पठन की कितनी अवस्थाएँ होती हैं? मौन पठन एवं सस्वर पठन की विवेचना कीजिए । How many stages of reading. Explain the Silent Reading and Loud Reading.
- प्रथम अवस्था – तैयारी- इस प्रथम अवस्था में पढ़ना नहीं सिखाया जाता वरन् पढ़ने की तैयारी हेतु कुछ कार्य करवाए जाते हैं। जैसे- संभाषण, मौखिक कार्य, चित्रों के प्रयोग द्वारा उत्सुकता, रुचि तथा एकाग्रता उत्पन्न करना।
- द्वितीय अवस्था – अक्षर ज्ञान – इस अवस्था में विविध प्रणालियों द्वारा अक्षर ज्ञान व शब्द बोध करवाया जाता है। ध्वनि और लिपि में सहसम्बन्ध स्थापित करके लिपि ज्ञान कराया जाता है।
- तृतीय अवस्था – स्वतंत्र वाचनाभ्यास- इस अवस्था में बालक स्वतन्त्र रूप से पढ़ने लगता है व पढ़ने में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाती है। कहानी, नाटक व कविता आदि पढ़कर समझ लेता है व उसे पढ़कर आनन्द भी प्राप्त होता है।
- चतुर्थ अवस्था – निर्बाध अर्थ सहित पठन-इस अवस्था तक पहुँचकर बालक पठन क्षमता में इतना प्रवीण हो जाता है कि निर्बाध रीति से, प्रवाह के साथ बिना अटके किसी कठिनाई या दोष के बिना पढ़ता चला जाता है इस अवस्था को प्राप्त कर बालक शब्द से अपरिचित होने पर भी अनुमान द्वारा अर्थ निकाल लेता है व पढ़कर सारांश भी समझ जाता है।
- पंचम अवस्था – समवेत सस्वर पठन- मौन पठन सस्वर पठन विशेष रूप से छोटी कक्षाओं में कराया जाता है। सस्वर पठन में स्वर के उचित आरोह-अवरोह की ओर ध्यान दिया जाता है। सब विद्यार्थी एक से स्वर में वाचन करते हैं । आगे-पीछे या ऊँचे-नीचे स्वर में किया गया वाचन कानों को सुखद प्रतीत नहीं होता है और यह केवल अभ्यास से ही आता है। अभिनय गीत या क्रिया गीत के समवेत पठन के समय उचित वाचन मुद्रा का होना अतिआवश्यक है।
प्रारम्भिक कक्षाओं में विशेष रूप से उच्चारण अभ्यास हेतु समवेत वाचन करवाना चाहिए। बालक इस कार्य को खेल समझता है व खेल ही खेल में वाचन सीख जाता है। माध्यमिक कक्षाओं में समवेत वांचन विधि का आश्रय कभी-कभी लिया जा सकता है। उदाहरणार्थ- यदि कक्षा के अधिकांश विद्यार्थी किसी शब्द का उच्चारण अशुद्ध कर रहे हों जैसे- किंकर्तव्यविमूढ़ को मौन रहकर पाठ करने का अभ्यास डालना चाहिए। प्रारम्भिक कक्षाओं में मौन पाठ का अभ्यास नहीं करना चाहिए क्योंकि इस आयु के बालकों का स्वभाव चंचल होता है वे मौन रहकर वाचन नहीं कर सकते। माध्यमिक और उच्च कक्षाओं में मौन पाठ पर पूर्ण रूप से जोर देना चाहिए । भावी जीवन में संचित ज्ञान कोष का विस्तृत अध्ययन मौन पाठ द्वारा ही करना पड़ता है।
पठन में दो प्रक्रियाएँ निहित होती हैं- प्रथम शब्दों की पहचान, द्वितीय उसकी व्यापकता । शब्दों की पहचान से आशय किसी भाषा में बोलने के लिए प्रयोग किए जाने वाले लिखित चिह्नों से है। व्यापकता से आशय – शब्दों का बोध (Sense), वाक्यों की. रचना तथा उनका आपस में सहसम्बन्ध (Correlations) से है। जहाँ तक पठन के प्रकारों की बात की जाए, तो भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इसके भिन्न-भिन्न प्रकार बताए हैं।
- गहन पठन (Intensive Reading)
- व्यापक / विस्तृत पठन (Extensive Reading)
- अन्वेषण पठन (Searching Reading )
- मौखिक पठन (Oral Reading
- मौन पठन (Silent Reading)
- भाषायी पठन (Linguistic Reading)
- प्रकरण पठन (Content Reading)
- स्किमिंग पठन (Skimming Reading)
- अवलोकन (स्कैनिंग) पठन (Scanning Reading )
- वैश्विक पठन (Global Reading)
ये कुछ पठन के प्रमुख प्रकार हैं। इनमें से हम मौन पठन एवं सस्वर पठन का विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे।
मौन पठन के उद्देश्य (Objectives of Silent Reading)
- ज्ञान
- विद्यार्थियों को लिपि का स्पष्ट ज्ञान कराना और उनके शब्द – सूक्ति भण्डार में वृद्धि करना।
- विद्यार्थियों को वाक्य रचना का ज्ञान कराना और विभिन्न लेखन शैलियों से परिचित कराना ।
- विद्यार्थियों को मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं का सामान्य ज्ञान कराना ।
- कौशल
- विद्यार्थियों को उचित आसन में बैठकर पूर्ण मनोयोग से पठन करने में प्रशिक्षित करना ।
- विद्यार्थियों को अर्थ ग्रहण करते हुए तीव्र गति से मौन पठन करने का अभ्यास कराना ।
- विद्यार्थियों में लिखित सामग्री का अर्थ एवं भाव समझने की योग्यता का विकास करना ।
- विद्यार्थियों को लिखित सामग्री का विश्लेषण कर उसकी समीक्षा करने में निपुण करना ।
- रुचि
- विद्यार्थियों की अध्ययन में रुचि उत्पन्न करना।
- विद्यार्थियों में समीक्षा करने की रुचि उत्पन्न करना।
- अभिवृत्ति
- विद्यार्थियों में भाषा सीखने एवं विभिन्न ज्ञान प्राप्त करने की प्रवृत्ति का विकास करना ।
- विद्यार्थियों में भाषा, साहित्य, देश, जाति और धर्म के प्रति आदर के स्थाई भाव का निर्माण करना ।
- उचित पठन आसन की मुद्रा- मौन पठन में पठन करते समय भी सबसे पहली आवश्यकता उचित ढंग से बैठने की है, जिससे पठनकर्ता को थकान न हो और उसका ध्यान बराबर पाठ्य सामग्री में केन्द्रित रहे। मौन पठन करते समय पठनकर्ता को इस प्रकार बैठना चाहिए कि उसकी रीढ़ की हड्डी सीधी रहे। उसे पाठ्य सामग्री को अपनी आँखों के सामने लगभग 35 सेन्टीमीटर की दूरी पर रखना चाहिए । मौन पठन करते समय न होठ हिलाने चाहिए और न किसी प्रकार की ध्वनि करनी चाहिए, अन्यथा विद्यार्थी को थकान शीघ्र होगी और पठन में उसका मन नहीं लगेगा।
- सक्रिय शब्दकोष – मौन पठन में विद्यार्थी उसी समय रुचि लेते हैं जब पाठ्य सामग्री उन्हें बोधगम्य हो। यह उसी स्थिति में सम्भव है जब विद्यार्थी को शब्द, सूक्ति, लोकोक्तियों एवं मुहावरों का पर्याप्त ज्ञान हो । इस प्रकार सक्रिय शब्दकोष मौन पठन का दूसरा आवश्यक अंग होता है।
- परिचित शब्दकोष – सक्रिय शब्दकोष पर यदि मौन पठन निर्भर करता है तो यह बात भी सही है कि मौन पठन से सक्रिय शब्दकोष में वृद्धि होती है। विद्यार्थियों का सक्रिय शब्दकोष तो प्रायः सीमित होता है। ऐसी स्थिति में पाठ्य सामग्री ऐसी होनी चाहिए जिसमें विद्यार्थियों के सक्रिय शब्दकोष के शब्द नहीं तो परिचित शब्दकोष के शब्द हों। एक-दो अपरिचित शब्दों के आ जाने से केन्द्रीय भाव समझने में तो बाधा नहीं आती किन्तु उससे पठन में बाधा अवश्य आती है। इसलिए शिक्षण करते समय मौन पठन से पहले शब्दों की व्याख्या कर इस बाधा को दूर कर देना चाहिए।
- एकाग्रता – मौन पठन की सफलता पठनकर्ता की मनोदशा पर निर्भर करती है। उसे एकाग्रचित्त होकर पठन करना चाहिए और पाठ्य सामग्री का अर्थ एवं भाव समझते हुए आगे बढ़ना चाहिए। एकाग्रता मौन पठन का आवश्यक अंग होता है।
- सिंहावलोकन-सिंहावलोकन का अर्थ है- सिंह के समान पीछे देखते हुए आगे बढ़ना । मौन पठन के सन्दर्भ में इसका अर्थ है- आगे बढ़ते समय पीछे का स्मरण रखना, इसी स्थिति में पठनकर्ता पाठ्य सामग्री में तारतम्य स्थापित कर सकता है और बिना इस तारतम्य के मौन पठन के उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसलिए यह भी मौन पठन का एक आवश्यक अंग होता है।
- धैर्य – मौखिक पठन की भाँति मौन पठन में भी धैर्य का होना आवश्यक होता है। पठनकर्ता को सदैव धैर्य के साथ उचित गति से पठन करना चाहिए। बहुत अधिक तीव्र या बहुत अधिक मन्द गति से पठन करने में अर्थ की प्रतीति में बाधा पड़ती है। पठन करते समय कभी-कभी ऐसे शब्द आ जाते हैं जिनका अर्थ समझना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में भी पठनकर्ता को धैर्य नहीं खोना चाहिए। उसे एकाग्रचित्त होकर आगे बढ़ना चाहिए, प्रसंग एवं सन्दर्भवश मूलभाव की प्रतीति हो ही जाती है।
- बोध-बोध रहित पठन को पठन नहीं कहा जा सकता है, मौन पठन की सफलता तो बोध में ही निहित है। अर्थ-बोध के लिए आवश्यक है कि पठनकर्ता शब्दों, सूक्तियों, लोकोक्तियों और मुहावरों का सन्दर्भवश अर्थ समझते हुए आगे बढ़ें, विराम चिह्नों से अर्थ की स्पष्ट अनुभूति करें और अनुभूत ज्ञान से इस ज्ञान का सम्बन्ध जोड़ते हुए भावानुभूति करें। लिखित सामग्री के भाव एवं विचारों की पूर्ण प्रतीति को ही बोध कहा जाता है। बोध के अभाव में मौन पठन का कोई महत्त्व नहीं होता है।
- गहन पठन- सामान्यतः गूढ़ भाव एवं विचारों को उच्चस्तरीय भाषा एवं शैली में अभिव्यक्त किया जाता है। ऐसी लिखित सामग्री का अर्थ एवं भाव समझने के लिए पाठक को पूर्ण मनोयोग से, बड़े धैर्य के साथ एवं एक – एक शब्द का अर्थ एवं भाव समझने का प्रयास करते हुए पठन करना होता है। किसी पाठ्य सामग्री को मौन रूप में, पूर्ण मनोयोग से, बड़े धैर्य के साथ, उसके प्रत्येक अंश का अर्थ एवं भाव समझने का प्रयास करते हुए पढ़ने की क्रिया को गहन पठन कहा जाता है। उच्च साहित्य एवं दर्शन आदि विषयों के अध्ययन हेतु गहन पठन की ही आवश्यकता होती है। गहन पठन के लिए यह आवश्यक है कि पठनकर्ता का अपना शब्द भण्डार हो और उसमें कल्पना, चिन्तन-मनन और विश्लेषण करने की क्षमता हो ।
- द्रुत पठन–सामान्यतः घटनाओं का वर्णन सामान्य भाषा-शैली में किया जाता है। कहानियाँ और जीवनियाँ भी प्राय: सामान्य भाषा शैली में लिखी जाती हैं। मनोरंजन साहित्य की रचना भी प्रायः सामान्य भाषा में ही की जाती है। ऐसी लिखित सामग्री को पढ़कर समझने में पाठक को कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वह उसे तीव्र गति से पढ़कर उसका अर्थ एवं भाव समझ सकता है। किसी पाठ्य सामग्री को मौन रूप में, तीव्र गति से पढ़कर उसके अर्थ एवं भाव को ग्रहण करने की क्रिया को द्रुत पठन कहा जाता है। सामान्य पाठ्य सामग्री, जैसे- समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं तथा मनोरंजन साहित्य आदि के अध्ययन हेतु द्रुत पठन की आवश्यकता होती है। द्रुत पठन के लिए यह आवश्यक है कि पठनकर्ता का अपना विस्तृत शब्द भण्डार हो और उसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का सामान्य अनुभव हो ।
सस्वर पठन के उद्देश्य (Objectives of Loud Reading)
- ज्ञान
- विद्यार्थियों को लिपि का स्पष्ट ज्ञान कराना और उनके शब्द – सूक्ति भण्डार में वृद्धि करना।
- विद्यार्थियों को वाक्य-रचना का ज्ञान कराना और विभिन्न लेखन शैलियों से परिचित कराना ।
- विद्यार्थियों को मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं का सामान्य ज्ञान कराना।
- कौशल
- विद्यार्थियों को उचित आसन में उचित भाव मुद्रा के साथ पूर्ण मनोयोग से सस्वर पठन करने में प्रशिक्षित करना ।
- विद्यार्थियों को गद्य का स्पष्ट अक्षरोच्चारण, शुद्ध शब्दोच्चारण, उचित ध्वनि-निर्गम एवं भावानुकूल ब तथा प्रवाह के साथ मौखिक पठन करने प्रशिक्षित करना ।
- विद्यार्थियों को कविता का भाव समझने एवं उचित आरोह-अवरोह के साथ पठन करने में प्रशिक्षित करना ।
- विद्यार्थियों को लिखित सामग्री का केन्द्रीय भाव ग्रहण करने और उसकी समीक्षा करने में प्रशिक्षित करना ।
- रुचि
- विद्यार्थियों की अध्ययन में रुचि उत्पन्न करना ।
- विद्यार्थियों में पठन सामग्री का विश्लेषण कर उसमें मूल्यांकन की रुचि उत्पन्न करना।
- अभिवृत्ति
- विद्यार्थियों में भाषा सीखने एवं विभिन्न ज्ञान प्राप्त करने की प्रवृत्ति का विकास करना ।
- विद्यार्थियों में भाषा, साहित्य, देश, जाति और धर्म के प्रति आदर के स्थाई भाव का निर्माण करना ।
- उच्चारण की शुद्धता – सस्वर पठन कराते समय उच्चारण की शुद्धता को ध्यान में रखना चाहिए। अध्यापक को पढ़ाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बालक शब्दों का उच्चारण सही करे क्योंकि गलत उच्चारण से शब्दों का अर्थ बदल जाता है साथ ही गलत उच्चारण एक बार सीख जाने के पश्चात् उसको शुद्ध कराने में बहुत परिश्रम करना पड़ता है।
- उचित लय एवं गति – सस्वर पठन के वक्त पढ़ने की लय एवं गति का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। पठन की गति समान होनी चाहिए। वह इतना तेज नहीं होना चाहिए कि शोरगुल होने लगे और न ही इतना धीरे ही कि कुछ समझ में ही न आए । पाठ्य-वस्तु को धारा प्रवाह पढ़ते समय उसकी अर्थ संगति को भी ध्यान में रखना चाहिए।
- उचित हाव-भाव- पठन करते समय पाठ्य-सामग्री के भावों के अनुसार ही पाठक को हाव-भाव का प्रदर्शन करना चाहिए। प्रेम, क्रोध, वीरता, करूणा आदि के अनुसार ही पाठक के हाव-भाव परिवर्तित होने चाहिए।
- स्वर माधुर्य – पढ़ते समय पाठक की वाणी में मधुरता होनी चाहिए। भावों एवं विचारों के अनुसार ही उतार-चढ़ाव के साथ मधुरवाणी में पढ़ना चाहिए। उसका प्रत्येक वर्ण स्पष्ट होना चाहिए ।
- उचित बल व विराम-सस्वर पठन के समय पाठक को पाठ्य-वस्तु के भाव के अनुसार उचित स्वराघात एवं बलाघात का प्रयोग करना चाहिए। पढ़ते समय विराम चिह्नों के प्रयोग का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि विराम चिह्नों के गलत प्रयोग से वाक्यों का अर्थ उचित रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता है।
- अंग – संचालन – पढ़ते समय अंग-संचालन से विषय-वस्तु में सजीवता आ जाती है। अंग-संचालन प्रकरण के प्रभाव व प्रवाह दोनों को बढ़ा देता है किन्तु अंग-संचालन के समय यह ध्यान भी रखना चाहिए कि यह अनावश्यक रूप में न प्रयुक्त किया जाए क्योंकि यह अशोभनीय के साथ-साथ प्रकरण के प्रभाव को भी कम कर देता है।
- उचित वाचन मुद्रा पठन के समय पठन मुद्रा का विशेष स्थान होता है। पढ़ते समय पुस्तक को बाएँ हाथ से पकड़ना चाहिए एवं पुस्तक और आँखों के मध्य लगभग 30 सेमी. की दूरी होनी चाहिए। बैठकर या खड़े होकर पढ़ते समय छात्र की रीढ़ की हड्डी सीधी होनी चाहिए। छात्रों को पढ़वाते समय इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए।
- प्रभावोत्पादकता – सस्वर पठन एक कला है जिसे केवल अभ्यास के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। कोई विषय-वस्तु तभी प्रभावशाली होती है जब उसे उचित धारा – प्रवाह में पढ़ा जाए। उचित धारा- प्रवाह में किया गया सस्वर पाठ श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर देता है।
- उचित पठन आसन एवं मुद्रा-सस्वर पठन करते समय सबसे पहली आवश्यकता है, उचित ढंग से बैठना अथवा खड़े होना जिससे थकान न हो और पठनकर्ता का ध्यान पाठ्य सामग्री में केन्द्रित रहे। यदि बैठकर पठन किया जाए तो कुर्सी पर इस प्रकार बैठना चाहिए कि रीढ़ की हड्डी सीधी रहे और पैर 90 डिग्री का कोण बनाते हुए लटके रहें ।
यदि खड़े होकर पठन किया जाए तो भी बिल्कुल सीधे खड़े होना चाहिए और पुस्तक को बाएं हाथ से पकड़कर पठन करना चाहिए। यदि जमीन पर बैठकर पठन किया जाए तो भी इस प्रकार बैठना चाहिए कि रीढ़ की हड्डी सीधी रहे और पाठ्य सामग्री आँखों से 35 सेन्टीमीटर की दूरी पर रहे। भावानुसार हाथ-पैर, आँख- नाक, सिर-भौं आदि अंगों का सहज संचालन एवं भाव प्रदर्शन भी आवश्यक होता है।
- स्पष्ट अक्षरोच्चारण – शब्द की इकाई अक्षर होते हैं। यदि शब्दोच्चारण में प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण नहीं होता तो शब्द का उच्चारण नहीं किया जा सकता हैं। अतः सस्वर पठन करते समय इसका ध्यान रखना चाहिए।
- शुद्ध शब्दोच्चारण – शब्दों के शुद्ध उच्चारण पर ही अर्थ की प्रकृति और शुद्ध लेखन दोनों निर्भर करते हैं। अतः पठनकर्ता को सदैव शुद्ध उच्चारण के साथ पठन करना चाहिए अन्यथा सम्पूर्ण के स्थान पर अंश के भाव की प्राप्ति का भय सदैव बना रहेगा।
- उचित ध्वनि निर्गम-स्पष्ट अक्षरोच्चारण शब्दोच्चारण, इन दोनों के लिए आवश्यक है कि ध्वनियों को उनके अपने स्थान से उच्चारित किया जाए, उन्हें उचित स्वर में मुँह से निकाला जाए । पठन का यह बहुत आवश्यक अंग होता है।
- बल-पठन करते समय आवश्यक शब्दों पर बल देना भी आवश्यक होता है। शिक्षक को आदर्श पठन करते समय इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए। शब्दों पर बल देने से वाक्यों के अर्थ में अन्तर आ जाता है।
- धैर्य — धैर्य भी पठन का आवश्यक तत्त्व है। पठनकर्ता को सदैव धैर्य के साथ उचित गति में पठन करना चाहिए। बहुत अधिक गति अथवा धीमी गति से पठन करने में अर्थ की प्राप्ति में बाधा पड़ती है।
- सुस्वरता – पठन का यह अन्तिम तत्त्व है। इसका अर्थ है भाव के अनुसार वाक्य के शब्दों में स्वर का उतार-चढ़ाव दिखाना, वाणी में मधुरता प्रदर्शित करना और भावानुसार उचित आरोह-अवरोह के साथ पठन करना। इससे पठनकर्ता को भाव की प्रतीति में सहायता मिलती है। श्रोता की दृष्टि से भी यह परम आवश्यक है अन्यथा श्रोता की श्रवण में रुचि ही नहीं रहेगी।
इस प्रकार उनकी मौखिक एवं लिखित दोनों प्रकार की भाषाओं में सुधार होता है । कक्षा शिक्षण की दृष्टि से शिक्षक के आदर्श मौखिक पठन से कक्षा में समरसता बनी रहती है और जब विद्यार्थी शिक्षक का अनुकरण कर स्वयं मौखिक पठन करते हैं तो उनके पठन कौशल का विकास होता है ।
