1st Year

लिंग पहचान की अवधारणा स्पष्ट करते हुए लिंग पहचान के पहलुओं की विवेचना कीजिए । Explain the Concept of Gender Identity and discuss the Aspects of Gender Identity.

प्रश्न 5 लिंग पहचान की अवधारणा स्पष्ट करते हुए लिंग पहचान के पहलुओं की विवेचना कीजिए ।
Explain the Concept of Gender Identity and discuss the Aspects of Gender Identity.
या
‘संचार माध्यम’ तथा ‘रूढ़िबद्ध अवधारणा की भूमिका को उजागर करते हुए लिंग पहचान (Gender Identity) की विवेचना करें ।
Highlighting the role of media and Stereotypes to describe the concept of Gender Identity. 
या
लिंग पहचान से आप क्या समझते हैं ? लिंग पहचान बनाने में परिवार तथा संचार माध्यमों की भूमिका का विवरण कीजिए । 
या
रूढ़िबद्धता की अवधारणा | Stereotypes 
उत्तर- लिंग पहचान की अवधारणा
लैंगिक पहचान वह प्रत्यय है जो किसी को पुरुष या महिला होने का बोध कराते हैं। इसका सामाजिक सोच से कोई लेना देना नहीं होता। यह पहचान किसी विशिष्ट लिंग के लिए विशिष्ट होते है। जन्म लेते ही लैंगिक पहचान अस्तित्व में आ जाता है। जैविक रूप से महिलाओं से सम्बन्धित विशिष्ट व्यवहार, स्त्रीत्व (Femininity) कहलाता है जबकि जैविक रूप से पुरुषों से सम्बन्धित विशिष्ट व्यवहार पुरुषत्व (Masculinity) कहलाता है।

इसका सामाजिक रूढ़ियों से कोई सरोकार नहीं होता है। इसका सरोकार शारीरिक संरचना के अनुरूप व्यवहार करने से होता है। जैसे- महिलाओं को जैविक रूप से कम शक्तिशाली और कोमल माना जाता है और उनके शरीर की बनावट के अनुसार ही उनके हाथों का संचालन, उनकी चाल, उनके हाव-भाव एवं अन्य अभिव्यक्ति होते हैं। महिला लिंग का बोध, बच्चों एवं बड़ों में इन्हीं स्त्रीत्व के लक्षणों के माध्यम से होता है। महिला लिंग से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति अपने आपको इस लिंग की सदस्यता हासिल करने के लिए इस लिंग से सम्बन्धित लक्षणों का अनुसरण करने लगते हैं ।

यदि एक लिंग का व्यक्ति दूसरे लिंग के शारीरिक लक्षणों या व्यवहारों का अनुकरण करता है तो उसे पृथक माना जाता है और उसमें शारीरिक या मानसिक रूप से कोई कमी देखी जाती है। जैसे कोई पुरुष अपने हाथों का संचालन या हाव-भाव, स्त्रियों जैसे करता है तो उस पर लोग हँसते है । इसी तरह यदि कोई स्त्री ज्यादा अकड़ कर चलती है तो उसे स्त्रियों से परे समझा जाता है। इस प्रकार की पहचान या लक्षण का समाज की रूढ़ियों से कोई लेना-देना नहीं होता है।

लिंग पहचान का अर्थ (Meaning of Gender Identity)
समाज की बदलती परिस्थितियों के बीच पुरुष और स्त्री का अपना मूल स्वरूप ही ‘लैंगिक अस्मिता’ या लिंग पहचान कहलाती है। स्त्री और पुरुष दोनों में ही अपनी अस्मिता शुरू से ही विद्यमान रही है लेकिन इतिहास के पन्नों में कई क्रान्तिकारी परिवर्तन आए और इस कारण दोनों के मूल स्वरूप में परिवर्तन आते रहे और इस दौर में पुरुष की अस्मिता में भी बदलाव आया और समाज में उसको पहले से ज्यादा महत्त्व मिलता गया और स्त्रियों की अस्मिता में कमी आती गई और वर्तमान दौर में महिलाओं ने कहीं न कहीं अलगाव की स्थिति का अनुभव किया। समकालीन समाज में महिलाएँ समाज की मुख्य धारा से पृथक होकर अपने भविष्य के बारे में अनिश्चित और बेबस होकर, प्रचलित मूल्यों और मान्यताओं को अपने विकास में रुकावट मानने लगी और सामाजिक भेदभाव का शिकार होकर समाज में अलगाव अनुभव करने लगी। इस प्रकार लैंगिक अस्मिता का भावार्थ महिलाओं और पुरुषों की वर्तमान और भूतकाल के सन्दर्भ में उनकी सामाजिक एवं लैंगिक स्थिति है। दूसरे शब्दों में लिंग पहचान से तात्पर्य किसी व्यक्ति द्वारा किसी को स्त्री या पुरुष के रूप में पहचानने (निर्धारण) की समझ से है जो उनके बनावट, व्यवहार और जीवन के अन्य पहलुओं के रूप में व्यक्त करता है।

Gender identity is a person’s sense of identification with either the male or female sex, as manifested in appearance, behaviour, and other aspects of a person’s life.

लिंग पहचान को जन्म के समय निर्धारित जैविक लिंग से सम्बन्धित कर सकते हैं या इसमें पूरी तरह से अन्तर कर सकते हैं। सभी समाज की अपनी अलग-अलग लिंग श्रेणी होती है जिसके आधार पर एक व्यक्ति का समाज के अन्य सदस्यों के साथ उनके सम्बन्ध का निर्धारण किया जाता है। ज्यादातर समाज में स्त्री और पुरुष का विभाजन उनको सौंपे गए कार्यों एवं गुण के आधार पर किया जाता है, जैसे- यदि कोई कठिन कार्य करना हो तो घर के सदस्य पुरुषों की सहायता लेते हैं। उनके अनुसार स्त्री कठिन कार्यों का सम्पादन नहीं कर सकती हैं। लिंग पहचान की अवधारणा, लिंग भूमिका की अवधारणा से घनिष्ट रूप से सम्बन्धित होती है जिसे व्यक्तित्व को बाह्य अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो कि लिंग निर्धारण को प्रतिबिम्बित करता है। लिंग पहचान के विकास एवं उनसे सम्बन्धित मुद्दो को समझने के लिए इसकी परिभाषाओं की स्पष्टता पर जोर दिया जाना चाहिए। लिंग पहचान से तात्पर्य प्रायः लोग रोग से लगाते है तथा इस विकार के निदान को बच्चों एवं वयस्कों दोनों में फिनोमिनन (Phenomenon) नाम से जाना जाता है चिकित्सक को यह ज्ञात होना चाहिए कि सभी व्यक्ति लिंग पहचान को समझने का अधिकारी है अर्थात् इसके बारे में सभी को जानने का अधिकार है इसके साथ बच्चों को भी इसका ज्ञान कराना आवश्यक है क्योंकि यह बच्चों के मनोसामाजिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण भाग है। बालकों की देखभाल के सन्दर्भ में लिंग पहचान एक प्रक्रिया है न कि एक विशेष महत्त्वपूर्ण बिन्दु और इसके लिए सामाजिक मानदण्ड बालकों एवं उनके माता-पिता के लिए परेशानी का कारण बनते हैं।

लिंग पहचान के पहलू (Aspects of Gender Identity)
  1. मनोवैज्ञानिक पहलू (Psychological Aspect) – लिंग पहचान के मनोवैज्ञानिक पक्ष का विवरण एवं विश्लेषण फ्रायड (Freud) की देन मानी जाती है । फ्रायड ने अस्मिता को मानव-व्यक्तित्व के विकास की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानता है जो एक विशेष अवस्था में हमारे सामने आती है। फ्रायड का मानना है कि अस्मिता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई बालक वैसा बनता है . जैसा उसका व्यक्तित्व होता है ।अस्मिता का निर्माण, प्रत्येक व्यक्ति के मानसिक संरचना (Psychic Structure) के आधार पर ही होता है। इस प्रकार बालक धीरे-धीरे वही बन जाता है जो उसके व्यक्तित्व के घटक निर्धारित करते हैं। लैंगिक अस्मिता (Gender Identity) के सन्दर्भ में स्त्री और पुरुष दोनों ही समाज में अपनी पहचान बनाने की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के कारण लगातार प्रयास करते रहते हैं। वर्तमान समय में महिलाएँ अस्मिता के संकट (Identity Crisis) के दौर से गुजर रही हैं ।

    महिलाएँ अपनी मानसिक संरचना के आधार पर अपने आप को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रही हैं। इस अस्मिता के संकट के लिए मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि महिलाएँ अपने आपको समाज के नियमों और परम्पराओं से अनुकूलन करके अपनी मानसिक संरचना इस प्रकार ही बना चुकी है कि वे इसको ही अपने व्यक्तित्व का हिस्सा मान चुकी हैं परन्तु कुछ महिलाएँ अपने अस्मिता को प्राप्त करने की पूरी कोशिश में लगी हुई हैं। चाहे उन पर कोई भी बन्धन क्यों न हों पर वह अपना अस्तित्व प्राप्त कर ही लेंगी। विलियम जेम्स के अनुसार, उसकी अस्मिता प्रकट होगी और कहेंगी “मेरा यथार्थ रूप यह है ( This is the real me)। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक रूप से एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में ही महिला अपनी पहचान प्राप्त कर सकती हैं। पहचान न मिल पाने की अवस्था में महिलाओं में हीन भावना की उत्पत्ति होने लगती है। धीरे-धीरे उनमें यह अभिवृत्ति बनती जाती है कि मैं कुछ नहीं कर सकती (I can not do anything)।

  2. समाजशास्त्रीय पहलू (Sociological Aspect) — ‘अस्तित्व’ के समाजशास्त्रीय पक्ष को समझने के लिए जार्ज हर्बर्ट मीड द्वारा प्रतिपादित संकल्पना ‘मैं’ और ‘मुझे’ (I and me) को समझना आवश्यक होगा। मीड के अनुसार, “जब व्यक्ति अपने प्रति दूसरों के दृष्टिकोण का उत्तर देता है, तब वह ‘मैं’ शब्द का प्रयोग करता है, जब वह अपने प्रति दूसरों के दृष्टिकोण के बारे में अपनी मान्यता व्यक्त करता है, तब वह ‘मुझे’ शब्द का प्रयोग करता है । (I) उसका आन्तरिक निर्णायक पक्ष है और ‘मुझे’ (Me) उसका बाह्य, सामाजिक पक्ष है जो सबको ज्ञात है। ‘अस्मिता’ का सम्बन्ध ‘मुझे’ (Me) से है, इसके माध्यम से हम अपने आपको और दूसरों को जानने-समझने का प्रयत्न करते हैं।
    ‘मैं’ वाक्य (‘I’ Statement )
    मैं बहुत ज्ञानी हूँ, मैं बहुत शक्तिशाली हूँ, मैं बहुत महत्त्वपूर्ण हूँ। मैं बहुत सुन्दर हूँ ।
    उपरोक्त वाक्य में प्रत्येक व्यक्ति का आन्तरिक पक्ष है और उसे वह अपनी मान्यताओं के आधार पर निर्मित करता है।

    ‘मुझे’ वाक्य (‘Me’ Statement)

    वह बहुत ज्ञानी है। वह बहुत शक्तिशाली है। वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह बहुत सुन्दर है। उपरोक्त वाक्य हमारी मान्यताओं को दूसरों के दृष्टिकोण से जानते हैं। यही हमारी पहचान बन जाती है और समाज इसी को स्वीकृत करता है । लैंगिक अस्मिता के सन्दर्भ में महिलाओं की अस्मिता ‘मैं’ अर्थात जो वह मानती है और मुझे’ अर्थात जो समाज मानता है के बीच झूल रही है। महिलाओं को अपनी वह पहचान मिलनी बाकी है। उसी अस्मिता को प्राप्त करने के लिए लगातार मांग उठती रहती है। इसी अस्मिता को प्राप्त करने के लिए सामाजिक आन्दोलन किए जा रहे हैं। सरकारें और व्यक्ति दोनों मिलकर समाज में महिला को अपनी पहचान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ताकि समाज उनको व उसकी पहचान को स्वीकृति प्रदान करें। लेकिन लैंगि रूढ़िवादिता (Gender Stereotypes ) और मान्यताएं आदि महिलाओं को पहचान दिलाने में बाधा के रूप में खड़ी हैं।

    ए. स्ट्रास ( A. Strauss) ने अपनी कृति ‘मिरर्स एण्ड मास्क्स द सर्च फॉर आइडेन्टिटी (Mirrors and Masks The Search for Identity) (दर्पण और मुखौटे – अस्मिता का अन्वेषण) में कहा है कि “अस्मिता का निर्धारण वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत हम समाज-निर्मित श्रेणियों के सन्दर्भ में अपनी जगह ढूँढते हैं |” (Identification is a process in which we search for our place with reference to the socially constructed stratifications.)

    इस आधार पर महिलाएँ, समाज के स्तरीकरण (Social Stratification) यानि श्रेणियों में अपना स्थान ढूँढ रही हैं । जो जगह उनके लिए बनी हुई है, उस जगह या स्थान पर पहुँचकर ही उनको अपनी पहचान मिल पाएगी। लैंगिक अस्मिता से प्रत्यक्ष रूप में समाजशास्त्रीय पक्ष ज्यादा महत्त्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि आज लैंगिक असमानता के कारण महिलाओं और पुरुषों की पहचान में व्यापक अन्तर देखने को मिल रहा है। समाजशास्त्रीय कारकों के रूप में परम्पराएं और पितृसत्तात्मक समाज जो पुरुषों को केन्द्र में लाने पर जोर दे रहा है और महिलाओं को हाशिये पर ला रहा है, के कारण उनको वह अस्मिता या पहचान नहीं मिल पा रही हैं जिसके वे लायक हैं। उनकी पहचान को प्राप्त करने में शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण आधार के रूप में काम कर रही है तो कानूनी संरक्षण उनके अस्मिता के लिए सीढ़ी का काम कर रही है।

  3. राजनैतिक पहलू (Political Aspect ) आज का समाज विविधता से परिपूर्ण है। इसमें कई प्रकार के समूहों को स्थान प्राप्त हो चुका है लेकिन सभी समूहों को यथोचित स्थान प्राप्त हो, यह एक समस्या है। सभी जाति, धर्मों, वर्गों, लिंगों को उनकी पहचान देना एक चुनौती है। इस चुनौतीपूर्ण कार्य को लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों के कारण हासिल किया जा सकता है। लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों में से कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अस्मिता दिलाने में महत्त्वपूर्ण हैं। समानता, स्वतन्त्रता, अधिकार और न्याय, ये चारों सिद्धान्तों का क्रियान्वयन होने की अवस्था में अस्मिता का संकट समाप्त हो सकता है और सभी समूहों को उनकी पहचान मिल सकती है। समाज में लैंगिक अस्मिता प्राप्त करने में राजनीतिक कारक बहुत महत्त्वपूर्ण है।
    राजनैतिक दृष्टिकोण के आधार पर “अस्मिता” के संकट के तीन राजनीतिक कारण हो सकते हैं
    (i) अल्पसंख्यक होना (Being Minority)
    (ii) परम्परागत वर्चस्व (Traditional Supremacy)
    (iii) विशेषाधिकार (Privileges)
    इन्हीं तीनों कारणों में से किसी एक, दो या तीनों कारणों के कारण अस्मिता संकट में पड़ जाती है।
    लैंगिक अस्मिता के प्रमुख कारण हैं- परम्परागत वर्चस्व (Traditional Supremacy)। भारतीय समाज के सन्दर्भ में सदियों से पुरुषों का वर्चस्व होने के कारण यह अब परम्परा का रूप ले चुका है। अब वही परम्परागत वर्चस्व, लैंगिक अस्मिता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। इसी परम्परागत वर्चस्व को हम प्रभुत्व या पुरुषों का प्रभुत्व भी कहते हैं। पुरुष – प्रभुत्व (Male Dominance) का उदय कार्यों के वर्गीकरण के बाद हुआ। कार्यों के वर्गीकरण से पहले पुरुष और स्त्री दोनों ही समानता की स्थिति में थे। लेकिन श्रम या कार्य के वर्गीकरण के बाद शक्ति, योग्यता और बुद्धि के नाम पर महिलाओं की समानता, स्वतन्त्रता और अधिकार लुप्त होते गए और समुचित न्याय न मिलने के कारण महिलाओं की पहचान फीकी होती गई। पहचान या अस्मिता का वास्तविक अर्थ भी यही होता है कि “जो वास्तव में है।” इसलिए पहचान कभी खत्म नहीं होती यद्यपि फीकी हो सकती है जिसे पुनः उसी रूप में प्राप्त किया जा सकता है।
  4. आर्थिक पहलू ( Economical Aspect) – सदियों से महिलाएँ आर्थिक क्षेत्र से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रख सकती थीं परन्तु इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति के कारण उद्योगों की अधिकता हो गई और काफी संख्या में लोग घरों से बाहर आने लगे और काम की अधिकता के कारण पुरुषों के साथ-साथ महिलाएँ भी घरों से बाहर निकलने लगीं और घर से बाहर निकलकर विद्यालयों, फैक्ट्रियों और कार्यालयों में काम करने लगीं। आर्थिक आवश्यकताओं, शिक्षा में वृद्धि, शहरीकरण का दबाव, परिवार का एकल प्रकृति का होना, बाजारवाद आदि के कारण महिलाओं ने विभिन्न कार्य क्षेत्रों में पदार्पण किया। भारत में महिलाएँ औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों ही क्षेत्रों में कार्यरत हैं। अनौपचारिक क्षेत्रों में महिलाएँ अधिकतर कृषि कार्यो, मकान बनाने आदि क्षेत्रों में कार्यरत् हैं। इसके अतिरिक्त मधुमक्खी पालन, हथकरघा उद्योग, जैसे- बुनाई, टोकरी बनाने, कलाई, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन आदि के द्वारा अपनी आजीविका के लिए धन कमा रही हैं। इन कामों को करने के साथ ही साथ महिलाएँ अपने घर का भी सम्पूर्ण कार्य भी करती हैं। लेकिन अनौपचारिक क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है और उन्हें रोजगार की सुरक्षा आदि प्राप्त नहीं होती। औपचारिक क्षेत्रों जैसे स्कूल, बैंक, कॉलेज, कार्यालयों, अस्पताल, औद्योगिक भवनों में भी महिलाएँ काफी संख्या में कार्यरत् हैं। इन क्षेत्रों में महिलाओं को बीमारी के लिए छुट्टियाँ, मातृत्व छुट्टी, मेडिकल सुविधाएं आदि प्रदान की जाती हैं। महिलाओं की असमानता से सम्बन्धित सबसे बड़ी बाधा के रूप में उनकी वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार कारक आर्थिक निर्भरता की कमी है। औपचारिक एवं अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने के अतिरिक्त अधिकतर महिलाएं अपने परंपरागत घरेलू कार्यों में लगी रहती हैं जिसके काम के लिए उन्हें कोई नकद मूल्य या वेतन नहीं मिलता है ।
    पुरुष ही घर से बाहर जाकर वेतन या धन कमा कर लाता और वही परिवार की आय का मुख्य स्रोत बना रहता है। । लेकिन महिला घर का काम करने के बावजूद कोई आर्थिक मूल्य अर्जित नहीं कर पाती जबकि सच यह है कि घर की जिम्मेदारियों को छोड़कर ही पुरुष बाहर जाकर अपनी कुछ योग्यताओं, श्रम के आधार पर नकद धन या वेतन प्राप्त करता है। यदि महिला भी घर से बाहर काम करना शुरू करती है तो उस स्थिति में दो ही विकल्प बचते हैं पहला विकल्प तो यह है कि महिला घर से बाहर जाकर नौकरी करें और पुरुष घर का घरेलू काम करें। दूसरा विकल्प यह है कि घर के काम की जिम्मेदारी किसी नौकर के सहारे छोड़कर दोनों ही बाहर जाकर धन अर्जित करें। वर्तमान समय में शहरों में यही दूसरे विकल्प की प्रवृत्ति पाई जा रही है तथा महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं।
लैंगिक रूढ़िबद्धता का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Gender Stereotyping)
लैंगिक रूढ़िबद्धता से अभिप्राय है “स्त्री या पुरुष, लड़का या लड़की के व्यवहार एवं भूमिका से सम्बन्धित समाज का वह सामान्यीकरण जो प्रायः गलत चित्रण के कारण होता है । “

स्त्री पुरुष से सम्बन्धित विशेष व्यवहारों व कार्यों को समाज द्वारा परिभाषित करना और इन्हीं विशेष कार्यों और भूमिकाओं की अपेक्षा करना, सुसंगत न होने की स्थिति में उनको टोकना, विचारों में सुधार करने को कहना, लैंगिक रूढ़िवादिता है। इसी लैंगिक रूढ़िबद्धता को महिलाओं और पुरुषों के बीच लैंगिक असमानता को मुख्य जिम्मेदार कारक माना जा सकता है। लैंगिक रूढ़िबद्धता निरन्तर अपना अस्तित्व बनाए रखती है और इस प्रक्रिया में समाजीकरण अपनी प्रमुख भूमिका निभाता है।

लैंगिक समाजीकरण में संचार माध्यम
प्रिन्ट मीडिया – प्रिन्ट मीडिया का महत्त्व अक्षुण्ण है। उसकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रों से बालक का सर्वागीण विकास होता है। शिक्षण संस्थाओं में पाठ्यपुस्तकें ही शिक्षा का प्रमुख साधन है। दूरस्थ शिक्षण संस्थाओं के विद्यार्थी मुद्रित सामग्री द्वारा ही अनुदेशन प्राप्त करते हैं। इंटरनेट की सुविधा ने शिक्षा को भी ऑनलाइन कर दिया है लेकिन प्रिन्ट मीडिया का महत्त्व कम नहीं आँका जाता है। ये बालकों के स्व के विकास में विशेष स्थान रखता है। आवश्यकता है कि पठनीय सामग्री का निर्माण व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुसार होना चाहिए ।
    1. समाचार पत्र (Newspapers ) — देश-विदेश के दिन-प्रतिदिन के समाचार हमें समाचार-पत्रों से प्राप्त होते है। इससे विदेश की आर्थिक, राजनैतिक एवं व्यावसायिक प्रगति का पता लगता है। इसमें लेख, कहानियाँ, साहित्यिक, समीक्षाएँ, साक्षात्कार, खेल जगत की घटनाएँ छपती है, जिनसे बालक को विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त होता है तथा उनके भीतर जागरूकता विकसित होती है। शिक्षा से सम्बन्धित कई जानकारियों से भी बालक अवगत होते है। समाचार पत्र बालक के स्व निर्माण में विशेष महत्त्व रखता है। वस्तुतः समाचार पत्रों में विभिन्न विषयों पर भी सामग्री लेख कहानियाँ सुविचार, कविताएँ और मनोरंजनात्मक प्रकरण भी प्रकाशित किए जाते हैं। इस प्रकार बालक के अन्दर जीवनमूल्यों का प्रवेश होता है जिससे सकारात्मक स्व निर्माण को आधार मिलता है। इससे उसका ज्ञान कोष बढ़ता है। सामान्य ज्ञान का विस्तार होता है। उत्तरदायित्व पूर्व नागरिकता का विकास होता है। स्वाध्याय में रुचि विकसित होती है। अतः बालकों को नित्य समाचार पढ़ने की आदत विकसित करनी चाहिए तथा प्रत्येक विद्यालय में समाचार पत्र मँगवाने चाहिए।
    2. पत्र पत्रिकाएँ – पत्र-पत्रिकाएँ बालक के स्व के लिए महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ बालकों को न केवल नवीन ज्ञान प्रदान करती है अपितु उन्हें रचनात्मक कार्य करने के लिए भी प्रेरित करती है। इससे उनका विषय ज्ञान बढ़ता है। अतः प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकालय की उचित व्यवस्था होनी चाहिए तथा नित्य पत्र-पत्रिकाएँ आनी चाहिए। शोध पत्रिकाएँ हमें नवीनतम ज्ञान प्रदान करती हैं।
    3. साहित्यिक पुस्तकें – साहित्यिक पुस्तकें बालक की स्वधारणा को सकारात्मक बनाती है। ये पुस्तके संदर्भित पुस्तकों का काम करती हैं। इससे विद्यार्थियों के विचार मौलिक एवं व्यापक बनते हैं, उनमें स्वाध्याय की आदत विकसित की जा सकती है। वह अपनी लेखन क्षमता विकसित कर सकते हैं। साहित्यिक पुस्तकें विद्यालय में उपलब्ध कर लेनी चाहिए। पढ़ने हेतु पुस्तकालय कालांश होना चाहिए। अतः कहा जा सकता है कि साहित्यिक पुस्तिकाएँ आधुनिक युग में शिक्षा का मुख्य आधार है।
    4. पुस्तकालय एवं वाचनालय- पुस्तकालय ज्ञान की आधारशिला होता है। मुद्रित रूप में यहाँ पर ज्ञान का अनुपम भण्डार होता है। वाचनालयों में व्यक्ति परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं जो शैक्षिक पुनरुत्थान एवं विकास की दृष्टि से अति आवश्यक है।
    5. संग्रहालय – संग्रहालय में ऐतिहासिक, ज्ञानवर्द्धक एवं मनोरंजनात्मक वस्तुओं का संग्रह होता है जिन्हें आसानी से आस-पास के वातावरण में नहीं देखा जा सकता है।
  1. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया – वर्तमान समय में विज्ञान के विकास एवं संचार क्रान्ति के माध्यम से इलेक्ट्रॉनि मीडिया का भी विकास हुआ है। इन साधनों ने संचार क्रान्ति उत्पन्न कर दी गयी है। आज दुनिया की दूरी संकुचित हो गयी है। अमेरिका में होने वाली सूचना कुछ मिनटों में ही सम्पूर्ण भारत तथा दुनिया में पहुँच सकती है। इसलिए वर्तमान समय में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के अन्तर्गत निम्नलिखित माध्यम आते हैं-
    1. कम्प्यूटर ( Computer) – कम्प्यूटर शिक्षक के स्थानापन्न का कार्य करता है। इस रूप में छात्र सीधे कम्प्यूटर से व्यवहार करता है। इससे छात्र की विचार शक्ति का निर्माण होता है। उसे सही एवं गलत उत्तर की पहचान होती है जिससे वह उचित अनुचित में भेद कर सकता है तथा निर्णय शक्ति की क्षमता का विकास होता है।
    2. दूरदर्शन ( Television)- दूरदर्शन भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार करने का कार्य अपने विभिन्न चैनलों के माध्यम से करता है। इसके द्वारा विभिन्न आयु वर्ग के लोगों के लिए अलग-अलग ज्ञानवर्द्धक मनोरंजनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। दूरदर्शन जनसंचार साधनों के अन्तर्गत उपलब्ध सभी साधनों में सबसे सशक्त माध्यम है क्योंकि इसमें सम्प्रेषण के साथ-साथ दृश्य साधन भी उपलब्ध है। दूरदर्शन में समस्त संसार की जानकारी प्राप्त होती है इससे बालक के मस्तिष्क का विकास होता है तथा सोचने की शक्ति व कुछ करने की शक्ति को बढ़ावा मिलता है। उनमें सृजनात्मक शक्ति का विकास होता है।
    3. रेडियो (Radio) — भारत के सुदूर इलाकों एवं ग्रामीण क्षेत्रों तक रेडियो की पहुँच है । रेडियो पर समय-समय पर विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम जैसे- कृषि कार्यक्रम, शिक्षाप्रद कार्यक्रम, सांस्कृतिक कार्यक्रम, देश-विदेश के समाचार आदि का प्रसारण किया जाता है। ये कार्यक्रम विभिन्न विषयों जैसे- अंग्रेजी, विज्ञान, भूगोल इतिहास से सम्बन्धित होते है जिसमें क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता हैं। इस प्रकार रेडियो के द्वारा व्यापक रूप से शिक्षा एवं नई-नई जानकारियों को विभिन्न आयु–वर्ग, लिंग को ध्यान में रखते हुए मनोरंजनात्मक तरीके से प्रस्तुत करता है। रेडियो सबसे अधिक प्रभावशाली संचार का माध्यम है। रेडियो पर बालकों के विभिन्न विषयों से सम्बन्धित जानकरियाँ प्राप्त होती हैं। इससे सभी स्तर के व्यक्ति लाभान्वित हो सकते हैं। रेडियो द्वारा विद्यार्थियों को तथ्यात्मक ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। बालक की रचनात्मक व सृजनात्मक क्षमता का विकास किया जा सकता है।
    4. मल्टीमीडिया प्रकार (Multimedia) – मल्टीमीडिया एक से एकत्रित रीट्राइव्ड एवं मेन्यूपलेट (तोड़ना-मरोड़ना) की गयी सूचना है जिसमें प्लेन टेक्स्ट, पिक्चर, श्रव्य दृश्य और एनीमेशन टाइप की सूचनाएँ रहती हैं। इसके द्वारा शिक्षण सामग्री को चित्र साउण्ड व एनीमेशन आदि का प्रयोग कर रोचक बनाया जा सकता है। इस प्रकार के शिक्षण में बालक की कल्पना शक्ति का विकास होता है।
    5. इंटरनेट (Internet ) – इंटरनेट कई नेटवर्कों का एक विशाल नेटवर्क है जो हजारों कम्प्यूटर से जुड़ा होता है। इंटरनेट ने आज मनुष्य के जीवन में क्रांति ला दी है, बैंकिग, रोजगार, टूरिज्म, एजुकेशन आदि में उसने पैर जमा रखे हैं। इससे बालक को जो भी पाठ्य सामग्री की आवश्यकता होती है वह घर बैठे उपलब्ध हो जाती है। इससे बालक की अध्ययन क्षमता का विकास होता है। बालक में रुचि का विकास होता है। सुविचार व प्रेरक प्रसंगों द्वारा बालकों में नैतिक मूल्यों का विकास करना संभव है ।
    6. मोबाइल (Mobile)- मोबाइल द्वारा बालक कक्षा के अतिरिक्त कहीं भी बैठकर सीख सकता है। इसमें उसे स्वयं करके सीखने की प्रवृत्ति का विकास होता है। इसके द्वारा अध्यापक कक्षा अन्तःक्रिया को बढ़ावा दें सकता है इससे बालक में आत्मविश्वास बढ़ता है। इससे बालक में सीखने की प्रवृत्ति का विकास किया जा सकता है। बालक स्वाध्याय की प्रवृत्ति का विकास कर सकता है। इससे उनमें तकनीकी कौशल की भी वृद्धि होती है।

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