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राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (NCF) 2005

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (NCF) 2005

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (NCF) 2005
National Curriculum Framework (NCF) 2005
CTET परीक्षा के विगत वर्षों के प्रश्न-पत्रों का विश्लेषण करने से
यह ज्ञात होता है कि इस अध्याय से वर्ष 2011 में 1 प्रश्न, 2012
1 प्रश्न, 2015 में 1 प्रश्न, 2016 में 1 प्रश्न, पूछा गया है, जो
तीक्षा के दृष्टिकोण से उपयोगी हैं।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 का उद्धरण रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबन्ध
सभ्यता और प्रगति’ से हुआ, जिसमें उन्होंने हमें बताया है कि सृजनात्मकता
उदार और आनन्द बचपन की कुंजी है। सामाजिक न्याय और समानता के
संवैधानिक मूल्यों पर आधारित एक धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक और बहुलतावादी
समाज के आदर्श से प्रेरणा लेते हुए इस दस्तावेज में शिक्षा के कुछ व्यापक
उद्देश्य चिह्नित किए गए हैं। इनमें शामिल हैं, विचार और कर्म की स्वतन्त्रता,
दूसरों की भलाई और भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता, नई स्थितियों का
लचीलेपन और रचनात्मक तरीके से सामना करना, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में
भागीदारी की प्रवृत्ति और आर्थिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक बदलाव में
योगदान देने के लिए काम करने की क्षमता।
अगर शिक्षा को जानने के लोकतान्त्रिक तरीकों को सुदृढ़ करना है तो उसे
स्कूल में जाने वाली पहली पीढ़ी की उपस्थिति का भी ध्यान रखना ही होगा,
जिसका स्कूल में बने रहना उस संविधान संशोधन के तहत अनिवार्य हो गया
है। जिसने आरम्भिक शिक्षा को हर बच्चे का मौलिक अधिकार बना दिया है।
संविधान के इस संशोधन से हम पर यह जिम्मेदारी आ गई है कि हम सारे
बच्चों को जाति, धर्म सम्बन्धी अन्तर, लिंग और असमर्थता सम्बन्धी चुनौतियों
से निरपेक्ष रहते हुए स्वास्थ्य, पोषण और समावेशी स्कूली माहौल मुहैया कराएँ,
जो उनको शिक्षा ग्रहण में मदद पहुँचाएँ तथा उन्हें सशक्त बनाएँ। हमारे शैक्षिक
उददेश्यों और शिक्षा की गुणवत्ता में आज गहरी विकृति आ गई है, इसका
प्रमाण यह तथ्य है कि शिक्षा बच्चों और उनके माता-पिता के लिए तनाव और
बोझ का कारण बन गई है।
इस विकृति को मजबूत करने के लिए पाठ्यचर्या के इस दस्तावेज ने पाठ्यचर्या
निर्माण के पाँच निर्देशक सिद्धान्तों का प्रस्ताव रखा है।
1. ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ना।
2. परीक्षा को अपेक्षाकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों
से जोड़ना।
3. एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास, जिसमें प्रजातान्त्रिक
राज्य-व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रीय चिन्ताएँ समाहित हो।
4. यह सुनिश्चित करना की पढ़ाई रटंत प्रणाली पर आधारित न हो,
बल्कि समझ आधारित हो।
5. पाठ्यचर्या का विकास/संवर्द्धन इस प्रकार हो कि वह बालकों को
सर्वांगीण विकास का अवसर उपलब्ध करवाए।
22.1 पाठ्यचर्या एवं व्यवहार के लिए निहितार्थ
• रचनात्मक परिप्रेक्ष्य में, सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है।
विद्यार्थी सक्रिय रूप से पूर्व प्रचलित विचारों में उपलब्ध
सामग्री/गतिविधियों के आधार पर अपने लिए ज्ञान की रचना करते हैं।
• उदाहरण के लिए-यातायात व्यवस्था को पाठ या चित्र या दृश्य सामग्री
का उपयोग करते हुए पढ़ाने तथा उस पर विद्यार्थियों में चर्चा कराने से
उनके यातायात व्यवस्था सम्बन्धी ज्ञान के निर्माण में मदद की जा सकती
है।
• आरम्भिक निर्मित (मानसिक चित्रण) सड़क यातायात के विचार पर
आधारित हो सकती है और ग्रामीण इलाके का कोई विद्यार्थी बैलगाड़ी के
इर्द-गिर्द अपने विचार गढ़ सकता है। विद्यार्थी दी गई गतिविधियों
(अनुभव) माध्यम से बाह्य यथार्थ (यातायात व्यवस्था) की मानसिक
छवि गढ़ सकते हैं।
• विचारों की रचना एवं पुनर्रचना उनके विकास के आवश्यक लक्षण हैं।
ज्ञान-निर्माण की प्रक्रिया का एक सामाजिक पहलू यह भी है कि जटिल
कार्य के लिए आवश्यक ज्ञान समूह परिस्थितियों में निहित होता है।
• इस सन्दर्भ में, सहयोगी शिक्षण के लिए अर्थ की बहुलता और बाह्य
यथार्थ के आन्तरिक प्रतिनिधित्व को पर्याप्त जगह दिए जाने की
जरूरत है।
• हर विद्यार्थी व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर अर्थ का निर्माण करता है।
अर्थ निर्माण सीखता है। रचनात्मक परिप्रेक्ष्य ऐसी रणनीतियाँ उपलव्य
करवाता है, जो सबके द्वारा सीखने को प्रोत्साहित करती हैं।
• बच्चों के संज्ञान में अध्यापकों की भूमिका भी बढ़ सकती है, यदि वे
ज्ञान निर्माण की उस प्रक्रिया में ज्यादा सक्रिय रूप से शामिल हो जाएँ,
जिसमें बच्चे व्यस्त हैं। सीखने की प्रक्रिया में व्यस्त एक बालक या
बालिका अपने ज्ञान का सृजन खुद करता/करती है।
• बच्चों को ऐसे प्रश्न पूछने की अनुमति देना जिनसे वे स्कूल में सिखाई
जाने वाली चीजों का सम्बन्ध बाहरी दुनिया से स्थापित कर सकें, उन्हें
एक ही तरीके से उत्तर रटने/याद करने देने की बजाय अपने शब्दों में
जवाब देने और अपने अनुभव बताने के लिए प्रोत्साहित करना-ये सभी
बच्चों की समझ विकसित करने में छोटे, किन्तु बेहद महत्त्वपूर्ण
कदम हैं।
• ‘चतुर अनुमान’ को एक कारगर शिक्षा शास्त्रीय साधन के रूप में
प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अपने रोजमर्रा के जीवन या ‘मीडिया
एक्सपोजर’ से प्रायः बच्चों को एक बोध तो होता है, लेकिन वे उसे उस
प्रकार प्रस्तुत नहीं कर पाते जो शिक्षक को पसन्द हो।
• एक संवेदनशील और समझदार अध्यापक यह जानता है और बच्चों को
भली-भाँति चुने हुए कार्यों व प्रश्नों में व्यस्त कर पाता है, ताकि वे अपने
विकास की क्षमता का अनुभव कर सकें।
• पूछताछ, अन्वेषण, प्रश्न पूछना, वाद-विवाद, व्यावहारिक प्रयोग व
ऐसा चिन्तन, जिससे सिद्धान्त बन सकें और विचार/स्थितियों की रचना
हो सके ये सभी बच्चों की सक्रिय व्यस्तता को सुनिश्चित करते हैं।
• स्कूलों द्वारा ऐसे अवसर प्रदान किए जाने चाहिए ताकि बच्चे प्रश्न
पूछ कर और चर्चा एवं चिन्तन कर अवधारणाओं को आत्मसात करें
या नए विचारों की रचना करें।
• इस प्रक्रिया के जरिए विभिन्न अवधारणाओं एवं कौशल सीखने के
लिए व स्थितियों तक पहुँचने के लिए बच्चों की सक्रिय भूमिका में
चुनौती का तत्त्व निर्णायक है। एक विशेष आयु-वर्ग के लिए जो
चुनौतीपूर्ण है, वह दूसरे आयु-वर्ग के लिए सरल हो सकता है।
• अतः प्रायः ‘वस्तुपरक’ होने के नाम पर अध्यापक लचीलेपन और
रचनात्मकता को समाप्त कर देता है। प्रायः निजी व सरकारी दोनों
स्कूलों के अध्यापक इस बात पर जोर देते हैं कि सभी बच्चों को
प्रश्नों के एकसमान उत्तर देने चाहिए। अन्य उत्तरों को स्वीकार न
करने के लिए यह तर्क दिया जाता है कि वे ऐसा उत्तर नहीं दे सकते
जो पाठ्य-पुस्तक में नहीं है’, क्या हमें सभी तरह के जवाबों को सही
मानना चाहिए?’ ऐसे तर्क पढ़ाई के अर्थ का उपहास बना देते हैं और
बच्चों व माता-पिता को और भी आश्वस्त कर देते हैं कि स्कूल
अतार्किक रूप से सख्त है।
• हमें वास्तव में, इस बात पर सोचना चाहिए कि हम हमेशा बच्चों से
सवाल के जवाब देने के लिए ही क्यों कहते हैं। दिए गए उत्तरों के
लिए प्रश्नों की एक सूची बनाना भी सीखने का वैध परीक्षण हो
सकता है।
                   अन्त:क्रिया (Interaction) का मूल्य
• सीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है आसपास के वातावरण, प्रकृति,
चीजों व लोगों से कार्य व भाषा दोनों के माध्यम से अन्तःक्रिया करना।
इधर-उधर घूमना, खोजना, अकेले काम करना या अपने दोस्तों या
वयस्कों के साथ काम करना, भाषा को पढ़ना, अभिव्यक्त करना,
पूछने और सुनने के प्रयोग करना, ये कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण .
क्रियाएँ हैं, जिनसे सीखना सम्भव होता है। इसलिए जिस सन्दर्भ में
यह अधिगम होता है उसकी प्रत्यक्षतः संज्ञानात्मक (Congnitive)
महत्ता है।
• स्कूली शिक्षा में अधिगम का एक बड़ा हिस्सा अब भी व्यक्ति-आधारित
है (हालाँकि वैयक्तिक नहीं है)। अध्यापकों को ‘ज्ञान’ हस्तान्तरित
करने वालों के रूप में देखा जाता है यद्यपि ज्ञान को हम जानकारी
मान लेते हैं।
• अध्यापकों को उन अनुभवों का आयोजक समझा जाता है, जो बच्चों
के सीखने में सहायक होते हैं।, लेकिन अध्यापकों के साथ, दोस्तों के
साथ, अपने से छोटे व बड़े बच्चों लोगों के साथ सम्पर्क-संवाद भी
सीखने की अनेक सम्भावनाएँ खोल सकता है। दूसरों की संगत में
सीखना पारस्परिक अन्तःक्रिया करने की ही प्रक्रिया है। इस तरह का
अधिगम तब और भी रोचक व परिपुष्ट होता है, जब स्कूल विभिन्न
सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों को प्रवेश देता है।
22.2 राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा का विवरण
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 (National Curriculum Frame Work)
को 5 भागों में बाँटकर वर्णित किया गया है, जिनका संक्षिप्त विवरण
निम्नलिखित है
22.2.1 परिप्रेक्ष्य
इस भाग में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा का परिचय, पश्चावलोकन, मार्गदर्शक
सिद्धान्त, गुणवत्ता के आयाम, शिक्षा का सामाजिक सन्दर्भ तथा शिक्षा का लग
जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश है।
इस भाग के महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं
• ‘शिक्षा बिना बोझ के की सूझ के आधार पर पाठ्यचर्या के बोझ को कम
करना।
• इस तथ्य को समझना कि शिक्षा के लक्ष्य, समाज में तत्कालीन महत्त्वकांक्षाओं
व जरूरतों के साथ शाश्वत मूल्यों (Universal values) तथा समाज के
सरोकारों के साथ वृहद् मानवीय आदर्शों को भी प्रतिबिम्बित करते हैं।
• ऐसे नागरिक वर्ग का निर्माण करना, जो लैंगिक न्याय, मूल्यों, लोकतान्त्रिक
व्यवहारों, अनुसूचित-जनजातियों और विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की
समस्या की और आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हों तथा उनमें राजनीतिक
एवं आर्थिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की क्षमता हो।
22.2.2 सीखना और ज्ञान
इस भाग में सक्रिय विद्यार्थियों की प्राथमिकता, विद्यार्थी को सन्दर्भ में रखना,
विकास और सीखना तथा पाठ्यचर्या एवं व्यवहार के लिए निहितार्थ जैसे विषयों
का समावेश है।
इस भाग के महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं जो इस प्रकार हैं
• समाज में मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा, विद्यार्थी में अपना ज्ञान स्वयं सृजित
करने की स्वाभाविक क्षमता को विकसित करती है।
• बाल केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों के अनुभवों, उनके स्वरों और उनकी
सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देना।
• बच्चे उसी वातावरण में जल्दी सीखते हैं, जिसमें उन्हें लगे कि उन्हें महत्त्वपूर्ण
माना जा रहा है।
• प्राथमिक स्कूल से विश्वविद्यालय तक शारीरिक एवं भावात्मक सुरक्षा प्रत्येक
प्रकार से सीखने की आधारशिला है।
• सभी बच्चों की स्वतन्त्र खेलों, अनौपचारिक व औपचारिक खेलों, योग आदि
की गतिविधियों में सहभागिता उनके शारीरिक तथा मनो-सामाजिक विकास के
लिए आवश्यक है।
• संज्ञान का अर्थ है, कर्म व भाषा के माध्यम से स्वयं और दुनिया को समझना।
• आस-पास के वातावरण, प्रकृति, चीजों व लोगों से कार्य व भाषा दोनों के
माध्यम से अन्त:क्रिया करना, सीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है।
• शिक्षक एक उत्प्रेरक (Catalyst) है, जो विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति के
लिए और ज्ञानार्जन के क्रम में व्याख्या और विश्लेषण करने के लिए
प्रोत्साहित करता है।
• समावेशी कक्षा के शिक्षक की पाठ योजना और इकाई योजना को इस
और इंगित करना चाहिए कि वह बच्चों की आवश्यकतानुसार कक्षा में
जारी गतिविधि को बदल सके।
• विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र, विभिन्न, मुद्दों पर उनके राजनीतिक,
सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक पहलुओं के सन्दर्भ में आलोचनात्मक
चिन्तन का अवसर प्रदान करता है।
• बच्चों की बुनियादी क्षमताएँ उनके बौद्धिक विकास, मूल्यों और कौशलों
के लिए एक वृहत आधार तैयार करती है।
• अवलोकन, अन्वेषण, विश्लेषणात्मक विमर्श तथा ज्ञान की विषय-वस्तु
विद्यार्थियों की सहभागिता के प्रमुख क्षेत्र है।
22.3 पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएँ और आकलन
इस भाग में भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, कला शिक्षा, स्वास्थ्य
और शारीरिक शिक्षा, काम और शिक्षा, आवास और सोखना अध्ययन और
आकलन की योजनाएँ तथा आकलन और मूल्यांकन जैसे विषयों का
समावेश है।
इस भाग के महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित है
• बहुभाषिता एक ऐसा संसाधन है जिसकी तुलना सामाजिक तथा राष्ट्रीय
स्तर पर किसी अन्य राष्ट्रीय संसाधन से की जा सकती है।
• द्विभाषी/बहुभाषी क्षमता संज्ञानात्मक वृद्धि, विस्तृत चिन्तन, सामाजिक
सहिष्णुता और बौद्धिक उपलब्धियों के स्तर को बढ़ाती है।
• भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के बच्चों की प्राथमिक स्तर पर शिक्षा व्यवस्था
उनकी मातृभाषा में करना उनके संज्ञानात्मक विकास के लिए आवश्यक
है।
• गणितीय अवधारणाओं को विभिन्न तरीकों से निरूपित करना गणितीय
सामर्थ्य को बढ़ाता है। प्रत्यक्षीकरण तथा निरूपण जैसे कौशलों के विकास
में गणित बहुत सहायक सिद्ध होता है।
• गणित शिक्षण का मुख्य लक्ष्य तार्किक ढंग से सोचने, अमूर्तनों का निर्माण
करने तथा संचालित करने की योग्यता का विकास करने से होना चाहिए।
• विज्ञान गत्यात्मक और निरन्तर परिवर्द्धित ज्ञान का एक ऐसा भण्डार है
जिसमें अनुभव के नवीन क्षेत्रों को शामिल किया जाता है।
• विज्ञान की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिससे शिक्षार्थी तरीकों एवं
प्रक्रियाओं का बोध करने में सक्षम हो सके।
• उच्च प्राथमिक स्तर पर शिक्षार्थियों को विज्ञान शिक्षण के अन्तर्गत वैज्ञानिक
अवधारणाओं को मुख्यतः गतिविधियों (Activities) एवं प्रयोगों
(Experiment) द्वारा ही समझाना चाहिए।
• सामाजिक विज्ञान शिक्षण के अन्तर्गत एक ऐसी पाठ्यचर्या का होना
आवश्यक है, जो शिक्षार्थियों में समाज के प्रति आलोचनात्मक समझ का
विकास कर सके।
• सामाजिक विज्ञान शिक्षण में उन विधियों का उपयोग किया जाना चाहिए, जो
शिक्षार्थियों में रचनात्मक, सौन्दर्यबोध तथा आलोचनात्मक समझ बढ़ाने के
साथ-साथ उनके अतीत तथा वर्तमान के मध्य सम्बन्ध बनाने में
सहायक हो।
• हस्तशिल्प एक उत्पादन प्रक्रिया है, जो समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है।
• स्वास्थ्य और स्वच्छता पर आधारित शिक्षा का सम्बन्ध बच्चों के दैनिक
जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से सम्बन्धित होना चाहिए।
• शान्ति के लिए शिक्षा, नैतिक विकास के साथ-साथ उन मूल्यों, दृष्टिकोणों
तथा कौशलों के पोषण पर बल देती है, जो प्रकृति और मानव के बीच
सामंजस्य बिठाने के लिए आवश्यक है।
• शिक्षार्थियों के नैतिक विकास हेतु यह आवश्यक है कि उन्हें ऐसी सीख दी
जाए, जिसके माध्यम से वे सही क्या है?, गलत क्या है? आदि प्रश्नों के
उत्तर खोज सके।
• आकलन का मुख्य प्रयोजन सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं एवं सामग्री में
सुधार लाना तथा उन लक्ष्यों पर पुनर्विचार (Review) करना है, जो स्कूल
के विभिन्न चरणों के लिए तैयार किए जाते हैं।
• स्वयं सीखने वाली गतिविधियाँ बच्चों के सतत् गुणात्मक तथा
अवलोकनात्मक आकलन का आधार होती हैं।
• पूर्व प्राथमिक स्तर पर आकलन बच्चों की दैनिक गतिविधियों, स्वास्थ्य और
शारीरिक विकास पर आधारित होना चाहिए।
22.4 विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण
इस भाग में भौतिक वातावरण, सक्षम बनाने वाले वातावरण का पोषण, सभी
बच्चों की भागीदारी, अनुशासन और सहभागी प्रबन्धन, अभिभावकों और
समुदाय के लिए स्थान, पाठ्यचर्या के स्थल और अधिगम के संसाधन, समय
तथा शिक्षक की स्वायत्तता और व्यावसायिक स्वतन्त्रता जैसे विषयों का
समावेश है। इस भाग के महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं
• चेतन और अचेतन दोनों रूप में बच्चे हमेशा विद्यालय के भौतिक
वातावरण से निरन्तर अन्तःक्रिया करते रहते है। कक्षा का आकार
शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
किसी भी अवस्था में शिक्षक तथा शिक्षार्थियों का अनुपात 1:30 से अधिक
होना वांछित नहीं है।
• स्कूल की संस्कृति ऐसी होनी चाहिए कि शिक्षार्थियों की अस्मिता को
उजागर करने के साथ-साथ ऐसा वातावरण तैयार करे, जिसमें प्रत्येक
शिक्षार्थी की रुचि और क्षमताओं के विकास को बढ़ावा मिल सके।
• बच्चों की सक्रिय भागीदारी, हमारी संस्कृति के समतामूलक, लोकतान्त्रिक
धर्म निरपेक्षी और समानता के मूल्यों में नई जान डालने जैसे लक्ष्यों की
प्राप्ति हेतु अत्यन्त आवश्यक है।
• अनुशासन ऐसा होना चाहिए जो कार्य के सम्पन्न होने में मदद करे साथ ही
बच्चों की सक्षमता को बढ़ाए।
• यह आवश्यक है कि सत्र के आरम्भिक और अन्तिम दो या तीन दिन स्कूल
की वार्षिक योजना तैयार किए जाने हेतु रखने चाहिए, जिसमें ऐसी
गतिविधियों की स्वतन्त्रता हो जिनमें शिक्षार्थी सक्रिय रूप से भाग ले सके।
22.5 व्यवस्थागत सुधार
इस भाग में गुणवत्ता को लेकर सरोकार, पाठ्यचर्या नवीकरण के लिए,
शिक्षक-शिक्षा, परीक्षा सुधार, बाल केन्द्रित शिक्षा, विचार और व्यवहार में
नवाचार तथा नई साझेदारियाँ जैसे विषयों का समावेश है।
इस भाग के महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित है
• बच्चों की शिक्षा व्यवस्था में विकासात्मक मानकों Standards का प्रयोग
किया जाना चाहिए, जो अभिप्रेरणा तथा क्षमता की समप्र वृद्धि की पूर्व
मान्यता पर आधारित हो।
• अधिगम को सहभागिता की उस प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए, जो
सहपाठियों और वृहत सामाजिक समुदाय या पूरे राष्ट्र के साझे सामाजिक
सन्दर्भो के बीच होती है।
• पाठ्यचर्या को इस प्रकार निर्मित करना चाहिए जिसमें शिक्षक शिक्षार्थियों
को खेलते तथा काम करते हुए प्रत्यक्ष रूप से अवलोकित कर सके।
• शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों में समकालीन भारतीय समाज के मुद्दों और
चिन्ताओं, उसके बहुलतावादी स्वभाव और पहचान, लिंग, समता, जीविका
और गरीबी जैसे विषयों का समावेश होना चाहिए।
• काम केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों में उनके परिवेश, प्राकृतिक संसाधनों
तथा जीविका से सम्बन्धित ज्ञान आधारों, सामाजिक अन्तर्दृष्टियों तथा कौशलों
को विद्यालयी व्यवस्था में उनकी गरिमा और मजबूती के स्रोतों में बदलना।
22.6 नियोजन के उपागम
• हमारी शिक्षा आज भी सीमित ‘पाठ योजना पर आधारित है, जिसका लक्ष्य
हमेशा परिमेय (Rational) ‘आचरणो’ को हासिल करना होता है। इस
दृष्टिकोण से बच्चे ऐसे प्राणी माने जाते है जिन्हें हम प्रशिक्षित कर सकते
है या फिर एक कम्प्यूटर के समान जिन्हें हम अपने हिसाब से कार्यबद्ध
कर सकते हैं। इसीलिए ‘परिणामों’ पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है।
जोर इस बात पर रहता है कि ज्ञान को जानकारी के टुकड़ों के रूप में
प्रस्तुत किया जाए, जिससे बच्चे प्रोत्साहित होने के बाद उन्हें सीधे पाठ से
याद कर सके।
• अन्त में यह देखने के लिए बच्चे के मूल्यांकन पर भी बड़ा जोर रहता है
कि बच्चे ने याद किया कि नहीं, जबकि जरूरत यह है कि हम बच्चे को
हमेशा ज्ञान सूजन में व्यस्त रखने की आवश्यकता को समझे।
• केवल गणित, विज्ञान, भाषा व समाज विज्ञान जैसे ज्ञानात्मक विषयों के
बारे में ही यह सच नहीं, बल्कि मूल्यों, अभिरुचियों और कौशलों के बारे
में भी यह बात उतनी ही सटीक है।
• एक शिक्षार्थी को देखने का यह परिप्रेक्ष्य बहुत स्पष्ट लग सकता है,
लेकिन आज भी अनेक अध्यापक, परीक्षक व पाठ्य-पुस्तक लेखक इस
पर विश्वास नहीं कर पाते कि इस आदर्श को वास्तविकता में बदला जा
सकता है।
• गतिविधि’ शब्द आज अधिकतर प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों के रजिस्टर
का अंग बन चुका है, लेकिन अक्सर हम यह पाएंगे कि हरबर्ट द्वारा दी
गई पाठ योजना पर परियोजनाओं की कलमभर लगाई गई होती है और ये
पाठ के अन्त में दिए गए परिणामों से अभिप्रेरित होती है। योग्यता और
सक्षमता की बाते अधिक होने लगी है, लेकिन ये योग्यताएँ अभी तक
‘परिणाम’ की तरह ही ‘पाठ’ में शामिल होती है।
• जबकि जरूरत यह है कि शिक्षक हर विषय पर तीन-चार ‘सत्र’ की इकाई
योजनाएँ बनाए। समझ और योग्यताओं का विकास भी तभी सम्भव है, जब
विभिन्न स्थितियों में और विभिन्न तरीकों से उनका प्रयोग करने के अवसर
बार-बार मिले। जानकारी, समझ और दक्षता के विकास का मूल्यांकन
इकाई के अन्त में और फिर उसके बाद की किसी निश्चित तारीख पर भी
हो सकता है, लेकिन दक्षताओं के मूल्यांकन का चक्र लम्बा होना चाहिए।
• इस प्रकार के अनुभव और अनुभव के बाद की गतिविधियां स्कूली शिक्षा
के किसी भी स्तर पर मूल्यवान और कारगर हो सकती है। समय के
साथ-साथ इन अनुभवों की प्रकृति, प्रकार व जटिलता को बदलने की जरूरत
होगी। भाषा ऐसे अनुभवों को संयोजित करने का आधार होती है, इसीलिए
अनुभव के स्तर व भाषा के विकास में समन्वय भी आवश्यक हो जाता है।
                               अनुभवों का नियोजन
• किसी प्रक्रिया को यथार्थ में होता देखने की प्रक्रिया, मान लीजिए बीज का
अंकुरण या दूध इकट्ठा करने की विभिन्न अवस्थाएँ, या फिर किसी डेय
उत्पाद के बनने व पैक होने की प्रक्रिया देखना।
• किसी ऐसे अभ्यास में भाग लेना, जिसमें मस्तिष्क व शरीर दोनों का
व्यायाम शामिल हो, मसलन किसी कथानक पर एक नाटक तैयार करनार
उसका मंचन करना।
• एक ऐसे अनुभव पर विचार-विमर्श की मानसिक प्रक्रिया, जिससे बच्चा
गुजरता है (उदाहरणतः परिवार या समाज में व्याप्त लिंग भेद या फिर
संख्याओं का मानसिक खेल)।
• कोई चीज बनाना, मसलन चरखियों का प्रयोग करके कुछ भार उठाने का
यन्त्र बनाना।
• इस अनुभव के बाद, अध्यापक इस पर चर्चा, भाषण, लेखन, चित्रकला या
प्रदर्शनी करवा सकते हैं। ये बच्चों के उन प्रश्नों की पहचान कर सकते है,
जिनका जवाब बच्चे चाहते हैं।
• शिक्षक पाठ्य-पुस्तक की जानकारी के साथ अन्य सन्दर्भ जोड़कर अनुभव
को पुष्ट और गहन बना सकते हैं।
22.7 अनुशासन एवं सहगामी प्रबन्धन
• स्कूल विद्यार्थियों का भी उतना ही होता है जितना कि शिक्षकों,
प्रधानाध्यापकों का और यह सरकारी स्कूलों के लिए विशेष रूप से सही
है। शिक्षकों और विद्यार्थियों में परस्पर निर्भरता होती है, खासकर आज के
दौर में जब सीखने का काम सूचना की उपलब्धि पर निर्भर करता है और
ज्ञान का सृजन उन संसाधनों की नींव पर आधारित होता है, जिनके केन्द्र
में शिक्षक होता है। शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही एक-दूसरे के बिना कार्य
नहीं कर सकते।
• वर्तमान में स्कूल के नियम और मानक (परम्पराएँ) विद्यार्थियों के ‘अच्छे’
और ‘उपयुक्त’ व्यवहार को परिभाषित करते हैं। अनुशासन बनाए रखना
ज्यादातर शिक्षकों एवं वयस्क अधिकारियों (अक्सर खेल-कूद के
अध्यापक और प्रबन्धक) का विशेषाधिकार होता है। ये अधिकारी अक्सर
कुछ बच्चों को ‘मॉनीटर’ और ‘अध्यक्ष के रूप में रख लेते हैं और
उनको नियन्त्रण एवं व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दे देते हैं। सजा
एवं पुरस्कारों को इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
• जो लोग इस व्यवस्था को लागू करते हैं वे शायद ही इन नियमो पर या
बच्चों पर पड़ने वाले उस प्रभाव पर प्रश्न उठाते हैं जो इस आज्ञापालन से
बच्चों के सम्पूर्ण विकास, आत्म-सम्मान और शिक्षा में रुचि पर पड़ता है।
• आज भी कई स्कूलों में बच्चों को शारीरिक और शाब्दिक या गैर-शाब्दिक
यातनाएं दी जाती हैं। स्कूल बच्चों को उनके सहपाठियों के सामने
अपमानित भी करते हैं। आज भी कई शिक्षक, यहाँ तक कि माता-पिता
भी, यही सोचते हैं कि बच्चों को इस तरह की सजा या यातना देना बहुत
जरूरी है।
• ये लोग इस तरह के व्यवहार से पड़ने वाले तात्कालिक और दीर्घकालिक,
अहितकारी प्रभावों से बिलकुल अनभिज्ञ हैं। शिक्षको के लिए जरूरी है कि
वे स्कूलों को नियन्त्रित करने वाले नियमो और परम्पराओं के पीछे दिए
गए मूलाधार पर चिन्तन करें और यह सोचे कि क्या ये नियम और
परम्पराएँ हमारी शिक्षा के लक्ष्यों के साथ सामंजस्य बिठा पाते हैं।
• कक्षा में चुप्पी बनाए रखने से सम्बन्धित जो नियम होते हैं; जैसे—’एक
बार में एक ही बच्चा बोले’ या ‘तभी बोले जब सही उत्तर पता हो’, इस
तरह के नियम समानता और बराबर अवसर देने के मूल्यों को कमजोर
बनाते हैं और उन्हें क्षति पहुंचाते है।
• ऐसे नियम उन प्रक्रियाओं को भी हतोत्साहित करते हैं जो बच्चों की
सीखने की प्रक्रिया में अन्तर्निहित होती है और सहपाठियों में समुदाय की
भावना को विकसित होने से भी रोकती हैं। हालांकि इन नियमों से शिक्षकों
के लिए कक्षा व्यवस्था की नजर से आसान हो जाती है और पाठ्यक्रम
पूरा करना’ भी आसान हो जाता है।
• अधिगम के व्यवस्थित अनुकरण के लिए और बच्चों की रुचियों एवं
सम्भावनाओं के विकास के लिए उनमें आत्मानुशासन का मूल्य और आदत
डालना महत्त्वपूर्ण होता है। अनुशासन ऐसा होना चाहिए जो काम के
सम्पन्न होने में मदद करे और जो बच्चों की सक्षमता को बढ़ाए।
• अनुशासन शिक्षक और बच्चे दोनों के लिए आजादी, विकल्प एवं
स्वायत्तता बढ़ाने वाला होना चाहिए। यह जरूरी है कि बच्चों को नियम
विकसित करने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि वे नियम के पीछे
के तर्क को समझें और उसके पालन की अपनी जिम्मेदारी को भी महसूस
करें।
• इस तरह से बच्चे स्वशासन के लिए बनाई गई संहिता की प्रक्रिया के बारे
से जानेंगे और लोकतान्त्रिक क्रियाओं एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग
लेने के लिए जरूरी कौशल विकसित कर पाएंगे। इस तरह से बच्चे
शिक्षकों और विद्यार्थियों एवं आपस में होने वाले मनमुटाव को सुलझाने के
लिए खुद भी कुछ तरीके ईजाद कर पाएँगे।
• शिक्षकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नियम कम-से-कम हो और
केवल ऐसे ही नियम बनाए जाएं, जिनका सहजता से पालन हो सकता है।
नियम तोड़ने पर विद्यार्थियों को दण्ड देने से किसी का कोई भला नहीं
होता, विशेषकर तब जब उसे तोड़ने के पर्याप्त कारण हो। उदाहरण के
लिए कक्षा के शोरगुल’ पर शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक हमेशा नाराजगी
दखाते हैं, लेकिन यह भी सम्भव है कि शोरगुल कक्षा की जीवन्तता एवं
सक्रियता का प्रमाण हो न कि इसका कि शिक्षक कक्षा को नियन्त्रित नहीं
कर पा रहे हैं।
• इसी प्रकार समयबद्धता को लेकर भी प्रधानाचार्य अकारण बहुत ही सख्न
रुख अपनाते हैं। जो बच्चा ट्रैफिक जाम की वजह से परीक्षा में देरी से
आता है उसे दण्ड नहीं मिलना चाहिए। फिर भी हम ऐसे नियमों को उच्च
स्तरीय मूल्यों के रूप में लागू होते हुए देखते हैं।
इन मामलों में अधिकारियों की औचित्यहीनता बच्चों, अभिभावकों एवं
शिक्षको के मनोबल का ह्रास कर देती है। अगर बच्चे से यह पूछना याद
रखें कि उसने नियम क्यों तोड़ा और अगर बच्चे की बात सुनी जाए तो
हुत फायदा हो सकता है।
• स्कूल के सहभागी प्रबन्धन में ऐसी व्यवस्था को विकसित करने की
जरूरत है, जिसमें बच्चों, शिक्षकों और प्रबन्धकों की भूमिका हो। इस बात
की भी आवश्यकता है कि बच्चों को अपनी परिपद हेतु प्रतिनिधि चुनने के
लिए प्रोत्साहित किया जाए और इसी तरह शिक्षकों, प्रशासकों और
अध्यापकों को भी अपने आप को संगठित करना चाहिए।
22.8 शिक्षा के लक्ष्य
• शिक्षा के लक्ष्यों (Goal of Education) में व्यापक दिशा-निर्देश है, जो
शैक्षणिक प्रक्रियाओं के तय किए गए आदेशों और स्वीकृत सिद्धान्तों से
संगति बिठाने में मदद करते है। शिक्षा के लक्ष्य समाज की मौजूदा
महत्त्वाकांक्षाओं व जरूरतों के साथ शाश्वत मूल्यों तथा मानवीय आदर्शी
को भी प्रतिबिम्बित करते है।
• किसी भी खास समय और स्थान के सन्दर्भ में इन्हें व्यापक और शाश्वत
(जो हमेशा रहे) मानवीय आकांक्षाओं और मूल्यों की समकालीन और
प्रासंगिक अभिव्यक्ति कहा जा सकता है।
• शैक्षिक लक्ष्य स्कूलों व अन्य शैक्षिक संस्थानों द्वारा चलाई जा रही विभिन्न
गतिविधियों को एक रचनात्मक साँचे में ढाल कर उन्हें ‘शैक्षिक’ होने का
विशिष्ट चरित्र प्रदान करते हैं। एक शैक्षिक उद्देश्य शिक्षक की इस रूप
से मदद करता है कि वह अपनी वर्तमान कक्षा की गतिविधि के भविष्य
को अभीष्ट परिणाम से जोड़ सके, लेकिन ऐसे कि वह गतिविधि मात्र
उपयोगितावादी होकर न रह जाए।
• इस तरह वह उसे वर्तमान चिन्ताओं से अलग किए बिना एक दिशा भी
प्रदान करता है। इसलिए एक उद्देश्य पूर्वज्ञात लक्ष्य होता है। उस लक्ष्य
तक पहुँचने के लिए उठाए गए कदमों को प्रभावित करता है।
• एक उद्देश्य को पूर्व-दृष्टि भी देनी चाहिए। ऐसा तीन तरीकों से किया जा
सकता है
– पहला, निश्चित परिस्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन करके यह देखना कि
लक्ष्य तक पहुँचने के लिए क्या साधन उपलब्ध है और उस मार्ग में
क्या बाधाएँ है। इसमें बच्चों का बहुत सूक्ष्म अध्ययन करने और यह
देखने की आवश्यकता होगी कि विभिन्न अवस्थाओं में वे क्या-क्या
सीख सकते हैं।
– दूसरा, यह पूर्वदृष्टि उस क्रम की ओर इंगित करती है जो कारगर होगा।
– तीसरा, यह विकल्पों के चुनाव की सम्भावनाएँ भी खोलती है। इसलिए,
एक लक्ष्य के साथ हम अपेक्षाकृत अधिक समझदारी से काम करते हैं।
• स्कूल, कक्षा और सम्बन्धित शैक्षिक स्थल दरअसल वे स्थान होते हैं जहाँ
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शैक्षिक क्रियाकलाप होते हैं। ये वे स्थान होने चाहिए
जहाँ विद्यार्थियों को ऐसे अनुभव मिलें जो वांछित शैक्षिक उद्देश्यों को पाने
में सहायक हों। विद्यार्थियों, शैक्षिक उद्देश्यों, ज्ञान की प्रकृति एवं
सामाजिक जगह के रूप में स्कूल की समझ, कक्षा में चल रही गतिविधियों
को निर्देशित करने के सिद्धान्तों तक पहुँचने में मदद कर सकती है।
• जिन मार्गदर्शक सिद्धान्तों की पहले चर्चा की गई है वे सामाजिक मूल्यों को
एक आधार प्रदान करते हैं, जिसमें हम अपने शैक्षिक उद्देश्यों को रख
सकते हैं, पहला है लोकतन्त्र, समानता, न्याय, स्वतन्त्रता, परोपकार,
धर्मनिरपेक्षता, मानवीय गरिमा” व अधिकार तथा दूसरे के प्रति आदर जैसे
मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता।
• पाठ्यचर्या में स्कूलों के लिए वह गुंजाइश जरूर होनी चाहिए ताकि वह
संवाद एक विमर्श के लिए जगह पैदा करते हुए बच्चों में इस तरह की
प्रतिबद्धता का निर्माण कर सके।
• विचार तथा क्रिया की आजादी, स्वतन्त्र तथा सामूहिक रूप से
सावधानीपूर्वक विचार किए गए मूल्य-निर्धारित निर्णय लेने की क्षमता की
तरफ इशारा करते हैं।
• ज्ञान और दुनिया की समझ के साथ दूसरे लोगों की भावनाओं व कल्याण
के प्रति संवेदनशीलता को मूल्यों के प्रति तार्किक प्रतिबद्धता का आधार
होना चाहिए।
• जीवन में चुनाव व लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में भागीदारी समाज में विभिन्न
प्रकार से योगदान देने की सामर्थ्य पर निर्भर है। यही वजह है कि शिक्षा
को काम करने, आर्थिक प्रक्रियाओं व सामाजिक बदलाव में हिस्सा लेने
की सामर्थ्य को विकसित करना चाहिए। इसके लिए काम का शिक्षा से
जुड़ाव अपरिहार्य है।
• कौशलों और प्रवृत्तियों के लिहाज से काम से जुड़े अनुभव इस तरह
पर्याप्त और व्यापक होने चाहिए कि वे सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं की
समझ पैदा कर सकें और ऐसी मानसिक संरचना विकसित करने में मदद
करें जो सहकारिता की भावना से दूसरों के साथ मिलकर काम करने को
प्रोत्साहन दें। केवल कार्य ही सामाजिक मनोवृत्ति की रचना पर सकता है।
कला, साहित्य और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में सृजनात्मकता का एक-दूसरे से
घनिष्ठ सम्बन्ध है। बच्चे की रचनात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता के विस्तार
के लिए साधन और अवसर मुहैया कराना शिक्षक का अनिवार्य कर्त्तव्य है।
आज जबकि बाजार की शक्तियों में मतों व अभिरुचियों को प्रभावित करने
की गुन्जाइश ज्यादा है, सौन्दर्य की समझ व रचनात्मकता के लिए शिक्षा
की महत्ता और भी बढ़ गई है।
                                        अभ्यास प्रश्न
1. राष्ट्रीय पाठ्चर्या की रूपरेखा-2005 का
उद्धरण निम्न में से किससे हुआ है?
(1) सभ्यता और प्रगति
(2) गीतांजलि
(3) गोदान
(4) विज्ञान एवं तकनीक
2. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के
दिशा-निर्देश के अन्तर्गत आता है।
(1) ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ना
(2) पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो
(3) परीक्षा को अपेक्षाकृत सरल बनाना
(4) उपरोक्त सभी
3. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के
मार्गदर्शक सिद्धान्तों के विषय में सत्य कथन
है
(1) पाठ्यचर्या, पाठ्य-पुस्तक केन्द्रित होनी चाहिए
(2) अधिगम प्रक्रिया के अन्तर्गत न समझ आने
वाली अवधारणाओं को रखना चाहिए
(3) स्कूल में प्राप्त ज्ञान को बाहरी जीवन से जोड़ा
जाना चाहिए
(4) ऐसी अधिभावी पहचान की अवहेलना करनी
चाहिए, जो राष्ट्रीय चिन्ताओं पर आधारित हों
4. एन. सी. एफ. -2005 के अनुसार सीखना
एक
(1) ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया है
(2) ज्ञान अवरुद्ध करने की प्रक्रिया है
(3) सीखना व्यक्ति विकास को प्रभावित करती है
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
5. निम्नलिखित में कौन-सा उदाहरण बच्चों
को पढ़ाई के दौरान सक्रिय रखता हैं?
A. अन्वेषण करना
B. प्रश्न पूछना
C. वाद-विवाद करना
D. विचारों की रचना करना
(1) A एवं B
(2) Bएवं C
(3) C एवं D
(4) ये सभी
6. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूप रेखा-2005 के
अनुसार, बाल केन्द्रित शिक्षाशास्त्र में ‘शिक्षा’
को किस प्रकार नियोजित करने की
आवश्यकता है?
(1) अभिरुचियों के अनुरूप
(2) आर्थिक स्तर के अनुरूप
(3) सामाजिक स्तर के अनुरूप
(4) शारीरिक स्तर के अनुरूप
7. बच्चों के शारीरिक एवं मनो-सामाजिक
विकास के लिए निम्न में से क्या जरूरी है?
(1) योग
(2) औपचारिक खेल
(3) अनौपचारिक खेल
(4) उपरोक्त सभी
8. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के
अनुसार कक्षा में शिक्षक की भूमिका होनी
चाहिए
(1) एक उत्प्रेरक के रूप में
(2) एक आदेशक के रूप में
(3) एक नेता के रूप में
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
9. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के
अनुसार सत्य नहीं है
(1) सभी बच्चों में सीखने की क्षमता होती है
(2) सभी बच्चे स्वभाव से सीखने हेतु प्रेरित रहते हैं
(3) बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एक ही तरह से
सीखते हैं
(4) स्कूल के भीतर व बाहर दोनों जगह सीखने
की प्रक्रिया चलती रहती है
10. एन. सी. एफ. 2005 के अनुसार भाषायी
अल्पसंख्यक वाले वर्गों के बच्चों को शिक्षा
किस भाषा में दी जानी चाहिए?
(1) उनकी मातृभाषा में
(2) अंग्रेजी में
(3) हिन्दी में
(4) उपरोक्त सभी में
11. विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र खुले विमर्श और
विविध दृष्टिकोण के माध्यम से ……लेने
की प्रक्रिया को सरल बनाता है।
(1) सामूहिक निर्णय
(2) एकल निर्णय
(3) स्व निर्णय
(4) इनमें से कोई नहीं
12. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के
अनुसार बच्चों के आकलन का सही तरीका
है
(1) वार्षिक परीक्षाएँ
(2) दैनिक गतिविधियाँ
(3) अर्द्धवार्षिक परीक्षाएँ
(4) इनमें से कोई नहीं
13. भीड़-भाड़ वाली कक्षाओं में….अध्यापन
की बात करना निरर्थक है।
(1) पिछड़े
(2) सामान्य
(3) कक्षा केन्द्रित
(4) सृजनशील
14. यदि बच्चे फेल होते हैं, तो वे दर्शाते हैं
(1) अपनी असफलता को
(2) स्कूल की असफलता को
(3) समाज की असफलता को
(4) परिवार की असफलता को
15. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के
अनुसार गणित शिक्षण का लक्ष्य होना
चाहिए
(1) तार्किक ढंग से सोचना
(2) अमूर्तनों का निर्माण करना
(3) संचालित करने की योग्यता का विकास करना
(4) उपरोक्त सभी
16………की चिन्ताओं के प्रति जागरूकता को
सम्पूर्ण स्कूली पाठ्यचर्या में व्याप्त होना
चाहिए।
(1) गणित
(2) पर्यावरण
(3) भाषा
(4) मातृभाषा
17. कला विषय को स्कूली शिक्षा के किस स्तर
पर शामिल किए जाने पर बल देना चाहिए?
(1) पूर्व प्राथमिक
(2) प्राथमिक
(3) उच्च प्राथमिक
(4) इन सभी स्तरों पर
18. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 किस
सूझ के आधार पर पाठ्यचर्या के बोझ को
कम करने पर बल देती है?
(1) शिक्षा बोझ के साथ
(2) शिक्षा बिना बोझ के
(3) शिक्षा पर्यावरण के साथ
(4) शिक्षा पर्यावरण के बिना
19. निम्नलिखित में से पाठ योजना का दर्शन
किसने दिया?
(1) हर्बर्ट
(2) गिलबर्ट
(3) एलबर्ट
(4) हजवर्ग
20. गतिविधि अध्यापकों को मौका देती है कि
(1) वे प्रत्येक बच्चे पर ध्यान दे सकें
(2) किसी खास बच्चे पर ध्यान दे सकें
(3) वे अपना स्वमूल्यांकन करें
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
21. अनुशासन व्यक्ति के जीवन में बहुत जरूरी
है, खासकर विद्यालय स्तर पर जब इसकी
आधारशिला रखी जाती है, विद्यालय स्तर
पर अनुशासन महत्त्व है
(1) केवल शिक्षकों के लिए
(2) केवल छात्रों के लिए
(3) शिक्षक एवं छात्र दोनों के लिए
(4) उपरोक्त में से कोई नहीं
                             विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न
22. शिक्षा के क्षेत्र में ‘पाठ्यचर्या’ शब्दावली
की ओर संकेत करती है।           [CTET.June 2011]
(1) शिक्षण-पद्धति एवं पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु
(2) विद्यालय का सम्पूर्ण कार्यक्रम जिसमें विद्यार्थी
प्रतिदिन अनुभव प्राप्त करते हैं
(3) मूल्यांकन प्रक्रिया
(4) कक्षा में प्रयुक्त की जाने वाली पाठ्य-सामग्री
23. छोटे शिक्षार्थियों को कक्षा-कक्ष में
समवयस्कों के साथ अन्त:क्रिया करने के
लिए प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे
                                             [CTET Jan 2012]
(1) शिक्षक कक्षा-कक्षा को बेहतर तरीके से
नियन्त्रित कर सके
(2) वे एक-दूसरे से प्रश्नों के उत्तर सीख सकें
(3) पाठ्यक्रम को बहुत जल्दी पूरा किया जा सके
(4) वे पढ़ने के दौरान सामाजिक कौशल सीख
सकें
24. एन. सी. एफ. 2005 के अनुसार, गलतियाँ
इस कारण महत्त्वपूर्ण होती है
                                       [CTET Feb 2015]
(1) यह विद्यार्थियों को ‘उत्तीर्ण एवं ‘अनुत्तीर्ण
समूह में वर्गीकृत करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण
उपकरण है
(2) यह अध्यापकों को बच्चों को डाँटने के लिए
एक तरीका उपलब्ध कराती है
(3) यह बच्चे की विचार की अन्तर्दृष्टि उपलब्ध
कराती हैं तथा समाधानों को पहचानने में
सहायता करती है
(4) यह कक्षा से कुछ बच्चों को हटाने के लिए
आधा स्थान उपलब्ध कराती है
25. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एन. सी.
एफ.), 2005 के अनुसार शिक्षक की
भूमिका है                        [CTET Sept 2016]
(1) अधिनायकीय
(2) अनुमतिपरक
(3) सुविधादाता
(4) सत्तावादी
                                               उत्तरमाला
1. (1) 2. (4) 3. (3) 4. (1) 5. (4) 6. (1) 7. (4) 8. (1) 9. (3) 10. (1)
11. (1) 12. (2) 13. (4) 14. (2) 15. (4) 16. (2) 17. (4) 18. (2)
19. (1) 20. (1) 21. (3) 22. (2) 23. (4) 24. (3) 25. (3)
                                                 □□□

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