माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53 ) का संक्षिप्त वर्णन करो। Discuss briefly the recommendations of Secondary Education Commission (1952-53)
उत्तर –
सन् 1948 में “केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड” ने सरकार को यह सुझाव दिया था कि उच्च शिक्षा का पुनर्गठन करने हेतु एक आयोग का गठन किया जाए जो उच्च शिक्षा के विषय अपने सुझाव दे। जनवरी, 1951 में “केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड” ने अपने सुझाव को पुनः दोहराया । बोर्ड के सुझाव को मानकर सरकार ने 23 सितम्बर, 1952 को “माध्यमिक शिक्षा • आयोग” का गठन किया। इसके अध्यक्ष मद्रास विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदालियर थे जो विश्वविद्यालय आयोग के सदस्य भी रह चुके थे। इस आयोग के अध्यक्ष के नाम पर “माध्यमिक शिक्षा आयोग” को “मुदालियर आयोग’ के नाम से भी जाना जाता है। आयोग के अन्य सदस्यों में श्रीमती हंसा मेहता, डॉ. कालू लाल, श्री के.जी. सैयदेन, जॉन क्रिस्टी, डॉ. केनेथ रस्ट, श्री जे.ए. तारापुरवाला, डॉ. ए.एन. बसु, श्री एम. टी. व्यास आदि थे।
- भारत की माध्यमिक शिक्षा के संगठन एवं प्रशासन का अध्ययन करके उनमें सुधार के लिए सुझाव देना ।
- माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या, शिक्षण स्तर एवं उद्देश्यों का अध्ययन करके उनमें सुधार के लिए सुझाव देना।
- माध्यमिक स्तर के शिक्षकों के वेतन तथा सेवा दशाओं के विषय में सुझाव देना ।
- माध्यमिक स्तर पर छात्र अनुशासनहीनता के कारणों का पता लगाना एवं उनमें सुधार के लिए सुझाव देना ।
- माध्यमिक स्कूलों के विषयों के सन्दर्भ में आवश्यक सुझाव देना ।
- माध्यमिक स्तर की परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए सुझाव देना ।
- माध्यमिक शिक्षा में व्याप्त समस्याओं का पता लगाना तथा उनमें सुधार के लिए सुझाव देना ।
माध्यमिक शिक्षा के दोष –
- माध्यमिक शिक्षा एकांगी है यह छात्रों को केवल उच्च शिक्षा के लिए तैयार करती हैं।
- माध्यमिक शिक्षा पुस्तकीय है यह छात्रों का सम्पूर्ण विकास नहीं करती है।
- माध्यमिक शिक्षा छात्रों में अच्छे नागरिक गुण, अनुशासन, सहयोग, नैतिकता एवं नेतृत्व आदि का विकास नहीं करती है।
- अंग्रेजी अभी भी पाठ्यचर्या का अनिवार्य विषय बनी हुई है।
- माध्यमिक स्तर पर उत्तम शिक्षण विधियों का प्रयोग नहीं हो रहा है।
- माध्यमिक शिक्षा पर पाठ्यचर्या व्यापक नहीं है जिससे छात्र अपनी रुचि के अनुसार विषयों का चयन नहीं कर सकते ।
- माध्यमिक स्तर पर दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली है। इससे छात्रों का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता ।
- माध्यमिक स्तर पर योग्य व प्रशिक्षित शिक्षकों की व्यवस्था नहीं है।
- कुछ प्रान्तों में अंग्रेजी भाषा अभी भी शिक्षा का माध्यम बनी हुई है।
- माध्यमिक शिक्षा छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान प्रदान नहीं कर पा रही है।
- कुशल नागरिकता का विकास आयोग का पहला उद्देश्य छात्रों में कुशल नागरिकता का विकास करना था। माध्यमिक शिक्षा इस प्रकार की हो जिससे छात्रों में राष्ट्र प्रेम, अनुशासन, सहयोग, वर्ग भेद को अस्वीकार करने, विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति तथा साम्प्रदायिकता से दूर रहने की भावना का विकास हो । चूंकि भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है इसलिए अच्छे नागरिकों का निर्माण करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए ।
- नेतृत्व का विकास – माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार हो जिससे कि छात्रों के अन्दर नेतृत्व करने की कला का विकास हो ताकि छात्र भविष्य में सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों में नेतृत्व ग्रहण करके उपयुक्त संचालन करने में सक्षम हों।
- छात्रों में व्यक्तित्व का विकास – माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास करना होना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार हो जिससे छात्रों को वास्तविक जीवन का ज्ञान, स्वास्थ्य शिक्षा तथा नैतिक एवं चारित्रिक विकास सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हो ।
- व्यावसायिकता का विकास – माध्यमिक शिक्षा उद्देश्य छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना है ताकि माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करके छात्र अपने वास्तविक जीवन में प्रवेश कर सके। इसके लिए छात्रों को औद्योगिक एवं व्यावसायिक विषयों की शिक्षा दी जाए जिससे छात्र सफल व्यवसायी बनकर देश का आर्थिक विकास करने में सहायक सिद्ध हों।
- माध्यमिक शिक्षा 11 से 17 आयु वर्ग के छात्रों के लिए हो ।
- माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष की हो ।
- माध्यमिक शिक्षा दो भागों में विभक्त हो –
- 3 वर्ष की जूनियर माध्यमिक शिक्षा तथा
- 4 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा |
- माध्यमिक स्तर की शिक्षा कक्षा 11 तक हो । कक्षा 12 को महाविद्यालयों से सम्बद्ध कर दिया जाए।
- बहुउद्देशीय स्कूलों की स्थापना की जाए। इन स्कूलों में सामान्य शिक्षा के साथ-साथ बुनाई, सिलाई-कढ़ाई, लकड़ी का काम तथा चमड़े का काम आदि की शिक्षा भी दी जाए।
- ग्रामीण विद्यालयों में कृषि शिक्षा की व्यवस्था की जाए। साथ ही पशुपालन, बागवानी एवं कुटीर उद्योगों की शिक्षा की व्यवस्था भी की जाए।
- पर्याप्त संख्या में प्राविधिक और तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की जाए।
- भारत के प्रत्येक प्रान्त में आवासीय विद्यालयों की स्थापना की जाए।
- दृष्टिबाधित, मूकबधिर तथा विकलांग बालकों के लिए विशिष्ट स्कूल खोले जाएं ।
- बालिकाओं के लिए “गृहविज्ञान” की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जाए।
- बालिकाओं के लिए अलग से विद्यालय खोलने की व्यवस्था की जाए तथा जहाँ यह सम्भव न हो वहाँ सह – शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
- योग्य छात्रों को छात्रवृत्ति देने की व्यवस्था की जाए।
- प्रत्येक प्रान्त में “प्रान्तीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड” का गठन किया जाए ।
- जिन राज्यों में “माध्यमिक शिक्षा बोर्ड” की स्थापना नही हुई है उन राज्यों में अतिशीघ्र इनका गठन किया जाए ।
- तकनीकी शिक्षा के सम्बन्ध में “तकनीकी शिक्षा बोर्ड” की स्थापना की जाए।
- प्रान्तीय सरकारें माध्यमिक शिक्षा का पूर्ण उत्तरदायित्व लेंगी तथा समय-समय पर केन्द्र भी उनको आर्थिक सहायता प्रदान करेगी।
- माध्यमिक स्कूलों के लिए निःशुल्क जमीन की व्यवस्था की जाए। माध्यमिक शिक्षा के सहयोग के लिए दी जाने वाली राशि आयकर से मुक्त हो ।
- माध्यमिक विद्यालयों के मान्यता सम्बन्धी नियम कठोर होने चाहिए। विद्यालयों द्वारा इन नियमों के पूर्ण करने के पश्चात् ही उन्हें मान्यता प्रदान की जाए ।
- जो विद्यालय शिक्षा का प्रसार ठीक प्रकार से न कर पा रहे हों, उनकी मान्यता समाप्त कर दी जाए।
- समय-समय पर माध्यमिक स्कूलों का निरीक्षण कराया जाए।
- निरीक्षणकर्ता विद्यालयों की कमियों को दूर करने के लिए सुझाव दें तथा उन सुझावों का अनुसरण भी कराएं ।
According to Secondary Education Commission Report, “When students pass out of school, they feel illadjusted and cannot take their place confidently and completely in the community”
- तत्कालीन पाठ्यचर्या बोझिल, नीरस एवं परम्परागत है।
- यह पाठ्यचर्या सैद्धान्तिक व पुस्तकीय है ।
- इस पाठ्यचर्या के द्वारा बालकों की विभिन्न रुचियों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है ।
- यह पाठ्यचर्या संकुचित एवं एकमार्गीय है ।
- इस पाठ्यचर्या में व्यावसायिक विषयों की उचित व्यवस्था नहीं है।
- इस पाठ्यचर्या का छात्रों के सामाजिक एवं वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है ।
- इस पाठ्यचर्या में परीक्षाओं को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया गया है।
- पाठ्यचर्या लचीली हो जिससे छात्र अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सकें।
- पाठ्यचर्या वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हो।
- पाठ्यचर्या स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाई जाए।
- पाठ्यचर्या के विषयों का एक-दूसरे से सम्बन्ध होना चाहिए। पाठ्यचर्या सामाजिक जीवन से सम्बद्ध होना चाहिए जिससे छात्रों को सामाजिक जीवन की महत्त्वपूर्ण क्रियाओं के सम्पर्क में लाया जा सके।
- मातृभाषा,
- सामाजिक विषय,
- सामान्य विज्ञान
- गणित
- संगीत तथा कला
- शिल्प तथा
- शारीरिक शिक्षा
- अनिवार्य विषय तथा
- वैकल्पिक विषय ।
- अनिवार्य विषय- अनिवार्य विषय निम्नलिखित हैं-
- मातृभाषा,
- कोई एक भाषा
- हिन्दी ( जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है । )
- प्रारम्भिक अंग्रेजी (जिन छात्रों ने निम्न माध्यमिक स्तर पर इसका अध्ययन नहीं किया है।)
- उच्च अंग्रेजी (जिन छात्रों ने निम्न माध्यमिक स्तर पर इसका अध्ययन किया है।)
- हिन्दी के अतिरिक्त कोई अन्य भारतीय भाषा ।
- अंग्रेजी के अतिरिक्त कोई अन्य विदेशी भाषा ।
- कोई शास्त्रीय भाषा ।
- सामाजिक विषय (प्रथम दो वर्षों के लिए),
- गणित तथा सामान्य विज्ञान (प्रथम दो वर्षों के लिए),
- कोई एक शिल्प
- कताई-बुनाई,
- धातु का काम,
- लकड़ी का काम,
- बागवानी,
- बनाना,
- मॉडल ( प्रतिमान)
- छपाई ,
- सिलाई-कढ़ाई |
- दस्तकारी तथा
- वैकल्पिक विषय-वैकल्पिक विषय निम्न हैं –
-
- भौतिक शास्त्र,
- रसायन शास्त्र,
- जीव-शास्त्र,
- गणित,
- भूगोल
- स्वास्थ्य विज्ञान तथ
- शरीर विज्ञान
-
- शास्त्रीय भाषा (जो अनिवार्य विषय के रूप में न ली हो )
- भूगोल, इतिहास,
- नागरिकशास्त्र और अर्थशास्त्र,
- तर्कशास्त्र तथा मनोविज्ञान,
- गणित,
- गृहविज्ञान तथा
- संगीत |
-
- वाणिज्यिक प्रयोग,
- बुक-कीपिंग (पुस्तपालन),
- वाणिज्य भूगोल या अर्थशास्त्र और नागरिकशास्त्र तथा
- टाइप एवं शॉर्ट हैंड
-
- सामान्य कृषि, पशुपालन,
- बागवानी तथा वनस्पति विज्ञान और कृषि रसायन
-
- व्यावहारिक गणित और रेखीय ड्राइंग,
- व्यावहारिक विज्ञान,
- मैकेनिकल इन्जीनियरिंग तथा
- इलैक्ट्रिकल इन्जीनियरिंग ।
-
- गृह अर्थशास्त्र,
- पोषण आहार और पाक-कला,
- शिशु पालन और मातृ-कला तथा
- गृह उपचारण ।
-
- कला का इतिहास,
- डिजाइन तथा ड्राइ
- मॉडल बनाना, (प्रतिमान )
- चित्रकला,
- नृत्य तथा
- संगीत ।
- किसी भी विषय की एक पाठ्य पुस्तक की जगह 3अच्छी पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन किया जाए, जिनमें विद्यालय एक पुस्तक का चयन करे।
- पाठ्य पुस्तकों को जल्दी-जल्दी न बदला जाए।
- पाठ्य पुस्तकों में चित्र बनाने का प्रशिक्षण देने के लि केन्द्र सरकार एक स्वतन्त्र संस्था का निर्माण करे।
- पाठ्य पुस्तकों का निर्माण करने के लिए नियम बनाए जाए।
- पुस्तक लेखन के लिए लेखकों को प्रोत्साहित किया जाए ।
- रटने की जगह समझने पर बल दिया जाए।
- दृश्य श्रव्य साधनों का उचित प्रयोग करने पर बल दिया जाए।
- कक्षा में ऐसी शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए जो कक्षा के प्रत्येक स्तर के बच्चों के लिए उपयोगी हो ।
- छात्रों में स्वाध्याय विधि को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
- धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था विद्यालयों में की जा सकती है।
- इस शिक्षा की व्यवस्था बच्चों के अभिभावकों की अनुमति के बाद दी जाए ।
- यह शिक्षा, शिक्षण से पहले या शिक्षण के बाद दी जाए।
- धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी भी बच्चे को बाध्य नहीं किया जा सकता ।
- बालिकाओं को शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता हो ।
- बालिकाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए बालिका विद्यालय खोले जाएं।
- गृह विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था की जाए ।
- सह – शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाए।
- छात्रों के अनुशासन का उत्तरदायित्व सभी अध्यापकों का होना चाहिए।
- छात्रों में अनुशासन की भावना का विकास करने के लिए अध्यापक एवं छात्रों के मध्य मधुर सम्बन्ध हो ।
- किसी भी विषय के शिक्षण का उद्देश्य छात्रों में चरित्र–निर्माण तथा अनुशासन की भावना का विकास होना चाहिए।
- छात्रों में स्वानुशासन की भावना का विकास किया जाए।
- खेलकूद, एन.सी.सी. एवं स्काउट आदि में भाग लेने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित किया जाए ।
- छात्रों को राजनीति से दूर रखा जाए।
- बाह्य परीक्षाओं की संख्या कम की जाए।
- पूरा पाठ्यक्रम समाप्त होने पर एक सार्वजनिक परीक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।
- निबन्धात्मक परीक्षाओं की जगह वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं को महत्त्व दिया जाए।
- शिक्षा की समाप्ति पर मूल्यांकन करते समय आन्तरिक परीक्षाओं, नियमित कार्यों तथा विद्यालय रिकॉर्ड को भी महत्त्व दिया जाए।
- मूल्यांकन, योग्य शिक्षकों के द्वारा कराया जाए।
- सभी विद्यालयों में वर्ष में कम से कम एक बार छात्रों के स्वास्थ्य परीक्षण की व्यवस्था की जाए।
- सभी राज्यों में “स्कूल स्वास्थ्य सेवा” योजना शुरू की जाए। सामान्य बीमारियों का इलाज निःशुल्क कराया जाए।
- जिन छात्रों को असाध्य बीमारी हो उनका स्वास्थ्य परीक्षण बार-बार कराया जाए।
- छात्रों के लिए छात्रावासों में पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की जाए।
- छात्रों के व्यक्तिगत भेदों, रुचि व योग्यता के आधार पर निर्देशन दिया जाए।
- शिक्षकों को प्राथमिक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के सामान्य सिद्धान्तों को जानने हेतु प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे चिकित्सा कर्मचारियों के साथ विवेकपूर्ण सहयोग दे सकें ।
- विद्यालयों में “जीविकोपार्जन शिक्षक” ( Career Masters) और “मार्गदर्शन अधिकारी” (Guidance Officers) की नियुक्ति की जाए ।
- छात्रों की आवश्यकताओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उनके लिए निर्देशन व परामर्श की व्यवस्था की जाए।
- छात्रों को सही विषयों की सूचना देने के लिए विद्यालय में समय-समय पर छात्रों के निर्देशन की व्यवस्था की जाए।
- निर्देशन व परामर्श देते समय बालकों के भविष्य की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाए।
- शिक्षा अधिकारियों को छात्रों के शैक्षिक निर्देशन के प्रति विशेष ध्यान देना चाहिए ।
- किसी एक हस्तशिल्प की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाए ।
- स्कूलों को बहुउद्देश्यीय स्कूलों में बदला जाए। इनमें विभिन्न हस्तकौशलों की शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
- स्कूलों का पाठ्यक्रम व्यवसाय एवं तकनीकी शिक्षा प्रधान हो।
- छात्रों को विभिन्न उद्योगों के कारखानों में ले जाना चाहिए। इससे उन्हें विभिन्न उद्योगों से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त हो सकेगी।
- व्यवसायों के विषय में सूचना देने के लिए समय-समय पर विद्यालयों में जीविकोपार्जन सम्मेलनों (Career Conferences ) का आयोजन किया जाना चाहिए ।
- प्रत्येक विद्यालय में उचित भवन, फर्नीचर एवं अन्य शिक्षण सहायक सामग्री की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए ।
- विद्यालयों में अच्छे पुस्तकालय तथा प्रयोगशालाओं की व्यवस्था हो ।
- विद्यालय में छात्रों की संख्या 750 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
- शैक्षणिक सत्र कम से कम 200 कार्य दिवसों का हो ।
- विद्यालयों में छात्रों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण कराया जाए।
- विद्यालय में दिया जाने वाला दोपहर का भोजन पौष्टिक होना चाहिए ।
- शिक्षकों के चयन के लिए नियम बनाए जाए।
- शिक्षकों को नियुक्त करने के लिए “चयन समिति” का गठन किया जाए।
- शिक्षकों का वेतन निश्चित करने के लिए समिति का गठन किया जाए जो समय-समय पर परिस्थितियों को ध्यान में रखकर शिक्षकों का वेतन निश्चित करे।
- समान कार्य, समान योग्यता एवं समान वेतन लागू किया जाए।
- शिक्षकों को फण्ड, बीमा एवं पेंशन की सुविधा भी दी जाए ।
- शिक्षकों के बालकों के लिए माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा निःशुल्क कर दी जाए।
- शिक्षकों की समस्याओं का समाधान करने के लिए “निर्णायक मण्डल” का गठन किया जाए।
- शिक्षकों को ट्यूशन पढ़ाने की सख्त मनाही हो ।
- योग्य शिक्षकों को 58 वर्ष की जगह 60 वर्ष की आयु में सेवा निवृत्त / रिटायरमेंट किया जाए ।
- निम्न माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि 2 साल हो तथा योग्यता हायर सेकेण्डरी हो ।
- माध्यमिक शिक्षकों के लिए, इनके प्रशिक्षण की अवधि अभी तो 1 साल की हो परन्तु आगे चलकर इसे 2 साल कर दिया जाए। प्रवेश के लिए योग्यता स्नातक हो ।
- अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाओं में योग्य अभ्यर्थियों को ही प्रवेश दिया जाए ।
- प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दोनों को बराबर महत्त्व दिया जाए ।
- त्राध्यापकों को कम कम दो “अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाओं” (Extra Curriculum Activities) का भी प्रशिक्षण दिया जाए ।
- प्रशिक्षणार्थियों से किसी भी प्रकार का शुल्क न लिया जाए, प्रान्तीय सरकार की ओर से छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाए।
- अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रायोगिक प्रशिक्षण की . व्यवस्था के लिए “प्रदर्शनात्मक विद्यालय” (Demonstration School) होना चाहिए।
- प्रशिक्षण महाविद्यालयों में अनुसंधान को भी महत्त्व दिया जाए। समय-समय पर “पुनश्चर्या पाठ्यक्रम” (Refresher Courses), “व्यावहारिक प्रशिक्षण ” (Practical Training) आदि की भी व्यवस्था प्रशिक्षण संस्थाओं में कराई जाए।
- एम. एड. में उन्हीं व्यक्तियों को प्रवेश दिया जाए जो स्नातक प्रशिक्षण उत्तीर्ण हों तथा उन्हें कम से कम 3 वर्ष का शिक्षण अनुभव हो ।
- समय-समय पर प्रशिक्षण के सम्बन्ध में प्रशिक्षण संस्थाओं के अध्यापकों, प्रधानाध्यापकों तथा विद्यालय निरीक्षकों से विचार-विमर्श करते रहना चाहिए ।
कुछ विद्वान इस आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझावों को विशेष उपयोगी मानते हैं जबकि कुछ विद्वान एवं शिक्षाविद् इन सुझावों को अपूर्ण मानते हैं। अतएव आयोग का मूल्यांकन करना अति आवश्यक है।
- अनुकूल उद्देश्यों का निर्माण – माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के जो उद्देश्य निर्धारित किए उनमें छात्रों के शारीरिक, सामाजिक, नैतिक, मानसिक, चारित्रिक, व्यावसायिक तथा अच्छे नागरिक बनाने के सभी गुण विद्यमान थे।
- शिक्षा का स्तर सुधारने सम्बन्धी उपयुक्त सुझावआयोग ने शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए प्रत्येक राज्य में “प्रान्तीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड” तथा “माध्यमिक शिक्षा बोर्ड” के गठन का सुझाव दिया। विद्यालयों का समय-समय पर निरीक्षण का भी सुझाव दिया। ये सभी सुझाव अत्यन्त लाभदायी सिद्ध हुए।
- पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में युक्त सुझाव आयोग ने पाठ्यचर्या को व्यापक बना कर इसे सह-सम्बन्ध के सिद्धान्त पर विकसित करने का सुझाव दिया। पाठ्यचर्या में सहचर क्रियाओं को शामिल करने का सुझाव दिया जो पाठ्यक्रम निर्माण में सहायक सिद्ध हुए।
- रुचिकर शिक्षण विधियों का निर्माण आयोग ने नीरस शिक्षण विधियों के स्थान पर रुचिकर शिक्षण विधियों के प्रयोग का सुझाव दिया जिससे छात्र शिक्षण में रुचि लें। इससे छात्रों में शिक्षण के प्रति रुचि का विकास हुआ।
- शिक्षा का माध्यम मातृभाषा – किसी भी देश में शिक्षा का माध्यम उस देश की मातृभाषा होनी चाहिए। आयोग ने माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाने का सुझाव दिया जो एक महत्त्वपूर्ण कद था।
- शिक्षकों के सम्बन्ध में उचित सुझाव आयोग ने अध्यापकों की योग्यता, वेतन तथा सेवा दशाओं में सुधार करने का सुझाव दिया जिससे वह समाज में सम्मान पा सके। साथ ही शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों के विषय में भी ठोस सुझाव दिए जो आगे चलकर शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के लिए उपयोगी हुए।
- अन्य उपयोगी सुझाव आयोग ने छात्रों के अनुशासन, धार्मिक शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा, स्त्री शिक्षा, निर्देशन व परामर्श के सम्बन्ध में भी उपयोगी सुझाव दिए ।
- उपयोगी पाठ्य पुस्तकों के लिए सुझाव आयोग ने पाठ्य पुस्तकों के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए उनसे अच्छी गुणवत्ता व उपयोगी पाठ्य पुस्तकों का निर्माण करने में सहायता मिली।
- उपयुक्त परीक्षाएँ – आयोग ने परीक्षाओं को निबन्धात्मक की जगह वस्तुनिष्ठ बनाने तथा योग्य परीक्षकों के द्वारा मूल्यांकन कराने का सुझाव दिया।
- अस्पष्ट सुझाव आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के संगठन के सम्बन्ध में अस्पष्ट सुझाव दिए जिसके कारण उन्हें लागू करने के बाद दोबारा से उन पर विचार करना पड़ा। इन सबसे परेशानियाँ ही उत्पन्न हुई।
- पाठ्य विषयों की अधिकता आयोग ने माध्यमिक स्तर पर जो विषय पढ़ाने के लिए कहा उनकी संख्या अधिक थी जिससे बालकों को शिक्षा एक बोझ लगने लगी।
- अंग्रेजी के विषय में अनुचित सुझाव–अंग्रेजी को अनिवार्य विषय में भी स्थान दिया गया तथा वैकल्पिक विषयों में भी, ये समझ से परे है कि आयोग आखिर अंग्रेजी के विषय में क्या कहना चाहता था ?
- व्यय ने साध्य बहु – उद्देश्यीय स्कूल – आयोग बहु–उद्देश्यीय स्कूलों को खोलने का सुझाव दिया। इन स्कूलों में विभिन्न व्यवसायों तथा हस्तकौशलों की शिक्षा की व्यवस्था करने का सुझाव दिया। आयोग ने इस पर होने वाले व्यय का अनुमान नहीं लगाया। भारत जैसे गरीब देश में इस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था करना असम्भव प्रतीत होता है । आयोग ने यदि इस पर गहनता से विचार किया होता तो वह कभी भी इस प्रकार का सुझाव नहीं देता।
- भिन्नभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम आयोग ने माध्यमिक स्तर पर 7 वर्गों का निर्माण किया और उनके कुछ विषय समान रखें। कुछ ऐच्छिक विषयों को दो या दो से अधिक वर्गों में भी रखा गया। यह विभाजन अर्थहीन था ।
- गैरसरकारी स्कूलों के सम्बन्ध में सुझाव हास्यास्पद – आयोग ने गैरसरकारी माध्यमिक स्कूलों के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए वे उपयुक्त थे परन्तु बिना सरकारी सहायता दिए इन विद्यालयों में सारी सुविधाएँ उपलब्ध कराना हास्यपद सुझाव नहीं था तो और क्या था ?
- धार्मिक और नैतिक शिक्षा के सम्बन्ध में अनुपयुक्त सुझाव आयोग ने धार्मिक और नैतिक शिक्षा व्यवस्था उसी दशा में करने के लिए कहा जब अभिभावक इसे अपने बच्चों को दिलाना चाहे। यह सुझाव उपयुक्त नहीं था। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। इसमें सभी धर्मों की शिक्षा समान रूप से देने की आवश्यकता है।
आयोग की सिफारिशों को लागू करने से कुछ हानियाँ भी हुई। जैसे— 5 + 6 + 3 शिक्षा संरचना लागू करना बेकार साबित हुआ और दोबारा से 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना ही लागू करनी पड़ी। इसके अतिरिक्त माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या बोझिल होने से पाठ्यक्रमों में समरूपता नहीं लाई जा सकी। बहु–उद्देश्यीय विद्यालयों की व्यवस्था में बहुत अधिक धन व्यय हुआ परन्तु इनसे लाभ कुछ भी नहीं हुआ।
अन्ततोगत्वा यह जा सकता है कि माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के सम्बन्ध में आयोग ने जो सुझाव दिए वे भारत की वर्तमान परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर दिए थे जिनसे छात्रों तथा राष्ट्र का हित हो सके। शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति हो सके तथा शिक्षा में जो समस्याएँ हैं उनका निस्तारण हो सके। शिक्षकों के स्तर में सुधार हो सके परन्तु साथ ही आयोग ने कुछ अस्पष्ट तथा अधूरे सुझाव भी दिए । चूँकि उपयोगी सुझावों की संख्या अधिक थी इसलिए अनुपयोगी सुझावों का त्याग करना ही उचित होगा। यदि हम माध्यमिक शिक्षा आयोग के सभी सुझावों पर प्रकाश डालते हैं तो पाते हैं कि यदि भारत सरकार इन सुझावों को उचित प्रकार से कार्यान्वित कराती तो माध्यमिक शिक्षा की स्थिति कुछ भिन्न होती किंतु सरकार ने आयोग के कुछ ही सुझावों को लागू किया, पता नहीं .इसके पीछे सरकार की क्या मंशा थी।
इस सम्बन्ध में भगवान दयाल के अनुसार, “यदि आयोग के अधिकांशतः सुझावों को क्रियान्वित कर दिया जाएगा, तो माध्यमिक शिक्षा देश में निश्चित रूप से एक स्वस्थ आधार पर प्रतिष्ठित हो जाएगी जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण देश के हित में सुनियोजित प्रगति सम्भव हो जाएगी।”
