लिंग भूमिकाओं से आपका क्या अभिप्राय है? विभिन्न सामाजिक समूहों, क्षेत्र एवं समयावधि में लैंगिक अनुभव का वर्णन कीजिए।
लिंग भूमिका सांस्कृतिक और व्यक्तिगत है जो यह निर्धारित करते हैं कि कैसे पुरुषों और महिलाओं को समाज के संदर्भ में सोचना, बोलना, पोशाक करना और बातचीत करना चाहिए। लैंगिक भूमिकाओं को आकार देने की इस प्रक्रिया में सीखना एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये लिंग स्कीमा मर्दाना और स्त्री को परिभाषित करने के बारे में गहन रूप से एम्बेडेड संज्ञानात्मक ढांचे हैं। जबकि विभिन्न सामाजिक एजेंट- माता-पिता, शिक्षक, सहकर्मी, फिल्में, टेलीविजन, संगीत, किताबें, और धर्म–पूरे जीवन भर में लिंग भूमिकाओं को मजबूती प्रदान करते हैं, माता-पिता शायद सबसे बड़े प्रभाव को लागू करते हैं। एक लिंग भूमिका किसी विशेष सामाजिक समूह या प्रणाली में विशेष रूप से पुरुषों या महिलाओं के साथ व्यवहार व्यवहार मानदंडों का एक सेट है, जिसमें अक्सर पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम विभाजन और बाल पोषण और समाजीकरण प्रक्रियाओं के परिचर परिसर शामिल होते हैं जो युवाओं को कायम रखने के लिए युवाओं की ओर अग्रसर होते हैं। एक ही पैटर्न । सेक्स-आधारित भूमिकाओं के साथ संविदा लिंग आधारित भूमिकाएं कई पारंपरिक समाजों में आदर्श रही हैं, जिसमें विशिष्ट रूप से समाज से समाज में अलग-अलग भूमिका विभाजन के लिंग एवं लिंग प्रणाली के विशिष्ट घटक और कार्यकलाप हैं। लिंग भूमिका सामाजिक विज्ञान और मानविकी में विश्लेषण का एक फोकस है।
एक व्यक्ति की लिंग भूमिका में कई तत्व शामिल होते हैं जिन्हें कपड़ों, व्यवहार, व्यवसाय, व्यक्तिगत सम्बन्धों और अन्य कारकों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। ये तत्व तय नहीं हैं और समय के माध्यम से बदल गए हैं। लिंग भूमिकाओं को परंपरागत रूप से अक्सर अलग-अलग महिलाओं और मादा लिंग भूमिकाओं में विभाजित किया जाता है, विशेष रूप से बीसवीं शताब्दी तक जब ये भूमिका दुनिया भर के आधुनिक देशों में कई अलग-अलग स्वीकार्य नर या मादा भूमिकाओं में विविधतापूर्ण होती है। इस प्रकार, कई आधुनिक समाजों में से एक का जैविक लिंग अब उन कार्यों निर्धारित नहीं करता है जो एक व्यक्ति कर सकते हैं, जिससे सभी लोगों के लिए अपनी स्वतंत्र क्षमता प्राप्त करने और सभी के लाभ के लिए समाज को अपनी प्रतिभा और क्षमताओं की पेशकश करने की अधिक स्वतंत्रता और अवसर प्रदान किया जा सकता है।
- विभिन्न सामाजिक समूहों में लैंगिक अनुभव (Experience of Gender in Across Different Social Groups) – सामाजिक समूहों का तात्पर्य विभिन्न प्रकार के सामाजिक संस्थाओं एवं क्षेत्रों से है जिनके माध्यम से समूह का निर्धारण सम्भव होता है। विभिन्न सामाजिक समूहों एवं क्षेत्रों का विभिन्न समयावधि में लैंगिक भेद-भाव या अनुभव निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है –
- परिवार में लिंग सम्बन्धी अनुभव – परिवार किसी समाज या राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई है। समाज शास्त्र की दृष्टि से परिवार सबसे पहला, छोटा एवं मूलभूत सामाजिक समूह है। इसमें प्रायः पति-पत्नी एवं उनकी संतान संगठित रूप से एक स्थान पर रहते हैं। पारिवारिक दृष्टि से लिंग का अभिप्राय परिवार में स्त्री- पुरुषों के मध्य कार्य, शक्ति एवं कर्तव्यों के विभाजन से लैंगिक अनुभव परिलक्षित होता है। परिवार में लैंगिक भेद-भाव माता द्वारा रसोई में भोजन निर्माण की व्यवस्था तथा पिता के धनार्जन की व्यवस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है। भाई का उत्तरदायित्व अपनी बहनों को प्यार करना तथा बहन का कर्तव्य अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन करना होता है। अतः पारिवारिक दृष्टि से भी लैंगिक विभेद / अनुभव स्त्री एवं पुरुष वर्ग अधिकारों का विभाजन करता है। परिवार में अभिभावकों के व्यवहार से भी अनेक प्रकार के लैंगिक अनुभव उत्पन्न होते हैं, जैसे- एक परिवार में बालक को इसलिए महत्त्व दिया जाता है कि वह बड़ा होकर वंश परम्परा को आगे बढ़ाएगा तथा बालिका के प्रति लोगों के मन में यह रूढ़िवादी धारणा रहती है कि यह पराया धन हैं अर्थात् बड़ी होने पर इसकी शादी हो जाएगी और एक दूसरे घर परिवार की हो जाएगी। इसके अतिरिक्त परिवार के कार्यक्षेत्र में लैंगिक अनुभव है जैसे एक लड़का यदि अपनी बहन की सहायता किसी घेरलू कार्य में करता है तो लोग उसे क्या लड़कियों का काम करते हो कहकर हतोत्साहित करके लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देते हैं जो कि अनुचित है।
- समाज में लैंगिक अनुभव- लैंगिक सामाजिक व्यवस्था में विविध प्रकार की सामाजिक परम्पराओं की व्याख्या स्त्री पुरुष के सन्दर्भ में करता है, जैसे-सामाजिक समूह की अवधारणा है कि स्त्री को सदैव पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए तथा उसके सुख का ध्यान रखना चाहिए। पुरुषों को आर्थिक व्यवस्था करके अपनी स्त्री का भरण-पोषण करना चाहिए। समाज में रहकर प्रत्येक स्त्री पुरुष को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। अतः लिंग का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था के समस्त कर्तव्य, अधिकार एवं व्यवहार को स्त्री पुरुष के मध्य वर्गीकृत करना है।
- सांस्कृतिक समूह में लैंगिक अनुभव-सांस्कृतिक गतिविधियाँ स्त्री एवं पुरुष की भूमिका प्राचीन काल से वर्तमान काल तक निश्चित की गई है। भारतीय संस्कृति में स्त्री पुरुष के लिए अलग-अलग गतिविधियों को निर्धारित किया गया है जैसे- नृत्य पर स्त्रियों का एकाधिकार माना जाता है। इसलिए नृत्य सम्बन्धी कार्यक्रमों में स्त्रियों का भाग लेने का अवसर प्रदान किया जाता है। परन्तु वर्तमान समय में पुरुष वर्ग भी नृत्य में अपनी सहभागिता का प्रदर्शन कर रहे हैं। फिर भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में स्त्रियों की भूमिका को ही सर्वाधिक उपयोगी माना गया है। इस प्रकार सांस्कृतिक समूह में लिंग का आशय सांस्कृतिक गतिविधियों में स्त्री पुरुष की सर्वाधिक भूमिका के निर्णयन से है। इससे सांस्कृतिक समूहों का विकास होता है तथा स्त्री-पुरुष दोनों को आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति होती है।
- शिक्षित समाज में लैंगिक अनुभव-शिक्षित समाज में स्त्री पुरुषों में लैंगिक समानता प्रदर्शित होती है। शिक्षित समाज की स्त्रियाँ सदैव अपने वर्चस्व के लिए सजग रहती हैं तथा अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत रहती है। स्त्रियों के आधिपत्य को स्वीकार करते हुए पुरुष वर्ग भी अपने समकक्ष रखने का प्रयास करता है। शिक्षित समाज में स्त्री-पुरुष के मध्य असमानता की स्थिति नही उत्पन्न होती है। शिक्षित समाज में पुरुष वर्ग भी घर के कार्यों में हाथ बँटाते हैं। स्त्री वर्ग को भी योग्यता के आधार पर नौकरी करने का अवसर प्रदान किया जाता है। शिक्षित समाज में लैंगिक अनुभव किसी कार्य के विभाजन से न होकर सुविधाजनक एवं सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था से होता है। शिक्षित समाज में लिंग का आशय समाज एवं परिवार की संतुलित एवं सुविधाजनक व्यवस्था से होता है। जिसमें स्त्री-पुरुष अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुरूप कार्य करते हैं तथा आदर्श व्यवस्था को जन्म देते हैं ।
- अशिक्षित समाज में लैंगिक अनुभव- अशिक्षित समाज में लिंग सम्बन्धी भेदभाव स्त्री पुरुष विभाजन से होता है। अशिक्षित परिवार में परम्परागत कार्यों एवं रूढ़िवादी परम्पराओं को आधिक महत्त्व दिया जाता है जैसे- स्त्री के विधवा होने पर उसे दूसरा विवाह करने का अधिकार नहीं है जबकि पत्नी की मृत्यु हो जाने पर पुरुषों को दूसरा विवाह करने का अधिकार है। इस प्रकार के दायित्वों एवं परम्पराओं का विभाजन स्त्री-पुरुष के मध्य परम्परागत रूढ़िवादी एवं असमानता के सन्दर्भ में होता है। अशिक्षित समाज में लिंग की पहचान स्त्री-पुरुष के मध्य रूढ़िवादी दायित्वों के विभाजन से सम्बन्धित होता है। इस प्रकार अशिक्षित समाज में पुरुष वर्ग का सशक्तीकरण तथा नारी वर्ग का निर्बलीकरण परिलक्षित होता है।
- स्वयंसेवी सामाजिक समूह में लैंगिक अनुभव – कुछ स्वयं सेवी संस्थाएँ स्त्री पुरुष की समानता की बातें करती हैं। स्वयं सेवी संस्थाएँ स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों को रोकने के लिए अनेक प्रकार के आन्दोलन चलाती है, समय-समय पर नारी सशक्तीकरण योजनाओं की समीक्षा भी करती है। इस प्रकार स्वयंसेवी सामाजिक समूह में लिंग का आशय उन सभी गतिविधियों, क्रियाओं, नीतियों एवं सिद्धान्तों से होता है जो स्त्रियों की स्थिति को सुधारते हैं तथा स्त्रियों को पुरुष के बराबर अधिकार दिलाने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार विभिन्न सामाजिक समूहों में ये स्वयं सेवी संस्थाएँ लैंगिक भेदभाव को दूर कर आदर्श समाज की स्थापना का प्रयास करते हैं ।
- जातिगत समूह में लैंगिक अनुभव – भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की जातियाँ पाई जाती है। जिनकी कार्यप्रणाली भी अलग-अलग होती है। इन जातियों में लैंगिक अनुभव स्त्री पुरुष के मध्य भेदभाव प्रदर्शित करता है। विभिन्न परम्पराएँ रूढ़ियों का स्वरूप धारण करके स्त्रियों के साथ विभेद उत्पन्न करती हैं। उदाहरणस्वरूप–राजपूतों की स्त्रियाँ जौहर करती थी तथा अपने पति के शव के साथ सती होने वाली राजपूत स्त्री को समाज में प्रतिष्ठा प्रदान की जाती थी। इस प्रकार परम्परागत रूढ़ियाँ सामाजिक समूहों में विभेद उत्पन्न कर दी थी। इसीलिए यह मान्यता है कि जिस समाज में शिक्षित जातियों का समूह होता है, वहाँ स्त्री पुरुष के मध्य लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। इसके विपरीत अशिक्षित व्यक्तियों के समूह में उत्तरदायित्वों का रूढ़िवादी विभाजन होता है।
- धर्मगत समूह में लैंगिक अनुभव धार्मिक समूहों में लैंगिक अनुभव स्त्री पुरुष के दायित्वों के विभाजन में असमानता की स्थिति देखी जाती है। विभिन्न स्थानों पर नारी को महान माना जाता है तो कहीं-कहीं पुरुषों को उच्च स्थान प्राप्त होता है। फिर भी धर्मगत समूहों में भी पुरुष वर्ग की स्थिति सशक्त होती है। धार्मिक समूहों में स्त्रियों को भी महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। अतः धार्मिक समूहों में भी लैंगिक अनुभव स्त्री एवं पुरुष के पारम्परिक धार्मिक परम्पराओं के विभाजन से है। इसके परिणामस्वरूप स्त्री-पुरुष के मध्य व्यावहारिक दायित्वों में भी भेदभाव दृष्टिगत होता है तथा पुरुष वर्ग की प्रधानता बनी रहती है।
- विविध क्षेत्रों में लैंगिक अनुभव (Experience of Gender in Various Fields) – लिंग की परिभाषा विभिन्न क्षेत्रों में विविध रूपों में दृष्टिगत होती है क्योंकि लिंग के आधार पर ही प्रत्येक क्षेत्र की व्याख्या होती है तथा लैंगिक भेदभाव की समस्या का समाधान किया जाता है। अतः विभिन्न क्षेत्रों में लैंगिक अनुभव का वर्णन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है-
- का शैक्षिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव- शिक्षा के क्षेत्र में लिंग तात्पर्य मात्र छात्र छात्राओं को कक्षा में अलग-अलग बैठाना ही नहीं है बल्कि उनके शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। लिंग सम्बन्धी भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में सहशिक्षा की अवधारणा एक सराहनीय व महत्त्वपूर्ण कदम है। छात्र-छात्राओं को अपनी रुचि के अनुसार विषयों का चयन करने का अधिकार देना चाहिए। इससे छात्र छात्राओं में विषय के प्रति अरुचि समस्याएँ नहीं उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार शैक्षिक क्षेत्र में लिंग के माध्यम से छात्र एवं छात्राओं की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए उनका सर्वांगीण विकास किया जाता है। लैंगिक अनुभव के विषय में एस. के. दुबे ने कहा है कि “शैक्षिक क्षेत्र में लिंग छात्र एवं छात्राओं के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया से सम्बन्धित होता है जिसे छात्र एवं छात्राओं की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करके सम्पन्न किया जाता है।” इस प्रकार समाज में जब शिक्षा की उपयोगिता को समझा जाता है तथा उपयोगी शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध होती है तो स्त्री एवं पुरुष दोनों लाभान्वित होते हैं तथा शिक्षा के क्षेत्र में समानता का भाव विकसित होता है।
- व्यावसायिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव- वर्तमान समय में विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में स्त्री एवं पुरुष समान रूप से कार्य करते हैं। लिंग का तात्पर्य स्त्री-पुरुष के समान अधिकार एवं विभेद रहित कार्य व्यवहार से होता है। कभी-कभी स्त्री एवं पुरुष किसी कार्य को एक समान स्तर से करते हैं लेकिन उन्हें कार्य के लिए समान वेतन नहीं दिया जाता है। लेकिन कुछ व्यवसायों में समान वेतन दिया जाता है। उदाहरण के लिए एक पुरुष लिपिक एवं एक महिला लिपिक को एक समान वेतन दिया जाता है क्योंकि जब एक ही क्षेत्र में दोनों समान कार्य कर रहे है तो उनके वेतन में भी समानता होनी चाहिए। इसी प्रकार व्यावसायिक क्षेत्रों में भी अभ्यार्थियों का चयन भी समानता एवं विभेद रहित व्यवस्था के अन्तर्गत किया जाता है। अतः व्यवसायिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव का अभिप्राय उन विसंगतियों का पता लगाना है जो लैंगिक भेदभाव उत्पन्न करती हैं तथा स्त्री पुरुष के असमानता को प्रदर्शित करती हैं। इस प्रकार व्यावसायिक क्षेत्र में भी लिंग लैंगिक विभेद को दूर करने से सम्बन्धित होता है। इसी सन्दर्भ में श्रीमती आर. के. शर्मा ने लिखा है कि- “व्यवसायिक क्षेत्र में लैंगिक विभेद को समाप्त करते हुए स्त्री-पुरुष में समानता की स्थिति उत्पन्न करने का प्रयास ही लैंगिक अनुभव माना जाता है जिससे दोनों ही पक्ष आत्मगौरव एवं आत्म सन्तुष्टि अनुभव करते हैं।” अतः स्त्रियों की व्यावसायिक योग्यता के अनुरूप परिवार द्वारा उसकी व्यावसायिक व्यवस्था करना परम् कर्तव्य है, जैसे एक स्त्री सिलाई-कढ़ाई में निपुणता रखती है तो यह आवश्यक नहीं कि उससे गृहकार्य कराया जाए वरन् उसको सिलाई करने का अवसर दिया जाए, गृहकार्य उन स्त्रियों या पुरुषों से कराया जाए जो इसमें रुचि व निपुणता रखती हों।
- धार्मिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव- धार्मिक क्षेत्र सम्बन्धित स्त्री पुरुषों की गतिविधियों में पूर्णतः असमानता पाई जाती है। लैंगिक आधार पर भी पुरुषों एवं स्त्रियों के धर्म अलग-अलग रूप से परिभाषित किए जाते हैं। उन दोनों के लिए विविध प्रकार की धार्मिक परम्पराओं का निर्माण किया जाता है। ये परम्पराएँ पुरुष को उसके प्रभाव एवं पुरुषत्व का ज्ञान कराती है तथा स्त्री को उसके स्त्रीत्व एवं प्रभावहीनता का ज्ञान कराती है। श्रीमती आर. के. शर्मा ने लिखा है कि “धार्मिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव का आशय लैंगिक विभेद को प्रदर्शित करता है, लेकिन उसके मूल में एक आदर्श व्यवस्था का सार्थक प्रयास छिपा रहता है । ”
इस प्रकार विभिन्न धर्मों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि समाज में पुरुष के स्थान को सर्वोपरि बताया गया तथा स्त्री के अधिकार को निम्नतम् बताया गया है जो कि पूर्णतः अनुचित है। महिलाओं को अनेक धार्मिक अनुष्ठानों से भी वंचित कर दिया गया है। अतः धर्म सम्बन्धी इस प्रकार की लैंगिक चुनौतियों का सामना स्त्रियों को कई क्षेत्रों में करना पड़ता है, जैसे- स्वतन्त्रता सम्बन्धी क्षेत्र में, समानता सम्बन्धी, धार्मिक कार्य सम्बन्धी एवं अपने अधिकारों के लिए। जबकि प्रत्येक धर्म में नारी के प्रति दुर्व्यवहार को प्रतिबन्धित किया गया है। जहाँ नारी को पतिधर्म का उपदेश दिया गया है तो वहीं पुरुष को भी यह बताया गया है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवो सहाय कृता अर्थात् जहाँ नारियों का सम्मान किया जाता है वहाँ देवता भी निवास करते हैं। धर्म में जिस प्रकार पुरुषों को समानता प्रदान की गई है ठीक उसी प्रकार स्त्रियों को भी स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए। धर्म में दोनों ही वर्गों को स्वतन्त्रतापूर्वक क्रियाओं को सम्पन्न करने की अनुमति मिलनी चाहिए। धर्म के आधार पर कर्तव्यों में भी समानता होनी चाहिए । धर्म का कार्य स्त्री एवं पुरुष दोनों का समान रूप से विकास करना होना चाहिए। धर्म से अन्धविश्वास एवं रूढ़ियों का उन्मूलन करना चाहिए क्योंकि धर्म की रूढ़ियाँ एवं अन्धविश्वास ही धार्मिक संकीर्णता तथा लिंग असमानता में वृद्धि करते हैं। धार्मिक आधार पर अधिकारों एवं कर्तव्यों में समानता होनी चाहिए ।
- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव – सामाजिक क्षेत्र में लिंग का अर्थ लैंगिक विभेद / अनुभव से सम्बन्धित होता है। इसमें स्त्री एवं पुरुष के मध्य अन्तर स्थापित किया जाता है। सामान्यतः यह परिलक्षित होता है कि सामाजिक क्षेत्र में लिंग के विविध रूप देखे जाते हैं। कहीं स्त्री-पुरुष की असमानता को प्रदर्शित किया जाता है। इसी सन्दर्भ में प्रो. एस. के. दुबे कहते हैं कि, “शिक्षित समाज एवं उसके दृष्टिकोण में स्त्री-पुरुष, को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए जिससे लैंगिक विभेद न हो तथा दोनों ही पक्ष सन्तुष्ट रहें जबकि अशिक्षित समाज समान अधिकारों का विरोधी है।
इससे द्वैत भाव की स्थिति उत्पन्न होती है ।” इस प्रकार जिस समाज में रूढ़िवादी परम्पराओं का अनुकरण किया जाता है तथा स्त्री को पुरुष की तुलना में निम्न समझा जाता है उस समाज में स्त्रियों की दशा सोचनीय हो जाती है। वहाँ शिक्षा का स्तर भी निम्न होता है। ऐसे समाज में शिक्षा एवं समय का कोई महत्त्व नही होता है। कुछ सामाजिक परम्पराएँ स्त्रियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिस समाज में स्त्रियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होता है उस समाज में स्त्री शिक्षा की सर्वोत्तम स्थिति होती है। ‘अतः सामाजिक दृष्टिकोण से स्त्रियों के प्रति सकारात्मक भाव रखा जाना चाहिए। इसके विपरीत जिस समाज में स्त्री के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखा जाता है तथा पुरुषों की तुलना में उसको निम्न समझा जाता है उस समाज में स्त्री एवं बालिकाओं के साथ भेदभाव किया जाता है तथा उनके शिक्षा का स्तर भी न्यूनतम होता है। अन्ततः यह कहा जा सकता है कि स्त्री पुरुष या बालक-बालिका के साथ कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए इसके परिणाम स्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में भी समानता होगी।
- आध्यात्मिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव – स्त्री एवं पुरुष दोनों ही ईश्वर के अंश माने जाते हैं। इसलिए स्त्री पुरुष में किसी प्रकार का विभेद नहीं किया जाना चाहिए। ईश्वर की दृष्टि में ईश्वर पुरुष समान है इस प्रकार समाज में या सभी क्षेत्रों में उनका स्थान भी समान होना चाहिए।
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि “ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहस सुखरासी” अर्थात् तुलसीदास जी ने स्त्री-पुरुष को जीव कहकर सम्पूर्ण विभेद समाप्त कर दिया है। अतः आध्यात्मिक क्षेत्र स्त्री पुरुष के समान महत्व को स्वीकार करते हैं । ऊपर हमने बताया है कि हमारा देश विभिन्न धर्मो का देश है। यहाँ के बच्चे अपने धर्म की शिक्षा अपने-अपने परिवार, समुदाय एवं विभिन्न समूहों में प्राप्त करते हैं। वर्तमान समय में बच्चों का चारित्रिक एवं नैतिक विकास करने के लिए धार्मिक शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास की बात पुनः सोची जाने लगी है। इस सम्बन्ध में विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विद्यालयों में छात्रों को विभिन्न उदाहरण देकर आत्मा एवं परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान लोगों की विचारधाराओं से परिचित कराया जाए। इस से छात्रों में उच्च आदर्श का निर्माण किया जा सकता है।
- नैतिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव – पुरुष एवं स्त्री वर्ग के अधिकारों को तो अलग-अलग रूप से परिभाषित किया गया है परन्तु स्त्री के साथ किसी भी प्रकार के अन्याय की अनुमति नैतिकता के आधार पर नहीं दी जाती । मन, वचन एवं कर्म से जीव मात्र को कष्ट न पहुँचाना नैतिक समाज का प्रमुख सिद्धान्त है। जो पुरुष नैतिक समाज से सम्बन्धित होते हैं वे स्त्रियों को कष्ट नहीं दे सकते हैं। इस प्रकार नैतिकता के क्षेत्र में स्त्री एवं पुरुषों के मध्य सम्मान एवं प्रेम की स्थिति देखी जाती है। कुछ लोगों का विचार है कि विद्यालयों में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से छात्रों के चारित्रिक एवं नैतिक विकास के लिए प्रयास किए जाते हैं। समय-समय पर नैतिकता से सम्बन्धित प्रवचनों का आयोजन किया जाता है। विद्यालय समाज द्वारा स्थापित ऐसी संस्था है। नैतिक क्षेत्र में लैंगिक अनुभव से सम्बन्धित विचार व्यक्त करते हुए प्रो. एस. के दुबे ने कहा है कि “नैतिक समाज में लिंग मात्र स्त्रीपुरुष के अधिकारों के वर्गीकरण में विभेद नहीं करता बल्कि स्त्री-पुरुष को समाज का • अभिन्न अंग मानकर प्रत्येक क्षेत्र में समानता स्थापित करना है।” इस प्रकार नैतिकता में लैंगिक विभेद नहीं होना चाहिए ।
- कार्यक्षेत्र में लैंगिक अनुभव- कार्यक्षेत्र में महिला पुरुष को समान अवसर दिए जाने चाहिए। कुछ समय पहले पुरुष वर्ग को कठिन कार्य तथा महिलाओं का सरल कार्य दिए जाते थे। इस प्रकार इनके कार्यों में भी भेदभाव था। उनके कार्यों के महत्व में भी अन्तर था। वर्तमान समय में दोनों ही वर्गों को अर्थात् स्त्री एवं पुरुष को समान कार्य करने के अवसर दिए जाते हैं साथ ही साथ समान वेतन भी दिया जाता है। आज समानता के अवसर में अन्तर का प्रभाव केवल पिछड़े एवं अशिक्षित समाज में ही दृष्टिगत होती है। अन्य स्थानों पर स्त्री पुरुष के कार्यक्षेत्रों में लगभग समानता देखी जा रही है।
- विभिन्न समयों में लैंगिक अनुभव- सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर वर्तमान समय तक लिंग का स्वरूप विभिन्न समयों में विविध रूपों में देखा गया है। इसका वर्णन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है-
- वैदिक काल में लैंगिक अनुभव- वैदिक काल में स्त्री-पुरुषों में विभेद किया जाता था लेकिन स्त्रियों का सम्मान के भाव से देखा जाता था, उनके साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं किया जाता था । वैदिक काल में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता की स्थिति देखी जाती है। वैदिक काल में मात्र स्त्रियों पुरुषों का विभाजन था यह नहीं था कि स्त्रियाँ को अपने भाव एवं विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता न हो। उन्हें अपने भावों एवं विचारों को प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी । वैदिक काल में स्त्री पुरुष के मध्य अभूतपूर्व समन्वय रहता था ।
- बौद्धकाल में लैंगिक अनुभव- बौद्धकाल में भी स्त्री- पुरूष में लैंगिक विभेद बहुत कम परिलक्षित होता था परन्तु अधिकार समानता, स्वतंत्रता एवं आत्म संतोष की दृष्टि से यह काल उपयुक्त माना जाता था । बौद्धकाल में धर्म के रूप में सत्य एवं अहिंसा का वातावरण था। बौद्धकाल में स्त्रियों के साथ अन्याय नहीं किया जाता था बल्कि उन्हें पुरुषों के समान सभी अधिकार प्राप्त थे ।
- मध्यकाल में लैंगिक अनुभव – स्त्री पुरुषों में सबसे अधिक विभेद मध्यकाल में परिलक्षित होता है। स्त्री एवं पुरुषों के कार्यों में भी भेदभाव किया जाता था उनके कार्यों में भी असमानता थी। स्त्रियों को केवल भोग विलास की वस्तु समझा जाता था। उनके साथ विभिन्न प्रकार के अन्याय किए जाते थे। मध्यकाल के पर्दाप्रथा के प्रचलन के कारण स्त्रियाँ घर के अन्दर रहती थीं। उनको विचारं प्रकट करने की तथा व्यावसायिक कार्य करने की अनुमति नहीं थी। इस प्रकार मध्यकाल में स्त्री पुरुष के मध्य प्रत्येक दृष्टि से भेदभाव तथा स्त्रियों की दयनीय दशा एवं . दुर्व्यवहार के लिए पुरुष वर्ग पूर्णतः उत्तरदायी था। मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति बहुत ही दयनीय थी।
- ब्रिटिश काल में लैंगिक अनुभव – ब्रिटिश काल में भी लैंगिक अनुभाव स्त्री पुरुष विभाजन से था लेकिन इस काल को महिला सुधार का काल माना जाता है। मध्यकाल में बिगड़ी स्त्रियों की दशा को सुधारने का कार्य इसी काल में हुआ। ब्रिि सरकार स्त्री एवं पुरुष के समान अधिकारों के पक्ष में थे। समाज सुधारकों द्वारा जब इस कार्य को स्वीकारा गया तो ब्रिटिश सरकार द्वारा इसका समर्थन किया गया । सती प्रथा का विरोध ब्रिटिश काल में ही किया गया तथा महिलाओं को जागरूक करने के प्रयास किए गए।. इस प्रकार ब्रिटिश काल को स्त्री-पुरुषों में समानता की दृष्टि से सर्वोत्तम माना जाता है।
- स्वतंत्रता पश्चात् लैंगिक अनुभव- भारत में स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों की दशा में उत्तरोत्तर सुधार होता गया । वर्तमान समय में लैंगिक कार्य स्त्री-पुरुष की संरचनात्मक स्थिति का ज्ञान कराने के लिए किया जाता है जिसके आधार पर स्त्रियों के लिए विशेष कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण किया जा सके। उदाहरणार्थ- कितनी बालिकाएँ वर्तमान समय में विद्यालयी सुविधाओं या विद्यालय नामांकन से वंचित है । इसका पता विद्यालय में नामांकन की स्थिति को देखकर किया जा सकता है। इस प्रकार की स्थिति में लिंग मात्र – संरचनात्मक दृष्टि से उपयोग किया जाता है। इस प्रकार स्वतंत्रता के पश्चात् से वर्तमान काल तक लिंग का प्रमुख कार्य स्त्री एवं पुरुषों के वर्गीकरण से है • जिसके आधार पर अधिकारों, विकास, समानता, स्वतंत्रता एवं लैंगिक अनुपात की स्थिति की समीक्षा की जा सके तथा राष्ट्र के विकास सभी का सहयोग लिया जा सके। उपर्युक्त तथ्यों यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न समूहों, क्षेत्रों एवं समय में लैंगिक अनुभवों का प्रयोग स्त्री-पुरुष विभाजन के लिए किया जाता रहा है लेकिन वर्तमान समय में यह विकास योजनाओं से सम्बन्धित हो गया हैं।
