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बिहार में कृषि के पिछड़ेपन के कारण

बिहार में कृषि के पिछड़ेपन के कारण

बिहार में कृषि के पिछड़ेपन के आर्थिक कारण हैं। आजादी के बाद भी देश के सभी राज्यों में एक समान रूप से कृषि का विकास नहीं शुरू हुआ जबकि कृषि के मामले में बिहार अग्रणी राज्यों में था। बिहार के भोजपुर एवं रोहतास जिले को पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर IADP के अंतर्गत 1961 में रखा गया था। हरित क्रांति के दौर में बिहार अन्य राज्यों से पिछड़ता गया। क्या कमी हो गयी? क्यों विकास का बिगुल बिहार में नहीं बज पाया? कैसे बिहार पिछड़ता चला गया? बिहार जैसे संसाधन धनी राज्य के लिये यह बहुत ही चिंताजनक एवं विचारणीय प्रश्न है।
विकास मॉडलों में सरकार एक उत्प्रेरक एजेंडा के रूप में कार्य करती है लेकिन सामाजिक व राजनैतिक संस्थायें एक माहौल पैदा करती हैं, जिससे समाज विकास के पथ पर अग्रसर होता है। किसानों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास की स्थिति देखकर सरकारी कार्यक्रम को बनाने और किसानों को विश्वास में लेकर उनकी भूमि पर कार्यक्रम लागू करना विकास के माहौल के बिना संभव नहीं हो सकता। बिहार की जैसी भौगोलिक आर्थिक स्थिति है, यहां कृषि विकास से ही बढ़ती जनसंख्या को रोजगार देकर गरीबी मिटाई जा सकती है साथ ही विकास के पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है।
कर्तव्योन्मुखी सरकारी तंत्र, ईमानदार नेता व अधिकारी उचित मानवीय विकास जो उचित शिक्षा और स्वास्थ्य धारण किये हों, विकास के लिये आवश्यक है। राज्य का कर्त्तव्य है कि भूमि के उचित दोहन से संबंधित कानूनों और कार्यक्रमों को लागू कराने के लिये सरकारी व गैर सरकारी प्रयास करें और पूरी जनता को विश्वास में लेकर इन कानूनों और कार्यक्रमों को लागू कराने के लिये सरकारी व गैर सरकारी प्रयास करें ताकि क्षेत्रीय व व्यक्तिगत असमानता भी दूर किया जा सके। पूर्वाद्ध में बिहार में विकास का माहौल नहीं बन सका। इसके लिये राजनैतिक इच्छाशक्ति में कमी, शिक्षा एवं सूचनाओं के गुणवत्ता में कमी, विभिन्न जातियों में सामाजिक तनाव की स्थिति या जनसंख्या का बढ़ता दबाव जिम्मेवार है, ये वही सामाजिक सांस्कृतिक
राजनैतिक कारण हैं जो बिहारी समाज को विकास के पथ पर बढ़ने में बाधा डाल रही हैं। जहां तक कृषि से जुड़े आर्थिक कारणों का प्रश्न है, उसमें प्रमुख है- जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन तथा भूमि सुधार कार्यक्रमों का सुव्यवस्थित न होना। यहां कृषि पर जनसंख्या का काफी दबाव है। प्रति व्यक्ति भूमि धारण क्षमता 0.4 हेक्टेयर से भी कम है। जबकि राष्ट्रीय औसत 1.5 हेक्टेयर है। आज भी बिहार में लगभग 77% किसानों के पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है।
19% किसानों के पास 1-4 हेक्टेयर के बीच और केवल 1% किसानों के पास 4 हेक्टेयर से अधिक जमीन है। कृषि भूमि धारण क्षमता में बहुत असमानता है। भूमि सुधार अधिनियम 1950 (जमींदार प्रथा उन्मूलन अधिनियम) भूदान अधिनिमय 1954 बिहार राज्य चकबंदी अधिनियम 1956, भूमि अधिनियम 1961 आदि कानून भूमि सुधार के लाये गये। लेकिन इन अधिनियमों का जमीन पर कार्यान्वयन बहुत कम हुआ। जमींदारी प्रथा का उन्मूलन तो हुआ लेकिन जमीन अधिग्रहण मामलों में सरकार कमजोर पड़ गयी। करीब 490 हजार एकड़ जमीन को वितरण के लिये सरकार ने अधिग्रहण किया जिसमें से 160 हजार एकड़ जमीन न्यायालय में विवादास्पद हो गया। ऐन केन प्रकारेण प्रत्येक अधिकृत जमीन पर पुराने लोग ही खेती करते
रहे। समाज को भूमि अधिपतियों ने चकबंदी कानून का लाभ उठाकर गांव के उत्पादित जमीन को अपने हक में ले लिया। बटाईदारी, रेहनदारी, बंधुआ मजदूरी कृषि समाज में व्याप्त है। Land to the tiller जैसे कार्यक्रम पूरी तरह से असफल रहे। Absent Land Lordship पूरी तरह व्याप्त है, इससे जहां एक तरफ भूमि क्षमता का उचित दोहन नहीं हो पाता है, वहीं
गांव के परिश्रमी व्यक्तियों को अच्छी भूमि उपलब्ध नहीं हो पाती। भूमि सुधार की असफलता कृषि के पिछड़ेपन के कारण तो है ही साथ-साथ इसने खूनी रंग भी ले लिया है। ग्रामीण समाज पूरी तरह विभाजित है और नरसंहारों को जन्म दे रहा है।
बिहार में कृषि के पिछड़ेपन का एक और प्रमुख कारण है- जल प्रबंधन। बिहार अकेला ऐसा राज्य है जहां 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं और 7-8 जिले सूखाग्रस्त। उत्तरी बिहार प्राय: हर वर्ष बाढ़ से प्रभावित रहता है, वहीं गया, नवादा, औरंगाबाद, जमुई
आदि जिले सूखा से प्रभावित रहते हैं।
बिहार की मिट्टी और वर्षा का प्रतिरूप ऐसा है जो पंजाब से भी अधिक उत्पादन क्षमता रखता है। केवल जल प्रबंधन के कारण हर वर्ष फसल और जान-माल की हानि होती है। बाढ़ को नियंत्रित करने के लिये भैंसालोटन में गंडक पर और कोसी में बांध
बनाया गया है। हिमालय से आनेवाली नदियां जो कि मुख्य नदियों की सहायक नदियां हैं, इन पर जलाशयों को नहीं बनाया जा सका है। केवल बैराज के इकठे जल से गर्मी के जल आवयकताओं को पूरा नहीं किया जा सका है। इसके लिये हमें दामोदर
घाटी परियोजना के तर्ज पर नेपाल सरकार से बातकर कोसी, गंडक, कमला, बागमती आदि नदियों को उनके ऊपरी बेसिन नेपाल में ही बांधकर जलाशयों का निर्माण करना चाहिये। इन योजनाओं का लाभ जल और बिजली में नेपाल सरकार को ज्यादा लाभ देना चाहिये तथा पुर्नवास का खर्च, भूमि डूबने का मुआवजा भी भारत सरकार को देना चाहिये।
उत्तर बिहार का बाढ यदि नियंत्रित हो गया, तो यहां की मिट्टी ऐसी है, कि पूरे क्षेत्र को खुशहाल बना सकती है। यह अब और भी जरूरी हो गया है कि जब बिहार का 65% राजस्व झारखंड को चला गया है। बिहार में जहां 1950-51 में लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित था, वहीं बिहार में 91 में कुल कृषि योग्य भूमि में 45.8% भूमि सिंचित उपलब्ध थी। केवल गंगा-सोन दोआब का 73 प्रतिशत भूमि सिंचित है, जो सोन पर बैराज निर्माण के पश्चात् संभव हुआ। 1974-75 में कमांड-एरिया डेवलपमेंट योजना के तहत कोसी, गंडक व सोन आदि नदियों की सिंचाई क्षमता को सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया गया। इन क्षेत्रों को क्षेत्र विकास अभिकरण से भी जोड़ा गया, लेकिन बाढ़ और धनाभाव के कारण, जनसंख्या के दबाव के कारण बिहार की कृषि को
एक मजबूत आधार नहीं दिया जा सका। बिहार में कृषि का आधुनिकीकरण नहीं हो पाया है। कृषि यंत्रों का प्रयोग, खादों,
कीटनाशकों, उत्तम बीजों का प्रयोग, पंजाब के मानकों के अपेक्षा काफी कम है।
किसानों में 77 प्रतिशत सीमांत किसान हैं, जिनकी क्रय क्षमता बहुत कम है। वे धन के अभाव में कृषि आधुनिकीकरण विधियों का उपभोग नहीं कर पाते हैं। नवीनतम कृषि सूचनाओं तथा उस पर आधारित कार्यान्वयन बहुत कम होता है। हरित क्रांति के समय ही इस बात का पता कर लिया गया था कि कम भूमि क्षमता वाले लोग तब तक अपनी उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ा सकते, जब तक की उनकी क्रय शक्ति मजबूत नहीं हो जाती। इसके लिये जरूरी है कि कृषि साख व्यवस्था को मजबूत किया जा सके तथा भूमि सुधार के द्वारा इनके भूमि क्षमता के आकार को बढ़ाया जा सके। सरकारी कृषि का विकास नहीं के बराबर है, ऐसी स्थिति में कम जोतों वाला किसान अपनी भूमि पर केवल खाद्यान्न उपजाता है और अन्य नगदी फसलों को उपजाने से वंचित रह जाता है। आज जो धान व गेहूं के दर में कमी आयी है और किसानों को अच्छा लाभ नहीं मिल पा रहा है, इसका कारण फसल विविधिकरण का अभाव है। जिलावार बिना ‘भूमि सुधार किये तथा बिना सीमांत किसानों को कृषि साख उपलब्ध कराये, उन्हें विविध फसलों को रोपने के लिये उन्मुख नहीं किया जा सकता।
बिहार में 1992-93 में 14,072 करोड़ रुपये व्यवसायिक बैंकों में था। इसमें से केवल 1500 करोड़ रुपया ही कृषि क्षेत्र को दिया गया। ग्रामीण बैंकों में 1400 करोड़ रुपये जमा में से केवल 300 करोड़ रुपये ही कृषि क्षेत्र को उपलब्ध कराये गये। राज्य की 3/4 भाग जनता कृषि से जुड़ी हुई है और उसके कृषि साख का आधार इतना कमजोर हो तो इन 3/4 लोगों का विकास कैसे हो सकता है? कृषि उत्पादन को बिहार में विपणन से नहीं जोड़ा जा सका है। बिचौलिये सबसे अधिक लाभ कमा रहे हैं।
सरकार अनाजों को उचित दर पर खरीद नहीं पाती और भंडारण के अभाव के कारण लघु और सीमांत किसान पैदावार होने के तुरंत बाद अपना अनाज बेच देते हैं, जो बहुत ही कम मूल्य पर होता है। प्रखंड स्तर पर जो व्यापार मंडल खोले गये हैं, वे भी किसानों के उनके उत्पादन पर अच्छा लाभ दिलाने में असफल रहे हैं। किसानों को उचित लाभ मिले इसकी व्यवस्था जल्द से जल्द किया जाना चाहिये।

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