1st Year

भारत में सामाजिक वर्ग के सम्बन्ध में पार्श्वीकरण और स्टीरियोटाइप के मुद्दे क्या हैं? वर्णन कीजिए । What are the issues of marginalisation and Streotyping w.r.t. social class in India? Describe

प्रश्न – भारत में सामाजिक वर्ग के सम्बन्ध में पार्श्वीकरण और स्टीरियोटाइप के मुद्दे क्या हैं? वर्णन कीजिए । What are the issues of marginalisation and Streotyping w.r.t. social class in India? Describe. 
या
बाल विकास की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत उन कारकों का वर्णन कीजिए जिनसे बालकों के  अनुभवों में विविधताएँ आती है। 
Describe the factors under the social and cultural background of child development, where there are arrangements in the experiences of children.
या
बाल विकास पर पार्श्वीकरण का प्रभाव का संक्षेप में उत्तर दीजिए । Answer in brief the Impact of Marginalisation on Child Development. 
या
बाल विकास पर सीमान्तीकरण तथा स्टीरियोटाइपिंग का किस तरह का प्रभाव पड़ता है? वर्णन कीजिए । What kind of impact do marginalization and stereotyping have child development ? Discuss. 

उत्तर- हम व्यापक रूप में भारतीय संस्कृति एवं उनके नैतिक मूल्यों की बात कर सकते हैं, फिर भी हमारे देश में एक समूह के रीति-रिवाजों, विश्वासों व रहन-सहन के तरीकों में दूसरे समूह से भिन्नताएँ हैं। हम एक समरूपी भारतीय संस्कृति की बात नहीं कर सकते। इसका कारण है समूहों के आर्थिक स्तर, शिक्षा, व्यवसाय, क्षेत्र, भाषा एवं धर्म में एक-दूसरे से भिन्नता ।

प्रत्येक समूह का बच्चा जो सीखता व अनुभव करता है वह दूसरे समूह के बच्चे से भिन्न होता है। सभी बालक विकास के दौरान भाषा बोलना सीख जाते हैं। भारत में रहने वाली बालिका अपने • क्षेत्र की कोई भाषा सीखती है और स्पेन में रहने वाली बच्ची वहाँ की भाषा स्पैनिश। पाँच वर्ष का एक बालक स्कूल जाने लगता है। उसी उम्र का दूसरा बालक दूध दुहने तथा खेती-बाड़ी में अपने पिता की सहायता करता है एवं पाँच वर्षीय अन्य बालक सड़कों पर अखबार बेचता है। कुछ कारक जो कि बचपन के अनुभवों को प्रभावित करते हैं वे इस प्रकार हैं- परिवार में सदस्यों की संख्या एवं आर्थिक स्थिति परिवार तथा समुदाय के रीति-रिवाज, परम्पराएँ उनके नैतिक मूल्य और विश्वास, आवास, जैसे— गाँव शहर या जनजातीय क्षेत्र पहाड़ समतल रेगिस्तान अथवा तटवर्ती इलाका । जिस प्रकार के समाज में हम रहते हैं, वह हमारे बचपन को प्रभावित करता है। यहाँ उन सभी कारकों के चर्चा करेंगे जिनसे बालकों के अनुभवों में विविधताएँ आती हैं।

लिंग- बच्चे का लड़का या लड़की होना एक महत्त्वपूर्ण कारक है जो कि उसके अनुभव निर्धारित करता है। पालन-पोषण किस प्रकार हुआ, बच्चे को कैसे अवसर एवं सुविधाएँ मिलीं तथा अन्य लोगों का उसके साथ परस्पर सम्बन्ध कैसा था, यह सभी बातें ‘अधिकांशतः बच्चे के लिंग से निर्धारित होती हैं। एक स्पष्ट भिन्नता जो हमें दिखाई देती हैं वह है उनका पहनावा । परन्तु इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली भिन्नता है— लोगों की लड़कों और लड़कियों के प्रति भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ । इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे देश के अधिकांश भागों में लड़कों को लड़कियों की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया जाता है। लड़के का जन्म खुशी का मौका होता है जबकि कई परिवारों में लड़की के जन्म पर माता-पिता रो पड़ते हैं ।

कई परिवारों में लड़कियों को कम प्यार मिलता है, उनकी परवाह भी कम की जाती है तथा अपेक्षाकृत उनकी देखभाल भी उचित नहीं होती तथा उन्हें भोजन, वस्त्र व संसाधन नहीं दिया जाता जबकि लड़के की बीमारी पर तुरंत ध्यान दिया जाता है। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों के लिए शिक्षा आवश्यक समझी जाती है। अधिकांश माता-पिता जहाँ एक ओर लड़के की पढाई के लिए संपत्ति बेच देते हैं, दूसरी ओर इसी सम्पत्ति को वह लड़की के विवाह पर लगा देते हैं। अधिकांश मामलों में लड़कियों के लिए आचार संहिता कहीं अधिक सख्त है। लड़कों को दृढ स्वतंत्र और महत्त्वाकांक्षी बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और लड़कियों से अपेक्षा की जाती है कि वे घर के कामकाज में निपुण हों, आज्ञाकारी हों तथा अन्य लोगों का आदर करें। स्वयं निर्णय लेने की योग्यता को लड़कियों में बढ़ावा नहीं दिया जाता और यदि लड़किया ज्यादा बहस करती हैं, खुलकर हंसती हैं या जोर से बोलती हैं तो उनको डांट दिया जाता है। लड़की के साथ ऐसा बर्ताव किया जाता है जैसे कि वह अपने घर में स्थायी सदस्य न होकर अस्थायी सदस्य हो ।

तथापि, उपर्युक्त चर्चा से केवल सामान्य प्रवृत्ति का पता चलता है। सभी लड़कियों के साथ उपेक्षा का व्यवहार नहीं होता। लड़कियों के प्रति कैसा व्यवहार होगा यह काफी हद तक उसके परिवार के सदस्यों पर निर्भर करता है। जिस परिवार में लड़के-लड़कियों में भेद नहीं होता वहाँ दोनों से समान व्यवहार किया जाता है। परिवार का आर्थिक सामर्थ्य एक अन्य कारक है जो लड़के और लड़की के प्रति माता-पिता के व्यवहार को प्रभावित करता है। इसी प्रकार सामाजिक वर्ग से भी बच्चों के अनुभव में भिन्नता आती है।

सामाजिक वर्ग-व्यक्ति किस सामाजिक वर्ग का है इसका निर्धारण उसके परिवार की शिक्षा व्यवसाय व आय द्वारा होता है। उच्च सामाजिक वर्ग के लोगों की आय अधिक होती है और वह बड़े मकानों में रहते हैं। कम आमदनी, गरीबी, निम्न शैक्षिक स्तर, रहने के लिए छोटे मकान आदि निम्न सामाजिक वर्ग से संबंधित होते हैं। धनी और निर्धन लोगों के बीच सामाजिक-आर्थिक दर्जों के कई स्तर हैं। सामाजिक वर्ग यह निर्धारित करता है कि बालिका को किस प्रकार के अवसर और सुविधाएं उपलब्ध होंगी। उसे पेट भर खाना, पहनने को कपड़ा और शिक्षा प्राप्त होगी या नहीं, बिजली-पानी की सुविधा उपलब्ध होगी या नहीं और रहने के लिए कैसी जगह मिलेगी, ये सभी उसके परिवार के सामाजिक आर्थिक दर्जे पर निर्भर करता है ।

  1. निम्न सामाजिक वर्ग के परिवार – एक निम्न सामाजिक वर्ग के परिवार के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे अपनी सभी मूल आवश्यकताएं पूरी कर सकें। बच्चों को पर्याप्त भोजन और पहनने को कपड़े नहीं मिलते। सीमित संसाधनों के कारण लड़कियों को अपेक्षाकृत और भी कम हिस्सा मिलता है। निम्न वर्गीय परिवारों के पास घर के नाम पर एक या दो कमरे होते हैं जिनमें पूरा परिवार रहता है। बच्चे भी इसी भीड़ भरे माहौल में रहते हैं ।
    झुग्गी-झोपड़ी और भीड़भाड़ वाले इलाकों में चारों ओर गंदगी और अस्वच्छता की वजह से संक्रामक रोग व बीमारियाँ हो जाती हैं। गरीब परिवार के बच्चों की कई आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती। अत्यधिक गरीबी में ये सभी कठिनाइयाँ बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में बच्चों को एक बार का भोजन भी मुश्किल से नसीब हो पाता है और आश्रय न होने के कारण वे सड़कों के किनारे या रेलवे स्टेशन आदि पर ही सो जाते हैं ।

    गरीब परिवारों के बच्चों पर छोटी सी उम्र में ही जिम्मेदारियां आ जाती हैं। आपने देखा होगा कि चार या पांच वर्ष की लड़कियां पानी लाने, ईंधन जमा करने, खाना बनाने और छोटे-मोटे कामों में माँ की मदद करने लगती है। लड़के पिता के व्यवसाय में मदद करते हैं वें मवेशी की निगरानी करते हैं, खेती में सहायता करते हैं और पिता के साथ नाव में जाते हैं। अगर पिता का व्यवसाय किसी कौशल से संबंधित हो जैसे – बढईगीरी, कुम्हारगीरी इत्यादि तब लड़के . छोटे-मोटे कामों में उनकी मदद करते हैं। घर के काम-काज में माता-पिता की मदद करने के अतिरिक्त बहुत बच्चे घर के सुरक्षित वातावरण से निकलकर पैसे कमाने लगते हैं और परिवार की आमदनी को बढ़ाते है । वे घरेलू नौकर का, कारखानों में या फेरी वाले का काम करते हैं। जब माता-पिता दोनों ही घर से बाहर काम करने जाते हैं तो छोटी लड़कियों का एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व घर चलाना और अपने से छोटे बच्चों की देखभाल करना होता है। यदि घर में देखरेख के लिए लड़की न हो तो माँ शिशु को अपने कार्य स्थल पर अपने साथ ले जाती है। शिशु सारा दिन एक पालने में रहता है और माँ बीच-बीच में आकर उसको देखती रहती है। जब माता-पिता दोनों ही काम करते हैं तो बच्चों के साथ कम समय व्यतीत कर पाते हैं ।

    निम्न वर्ग की इन परिस्थितियों में शिक्षा को, विशेषतः लड़कियों की शिक्षा को बहुत कम महत्त्व दिया जाता है। जहाँ जीने के लिए ही संघर्ष करना पड़ता है, वहाँ माता-पिता शिक्षा को अनिवार्य कैसे समझेंगे ? बच्चे या तो अभिभावकों की काम में मदद करते हैं या पैसा कमाने में जुटे रहते हैं। इसके बाबजूद भी यदि संभव होता है तो निम्न सामाजिक वर्ग के बहुत से बच्चे स्कूल जाते हैं। इस प्रकार वे काम और पढ़ाई साथ-साथ करने लगते हैं। उत्तरदायित्व और अभावों का सामना करने के कारण बच्चे छोटी उम्र में ही भावनात्मक रूप से परिपक्व हो जाते हैं। वे दुनियादारी समझने लगते हैं। उदाहरणतः छोटी उम्र में ही बालिका फल-सब्ज़ी के सही दाम देना सीख जाती है और अपनी रक्षा स्वयं कर सकती है। संभव है वह दूर गाँव से रेल द्वारा शहर में काम की तलाश के लिए अकेली ही आई हो। निम्न सामजिक वर्ग के बच्चों के लिए बाल्यावस्था जिम्मेदारी और व्यस्तताओं से भरी होती है। परंतु इन सब के बीच भी वे अपने कुछ सुखद अनुभव बटोर लेते हैं। समय-समय पर उन्हें माता-पिता से स्नेह, पोषण और प्रोत्साहन मिलता रहता है। पारिवारिक आमदनी में सहयोग देने की वजह से बच्चे की महत्ता और भी बढ़ जाती है। फिर भी ये बच्चे अच्छी आर्थिक स्थिति वाले घरों के बच्चों की तुलना में परिश्रमी एवं कठिन जिंदगी व्यतीत करते हैं ।
  2. मध्यम और उच्च सामाजिक वर्ग के परिवार – मध्यम और उच्च सामाजिक वर्ग के परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है और उन्हें मूलभूत आवश्यकताओं का अभाव नहीं होता। लड़कों और लड़कियों दोनों को ही पर्याप्त मात्रा में भोजन और कपड़ा मिलता है और आमतौर पर स्वास्थ्य की देखरेख में भी कोई कमी नहीं होती। अधिकांश परिवार बच्चों के लिए बाजार से खेल सामग्री, जैसे- गुड़िया, बंदूक, पहेली, खेल, ड्राइंग कॉपियाँ, रंग और पुस्तक खरीद सकते हैं। आमतौर पर बच्चों को आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा लेने की जरूरत नहीं पड़ती। उन्हें घरेलू काम में तथा छोटे बच्चों को मदद नहीं करनी  पड़ती। एक संपन्न परिवार में बच्चे के पास ऐशो-आराम के अधिक साधन होते हैं। प्रायः उनके पास अधिक कपड़े होते हैं, ज्यादा महंगे खिलौने होते हैं। साथ ही साथ उन्हें अलग—अलग तरह का भोजन भी खाने के लिए मिलता है । इन परिवारों में शिक्षा को प्राथमिक रूप से महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। दूसरे अर्थों में बच्चे का एक मात्र लक्ष्य स्कूल में अच्छी तरह से पढना होता है। आमतौर पर लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए शिक्षा समान रूप से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। परन्तु फिर भी यह देखा गया है कि लड़कों को इस मामले में प्राथमिकता दी जाती है। अच्छे स्कूल में प्रवेश पाने के लिए तीन-चार वर्ष की कोमल उम्र से ही कड़ी शिक्षा आरंभ हो जाती है।
    अधिकांश बच्चों का दिन स्कूल जाने, घर लौटकर स्कूल का काम करने और खेलने में बीतता है। आदर्श रूप से शिक्षा से अपेक्षा की जाती है कि बच्चे स्वावलंबी बनें और उनके विचारों में सुस्पष्टता व दृढता आए। हमारे समाज के बदलते हुए मूल्यों के साथ-साथ इन विशेषताओं को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। परन्तु लड़कियों के प्रति इस मामले में पंक्षपात अब भी दिखाई देता है। हालांकि एक ओर तो लड़कियों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, दूसरी ओर अभिभावक उनसे यह अपेक्षा करते हैं कि वे उनके अधीन ही रहें ।

    लड़कियाँ अगर ज्यादा बोलती हैं, सवाल-जबाव करती हैं. तो उन्हें यह कह कर डांट दिया जाता है कि इन आदतों से उन्हें भविष्य में कठिनाई होगी। जैसा कि आपको आभास हुआ होगा कि सम्पन्न परिवारों के बच्चों का समय निश्चिंतता से गुजरता है तथा बच्चे उपलब्ध सुविधाओं का लाभ उठा पाते हैं।
बाल विकास पर सीमांतीकरण और रूढ़िबद्धता का प्रभाव
  1. शैक्षिक एवं सामाजिक स्तर पर सीमांतीकरण एवं रूढ़िबद्धता से ग्रसित बालक में एकाकीपन की समस्या देखने को मिलती है ।
  2. वर्तमान आधुनिक युग में भी समाज में प्रचलित रूढ़ियों के कारण समाज विभिन्न जातियों तथा उपजातियों में विभाजित होने के कारण समाज की पिछड़ी जातियों के विकास की मुख्य धारा से वंचित हो जाते है ।
  3. सीमांतीकरण और रूढ़िबंद्धिता से ग्रसित बालक का विकास व्यवस्थित ढंग से नहीं हो पाता है।
  4. सीमांतीकरण और रूढ़िबद्धिता से प्रभावित परिवारों के प्रायः सामाजिक और शैक्षिक जागरूकता का अभाव होता है और वे शिक्षा को अनावश्यक मान लेते है जिसके परिणाम स्वरूप बालकों की शैक्षिक प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।
  5. सीमांतीकरण और रूढ़िबद्धिता से ग्रसित बालकों में प्रायः ‘आत्मविश्वास, और अभिप्रेरणा की कमी दृष्टिगोचर होती है।
  6. सामाजिक शैक्षिक, सांस्कृतिक अथवा शारीरिक रूप से समाज के हाशिए पर खड़े बालकों में सामाजिक उपेक्ष्य के कारण उनमें हीन भावना का विकास होता है।
  7. सीमांतीकरण एवं रूढ़िबद्धिता से ग्रसित बालक समाज की मुख्यधारा से जुड़ने में स्वयं को असहज पाता है और वह मुख्यधारा से कटता चला जाता है।
  8. सामाजिक और रूढ़िबद्धिता से ग्रसित बालक एक बंद समूह में दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश होते है।

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