F-2

बचपन और बाल विकास

बचपन और बाल विकास

F–2 बचपन और बाल विकास

प्रश्न 11. कुपोषण क्या है ? कुपोषण बच्चों के विकास को किस प्रकार प्रभावित
करता है। कुपोषण से बचने के क्या-क्या उपाय हो सकते हैं?
उत्तर―जन्म के पश्चात जब शिशु स्तन-पोषण द्वारा पोषित होता रहता है तब वह माँ
के दूध से अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक पौष्टिक तत्वों को प्राप्त
करता रहता है, किन्तु जब किन्ही कारणवश शिशु को माँ के दूध द्वारा पोषित नहीं किया
जाता है या स्तनपान छुड़ाने के बाद जब शिशु को ऊपर दूध और आहार द्वारा पोषित किया
जाता है तो उस अवस्था में शिशु आहार पर समुचित ध्यान देना आवश्यक होता है। यदि
शिशु आहार त्रुटिपूर्ण होता है तो इसका दुष्प्रभाव शिशु की वृद्धि व विकास पर पड़ता है
और शिशु कुपोषण का शिकार हो जाते हैं।
   कुपोषण से तात्पर्य शिशुओं को आहार द्वारा आयु और शारीरिक माँग के अनुसार पौष्टिक
तत्वों को प्राप्त न होना है। आहार में पौष्टिक तत्वों की कमी होने पर शिशुओं का शारीरिक
विकास अवरुद्ध हो जाता है। भार में कमी आ जाती है। क्रियाशीलता कम हो जाती है।
शिशु सुस्त व थका दिखाई देता है। यदि वह होनता लम्बे समय तक बनी रहती है तो शिशुओं
की रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और उपर्युक्त लक्षणों में वृद्धि होती जाती है। यदि
समयानुसार पौष्टिक भोजन दिया जाता है तो धीरे-धीरे इन लक्षणों में कमी आने लगती है और
शिशु पहले की तरह स्वस्थ व सामान्य हो जाता है।
शिशुओं व बालकों में कुपोषण के लक्षण–यदि कोई मों अपने शिशुओं तथा
बालकों में निम्नलिखित लक्षणों को देखें तो उसे तुरन्त यह जान लेना चाहिए कि उसका बच्चा
कुपोषित है।
1. वजन में आयु के अनुसार वृद्धि न होना।
2. भूख न लगना।
3. शारीरिक क्रियाशीलता में कमी आना।
4. जल्दी थक जाना।
5. जोड़ों में दर्द की शिकायत होना।
6. बहुत पतला या बहुत मोटा होना।
7. त्वचा, नाखून और आँखों में पीलापन होना।
8. बालक का बेचैन व चिड़चिड़ा होना।
9. आँखों के नीचे काले गड्डे पड़ जाना।
10. बालो का रुखा व चमकहीन हो जाना तथा अधिक झड़ना।
11. सिर दर्द, आँखों में थकान तथा तेज रोशनी की ओर देखने में परेशानी होना।
12. मसूड़ों से खून आना तथा कोमल व स्पंजी हो जाना।
13. मुँह के कोनों का फटना तथा लाल रहना।
14. संक्रमण द्वारा शीघ प्रभावित हो जाना।
शिशुओं और बालकों में होने वाले कुपोषणजन्य रोग―कुपोषण के कारण शिशुओं
और बालकों को निम्नलिखित रोग हो जाते हैं :
प्रोटीन की कमी से ― क्वाशियकर रोग, सूखा रोग
विटामिन ‘ए’ की कमी से ― रतौधी, जिरोसिस, अंधापन
विटामिन ‘बी’ की कमी से ― बेरी-बेरी रोग
विटामिन ‘सी’ की कमी से ― स्कर्वी रोग
विटामिन ‘डी’ की कमी से ― रिकेट्स रोग (अस्थियों का टेढ़ा होना)
आयोडीन की कमी से ― घेंघा या गण्डमाल रोग
लौह लवण की कमी से ― रक्ताल्पता या एनीमिया रोग
       चूँकि उपर्युक्त सभी रोग पौष्टिक तत्वों की हीनता के कारण होते है। अतः आहार में इनको
सम्मिलित कर देने पर शिशुओं को रोग मुक्त किया जा सकता है। प्रारंभिक अवस्था में कुपोषण
अधिक हानिकारक नहीं होता है। लेकिन लम्बे समय तक कुपोषण रहने पर इसके गम्भीर
दुष्परिणाम सामने आते हैं। अतः शिशुओं के पोषण पर समुचित ध्यान देना आवश्यक होता
है। जैसे ही माता-पिता को अपने शिशुओं में कोई कुपोषण का लक्षण दिखाई दे तो तुरन्त ही
चिकित्सक से परामर्श कर आहार तथा दवा और टॉनिक द्वारा उसका उपचार करना चाहिए।
कुपोषण के कारण शिशुओं और बालको के कुपोषण के कई कारण होते है। जैसे―
निर्धनता, अशिक्षा, पोषण सम्बन्धी अज्ञानता, भोजन सम्बन्धी अनुचित आदतें, स्वच्छता का
अभाव आदि
        कुपोषण से बचाव― कुपोषण गम्भीर स्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। अतः इससे बचाव
जरूरी है। कुपोषण से बचने के लिए निम्नलिखित प्रयास करने चाहिए:
1. शिशु आहार में दूध के साथ अन्य भोज्य समूहों का पर्याप्त मात्रा में सम्मिलित
करना चाहिए।
2. शिशु आहार सुपाच्य होना चाहिए।
3. शिशु के आहार के समय में नियमितता होनी चाहिए।
4. शिशु आहार तैयार करते समय स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
5. शिशुओं का भोजन इस तरह पकाना चाहिए कि उसकी पौष्टिकता नष्ट न हो।
6. दूध, मक्खन, पनीर, अण्डा, हरी व पीली सब्जियाँ, फल तथा अनाज व दालो
को प्रतिदिन के आहार में अवश्य सम्मिलित करें।
7. भोजन को अधिक मिर्च मसालेदार व तला भुना न बनाएँ।
8. शशुओं को अच्छी तरह चबा-चबाकर खाने के लिए प्रेरित करें।
9. बच्चे को शांत वातावरण में भोजन दें। क्रोध, तनाव तथा भय की स्थिति में न दें।
10. भोजन में आयु के अनुसार समस्त पौष्टिक तत्वों को पर्याप्त मात्रा में सम्मिलित
करें।
कुपोषण की पहचान―कुपोषण की प्रारंभिक अवस्था में शिशुओं के भार में गिरावट
आती है तथा आयु के अनुसार उनके भार में सामान्य रूप से वृद्धि नहीं होती है। नाचे सामान
बच्चों के वजन की सारणी दी जा रही है जिसके द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि शिशु
सुपोषित है या कुपोषित।
आयु                            भार
जन्म के समय          ― 6 पौण्ड
2 सप्ताह                 ― 7½ पौण्ड
1 माह                     — 8 पौण्ड
2 माह                     — 9½ पौण्ड
3 माह                     — 11½ पौण्ड
4 माह                     — 13 पौण्ड
5 माह                     — 14 पौण्ड
6 माह                     — 15 पौण्ड
7 माह                     — 16 पौण्ड
8 माह से 12 माह     — 18-20 पौण्ड
उपर्युक्त तालिका के आधार पर एक स्वस्थ व सामान्य शिशु की भार वृद्धि होनी चाहिए।
यदि शिशु की वृद्धि इस क्रम में नहीं होती है तो कुपोषित समझना चाहिए और चिकित्सक
से परामर्श लेकर उसका समुचित निदान करना चाहिए।
प्रश्न 12. संक्रामक बीमारियाँ शारीरिक विकास को किस प्रकार प्रभावित करती
हैं ? इनकी जानकारी शिक्षक के लिए किस प्रकार मददगार हो सकती है?
उत्तर―शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में संक्रामक रोग एक महत्वपूर्ण
कारक है। जिन बच्चों की जन्म से ही रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है उनके बार-बार
बीमार पड़ने की संभावना अधिक होती है तथा उचित पोषण मिलने पर भी ऐसे बच्चों का
शरीर उसे सही तरीके से ग्रहण नहीं कर पाता है। जो बच्चे जन्म से स्वस्थ होते हैं अथवा
जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है। ऐसे बच्चे भी वातावरण से अथवा अन्य रोगी
व्यक्ति के संपर्क में आने पर बीमार हो सकते है। कुछ बच्चे जन्म से स्वस्थ होते है परन्तु
उचित पोषण न मिलने पर कुपोषण के शिकार हो जाते है। ऐसे बच्चों के बीमार होने तथा
अन्य बीमारियों से संक्रमित होने की संभावना बढ़ जाती है। अतः बच्चों का इन बीमारियो
से बचाव आवश्यक है । इन बीमारियों के बचाव हेतु अस्पतालों में मुफ्त टीकाकरण की व्यवस्था
होती है। बच्चों के माता-पिता, परिवार व शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि बच्चों का सही समय
पर टीकाकरण करवाएँ व समाज के अन्य लोगों को भी इस हेतु प्रेरित करें ।
     बहुत सारी शारीरिक एवं मनोगतिक बीमारियों या विकास की अपर्याप्तता से संबंधित
जानकारी बाल्यावस्था में हो जाने पर दूर किया जा सकता है। संवेदी दोषों या कुछ नामक
अक्षमताओं का उपचार कर उनको सुधारा जा सकता है। इन सारी अक्षमताओं में देखने,बोलने
या सुनने वाली कठिनाइयाँ भी आती है। जटिल बीमारियों या दाँतों के दोषों को भी दूर किया
जा सकता है या दूर करने की कोशिश की जा सकती है। अतः बच्चों के शारीरिक एवं
मनोगतिक विकास का निदानात्मक मूल्य भी है।
रोग―शारीरिक बीमारियाँ शारीरिक विकास को विशेष रूप से प्रभावित करती है। बचपन
की गम्भीर बीमारियों तथा लम्बे समय तक चलने वाली बीमारियां बालक के स्वस्थ शारीरिक
विकास में रुकावट उत्पन्न करती है क्योकि जब तक बालक रोगी रहता है तब तक उसका
शारीरिक विकास सामान्य गति से नहीं होता है। इसके विपरीत जो बालक स्वस्थ रहते है
उनका शारीरिक विकास सामान्य ढंग से होता है फलस्वरूप उनके सभी अंग सही समय पर
परिपक्वता प्राप्त कर लेते हैं।
    इसके अतिरिक्त बीमारियों के उपचार व निदान के लिए जो जीवनरक्षक औषधियाँ प्रयोग
में लाई जाती हैं, वे तात्कालिक तो रोग का निदान करती है। किन्तु दूसरी ओर शरीर को
हानि भी पहुंचाती हैं। बालकों के शारीरिक विकास पर रोगों का क्या प्रभाव पड़ता है। यह
इस बात पर निर्भर करता है कि रोग की प्रकृति क्या है और उसकी तीव्रता कितनी है। अलग-
अलग प्रकार के रोग भिन्न-भिन्न रूपों में शारीरिक विकास को प्रभावित करते है। जैसे―
     (i) सामान्य बीमारियाँ–बच्चों में सर्दी-जुकाम, दस्त, उल्टी, ज्वर आदि सामान्य
बीमारियाँ पाई जाती है जो बदलते मौसम के कारण होती है। अनेक माता-पिता बच्चों में होने
वाली इन बीमारियों की परवाह नहीं करते हैं, किन्तु यदि बीमारियों में लापरवाही बरती जाती
है तो ये बाद में गम्भीर रोगों को जन्म देती है। जैसे—सर्दी-जुकाम का उपचार न होने से
वह बाद में श्वसन रोगों का कारण बन सकते हैं।
     (ii) दीर्घकालीन बीमारियाँ― कुछ बीमारियाँ ऐसी होती है जो लम्बे समय तक शरीर
में रहती हैं और जब तक ये शरीर में रहती है शरीर के विकास को अवरुद्ध किए रहती
है तथा रोग समाप्ति के बाद भी उनका प्रभाव अंगों पर बना रहता है। जैसे―टायफाइड,
मलेरिया, तपेदिक, रियूमेटिक ज्वर आदि । रियूमेटिक ज्वर से पीड़ित बालक का हृदय कमजोर
हो जाता है, तपेदिक में फेफड़े और टायफाइड में पाचन तंत्र कमजोर हो जाता है। जिन्हें
पुनः अपनी पूर्व स्थिति में आने में काफी समय लगता है।
      (iii) संक्रामक बीमारियाँ― संक्रामक बीमारियों के अंतर्गत चेचक, खसरा, हैजा,
पोलियो, डिप्थीरिया आदि बीमारियाँ है। इन बीमारियों की तीव्रता बहुत अधिक होती है, यह
शरीर में एक साथ कई अंगों को प्रभावित करती हैं। इनके ठीक होने के बाद भी इनका प्रभाव
काफी समय तक शरीर पर बना रहता है जो शारीरिक विकास में अवरोध उत्पन्न करता है।
       (iv) काल्पनिक बीमारियाँ कभी-कभी बालकों में कोई बीमारी नहीं होती है किन्तु किन्हीं
कारणों से जैसे स्कूल न जाने की इच्छा होने पर या दूसरे उनकी ओर अपना ध्यान आकर्षित
करें इस हेतु वे स्वयं नई-नई बीमारियो का लक्षण अपने आप में काल्पनिक रूप से देखने
लगते हैं। शारीरिक क्रियाशीलता होने पर भी वे अपने को थका व कमजोर महसूस करते
है। यह स्थिति भी बालकों के शारीरिक विकास को अवरुद्ध करती है।
        अतः बालक की बीमारी, साधारण हो या गम्भीर, सामान्य हो या संक्रामक उसपर पर्याप्त
ध्यान देना चाहिए। यदि बालकों को कोई काल्पनिक और मनोवैज्ञानिक रोग है तो उसका निदान
भी मनोचिकित्सकों द्वारा करना चाहिए क्योंकि बीमारियाँ बालकों की शारीरिक क्षमता को कम
कर देती है। उनमें अनेकों प्रकार के संवेगात्मक तनाव उत्पन्न करती है, जिससे सामाजिक
समायोसन में बाधा उत्पन्न होती है। इसलिए प्रारम्भ से ही माता-पिता को बालकों के स्वास्थ्य
को ध्यान देना चाहिए, उन्हें सन्तुलित व पौष्टिक भोजन देना चाहिए, संक्रामक रोगो से बचाव
हेतु समय पर टीके लगवाने चाहिए। सामान्य बीमारियों को अनदेखा नहीं करना चाहिए वरन
उनका तुरन्त इलाज कराना चाहिए। अदि बालक को कोई रोग बार-बार जल्दी-जल्टी होता है
तो उसका उपयुक्त चिकित्सक द्वारा इलाज कराना चाहिए। दीर्घकालीन तथा संक्रामक बीमारियों
की समाप्ति के बाद भी काफी लम्बे समय तक स्वास्थ्य को उचित देखभाल करनी चाहिए तथा
स्वच्छता और बालक के आहार पर नियंत्रण रखना चाहिए। क्योकि बालको की बीमारियाँ
शारीरिक विकास को ही नहीं, विकास के विभिन्न क्षेत्रों को भी प्रभावित करती है। जैसे―
(1) बीमारियों में शारीरिक विकास की गति धीमी हो जाती है चाहे वह तीव्र विकास
की अवस्था क्यों न हो।
(2) बीमारियों से शारीरिक शक्ति में कमी आती है जिससे क्रियाशीलता में कमी आ
जाती है। थोड़ा-सा कार्य करने पर ही थकान होने लगती है। बालक सुम्न व आलसी
हो जाते हैं।
(3) बीमारियों के कारण बालकों में संवेगात्मक तनाव रहता है जिससे बालक चिड़चिड़े,
जिद्दी और क्रोधी हो जाते है। ये स्थितियाँ सामाजिक समायोजन न बाधा उत्पन्न
करती हैं।
(4) बीमारियों के कारण बालक कुछ समय के लिए अपने समूह के साथियों से अलग
हो जाता है जिससे वह कुछ समय के लिए विभिन्न सामाजिक प्रतिमानों
को सीखने से वंचित रह जाता है। फलस्वरूप सामाजिक विकास में व्यवधान
उत्पन्न होता है।
(5) बालकका सांगीण विकास तथा व्यक्तित्व का निधारण उसक स्वस्थ सामाजिक,
मानसिक, शारीरिक और संवेगात्मक विकास से होता है, किन्तु बीमारियों के कारण
सभी क्षेत्रों का विकास किसी-न-किसी रूप में प्रभावित होता है।
शारीरिक विकास व्यक्तित्व के सभी पक्षों के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है इसलिए इस पर विशेष ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है। बालक बचपन तथा
किशोरावस्था का एक सार्थक भाग विद्यालय में शिक्षकों के साथ बिताते हैं। शिक्षक को वे
अपना आदर्श मानते है तथा उनके व्यवहार से प्रभावित होते हैं। ऐसे में शिक्षक उनके शारीरिक
विकास को प्रभावित करने वाले संक्रामक बीमारियों के बारे में बच्चों को शिक्षा देते हैं उन्हें
संक्रामक बीमारी के नकारात्मक प्रभाव जैसे-शारीरिक वृद्धि, वाणी दोष, बहरापन अस्थि
विकार के बारे में जानकारी देते है तथा उन्हें होने वाले बीमारियों पर ध्यान देकर उन्हें दूर
करने का प्रयास करते है। अक्सर बच्चे असमान व्यवहार का प्रदर्शन करते है तो शिक्षक
इसकी बारीकियों अथवा मूल कारणों की पहचान कर उसे दूर करने का प्रयास करता है।
इससे बच्चों को अपने व्यवहार में समायोजन में समर्थक मिलता है। हम शिक्षक के रूप में
बच्चों के शारीरिक विकास को ध्यान में रखकर उसके साथ अनुकूल व्यवहार कर सकते हैं।
प्रश्न 13. सृजनात्मकता को परिभाषित कीजिए। कक्षाकक्ष परिस्थितियों में
सृजनात्मकता को बढ़ावा देने के तरीकों की चर्चा कीजिए।
अथवा, सृजनात्मकता को परिभाषित कीजिए तथा सृजनशील बालक को विशेषताएँ
लिखिए । विद्यालय में बालकों की सृजनशीलता को विकसित करने के लिए उपयुक्त
नीतियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर― सृजनशीलता का अर्थ―सृजनात्मकता का अंग्रेजी भाषा का पर्याय Creativity
है जिसका अर्थ होता है ‘By way of creation’ | इसका हिन्दी अर्थ है ‘उत्पादन से’ । इस
प्रकार सृजनात्मक का शाब्दिक पर्याय “उत्पादन से सम्बन्धित” हुआ। प्रत्येक व्यक्ति के
क्रियाकलापों का महत्त्वपूर्ण गुण सृजनात्मकता है। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता होती
है। आवश्यकता उसके विकसित करने की होती है। शिक्षाविद् बिनै के अनुसार, “एक
व्यक्ति लकड़ी की मनचाही कलात्मक वस्तु का निर्माण कर सकता है, मूर्तिकार व वास्तुविद्
भी अपनी-अपनी कलाओं की छाप छोड़ते हैं। यही तो सृजनात्मकता है।” इस प्रकार हम
कह सकते हैं कि सृजनात्मकता मानव को ईश्वर प्रदत्त एक अद्वितीय वरदान है। यह किसी
विशेष गुण की या विशेष व्यक्ति द्वारा दी गई देन नहीं है।
सृजनशीलता की प्रक्रिया―सृजनशीलता को समझने के लिए इसकी प्रक्रिया को समझना
आवश्यक है।
वालस के अनुसार इनकी निम्न अवस्थाएँ है―
1. तैयारी की अवस्था-सृजनशीलता की इस अवस्था में समस्या पर ध्यान केन्द्रित
प्रदत्तों पर व्यवस्थापना, समस्या परिभाषीकरण एवं सार्थक विचारों के द्वारा समस्या के अन्त
या हल पर पहुँच जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति में कुछ करने की इच्छा होती है। अतः
व्यक्ति इस अवस्था में अध्ययन करता है, सीखता है व तथ्यों को कई प्रकार से सम्बन्धित
करता है।
2. परिपक्वता की अवस्था―जब तैयारी की अवस्था में समस्या का हल नहीं निकलता
है तो तनाव होता है। व्यक्ति तनाव के दौरान अपनी समस्या से कुछ समय के लिए मुख
मोड़ लेता है। यही द्वितीय अवस्था है। वह अपने विचारों का परीक्षण, पुनर्परीक्षण, विचारों
का व्यवस्थापन, पुनर्व्यवस्थापन करता है। अन्तर्दृष्टि के आधार, प्रयत्न एवं भूल के आधार
पर निर्णय लेता है। इस अवस्था में किस प्रकार की क्रिया दिखाई नहीं देती है। समस्या
का समाधान अचेतन रूप में होता है।
3. प्रकाशन की अवस्था—इस अवस्था में अचानक ही विचारक के मन में समस्या
का हल सूझ जाता है। इसे यूरेका की संज्ञा दी जाती है। समस्या के विभिन्न घटकों के
बीच सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
4. दोहराव/सत्यापन की अवस्था―इस अवस्था में विचार या समस्या के हल का
सत्यापन किया जाता है। सत्यापन में व्यक्ति चिन्तन, मूल्यांकन व समीक्षा करते है व पुनः
संशोधन भी किया जाता है।
टारेन्स व मायर्स ने निम्न अवस्थाओं का उल्लेख किया है―
(i) समस्या के प्रति संवेदनशीलता।
(ii) प्राप्त सूचनाओं को एक साथ प्रस्तुत करना ।
(iii) समस्या के हलों को खोजना ।
(iv) परिणामों का सम्प्रेषण करना ।
स्टेन ने सृजनशीलता की प्रक्रिया में निम्न चरणों को लिया है―
(i) तैयारी,
(ii) उपकल्पना निर्माण,
(iii) उपकल्पना परीक्षण
(iv) निष्कर्षों को जन-सामान्य तक पहुँचना ।
उपर्युक्त अवस्थाएँ स्थिर नहीं है। भिन्न-भिन सृजनशील व्यक्ति भिन्न-भिन्न अवस्थाओं
से होकर गुजरते हैं―
(i) सृजनात्मकता में उच्च बौद्धिक क्षमता होती है।
(ii) सृजनात्मकता में नवीनता तथा मौलिकता विद्यमान होती है।
(iii) सृजनात्मकता के द्वारा किया गया कार्य समाज द्वारा मान्य होता है।
(iv) सृजनात्मकता के कई क्षेत्र तथा आयाम होते है।
(v) सृजनात्मकता के द्वारा समस्या की उपस्थिति का बोध होता है।
(vi) सृजनात्मकता में नम्यता होती है।
(vii) सृजनात्मकता में सोचने-विचारने के क्रम में केन्द्रीयकरण के स्थान पर विविधता
एवं प्रगतिशीलता पाई जाती है।
(viii) सृजनात्मकता के अन्तर्गत बालक में चिन्तन, कल्पना, तर्क तथा अन्य क्रियाएँ करने
की शक्ति होती है जिसे परीक्षणों द्वारा मापा जा सकता है।
           सृजनशील बालक की पहचान― सृजनशील बालक विद्यमान, समाज एवं राष्ट्र की
धरोहर होते हैं। अत: ऐसे बालकों की प्रतिभा की खोज करना समाज हित में रहता है। ऐसे
बालकों की पहचान हम टारेन्स द्वारा प्रस्तावित निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर कर
सकते हैं―
(i) वह बालक कक्षा की गतिविधियों को पूरी जानकारी रखते हुए भी बाह्य दुनिया
की जानकारी रखने का प्रयास करने वाला होगा।
(ii) उस बालक को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वह समय नष्ट कर रहा है, दिवास्वप्न
देख रहा है। लेकिन, वह ध्यानमग्न रहता हो।
(iii) वह बालक कक्ष की पढ़ाई के मध्य भी अपनी अभ्यास-पुस्तिका में रेखाचित्र बनाता
रहता हो।
(iv) वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग करते हुए निरीक्षण करता हो।
(v) वह बालक सौंपे गए निर्धारित कार्यों से परे चला जाता हो।
(vi) वह चित्रों को व्याख्या विस्तारपर्दूक करता हो।
(vii) वह बिना उत्तेजित हुए अपने समय का उपयोग कर सकता है।
(viii) वह दूसरों से भिन्न तरीकों से पोशाक पहनना पसन्द करता है।
(ix) वह क्यों और कैसे, इन प्रश्नों से परे जाकर खो जाता है।
(x) खेल खेलते समय संलग्न निर्देशों से आगे चला जाता है।
(xi) वह साधारण चीजों से अपने आपको प्रसन्न रख सकता है।
(xii) वह अपने कार्यों और खोजों को दूसरे को बताने का प्रयास करता है।
(xiii) वह नवीनता लाने की चेष्टा को दूसरों को बताने का प्रयास करता है।
(xiv) मानव निर्देशों से अलग हटकर कार्यों का सम्पादन करता है।
(xv) यह वह निम्न प्रतीत होता है तो भी परिणामों की परवाह नहीं करता है।
बुद्धि एवं सृजनात्मकता में अन्तर—बुद्धि एवं सृजनात्मकता में अन्तर निम्न प्रकार है―
(i) बुद्धि वंश―परम्परा से प्राप्त तथा जन्मजात होती है जबकि सृजनात्मकता का विकार
वातावरण पर निर्भर करता है।
(ii) बुद्धि अत्यधिक जटिल मानसिक प्रक्रिया है, जबकि सृजनात्मकता चिंतन की प्रक्रिया
है।
(iii) सृजनात्मकता में अर्जित कौशलों का प्रयोग किया जाता है, जबकि बुद्धि उन कौशल
को समस्याओं को हल करने में सहायता देती है।
(iv) बुद्धि का क्षेत्र अति विस्तृत एवं व्यापक होता है जबकि सृजनात्मकता का क्षेत्र सीमित
होता है।
(v) बुद्धि और सृजनात्मकता का विशेष सम्बन्ध नहीं होता है। बुद्धिमान बालक में
सृजनात्मकता हो, यह आवश्यक नहीं है। ठीक इसके विपरीत सृजनात्मक बालर
सदैव बुद्धिमान ही नहीं होते हैं।
सृजनशीलता का पोषण―एक सृजनशील बालक का पोषण निम्नलिखित बिन्दुओं/
विधियों के आधार पर किया जा सकता है।
(i) प्रार्नस तथा मोडो ने सृजनात्मक चिन्तन में प्रात्यक्षिक, सांवेगित तथा सांस्कृतिक
अवरोधों का विश्लेषण किया है। निरीक्षण का कम क्षमता, अ-नमनीय दृष्टिकोण,
समस्या के विभिन्न पहलुओं को परिभाषित न कर पाना ।
(ii) कक्षा का वातावरण अधिकार तथा दवाव से मुक्त तथा प्रजातांत्रिक होना चाहिए।
(iii) अध्यापक किसी भी समस्या, भाषा, साहित्य या सिद्धान्त की रूपरेखा देकर विस्तारण
की क्षमता विकसित कर सकता है।
(iv) अध्यापकों को बालकों को असामान्य प्रतिबोधात्मक क्षमता एवं जिज्ञासा की प्रशंसा
करनी चाहिए।
(v) असफलता व भग्नाशा की स्थिति में सहायता करनी चाहिए । अवरोधों को दूर करना
चाहिए।
(vi) विद्यार्थियों को स्व-अधिगम के लिए प्रेरित करना चाहिए ।
(vii) सृजनशील बालक की कल्पनाशीलता को सकारात्मक रूप में देखना चाहिए।
(viii) सृजनशीलता के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता तथा सभी संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिए।
(ix) दिवा-स्वप्न देखने में चालकों का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए।
(x) विद्यार्थियों में आत्मविश्वास का भावना विकसित करें।
(xi) सादृश्यता की युक्ति के द्वारा अध्यापक विभिन्न प्रत्ययों व समस्याओं की समझ
विकसित कर सकता है।
(xii) मूल्यांकन किये जाने वाले व मूल्यांकन न किये जाने वाले कार्यों में बालकों में
मूल्यांकन न किये जाने वाले अभ्यास कार्य में सृजनशीलता का विकास अधिक
होता है।
(xiii) फेरबदल, अन्वेषण व जिज्ञासा को प्रेरित करना चाहिए।
(xiv) आसवन’ ने ‘ब्रेनस्ट्रामिंग’ तकनीक (Brainstorming Technique) का सुझाव दिया,
जिसमें किसी समस्या से सम्बन्धित विद्यार्थियों से विचार रखने को कहा जाता है।
इसके पश्चात् कुछ निष्कर्षों व मतैक्य पर पहुंचा जाता है।
(xv) टोरेन्स ने सफलता-उन्मुखी’ संस्कृति को सृजनशीलता में बाधा की एक दशा माना
है। सफलता की सोच न विकसित करके जटिल एवं कठिन कार्यों को विद्यार्थियों
के सम्मुख रखा जाये।
(xvi) मूल्यांकन के द्वारा विद्यार्थी में अपने व्यवहार के कारणों एवं परिणमों की योग्यता
में वृद्धि हो जाना।
(xvii) बालकों को दिखाओं कि उनके विचार अध्यापक की दृष्टि में मूल्यवान हैं।
(xviii) स्वयं पहल किये हुए अधिगम को प्रोत्साहित करना और उसका मूल्यांकन करना ।
(xix) विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान के अर्जन को प्रोत्साहित करना एवं एक पूर्व निर्धारित ढाँचे
में ढालने की चेष्ठा न करना।
प्रश्न 14. बालकों के सृजनात्मक चिन्तन के प्रोत्साहन में अध्यापक की भूमिका
का वर्णन कीजिए।
उत्तर–बालकों में सृजनात्मकता उत्पन्न करने के उपाय सृजनात्मकता-शिक्षण के
अन्तर्गत छात्रों को समस्या समाधान के अवसर दिये जाते हैं। इस संदर्भ में किसी संदर्भ किसी
नवीन आविष्कार के मौलिक हल की खोज पर बल दिया जाता है। इस प्रकार के शिक्षण
का उद्देश्य आविष्कार खोज या नवीन ज्ञान को ढूंढने की प्रक्रिया से छात्रों को परिचित कराना
होता है। इस प्रकार के शिक्षण से छात्रों को अपनी समस्याओं को भली-भाँति समझने एवं
उनके विश्लेषण करने में सहायता मिलती है। इस आधार पर प्राप्त ज्ञान की उपयोगिता एवं
अनुपयोगिता का मूल्यांकन छात्रों द्वारा किया जाता है।
       छात्र इस प्रकार पुस्तकीय ज्ञान का पूरा-पूरा लाभ उठाने का प्रयास करते हैं। अन्य क्षेत्रों
में भी सृजनात्मकता-शिक्षण के छात्रों में सीखने की आदत का विकास होता है।
विद्यालयों में सृजनात्मकता की शिक्षा हेतु निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान दिया जाना
चाहिए―
1. विद्यालयीय वातावरण― सृजनात्मकता के विकास के लिए विद्यालय के वातावरण
में बालक के ऊपर कोई ऐसा अनुशासनात्मक या अन्य प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए,
जिससे उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति में बाधा पड़े ।
2. शिक्षक की भूमिका― सृजनात्मकता-विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका शिक्षक
की है। छात्रों को पढ़ाते समय विषय के प्रति उनकी मौलिक जिज्ञासा जागृत करने का प्रयास
करना चाहिए। इस हेतु प्रश्नोत्तर-प्रणाली बहुत अधिक सहायक है।
3. कक्षा का वातावरण― शिक्षक को कक्षा का वातावर । इस प्रकार बनाना चाहिए
जिससे किसी भी बालक को प्रश्न पूछने अथवा अपनी बात कहने में संकोच न हो ।
4. पाठ्यक्रम की व्यवस्था― सृजनात्मकता के विकास हेतु पाठ्यक्रम का आयोजन भी
विशेष महत्त्व रखती है। पाठ्यक्रम इस प्रकार का हो जिससे सम्बद्ध प्रश्नों में
अनुसंधान-अनुमानांक, परिकल्पना, परीक्षण की प्रवृत्तियों को पर्याप्त बल मिले यदि हमें
सृजनात्मकता का विकास करना है, तो शैक्षिक प्रक्रिया की सीधा सम्बन्ध, मूल्यांकन से नही
होना चाहिए, अन्यथा छात्र-मूल्यांकन में उच्च श्रेणी के लिए सृजनात्मक फोड-बैक
मूल्यांकनात्मक रिपोर्टों से अधिक उत्तम है, क्योंकि उसने शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्ति के
लिए एक अच्छे भविष्य का निर्माण स्वीकार किया है।
    अत: विद्यालयों में बच्चों में सृजनात्मकता उत्पन्न करने के लिए निम्नांकित शिक्षण-विधियों
का प्रयोग करना चाहिए―
हैं, तथा इनके आधार पर उनसे अधिक-से-अधिक सूचनाएँ एकत्रित करने को कहा जाय।
1. सूचना एकत्रीकरण—इस विधि से छात्रों को तथ्य या प्रदत्त ज्ञान प्रदान किये जाते
है। इतिहास-शिक्षण में यह विधि सृजनात्मकता के विकास में बहुत उपयोगी है। तथ्यों के
रूप में शिक्षक अभिलेखों, मुद्राओं तथा प्रदत ज्ञान के रूप में तिथियों के उपयोग के लिए
कह सकते हैं।
2. वर्तमान समस्याओं का समाधान ढूँढना―सृजनात्मकता-शिक्षण हेतु वर्तमान
समस्याओं को भी लिया जाता है, और उसके समाधान हेतु छात्रों को अभिप्रेरित किया जाता है
सामाजिक नियमों से सम्बद्ध शिक्षण में यह विधि बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। छात्र के
असंतोष, निर्धनता, अनुशासनहीनता इत्यादि समस्याओं के समाधान में यह बहुत उपयोगी सिद्ध
होगी।
3. भविष्यगत परिणाम-विश्लेषण― वर्तमान समस्याओं के समाधान की विधि के साथ
ही भविष्यगत परिणाम-विश्लेषण-विधि भी सृजनात्मकता-शिक्षण के क्षेत्र में पर्याप्त रूप से
ठपयोगी है। किसी भी समस्या के भावी परिणामों के विश्लेषण करने से छात्रों में कल्पना,
चिन्तन एवं निर्णय लेने की योग्यता का विकास होता है।
4. योजना-वर्गीकरण― अधिगम हेतु तथ्यों एवं प्रदत्त ज्ञान के वर्गीकरण करने की
आवश्यकता होती है। छात्रों में सृजनात्मकता के विकास हेतु इस प्रकार के वर्गीकरण की
योजनाएँ छात्रों द्वारा स्वनिर्मित करायी जानी चाहिए।
5. सुधार-संबंधी अनुसंधान—इस विधि में छात्रों को कार्य, वस्तु या प्रणाली सुधार हेतु
अनुसंधान के लिए प्रेरित किया जाता है। विज्ञापन तथा तकनीक के संदर्भ में नवीन आविष्कार
इस गुण के परिणाम है।
6. आत्म अभिव्यक्ति विधि—बालकों में सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करने के लिए
शिक्षकों को चाहिए कि वे बालकों को आत्म-अभिव्यक्ति का अवसर दें। बालकों को इस
तरह का अवसर मिलना चाहिए कि वे सक्रिय रूप से अपने विचारों को भिन्न-भिन्न तरह
से अभिव्यक्त करें। इसके लिए कई तरीके अपनाये जा सकते हैं। एक तरीका वाद-विवाद
का हो सकता है। शिक्षकों को चाहिए कि वे समय-समय पर वाद-विवाद का आयोजन का
और किसी विवादग्रस्त विषय पर अपने विचारों को व्यक्त करने, विवेचना करने अथवा बहस
करने का अवसर शिक्षार्थियों को दें। इससे उनमें सर्जनात्मक चिन्तन की गई विमाओं, जैसे―
प्रवाहिता, लचीलापन, विस्तारण तथा मौलिकता को विकसित होने पर अवसर मिलेगा।
7. लेख प्रतियोगिता―बालकों में सर्जनात्मक चिन्तन को उन्नत बनाने के लिए शिक्षकों
को चाहिए कि वे समय-समय पर लेख प्रतियोगिता का आयोजन करें तथा बालकों के लिए
उचित पुरस्कार की व्यवस्था करें। उन्हें यह भी बतला दिया जाये कि जिनका लेख सबसे
अधिक अनोखा अथवा नवीन होगा, उन्हें उतना ही कीमती पुरस्कार दिया जायेगा। ऐसा करने
से बच्चों में सर्जनात्मक चिन्तन उन्नत बन सकेगा। विशेष रूप से मौलिकता विमा तथा विस्तारण
विमा के विकास में अधिक मदद मिलेगी।
8. परिचालन प्रविधि― वर्ग में शिक्षकों की भूमिका परिचालक को हैसियत से भी
महत्त्वपूर्ण है। उन्हें चाहिए कि वे कक्षा में बालकों में परिचालन की योग्यता विकसित करें।
जिस हद तक उन्हें परिचालन सीखाने में सफल होते हैं, उसी हद तक बालकों में सर्जनात्मक
चिन्तन के उन्नत होने की संभावना बनी रहती है। स्मरण रखना चाहिए कि सृजन करने वाला
वास्तविक अर्थ में परिचालन होता है।
9. रचनात्मक आलोचना प्रविधि― शिक्षकों को चाहिए कि वे बालकों में रचनात्मक
आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित होने का प्रयास करें। जब बालक किसी विषय के सम्बन्ध
में रचनात्मक आलोचनात्मक-दृष्टिकोण अपनाते हैं तो वे इस विषय के सम्बन्ध में नये-नये
ढंग से सोच-विचार करते हैं। फलतः उनमें सर्जनात्मक चिन्तन की विशेषताएँ सहज ही विकसित
हो जाती है।
10. वैयक्तिक भिन्नता प्रविधि—बालकों की बुद्धि, अभिरुचि, अभिक्षमता, आवश्यकता
तथा धातु-स्वभाव में वैयक्तिक भिन्नताएँ होती है। अत: शिक्षकों को चाहिए कि उन भिन्नताओं
को ध्यान में रखते हुए बालकों में सर्जनात्मक चिन्तन की दिशा निर्धारित करें। स्मरण रखना
चाहिए कि कि बुद्धि तथा सर्जनात्मकता के बीच मध्य धनात्मक सहसम्बन्ध होता है।
11. सहायक वातावरण प्रविधि―बालकों में सर्जनात्मक चिंतन को उन्नत बनाने के
लिए यह भी आवश्यक है कि स्कूल के भीतर तथा बाहर के वातावरण को इस हद तक
अनुकूल बनाया जाये जो बालकों को रचनात्मक चिन्तन में सहायक हो सकें । अतः इस संदर्भ
में शिक्षक के साथ माता-पिता की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। माता-पिता को चाहिए कि
वे घर में इस तरह का पर्यावरण बनाये रखें जो बच्चों के रचनात्मक चिन्तन को प्रोत्साहित
करने में सहायक हो सकें। जैसे, उन्हें चाहिए कि बच्चों की नयी-नयी कहानी सुनाएँ तथा
उन्हें भी नयी-नयी कहानी बनाने तथा सुनाने के लिए प्रोत्साहित करे । इस तरह माता-पिता
को चाहिए कि वे अपने बच्चों को किसी विषय पर अपना विचार स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त
करने के लिए प्रोत्साहित करें।
12. शिक्षक प्रशिक्षण प्रविधि―बालकों में सर्जनात्मक चिंतन के विकास की सम्भावना
बालक की योग्यता के साथ-साथ शिक्षक की योग्यता पर भी निर्भर करती है। अतः शिक्षक
में अपेक्षित सामर्थ्य कौशल, रुचि तथा धातु-स्वभाव के साथ-साथ उसे प्रशिक्षित होना भी
आवश्यक है। प्रशिक्षण के द्वारा शिक्षकों को उन सभी उपायों की जानकारी मिल जाती है,
जिनका उपयोग करके वे बालकों में सर्जनात्मक चिंतन को विकसित करने में सक्षम हो पाते
है। इस जानकारी के बिना वे बालकों को सर्जनात्मकता सिखाने में सक्षम नहीं हो पाते हैं।
प्रश्न 15. सृजनशीलता या सर्जनात्मकता को बढ़ाने वाली शैक्षिक और सह-शैक्षिक
गतिविधियों का वर्णन कीजिए।
अथवा, सर्जनात्मकता को किस प्रकार प्रोत्साहित किया जा सकता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–सर्जनात्मकता व्यक्ति का एक प्रमुख धनात्मक गुण होता है। अतः मनोवैज्ञानिकों
ने इसे प्रोत्साहित करने या बढ़ाने का भरसक प्रयास किया है। उनके प्रयासों को हम निम्नांकित
ढंग से सुसज्जित कर उपस्थित कर सकते हैं―
            ऑसवोर्न ने सर्जनात्मकता को उन्नत बनाने के लिए विक्षिप्तिकरण की प्रविधि को
महत्त्वपूर्ण बतलाया है जिसे प्रायः एक समूह में किया जाता है तथा जिसमें निम्नांकित चार
प्रमुख दिशा निर्देश होते हैं―
(a) किसी विचार का मूल्यांकन थोड़े समय के लिए रोक कर रखा जाता है और इस
तरह से उसे आलोचना से वर्जित रखा जाता है।
(b) जितना ही अधिक से अधिक नये-नये विचार आ सकते हैं, को देना ।
(c) अधिक-से-अधिक संख्या में विचारों को देना ।
(d) यदि चाहे तो लोग अन्य लोगों द्वारा दिये गये दो या दो से अधिक विचारों को एक
साथ संयोजित कर सकते हैं।
       ऑसवोर्न का मत है कि विक्षिप्तिकरण सूत्र को सफल बनाने के लिए यह भी आवश्यक
है कि लोग अपने आप को तथा एक-दूसरे को प्रोत्साहित करें। लोगों में दोस्ताना संबंध विकसित
हो तथा उनका मानसिक लगाव आपस में ठीक-ठाक हो। बैरोन ने अपने समीक्षा के आधार
पर यह बतलाया है कि कुछ अध्ययन ऐसे हए हैं जो विक्षिप्तिकरण के महत्त्व को समर्थन
नहीं देते हैं जबकि अधिक नियंत्रित अनुसंधानों से पता चला है कि विक्षिप्तिकरण से विचारों
की गुणवत्ता तथा मात्रा दोनों में ही बढ़ोतरी होती है।
              सर्जनात्मकता को उन्नत बनाने के अन्य उपायों को साइनेक्टिक्स कहा जाता है।
साइनेक्टिक्स विधि का प्रतिपादन गौर्डन द्वारा किया गया है। यह एक ऐसी प्रविधि है जिसमें
सर्जनात्मक चिंतन को उन्नत बनाने के लिए सादृश्यता का उपयोग किया जाता है। इस प्रविधि
में अपरिचित चीजों को परिचित तथा परिचित चीजों को अपरिचित करने पर अधिक बल
डाला जाता है और इसके लिए निम्नांकित तरह की सादृश्यता पर सर्वाधिक बल डाला जाता
है―
(a) व्यक्तिगत सादृश्यता―इस तरह की सादृश्यता में व्यक्ति को अपने आप को प्रत्यक्ष
रूप से किसी परिस्थिति में रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। जैसे, यदि आप यह
चाहते हैं कि कोई खास मशीन अधिक ठीक ढंग से कार्य करे, तो आप कल्पना करें कि
खुद ही वह मशीन है।
(b) प्रत्यक्ष सादृश्यता―प्रत्यक्ष सादृश्यता में व्यक्ति को कुछ ऐसी चीजें पाने या खोजने
के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जो समस्या के समाधान में मदद करता है। जैसे, एलेक्जेण्डर
ग्राहम वेल ने इस तरह के सादृश्यता का उपयोग कर दूरभाष की खोज किया क्योंकि इन्होंने
पाया कि मानव कान के कई हड्डियों में जब आसानी से एक कोमल झिल्ली में गति उत्पन्न
कर प्रभावित किया जा सकता है तो उनके मन में स्टील के छोटे टुकड़े में झिल्ली द्वारा गति
उत्पन्न करने का विचार आया जो अन्ततः दूरभाष की खोज में मददगार हुआ।
(c) सांकेतिक सादृश्यता—इस तरह की सादृश्यता से वस्तुनिष्ठ, अवैयक्तिक या पधात्मक
प्रतिमाओं का उपयोग करके सर्जनात्मकता को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। गौर्डन ने
अपने अध्ययन में यह पाया है कि जब व्यक्तियों के एक समूह को इस तरह के सांकेतिक
सादृश्यता की अभिव्यक्ति कार्टूनों के माध्यम से करने का प्रशिक्षण दिया गया, तो उसका
सर्जनात्मकता में पहले की तुलना में वृद्धि हो गयी।
(d) कल्पनाचित्र सादृश्यता—यह एक ऐसी विधि है जिसमें व्यक्ति किसी घटना/वस्तु
पर सामान्य सीमाओं से स्वतंत्र होकर कल्पना करता है। वैसे, इस सादृश्यता में व्यक्ति यह
कल्पना कर सकता है कि उसमें पंख उग आये हैं और वह सेकेण्डों में मीलों दूर उड़कर
किसी पहाड़ी की चोटी पर बैठकर वहाँ से प्राकृतिक दृश्य का अवलोकन कर रहा है।
गोर्डन ने यह बतलाया है कि साइनोटिक्स विधि का उपयोग उद्योग, व्यवसाय एवं शिक्षा
में करके लोगों की सर्जनात्मकता को काफी बढ़ाया गया है।
        सर्जनात्मकता को उन्नत बनाने के लिए डी बोनी ने पार्श्विक चिंतन को मजबूत करने
की सिफारिश की है। डी बोनी का मत है कि जब किसी वस्तु या विचार के बारे में अधिक
जानना हो और इस समस्या के समाधान के लिए पारम्परिक, स्वीकृत एवं अभिसारी समाधान
पर यदि पहुँचना हो तो इसके लिए ऊर्ध्वाधर चिंतन की आवश्यकता होती है। परंतु यदि किसी
समस्या, घटना आदि का असाधारण अपसारी तथा सर्जनात्मक समाधान चाहिए तो इसके लिए
पार्श्विक चिंतन की आवश्यकता पड़ती है। विक्षिप्तिकरण से भिन्न डी बोनी के इस उपागम
में व्यक्तियों को विशिष्ट समस्या का समाधान करने के लिए नहीं कहा जाता है। बल्कि उन्हें
प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए नये-नये तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया
प्राता है और इस तरह उसे एक पार्विक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता
जात पार्श्विक चिंतन में व्यक्ति नये-नये तथ्यों एवं विचारों को उत्पन्न करता है तथा पुराने
विचारों को चुनौती देता है।
     स्पष्ट हुआ कि सर्जनात्मकता को उन्नत बनाने के मुख्य तीन तरह की प्रविधियाँ उपलब्ध
है। कई क्षेत्र में व्यक्तियों के द्वारा इन प्रविधियों को अपनाकर सर्जनात्मकता को उन्नत बनाने
का सफल प्रयास किया गया है।
प्रश्न 16. खेल को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर― बच्चों के खेल को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है―
1. परिवार और समुदाय-बच्चों की दिनचर्या, अभिभावकों की पूर्वा पेक्षाएँ और
आकांक्षाएँ एक समुदाय से दूसरे समुदाय ने और समाज आर्थिक समूहों में भिन्न-भिन्न होती
है। अतः ऐसी स्थिति में पलने वाले बल के खेलो में भी विभिन्नता होते है। गरीब परिवार
के बच्चे टीन के डिब्बे, छड़ियाँ, कंकड़, धागे, पुराने टूटे-फूटे खिलौने से खेलते है, क्योंकि
उनके माता-पिता कुछ भी नहीं खरीद सकते है। धनी परिवार के बच्चे नए-नए खिलौनों और
खेलो को खेलते है।
2. सांस्कृतिक कारक―खेल बच्चे की संस्कृति से निर्धारित होता है। जैसे―ग्रामीण
परिवेश के बच्चे खेतो में गलियों में कबड्डी, गोली, फुटबॉल आदि खेलते हैं। शहरी बच्चों के
खेलों में बहुत विविधता होती है। वे क्रिकेट बैडमिटन. सी-सों, विडियो गेम, कंप्यूटर गेम खेलते हैं।
3. खेल सामग्री―खेल सामग्री की उपलब्धता बच्चे के खेल को प्रभावित करती है।
खेल सामग्री चार प्रकार की होती है―
(i) अनुदेशात्मक सामग्री―इस सामग्री में पहेलियाँ, खिलौने आदि शामिल हैं। इनके
माध्यम से विशेष संकल्पनाओं और कौशलों को सीखने में मदद मिलती है।
(ii) रचनात्मक या निर्माणात्मक सामग्री―इसमें बच्चे स्वतः कुछ निर्माण करते है,
खेलते हुए। जैसे ब्लॉक का प्रयोग करके भवन निर्माण । इससे बच्चों में सर्जनात्मकता,
रचनात्मकता (Creativity) का विकास होता है।
(iii) खिलौने―इसमें विभिन्न प्रकार के वास्तविक और काल्पनिक वस्तुओं की छोटी
प्रतिकृतियाँ शामिल हैं, जैसे-गृह व्यवस्था संबंधी खिलौने, गुड़िया, रसोई घर के
बर्तन, यातायात संबंधी खिलौने तथा विभिन्न वस्तुओं के मॉडल।
(iv) यथार्थ वस्तुएँ—इसमें यथार्थ वस्तुएँ आती हैं, जैसे― रेत, पानी, लकड़ी, मिट्टी।
4. लिंग भेद―लड़के-लड़कियों के खेल में अंतर पाया जाता है। लड़कियाँ क्रेयान से
चित्र बनाना, मृतिका शल्य, कागज काटकर फूल बनाना, गुड़ियों का खेल, सूई धागे का खेल
खेलना पसंद करती है। लड़के सड़क बनाना, चित्र-पुस्तक पर ब्रश से चित्र बनाना, फुटबॉल,
क्रिकेट खेलना पसंद करते हैं।
5. इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यम―टी. वी., विडियो गेम, कंप्यूटर का खेल आजकल
पुराने खेल का स्थान ले रहे है। इससे बाहर और भीतर खेले जाने वाले खेलों में कमी
हुई है।
6. उग्र-विभिन्न उम्र के बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते हैं। शैशवास्था में बच्चे
का खेल क्रियात्मक स्वरूप का होता है। वह अपने हाथ-पैर फेककर खेलता है। सात से आठ
वर्ष की उम्र में खिलौने के साथ खेलते है। इसके बाद सामाजिक खेल, समूह खेल का विकास
होता है। इसके बाद रचनात्मक खेल खेलने लगते हैं।
7. स्वास्थ्य― स्वस्थ बच्चों के खेलने का तरीका, खेलने की क्रिया, खेल में व्यतीत होने
वाले समय अस्वस्थ बच्चों की अपेक्षा भिन्न होता है।
8. बुद्धि―खेल पर बुद्धि का प्रभाव पड़ता है। तीव्र बुद्धि के बच्चे मंदबुद्धि के बच्चों
से अधिक सक्रिय होते है इनकालने की सामग्री खेलने का समय, खेल के प्रकार आदि
में काफी विभिन्नता रहती है।
प्रश्न 17. बाल विकास में खेलों का महत्त्व पर प्रकाश डाले?
उत्तर―बालकों के सर्वांगीण विकास में खेलों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । खेलों
द्बारा ही बालक में अनेक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक गुणों का उद्भव तथा
विकास होता है। मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाशास्त्रियों ने तो खेल को बाल शिक्षण की विशिष्टि
प्रणाली के ‘खेल प्रणाली’ रूप में स्वीकार कर लिया है। यहाँ की मुख्य उपयोगिताओं का
उल्लेख किया जायेगा:
1. शारीरिक विकास में महत्त्व―शारीरिक विकास की दृष्टि से बालक के जीवन में
खेलो का बहुत महत्त्व है। खेलों से बालक के शरीर के अंगों का विकास प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
दोनों रूपों में होता है। खेलों से बालों की क्रियाशीलता में वृद्धि होती है जिससे माँसपेशियाँ
विकसित व सुगठित होती है अविकसित अंगों का विकास होता है। अंगों की वृद्धि और विकास
से बालकों में क्रियात्मक क्षमताओं और भिन्न कौशलों का विकास होता है। इसके अतिरिक्त
उनके शरीर की अतिरिक्त उनके संचित ऊर्जा का निष्कासन भी खेलों द्वारा हो जाता है जिससे
वे तनावमुक्त हो जाते हैं। अतः बालकों के शारीरिक विकास के लिए खेल आवश्यक है।
खेल यालक को शारीरिक रूप से मजबूत स्वस्थ व निरोगी बनाते हैं। दौड़ने, कूदने, भागने
और उछलने से रक्तसंचार तेज होता है जिससे स्पूर्ति आती है, क्रियाशीलता में वृद्धि होती
है और माँसपेशियाँ मजबूत होती हैं इसीलिए विभिन्न आयु स्तरों पर स्कूलों के लिए विभिन्न
शारीरिक खेलों की व्यवस्था की जाती है।
2. मानसिक विकास में महत्त्व―खेल मनोरंजन द्वारा मानसिक विकास की एक
महत्त्वपूर्ण क्रिया है। खेलों से शारीरिक विकास ही नहीं मानसिक विकास भी अति विशिष्ट
तरीके से होता है। ऐसा देखा गया है कि जिन बच्चों को खेलने के पर्याप्त अवसर नहीं मिलते
हैं उनका मानसिक विकास धीमी गति से होता है।
      खेल चाहे शारीरिक हो या मानसिक, घर में खेला जाने वाला हो या घर के बाहर उनमें
बालकों की मानसिक सक्रियता, सोच-विचार एवं वृद्धि का उपयोग अवश्य ही होता है।
फलस्वरूप बालकों की बुद्धि, विचार, तर्क, चिन्तन और कल्पना शक्ति का विकास होता है।
प्रमुख रूप से रचनात्मक खेलों में उसे मौलिक चिन्तन करना पड़ता है। निरन्तर चिन्तन करने
से बालक की मानसिक शक्तियों का विकास स्वाभाविक रूप से होता रहता है अतः यदि
बालकों का समुचित ढंग से मानसिक विकास करना हो तो उन्हें ऐसे खेल उपलब्ध कराये
जाने चाहिए जो उसके चिन्तन, कल्पना, तर्क, स्मृति और बुद्धि का विकास कर सकें । शतरंज,
ताश, क्विज तथा पजल आदि ऐसे ही खेल हैं जिनसे मनोरंजन के साथ-साथ मानसिक विकास
भी होता है।
3. संवेगात्मक विकास में महत्व―खेल बालकों के विभिन्न संवेगों की अभिव्यक्ति
के रंगमंच होते हैं खेलों द्वारा बालक अपने संवेगों की अभिव्यक्ति तो करता ही है, साथ
ही दूसरे बालकों के संवेगों को देखकर संवेगों की अभिव्यक्ति का ढंग सीखता है। अतः
खेलों में संवेगों में परिपक्वता आती है तथा बालक उनकी अभिव्यक्ति करना सही ढंग से
सीखता है। संवेगात्मक नियन्त्रण भी बालकों मे खेलों द्वारा ही होता है। सामान्य परिस्थितियों
में यदि किसी बालक को डाँटा जाता है या उसकी कमियों से अवगत कराया जाता है तो
वह प्रसन्नता का भाव व्यक्त करता है किन्तु खेलते समय समूह का सदस्य बने रहने के लिए
वह यह सब आसानी से कर लेता है। अत: खेलों से बालकों में संवेगात्मक नियंत्रण व स्थिरता
आती है। संवेगात्मक नियन्त्रण से बालक के व्यक्तित्व के विभिन्न शीलगुणों जैसे―सहनशीलता,
सहानुभूति, त्याग और सच्चाई जैसे गुणों का विकास होता है।
4. सामाजिक विकास में महत्व―व्यक्ति सामाजिक प्राणी है अतः सामाजिकता के
विकास के लिए उसे समूह के सदस्यों की आवश्यकता होती है। खेल एक ऐसी क्रिया है
जिसमें बालक समूह में सम्पर्क में आते हैं। सामूहिक खेलों द्वारा बालकों के भीतर विभिन्न
सामाजिक गुणों का आविर्भाव होता है। कोई भी बालक सर्वप्रथम खेल की भावना से ही
समूह का सदस्य बनता है किन्तु धीरे-धीरे वह समूह के व्यक्तियों से आत्मीय सम्बन्ध है
और समाज में समायोजन करना सीखता है। समायोजन प्रक्रिया के दौरान वह अपने भीतर
विभिन्न सामाजिक गुणों का विकास करता है। जैसे—सहयोग, सहानुभूति, त्याग, सहनशीलता,
दया आदि।
           खेलों के दौरान उसके व्यक्तित्व निर्धारण कुछ गुणों का भी विकास होता है, जैसे―
आत्मप्रदर्शन, नेतृत्व, प्रभुत्व आदि । खेलते समय बालक विभिन्न नियमों का पालन करता है
जिससे उसके कार्यों और व्यवहारों में स्वनियन्त्रण आ जाता है। जो बालक खेलों में प्रभुत्व,
नेतृत्व और आत्म-प्रदर्शन जैसे गुणों की अभिव्यक्ति करता है उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी बन
जाता है बहिर्मुखी व्यक्तित्व का सामाजिक समायोजन आसानी से हो जाता है ऐसा व्यक्ति
समाज के बीच लोकप्रिय रहता है।
          खेल बालक के भीतर प्रतियोगिता के भाव को भी उत्पन्न करते हैं। यह भाव बालक
की प्रगति में सहायक होता है क्योंकि प्रतियोगी बालक अपनी क्षमताओं का विकास प्रदर्शन
अधिक से अधिक करना चाहता है।
         अतः स्पष्ट है कि खेल बालक के उच्चकोटि के सामाजिक गुणों का विकास करते हैं।
ये गुण अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण करते है और बालक का सामाजिक समायोजन आसान
बना देते हैं।
5. नैतिक विकास में महत्त्व― खेलों द्वारा बालकों में नैतिकता का विकास सहज ही
हो जाता है क्योंकि खेलों का संचालन ईमानदारी, सच्चाई एवं आत्म-नियंत्रण द्वारा होता है
अतः खेलने से नैतिकता स्वतः आ जाती है। जब बालक खेल के मैदान में उतरता है तो
वहाँ नैतिक आदर्शों के बिना काम नहीं चलता है। जो बालक खेल के नियमों का पालन
करता है उसे खेल से अलग कर दिया जाता है अतः खेलों द्वारा बालक में नैतिकता का विकास
होता है फलस्वरूप उसका व्यवहार स्वतः ही नैतिक मूल्यों और नैतिक आदर्शों के साँचे में
ढल जाता है।
6. क्रियात्मक विकास में महत्व―खेल बालकों में विभिन्न कौशलों का विकास भी
करते हैं क्योंकि खेलते समय, दौड़ने, भागने, उछलने, कूदने, पकड़ने, लपकने आदि को क्रियाएँ
करने से धीरे-धीरे ये क्रियाएँ स्वतः ही परिपक्व और सन्तुलित होती जाती है जिससे आग
की अवस्था के क्रियात्मक विकास में सहायता मिलती है क्योंकि खेलने से माँसपेशियाँ मजबूत
और सुगठित होती हैं और माँसपेशियों में परिपक्वता आने से क्रियात्मक विकास सन्तुलित रूप
से होता है।
7. सृजनात्मक विकास में महत्त्व― खेलों के द्वारा बालक अपनी सृजनात्मकता की
अभिव्यक्ति करते हैं। बालकों के खेलने के नये-नये ढंग तथा खेलों के लिए नये-नये विषयों
का चुनाव से बालकों की सृजनात्मकता का पता चलता है; जैसे—वह कभी चोर सिपाही खेलते
है तो कभी शिक्षक और शिष्य बनते हैं। अलग-अलग प्रकार के खेल उनके रचनात्मक विचारों
का प्रदर्शन करते हैं और उनकी कार्य कुशलताओं तथा क्षमताओं की अभिव्यक्ति करते हैं।
बालकों की सृजनात्मकता को देखकर उनके भावी व्यक्तित्व का भी अनुमान लगाया जा सकता है।
8. बालकों के स्व-मूल्यांकन में सहायक― खेलों   में   बालकों    को   धीरे-धीरे
आत्म-मूल्यांकन की अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है। इससे बालकों में आत्म प्रत्ययों का विकास
होता है । वालकों के ये आत्म प्रत्यय उनके भावी जीवन की अनेकानेक समस्याओं के समाधान
में सहायक होते हैं।
9. बालकों के शैक्षिक विकास में सहायक― खेलों के द्वारा बालकों के शैक्षिक विकास
में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। शिक्षा में खेलों के महत्त्व को शिक्षाशास्त्रियों ने भी स्वीकारा
है और बालकों की प्रारंभिक शिक्षण विधियों के ‘खेल शिक्षण प्रणाली’ नाम दिया गया है।
इन शिक्षाविदों में मॉन्टेसरी और फ्राबेल के नाम प्रमुख है। इनका मानना है कि खेल प्रणाली
द्वारा दी गयी शिक्षा सरल, सुगम और रुचिकर होती है तथा इनके द्वारा खेल ही खेल में बालक
विभिन्न सूचनाओं को आसानी से ग्रहण कर लेता है।
10. संवेगों के रेचन में सहायक–वर्तमान युग तनाव का युग है। बालक भी इससे
अछूते नहीं रहते हैं। खेल एक ऐसी प्रक्रिया है जो बालकों के संवेगात्मक तनाव को कम
करने में सहायक होती है । खेलते समय बालक आनन्द की अनुभूति करता है जिससे संवेगात्मक
तनाव से मुक्ति मिल जाती है। अतः खेलों द्वारा बालकों के संवेगों का रेचन होता है। एक
बालक जो स्कूल का गृहकार्य करते-करते संवेगात्मक तनाव में आ जाता है। यदि उससे खेलने
को कह दिया जाता है तो खेलकर आने के बाद वह पुनः उसी कार्य को उत्साह के साथ
करने लगता है। अतः खेल बालकों के संवेगों का रेचन कर उसे वर्तमान जीवन की समस्याओं
का सामधान अधिक क्षमतापूर्वक करने योग्य बनाते हैं।
11. अनुभव विकास में सहायक― खेल बालकों को अनुभवी बनाते हैं। खले के दौरान
जो अनुभव बालक को प्राप्त होते हैं वे किसी के द्वारा प्रत्यारोपित नहीं होते हैं अपितु बालक
के मौलिक अनुभव होते हैं। अनुभवों से बालक के बौद्धिक विकास में परिपक्वता आती है।
12. भाषा विकास में सहायक―खेल बालक का सामाजिक विकास करते हैं तथा
सामाजिक समायोजन को आसान बनाते हैं। दोनों ही प्रक्रियाओं की सफलता के लिए बालकों
को विचारों का आदान-प्रदान करना पड़ता है। विचारों के आदान-प्रदान के लिए भाषा की
आवश्यकता होती है। अत: खेलों के दौरान बालक नये-नये शब्दों को सुनता है जिससे उसका
शब्द भण्डार बढ़ता है तथा विचारों के आदान-प्रदान से भाषा परिष्कृत होती है।
13. व्यक्तित्व निर्माण में सहायक― जब खेलों द्वारा बालक के व्यक्तित्व को निर्धारित
करने वाले विभिन्न शारीरिक और मानसिक गुणों का विकास होता है और सामाजिक समायोजन
आसान हो जाता है तो व्यक्तित्व का विकास स्वतः ही हो जाता है। खेल व्यक्तित्व को बहिर्मुखी
बनाते हैं तथा व्यक्तित्व के विभिन्न शीलगुणों का विकास करते हैं जिससे अच्छे व्यक्तित्व
का निर्माण होता है।
14. समायोजन में सहायक― ‘समायोजन’ से तात्पर्य बालक के जीवन में आने वाली
विभिन्न समस्याओं के समाधान से है। चूंकि खेलों द्वारा बालकों का शारीरिक, मानसिक,
सामाजिक आर संवेगात्मक विकास होता है अतः इन क्षेत्रों में आने वाली विभिन्न समस्याओं
का समाधान स्वतः ही हो जाता है।
15. मनोचिकित्सा के क्षेत्र में सहायक― प्रत्येक प्राणी दैनिक जीवन में अनेक तनावों
से गुजरता है। व्यक्ति के संवेगात्मक तनाव का प्रदर्शन यदि हो जाता है तब तो उचित है
यदि नहीं होता है तो वे तनाव दमित भावनाओं के रूप में व्यक्ति के अचेतन मन में चले
जाते हैं और विभिन्न मनोरोगों को जन्म देते हैं लेकिन मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि खेलों
द्वारा बालक अपने दमित भावों का प्रकटीकरण कर सकता है । अत: खेलों द्वारा बालकों के
मानसिक रोगों का निदान करने में सहायता मिलती है।
16. आत्माभिव्यक्ति में सहायक― खाला बालक के आत्म प्रदर्शन में सहायक होते हैं ।
खेलों द्वारा बालक अपनी विभिन्न क्षमताओं और क्रिया-कौशलों का प्रदर्शन करता है। खेलों
द्वारा वह अपनी इच्छाओं, भावनाओं तथा विचारों को स्वरूप प्रदान करता है। विभिन्न काल्पनिक
पात्रों को वह अपने द्वारा अभिव्यक्त करता है, खेलों में वह नेता भी बनता है और अभिनेता
भी बनता है। विभिन्न प्रकार के कल्पनात्मक और सृजनात्मक खेल बालकों को आत्माभिव्यक्ति
का अवसर प्रदान करते हैं अत: खेलों से बालक की छिपी हुई प्रतिभाएं बाहर निकलकर आती हैं।
प्रश्न 18. खेल के प्रकार खेलों का वर्गीकरण करें।
उत्तर―खेल के प्रकार-वालक आनन्द की प्राप्ति और मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार
क खेलों को खेलता है। कभी वालक अकेले खेलता है कभी सामूहिक रूप से । छोटी आयु
में शारीरिक खेलों की अधिकता होती है जबकि किशोर बालक मानसिक खेलों में अधिक
मचि रखते हैं। इसी प्रकार बालक घर के बाहर खेले जाने वाले खेलों में अधिक रुचि रखते
हैं जबकि बालिकाएँ घर के अन्दर ही खेलना पसन्द करती हैं। अतः खेलों का वर्गीकरण
खेलों में सम्मिलित होने वाले साथियों की संख्या, शारीरिक और मानसिक सक्रियता तथा खेल
के स्थान पर किया गया है।
1.खेल के साथियों की संख्या के आधार पर― खेल में सम्मिलित होने वाले साथियों
की संख्या के आधार पर खेल तीन प्रकार के होते हैं:
1. स्वतंत्र खेल–स्वतंत्र खेलों में बालक अकेले स्वतंत्र रूप से खेलते हैं। इन खेलों
में उन्हें दूसरे साथी की आवश्यकता नहीं पड़ती है। स्वतंत्र खेलों का विकास शारीरिक और
सामाजिक अपरिपक्वता की देन है। प्राय: 2 वर्ष की आयु तक बालक स्वतंत्र खेलों को खेलता
है। इन खेलों में समय व नियम का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है। सामाजिकता का विकास
होने पर ये खेल समाप्त हो जाते हैं। स्वतंत्र खेलों में वालक अपने खिलौने से अकेले ही
खेलता है। उन्हें उठाता है. रखता, खेलता है, फेंकता है और तोड़ता है। स्वतंत्र खेलों को
खेलते समय बालक किसी भी प्रकार को रुकावट को पसन्द नहीं करता है। बाधा उत्पन्न
‘करने पर उत्तेजित हो जाता है।
2. साहचर्य खेल-जव बालक एक साथ खेलते हैं तो वह साहचर्य खेल कहलाते हैं।
साहचर्य खेलों में सहयोग का द्वन्द्व अधिक होता है। साहचर्य खेलों का विकास दो वर्ष की
आयु के बाद होता है जब बालक की शारीरिक और सामाजिक क्षमताओं का विकास कुछ
और अधिक हो जाता है।
3. सामूहिक खेल–सामूहिक खेल बालक को विकसित सामाजिकता का सूचक होते
हैं। तीन वर्ष की आयु से बालकों में सामूहिक खेलों की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। सामूहिक
खेलों में खेलों के अनुसार बालकों की संख्या होती है। हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, खोखो आदि
सामूहिक खेलों के उदाहरण हैं।
     सामूहिक खेलों का विकास भी विभिन्न आयु स्तरों में शारीरिक व मानसिक क्षमतानुसार
होता है। एक चार वर्ष का बालक क्रिकेट और हॉकी जैसे खेलों को नहीं खेल सकता है।
प्रारम्भ में सामूहिक खेलों का स्वरूप साधारण होता है। धीरे-धीरे शारीरिक परिपक्वता आने
पर विशिष्ट सामूहिक खेल खेलते है।
          सामाजिक विकास की दृष्टि से बालक के जीवन में सामूहिक खेलों का बड़ा महत्त्व
है। ये खेल बालक में विभिन्न सामाजिक, नैतिक और व्यक्तित्व के शीलगुणों का विकास
करते हैं । त्याग, दया, सहानुभूति, सहनशीलता, मित्रता, सत्यता, ईमानदारी, नेतृत्व, प्रभुत्व और
बहिर्मुखी आदि गुणों का विकास सामूहिक खेलों से ही होता है।
II. शारीरिक और मानसिक सक्रियता के आधार पर वर्गीकरण― खेलों में बालकों
की विभिन्न शारीरिक व मानसिक क्रियाओं का संचालन होता है। अतः सक्रियता के आधार
पर खेल दो प्रकार के होते हैं:
1.शारीरिक खेल― जिन खेलों में शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता होती है वे खेल शारीरिक
खेल कहलाते हैं। विकास क्रम में खेलों का प्रारम्भ शारीरिक खेलों से ही होता है किन्तु
आयु वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक खेलों की मात्रा में कमी आ जाती है। सात-आठ वर्ष
तक वालकों में शारीरिक खेलों की ही प्रधानता रहती है। छोटे शिशुओं को शारीरिक चेष्टाएँ;
जैसे—बिस्तर पर लेटे-लेटे हाथ-पैर इधर-उधर करना, खिलौने को उठाना, रखना, फेंकना ये
सभी शारीरिक खेल ही कहलाते हैं। कुछ और बड़े होने पर दौड़ना, भागना, उछलना, कूदना
आदि शारीरिक क्रियाएँ करके आनन्द का अनुभव करते हैं। 7-8 वर्ष के बालक घर से बाहर
खुले मैदान में विभिन्न शारीरिक खेल खेलते है।।
          बालक के जीवन में शारीरिक विकास की दृष्टि से शारीरिक खेलों का बड़ा महत्त्व है।
इनमें मांसपेशियाँ मजबूत होती हैं और क्रियात्मक कौशलों का विकास होता है।
2. मानसिक खेल-जिन खेलों में बालक को अपनी विभिन्न मानसिक क्षमताओं जैसे―
चिन्तन, तर्क, स्मरण, कल्पना, विचार आदि का प्रयोग अधिक मात्रा में करना पड़ता है उन्हें
मानसिक खेल कहते हैं। कहानी, किस्से, पहेलियाँ, ताश, शतरंज आदि मानसिक खेलों के
उदाहरण हैं। मानसिक खेलों का विकास बचपनावस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है किन्तु आयु
में वृद्धि के साथ मानसिक परिपक्वता आने पर इनमें वृद्धि हो जाती है। बालक की बुद्धि
का मानसिक खेलों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है जो बालक बुद्धिमान होता है वह मानसिक
खेलों में अधिक रुचि रखता है।
         मानसिक विकास की दृष्टि से मानसिक खेल महत्त्वपूर्ण होते हैं । इनसे बौद्धिक क्षमताओं
का विकास होता है और उनमें परिपक्वता आती है।
III. स्थान के आधार पर वर्गीकरण—बालक खेलों के लिए किस स्थान का चुनाव
करते हैं इस आधार पर खेल दो प्रकार के होते हैं :
1. घर के भीतर के खेल―घर के अन्दर खेले जाने वाले खेल घर के भीतर के खेल
होते हैं। ये खेल सीमित स्थान में खेले जा सकते हैं। ताश, शतरंज, लूडो, कैरम, घर के
भीतर खेले जाते हैं। इन खेलों को घर के भीतर खेला जाता है इसलिए समूह छोटा होता
है। लड़कियाँ अधिकांशतः घर के भीतर हो खेलते हैं।
2. घर के बाहर के खेल-जो खेल खुले मैदानों में खेले जाते हैं वे घर के बाहर के
खेल कहलाते हैं। इन खेलों में समूह बड़ा होता है और इनमें शारीरिक क्रियाओं की बहुलता
रहती है। क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन ऐसे ही खेलों के उदाहरण हैं। ये खेल बालकों में
‘समूह भावना’ का विकास करते हैं तथा बालकें को आत्म-प्रदर्शन का अवसर प्रदान करते हैं।
प्रश्न 19. व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों की व्याख्या
करें।
अथवा, व्यक्तित्व के विकास के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर–श्रीमद्भगवतगीता में व्यक्तित्व को संकल्पना को उसके वर्गीकरण के आधार पर
स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। इसमें दो प्रकार के विभाजन किये गये हैं जिनको संक्षिप्त
आधार पर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-1. गुणों के आधार पर विभाजन, 2. त्रिगुणात्मक
प्रकृति के आधार पर विभाजन ।
1. गुणों के आधार पर विभाजन—इस विभाजन के अनुसार दैवी एवं आसुरी सम्पदा
वाले दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं (अ) दैवी व्यक्तित्व (ब) आसुरी व्यक्तित्व ।
(अ) दैवी व्यक्तित्व― दैवी सम्पदा वाले व्यक्तियों का अन्त:करण शुद्ध होता है। वे
भयरहित एवं सात्विक वृत्ति वाले होते हैं। वे सत्यभाषी, क्रोध तथ अभिमान रहित, दयालु
सरल, क्षमाशील, मृदुभाषी तथा तेजस्वी प्रवृत्ति के होते हैं। ये दैवी संपदा को प्राप्त हुए
व्यक्तित्व
के लक्षण हैं।
(ब) आसुरी व्यक्तित्व―आसुरी व्यक्तित्व वाले पाखण्डी, घमण्डी, अभिमानी, क्रोधी,
कटुभाषी और अज्ञानी होते हैं। उनका भौतिकवादी दृष्टिकोण होता है। उनके समस्त क्रियाकलाप
इन्द्रियों को संतुष्ट करने के लिए होते हैं। वे इन्द्रिय सुखों को ही स्थायी सुख मानते हैं। इसीलिए
उचित-अनुचित के मध्य भेद करने की उसमें विवेकशक्ति नहीं होती। वे ईश्वर को नहीं मानते ।
झूठे अभिमान तथा शक्ति आदि के भ्रम के कारण वे अनुचित मार्ग अपनाते हैं।
2. त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर विभाजन― गीता में सांख्य योग प्रतिपादित
त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर भी व्यक्तित्व का विभाजन किया गया है। सत्व, रजस,
तमस इन गुणों में से जिस गुण की प्रधानता अन्य दो गुणों की अपेक्षा होती है, उसी के
द्वारा व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्धारित होता है। गीता में इन गुणों के प्रधानता के आधार पर
मोटे तौर पर व्यक्तित्व निर्धारित होता है। गीता में इन गुणों की प्रधानता के आधार पर मोटे
तौर पर व्यक्तित्व को तीन प्रकार का बताया गया है-सात्विक, राजसिक तथा तामसिक ।
(अ) सात्विक सात्विक व्यक्तियों का स्वभाव सात्विक तथा ईश्वर परायण होता है।
उन्हें सात्विक आहार प्रिय होता है, जिसके द्वारा आयु, बुद्धि, बल, स्वास्थ्य एवं सुख आदि
को वृद्धि होती है। इस प्रकार के भोजन में रुचि के द्वारा सात्विक व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों
को पहचाना जाता है?
     सात्विक व्यक्ति बिना किसी फल की इच्छा के केवल कर्त्तव्य भाव से यज्ञ अर्थात् अच्छा
कार्य करते हैं। उनको उचित और अनुचित का ज्ञान होता है अर्थात् सही और गलत के मध्य
भेद करने की क्षमता उनमें होती है।
(ब) राजसिक व्यक्तित्व― जिस भाव या क्रिया में लोभ, स्वार्थ एवं आशक्ति का संबंध
हो तथा जिसका फल क्षणिक सुख की प्राप्ति एवं अंतिम परिणाम दुःख हो, उसे राजसिक
समझना चाहिए। इस प्रकार के व्यक्तियों को राजसिक भोजन प्रिय होता है, जो कि दु:ख,
चिंता और रोगों को पैदा करने वाला होता है। वे फल-प्राप्ति के प्रलोभन में यज्ञादि कराते
हैं। उनके तप केवल मान-प्रतिष्ठा आदि के लिए होते हैं। वे बदले की भावना से कार्य करते
हैं। यह कारण है कि ये सफलता और असफलता से सुखी और दुखी होते रहते हैं। ये
उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म तथा कर्तव्य-अकर्त्तव्य के मध्य उचित भेद नहीं कर पाते हैं।
ये सब राजसिक व्यक्तित्व के लक्षण हैं।
(स) तामसिक व्यक्तित्व― जिस भाव या क्रिया में हिंसा, मोह एवं प्रमाद हो तथा जिसका
फल दुःख एवं अज्ञान हो, उसे तामस समझना चाहिए। तामसिक व्यक्तियों में ईश्वरीय आस्था
नहीं होती। वे धार्मिक कार्यों के वास्तविक स्वरूप से ही अनभिज्ञ होते हैं। वे अपने मन,
वाणी और शरीर को पीड़ा पहुँचाकर दूसरों को कष्ट तथा हानि पहुँचाने के लिए तप करते
हैं। ये दम्भी, अहंकारी, दूसरों को धोखा देने वाले, अज्ञानी तथा विचारहीन होते है। उनकी
बुद्धि हमेशा विपरीत दिशा में कार्य करती है। ये सब तामसिक व्यक्तित्व के लक्षण है।
उपनिषदों में मानव व्यक्तित्व को गहन रूप से समझने हेतु पंचकोप का वर्णन किया
गया। महर्षि अरविन्द ने भी इन्हीं आधार पर मानव व्यक्तित्व को स्पष्ट करने का प्रयास किया
है। ये पंचकोश-अन्नमय, प्राणमय, मनोमनय, विज्ञानमय और आनन्दमय है।
      वेद तथा उपनिषद् में व्यक्तित्व की धारणा– वेद तथा उपनिषद् में व्यक्तित्व के विकास
हेतु निम्नलिखित बिन्दुओं पर बल दिया गया है―
         1. वर्ण व्यवस्था― प्राचीन वेदों व उपनिषदों में एक ऐसा जीवन-दर्शन मिलता है, जो
कि मानव व्यक्तित्व के मौलिक, मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। प्राचीन भारतीय वर्णाश्रम
व्यवस्थानुसार समाज में व्यक्तियों को चार वर्गों में बाँटा गया हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
तथा इनके स्वभाव के अनुकूल ही उनके लिए कार्यों का निर्धारण किया गया है।
        2. आश्रम व्यवस्था भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य की सम्पूर्ण आयुकाल 100
वर्ष को चार भागों में विभाजित किया गया है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में अधिगम सुख
प्राप्त कर सके व व्यक्तित्व का विकास करते हुए सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर सके।
ये आश्रम हैं― ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास।
       3. पुरुषार्थ व्यवस्था― भारतीय विचारकों ने मूल्यों-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की जो व्यवस्था
उपस्थित की है, वह व्यक्तित्व संकलन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका उद्देश्य मनुष्य
के व्यक्तित्व के लिए विविध पहलुओं के विकास हेतु अवसर प्रदान करना रहा है।
व्यक्तित्व शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। सामान्यतया हम कह सकते हैं कि ‘व्यक्तित्व’
व्यक्ति का सार है, निष्कर्ष है, मूल रूप है या व्यक्ति को केन्द्रीय अभिव्यक्ति है। व्यक्ति
की वास्तविकता व्यक्ति का यथार्थ व्यक्तित्व है। जिस प्रकार किसी फल के रस में उस फल
के सम्पूर्ण तत्व समाहित होते हैं, उसी प्रकार व्यक्तित्व के सम्पूर्ण लक्षणों को अभिव्यक्त
करता है।
      व्यक्तित्व का विकास― भारतीय संदर्भ में व्यक्तित्व का विकास व्यक्ति या बालक का
केवल शारीरिक या सामाजिक विकास नहीं है, बल्कि व्यक्तित्व विकास मूलत: आन्तरिक
विकास हैं। स्वयं को जानना या आत्मानुभूति, व्यक्तित्व विकास का चरम है, जिसको व्यक्ति
क्रमिक रूप से प्राप्त करता है। मनुष्य शरीर मात्र नही है। शरीर तो केवल बाह्य आवरण
है, जड़ प्रकृति है, वस्तुतः व्यक्ति आत्मा है। इस आत्मा का साक्षात्कार कर लेना ही व्यक्ति
का समग्र व्यक्तित्व है।
    अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय मनोविज्ञान की दृष्टि से पांच कोश (अन्नमय, प्राणमय,
मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय) के साथ-साथ पाँच विषय (गंध, रस, रूप, स्पर्श,शब्द),
पाँच कमेन्द्रियाँ (मुख, हाथ, पैर, मलनिष्कासनेन्द्रिया, प्रजननेन्द्रिया), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (कर्ण,
त्वचा, चक्षु, रसना, प्राण), तीन गुण (सत्व, रज, तम) और अंतःकरण (मन, चित्त, बुद्धि,
अहंकार) की सारी वृत्तियों के साथ व्यक्ति दृष्टा बनकर साक्षी भाव से इन जगत को देखने
लगता है, तभी उसे विकसित व्यकि कहते हैं और वह सांसारिक सुख-दुःख की इस दुनिया
में न भटकते हुए उस परमानन्द को प्राप्त करता है।
       इस प्रकार हम देख सकते हैं कि भारतीय मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के दोनों ही पहलू
बाह्य स्वरूप तथा आन्तरिक स्वरूप वर्तमान है। पाश्चात्य जगत को व्यक्तित्व सम्बन्धी
विचारधाराएँ आरंभिक तौर पर भारतीय मनोविज्ञान की व्यक्तित्व संबंधी विचारधाराओं से
विरोधाभाष रखती प्रतीत होती है, किंतु अंततः उसने भी व्यक्तित्व को उसकी पूरी समग्रता
के साथ स्वीकार किया, जिसमें देश, काल और वातावरण की अभिव्यक्ति भी सम्मिलित है।
              व्यक्तित्व का विकास― व्यक्तित्व के विकास की व्याख्या करने में तीन प्रकार के
सिद्धांत उपयोगी सिद्ध हुए हैं—प्रथम, मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत, जिसके अनुसार व्यक्ति
के जीवन में उसके प्रारंभिक पाँच वर्ष उसके व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
द्वितीय अधिगम सिद्धांत, जिसमें यह स्वीकार किया जाता है कि अधिगम के बिना व्यक्तित्व
का विकास संभव नहीं। तृतीय, रोल सिद्धांत, जिसके अनुसार व्यक्तित्व के विकास हेतु
प्राणो को नवीन भूमिकाओं का निर्वाह कर लेने की क्षमता अर्जित करना आवश्यक समझ
जाता है। इन सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में व्यक्तित्व के विकास सम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश
डाला जा सकता है।
      मनोविश्लेषणवादी धारणा के अनुसार व्यक्तित्व का विकास—इसके अन्तर्गत विकास
की पाँच अवस्थाओं को निरूपित किया गया है, जो इस प्रकार है―
        1. मौखिक अवस्था― यह व्यक्ति के जीवन में प्रथम वर्ष से संबंधित है। इस अवस्था
में ओष्ट तथा मुख जरिये सुख प्राप्त किया जाता है। इसे मुख कामुकता के नाम से पुकारा
जाता है। इसके अन्तर्गत प्रमुख क्रियाएँ हैं-चूसना, खाना, अंगूठा चूसना आदि । दाँत निकल
जाने पर काटने की क्रिया पर सुख मिलता है। इस अवस्था में शिशु दूसरों पर पूर्ण निर्भर
रहता है। इस अवस्था को व्यक्तित्व के व्यंग्यात्मक तथा तर्क-वितर्क-पूर्ण स्वभाव की
आधारशिला के रूप में उपकल्पित किया जाता है।
2. गुदा जन्य अवस्था—यह अवस्था व्यक्ति के जीवन के द्वितीय वर्ष से आरंभ होती
है तथा लगभग एक वर्ष की अवधि तक रहती है। इस अवस्था के अन्तर्गत शिश को ‘मल
धारणा’, मल निष्कासन’ तथा ‘पेशीय नियंत्रण’ की प्रक्रियाओं में सुख मिलता है। व्यक्तित्व
विकास के लिए इसका निहितार्थ यह है कि गुदा जन्य धारण स्वभाव का व्यक्ति प्राय: जिद्दी,
कृपणता या वाध्यता वाला व्यक्तित्व ग्रहण कर लेता है तथा गुदा जन्य निष्कासन स्वभाव का
व्यक्ति कर, विध्वंसात्मक एवं अशांत व्यक्तित्व वाला बन जाता है। इसका यह भी अर्थ लगाया
जाता है कि अभिभावकों द्वारा शिशु को अनुकूल परिस्थितियों में उसे सर्जनात्मक एवं उत्पादक
व्यवहार की ओर अग्रसर किया जा सकता है।
3. लैंगिक अवस्था—यह अवस्था व्यक्ति के जीवन में तृतीय वर्ष से प्रारंभ होकर पंचम
वर्ष तक चलती है। इसके अन्तर्गत बालक को लैंगिक उत्तेजना के माध्यम से सुख प्राप्त
होता है । फ्रायड के मतानुसार इस अवस्था में बालक के अन्तर्गत इडिपल ग्रंथि तथा बालिका
के अन्तर्गत इलेक्ट्रा ग्रंथि बनती है । इडिपल ग्रंथि का निर्माण बालक में माँ के प्रति कामुकता
तथा इलेक्ट्रा ग्रंथि का निर्माण बालिका में पिता के प्रति कामवासना तथा उसकी अस्वीकृति
के फलस्वरूप होता है। लेकिन यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि इडिपल तथा इलेक्ट्रा दोनों
प्रकार की ग्रंथियों का बनाना हमारे भारतीय संदर्भ में थोड़ा विसंगत प्रतीत होता है।
4. काम प्रसुप्ति काल―यह एक सुषुप्तावास्था का द्योतक है तथा इसका प्रारंभ व्यक्ति
के जीवन के छठे वर्ष से लेकर यौवनारंभ अर्थात् ग्यारह या बारह वर्ष तक चलता है। इस
अवस्था की मुख्य विशेषता है कि व्यक्ति अपने बाह्य जगत के माध्यम से सुख प्राप्त करता
है। इस अवस्था का प्रत्यक्ष संबंध प्रारंभिक शिक्षा की अवधि से है तथा इसे बालक के सामाजिक
विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
5. जननांगीय अवस्था—यह किशोरावस्था से प्रारंभ होकर व्यस्क होने तक रहती है।
इसके अन्तर्गत विषम लिंगी से परिपक्व सेक्स संबंध द्वारा प्राणी को सुख प्राप्त होता है। इसके
विपरीत पूर्व वर्णित प्रथम तीन अवस्थाओं यथा, मौखिक अवस्था, गुदा जन्य अवस्था तथा
लैंगिक अवस्था को पूर्व जननांगीय अवस्था का नाम दिया जाता है। लेकिन जननांगीय अवस्था
के अन्तर्गत किसी विषमलिंगी के प्रति प्यार उत्पन्न होता है तथा माता-पिता पर निर्भरता से
छुटकारा मिलता है।
         अधिगम सिद्धांतों के अनुसार व्यक्तित्व विकास― अधिगम सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति
का विकास महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा दिए गए पुरस्कार एवं दण्ड पर निर्भर होता है। अधिगम
तथा मनोविश्लेषणवादी सिद्धांतों के समर्थक दोनों मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के प्रारंभिक अनुभवों
पर यथेष्ठ बल देता हैं। फिर भी व्यक्तित्व के अनेकानेक विशेषकों तथा गुणों को अधिगम
का प्रतिफल मानना अधिक उपयुक्त होगा।
            रोल सिद्धांतों के अनुसार व्यक्तित्व का विकास― यह प्रायः स्वीकार किया जाता है
कि बिना समाज के व्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। हम जैसे-जैसे बढ़ते हैं, समाज
हमसे विशेष प्रकार के व्यवहार या आचरण की अपेक्षा करता है। एक बालक के किशोर,
प्रौढ़, अभिभावक, कार्यकर्ता, नागरिक या सिपाही के रूप में समाज इनसे पृथक-पृथक
भूमिकाओं का निर्वाह कर सकने की माँग करता है। इस दृष्टि से रोल सिद्धांतों द्वारा प्रस्तुत
उक्त व्याख्या अत्यंत उपयोगी एवं सटीक सिद्ध हुई है। यहाँ ध्यान यह भी रखने योग्य है
कि रोल सिद्धांतों तथा अधिगम सिद्धांतों में पर्याप्त समानता है।
          सामान्य रूप में रोल सिद्धांतों का यह आशय है कि हर व्यक्ति किसी न किसी रोल
का निर्वाह करने के लिए पैदा हुआ है। उसका यह रोल पूर्व-नियत जैसा होता है। वह कौन
सी भाषा बोलेगा. कहाँ रहेगा, किस तरह का आचरण या कार्य करेगा आदि बाते उसके रोल
के अनुसार पूर्व नियत होती है। अपनी पराश्रयता की अवस्था में वह अपने वयस्कों द्वारा
औपचारिक एवं अनौपचारिक प्रसंगों में अपेक्षित भूमिका निर्वाह करने की विधियों को सीख
लेता है।
प्रश्न 20. व्यक्तित्व की विशेषताएँ का वर्णन कीजिए।
उत्तर–व्यक्तित्व की विशेषताएँ― व्यक्तित्व की अनेक विशेषताओं का ज्ञान होता है।
इनमें से मुख्य इस प्रकार हैं:
      1. स्व-चेतना―स्व-चेतना अर्थात् आत्मचेतना व्यक्तित्व की सर्व-प्रमुख विशेषता है।
गार्डनर मर्फी ने लिखा है कि. “व्यक्ति अपने को किस रूप में जानता है वहीं उसका ‘स्व’
है।” जन्मजात शिशु को ‘स्व’ की चेतना नहीं होती। आयु बढ़ने के साथ ही आत्मचेतना
का विकास संभव होना है। आत्मचेतना के कारण ही मानव को सभी जीवधारियों में
महत्त्वपूर्ण स्थान प्रा है। भारतीय दर्शन ‘स्व’ का आत्मा मानता है। स्व का बाघ आत्मा
का बोध है।
    2. वंशानुक्रम और पर्यावरण― व्यक्तित्व विकास में वंशानुक्रम तथा पर्यावरण का विशेष
योगदान रहता है । व्यक्तित्व की नींव वंशानुक्रम होती है लेकिन उसका विकास पर्यावरण में
होता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए ये दोनों कारक आवश्यक हैं।
    3. सामाजिकता― सामाजिकता भी व्यक्तित्व की विशेषता है । आधुनिक शिक्षा का एक
मुख्य उद्देश्य बालक को समाजपयोगी बनाने का है। कुछ विद्वानों के अनुसार वालक के स्व
का विकास सामाजिक पर्यावरण में होता है। व्यक्तित्व को समाज में अलग नहीं किया जा
सकता । व्यक्तित्व में सामाजिक चेतना का समावेश दूसरे लोगों के सम्पर्क में आने पर ही
होती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व की उपयोगिता तथा अनुपयोगिता की अच्छी कसौटी उसकी
सामाजिकता ही है।
    4. शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य― व्यक्ति का अच्छा स्वास्थ्य अच्छे व्यक्तित्व का
मुख्य विशेषता है। अच्छी वेशभूषा से युक्त सुगठित तथा निरोग शरीर प्रथम भेंट में ही प्रभावित
करता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। इन दोनों का सकारात्मक
प्रभाव व्यक्ति के सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों पर पड़ता है।
    5. संगठन—व्यक्तित्व बहुत-सी इकाइयों का संगठन है। यह संगठन स्थिर न होकर
गतिशील है। उसमें वृद्धि और विकास के साथ ही व्यक्ति के शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक
पहलू भी विकसित होते हैं। समय के साथ ही शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होते रहते हैं।
    6. समायोजनशीलता–व्यक्ति यदि सुसमायोजित नहीं है तो व्यर्थ है। क्रिया और व्यवहार
में परिस्थितियों के अनूकुल बदलाव लाकर स्वयं को समायोजित कर लेना ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व
का लक्षण है। समायोजनशीलता भी व्यक्ति को आन्तरिक द्वन्द्व से मुक्त रख पाती है। वह
बुद्धिकौशल एवं लाघव वास्तविकता को सही ढंग से समझता है, उत्तरदायित्व की भावना का
पोषण करता है, परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन की क्षमता उत्पन्न कर लेता है, अच्छे सामाजिक
सम्बन्धों का विकास कर पाता है और अच्छे स्वास्थ्य के साथ अपने पर्यावरण में सुख का
अनुभव करता है।
      7. परिवर्तनशीलता― व्यक्ति का व्यवहार स्थितियों व समय के अनुसार बदलता रहता
है। अनुभव व अधिगम व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं तथा इस प्रकार इसके व्यवहार में
भी परिवर्तन आ जाता है । व्यवहार परिवर्तन से व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आता रहता है।
परिवर्तनशीलता व्यक्तित्व का एक मुख्य गुण है।
8. निर्देशित लक्ष्य प्राप्ति―पर्यावरण या परिवेश की परिवर्तित परिस्थितियों में व्यक्ति
की समायोजन क्षमता हो उसको कार्य-गति को नियंत्रित करती है। व्यक्तित्व एक निष्क्रिय
वस्तु नहीं है क्योंकि यह परिस्थितियों का गुलाम नहीं है। यह परिस्थितियों में बदलाव लाकर
उन्हें अपने अनुकूल बना लेने की योग्यता रखता है।
9. दृढ़ इच्छा शक्ति― इस शक्ति के फलस्वरूप ही व्यक्ति में दृढ़ता उत्पन्न होती है।
जिसके पास दृढ़ संकल्प है वह कठिनाइयों पर आश्चर्यजनक विजय पा लेता है।
सुनिश्चित सिद्धांतों के प्रति अविचलित मान्यता रखना ही समस्त संकल्पनाओं को आत्म होती
है। दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व सिद्धांतों का परित्याग नहीं करता है और सिद्धांत भी उसे असहाय
नहीं छोड़ते । वह व्यक्तित्व आसानी से विघटित हो जाता है जिसमें दृढ़ इच्छा शक्ति नहीं है।
    10. विशिष्टता―एडलर के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार तथा व्यक्तित्व विशिष्ट
होता है।” किंही दो व्यक्तियों के व्यवहार तथा विचार समान नहीं होते । सभी व्यक्तियों के
व्यवहार एवं विचार अपने आप में विशिष्ट होते हैं।
     11. एकता तथा समाकलन–व्यक्तित्व की पूर्णता उसकी एकता एवं समाकलन में निहित
है। व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक तत्त्वों में एकता का
बनना आवश्यक है। प्रो. आलपोर्ट ने व्यक्तित्व का समाकलन उस दशा में संभव माना है
जब व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्यों को उनकी प्राप्ति से अधिक वरीयता दे।
     12. विकास की निरंतरता―विकास की निरंतरता व्यक्तित्व को एक मुख्य विशेषता
है। व्यक्ति का विकास जीवन भर चलता रहता है जिसके कारण व्यक्तित्व का स्वरूप परिवर्तित
होता रहता है। वास्तव में व्यक्तित्व सतत् निर्माण की एक प्रक्रिया है। उपर्युक्त परिभाषाओं
के आधार पर हम कह सकते हैं कि व्यक्तित्व परिवर्तन को एक सतत् प्रक्रिया है तथा व्यक्तित्व
किसी व्यक्ति का सर्वांगीण चित्र है।
प्रश्न 21. व्यक्तित्व के मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर–व्यक्तित्व शब्द को अंग्रेजी में Personality कहते हैं, जो Latin भाषा के Persona
शब्द से लिया गया है। जिसका अर्थ होता है-मुखौटा। इसके दो Views होते हैं―
मनोविश्लेषणवादी और व्यवहारवादी।
1. मनोविश्लेषणवादी विचारकों के अनुसार-जब व्यक्ति जन्म लेता है तो कुछ मूल
प्रवृत्तियाँ साथ लेकर आता है। अतः कहा गया है कि व्यक्तित्व जन्मजात सहज प्रवृत्तियों
के आधार पर ही निर्धारित किया जाता है। अर्थात् व्यक्ति अपने ऊर्जा से ही गतिशील है,
पर्यावरण का बहुत थोड़ा प्रभाव पड़ता है।
2. व्यवहारवादी विचारक के अनुसार-व्यक्ति के व्यवहार उसके विशेषकों पर आधारित
है। विशेषक का मतलब है-अपेक्षाकृत अधिक स्थायी व्यवहार । यह व्यवहार अर्जित होता
है, पर्यावरण से । व्यवहारवादी कहते हैं कि व्यक्ति यंत्र के समान है तथा पर्यावरण उसे नियंत्रित
करता है।
              हम जानते हैं कि व्यक्तित्व के विकास के लिए इसकी व्याख्या करने में तीन प्रकार
के सिद्धांत उपयोगी सिद्ध हुए हैं-मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत, अधिगम सिद्धांत तथा रोल सिद्धांत
व्यक्तित्व के कुछ और सिद्धांत भी बताए गए हैं, जिनमें ये दोनों प्रमुख सिद्धांत हैं-व्यक्तित्व
को गत्यात्मकता से सम्बन्धित सिद्धांत, जिसमें मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत भी शामिल है तथा
विशेषक सिद्धांत ।
          व्यक्तित्व की गत्यात्मकता से संबंधित सिद्धांत―इस सिद्धांत के अन्तर्गत मुख्य रूप
से उल्लेखनीय है- फ्रायड, जुग तथा एडलर का मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत तथा कुर्त लुविन
का संज्ञानात्मक-क्षेत्र सिद्धांत ।
              फ्रायड का मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत― फ्रायड का मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत, दो
आधारभूत सिद्धांतों पर निर्भर है।
1. मनोनियतिवाद―जिससे यह तात्पर्य है कि मानव व्यवहार संयोगवश घटित होकर
कुछ विशेष मनोवैज्ञानिक या मानसिक कारकों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है।
2. सुख अनुसिद्धांत तथा यथार्थ अनुसिद्धांत के मध्य समझौता निरूपित करने वाला
सिद्धांत― जिसके अनुसार यह माना जाता है कि हमारा व्यक्तित्व इन दो अनुसिद्धांतों के माध्यम
से निरंतर उत्पन्न संघर्षों एवं उसके फल समाधान के फलस्वरूप बनता है।
सुख सिद्धांत के अनुसार प्राणी अपनी मूल-प्रवृत्तियों जिजीविषा तथा मुमूर्षा की संतुष्ठि
प्राप्त करना चाहता है। जबकि यथार्थ अनुसिद्धांत के अनुसार उसे अपने सामाजिक मानदण्डों
एवं आचार-सहिता का सम्यक् अनुपालन करना पड़ता है। वह हर क्षणसुख अनुसिद्धांत का
अनुसरण नहीं कर सकता। इसलिए एक स्वस्थ व्यक्ति में इन दोनों अनुसिद्धांतों के बीच बड़ा
ही मधुर एवं अपेक्षाकृत स्थायी समन्वय प्राय: देखने को मिलता है। अर्थात्―
इदम् किसी तरह से सुख प्राप्त करना यानी सुख-सिद्धांत
अहम् यथार्थवादी सिद्धांत, यानी कोई चीज लेना ठीक है या नहीं?
पराहम् आदर्शवादी सिद्धांत ।
विशेषताएंँ:
1. व्यक्ति के जीवन के प्रथम पाँच वर्षों में अर्जित संस्कार उसके व्यक्तित्व की
आधारशिला निर्मित करते हैं। इस संबंध में विकास को अवस्थाओं यथा, मौखिक,
गुदा जन्य तथा लैंगिक का विशेष महत्व होता है।
2. अभिप्रेरणा के संदर्भ में उल्लेखित फ्रायड की दोनों मूल प्रवृत्तियों यथा, जिजीविषा एवं
मुमूर्पा का व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से गंभीर भूमिका होती है।
3. व्यक्ति की विकास यात्रा की अवधि में उसकी मूल-प्रवृत्तियों या अन्तर्नोद का बाह्य
वस्तुओं एवं आत्म से जुड़े जाने की प्रक्रिया भी व्यक्तित्व-रचना को घनिष्ठ रूप से
प्रभावित करती है।
4. व्यक्ति के मन को तीन स्तरों पर विश्लेषित करना संभव हैं। ये हैं- चेतन, अवचेतन
तथा अचेतन स्तर । मन की चेतन स्तर, व्यक्ति के ज्ञाता, कर्त्ता या जागरूक स्वरूप
द्वारा व्यक्त होता है। अवचेतन स्तर, उस माध्यम से प्रकट होता है, जो उसकी स्मृति
द्वारा तुरंत उपलब्ध कराये जाते हैं तथा अचतेन स्तर, व्यक्ति के मन का वह अथाह,
अज्ञात या घोर अतल है, जिस तक पहुँचना दुष्कर है।
5. व्यक्ति को संगठित करने में व्यक्ति की तीन प्रकार की व्यवस्थाओं का अपूर्व योगदान
होता है। यह हैं- इदम्, अहम् तथा पराहम्
6. अपने यथार्थ के साथ समंजन कायम करने की दृष्टि से हमारा व्यक्तित्व एक प्रकार
की ‘रक्षा-युक्ति’ विकसित कर लेता है।
          कार्ल जुंग का विश्लेषणात्मक सिद्धांत :―जुंग ने फ्रायड के मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत
में कामलिप्सा पर अधिक जोर देने की प्रवृत्ति को उचित नहीं माना तथा मनोविश्लेषण सम्बन्धी
अपने निजी दृष्टिकोण को विकसित किया। उन्होंने मनोचिकित्सा एवं मनोविश्लेषण के बारे
में जिस धारणा को प्रश्रय दिया, उसे विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान कहा जाता है। उनकी इस
धारणा के महत्त्वपूर्ण बिन्दु निम्नलिखित हैं―
1. मनुष्य का व्यवहार विगत तथा आगत दोनों के द्वारा निर्देशित होता है। यानी व्यक्ति की
अतीत जहाँ उसको वास्तविकता है, उसका भविष्य एक महत्त्वपूर्ण संभावना है।
2. उनके अनुसार मनुष्य योजना बनाकर भविष्य के लिए काम करता है।
3. व्यक्ति के निर्माण या संरचना में कई व्यवस्थाएं काम करती हैं । यह व्यवस्थाएँ निम्नलिखित
है―(i) अहम्, (ii) वैयक्तिक अचेतन तथा उसकी मनोग्रन्थियाँ, (iii) सामूहिक अचेतन ।
तथा आद्य प्रारूप, (iv) पींना या मुखौटा, (v) अन्तारी तथा अंतर्नर, (vi) छाया, (vii)
अंतर्मुखी एवं बहिर्मुखी व्यक्तित्व से संबंधित अभिवृत्तियाँ तथा प्रकार्य, (viii) आत्म।
जुंग की गत्यात्मकता का सिद्धांत―इस सिद्धांत में तीन बातें मख्य हैं―1. एक प्रवृति
दूसरे प्रवृत्ति की पूरक है, 2. एक प्रवृत्ति की विरोधी है, 3. दो प्रवृत्तियाँ मिलकर एक नवीन
प्रवृति को जन्म देती है।
व्यक्तित्व की गत्यात्मकता में दो प्रकार के अनुसिद्धांत जुंग ने बताए हैं―
1. समतुल्यता का सिद्धांत―जिसके अनुसार किसी खास दशा को बनाए रखने के लिए
प्रयुक्त ऊर्जा व्यक्तित्व के पूरे संगठन में एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर प्रवाहित होकर
व्यक्ति में संतुलन कायम कर देती है । उदाहरणार्थ, किसी विशेष प्रकार के मूल्य के दुर्बल
या लुप्त हो जाने पर उसके द्वारा प्रयुक्त कुल ऊर्जा नष्ट न होकर किसी नवीन मूल्य में प्रदर्शित
होती है। इस प्रकार बालक द्वारा अपने परिवार के प्रति अर्हता या मूल्य घटने पर उसकी
अन्य व्यक्तियों तथा वस्तुओं में रुचि बढ़ जाती है।
2. एन्ट्रोपी का अनुसिद्धांत—जिसके अनुसार Psyche में ऊर्जा को वितरण संतुलन की
ओर उन्मुख होता है। उदाहरण के लिए दो असमान बल वाले मूल्यों के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति
की ऊर्जा अधिक शक्तिशाली मूल्य से दुर्बल मूल्य की ओर तब तक प्रभावित होती है, जब
तक कि दुर्बल मूल्य भी शक्तिशाली न बन जाये (अर्थात् संतुलन की स्थिति दोनों में आ जाये।)
सीमाएँ-इस सिद्धांत के विरुद्ध प्रायः यह कहा जाता है कि इनमें इन्द्रियानुभाविकता
का भाव न होकर तत्व मीमांसात्मक उपागम अपनाने का विशेष आग्रह है। आंग्ल
मनोविश्लेषणवादी ग्लोवर ने यह आरोप लगाया कि जुंग ने फ्रायड की अचेतन सम्बन्धी धारणा
को तोड़-मरोड़कर उसकी जगह ‘चेतन, अहम्’ के सम्प्रत्यय को स्थापित किया है।
एलडर का व्यक्तिगत मनोविज्ञान―आल्फ्रेड एलडर ने व्यक्तिगत मनोविज्ञान को जन्म
दिया। उन्होंने इस मनोविज्ञान में निम्नलिखित बातों पर जोर दिया है―
1. मनुष्य एक प्रकार की सामाजिक अन्तः प्रेरणा द्वारा अभिप्रेरित होता है।
2. वह वर्तमान एवं भविष्य की बात करता है।
3. मनुष्य में आक्रामकता होती है।
4. मनुष्य सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्षरत रहता है।
5. मनुष्य में एक विशेष प्रकार की जीवन शैली पाई जाती है।
6. मनुष्य में विलक्षणता पाई जाती है।
7. मनुष्य में सर्जनात्मक आत्म के गुण पाए जाते हैं, जो उनके अनुभवों की व्याख्या
करती है।
एलडर ने व्यक्तित्व-निर्माण के लिए कुछ मुख्य सम्प्रत्ययों का निर्माण किया है, जो
निम्नलिखित हैं―
1. कल्पित प्रयोजनावाद― जैसे– स्वर्ग और नरक की कल्पना करना कि अमुक काम
पर स्वर्ग तथा अमुक काम पर नरक मिलता है, जबकि मनुष्य ने इसे देखा नहीं है।
2. श्रेष्ठता की चाह― जैसे–ऋण से धन की ओर बढ़ने की इच्छा या निम्न से उच्च
की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति कभी समाप्त नहीं होती।
3. हीनता-भाव तथा क्षति-पूर्ति― व्यक्ति के जीवन के किसी भी क्षेत्र में अपूर्णता का
अनुभव होने पर उसमें हीनता का भाव उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ एक बालक हीनता की
भावना से अभिप्रेरित होकर अपने उच्चस्तरीय विकास की चेष्टा करता है । जब वह उक्त-स्तर
प्राप्त कर लेता है, तो उसमें हीनता की भावना का पुन: उदय हो जाता है और वह उससे
भी ऊँचे स्तर की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति प्रदर्शित करने लग जाता है।
          अतः मनुष्य अपनी हीनता पर विजय प्राप्त करने तथा श्रेष्ठता हासिल करने की इच्छा
से आगे बढ़ता है।
4. सामाजिक रुचि―एलडर के अनुसार सामजिक रुचि जन्मजात होती है तथा इसके
द्वारा व्यक्ति पूर्ण समाज के ध्येय को प्राप्त करने की दृष्टि से समाज की मदद करता है।
5. जीवन-शैली―एलडर के अनुसार व्यक्ति की जीवन शैली उसके जीवन के प्रारंभिक
काल अर्थात् चार या पाँच वर्ष की आयु में निर्मित होती है। एलडर ने यह बताया कि व्यक्ति
की जीवन शैली उसकी विशिष्ट हीन-भावनाओं पर निर्भर होती है। उदाहरणार्थ, शारीरिक दृष्टि
से अत्यन्त दुर्बल बालक अपनी जीवन-शैली में ऐसे कार्य पूरा करना चाहेगा, जिससे उसकी
शारीरिक शक्ति बढ़े तथा मंद बालक बौद्धिक-श्रेष्ठता प्राप्त करने की कोशिश करेगा।
      6. सर्जनात्मक आत्म―सर्जनात्मक आत्म के सम्प्रत्यय को एलडर की व्यक्तित्व संबंधी
धारणा को चरम परिणति कहा जा सकता है। एलडर ने व्यक्ति के ‘सर्जनात्मक आत्म’ को
उसको मानवीयता का आदि कारण के रूप में उपकल्पित किया। उनके अनुसार हम इसे
देख नहीं सकते, किन्तु इसका प्रभाव महसूस कर सकते हैं
             अतः उपर्युक्त सभी मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत तथा कुर्त लुविन का क्षेत्र सिद्धांत भी
व्यक्तित्व की संरचना के बारे में एक गतिशील एवं गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। इन सिद्धांतों
के अन्तर्गत व्यक्तित्व के विकास में व्यक्ति की अभिप्रेरक प्रवृत्तियों को प्रमुख कारक समझा
जाता है तथा व्यक्तित्व को अत्यन्त गतिशील, परिवर्तनीय एवं रचनात्मक संरचना के रूप में
अभिकल्पित किया गया है।
प्रश्न 22. बच्चों के व्यक्तित्व विकास में अभिभावक, परिवेश, समाज एवं विद्यालय
की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―1.अभिभावक एवं परिवार संसार–व्यक्तित्व के निर्माण में पारिवारिक जीवन
का बहुत अधिक महत्त्व है। घर और परिवार के स्वस्थ वातावरण में बच्चे को अपने व्यक्तित्व
के विकास के लिए समुचित अवसर प्राप्त हो सकते हैं जबकि घर का बिगड़ा हुआ वातावरण
उसके व्यक्तित्व को गलत दिशा प्रदान कर सकता है। घर और परिवार के वातावरण में बच्चे
के व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कुछ उल्लेखनीय तत्त्व निम्न हैं :
      (i) माता-पिता―माता-पिता की शिक्षा, उनके व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण, संवेगात्मक और
सामाजिक व्यवहार, उनके आपसी सम्बन्धी, रुचि और अभिरुचि तथा चरित्र का
बच्चों के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
       (ii) माता-पिता का बच्चे के प्रति दृष्टिकोण―बच्चे के साथ माता-पिता किस प्रकार
का व्यवहार करते हैं, वे अधिक लाड़ करते हैं अथवा उसकी उपेक्षा करते हैं, इन
बातों का प्रभाव भी बच्चे के व्यक्तित्व पर पड़ता है।
(iii) परिवार में बच्चों की संख्या और उसका जन्म क्रम―परिवार में कितने बच्चे
हैं, वे कितने भाई-बहन हैं, वह सबसे पहला बच्चा है अथवा अन्तिम, इन बातों
पर भी बच्चे के व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता है।
(iv) पारिवारिक स्थिति और आदर्श― परिवार की सामाजिक व आर्थिक स्थिति कैसी
है, वह किन मान्यताओं, विश्वास अथवा मूल्यों में श्रद्धा रखते हैं, किस संस्कृति
व धर्म को अपनाते हैं इन बातों का प्रभाव भी बच्चे के व्यक्तित्व पर पड़ता है।
2. विद्यालय का वातावरण― बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में विद्यालय के वातावरण
का भी विशेष महत्त्व है। अध्यापक, प्रधानाध्यापक, सहपाठियों के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण,
शिक्षण विधियाँ, पाठ्यक्रम, पाठान्तर क्रियाओं का आयोजन, विद्यालय द्वारा बना कर रखे हुए
उच्च आदर्श तथा मूल्य और विद्यालय का सामान्य वातावरण आदि सभी तत्त्व बच्चे के व्यक्तित्व
के विकास को प्रभावित करते हैं।
3. समाज―सामाजिक परिवेश, जिसमें पल कर बच्चा बड़ा होता है, उसके व्यक्तित्व
के विकास को प्रभावित करता है, पड़ोस, धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाओं और सिनेमा
टेलीविजन, समाचारपत्र, पत्रिकाओं आदि में जो कुछ भी विद्यमान होता है― यह बच्चे के
व्यक्तित्व को उचित या अनुचित दिशा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समाज
द्बारा अंगीकृत मान्यताओं,विश्वासों, मूल्यों, आदर्शों तथा रीति–रिवाजों को बच्चा ग्रहण करने
का प्रयत्न करता है। वह जिस प्रकार के समुदायों तथा सामाजिक वर्ग में रहता है उसी के
अनुकूल आचरण और व्यवहार करने का प्रयत्न करता है और इस तरह सामाजिक परिवेश
बच्चे के व्यक्तित्व को बहुत कुछ प्रभावित करता है।
      इस प्रकार से व्यक्तित्व के विकास कार्य में बहुत सारे तत्व अथवा कारक अपना-अपना
सहयोग प्रदान करते हैं। इनमें से शारीरिक ढाँचा, स्नायु संस्थान और ग्रन्थियाँ आदि कारक
बहुत अधिक सीमा तक वंशानुक्रम की देन के रूप में हमारे सामने आते हैं। जबकि घर,
परिवार, विद्यालय और समाज तथा समुदाय से सम्बन्धित कारक पूरी तरह से वातावरण सम्बन्धी
शक्तियों में शामिल किए जा सकते हैं। कुछ मानसिक और मनोवैज्ञानिक कारक वंशानुक्रम
और वातावरण सम्बन्धी शक्तियों के बीच में आते हैं। इन्हें दोनों शक्तियों के प्रभाव क्षेत्र के
रूप में स्वीकृति दी जा सकती है। इस प्रकार से यह भली-भाँति निष्कर्ष निकाला जा सकता
है कि व्यक्तित्व के विकास का वृहत् कार्य वंशानुक्रम तथा वातावरण सम्बन्धी शक्तियों के
अदम्य सहयोग के द्वारा ही सम्पन्न होता है।
प्रश्न 23. ऐरिक्सन द्वारा प्रतिपादित ‘व्यक्तित्व विकास सिद्धान्त’ क्या है? समझाइए।
उत्तर―ऐरिक्सन का व्यक्तित्व-विकास का सिद्धान्त-ऐरिक्सन व्यक्तित्व विकास के
सिद्धान्त को पश्चनक सिद्धान्त पर केन्द्रित करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, भ्रूण के विकास
में शरीर के कुछ अंग कुछ विशिष्ट समय पर प्रकट होते हैं और अन्तिम रूप से मिलकर
बालक का रूप ले लेते हैं। ऐरिक्सन के अनुसार व्यक्तित्व का विकास इसी भाँति होती है।
उसका कहना है कि जिस प्रकार से शरीर के विभिन्न भाग जब प्राणी माँ के गर्भ में होता
है, अन्तःसम्वन्धित रूप से विकसित होते हैं उसी प्रकार एक व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता चलता
है जैसे-जैसे अहम् अन्तर सम्बन्धित स्तरों की श्रृंखला में वृद्धि प्राप्त करता चलता है। यह
सब अहम् के स्तर प्रारम्भ में किसी रूप में प्रस्तुत तो रहते हैं, किन्तु प्रत्येक विकास का
एक निजी समय होता है।
मनोसामाजिक विकास के स्तर―ऐरिक्सन व्यक्तित्व-विकास को एक परावर्तन बिन्दुओं
की शृंखला समझता है और उसका वर्णन वांछित तथा अवांछित युग्म शाखीय शब्दों में करता
है। ऐसा करने में उसका तात्पर्य यह नहीं है कि केवल वांछित योग्यताएँ ही उभरें और किसी
भी रूप में अवांछित योजनाएं, जिन्हें वह संकटों की भाँति प्रस्तुत करता हैं, न प्रकट हो सकें।
वह केवल इस बात पर बल देता है कि आनुपातिक रूप में वांछित योग्यताएँ अधिक स्थापित
की जाएँ। उसका कहना है कि केवल उस समय ही, जबकि नकारात्मक गुण नकारात्मक
से अधिक भार ग्रहण कर लेंगे तभी विकास की कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाएँगी।
ऐरिक्सन द्वारा वर्णित मनोसामाजिक विकास के स्तर―
1. विश्वास विपरीत विश्वास –(जन्म से एक वर्ष तक)–जो मूल बात एक शिशु को
सीखनी होती है वह यह है कि वह अपने संसार में विश्वास रख सकता है। विश्वास पनपता
है क्रमशीलता, स्थायित्व तथा अनुभव की समानता पर, जो अभिभावकों द्वारा शिशु को उसकी
मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के समय प्राप्त होती हैं। माता का वास्तविक प्यार कहीं अधिक
कीमती होता है भोजन की मात्रा या ऊपरी प्यार के दिखावे की तुलना में, यदि शिशु की
आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, माता-पिता का वास्तविक प्रेम उसे मिलता है तो उसे संसार
में विश्वास हो जाता है। इसके विपरीत यदि उसकी परवाह नहीं की जाती, ऊपरी दिखावा
होता है तो बालक संसार के प्रति भय तथा शंका का दृष्टिकोण अपना लेता है।
2. स्वाधीनता विपरीत शर्म तथा शंका–(2 से 3 वर्ष)–उस समय जब बालक अपने
माता-पिता पर विश्वास करना सीख जाते हैं उन्हें कुछ सीमा तक स्वतंत्रता प्रकट करनी चाहिए।
अभिभावकों को बालकों को अपनी योग्यता एवं गति के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता
दे देनी चाहिए। ऐसा करने में उनमें स्वाधीनता की भावना विकसित हो जाएगी। यदि अभिभावक
और शिक्षक उनको ऐसा नहीं करने देंगे और उनके लिए स्वयं बहुत कुछ कार्य करेंगे तो
बालकों में वातावरण का सामना करने की अपनी योग्यता के सम्बन्ध में शंका उत्पन्न हो जाएगी।
इसके साथ ही साथ प्रौढ व्यक्तियों को बालक के न पसन्द किए जाने वाले व्यवहार के लिए
शर्माना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से उनमें अपने आप पर शंका होने लगती है।
3.पहल विपरीत दोष–(4से5 वर्ष तक)–यदि बालकों का प्रयोग करने और खोज
करने की स्वतंत्रता होती है तो उनमें पहल करने की प्रवृत्ति विकसित होती है। यदि उन पर
प्रतिबन्ध लगाए जाते हैं तो दोष की भावनाएँ पनपती हैं।
4. परिश्रम विपरीत हीनता―(6 से 11 वर्ष तक)–यदि बालक को प्रोत्साहन मिलता
है तो वह परिश्रमी हो जाता है। इसके विपरीत यदि उसके प्रयास विफल होते हैं अथवा
उसे हतोत्साहित किया जाता है तो होनता की भावना उभरती है।
5. अभिज्ञान विपरीत भूमिका द्विविधा–(12 से 18 वर्ष तक)–यदि किशार विभिन्न
स्थितियों में भूमिकाओं में एकत्रीकरण प्राप्त करने में सफल होता है ताकि वह अपने अनुभवों
में अपने आत्म को निरन्तरता प्रत्यक्ष कर सके तो उसमें अभिज्ञान विकसित होता है। उस
दशा में जब वह अपने जीवन के विभिन्न पक्षों में स्थायित्व की भावना नहीं बना पाते तो
उसमें अपनी भूमिका सम्बन्धी द्विविधा उत्पन्न हो जाती है।
6. घनिष्ठता विपरीत अकेलापन– (युवा प्रौढ़)–युवा अपने अभिज्ञान को दूसरों के
साथ मिला देने का इच्छुक होता है। वह घनिष्ठता के लिए तैयार होता है। इस स्तर का
संकट यह है कि घनिष्ठ, होड़ करने वाले तथा द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध अपने जैसे लोगों के प्रति
ही अनुभव किए जाते हैं कि उनमें अकलंपन को बढ़ावा दे देते हैं।
7. उत्पादकता विपरीत ठहराव―(मध्य आयु)–उत्पादकता प्राथमिकता रूप से नई पीढ़ी
को निर्देश सम्बन्धित होती है। वह जो इस प्रक्रिया से अलग रहते हैं उनमें ठहराव
आ जाता है।
8. सन्निष्ठा विपरीत नैराश्य― (बुढ़ापा)–सन्निष्ठा से तात्पर्य है कि व्यक्ति यह स्वीकार
कर लेता है कि जैसा भी उसके जीवन का चक्र है वह वैसा ही होता था, उसमें कोई परिवर्तन
नहीं हो सकता था। तात्पर्य है कि वह अपने जीवन चक्र से सन्तुष्ट रहता है। इसके विपरीत
व्यक्ति नैराश्य से भरे होते हैं जो यह भावना व्यक्त करते हैं कि अब नया जीवन प्रारम्भ करने के लिए
समय बहुत कम है। नये मार्ग जीवन से सन्तोष प्राप्त करने के लिए अब नहीं अपनाए जा सकते ।
ऐरिक्सन के सिद्धान्त में निहिताएँ–विद्यालय जाने की आयु से छोटी आयु वाले बालकों
को खेलन, कुदने और अपने को अनेक क्रियाओं में लगाए रहने को स्वतंत्रता होनी चाहिए
ताकि उनमें स्वाधीनता को प्रोत्साहन मिले । किण्डरगार्टन के स्तर पर अपने आप पहल की
हुई क्रियाओं को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। बालकों में दोष की भावना न
बन जाए, इस ओर सावधान रहने के लिए आवश्यक है कि चार तथा पाँच वर्ष की आयु
के बालकों के अभिभावक और शिक्षक उनमें अपने भाई, बहनों तथा सम आयु के बालकों
के साथ ईर्ष्या को नहीं पनपने दें।
        प्राथमिक कक्षा की आयु पर बालक परिश्रम विपरीत हीनता के स्तर पर होते हैं। इस
कारण प्रतिद्वन्द्वता को नहीं बढ़ने देना चाहिए वरन् उनमें जो मुकाबले में असफल रहेंगे, हीन
भावना पनप जाएगी। दूसरी और उन्हें अवसर मिलने चाहिए तथा ऐसे अनुभवों की ओर प्रोत्साहन
मिलना चाहिए जो उनमें कार्य के उचित ढंग से करने पर प्रसन्नता प्रदान करते हों।
     माध्यमिक कक्षा को आयु पर विद्यार्थी अभिज्ञान, विपरीत भूमिका द्विविधा’ स्तर पर होते
हैं। प्रत्येक विद्यार्थी अभिज्ञान की खोज में होता है। शिक्षकों को अभिज्ञान को प्रोत्साहन देना
चाहिए। ऐसा वह उनके व्यक्तिगत रूप-रंग को मान्यता देकर, उन्हें अल्पकालिक उद्देश्य जो
वही प्राप्त कर सके, चुनने को प्रोत्साहित करने तथा यह प्रदर्शित करके कि उनको एक महत्वपूर्ण
व्यक्तित्व वाला समझते हैं, कर सकते हैं।
किशोर काल में भूमिका द्विविधापूर्ण होती है, क्योंकि किशोरों को यह स्पष्ट पता नहीं
होता कि कौन-सा व्यवहार वांछित है जिसको दूसरे अच्छा समझेंगे। लिंग सम्बन्धी भूमिका
विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाती है।
      युवा प्रौढ़ावस्था में ‘घनिष्ठता विपरीत अकेलापन’ का संकट देता है। यदि पहले वाले
संकट उचित ढंग से सुलझा लिए गए हैं तो व्यक्ति इस काल के संकट में प्रवेश दूसरों में
विश्वास, स्वाधीनता के भाव, पहल करने की इच्छा, आत्मा-प्रतिष्ठा तथा अपनी योग्यताओं
में विश्वास के साथ करता है। वह बहुत कुछ अपने ऊपर भरोसा रखता है और यह समझता
है कि वह क्या है और क्या बनना चाहता है। इसके विपरीत वह व्यक्ति जिन्होंने पहले संकटों
का सामना ठीक से नहीं किया उनमें यह सब गुण अनुपस्थित होते हैं। वे अपना अभिज्ञान
खोजते रहते हैं। वे घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं बना पाते और उनका समायोजन कठिन हो जाता है।
प्रश्न 24. संवेगात्मक विकास के सिद्धान्तों को बताइए। वॉल्वी द्वारा प्रस्तावित
‘लगाव’ का सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर―संवेगात्मक विकास के सिद्धान्त–संवेगात्मक विकास को समझने के लिए
दो मुख्य सैद्धांतिक आधार रहे है―
1. व्यवहारवादी सिद्धांत―व्यवहारवाद सीखने की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा अहमियत
देता है, बच्चों को और उनके द्वारा की गई क्रियाओं पर मिलने वाली प्रतिक्रियाओं को। इन
प्रतिक्रियाओं के आधार पर बच्चे अपने व्यवहार को बदलते रहते हैं। संवेगात्मक विकास को
भी व्यवहारवाद में सीखी हुई अभिव्यक्ति के रूप में देखा गया है। प्रमुख और शुरूआती
व्यवहारवादी वॉटसन का मानना था कि बच्चे तीन प्रकार के संवेग पैदा होते है―(1)
डर खासतौर पर ऊँची आवाज से (2) आक्रोश-शारीरिक बंधन से (3) प्रेम-विशेष रूप से
स्नेहमय स्पर्श से।
      इन संवेगों के अलावा सभी संवेग और अभिव्यक्तियाँ बच्चे अन्य लोगों को देखकर सीखते
है और खुद के द्वारा अभिव्यक्त संवेगों पर मिलने वाली प्रतिक्रिया के अनुसार उसकी उपयुक्तता
और पुनरावृत्ति तय करते हैं।
2. संज्ञानात्मक सिद्धांत―यह सिद्धांत नये उत्तेजक (अभूतपर्व घटना या अपरिचित
व्यक्ति से साक्षात्कार) से होने वाली तनावपूर्ण प्रतिक्रियाओं को समझाती है। इस सिद्धांत के
अनुसार यदि नये अनुभव और मौजूदा स्कीमा में सामान्य सा अन्तर है तो उससे बच्चे रुचि,
आनन्द जैसे सकारात्मक भाव प्रदर्शित करेगी। पर अगर यह अंतर ज्यादा हो तो तनाव या
भय जैसे नकारात्मक भाव प्रदर्शित करेगें। इससे हमें समझ आता है कि क्यों बच्चे नया खिलौना
देखते ही पुराना खिलौना छोड़ देते है और यह भी कि क्यों वे हमेशा अपने आपसपास नई
खोज करने में रुचि दिखाते है।
वॉल्वी के द्वारा प्रस्तावित ‘लगाव’ का सिद्धांत :
यह थ्योरी व्यवहारवादी सिद्धांत से कहीं ज्यादा गहराई से लगाव को समझती है। जॉन
वॉल्वी ने एक मनोसमीक्षक के नजरिए से शिशु-पालनहार के संबंध को समझाने की कोशिश
की। बॉल्बी द्वारा प्रस्तावित लगाव के विकास की चार अवस्थाएँ है―
1. लगाव से पहले की अवस्था (जन्म से डेढ़ माह)―इस दौरान शिशु पकड़ना,
मुस्कुराना, रोना, वयस्को की आँखों में आँखे डालकर देखाने या नजर मिलाना-इन क्रियाओं
को संकेतों की तरह उपयोग करके आसपास के लोगों से संबंध स्थापित करते है । उनको अच्छा
लगता है जब कोई उन्हें गोद में लेता है, थपथपाता है, लोरी सुनाता है या प्यार से उनसे
कुछ कहता है। वे तब रोते है जब माँ या कोई वयस्क उनको गोद से उतार दे। वे वयस्को
की प्रतिक्रियाओं से प्रेरित होकर अपना व्यवहार निश्चित कर लेते है। पर ध्यान देने वाली
बात यह भी है कि इस उम्र तक शिशु अपने पालनहार से कोई विशेष नाता नहीं बनाते और
सभी वयस्को से उनकी एक सी अपेक्षा रहती है।
2. लगाव-निर्माण की प्रक्रिया की अवस्था (डेढ माह से 6-8 माह)―यह वह समय
है, जब हालांकि शिश परिचित पालनहार या मों और अन्य वयस्कों में न केवल फर्क पहचानते
है, बल्कि अपने और उनके व्यवहार में अंतर भी करते हैं। यह अलग बात है कि उनसे
जुदा किए जाने पर वे सख्ज प्रतिरोध नहीं करते। ये जरूर है कि वे मा या पालनहार की
उपस्थिति में ज्यादा स्वाभाविक व सहज महसूस करते है।
3. लगाव-निर्माण पूर्ण होने की अवस्था (6-8 माह से 1-2 वर्ष की आयु)―इस
अवस्था में साफ तौर पर शिशु-पालनहार का सम्बन्ध प्रस्तुत होता है। इस उम्र के बच्चे समझने
लगते है कि वस्तु के आँखों के ओझल होने के बावजूद वस्तु का अस्तित्व बरकरार रहता है।
इसी कारण से उनके इधर–उधर हो जाने पर रोने लगते हैं और उनको साथ रखने की
सचेत कोशिश करते हैं जैसे—उनका पोछा करके, उनके ऊपर चढ़ने की कोशिश करके
इत्यादि। जो बच्चे अपने पालकों के रिश्ते को लेकर सहज और निश्चिन्त है, वे अपने आसपास
को ज्यादा आत्मविश्वास से खोज-टटोल पाते हैं।
4. विपरीत संबंध का निर्माण (1-2 वर्ष और उसके उपरान्त)―2 साल की उम्र के
बच्चे भाषा और भाव की प्रस्तुति में दक्षता हासिल करने लगते है, जिससे वे यह समझने
लगते है कि माता-पिता के आने में देरी का कोई कारण होगा और किसी वजह से ही वे
बच्चों से दूर भी जाते है। इससे वे वयस्को के आसपास न होने से उतना विचलित नहीं होते
और न ही उनके तुरन्त ना लौट आने पर रोते है। एक और अन्तर जो बच्चों के व्यवहार
में देखा जाता है, वह यह है कि बड़ों का पीछा करने की बजाए वे इस उम्र में उन्हें रोकने
के लिए नये तरीके अपनाते है—मौखिक रूप से जिदद करके इत्यादि।
प्रश्न 25. संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।
बच्चों के संवेगात्मक विकास में परिवार, समवय समूह, समुदाय, विद्यालय तथा
अध्यापक की भूमिका को स्पष्ट करें।
उत्तर―संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors
Influencing Emotional Development)― बच्चों का संवेगात्मक विकास अनेक कारकों
द्वारा प्रभावित होता है। इसमें से कुछ मुख्य कारक निम्न है―
1. Fara ya pirifica facth (Health and Physical Development)―
शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य का संवेगात्मक विकास के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। आन्तरिक
और बाह्य दोनों प्रकार की शारीरिक न्यूनताएँ कई प्रकार की संवेगात्मक समस्याओं को जन्म
दे सकती है। स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट बच्चो की अपेक्षा प्रायः कमजोर अथवा बीमार बच्चे
संवेगात्मक रूप से अधिक असंतुलित एवं असमायोजित पाए जाते हैं। संतुलित संवेगात्मक
विकास के लिए विभिन्न ग्रन्थियों का ठीक प्रकार काम करना अत्यन्त आवश्यक है जो केवल
स्वस्थ एवं ठीक ढंग से विकसित होते हुए शरीर में ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार
से शारीरिक विकास की दशा और इसके स्वास्थ्य का बच्चे के संवेगात्मक विकास पर गहरा
प्रभाव पड़ता है।
2. बुद्धि (Intelligence)-समायोजन करने की योग्यता के रूप में बालक के संवेगात्मक
समायोजन और स्थिरता की दिशा में बुद्धि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस सम्बन्ध में
मेल्टजर ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है- “सामान्य रूप से अपनी ही उम्र के
कुशाम बालको की अपेक्षा निम्न बुद्धि स्तर के बालकों में क्रम संवेगात्मक संयम पाया जाता
है। विचार शक्ति, तर्क शक्ति आदि बौद्धिक शक्तियों के सहारे ही व्यक्ति अपने संवेगों
पर अंकुश लगाकर उनको अनुकूल दिशा देने में सफल हो सकता है। अतः प्रारम्भ से
ही बच्चों की बौद्धिक शक्तियाँ, बच्चों के संवेगात्मक विकास को दिशा प्रदान करने में लगी
रहती है।”
3. पारिवारिक वातावरण और आपसी सम्बन्ध (Family Atmosphere and
Relationship)―परिवार के वातावरण और आपसी सम्बन्धों का भी बच्चे के संवेगात्मक
विकास के साथ गहरा सम्बन्ध है,जो कुछ बड़े करते है, उसकी छाप बच्चों पर अवश्य पड़ती
है। अतः परिवार में बड़ों का जैसा संवेगात्मक व्यवहार होता है। बच्चे भी उसी तरह का
व्यवहार करना सीख जाते है। अशांतिमय, कला, लड़ाई-झगड़े से युक्त पारिवारिक वातावरण,
क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या आदि कलुषित संवेगों को ही जन्म दे सकता है. जबकि प्रेम, दया,
सहानुभूति और आत्म-सम्मान से भरपूर वातावरण द्वारा बच्चे में उचित और अनुकूल संवेग
अपनी जड़ जमाते हैं। माता-पिता तथा अन्य परिजनों के द्वारा उसके साथ किए जाने वाला
हार भी उसके संवेगात्मक विकास को प्रभावित करता है, यहाँ तक कि परिवार में बच्चों
अथवा भाई-बहन की संख्या, उसका पहली, दूसरी या आखिरी सन्तान होना, परिवार की
सामाजिक और आर्थिक स्थिति, माता-पिता द्वारा उसकी उपेक्षा या आवश्यकता से अधिक
देखभाल और लाड़-दुलार आदि बाते भी बच्चे के संवेगात्मक विकास को बहुत प्रभावित करते हैं।
4. विद्यालय का वातावरण और अध्यापक (School Atmosphere and
Teacher)–विद्यालय का वातावरण भी बालको के संवेगात्मक विकास पर पूरा-पूरा प्रभाव
डालता है। स्वस्थ और अनुकूल वातावरण के द्वारा बच्चों को अपना संवेगात्मक संतुलन बनाये
रखने और अपना उचित समायोजन करने में बहुत आसानी होती है। विद्यालय के वातावरण
में व्याप्त सभी बाते, जैसे-विद्यालय की स्थिति, उसका प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश,
अध्यापन का स्तर, पाठान्तर क्रियाओं और सामाजिक कार्यों की व्यवस्था, मुख्याध्यापक एवं
अध्यापकों के पारस्परिक सम्बन्ध और अध्यापकों को स्वयं का संवेगात्मक व्यवहार आदि बातें
बालकों के संवेगात्मक विकास को पर्याप्त रूप से प्रभावित करती हैं।
5. सामाजिक विकास और हमजोलियों के साथ सम्बन्ध (Social Development
and Peer-group Relationship)― सामाजिक विकास और संवेगात्मक विकास का आपस
में गहरा सम्बन्ध है। बच्चा जितना अधिक सामाजिक होगा, संवेगात्मक रूप से वह उतना
ही परिपक्व और संयमशील बनेगा। सामाजिक रूप से अविकसित अथवा उपेक्षित बच्चो को
अपने संवेगात्मक समायोजन में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। समाजीकरण
को प्रक्रिया बच्चों के ठीक-ठीक संवेगात्मक विकास और संवेगात्मक अभिव्यक्ति में बहुत
सहायता देती है। सामाजिक दृष्टि से जिस प्रकार का संवेगात्मक व्यवहार अपेक्षित है, इसका
पोषण बच्चों में उचित सामाजिक गुणों के विकास पर ही निर्भर करता है और इस दृष्टि में
सामाजिक विकास संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने में पूरी-पूरी भूमिका निभाता है।
6. पास-पड़ोस, समुदाय और समाज (Neighbourhood, the Community and
the Society)―परिवार और विद्यालय के अतिरिक्त बच्चों का अपना पड़ोस, समुदाय
और समाज जिसमें वह रहता है, उसके संवेगात्मक विकास को बहुत प्रभावित करते है।
अपने संवेगात्मक व्यवहार से सम्बन्धित सभी अच्छे और बुरे संवेग और आदतों को वह
इन्हीं सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से ग्रहण करता है। एक साहसी और निर्भय जाति
या समुदाय में पैदा होने वाले अथवा ऐसे वातावरण में पलने वाले बच्चों में साहस और
निर्भयता का गुण आ जाना स्वाभाविक ही है। जिस समाज में बड़े लोग शीघ्र ही उत्तेजित
होकर गाली-गलौज और मारपीट करते रहते हैं उनके बच्चे भी अनायास ऐसी ही संवेगात्मक
कमजोरियों के शिकार हो जाते हैं। भय, इा, घृणा, क्रोध, प्रेम, सहानुभूति, दया आदि
सभी तरह के अच्छे और बुरे संवेगात्मक गुण अच्छे और बुरे सामाजिक परिवेश के ही
परिणाम होते हैं।
        इस प्रकार के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को दो मुख्य श्रेणियों
में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास
जैसे कारक है, जिन्हें पूर्ण तौर से व्यक्तिगत माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी में माता-पिता,
परिवार, विद्यालय, पास-पड़ोस, समुदाय और समाज जैसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक कारक आते
है। व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही प्रकार के कारक बच्चे के संवेगात्मक विकास को प्रभावित
करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए बच्चे के संवेगात्मक विकास को यथाविधि बनाए
रखने में माता-पिता और अध्यापकों द्वारा दोनों ही प्रकार के कारकों का पूरा-पूरा ध्यान रखाना
आना चाहिए।
बच्चों के संवेगात्मक विकास के लिए अध्यापकों की भूमिका―संवेगात्मक विकास
को व्यक्तिगत और सामाजिक कारक प्रभावित करते है। अगर इन कारकों का भलीभाँति ध्यान
रखा जाए तो अध्यापक वर्ग बालको के संतुलित संवेगात्मक विकास में अपनी भूमिका अच्छी
तरह निभा सकता है। अध्यापकों द्वारा अपना उत्तरदायित्व कैसे निभाया जाये, इसकी चर्चा
निम्न पंक्तियों में की जा रही है―
1.संवेगात्मक विकास के लिए स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर पूरा-पूरा ध्यान देने
की आवश्यकता है। स्वस्थ और नीरोग कैसे रहा जाए. इस बात का बच्चों को भलीभाँति
ज्ञान कराया जाना चाहिए। माता-पिता और राज्याधिकारियों के सहयोग से बच्चों के संतुलित
आहार और खान-पान की उचित व्यवस्था की जानी चाहिये। अध्यापकों को अभिभावकों के
साथ सम्पर्क स्थापित कर उन्हें बच्चों की शारीरिक कमजोरिया, न्यूनताआतथा बीमारियों आदि
से अवगत कराना चाहिए तथा निराकरण के लिए घर, विद्यालय और चिकित्सालयों द्बारा
उचित प्रबन्ध की व्यवस्था होनी चाहिए।
2. बच्चों के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण भी बहुत प्रभाव डालता है।
अतः अध्यापकों को बालकों के माता-पिता का सहयोग प्राप्त कर उन्ह अनुकूल पारिवारिक
वातावरण प्रदान कराने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए। बच्चों के अधिक निकट आकर
अध्यापकों को उनके संवेगात्मक व्यवहार को उनके पारिवारिक वातावरण के सन्दर्भ में समझने
का प्रयत्न करना चाहिए तथा इसी को ध्यान में रखते हुए उनके माता-पिता तथा अभिभावक
वर्ग को अपने बच्चों के कल्याण के लिए उचित परामर्श देने का प्रयत्न करना चाहिए तथा अपने
स्वयं के व्यवहार द्वारा भी उन्हें संवेगात्मक संतुलन बनाने में पूरी सहायता देनी चाहिए।
3. विद्यालय के परिवेश और क्रियाकलापों को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक
बच्चों के संवेगात्मक विकास में भरपूर योगदान दे सकते हैं। इसके लिए उन्हें निम्न बातों
को ध्यान में रखना चाहिए―
(i) बच्चों की संवेगात्मक शक्तियों के उचित प्रकाशन और अभिव्यक्ति के लिए उन्हें
पाठान्तर क्रियाओं तथा रोचक क्रियाओं के माध्यम से उचित अवसर प्रदान किये
जाने चाहिए।
(ii) पाठ्यक्रम और अध्यापन विधियाँ यथेष्ठ रूप में परिवर्तनशील, प्रगतिशील और
बाल केन्द्रित होनी चाहिए।
(iii) बालकों को अपने अध्यापकों से पर्याप्त स्नेह और सहयोग मिलना चाहिए। प्रत्येक
अवस्था में बालकों के स्वाभिमान का ध्यान रखा जाना चाहिए तथा भूलकर भी उनका
अपमान एवं अवज्ञा नहीं की जानी चाहिए। जहाँ तक हो सके, अध्यापकों को बच्चों
की सभी प्रकार की संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूरा-पूरा प्रयत्न
करना चाहिए।
(iv) बालकों के संवेगों को संयमित एवं प्रशिक्षित करने के लिए अध्यापक द्वारा उपयुक्त
विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे भी हो, बच्चे के संवेगात्मक तनाव
को समाप्त करने की चेष्टा की जानी चाहिए तथा उसके अन्दर किसी भी प्रकार
की अनावश्यक मानसिक प्रन्थियों और विकारों को पनपने का अवसर नहीं दिया
जाना चाहिए।
(v) धार्मिक और नैतिक शिक्षा को विद्यालय कार्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाना
चाहिए । जहाँ तक हो सके ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ को बच्चों के जीवन
का एक मूल-मंत्र बनाया जाना चाहिए।
(vi) अध्यापक बच्चों के लिए आदर्श होते हैं। वे उनके हर आचरण का अनुकरण
करने का प्रयत्न करते हैं। अतः अध्यापक को स्वयं अपना उदाहरण प्रस्तुत कर
बालको को संवेगात्मक रूप से अधिक संतुलित और संयमित बनाने का प्रयत्न
करना चाहिए।
(vi) बच्चों के संतुलित सामाजिक विकास की ओर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए।
उन्हें अपनी मित्र-मण्डली, वय-समूह तथा सामाजिक परिवेश में उचित स्थान मिलना
चाहिए।
(vii) अध्यापकों द्वारा बालकों का संवेगात्मक व्यवहार सामान्य है या असामान्य है, इस
बात का अच्छी तरह से अध्ययन किया जाना चाहिए। अगर उन्हें उसमें कुछ
असामान्यता का आभास होती समय से पहले योग्य व्यक्तियों की सहायता लेकर
उसके निराकरण और रोकथाम के लिए पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
(ix) सीखने की प्रक्रिया में संवेगों की रचनात्मक भूमिका की ओर भी अध्यापक का ध्यान
रहना आवश्यक है। संतुलित और संयमित संवेगात्मक व्यवहार और भावनाएँ न
केवल शारीरिक विकास के लिए एक अमूल्य टानिक का कार्य करती है, बल्कि
ज्ञान और कौशल अर्जित करने के लिए भी उचित वातावरण का निर्माण करती
है। अतः अध्यापकों को विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण कराने में संवेगात्मक रूप से
सक्रिय साझीदार बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रश्न 26. बालकों में संतुलित सामाजिक-संवेगात्मक और नैतिक विकास का
संवर्धन करने में अभिभावकों एवं अध्यापकों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
        अथवा, संवेगनात्मक विकास में अभिभावकों एवं शिक्षकों की भूमिका को
समझाएँ।
उत्तर―बच्चों में सामाजिक-संवेगात्मक और नैतिक विकास का संवर्धन में अभिभावकों
एवं अध्यापकों की महत्त्वपूर्ण है, जिसे निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है―
अभिभावकों की भूमिका-प्रारंभिक अवस्था में बच्चों का घर ही उनका संपूर्ण संसार
होता है। यदि उन्हें परिवार में स्वीकार किया जाता है तो उनके आधारभूत विश्वास की
भावना घर में ही विकसित होती है। अपने बाल्यकाल में प्राप्त अनुभवों के आधार पर सुरक्षा
एवं अपनत्व की भावना के विकास में इससे बच्चे को सहायता मिलती है। इस अवस्था
में विकसित संवेगात्मक लगाव का स्वरूप और गुणवत्ता जीवन में सभी संबंधों के विकास
में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है। निश्चित रूप से बच्चा पहले-पहल जिस प्रकार सामाजिक
एवं संवेगात्मक रूप से व्यवहार करता है वह उसके परिवार में माता-पिता एवं भाई-बहनों
से मिली सीख एवं बाद में संसार में अपने सम-समूहों एवं अन्य प्रौढ़ व्यक्तियों से मिली
सीख को प्रदर्शित करता है। जो माता-पिता बच्चों को स्नेहपूर्ण पोषक पर्यावरण प्रदान करते
है, वे बच्चों में अपने बारे में ही सकारात्मक आत्म-धारणा और आत्म-सम्मान की भावना
विकसित करने में उनकी सहायता करते हैं। वे संवेगात्मक रूप से अपने-आप को सुरक्षित
महसूस करते है जिससे उन्हें अन्य लोगों के साथ सकारात्मक संबंध स्थापित करने में सहायता
मिलती है। जो माता-पिता बच्चों के पालन-पोषण में लोकतांत्रिक रवैया अपनाते हैं वे बच्चों
को यह समझने में सहायता करते है कि उनको एक विशेष प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा
की जाती है। बच्चों को स्नेहपूर्ण और पोषक पर्यावरण उपलब्ध कराना माता-पिता का
उत्तरदायित्व है। इस प्रकार के पर्यावरण से बालकों को प्रसन्न, विश्वस्त और संवेगात्मक
रूप से स्थिर होने में सहायता मिली है।
      अध्यापकों की भूमिका― विद्यालय में शिक्षक बच्चों के सामाजिक-संवेगात्मक और नैतिक
विकास को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। बच्चे विद्यालय में शिक्षक को आदर्श एवं अनुकरणीय
मानता है एवं उन्हीं के व्यवहार के समान अपने आचरण को नियंत्रित करता है। इन अनुकरणीय
आदर्श प्रतिमानों के साथ अंतःक्रिया के द्वारा बच्चा जीवन-मूल्य विकसित करता है, जिससे
उसमे अपने व्यवहार को नियमित करने की योग्यता विकसित होती है। जो शिक्षक बच्चों को
स्नेहपूर्ण और पोषक वावरण प्रदान करते हैं वे बच्चों में अपने बारे में ही सकारात्मक आत्मधारणा
और आत्मसम्मान की भावना के विकास में उनकी मदद करते है। वे अपने बारे में आश्वस्त
होते है व अपने कार्यों के प्रति विश्वसत होते हैं। ऐसे बालक संवेगात्मक रूप से स्वयं को
सुरक्षित महसूस करते है। वे समूह के प्रति अपनत्व की भावना विकसित करते हैं जिससे उन्हें
अन्य लोगों के साथ सकारात्मक संबंध बनाने में मदद मिलती है। विद्यालय में अध्यापकों को
बालकों की समस्याओं को समझना होता है। छोटे बच्चे शिक्षकों की अभिवृत्तियों के प्रति अनेक
प्रकार से संवेदनशील होते है । स्वीकृति की मुस्कान, पीठ थपथपाना, प्रशंसा के कुछ शब्द या
प्रोत्साहन बच्चों में सुरक्षा की भावना प्रदान करते है। इस प्रकार के पर्यावरण से,बालको को
प्रसन्न, विश्वस्त और संवेगात्मक रूप से स्थिर होने में सहायता मिलती है।
       दिए गए तथ्य यह स्पष्ट करते हैं कि बच्चों के सामाजिक-संवेगात्मक और नैतिक विकास
में अभिभावकों और अध्यापकों की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है। बच्चों को स्नेहपूर्ण और पोषक
पर्यावरण उपलब्ध कराना अभिभावको एव अध्यापकों का दायित्व है। इससे बालकों को प्रसन्न,
विश्वस्त और संवेगात्मक रूप से स्थिर होने में मदद मिलती है।
प्रश्न 27.कोहलबर्ग द्वारा नैतिकता के सन्दर्भ में दी गई अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर―कोहलबर्ग के द्वारा दी गई अवस्थाएँ―साक्षात्कार द्वारा दिए गए उत्तरों पर
आधारित कोहलबर्ग ने नैतिक चिन्तन की तीन अवस्थाएँ बताई हैं जो फिर दो-दो चरणों में
विभाजित हैं―
    (क) रुदि पूर्व अवस्था में चिन्तन—यह नैतिक चिन्तन का सबसे निचला चरण है।
इस चरण में क्या सही और गलत बाहर से मिलने वाली सजा और उपहार पर निर्भर करता है।
चरण 1. Heteronomous Morality―नैतिकता इस (Pre-conventional
Reasoning) रुढ़ि, पूर्व अवस्था का पहला चरण है। यहाँ नैतिक सोच सजा से बँधी हुई होती
है । जैसे बच्चे यह मानते हैं कि उन्हें बड़ों की बातें माननी चाहिए नहीं तो बड़े उन्हें दण्डित करेंगें।
घरण 2. व्यक्ति केन्द्रित, एक-दूसरे का हित साधने पर आधारित नैतिक चिन्तन―
यह रुढि पूर्व अवस्था का दूसरा चरण है। यहाँ बच्चा सोचता है कि अपने हितों के अनुसार
कार्य करने में कुछ गलत नहीं है, पर हमें साथ में दूसरों को भी उनके हितों के अनुरूप
काम करने का मौका देना चाहिए। अतः इस स्तर की नैतिक सोच यह कहती है कि बही
बात सही है जिसमें बराबरी का लेन-देन हो रहा है। अगर हम दूसरे की कोई इच्छा पूरी
कर दें तो वे भी हमारी इच्छा पूरी कर देंगे।
       (ख) रुढ़िगत चिन्तन― यह कोहलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धान्तों की दूसरी अवस्था
है। इस अवस्था में लोग एक पूर्व आधारित सोच से चीजों को देखते हैं। जैसे देखा गया
है कि अक्सर बच्चों का व्यवहार उनके माँ-बाप या किसी और बड़े व्यक्ति द्वारा बनाए गए
नियमों पर आधारित होता है।
      चरण 3.अच्छे आपसी व्यवहार व सम्बन्धों पर आधारित नैतिक चिन्तन–यह कोहलबर्ग
के नैतिक विकास के सिद्धान्तों की तीसरा चरण है। इस स्थिति में लोग विश्वास, दूसरों का
ख्याल रखना, दूसरों से निष्पक्ष व्यवहार को अपने नैतिक व्यवहार का आधार मानते हैं । बच्चे
और युवा अपने माता-पिता द्वारा निर्धारित किए गए नैतिक व्यवहार के मापदण्ड को अपनाते
हैं जो उन्हें उनके माता-पिता की नजर में एक अच्छा लड़का’ या अच्छी लड़की’ बनाता है।
      चरण 4. सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने पर आधारित नैतिक चिन्तन―यह
कोहलबर्ग के सिद्धान्तों को चौथा चरण है। इस स्थिति में लोगों के नैतिक निर्णय सामाजिक
आदेश, कानून और न्याय और कर्तव्यों पर आधारित होते हैं। जैसे किशोर सोचते हैं कि समाज
अच्छे से चले इसके लिए कानून के द्वारा बनाए गए दायरे के अन्दर ही रहना चाहिए।
          (ग) रुढ़ि से ऊपर उठकर नैतिक चिन्तन―यह कोहलबर्ग के नैतिक विकास के
सिद्धान्तों की तीसरी अवस्था है। इस स्थिति में लोग वैकल्पिक नैतिक रास्ते खोजते हैं और
फिर अपना एक व्यक्तिगत नैतिक व्यवहार का रास्ता ढूँढ़ते हैं।
          चरण 5. सामाजिक अनुबन्य, उपयोगिता और व्यक्तिगत अधिकारों पर आधारित
नैतिक चिन्तन―यह कोहलबर्ग के सिद्धान्त की पांचवा चरण है। इस अवस्था में व्यक्ति यह
सोचने लगता है कि कुछ मूल्य, सिद्धान्त और अधिकार कानून से भी ऊपर हो सकते हैं।
व्यक्ति वास्तविक कानूनों व सामाजिक व्यवस्थाओं का मूल्यांकन इस दृष्टि से करने लगता
है कि वे किस हद तक मूलभूत मानव अधिकारों व मूल्यों का संरक्षण करते हैं।
चरण 6, सार्वभौमिक नीति सम्मत सिद्धान्तों पर आधारित नैतिक चिन्तन—यह
कोहलबर्ग के नैतिक सिद्धान्तों की सबसे ऊँची और छठा चरण है। इस अवस्था में व्यक्ति
सार्वभौमिक मानवधिकार पर आधारित नैतिक मापदण्ड बनाता है। जब भी कोई व्यक्ति
कानून और अंतआत्मा की आवाज के द्वंद्व के बीच फंसा होता है तो वह व्यक्ति यह तर्क
करता है कि अंतआत्मा की आवाज के साथ चलना चाहिए चाहे वो निर्णय जोखिम से भरा
हो।
ph
सारणी-1 उदाहरण है कि किस तरह लोग हाइनज की दुविधा के प्रति कोहलबर्ग की
अवस्थाओं से गुजरते हुए प्रतिक्रिया करते हैं।
इसीलिए उसे कुछ भी करने से पहले अपनी भावनाओं के अलावा औरों की जिन्दगी
के बारे में भी सोचना चाहिए था।
        कोहलबर्ग मानते हैं कि यह स्तर एवं अवस्थाएँ एक क्रम में चलते हैं और उम्र से जुड़े
हुए हैं। 9 साल की उम्र से पहले स्तर पर काम करते हैं। अधिकतर किशोर तीसरी अवस्था
में सोचते पाए जाते हैं पर उनमें दूसरी अवस्था और चौथी अवस्था के सोच विचार के कुछ
लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं। प्रारंभिक व्यस्कता में पहुँचने पर कुछ थोड़े से लोग ही रूढ़िपूर्णता
से ऊपर उठकर नैतिक तर्क देते हैं।
        लेकिन वे कौन से सबूत हैं जो इस तरीके के विकास को प्रमाणित करते हैं? 20 साल
के लम्बे अध्ययन के परिणामों के अनुसार उम्र के साथ अवस्था 1 और 2 का उपयोग घटा
है और अवस्था 4 से 10 साल की उम्र के बच्चों के नैतिक तर्क में बिल्कुल भी नहीं आती
वह 36 साल की उम्र के 62 प्रतिशत लोगों की नैतिक सोच में दिखाई दी। पाँचवी अवस्था
20 से 22 साल की उम्र तक बिल्कुल भी नहीं आती और वह कभी भी 10 प्रतिशत लोगों
से ज्यादा में नहीं दिखाई देती।
             इसीलिए नैतिक अवस्थाएँ जैसा कि कोहलबर्ग ने शुरुआत में सोचा था, उससे थोड़ी
देर में आती हैं और छठी अवस्था में चिन्तन करना तो बहुत ऊँची अवस्थाओं में आता है,
जो कि बहुत विलक्षण है हालाँकि अवस्था 6 कोहलबर्ग की नैतिक निर्णायक अंक प्रणाली
से हटा दी है, लेकिन यह अभी सैद्धान्तिक रूप से कोहलबर्ग की नैतिक विकास की
संकल्पना के लिए जरूरी मानी जाती है।
कोहलबर्ग की अवस्थाओं पर विचार―ऐसे कौन से कारक हैं जो कोहलबर्ग की
अवस्थाओं से गुजरने पर असर डालते हैं? हालाँकि हर अवस्था पर नैतिक तर्क इस बात
पर आधारित होता है कि कुछ स्तर का संज्ञानात्मक विकास होगा, कोहलबर्ग यह बहस रखते
हैं कि बच्चों के संज्ञानात्मक विकास उनके नैतिक चिन्तन के विकास को सुनिश्चित नहीं
करता। बल्कि बच्चों को नैतिक तार्किककता यह दिखाती है कि उन्हें नैतिक सवालों और
नैतिक द्वंद्व को हल करने के कैसे अनुभव मिलते हैं। कोहलबर्ग मानते थे कि बच्चों की
आपस में बातचीत ऐसे सामाजिक उद्दीपनों में से अहम चीज है जो बच्चों को अपनी नैतिक
सोच को बदलने की चुनौती प्रदान कर सकती है। जबकि वयस्क नियम और कायदे बच्चों
पर थोपते हैं, बच्चों में आपसी लेन-देन बच्चों को दूसरे व्यक्ति का दृष्टिकोण देखने और
जनतांत्रिक ढंग से नियम बनाने का अवसर प्रदान करते हैं। कोहलबर्ग कहते हैं कि बच्चों
में दूसरों का दृष्टिकोण लेने की क्षमता बच्चों के नैतिक तक में प्रगति लाती है। कोहलबर्ग
के नैतिकता के सिद्धान्तों की आलोचना निम्नलिखित बिन्दुओं पर की गई है :
1. नैतिक सोच और नैतिक व्यवहार―कोहलबर्ग के आलोचकों के अनुसार कोहलबर्ग
के नैतिक सिद्धान्तों का सारा ध्यान नैतिक सोच तक सीमित है और उनमें नैतिक व्यवहार
के बारे में ज्यादा बात नहीं की गई है। उनका कहना है कि नैतिक व्यवहार पर बात करना
उतना ही जरूरी है जितना नैतिक सोच पर बात करना क्योंकि कई बार लोग दिखाते हैं कि
उनकी सोच काफी नैतिक है परन्तु उनका व्यवहार उसके विपरीत होता है, जरूरी नहीं है
कि सोच का दावा करने वाले लोग नैतिक व्यवहार भी करें। इसीलिए नैतिक सोच और नैतिक
व्यवहार दोनों का अध्ययन करना जरूरी हो जाता है। जैसे नेता कई नैतिक दावे करते हैं
परन्तु उनका व्यवहार कई बार अनैतिक होता है व उनके दावे के विपरीत होता है। इसके
अलावा नैतिकता की समझ होते हुए भी लोग अनैतिक कार्य करते हैं। जैसे चोरों को पता
है चोरी गलत काम है परन्तु इसके बावजूद वह चोरी करता है।
         दूसरी ओर बैन्दूरा का कहना है कि काफी लोग अपने अनैतिक व्यवहार को नैतिक
उद्देश्यों से अपनी ओर समाज की नजरों में सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। जैसे जेहाद
(अपीक) के नाम पर किए जाने वाले हमले और गर्भपात विरोधी कार्यकर्ता जो तुम गिराकर
गर्भपात करने वाले अस्पताल नष्ट करते हैं और डॉक्टरों का खून करते हैं।
2. नैतिक तर्कों का मूल्यांकन―आलोचकों का मानना है कि कोहलबर्ग के सिद्धान्तों
में नैतिक तर्कों के मूल्यांकन के तरीकों पर खास ध्यान देना चाहिए । उनका मानना है कि
कहानियाँ कोहलबर्ग नैतिक तर्कों का मूल्यांकन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं उनके आधार
पर मूल्यांकन करना काफी मुश्किल होता है। इसके अलावा कोहलबर्ग जो दुविधाएँ प्रस्तुत
करते हैं वह नैतिक तर्कों का मूल्यांकन करने के लिए असली जिन्दगी में आने वाली दुविधाओं
से काफी अलग है।
3. संस्कृति और नैतिक तर्क-कोहलबर्ग के अनुसार उसकी नैतिक तर्कों की अवस्थाएँ
सार्वभौमिक हैं परन्तु कुछ आलोचकों के अनुसार उसके सिद्धान्त सांस्कृतिक रूप से पक्षपाती
है। परन्तु कोहलबर्ग और उनके आलोचक दोनों ही कुछ हद तक ठीक है। 27 संस्कृतियों
में किए गए 45 अध्ययनों में कोहलबर्ग की सिद्धान्तों की पहली चार अवस्थाएँ सार्वभौमिक
पाई गईं। परन्तु पाँचवीं और छठी अवस्थाएँ सारी संस्कृतियों में नहीं पाई गई है तथा यह
भी पाया गया है कि कोहलबर्ग की मूल्यांकन व्यवस्था अन्य संस्कृतियों में पाए जाने वाली
उच्च नैतिक तर्कों को समाविष्ट नहीं करती तथा नैतिक चिन्तन, जितना कोहलबर्ग ने सोच
था उससे ज्यादा संस्कृति विशेष पर निर्भर करता है। भारत में हर जीवन की पवित्रता और
जीवन संसार की एकता का नैतिक चिन्तन, इजराइल में समुदाय की समता और सामूहिक
सुख के चिन्तन पर आधारित नैतिकता और न्यूगिनी में सामूहिक नैतिक दायित्व की सोच
जैसे विचारों को कोहलबर्ग के नैतिक तकों की अवस्थाओं में उच्च स्थान पर नहीं रखा जाएगा
क्योंकि उनमें अन्य विचारों की तुलना में न्याय के विचार को ज्यादा तवज्जो दिया गया है।
बावजूद इसके कि कोहलबर्ग के सिद्धान्त काफी सारी संस्कृतियों के लिए ठीक बैठते हैं परन्तु
वह कुछ संस्कृतियों की नैतिक अवधारणाओं को शामिल नहीं करते ।
परिवार और नैतिक विकास― कोहलबर्ग मानता है कि पारिवारिक प्रक्रियाएँ बच्चों के
नैतिक विकास के लिए कुछ खास जरूरी नहीं है। उनका कहना है कि बच्चों और माता-पिता
के बीच का सम्बन्ध बच्चों को एक-दूसरे की राय लेने के बहुत कम अवसर देते हैं। बल्कि
बच्चों को नैतिक विकास के ज्यादा अवसर अपने दोस्तों के साथ मिलते हैं। विकासवादी
व्यक्तियों का मानना है कि दोस्तों के साथ इडक्टिव अनुशासन यानी तो को इस्तेमाल करना
और बच्चों का ध्यान उनके द्वारा किए गए कार्यों के नतीजे पर ले जाने से भी उनका नैतिक
विकास होता है। इसके अलावा माता-पिता के खुद के नैतिक मूल्य भी बच्चों के नैतिक
विकास में मदद करते हैं
                                                       □□□

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