1st Year

विद्यालय में लैंगिक असमानता का वर्णन कीजिए । विद्यालयों में लैंगिक संवेदनशीलता का पोषण किस प्रकार किया जा सकता है? लैंगिक समानता लाने में विभिन्न संस्थानों की भूमिका पर चर्चा कीजिए।

प्रश्न – विद्यालय में लैंगिक असमानता का वर्णन कीजिए । विद्यालयों में लैंगिक संवेदनशीलता का पोषण किस प्रकार किया जा सकता है? लैंगिक समानता लाने में विभिन्न संस्थानों की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
Describe the Gender inequality in school. How can be Encouragement of Gender seastiuity done in schools? Describe the role of Various instiutions to introduced its Gender Equality.
उत्तर – विद्यालय में लैंगिक असमानता (Gender Inequality in School)
  1. विद्यालय की पहुँच के आधार पर (On the Basis of Access to School)-सन् 1871 में डुनेडिन में लड़कियों के लिए पहला माध्यमिक विद्यालय खोला गया जो लड़कों के माध्यमिक स्कूलों के 15 वर्ष बाद खोला गया। प्राथमिक शिक्षा सन् 1977 में ही सार्वभौमिक रूप से निःशुल्क एवं अनिवार्य कर दी गई थी जिसमें बालिकाओं को प्राथमिक विद्यालय तक पहुँच स्वतः ही प्रदान कर दी गई थी लेकिन माध्यमिक विद्यालयों में लड़कियों की पहुँच के लिए एक विशेष सशक्त अभियान की आवश्यकता पड़ी।
  2. प्रतिबन्धक अधिगम (Preventive Learning)- 1917 ई. से सभी बालिकाओं के लिए उच्च शिक्षा सम्बन्धी उपयुक्त नौकरी की कमी एवं भय को दूर करने के लिए विवाह एवं मातृत्व आधारित गृह विज्ञान अनिवार्य विषय कर दिया गया। इस प्रकार 20वीं सदी के आरम्भ में समाज एवं परिवार में महिलाओं की भूमिका सम्बन्धी अवधारणाओं ने विस्तृत परिप्रेक्ष्य में प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या को आकार देना प्रारम्भ कर दिया। बालिकाओं के लिए गृह कौशल सम्बन्धी तकनीकी विद्यालय 1900 ई. में स्थापित किया गया. जिसमें लड़कियाँ टाइपिंग, आशुलिपि बुक कीपिंग आदि व्यवसाय आधारित पाठ्यचर्या से सम्बन्धित कौशल सीखने लगी। ये गृह कौशल कुछ तकनीकी विद्यालयों में सप्ताह में कई घंटे सिखाए जाते थे।
  3. उपस्थिति (Attendance )- 19वीं सदी में बालिकाओं को शिक्षित करना अभिभावकों के द्वारा समय एवं धन का अपव्यय माना जाता था। प्राथमिक एवं माध्यमिक दोनों स्तरों पर बालकों की अपेक्षा बालिकाओं का स्कूल जाना कम पसन्द किया जाता था। इसका प्रमुख कारण बालिकाओं द्वारा घरेलू कार्यों में किया जाने वाला सहयोग था। लोगों की धारणा बन गई थी कि उनकी बेटियों विवाह करके अपना घर सँभालें एवं बच्चों का पालन पोषण करें। बालिकाओं के लिए औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता नहीं महसूस हो रही थी परन्तु सन् 1944 में जब 14 वर्ष के बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई तभी से विद्यालयों में लड़कियों की उपस्थिति लगभग लड़कों के समकक्ष पहुँची।
  4. कठिन एवं बहुमूल्य विषय (Difficult and Expensive Subject) – माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या में विभिन्न असमानताएँ थीं। लड़कियों के लिए गणित विषय को बहुत कठिन विषय माना जाता था । विज्ञान विषय को भी लड़कियों के पढ़ने के लिए कम महत्त्व दिया जाता था। इसका मुख्य कारण इन विषयों में प्रशिक्षित महिला अध्यापिकाओं की कमी सबसे बड़ी समस्या थी।
  5. विषय आधारित प्रतिबन्धिता (Subject-Based Restrictions)- मातृत्व को प्रोत्साहित करने के अभियान के भाग के रूप में गृह विज्ञान विषय को 1911 ई. में प्रारम्भ किया गया जबकि चिकित्सा एवं कानून आधारित अध्ययन क्षेत्रों को महिलाओं के लिए लगभग समाप्त कर दिया गया था। कला एवं मानविकी से सम्बन्धित विषयों को महिला सम्बन्धी विषय माना जाता था। यद्यपि धीरे-धीरे विकास होने के साथ-साथ 1990 के दशक में कानून, इन्जीनियरिंग एवं चिकित्सा के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई।
  6. कम अपेक्षाएँ (Less Expectations) – प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय, छात्रों में उच्च आकांक्षाओं को विकसित करने के प्रयास कर रहे थे लेकिन परम्परागत आधार पर 20वीं सदी में बहुत सी लड़कियों को निम्न आय एवं निम्न स्तरीय रोजगार की ओर अग्रसित कर दिया गया। सन् 1970 एवं 1980 के दशक में कुछ अभिभावक, शिक्षक एवं विद्यार्थी पुनः उदित नारीवादी आन्दोलनों से प्रभावित होने के कारण लड़कियों की स्कूल आधारित अपेक्षाओं एवं अध्ययन विषय सम्बन्धी सीमाओं को चुनौती प्रदान की।
  7. लड़कों के विरुद्ध भेदभाव (Discrimination Against Boys) – प्राथमिक शिक्षा स्तर पर लड़कों की शिक्षा के साथ-साथ महिला अध्यापिकाओं का आधिपत्य लड़कियों की शिक्षा को समर्थन देता महसूस किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि 1990 के दशक में जैसे ही बालिका शिक्षा के परिणाम बेहतर हुए लड़कों के साथ भेदभाव सम्बन्धी मुद्दे भी उदित हुए। इसके पीछे सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियाँ और पृष्ठभूमि भी इसके कारण बनें क्योंकि लड़कों को महिला शिक्षिकाओं द्वारा पाठन के प्रति आधारित गतिविधियाँ आकर्षित नहीं कर सकीं। 1990 ई. के शोध से यह प्रकट होता है कि शिक्षकों द्वारा पढ़ाए जाने पर लड़कों की शैक्षिक उपलब्धि में कोई कमी नहीं पाई गई।
विद्यालयों में लैंगिक संवेदनशीलता का पोषण (Encouragement of Gender Sensitivity in Schools) 
लैंगिक संवेदनशीलता लैंगिक मुद्दों को पहचानने और समझने के लिए एक प्रत्यय है। लैंगिक संवेदनशीलता लिंगों के बीच युद्ध नहीं हैं और यह पुरुषों के विरुद्ध प्रत्यय भी नहीं है। विद्यालयों में जहाँ लडके व लड़कियाँ दोनों ही पढ़ते हैं। उन दोनों में लैंगिक विभेद या असमानता न पनपे, इसके लिए यह आवश्यक है कि विद्यालयों में लैंगिक संवेदनशीलता में वृद्धि की जाए ताकि लैंगिक समानता स्थापित की जा सके। लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देने के लिए निम्न तीन स्तरों पर सतर्कता एवं नियोजन की आवश्यकता है-
  1. प्रबन्धकीय नीतियाँ – प्रबन्धकीय स्तर पर जो नीतियाँ बनाई जाए उसमें इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि लैंगिक समानता में वृद्धि करने से सम्बन्धित नीतियाँ भी बनाई जानी चाहिए, जैसे- पुरुष एवं महिलाओं में भेदभाव न करने वाली नीतियाँ ।
  2. शिक्षक-शिक्षक को कक्षा में लैंगिक तटस्थं की भूमिका निभानी चाहिए। कोई भी कार्य हो, लड़के-लड़कियों दोनों की समान भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। शिक्षकों को किसी खास लिंग के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखना चाहिए। सर्वनाम के प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिए। पढ़ाते समय He और She शब्दों को बिना किसी रूढ़िवादिता एवं पूर्वाग्रह के तटस्थ रूप में प्रयोग करना चाहिए।
  3. छात्र-छात्रों को अपने विपरीत लिंग वाले छात्रों के साथ समान व्यवहार करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। छात्रों के व्यवहार एवं सोच को लैंगिक समानता की तरफ अग्रसित करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। उपरोक्त प्रक्रियाओं एवं पहलुओं के सन्दर्भ में लैंगिक समानता को समझने के लिए इस बात की आवश्यकता है कि इन सभी प्रक्रियाओं में जो भी छात्र-छात्राएँ और शिक्षक-शिक्षिका सम्मिलित होते हैं वो ही लैंगिक असमानता को जन्म देते हैं इस प्रकार कक्षागत् परिस्थितियाँ और प्रक्रियाएँ भी लैंगिक असमानता को जन्म देती हैं।
लैंगिक समानता लाने में विभिन्न संस्थानों की भूमिका (Role of Various Institutions in Indroducing Gender Equality)
  1. परिवार की भूमिका (Role of Family) – परिवार समाजीकरण प्रक्रिया का प्रमुख तत्त्व होता है। यह प्रथम समाजीकरण संस्थान और समूह है जहाँ व्यक्ति स्वयं को एवं अपने व्यक्तित्व को एक आकार प्रदान करता है। चिभिन्न परिवारों में समाजीकरण की प्रक्रिया एक रूढ़िबद्ध वातावरण में होती है जहाँ लड़के-लड़कियों में जन्म से ही भेद किया जाता है। वैसे समाज में भी जाति, भाषा, रंग, देश, धर्म आदि के आधार पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भेदभावपूर्ण व्यवहार करता आया है। परिवार के साथ-साथ समाज में भी लैंगिकता को लेकर भेदभाव होता है। परिवार एक समाज की लघु इकाई होता है अतः इस भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास यहीं से प्रारम्भ किया जाना चाहिए। स्त्री-पुरुष दोनों ही ईश्वर की अनमोल कृतियाँ हैं फिर भी परिवार एवं समाज द्वारा दोनों में भेदभाव किया जाता है। अतः इस समस्या का समाधान करने में परिवार की भूमिका इस प्रकार होनी चाहिए-
    1. समान शिक्षा की व्यवस्था (Arrangement of Equal Education)- प्राय: परिवारों में देखा जाता है कि लड़के-लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था में भेदभाव देखने को मिलता है। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता है जिस कारण वे स्वावलम्बी नहीं बन पाती हैं। अतः समाजीकरण प्रथाओं एवं लैंगिक भेदभाव कम करने के लिए लड़कों के समान ही लड़कियों की शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
    2. समानता का व्यवहार (Behaviour of Equality) – परिवार में यदि लड़के एवं लड़कियों के प्रति समानता का व्यवहार किया जाता है तो ऐसे परिवारों में लिंग सम्बन्धी भेदभाव कम होते हैं। समानता के व्यवहार के अन्तर्गत लड़के एवं लड़कियों को पारिवारिक कार्यों में समान स्थान, समान शिक्षा समान रहन-सहन आदि प्रदान किया जाना चाहिए। इसके साथ ही परिवार के सदस्यों को ध्यान रखना चाहिए कि वे लिंगीय टिप्पणियाँ, भेदभाव, शाब्दिक निन्दा आदि न करें।
    3. सर्वांगीण विकास कार्य (Work of Allround Development)सर्वांगीण विकास से तात्पर्य सभी पक्षों के विकास से है इसके अन्तर्गत शरीर, मन तथा बुद्धि का समन्वयकारी विकास किया जाता है परिवार के सभी बच्चों का विकास एक समान रूप से किया जाना चाहिए जिससे उनमें हीनता की भावना न व्याप्त हो जाए।
    4. उच्च चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण (Good Character and Personality Building) – परिवार को अपने सभी सदस्यों के चरित्र तथा उनके व्यक्तित्व विकास के निर्माण पर बल देना चाहिए। अनेक परिवारों में बालिकाओं एवं स्त्रियों को तो बहुत अनुशासन में रखा जाता है वहीं लड़कों के लिए हर बात में छूट रहती है। ऐसी ही स्थितियों में लैंगिक मिन्नता उत्पन्न हो जाती है। अतः परिवार को चाहिए कि लड़कों एवं लड़कियों दोनों में समान रूप से चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माण करें।
    5. पारिवारिक कार्यों में समान सहभागिता (Equal Participation in Family Activities) परिवार के सभी सदस्यों के कार्यों का विभाजन उनकी रुचि के आधार पर किया जाना चाहिए न कि उनके लिंग के आधार पर। कई परिवारों में बाहरी कार्यों को लड़कों को एवं घर के कार्यों के लिए लड़कियों को दिया जाता है। इससे लड़कियाँ बाहरी कार्यों को करने में स्वयं को असहज महसूस करने लगती हैं अतः अभिभावकों को चाहिए कि वे बालिकाओं को बाहरी कार्य दें तथा लड़कों को घर के कार्यों में सम्मिलित करें।
    6. अन्धविश्वासों तथा जड़ परम्पराओं का बहिष्कार (Bycott of Superstitious Beliefs and Outdated Practices) – हमारे समाज एवं परिवार में लड़के-लड़कियों से सम्बन्धित अनेक अन्धविश्वास एवं जड़ परम्पराएँ व्याप्त है। लड़कों को वंश बढ़ाने वाला, पैतृक कर्मों, सम्पत्ति का अधिकारी, अन्त्येष्टि तथा पिण्डदान करने वाला आदि कार्यों का अधिकारी माना जाता है। परिवार को इन जड़ परम्पराओं, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए। जब सभी लोग इसके प्रति जागरूक रहेंगे तो स्त्रियों की स्थिति में स्वतः ही सुधार होने लगेगा क्योंकि ये प्रथाएँ तार्किक कसौटी पर सही नहीं होती हैं।
    7. जिम्मेदारियों का अभेदपूर्ण वितरण (Unequal Distribution of Responsibilities) परिवार में स्त्री पुरुष, लड़के-लड़कियों के मध्य लिंग के आधार पर भेदभाव न करके सभी प्रकार की जिम्मेदारियाँ बिना भेदभाव के प्रदान करनी चाहिए, जिसके लैंगिक भेदभावों में कमी आएगी।
    8. बालिकाओं के महत्त्व से अवगत कराना (To Make Aware About Importance of Girls) परिवार को चाहिए कि वह अपने बालकों को बालिकाओं के महत्त्व से परिचित कराएं जिससे वे इन पर अपना आधिपत्य जमाने के बजाए उनका सम्मान करना सीखें। बालिकाएँ ही माता, बहन, पत्नी आदि हैं और इन रूपों की उपेक्षा करके पुरुष का जीवन अपूर्ण रह जाएगा।
    9. सामाजिक वातावरण में बदलाव (Change in Social Environment)- परिवार में लड़के-लड़कियों के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। उन पारिवारिक रीतियों को परिवर्तित करने के प्रयास करने चाहिए जिनके द्वारा समाज में पिछड़ापन आए। कई परिवार मिलकर आपस में एक समाज का निर्माण करते हैं। अतः समाज सुधार की पहल परिवार से ही करनी चाहिए। परिवार को लैंगिक भेदभावों तथा महिलाओं की उन्नत स्थिति हेतु कृत संकल्प होना चाहिए जिससे सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव पूर्ण व्यवहार को समाप्त किया जा सके।
    10. बालिकाओं को आत्मप्रकाशन के अवसरों की प्रधानता (Prevalence of Self-Illumination Opportunities to Girls) परिवार में बालकों के साथ-साथ बालिकाओं को भी अपने विचारों को प्रकट करने के समान अवसर दिए जाने चाहिए जिससे वे अपने आप को हीन न समझें। आत्म-प्रकाशन का अवसर दिए जाने से उनमें हीन भावना नहीं उत्पन्न होगी। अतः परिवार को लैंगिक भेद-भाव में कमी लाने के लिए बालिकाओं एवं स्त्रियों को पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए।
    11. सशक्त बनाना ( To Empower) कई परिवारों में लड़कियों को बार-बार यह स्मरण कराया जाता है कि वे लड़कियाँ हैं उन्हें एक सीमा में रहकर कार्य . करना चाहिए परिवार के सदस्यों का ऐसा व्यवहार उनमें निराशा एवं कुण्ठा का भाव उत्पन्न कर देती है। अतः परिवार के सदस्यों को चाहिए कि वे स्त्रियों को कमजोर न समझे बल्कि उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ने के अवसर दे ।
    12. साथ-साथ रहने, कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास (Development of Tendency to Working and Living Together ) – परिवार में ही बालक साथ-साथ रहने एवं कार्य करने की जैसी प्रवृत्तियों को सीखता है। जब घर के सभी सदस्य समान कार्य करते हैं तो उनमें एक-दूसरे के प्रति आदर और सम्मान की भावना विकसित होती है। अतः परिवार के सदस्यों को चाहिए कि वे चाहे पुरुष हों या स्त्री, सभी को साथ मिलकर ही कार्य करना चाहिए ।
    13. व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा (Education of Professional Skills) परिवार को चाहिए उसके सभी सदस्य चाहे वे स्त्रियाँ, बालिकाएँ हो या पुरुष सभी योग्य, कुशल एवं आत्मनिर्भर हों। इसके लिए उन्हें व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। यह शिक्षा परिवार के लिए औपचारिक या अनौपचारिक दोनों प्रकार से उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
    14. हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग निषेध (Prohibition of the Use of Terminology Related to Inferiority) परिवार में जैसा व्यबहार सभी सदस्यों द्वारा किया जा रहा है बालक उसी प्रकार के व्यवहार का अनुकरण करता है। यदि सदस्यों द्वारा ऐसी भाषा का प्रयोग किया जा रहा है जो अनुचित है तो बालक वैसी ही भाषा सीख जाता है। अतः परिवार के सदस्यों को चाहिए कि वह सभी के लिए चाहे वह स्त्री हो या पुरुष शिष्ट भाषा का प्रयोग करना करें।
  2. जाति की भूमिका (Role of Caste ) महिलाओं की दीन-हीन दशा सुधारने, उनके प्रति होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार को रोकने में जाति महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकती है। समाज में लिंग भूमिकाओं की चुनौती में जाति की भूमिका निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट की जा सकती है-
    1. लैंगिक भेदभावों को समूल समाप्त करने के लिए सभी जातियों की महिलाओं में आत्मविश्वास भरे साथ ही साथ उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में आगे आने एवं विकास करने के लिए प्रेरित करे।
    2. सरकार द्वारा बनाए गए जातिगत आरक्षणों का लाभ सभी जातियों की महिलाओं तक पहुँचाया जाए ताकि प्रत्येक महिलाओं की स्थिति में सुधार हो सके।
    3. प्रत्येक जाति के व्यक्तियों को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखना चाहिए न कि ऊँच-नीच के रूप में साथ ही महिलाओं के प्रति विशेष ध्यान व संरक्षण का भाव रखना चाहिए।
    4. स्त्रियों को उनके पिछड़ेपन की मनोवैज्ञानिक स्थिति से बाहर लाने के लिए प्रसिद्ध अग्रणी स्त्रियों के बारे में बताना तथा उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए प्रयास करने चाहिए।
    5. उत्साही महिलाओं, बालिकाओं व युवकों को संगठित कर महिला उत्थान एवं समानता हेतु प्रयास करने चाहिए। इसके लिए सभाएँ, मेलों, नुक्कड़ नाटक, कठपुतली नृत्य एवं गीतों का आयोजन करना चाहिए।
    6. स्त्रियों को दी जाने वाली विशेष सुविधाओं के विषय में उन्हें (स्त्रियों) जानकारी प्रदान करना तथा उससे लाभ उठाने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
    7. महिलाओं से जुड़ी कुरीरियों जैसे कन्या भ्रूणहत्या, दहेज, बाल-विवाह आदि को जड़ से समाप्त करना क्योंकि इससे उनकी प्रतिष्ठा को आघात लगता है।
    8. बालिकाओं को सुरक्षात्मक वातावरण प्रदान करना तथा उनकी शिक्षा के प्रति सकारात्मक सोच का विकास करना चाहिए।
    9. महिलाओं के बीच इस बात को प्रसारित करना चाहिए कि उन्हें भी पुरुषों के समान संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं। उनके प्रति किसी भी प्रकार का भेदभाव संवैधानिक है।
    10. बन्द जातियों में खुली स्तरीकरण की अपेक्षा अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ एवं महिलाओं पर अधिक पाबन्दी होती है जिसके कारण इस जाति विशेष की स्त्रियाँ, पुरुषों से कहीं अधिक पीछे रह जाती हैं। इसके लिए सामाजिक गतिशीलता को अपनाना चाहिए।
    11. सभी जातियों की महिलाओं का आदर व सम्मान करना चाहिए।
    12. आर्थिक रूप से महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए महिला समूहों का निर्माण करना चाहिए। व्यापार, रोजगार व श्रम में महिलाओं को सहभागी बनाकर उनको पुरुषों के समकक्ष लाना चाहिए।
  3. धर्म की भूमिका (Role of Religion)- वस्तुतः धर्म मानव को नैतिक, चारित्रिक धैर्यवान, कर्त्तव्यपरायण, विवेक, सम्पन्न तथा उदार बनाता है। अतः स्त्री पुरुष के मध्य भेदभाव को समाप्त करने में भी धर्म अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है-
    1. धार्मिक कार्यों में महिलाओं की सहभागिता के सुनिश्चितीकरण के द्वारा लिंग भूमिकाओं की चुनौतियों का सामना करना चाहिए।
    2. परिवार, विद्यालय, समाज, समुदाय व राज्य आदि अभिकरणों से सहयोग प्राप्त करके धर्म को लैंगिक भेदभावों की समाप्ति का प्रयास करना चाहिए।
    3. स्त्री-पुरुष दोनों की समान सहभागिता लाने तथा लैंगिक भेदभावों में कमी लाने के लिए धर्म को आर्थिक स्वावलम्बन एवं कर्म के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए।
    4. बालिका शिक्षा व स्त्रियों की समानता दिलाने के लिए धर्म को अपने मतानुयायियों का आह्वान करना चाहिए।
    5. धर्म को अपने सभी व्यक्तियों की बुरी प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण करना चाहिए ताकि वे अनैतिक कार्यों में संलिप्त न हो जाए।
    6. प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना में धर्म को सहयोग करना चाहिए।
    7. धर्म को अपने सभी व्यक्तियों तथा अनुयायियों को सत्य की खोज के लिए प्रवृत्त करना चाहिए ताकि अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों की समाप्ति की जा सके।
    8. धर्म को अपनी शक्तियों का उपयोग समाज में जागरुकता लाने के लिए करना चाहिए।
    9. धार्मिक उपाख्यानों द्वारा महिलाओं के आदर्श चरित्र एवं महत्त्व से अवगत कराकर महिलाओं के प्रति समुचित भाव को उत्पन्न करना चाहिए।
    10. धर्म को चारित्रिक विकास एवं नैतिकता के विकास के कार्य करके असमानता का भाव कम करना चाहिए ।
  4. समाज में लिंग भूमिकाओं की चुनौती में संस्कृति की भूमिका (Role of Culture in Challenging Gendered Roles in Society) – लैंगिक विसंगतियों को समाप्त करने में संस्कृति की निम्नलिखित भूमिका होनी चाहिए-
    1. संस्कृति में नियम निर्धारण करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे समानता व स्वतन्त्रता की स्थिति अवरुद्ध न हो।
    2. सांस्कृतिक कार्यक्रमों में महिलाओं के निम्नतम प्रदर्शन पर रोक लगाई जानी चाहिए।
    3. किसी भी कार्य को महिला या पुरुष के लिए निश्चित नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस कार्य को महिला कर सकती है उस कार्य को पुरुष भी कर सकते है इसी प्रकार जिन कार्यों को पुरुष करने में सक्षम हैं उन कार्यों को महिलाएँ भी करने में सक्षम है। इस प्रकार किसी भी कार्य को करने में कोई संकोच नही करेगा इससे लैंगिक समानता का भाव पनपेगा।
    4. परिवार तथा समाज में महिलाओं व पुरुषों दोनों का निर्णय सम्बन्धी समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। क्योंकि एक अच्छा निर्णय उसे माना जाता है जिसमें दोनों की योग्यता का उपयोग किया गया हो।
    5. महिला में यदि बाहरी कार्य करने की योग्यता है तो समाज में उसका स्वागत करना चाहिए तथा उसे प्रोत्साहित करना चाहिए ।
    6. संस्कृति का विकास इस प्रकार करना चाहिए जिसमें अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं व परम्पराओं का उन्मूलन करना चाहिए स्वस्थ परम्पराओं का समावेश करना चाहिए जिससे प्रत्येक स्त्री व पुरुष को यह अनुभव हो सके कि उसको न्याय की प्राप्ति हो रही हैं।
  5. समाज में लिंग भूमिकाओं की चुनौती में मीडिया एवं प्रसिद्ध संस्कृति की भूमिका (Role of Media and Popular Culture in Challenging Gendered Roles in Society ) – वर्तमान में संचार माध्यमों की पहुँच विभिन्न रूपों में ( समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन आदि) में घर-घर तक है। अतः चाहे वह ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी क्षेत्र सभी जगह मीडिया की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह मनोरंजन के साथ-साथ विभिन्न विषयों से सम्बन्धित जागरुकता भी लाते है। प्रसिद्ध संस्कृति का क्षेत्र व्यापक होता है इसीलिए इसका प्रभाव भी व्यापक रूप से होता है। अतः इसके उपयोग द्वारा लिंग समानता तथा सर्वोत्तम लैंगिक भूमिकाओं को विकसित किया जा सकता है। इस प्रकार लिंग भूमिकाओं की चुनौती में मीडिया एवं प्रसिद्ध संस्कृति की भूमिका इस प्रकार है-
    1. प्रिन्ट मीडिया के माध्यम से महिलाओं पर पुस्तकें, कविताएँ और लेखों के द्वारा लैंगिक भेदभावों पर लोगों की संवेदना जागृत की जाती है।
    2. संचार माध्यमों के द्वारा लोगों को बालिकाओं की शिक्षा एवं उनकी सुरक्षा से सम्बन्धित बनाए गए प्रावधानों से अवगत कराया जाता है।
    3. संचार साधनों की कार्यप्रणाली में स्त्रियों की सहभागिता पुरुषों के समान ही होती है चाहे वह न्यूज प्रस्रोती हो, कार्यक्रम निर्देशक हो अथवा कार्यक्रम संचालक हो ।
    4. संचार के कुछ माध्यमों का उद्देश्य ही विभिन्न विषयों पर जागरूकता लाना, महिलाओं की सुरक्षा के लिए कार्य करना ही है। इससे भी लैंगिक भेदभावों में कमी आती है।
    5. देश के किसी भी कोने में हो रहे शोषण, अपराध तथा लैंगिक भेदभाव की खबरे इन माध्यमों के द्वारा सभी तक पहुँच जाती है जिससे आरोपी का बच निकलना कठिन हो जाता है।
    6. इन माध्यमों के द्वारा लैंगिक भेदभावों की समाप्ति के लिए सामूहिक सहमति का भाव तैयार किया जाता है।
    7. लैंगिक भेदभावों को कम करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए समय-समय पर आँकड़ों का प्रदर्शन किया जाता है।
    8. संचार के साधनों के द्वारा समाज में हो रहे लैंगिक भेदभावों की तस्वीर प्रस्तुत की जाती है तथा यह भी बताया जाता है कि इन भेदभावों का भविष्य में क्या परिणाम आयेगा।
    9. ये साधन प्रशासन एवं कानून पर दबाव भी बनाते हैं। जिससे पीड़िता को समुचित न्याय मिलता है।
    10. संचार साधन व्यक्तियों को परस्पर लिंग समस्याओं, विचारधाराओं एवं महत्त्व आदि से परिचित कराते हैं जिससे एक-दूसरे के प्रति सम्मान एवं मानवीयता का भाव विकसित होता है।
    11. फिल्मों व नाटकों का उद्देश्य मात्र धन अर्जित करना नहीं होना चाहिए बल्कि इसका उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिए। फिल्मकार को चाहिए कि वे लैंगिक असमानता को दूर करने के उपायों पर फिल्म निर्माण करे। इसमें यद्यपि उन्हें धन कम प्राप्त होगा परन्तु महिलाओं व पुरुषों दोनों की समान उपयोगिता होगी।
    12. फिल्मों व नाटकों में प्रदर्शित विभिन्न दृश्यों में स्त्री एवं पुरुष की भूमिका को संतुलित तथा सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करना चाहिए ताकि दोनों के मध्य सामंजस्य व समन्वयन की भावना उत्पन्न होगी।
    13. फिल्मों तथा नाटकों की कहानियों में महिला एवं पुरुष शक्तियों को सन्तुलित रूप प्रदर्शित होना चाहिए। इससे कोई भी पुरुष किसी भी महिला के प्रति शोषण या असमानता का विचार नहीं करेगा।
    14. विज्ञापनों में भी महिलाओं को मात्र विषय-वस्तु के रूप में प्रदर्शित नहीं करना चाहिए वरन् उसको पुरुष की तरह प्रस्तुत करना चाहिए।
    15. विज्ञापनों आदि में अश्लीलता नहीं प्रदर्शित होनी चाहिए।
    16. गीतों में भी स्त्री व पुरुष की भूमिका को सामन्जस्य पूर्ण रूप में प्रस्तुत होना चाहिए।
  6. समाज में लिंग भूमिकाओं की चुनौतियों में कानून की भूमिका (Role of Law in Challenging Gendered Roles in Society)- कानून के क्षेत्र में महिला एवं पुरुषों की भूमिकाओं को सकारात्मक तथा उपयोगी बनाने के लिए कानून द्वारा अपनी भूमिका का निर्वहन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-
    1. कानून का स्वरूप सरल तथा व्यावहारिक होना चाहिए साथ ही उसमें सत्यता तथा पारदर्शिता का समावेश होना चाहिए। इससे प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को कानून का लाभ मिल सकेगा। कानून का लाभ मिलना उनका अधिकार भी है क्योंकि कानून वस्तुतः उन्हीं के लिए बनाया गया है।
    2. निर्मित कानून के क्रियान्वयन में महिला व पुरुष दोनों को ही अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करना चाहिए। जैसे- दहेज के लिए बने कानून में दोनों अपनी वचनबद्धता दिखाए अर्थात कोई भी पुरुष दहेज न लेने के लिए वचनबद्ध तथा प्रत्येक महिला अपने पिता के घर से कोई भी सामान न ले जाने के लिए वचनबद्ध हो तो दहेज का कानून सर्वोत्तम रूप से क्रियान्वित हो सकता है।
    3. कानून के क्रियान्वयन व उसको उपयोग करने में समाज के भय को त्याग देना चाहिए। जैसे- यदि किसी महिला के प्रति उसके परिवार ने भी अपराध किया है तो उसको दण्ड दिलाने के लिए उसको बिना भय के कानून का उपयोग करना चाहिए ताकि कानून की प्रासंगिकता सिद्ध हो सके।
    4. महिलाओं व पुरुषों दोनों को कानून के स्वरूप तथा उसके उपयोग के विषय में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए तथा कानून का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
    5. कानून के प्रति लोगों में सकारात्मक भाव जाग्रत करना होगा अर्थात् उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा कि यदि उनके साथ कोई न्याय होगा तो कानून द्वारा उन्हें न्याय अवश्य प्राप्त होगा।
    6. प्राचीन काल से ही प्रशासन का कार्य महिला एवं पुरुष दोनों के द्वारा किया जाता रहा। लक्ष्मीबाई तथा रजिया सुल्तान इसकी प्रत्यक्ष उदाहरण है।
      इसी प्रकार वर्तमान में इन्दिरा गाँधी, प्रतिभा पाटिल आदि का उदाहरण देकर महिलाओं को विश्व स्तर पर अपनी प्रशासनिक योग्यता का प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। महिलाओं एवं पुरुषों दोनों को संयुक्त रूप से प्रशासनिक व्यवस्था में अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।
    7. राज्य द्वारा आर्थिक क्षेत्र में भी महिलाओं को जागरूक किया जाना चाहिए उनको अपने दायित्वों का बोध कराकर परिवार में धन के सदुपयोग पर विचार करना सिखाना होगा।
      विवेकपूर्ण ढंग से उसका उपयोग करना महिला व पुरुष दोनों का दायित्व है न कि मात्र पुरुषों का।
    8. न्यायायिक क्षेत्र का उद्देश्य सभी लोगों को सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना है। अतः महिला एवं पुरुष दोनों को सामान्य रूप से कानून व न्याय दोनों के विषय में जानकारी रखनी चाहिए जिससे चहुमुखी विकास तथा सामाजिक न्याय का वातावरण उत्पन्न हो सके तथा महिलाओं को सामाजिक न्याय की प्राप्ति हो सके।
      महिला एवं  पुरुष दोनों में जागरुकता जगानी होगी। सबसे पहले महिलाओं को यह अनुभव चाहिए कि उन्हें राष्ट्र निर्माण में अभूतपूर्व भूमिका का निर्वहन करना है ताकि राष्ट्र के द्वारा महिलाओं के प्रति सकारात्मक गतिविधियाँ संचालित हो। पुरुषों को यह स्वीकार करना चाहिए कि राष्ट्र का चहुँमुखी विकास महिलाओं के सहयोग के बगैर नहीं हो सकता।
    9. महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना होगा तथा अधिकारों का सदुपयोग करना होगा।
      पुरुषों को महिलाओं के अधिकारों में न तो हस्तक्षेप करना चाहिए तथा अपनी प्रधानता या प्रतिष्ठा का दबाव महिलाओं पर नहीं बनाना चाहिए।
    10. राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की जागरुकता में वृद्धि करनी चाहिए महिलाओं को यह अहसास कराना चाहिए कि जिस राजनीतिक पद पर वह कार्य कर रही है वह उन्हें जनता के द्वारा (उनकी योग्यता के अनुसार) दिया गया है न कि उनके परिवार के द्वारा।
      अतः उसको अपने स्वार्थ परिवार आदि को पीछे छोड़कर उसका सदुपयोग जनहित में करना चाहिए।
    11. पुरुषों के मस्तिष्क में यह विचार जगाना होगा कि उसके परिवार का कोई भी बालक व बालिका अशिक्षित रह जाता है तो उसके पूरे परिवार का विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
      महिलाओं में यह भाव जाग्रत करना होगा कि उनका प्रमुख उत्तरदायित्त्वों अपने पाल्य को शिक्षित करना है।

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