद्भाव बना रहता है और यह उनके बीच स्थानीय पहचान और विशिष्टता को बढ़ावा देता है ।
- जो लोग साहित्य से प्यार करते हैं वो साहित्य को पढ़ने के लिए अलग-अलग भाषाएँ सीखते हैं परन्तु कुछ अपने समूह से सम्बन्धित साहित्य को प्यार करते हैं तब यह भाषाई ईमानदारी अन्य भाषा के विकास में बाधक बन जाती हैं।
- स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारे देश के नेताओं ने भाषाई आधार पर विभिन्न प्रान्तों के लिए भारत को विभाजित करने की बात कही।
- राजनीतिक दल चुनाव के समय एक ही क्षेत्र के लोगों के लिए भाषाई भावना पैदा करके उसका लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं।
- एक ही भाषा क्षेत्र के लोग आपस में भावनात्मक तौर पर जुड़े रहते हैं। उनमें आपस में भाईचारा, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता की भावना अन्य भाषा बोलने की तुलना में अधिक होती है।
आज के परिवेश में बहुभाषा एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है जिसका सीधा प्रभाव विद्यालयों में सफलता प्राप्ति पर पड़ता है। विद्यालय में जो भाषाएँ प्रयोग की जाती हैं। वह भाषा बालक अपने घर पर नहीं सीख पाता, अतः उसे विद्यालय में हेय दृष्टि से देखा जाता है, इसका सीधा प्रभाव बालक की शैक्षिक निष्पत्ति पर पड़ता है। बहुभाषिकता हमारी शिक्षा व्यवस्था को बाधित नहीं करती बल्कि इसको बनाए रखने में पूर्ण सहयोग देती है। किसी कक्षा-कक्ष में सम्प्रेषण और संवाद कौशल पूरी तरह से भाषा पर निर्भर करता है।
इतिहास साक्षी है कि अगर प्राचीन काल के अनुवादकों ने उस समय के ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, साहित्य, ग्रन्थों आदि का अनुवाद न किया होता तो आज हम उसको पूर्ण रूप से भूल चुके होते । बहुभाषा जानने वाला व्यक्ति समान संस्कृति तथा समूह के बीच विचारों के आदान प्रदान में अहम भूमिका निभाता है।
शिक्षकों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह बहुभाषी हो जिससे वह अपने कक्षा-कक्ष में ऐसा वातावरण उत्पन्न कर सकें जिससे कि बालक का रचनात्मक और संवेगात्मक विकास हो • सके। बहुभाषा से तात्पर्य अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त कक्षा-कक्ष में अन्य भाषाओं को सीखने से लगाया जाता है।
बहुभाषिकता कक्षा-कक्ष में आई समस्याओं को समझने में सहायता करती हैं। बहुभाषा जानने वाले बालक की बुद्धिलब्धि अधिक होती है, उसमें अत्यधिक लचीलापन तथा रचनात्मक प्रवृत्ति अधिक मात्रा में पाई जाती है ।
- संस्कृति के उदारीकरण / फैलाव व वैश्वीकरण की आवश्यकता को पूरा करने में सहायक है।
- इससे सूचनाएँ व अन्य तथ्यों को एक या दूसरी भाषा में उपलब्ध किया जा सकता है।
- बहुभाषी भाषा में अधिक निपुणता प्राप्त करते हैं ।
- बहुभाषी व्यक्तियों की अन्तःक्रिया अधिक व्यक्तियों से होती है। ये व्यक्ति भाषा योग्यता के द्वारा अपने कर्त्तव्यों का पालन अच्छी प्रकार से करते हैं।
- अधिक व्यक्तियों की मातृभाषा को समझते हैं इससे इनका सामाजिक क्षेत्र बढ़ता है।
- अधिक भाषाओं में तुलना से पढ़ने की रणनीतियाँ अधिक प्रभावशाली बना लेते हैं।
- एक भाषा का ज्ञान दूसरी भाषाएँ सीखने को प्रभावित करता है। पहले अर्जित भाषा का प्रभाव बाद में अर्जित भाषा के प्रयोग व अर्जन को प्रभावित करती है।
- लगातार भाषाओं के द्वारा भाषागत समस्याओं को दूर करने की योग्यता, मानसिक योग्यता को सन्तुलित बनाए रखती है।
- बहुभाषी लोग, दूसरी भाषा के लोगों से अच्छे सम्बन्ध बना पाते है, उनको समझते व प्रशंसा करते हुए भेद-भाव भुलाकर एक नयी संस्कृति का निर्माण / उदय करते हैं।
- बहुभाषिता से व्यक्तित्व का विकास व ज्ञान प्राप्ति के अवसर बढ़ जाते हैं।
- व्यक्ति स्वयं के संस्कृति की तुलना व समानता दूसरी संस्कृतियों से करता है। इससे स्वयं की संस्कृति के श्रेष्ठ पक्ष को जान कर उसका सम्मान करने लगते हैं।
- बहुभाषी व्यक्ति के लिए रोजगार की सम्भावनाएँ बढ़ जाती है।
- सभी भाषी व्यक्तियों को बातचीत से सन्तुष्ट कर पाते हैं।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाषा शोध बहुभाषावाद के महत्त्व को वर्णित करती है। फिर भी, कक्षाओं में, विशेष रूप से भाषा की कक्षाओं में एकभाषावाद का प्रचलन अधिक देखने को मिलता है। बच्चे जो भाषा घर एवं अपने परिवेश में प्रयोग करते हैं, वे विद्यालयों में उपेक्षित हैं एवं उनका प्रयोग विद्यालयों में हेय दृष्टि से देखा जाता है।
भाषा में विविधता, लक्षित भाषा सीखने की राह में समझी जाती है। विद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले विभिन्न विषय उस विशिष्ट भाषा के माध्यम से ही पढ़ाए जाते हैं एवं भाषा की कक्षा में उस लक्षित भाषा को छोड़कर अन्य भाषा का प्रयोग वर्जित माना जाता है। इस तरह से वे बच्चे जो समाज में पारम्परिक रूप से पिछड़े हुए हैं, उनमें विद्यालयों में उनकी अपनी भाषा की नकारात्मक छवि की रूढ़िबद्धता और भी अधिक मजबूत होता जाता है।
फलतः भाषा भी उनके सामाजिक शोषण को बढ़ावा देती है। समय के साथ हम ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं जहाँ सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से उदासीन सहानुभूतियाँ उपेक्षित वर्ग की भाषा को नुकसान ही पहुँचाएंगी।
जरूरत इस बात की है कि भाषा सजगता को न्याय एवं समानता हेतु सामाजिक संघर्ष का एक अभिन्न अंग बनाया जाए।
यदि अर्थपूर्ण और सृजनात्मक शिक्षा सामाजिक संघर्ष की कुंजी है तो भाषा सभी प्रकार की शैक्षणिक क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु है। हमारा अधिकतम ज्ञान, भाषा के माध्यम से ही अर्जित किया जाता है तथा भाषा संरचनाएँ हमारे बीच मौजूद सामाजिक विविधताओं एवं शोषण को समाहित किए रहती हैं, इसके अलावा भाषा गहनता से हमारे विचारों की संरचना तथा उनकी अभिव्यक्ति की सीमाएँ तय करती हैं।
भाषा कैसे सीखी जाती है फिर भी हम इसके सीखने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते रहते हैं। भाषा सबसे बेहतर तब सीखी जाती है, जब हमारा ध्यान भाषा सीखने पर केन्द्रित न हो।
वास्तव में, बहुभाषी समाज में अधिकांश बच्चे एक साथ कई भाषाएँ सीखते हैं एवं प्रयोग करते हैं क्योंकि उनका ध्यान भाषा सीखने पर नहीं, बल्कि उस भाषा के शब्दों में छिपे सन्देश पर केन्द्रित होता है। भाषा सीखने की प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए अनौपचारिक वातावरण आवश्यक है।
सीखने वाला सभी प्रकार की व्यग्रता से मुक्त तथा सिखाने वाला एक मित्र, पर्यवेक्षक एवं सहायक की भूमिका में हो तथा सीखने की अधिकतम प्रक्रिया अर्थपूर्ण कार्य एवं संवादों के सामूहिक आदान-प्रदान पर आधारित होनी चाहिए।
- रोजगार के उपयुक्त अवसर प्राप्त हो जाते हैं।
- विभिन्न संस्कृतियों तथा बाहरी लोगों को समझने का अवसर मिलता है। ऐसा व्यक्ति दो समूहों के बीच भावात्मक और संवेगात्मक विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम बन जाता है।
- बहुभाषी बालकों में संवेगात्मक लचीलेपन तथा किसी कार्य को बेहतर रूप से करने का कौशल विकसित होता है।
- अन्य भाषा को सीखने में सरलता होती है।
- शिक्षा प्राप्त करने के लिए दूसरे देशों में जाने पर व्यक्ति स्वयं को अलग महसूस नहीं करता है।
- भारतीय शिक्षा आयोग – 1882 ( हण्टर कमीशन ) – हण्टर कमीशन ने शिक्षा के माध्यम से भाषा के लिए सुझाव दिए कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा या स्थानीय भाषा के सिद्धान्तों का पालन किया जाना चाहिए तथा माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम पूर्ण रूप से अंग्रेज़ी को बनाने पर बल दिया।
- कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग- 1917 (सैडलर आयोग ) – सैडलर आयोग ने कहा कि माध्यमिक विद्यालयों में अंग्रेजी व गणित को छोड़कर अन्य सभी विषय मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाए जाएं।
- वर्धा शिक्षा योजना-1937 (बुनियादी शिक्षां) – वर्धा शिक्षा योजना में भारतीय भाषाओं को ही शिक्षा का माध्यम बनाया गया। गाँधी जी ने कहा कि बालक का विकास उसकी मातृभाषा से ही हो सकता है क्योंकि वह इस भाषा को जन्म से सीखता आया है। इसके द्वारा पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम स्थायी रहता है।
- खेर समिति – 1938-39 – खेर समिति के अनुसार शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो तथा भाषा में लिपि के रूप में देवनागरी और अरबी दोनों का प्रचलन होना चाहिए ।
- विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग- 1948-49 (राधाकृष्णनन आयोग)- इस आयोग ने सुझाव दिया कि विज्ञान और तकनीकी विषयों की शिक्षा अंग्रेजी में ही दी जाए। उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी के स्थान पर किसी भारतीय भाषा को लिया जा सकता है। संस्कृत को छोड़कर शिक्षा संघीय भाषाओं के माध्यम से भी दी जा सकती है।
अतः उन्होंने उच्च स्तर पर क्षेत्रीय भाषा (मातृभाषा), संघीय भाषा (मातृभाषा) और अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल दिया। इसके अलावा राधाकृष्णनन आयोग ने हिन्दी के माध्यम से किसी भी प्रान्त में शिक्षा देने की छूट दी।
- माध्यमिक शिक्षा आयोग -1952-53 (मुदालियर आयोग ) – इस आयोग ने कहा कि भाषा शिक्षण के निम्न समूहों पर ध्यान देना चाहिए-
(i) मातृभाषा,(ii) प्रादेशिक भाषा यदि वह मातृभाषा नही,(iii) संघीय भाषा,(iv) शास्त्रीय भाषाएँ – अरबी, फारसी, लैटिन आदि,(v) अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा ।इस आयोग ने कहा कि माध्यमिक स्तर पर शिक्षण का माध्यम मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा ही केन्द्र की सरकारी भाषा होने के कारण विद्यालय पाठ्यक्रम में हिन्दी अवश्य होनी चाहिए।इसके साथ-साथ संस्कृत को भी उचित स्थान दिया जाना चाहिए किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर की भाषा होने के कारण माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी को अवश्य स्थान दिया जाना चाहिए अन्यथा इसका हानिकारण प्रभाव पड़ेगा। यह भाषा सूत्र द्विभाषा सूत्र कहलाता है।
- राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) कोठारी कमीशन- प्रो. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में इस आयोग का गठन किया गया । कोठारी आयोग ने त्रिभाषा सूत्र में संशोधन किया। उन्होंने मातृभाषा, संघ की कोई राजभाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी ।
कोई आधुनिक भाषा या कोई यूरोपीय भाषा या कोई शास्त्रीय भाषा को पाठ्यक्रम में स्थान देने की बात कही । शिक्षकों को यथा सम्भव द्विभाषी होना चाहिए ।
बच्चों को उपलब्ध संवाद तथा इनका नवीन एवं भाषा-रहित संवाद के साथ पारस्परिक व्यवहार इस नवीन भाषा प्रशिक्षण पद्धति का मुख्य केन्द्र बिन्दु होगा ।
उदाहरण के लिए दिल्ली जैसे शहरों में भाषा शिक्षण कक्षाओं (जहाँ कक्षाओं में विभिन्न भाषाएँ जैस तमिल, बंगाली एवं हिन्दी बोलने वाले बच्चे सहजता से मिलते हैं) में बच्चे किसी भी भाषा, जैसे बंगाली कविता से भी शुरुआत कर सकते हैं और उसका अनुवाद अंग्रेजी समेत अन्य भाषाओं में भी किया जा सकता है।
ऐसी स्थिति में, जब कक्षा में बंगाली कविता पढ़ी जाती है, तो बंगाली बच्चे स्वाभाविक रूप से कक्षा का संचालन करते हुए सहजतापूर्वक उसकी व्याख्या तथा विश्लेषण करते हैं एवं दूसरे बच्चे उस कविता को अपनी भाषा में अनुवाद करने की कोशिश करते हुए विभिन्न भाषाओं के बीच परस्पर समानता एवं भेद के मर्म को समझ सकते हैं ।
बच्चों को कक्षाओं में न केवल घरेलू भाषाओं के प्रयोग की छूट होगी, बल्कि कक्षाओं में सृजनात्मक रूप से उनका इस्तेमाल भी किया जाएगा। इस प्रक्रिया में शिक्षक स्वयं सीख रहे होंगे । संज्ञानात्मक चुनौतियाँ प्रदान करती हुई विभिन्न गतिविधियाँ भी आसानी से आयोजित की जा सकती हैं।
उदाहरण के लिए- बच्चों को अंग्रेजी में शब्दों के बहुवचन बनाने के नियम सिखाने की बजाय शिक्षक बच्चों के लिए ऐसी गतिविधियाँ आयोजित कर सकते हैं जिसमें विभिन्न भाषाओं के अन्तर्गत शब्दों के बहुवचन बनाने की प्रक्रिया की जाँच की जा सके।
शिक्षक, माता-पिता तथा विद्यार्थी भाषा, क्षेत्र एवं विषय की सीमाओं से आगे बढ़कर शिक्षण सामग्री को तैयार करने में सकारात्मक रूप से भाग लेंगे। तब किसी मानक पाठ्य पुस्तक की भी आवश्यकता नहीं रह जाएगी जो कि बहुत ही विविध सांस्कृतिक एवं भाषाई क्षेत्रों से आने वाले बच्चों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किसी-न-किसी तरह तैयार कर दी जाती है। वास्तव में, बहुभाषा आधारित पाठ्यसामग्री का नमूना-सैट उपलब्ध करा देने पर बच्चे, माता-पिता एवं शिक्षक सभी मिलकर अपनी अलग स्थानीय शिक्षण सामग्री तैयार कर सकते हैं। ऐसा करने से, स्थानीय भाषाएँ, इतिहास, भूगोल उपेक्षित विषय नहीं रह जाएँगे, बल्कि वे शिक्षा प्रणाली के मूल तत्त्वों का अभिन्न अंग बन जाएँगे।
इस शिक्षण सामग्री का मुख्य उद्देश्य वर्तमान सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखना नहीं होगा अपितु उसका लक्ष्य समालोचनात्मक सजगता को विकसित करना होगा जिसकी सम्भवतः सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में अहम भूमिका होगी।
भाषा प्रवीणता के बारे में केवल कुछ निश्चित कुशलताओं के रूप में नहीं, बल्कि पंक्तियों के बीच के मर्म की आलोचनात्मक परख की योग्यता एवं जीवन के विभिन्न पहलुओं अनुभवों की अभिव्यक्ति के रूप में सोचना होगा।
