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स्वयं की समझ | D.El.Ed Notes in Hindi

स्वयं की समझ | D.El.Ed Notes in Hindi

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. शिक्षक के ज्ञान के सम्प्रेषण संबंधी गुण पर प्रकाश डालें ।
उत्तर–सम्प्रेषण के गुण—ओकशाट के अनुसार, अच्छे अध्यापक वही है जो ज्ञान
या जानकारी अपने छात्रों को बेहतर ढंग से सम्प्रेषित करने योग्य हों। सम्प्रेषण अनेक बातों
पर निर्भर करता है, जैसे—छात्रों की रुचि, भौतिक परिस्थितियाँ, ज्ञान का संगठन, अध्यापन
की विधि, पाठ्यवस्तु—इन सबको सँजोकर जो विषयवस्तु को शीघ्रता से सम्प्रेषित कर सके,
वही सफल अध्यापक समझा जाता है। छात्र को सम्प्रेषित पाठ्यवस्तु का मूल्यांकन किया
जा सकता है। इससे ही अध्यापक की सम्प्रेषणशीलता की जाँच की जा सकती है।
        अच्छे अध्यापक की पहचान उसके छात्र ज्यादा अच्छी तरह से कर पाते हैं, यदि बालक
को सम्प्रेषित विषय कितनी जल्दी उसके मस्तिष्क में बैठता है और कितनी देर तक उसमें
पैठ बनाये रखता है। अध्यापक के बारे में कमजोर छात्र एवं कक्षा में होशियार छात्र की
राय भिन्न भी हो सकती है । इस सम्बन्ध की जाँच का पैमाना निम्न आधार पर निकालना
चाहिए। ये भी अध्यापक के आवश्यक गुण ही हैं—
(i) विषयवस्तु में मास्टरी
(ii) प्रेरणा, अध्यापक में प्रेरणा देने की कितनी क्षमता है ?
(iii) अध्यापन के प्रति समर्पण
(iv) सहयोग अध्यापन व्यवसाय के प्रति
(v) खुशमिजाजी, यह कक्षा में भी काम आती है, समाज एवं अधिकारियों के बीच भी।
(vi) सृजनशीलता, छात्र ने यह गुण उत्पन्न करना आवश्यक है। विज्ञान प्रदर्शनी में
इसे देखा जा सकता है ।
(vii) अनुशासन, अध्यापक स्वयं एवं अपने छात्रों को भी अनुशासन में रखने की क्षमता
रखता है।
(viii) शैक्षिक मानकता
(ix) उचित प्रकार शैक्षणिक विधियाँ अपनाना ।
(x) रिपोर्ट में शीघ्रता, निर्देशानुसार चाही गई रिपोर्ट प्रस्तुत करने में शीघ्रता ।
(xi) व्यक्तिगत समय में छात्रों की मदद करना।
प्रश्न 2. अधिगम या सीखने की प्रक्रिया को संक्षेप में समझाएँ ।
उत्तर– अधिगम की प्रक्रिया―अधिगम एक व्यापक प्रक्रिया है। अधिगम की
प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है। डेशिल ने अधिगम प्रक्रिया के कुछ सोपानों का वर्णन
किया है जो निम्नलिखित हैं―
(i) अभिप्रेरणा—वह हर कार्य जिसे मनुष्य करना चाहे, किसी न किसी अभिप्रेरणा
से संचालित होता है। छात्र इसलिए पढ़ते हैं कि परीक्षा में पास होकर अच्छी नौकरी या
व्यवसाय हासिल करें। अभिप्रेरणा ही उद्देश्य की ओर ले जाने का कार्य करती है।
(ii) उद्देश्य–किसी कार्य को सीखने का कोई न कोई उद्देश्य होता है। मनुष्य का भी
अपनी आवश्कताओं के अनुसार किसी भी क्रिया को सीखने का कोई उद्देश्य होता है । मनुष्य
उस क्रिया को नहीं सीखना चाहता है जो उसके उद्देश्य की पूर्ति न करती हो । अतः व्यक्ति
का व्यवहार उद्देश्यहीन नहीं होना चाहिए।
(iii) बाधा–उद्देश्य की प्राप्ति के दौरान बाधाओं का उत्पन्न होना निश्चित होता है।
इन बाधाओं की उपस्थिति में व्यक्ति अनेकों प्रकार के संभावित व्यवहार करता है। तभी वह
इसके पश्चात् किसी उपयुक्त व्यवहार पर पहुँचता है।
(iv) विभिन्न अनुक्रियाएँ―बाधाओं को दूर करने के लिए तथा परिणामस्वरूप अपने
उद्देश्य तक पहुँचने के लिए व्यक्ति विभिन्न अनुक्रियाएँ करता है। लेकिन सभी अनुक्रियाएँ
सही नहीं होती ।
(v) पुनर्बलन—पुनर्बलन के अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ तथा तथ्य आ जाते हैं, जिनसे
विवश होकर विद्यार्थी को क्रियाएँ करनी पड़ती है। अध्यापक का आदेश, स्वयं की इच्छा,
बड़ों के सम्मान तथा सामाजिक मर्यादा से प्रभावित होकर जो कार्य किए जाते हैं, वे सभी
पुनर्बलन के अन्तर्गत आते हैं। जो भी अनुक्रिया सन्तोषजनक एवं सुखप्रद होती है, वह
पुनर्वलित हो जाती है। सभी असफल अनुक्रियाओं को भूला देना पड़ता है तथा सफल
अनुक्रिया को स्थिति का सामना करने के लिए चुन लेना पड़ता है।
(vi) एकीकरण एवं सामान्यीकरण―अधिगम की क्रिया के विभिन्न अंगों का
संगठन नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से जोड़ने के लिए किया जाता है। जब तक पूर्व एवं नवीन
ज्ञान को जोड़ा नहीं जाता, तब तक क्रिया सम्पूर्णता प्राप्त नहीं करती।
          अतः यह स्पष्ट है कि अधिगम किसी क्रिया विशेष का नाम नहीं है। अधिगम के
अन्तर्गत अनेक उप-क्रियाएँ निहित होती हैं, जो उसे पूर्णता प्रदान करती हैं।
प्रश्न 3. सीखने के कितने प्रकार हैं ?
उत्तर― हम विभिन्न विशेषों को सीखते हैं और सीखने की विधियाँ भी भिन्न-भिन्न
प्रकार की होती है। किसी सीखने में पेशियों तथा शरीर के विभिन्न अंगों का उपयोग होता
है और किसी सीखने में भाषा तथा प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। साइकिल चलाना भी
सीखना है और कविता याद करना भी सीखना है। पहला गत्यात्मक सीखना कहलाएगा और
दूसरा शाब्दिक सीखना | सीखने संबंधी विषय के स्वरूप और विधि के आधार पर सीखने
के मुख्य प्रकार निम्न हैं―
(i) कौशल सीखना,
(ii) प्रेक्षणात्मक सीखना,
(iii) शाब्दिक सीखना,
(iv) संज्ञानात्मक सीखना,
(v) संप्रत्यय सीखना आदि।
प्रश्न 4. बच्चों की सीखने की प्रक्रिया में समुदाय का क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर―परिवार के बाद बच्चों की जिन्दगी में उसके इर्द-गिर्द का परिवेश अर्थात् समुदाय
या समूह आता है। इस परिवेश को मुख्य तौर पर पड़ोस में रहने वाले परिवारों का समूह
व आस-पास की विभिन्न संस्थाएँ मिलकर बनाती है। समुदाय बच्चे के लिए परिवार के बाद
दूसरी संस्था है, जहाँ वह अपने संज्ञानात्मक जगत का विकास करता है और साथ ही साथ
अपनी भाषा का विस्तार भी करता है। सामाजिक वातावरण के दोषपूर्ण होने पर बच्चे की
सीखने की प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। समाज में व्याप्त असमानताएँ जैसे-
आर्थिक असमानता (अमीर-गरीब की भावना), लैंगिक असमानता, जाति आधारित असमानता
एवं सामाजिक कुरीतियाँ इत्यादि बच्चों में मानसिक तनाव उत्पन्न कर सकते हैं, जो उनके
अधिगम की प्रक्रिया के लिए हानिकारक सिद्ध होता है।
प्रश्न 5. अभिप्रेरणा की अवधारणा से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर—अभिप्रेरणा से अभिप्राय― एक छोटा सा पक्षी हमारी बैठक की छत के एक
कोने में अपना घोंसला बनाने के लिए कुछ सामान इकट्ठा करता है। हम उसके सामान को
बिखरे देते हैं, परंतु वह (पक्षी) फिर से पत्तों, तिनकों आदि को इकट्ठा करने लगता है और
घोंसला बनाने में लग जाता है। कौन-सी चीज उसे इतना कठिन कार्य करने के लिए प्रेरित
करती है ? इसी प्रकार हम विद्यार्थियों को परीक्षा के दिनों में आधी-आधी रात तक परिश्रम
करते हुए देखते हैं। हम देखते हैं कि एक लड़का चोट खाने के बाद भी लगातार साइकिल
सीखता रहता है, क्यों ? इतनी कठिनाइयाँ उठाने के बावजूद कोई कुछ-न-कुछ सीखने के
लिए इतना प्रयास क्यों करता है ?
        इस ‘क्यों’ का उत्तर केवल एक शब्द ‘अभिप्रेरणा’ में निहित है। पक्षी जो अपना घोंसला
बनाने में लगा हुआ है, विद्यार्थी जो आधी-आधी रात तक परिश्रम करते हैं, लड़का जो
साइकिल सीखने में लगा हुआ है—सभी अभिप्रेरणा के कारण ही अपने-अपने कामों में लगे
हुए हैं। वे इसलिए काम कर रहे हैं क्योंकि उनको ऐसा करने के लिए अभिप्रेरित किया जा
रहा है। उन्हें इस ढंग से काम करने के लिए कोई-न-कोई चीज मजबूत कर रही है, उकसा
रही है, बढ़ावा दे रही है और वे उसी के वशीभूत एक विशेष तरह का व्यवहार किए जा
रहे हैं।
         जो शक्ति तत्व तथा मूलभूत आधार उनके इस प्रकार के व्यवहार का संचालन करते
हैं, उन्हें मनोवैज्ञानिक भाषा में अभिप्रेरक की संज्ञा दी जाती है। जैसे–मोटरगाड़ी को चलाने
में पेट्रोल की भूमिका रहती है, वैसा ही अभिप्रेरणात्मक व्यवहार को एक विशेष दिशा प्रदान
करने में संबंधित अभिप्रेरकों का योगदान रहता है। व्यवहार की अभिप्रेरित करने वाले इन
मूलभूत अभिप्रेरकों को सामान्य रूप से दो व्यापक वर्ग में बाँटा जा सकता है
1. प्राथमिक अभिप्रेरक और
2. द्वितीयक अभिप्रेरक ।
प्रश्न 6. अभिप्रेरणा कितने प्रकार की होती है ?
                              अथवा,
आन्तरिक एवं बाह्य अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर–अभिप्रेरणा निम्नलिखित प्रकार की होती है :
1. प्राकृतिक या आन्तरिक अभिप्रेरणा—यह अभिप्रेरणा प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की
प्राकृतिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और प्रवृत्तियों के साथ संबंधित होती है । आंतरिक रूप
से अभिप्रेरित व्यक्ति किसी काम को इसलिए करता है क्योंकि उस काम को करने में उसे
हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। जब कोई विद्यार्थी गणित की किसी समस्या को हल करने
में आनन्द प्राप्त करता है या किसी कविता के पाठ द्वारा प्रसन्नता प्राप्त करता है, तब वह
आन्तरिक रूप से अभिप्रेरित होता है। विद्यार्थी ‘स्वान्त सुखाय’ की भावना से गणित की
समस्या हल करता है या कविता का अध्ययन करता है। सीखने में इस प्रकार की अभिप्रेरणा
का वास्तविक महत्व होता है, क्योंकि इससे स्वाभाविक रुचि उत्पन्न होती है और अन्त तक
बनी रहती है।
2. अप्राकृतिक व बाह्य अभिप्रेरणा—इस अभिप्रेरणा में आनन्द का स्रोत कार्य में
निहित नहीं होता । इसमें व्यक्ति मानसिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए काम नहीं करता,
बल्कि कोई लक्ष्य प्राप्त करने के लिए या कोई पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कार्य करता
है। अच्छे ग्रेड या मान के लिए काम करना, रोजी कमाने के लिए कोई शिल्प सीखना,
प्रशंसा प्राप्ति के लिए काम करना, पुरस्कार एवं दण्ड आदि-सभी इस वर्ग की अभिप्रेरणा
के अन्तर्गत आते हैं।
        बाह्य अभिप्रेरणा की तुलना में आन्तरिक अभिप्रेरणा स्वाभाविक उत्साह और प्रेरणा का
साधन है। इसलिए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में इसके अच्छे परिणाम निकलते हैं। अतः
जहाँ तक संभव हो सके आन्तरिक अभिप्रेरणा का ही प्रयोग करना चाहिए। परंतु जहाँ
आन्तरिक-अभिप्रेरणा संभव न हो, बाह्य-अभिप्रेरणा का प्रयोग किया जाना चाहिए। अतः
सीखने की स्थिति तथा कार्य की प्रकृति के अनुसार अध्यापक को उचित प्रकार की
अभिप्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए ताकि विद्यार्थी सीखने की क्रियाओं में पर्याप्त रुचि ले
सकें ।
प्रश्न 7. कक्षाध्यापक के कर्त्तव्य एवं दायित्व बताएँ ।
उत्तर–कक्षाध्यापक के कर्त्तव्य और दायित्व―सामान्यतः प्रत्येक अध्यापक को
कक्षाध्यापक का उत्तरदायित्व निभाना होता है। कक्षाध्यापक प्रायः उसे कहा जाता है, जिसे
किसी कक्षा की उपस्थिति अंकन, कक्षानुशासन, छात्रों की प्रगति का लेखा-जोखा रखने,
शुल्क वसूल करने आदि का दायित्व सौंपा जाता है। इसके अतिरिक्त विषय-शिक्षक के सभी
कार्य करने ही होते हैं | राजस्थान एज्यूकेशन कोड में कक्षाध्यापक से जो अपेक्षाएँ की गई
हैं, उन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप दिया जा रहा है―
(i) बालकों का व्यक्तिगत अवधान– कक्षाध्यापक को अपनी कक्षा के प्रत्येक
बालक की प्रगति व अनुशासन पर व्यक्तिगत ध्यान रखना होता है। अभिभावकों से सम्पर्क
कर इस प्रगति से उन्हें अवगत कराने का दायित्व भी उसी का होता है।
(ii) बालकों की सर्वतोन्मुखी प्रगति पर दृष्टि― प्रत्येक बालक की शारीरिक,
मानसिक, नैतिक, शैक्षिक, सामाजिक व सांस्कृतिक प्रगति पर दृष्टि रखते हुए, उन्हें उचित
परामर्श व निर्देशन देना उसका कर्त्तव्य है।
(iii) पिछड़ व प्रतिभावान बालकों पर विशेष ध्यान रखना—यह कक्षाध्यापक का
विशेष दायित्व है।
(iv) पाठ्यक्रम सहगामी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन—छात्रों की रुचि एवं क्षमता के
आधार पर पाठ्यक्रम सहगामी प्रवृतियों को प्रोत्साहन देना कक्षाध्यापक का कर्त्तव्य है।
(v) कठिनाई व आवश्यकता पड़ने पर अभिभावकों से सहयोग लेने की अपेक्षा भी उससे
की जाती है।
(vi) छात्रों को अपनी कठिनाइयाँ रखने हेतु प्रोत्साहन देना भी उसी का दायित्व है।
(vii) छात्रों को दिए जाने वाले गृहकार्य में समन्वय कक्षाध्यापक को ही करना चाहिए
ताकि विषयाध्यापक छात्र की क्षमता एवं रुचि के अनुकूल ही गृहकार्य दे सकें।
          यह कार्य उस कक्षा के सभी विषयाध्याकों की सहमति से गृहकार्य का समय विभाग
चक्र बना कर करना चाहिए।
प्रश्न 8. अध्यापक डायरी से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर― अध्यापक डायरी – अध्यापक डायरी विद्यालय की मुख्य गतिशील शक्ति है।
उसी पर विद्यालय की सभी गतिविधियाँ निर्धारित रहती हैं। एक स्कूल का भवन कितना ही
अच्छा क्यों न हो, परंतु यदि उसके अध्यापक सुनियोजित ढंग से कार्य नहीं करते तो वह
स्कूल-स्कूल न होकर शिक्षा की दुकान बनकर रह जाता है। इसके लिए अध्यापकों को
अपने सभी कार्यों की एक सुनिश्चित योजना बनानी पड़ती है और उसी के अनुसार अपने
कार्यों की व्यवस्था करनी पड़ती है।
           अध्यापक डायरी हम उस अभिलेख को कह सकते हैं, जिसमें एक अध्यापक अपने
विद्यालय के पूरे दिन के कार्यक्रम एवं गतिविधियों का पूर्ण विवरण लिखकर रखता है। प्रत्येक
वस्तु, क्रिया एवं कार्य को याद रखने और अपने दायित्व को ठीक प्रकार से निभाने में यह
डायरी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
प्रश्न 9. सृजनात्मक चिन्तन की अवधारणा क्या है ? एक शिक्षक छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन
का विकास करने में कैसे सहायक है ?
                                           अथवा,
एक अध्यापक के रूप में आप अपने विद्यार्थियों में सृजनात्मकता का विकास किस
प्रकार करेंगे ?
                                             अथवा,
‘सृजनात्मक चिन्तन’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर― सृजनात्मक चिन्तन की अवधारणा–चिन्तन प्रक्रिया या चिन्तन शक्ति के
कारण मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ माना जाता है। चिन्तन में मानव अन्य प्राणियों की
अपेक्षा अधिक जटिल संज्ञानात्मक प्रक्रिया करता है। इस प्रकार सृजनात्मक चिन्तन एक
संज्ञानात्मक क्रिया है। विश्व की प्रगति में मानव के सृजनात्मक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण
योगदान है क्योंकि सृजनात्मक चिन्तन का उद्देश्य नवीनता का सृजन होता है। सृजनात्मक
चिन्तन में नए सम्बन्धों व साहचयों का वर्णन करते हुए वस्तुओं, घटनाओं एवं परिस्थितियों
का विश्लेषण किया जाता है। यह पूर्व स्थापित नियमों से प्रतिबन्धित नहीं होता है। व्यक्ति
प्रायः समस्याओं का निर्माण कर उससे सम्बन्धित प्रमाण जुटा कर समस्याओं का हल सुझाते
हैं।
     इस प्रकार सृजनात्मक चिन्तन एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति किसी नई
परिस्थिति का समान करने या किसी समस्या का समाधान करने में अपने पूर्व अनुभवों का
प्रयोग करता है। चिन्तन की प्रक्रिया में संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, प्रत्यय निर्माण, पूर्व अधिगम,
स्मृति आदि का समावेश होता है । सृजनात्मक चिन्तन को समस्या समाधान की ओर उन्मुख
होने वाली व्यक्ति अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान करता है। चिन्तन एक जटिल
मानसिक प्रक्रिया होने के कारण इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकती है फिर
भी कुछ मनोवैज्ञानिकों के इसके बारे में निम्नलिखित विचार हैं―
       वेलेन्टाइन के अनुसार, “सृजनात्मक चिन्तन शब्द का प्रयोग उन क्रिया के लिए किया
जाता है जिसमें शृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य अथवा उद्देश्य की ओर प्रवाहित होते हैं।”
       रॉस के अनुसार, “सृजनात्मक चिन्तन ज्ञानात्मक पक्ष की मानसिक क्रिया है।”
इन विचारों के अनुसार सृजनात्मक चिन्तन वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्त
अपनी समस्याओं का समाधान करता है। जब तक व्यक्ति की समस्या का समाधान नहीं
हो जाता, तब तक वह चिन्तन करता रहता है।
       एक शिक्षक द्वारा छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास—सृजनात्मक योग्यताएँ
मानव जाति को अन्य प्राणियों में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। इसीलिए मानव को
बौद्धिक प्राणी कहा जाता है। बालकों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास एक शिक्षक द्वारा
निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है―
(i) बालकों की जिन विषयों में अधिक रुचि होती है उन विषयों में वे अधिक ध्यान
एवं रुचि संकेन्द्रित कर लेते हैं। अतः सृजनात्मक चिन्तन के विकास हेतु ध्यान एवं रुचि
को जागृत किया जाना चाहिए।
(ii) सृजनात्मक चिन्तन अभिप्रेरणा के बिना असम्भव होता है। अतः एक शिक्षक द्वारा
छात्रों को दी जाने वाली अभिप्रेरणा जितनी सशक्त एवं प्रभावशाली होगी, सृजनात्मक चिन्तन
को उतना ही बल मिलेगा।
(iii) सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध बाह्य जगत् से भी होता है।
जितना अधिक बालकों का समाज के सम्पर्क होता है उतना ही चिन्तन भी व्यापकता एवं
गहनता प्राप्त करता है। अतः एक शिक्षक को बालक के लिए सामाजिक सम्पर्क के अवसर
जुटाने चाहिए।
(iv) सृजनात्मक चिन्तन में भिन्नता पाई जाती है। भिन्न-भिन्न बालकों की सृजनात्मक
चिन्तन प्रक्रिया उनके उद्देश्यों, परिस्थितियों या समस्याओं के अनुरूप भिन्न-भिन्न हो सकती
है। अतः एक शिक्षक को अपने शिक्षण में वैयक्तिक भिन्नताओं (Individual differences)
का ध्यान रखना चाहिए।
(v) सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया संवेगों से भी प्रभावित होती है क्योंकि चिन्तन संवेग
मुक्त स्थिति में ही बेहतर हो सकता है। संवेगों से तो चिन्तन की प्रक्रिया में बाधा पहुंचती
है। अत: एक शिक्षक को प्रयास करना चाहिए कि सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया में बालक
संबंधों से मुक्त रह सके।
(vi) भाषा, प्रतीक व चिह्नों के बिना सृजनात्मक चिन्त नहीं हो सकता हैं । अत: शिक्षण
द्वारा यह प्रयास किया जाना चाहिए कि वह इन आवश्यक साधनों या प्रत्ययों का बालकों
में विकास कर सकें।
(vii) शब्दों में प्रत्यय, प्रत्यय से अधिनियम, अधिनियम से सिद्धांत की कड़ी बनती है।
यदि एक भी कड़ी को हटा दिया जाए तो सम्पूर्ण सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया विखण्डित
हो जाती है। प्रत्यय निर्माण में निरीक्षण, विश्लेषण, अमूर्त्तकरण व सामान्यीकरण की
मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ विकसित होती हैं। अतः बालकों की शिक्षक द्वारा प्रत्यय निर्माण में
बहुत सहायता करनी चाहिए।
(viii) सृजनात्मक चिन्तन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें अनेक सरल मानसिक
प्रक्रियाएँ निहित रहती हैं। अतः एक शिक्षक को बालक की सरल मानसिक प्रक्रियाओं को
पुष्ट करने में अपना योगदान देना चाहिए।
(ix) शिक्षकों को बालकों की समस्या को समझने और उनके समाधान खोजने के लिए
प्रेरित करना चाहिए। यह उपाय बालकों में सृजनात्मक चिन्तन एवं अधिगम दोनों की
प्रक्रियाओं के विकास में योगदान देता है।
प्रश्न 10. शिक्षक के आदर्शवादिता के गुण लिखें।
उत्तर–आदर्शवादिता के गुण-एक अच्छे अध्यापक में अनेक गुण होते हैं।
अध्यापक को आदर्शवादी व्यवहारपरक होना चाहिए। जीवन शैली के प्रत्येक मामले में
आदर्शवादी होना चाहिए । समय का पाबंद हो, आदर्शवादी पहनावा हो, बातचीत करने का
ढंग समुचित हो, नैतिकता का पालन करने वाला हो, आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण हो,
सत्यभाषी हो, मितभाषी हो, छात्र-छात्राओं का हितैषी हो, सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने
वाला हो, कल्याणकारी भावना से ओत-प्रोत हो, इत्यादि ।
        आदर्श अध्यापक के रूप में उसे निम्न रूप से परिभाषित किया जा सकता है—
आदर्श अध्यापक की संकल्पना (Concept)―
(1) लक्ष्यपरक क्रियाएँ (Aim Jobs)
(2) दक्षतापरक क्रियाएँ (Skilled Jobs)
(3) कार्यपरक क्रियाएँ (Role Jobs)
     The concept of an ideal teacher may be defined as aim job, skilled job
and role job.
1. लक्ष्यपरक क्रियाएँ (Aim Jobs) – किसी भी अध्यापक का एक लक्ष्य नहीं हो
सकता। भिन्न-भिन्न अध्यापकों के लक्ष्य अलग-अलग हो सकते हैं। एक ही अध्यापक के
अनेक लक्ष्य भी हो सकते हैं। लक्ष्यपरक उद्देश्यों से तात्पर्य है, वे उद्देश्य जो अध्यापक को
अपने व्यवसाय से सम्बन्धित धारित करने होते हैं अर्थात् जो शिक्षा से सम्बन्धित एवं अध्यापन
से सम्बन्धित हो ।
             An aim job is the aim which is logically connected with job.
2. दक्षतापरक क्रियाएँ (Skilled Jobs)— शिक्षक केवल शिक्षकीय दुकान खोलने
भर से नहीं होता, केवल पढ़ाने भर से उसके कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती, अच्छा शिक्षक
वही है जो अपने छात्रों को विषय में दक्षता प्रदान करता है। इसके लिए उसे स्वयं भी विषय
में पारंगत एवं दक्ष होना चाहिए। दक्षता के अधिगम एवं आत्मसात् करने की आवश्यकता
के कारण ही बार-बार अभ्यास कराकर छात्र को दक्ष बनाया जाता है।
3. कार्यपरक क्रियाएँ (Role Jobs)―एक अच्छे अध्यापक की कक्षा तक ही
क्रियाएँ सीमित नहीं होती, उसके नियोजक के प्रति भी कुछ कर्तव्य होते हैं, जिनका उसे
निर्वहन करना होता है।
        विद्यालय सम्बन्धी नीति निर्माण ने सहयोग करना, विद्यालय संस्कृति को कायम रखना,
समय की पाबंदी बनाये रखना, विद्यालय में विभिन्न आयोजनों को संचालित करना, विद्यालय
के निर्माण कार्य, छात्रों को छात्रवृत्ति, पुस्तकें, अन्य सुविधाएँ उनके पास पहुँचाना,
पाठ्य-सहगामी क्रियाओं, खेलकूद, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं विद्यालयी उत्सवों (जैसे वार्षिक
खेलकूद), शिक्षक-अभिभावक संघ, नियोजक या अधिकारी द्वारा दिये गये निर्देशों को वहन
करते हुए विद्यालय के विकास में सहायता करना, ये सब कार्यपरक दक्षताओं के अन्तर्गत
आयेंगे। यह एक सामाजिक कार्य है। अधिकार एवं कर्तव्य इसी Role के अन्तर्गत आते
हैं, जिसके कारण ही समाज भी मानता है कि अध्यापक को विशिष्ट कार्य करना चाहिए
एवं कुछ कार्य नहीं करने चाहिए, जैसे-सड़कों पर शराब पीकर चलना, लड़ाई-झगड़ा
करना, व्यवहार ठीक न होना या चरित्रहीनता तथा नैतिकता विरुद्ध कार्य करने वाले अध्यापक
को समाज बर्दाश्त नहीं कर पाता।

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