1st Year

बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक बच्चों में अन्तर्द्वन्द एवं आक्रामकता की स्थिति का वर्णन करते हुए बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक शिक्षा के स्वरूप स्पष्ट कीजिए | Describing conflicts and aggression from childhood to adolescence and explain the nature of education from childhood to adolescence.

 प्रश्न – बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक बच्चों में अन्तर्द्वन्द एवं आक्रामकता की स्थिति का वर्णन करते हुए बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक शिक्षा के स्वरूप स्पष्ट कीजिए | Describing conflicts and aggression from childhood to adolescence and explain the nature of education from childhood to adolescence.
उत्तर- बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक अन्तर्द्वन्द एवं आक्रामकता (Conflicts and Aggression from Childhood to Adolescence)
मानव विकास की दूसरी अवस्था बाल्यावस्था है। मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था को बालक का निर्माणकारी काल कहा है। बाल्यावस्था के महत्त्व को समझाते हुए मनोवैज्ञानिक ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन के विचार इस प्रकार हैं- “शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन-चक्र में बाल्यावस्था से अधिक महत्त्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है जो अध्यापक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं उन्हें बालकों का, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं का और उन परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती हैं।” किशोरावस्था को एक अत्यन्त संवेगात्मक, उथल-पुथल और तनाव की अवस्था माना गया है।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसे “एक अटपटी तथा • समस्यावरथा ” (Problem age) कहा है। ये बालक के जीवन की अत्यन्त कठिन व जटिल अवस्था है क्योंकि इस अवस्था में बालक में शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन निरन्तर और क्रमशः होते रहते हैं।
बाल्यावस्था से किशोरावस्था में पहुँचते-पहुँचते किशोर में अन्तर्द्वन्द्व एवं आक्रामकता की भावना घर कर लेती है जिसका कारण उसकी अनेक समस्याएँ हैं। जैसे –
  1. सर्वप्रथम किशोर को स्कूल के शिक्षकों, साथियों तथा समाज से उचित समायोजन की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  2. किशोरों में अपराधिक प्रवृत्ति पराकाष्ठा पर होती है। वे अनेक प्रकार की गलत आदतों से घिर जाते हैं।
  3. इस अवस्था के दौरान किशोर में उदण्डता, कठोरता, भुक्खड़पन, पशुओं के प्रति निष्ठुरता, आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति, गन्दगी और अव्यवस्था की आदतें एवं कल्पना और दिवास्वप्नों में विचरण ।
  4. किशोर में अनेक मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जैसेभूलने की आदत, स्मृति लोप आदि ।
  5. किशोरो में मादक पदार्थों से सम्बन्धित समस्या काफी गम्भीर रूप से ग्रहण कर लेती है।
  6. किशोरावस्था में मौन व्यवहार से सम्बन्धित समस्याएँ भी तीव्र, एवं तीक्ष्ण होती है। इस अवस्था में बालक में संवेगों, रुचियों, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में इतनी अधिक परिवर्तनशीलता और अस्थिरता होती है जितनी उसमें कभी नहीं थी।
  7. इसके अतिरिक्त किशोरों में सामाजिक समस्याएँ, शैक्षिक समस्याएँ, संवेगात्मक समस्याएँ, लिंगीय समस्याएँ आदि प्रमुख हैं।
बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक शिक्षा का स्वरूप
  1. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा (Education for Emotional Development) — इस अवस्था में बालक में अनेक प्रकार के संवेगों का जन्म होता है। इन संवेगों में कुछ उत्तम और कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा ऐसी होनी ‘चाहिए जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तीकरण और उत्तम संवेगों का विकास कर सकें जिसके लिए पाठ्यक्रम में विज्ञान, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि विषयों और पाठ्यक्रम- सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए।
  2. सामाजिक सम्बन्धों की शिक्षा (Education of Social Relationship)–किशोरों को सामाजिक सम्बन्धों की शिक्षा भी देनी चाहिए। इसके लिए विद्यालय में ऐसे समूहों का निर्माण करना चाहिए जिसकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर में सामाजिक तथा व्यक्तिगत गुणों का विकास किया जा सकें।
  3. जीवन दर्शन की शिक्षा (Education of Philosophy of Life) – किशोरों में जीवन दर्शन का विकास करना प्रत्येक अभिभावक और अध्यापक का धर्म है। यदि इस अवस्था में उनको सही मार्गदर्शन मिल जाता है तो वे अच्छे व्यक्ति बन जाते हैं। यदि उन्हें गलत दिशा मिलती हैं तो उनका चरित्र दूषित हो जाता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है कि वे छात्रों में जीवन के प्रति सकारात्मक विचारों को प्रेषित कर सकें।
  4. यौन शिक्षा ( Sex Education ) – किशोरों को यौन शिक्षा का समुचित ज्ञान नहीं होता, इसलिए उन्हें यौन शिक्षा का ज्ञान देकर उनकी इससे सम्बन्धित अनेक समस्याओं को दूर किया जा सकता है।
  5. व्यावसायिक निर्देशन (Vocational Guidance) –किशोरों को अपना भावी व्यवसाय चुनने में सहायता देना चाहिए क्योंकि वे किसी न किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना तो बना लेते हैं परन्तु उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उनके लिए कौन सा व्यवसाय उचित है। इसलिए इस बात को ध्यान में रखते हुए विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों तथा व्यावसायिक निर्देशन का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए।
इस प्रकार बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक की अवस्था बालक के जीवन की महत्त्वपूर्ण एवं नाजुक अवस्था है। इस अवस्था में बालक की रुचि जिस ओर होगी, वह उसी दिशा में आगे बढ़ जाता है। कभी-कभी उसके द्वारा चुना गया रास्ता गलत दिशा में भी जाता है जिसके कारण किशोर में अनेक मानसिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है जो उसमें अर्न्तद्वन्द्व तथा आक्रामकता की भावना को जन्म देती है। इस अवस्था में किशोरों को समुचित शिक्षा देकर उनकी समस्त समस्याओं का हल किया जा सकता है। अतः बालकों के भावी जीवन के निर्माण में इस अवस्था की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अध्यापकों और अभिभावकों को उनकी शिक्षा का सुनियोजन और सुसंचालन करना अपना महत्त्वपूर्ण कर्तव्य समझना चाहिए।

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