समता एवं समानता के विविध पहलुओं का वर्णन करते हुए समता एवं समानता में अन्तर स्पष्ट कीजिए । Describe the various Aspects of Equity and Equality while explaining difference between Equity and Equality.
भारतीय संविधान की धारा 15, 16, 17, 38 तथा 48 भी यह सुनिश्चित करती हैं कि राज्य व्यक्तियों के बीच जाति, धर्म, वर्ग और स्थान के आधार पर विभेद नहीं करेगा। इसके अतिरिक्त 1964–66 में प्रस्तावित शिक्षा कमीशन में डॉ. माथुर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि शिक्षा का एक प्रमुख ध्येय सभी को अवसरों की समानता प्रदान करना है जिससे कि पिछड़े और शोषित वर्गों को शिक्षा का प्रयोग कर अपनी स्थिति में सुधार करने का मौका मिले । वस्तुतः समता एवं समानता एक जटिल विचार है इसीलिए कभी-कभी इसका अर्थ समझने में हम गलती कर जाते हैं। सर्वप्रथम, हमें यह समझना चाहिए कि समता अर्थात् प्रत्येक मायने में समान होना एक कल्पना ही है जिसमें सब कुछ समान होने की बात की जाती है जबकि यह सम्भव ही नहीं है, जैसे- महिला और पुरुष के सभी मामलों में समता सम्भव नहीं है इसमें कुछ न कुछ अन्तर तो रहेगा ही, पर समानता जरूर कायम की जा सकती है।
अमेरिकी क्रान्ति (1776) और फ्रांसीसी क्रान्ति (1789 ) से पहले समाज में व्याप्त विषमता को स्वाभाविक मान लिया जाता था और उसके लिए उपयुक्त तर्क भी दिए जाते थे। परन्तु इन क्रान्तियों के बाद विषमता को मानव निर्मित माना जाने लगा और भेदभाव को समाप्त करने की माँग ज़ोर पकड़ने लगी । समानता की माँग करने वाले विचारक उन विषमताओं को दूर करने की माँग करते रहे हैं जो समाज के लिए उचित नहीं है ।
विषमताओं को दूर करने का अभिप्राय यह होता हैं कि सामाजिक परिवर्तन की माँग की जाए ताकि परम्परागत विषमताओं को समाप्त किया जा सके। इन्हीं सामाजिक परिवर्तनों की माँगों में से एक माँग है। लैंगिक आधार पर विषमता को दूर करना समानता के विचार पर आधारित है न कि समता के विचार पर कुछ विशेष अन्तरों को छोड़कर मूलभूत सुविधाओं और अधिकारों को समान रूप से विपरीत करना ही लैंगिक समानता का प्रमुख आधार है। यह सामाजिक परिवर्तनों की सभी माँगों में से सबसे महत्त्वपूर्ण है।
समानता – समानता का अर्थ है – समान व्यवहार करना । समानता का वास्तविक अर्थ है सभी को एक जैसी परिस्थितियाँ देना। हम सभी को बिल्कुल समान नहीं बना सकते लेकिन समान परिस्थितियाँ तो दी जा सकती हैं, जैसे- शिक्षा प्राप्त करने के लिए समाज के सभी लोगों को चाहे वो किसी भी जाति, धर्म या लिंग के हों, सभी को समान अधिकार दिया गया है। कानून भी सबके लिए समान एवं सभी को उपलब्ध है। लोकतान्त्रिक परिस्थितियाँ उत्पन्न करना भी समाज के लिए आवश्यक होता है ।
लोकतन्त्र बिना समानता के अधूरा है लेकिन जब समाज में किसी खास वर्ग को विशेष अधिकार मिल जाता है तथा विशेष लाभ मिलने लगता है तब समानता का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है और असमानता की स्थिति पैदा हो जाती है। उदाहरण के लिए- “सभी को एक जैसा काम मिले- यह समता है।” सभी को काम मिलने की समान परिस्थितियाँ उपलब्ध हों- यह समानता है।” समानता, समान परिस्थितियों की बजाय समान व्यवहार से ज्यादा सम्बन्धित है।
इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि कक्षा में सभी छात्र शिक्षक के लिए समान होते हैं परन्तु कुछ बच्चों के साथ कोई समस्या हो सकती है जैसे कि- दृष्टिदोष । अब कमजोर आँख वाले बच्चे को आगे बैठाना उसे अन्य छात्रों के समान अवसर प्रदान करने के लिए है न कि उसे विशेष महत्त्व प्रदान करने के लिए। इसे ही समता (Equity) कहते हैं। समान दृष्टि वाले सभी छात्रों को या तो एक साथ बैठाया जाए या उन्हें आगे बैठने के समान अवसर प्रदान किए जाएँ। इसे समानता (Equality) कहेंगे ।
- असन्तोष का अनुभव ( Feeling of Dissatisfaction)असन्तोष का अनुभव समता सिद्धान्त का विरोधी है। कोई व्यक्ति अपने परिणामों को अपने निवेश के रूप में साथ रहने वाले लोगों से समानता करता है तथा अपने को असहज अनुभव करता है तो उसे असन्तोष का अनुभव कहते हैं। यदि साथ-साथ काम करने वाले दो कार्यकर्ता आपस में एक दूसरे से यह तुलना करें कि दूसरा व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता या योगदान के कारण अधिक मान्यता एवं पारितोषिक प्राप्त करता है लेकिन दोनों ने समान रूप से गुणवत्तापूर्ण कार्य किया है, तो इससे प्रथम कार्यकर्ता में असन्तोष का भाव उत्पन्न हो जाएगा। असन्तोष का अनुभव करके वह कार्यकर्ता स्वयं को नकारा सिद्ध कर लेता है।
- दुःखद एवं निराशाजनक- जब व्यक्ति के साथ न्याय नहीं होता है तो वह दुःखी एवं निराश हो जाता है। एक ही काम के लिए यदि कर्मचारियों के साथ वेतन, पदोन्नति एवं प्रोत्साहन के आधार पर असमान व्यवहार किया जाता है तो वहाँ पर व्यक्ति अपने आपको निकम्मा एवं असमर्थ अनुभव करने लगता है जिससे कार्य में बाधा उत्पन्न हो जाती है तथा व्यक्ति अवसाद की स्थिति में चला जाता है । अतः जो व्यक्ति अपनी क्षमता तथा योग्यता के आधार पर पारितोषिक नहीं प्राप्त करता है, वह व्यक्ति आक्रोशित एवं अपमानित अनुभव करता है।
- मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार असन्तुष्ट व्यक्ति असामाजिक गतिविधियों में सरलता से लिप्त हो सकता है तथा समाज के साथ सामंजस्य स्थापित करने में हानिकारक सिद्ध हो सकता है। समाज के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए उन्हें समता प्रदान की जानी चाहिए।
- संसाधनों का वितरण करते समय व्यक्ति के साथ समान एवं उचित व्यवहार किया जाना चाहिए यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो उस समाज की कभी उन्नति नहीं होती है क्योंकि उस समाज में रहने वाले अधिकांश व्यक्तियों को समान कार्य के लिए समान अवसर एवं पारितोषिक नहीं प्रदान किया जाता है जिससे वह असन्तोष की प्रक्रिया से ग्रसित होने के कारण समाज के विकास में अपना पूर्ण योगदान नहीं देता है ।
- असमानता का तात्पर्य लैंगिक भेद से है । परम्परागत रूप से पुरुषों को समाज में उच्च स्थान प्रदान किया गया है तथा महिलाओं को गौण । इस प्रकार की परिस्थिति होने के कारण समाज की प्रथम इकाई अर्थात् परिवार अप्रभावित होता है। परिवार को समाज की मूल इकाई माना गया है जहाँ बालक बहुत से मूल्यों को सीखते हैं, जैसे- व्यावहारिक ज्ञान, रिश्तों का निर्माण करना आदि । यदि परिवार का परिवेश उत्तम नहीं होगा या परिवार में समानता का भाव नहीं होगा तो परिवार एवं समाज के सभी मुख्य कार्य प्रभावित होंगे। अतः इससे बचने के लिए समता का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
- योग्यता की भावना का विकास – यदि सभी व्यक्तियों को (चाहे वे पुरुष हों अथवा महिला किसी भी जाति, धर्म, लिंग, समुदाय के हों) शिक्षा तथा रोजगार के समान अवसर उपलब्ध होंगे तो वे एक खुशहाल जीवन जी सकेंगे एवं सन्तुष्टि प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रकार की भावना से उन्हें यह विश्वास होगा कि वे मात्र अपने परिवार के लिए ही नहीं अपितु राष्ट्र के लिए भी योग्य व्यक्ति हैं।
- भय को दूर करने के लिए – सेवाओं एवं संसाधनों के समान अवसर जब सभी व्यक्तियों को प्राप्त होंगे तो उसके मन’ से भेदभाव एवं हिंसा का भय आदि समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास कर सकेगा तथा उसी के अनुरूप अपने भाग्य का फैसला भी स्वयं कर सकेगा।
- संवेगात्मक तथा मनोवैज्ञानिक आघात से बचाव कभी-कभी कुछ कार्य स्थलों पर इरादतन कुछ नियम एवं कानून बना दिए जाते हैं। ये नियम एवं कानून किसी विशिष्ट लिंग एवं व्यक्तियों के समूह से सम्बन्धित होते हैं जिसके कारण अन्य लिंग एवं व्यक्तियों का समूह दूसरे समूह के विशेष क्षेत्र में अर्हता प्राप्त करने में विफल हो जाता है।इस प्रकार का उत्पीड़न या भेदभाव अपने आप में निम्न श्रेणी का माना जाता है एवं इससे प्रभावित व्यक्ति या समूह संवेगात्मक तथा मनोवैज्ञानिक आघातों से ग्रसित हो जाता है।
अतः इस प्रकार के परिणामों से छुटकारा पाने के लिए सभी अथ समूहों के लिए बिना किसी भेदभाव के समान रूप से नियम एवं कानून सुविचारित किए जाने चाहिए।
- लोकतन्त्र की सफलता के लिए – लोकतन्त्र को भारतीय समाज की आत्मा माना जाता है। अतः इसे सुरक्षित रखने की परम आवश्यकता है। इस प्रजातन्त्र को स्वयं एवं अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने के लिए, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमने अपने सम्पूर्ण समाज में सामाजिक एकता स्थापित कर ली है।
- समतावादी समाज की स्थापना के लिए – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अतः इस सामाजिकता को बनाए रखने के लिए समतावादी समाज की स्थापना अत्यन्त आवश्यक है। एक समतावादी समाज में सभी व्यक्ति खुशहाल तथा समृद्ध जीवन व्यतीत करते हैं एवं साथ ही साथ स्वस्थ सम्बन्धों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार समतावादी समाज के बगैर समाज में अव्यवस्था व्याप्त हो जाती है ।
- मनुष्यों के मध्य स्वस्थ सम्बन्धों के निर्माण के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं वाले व्यक्तियों में परस्पर स्वस्थ सम्बन्ध किसी भी विकसित राष्ट्र की प्रथम एवं मूल आवश्यकता है। इसके अभाव में किसी भी राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता ।स्वस्थ सम्बन्ध मात्र तभी स्थापित किए जा सकते हैं जब बिना किसी भेदभाव के सभी संसाधनों तक सभी व्यक्तियों की समान पहुँच हो क्योंकि यह समान पहुँच उनको मनोवैज्ञानिक सन्तुष्टि प्रदान करती है।
इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक रूप से सन्तुष्ट व्यक्ति निरन्तर सफलता प्राप्त करता है। अतः अपने समाज के सम्पूर्ण विकास के लिए हमें विभिन्न जातियों, धर्मो, लिंगों एवं सम्प्रदायों में स्वस्थ सम्बन्धों का निर्माण करना अत्यन्त आवश्यक है।
- निर्धनता दूर करने के लिए – निर्धनता की समस्या वर्तमान में भारत की प्रमुख समस्याओं में से एक है। यहाँ निर्धनता दूर करने के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं वे प्रायः अस्पष्ट हैं।शिक्षा एवं निर्धनता एक-दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित हैं। अतः निर्धनता के निवारण के लिए समाज को शैक्षिक तथा कार्य आधारित समानता प्रदान की जानी चाहिए।
