हिन्दी का शिक्षणशास्त्र-2 (प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi
हिन्दी का शिक्षणशास्त्र-2 (प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi
S-8 हिन्दी का शिक्षणशास्त्र – 2 (प्राथमिक स्तर)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. हिन्दी भाषा सीखने की योजना का क्या अर्थ है ? इसकी आवश्यकता
एवं महत्व को स्पष्ट करें।
उत्तर― किसी भी कार्य की आशातीत सफलता के लिए हम एक रणनीति तैयार करते
हैं। उसी रणनीति के अनुसार हम अपने संसाधनों, शक्तियों और क्षमताओं आदि को
क्रियान्वयन रूप प्रदान करते हैं। यह रणनीति कार्य की सफलता सिद्धि की संभावना और
प्रतिशतता को पूर्णतः सफल बनाने में सहायता करती है। ठीक इसी प्रकार एक कक्षाकक्ष
में विषय शिक्षक द्वारा अमुक विषयवस्तु का सफल और सुदृढ़ अधिगम छात्रों तक प्रदान
कराने के उद्देश्य से शिक्षण संबंधी रणनीति तैयार की जाती है जिसे ‘सीखने की योजना’ कहा
जाता है। यह शिक्षक, छात्र और विषयवस्तु तीनों के संदर्भ में काफी सहयोगी साबित होती
है जो अधिगम को सरल, स्पष्ट, सुदृढ़ बनाकर ज्ञान को दीर्घकालिक स्वरूप प्रदान की
आवश्यकता—सीखने की योजना एक कक्षा विशेष के पाठ से संबंधित निम्नांकित
प्रश्नों का हल ढूंढने में शिक्षक की मदद करता है―
● क्या पढ़ाना है ?
● किसे पढ़ाना है ? (स्तरानुसार)
● कैसे पढ़ाना है ? (शिक्षण विधियों)
● किस प्रकार पढ़ाना है ? (शिक्षण के प्रकार नाटक, अभिनय, गायन आदि)
● क्यों पढ़ाना है ?
● विषयवस्तु का शैक्षिक और व्यवहारिक लाभ क्यों होना है ? आदि ।
विद्यालय सीखने-सिखाने की एक औपचारिक संस्था है। यहाँ पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम,
आकलन की सीमा और मानकों की मदद से औपचारिक शिक्षण प्रदान की जाती है। अतः
यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षक पाठ्य विषयवस्तु की शिक्षण किस विचार के पहले
और किसके बाद कक्षा में प्रदान करे। ऐसा करने से शिक्षण और अधिगम दोनों में क्रमबद्धता
पाई जाती है। यह मात्र सीखने की योजना के द्वारा ही संभव हो पाता है।
महत्व― हम जानते हैं कि विद्यालय आने वाला बच्चा विभिन्न ऐतिहासिक, सांस्कृतिक,
सभ्यता, सामाजिक वातावरण से संबंधित होता है। उनमें जीवन की विविधता भरी होती है।
सीखने की योजना बच्चों के विविधता भरे अनुभवों को पाठ के संदर्भ में कक्षा प्रक्रिया के
दौरान क्रियाशील बनाने में मदद करती है जिससे बच्चे आनंदित एवं उत्साहित होकर सीखने
को प्रेरित होते हैं।
बच्चों के विद्यालयी और परिवेश की भिन्नता उन्हें एक दूसरे की आदतों, आवश्यकताओं,
परंपराओं आदि से परिचय करवा कर आपसी समझ और सामंजस्य स्थापित कराती है।
सीखने की योजना इस विभिन्नता भरे वातावरण में एक उद्देश्यपूर्ण और सार्थक अधिगम को
प्रदान कराने में सक्षम होती है।
सीखने की योजना में उपयोग किये गए समय सीमा की शर्त के कारण अधिगम में
क्रमबद्धता और स्थिरता होती है। यह समय सीमा में शिक्षार्थियों को पाठ से बाहर भटकने
से रोकने में सहायक होती है। छात्रों का संदर्भ आधारित पूर्वज्ञान/पूर्वसमझ सीखने की योजन
को सफल बनाता है। पूर्वज्ञान के कारण छात्रों की रोचकता और जिज्ञासा पाठ से जुड़ी रहत
है और अधिगम की तारमम्यता भी बनी रहती है।
सीखने की योजना के लाभ/उपयोगिता–सीखने की योजना के लाभ अथवा उपयोगिता
निम्नलिखित है―
● पाठ्य विषयवस्तु के नियोजन करने से शिक्षण कार्य उद्देश्यपूर्ण होता है, जिसके
परिणामस्वरूप शिक्षार्थी पाठ के उद्देश्यों और लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से ग्रहण करते हैं।
● पाठ का नियोजन पाठदाता शिक्षक को आत्मविश्वास के साथ कक्षा में अधिगम
को धैर्य एवं पूर्ण विश्वास के साथ सम्पन्न कराने में सहायक होता है।
● छात्रों के पूर्वज्ञान आधारित अनुभवों का अनुमान लगाकर शिक्षक छात्रों के
अनुकूल कक्षा में शिक्षण प्रक्रिया को सम्पादित कराते हैं।
● पाठ का नियोजन होने से पाठ्यवस्तु का सम्पर्क और संबंध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रूप से छात्रों के जीवन से जुड़ा होता है। यह पाठ के अधिगम को सरलता और
सुस्पष्टता प्रदान कराती हैं।
● पाठ का नियोजन होने से शिक्षक पाठ सामग्री आसानी से वर्गीकृत करे उनका
समायोजन कर लेता है, जिससे पाठ का विकास सुव्यवस्थित और तर्कसंगत स्वरूप
प्रदान कर लेता है।
● पाठ नियोजन में निर्धारित किये गये समय-सीमा के कारण कक्षा-कक्ष में पाठ के
प्रत्येक प्रकार का अधिगम, कक्षा कार्य सुनिश्चित किया जाता है।
● शिक्षक को शैक्षिक मूल्यों से जुड़े प्रेरणदायक प्रश्नों का उत्तर कक्षा में ढूंढने का
समुचित अवसर पाठ के नियोजन द्वारा ही संभव हो पाता है।
● पाठ नियोजन के कारण शिक्षक शिक्षण अधिगम सामग्री (TLM) की व्यवस्था
कर उनका उपयोग पाठ को सरल, सरस, रोचक और ज्ञानवर्धक बनाने में करता है।
● पाठ का नियोजन करने के कारण पाठ का विकास योजनाबद्ध तरीके से होता है।
● छात्रों की विभिन्नतापूर्ण ज्ञान एवं समझ का सक्रिय और क्रियाशील ढंग से प्रयोग
कर उन्हें विषयवस्तु से बाँधे रखने में पाठ नियोजन सक्षम है।
● सीखने की योजना निर्माण करते समय शिक्षक विगत एवं आगामी संदर्भ के पाठों
को भी क्रमबद्ध रूप एकत्रित कर लेता है।
● पाठ योजना के कारण शिक्षक अपने शिक्षार्थियों के ज्ञान का आकलन कक्षा-कक्ष
में ही कर लेता है। वे छात्रों के अधिगम की कठिनाईयों और समस्याओं के
समाधान को ढूंढ कर अगली कक्षा में उनका सफल उपचार कर पाते हैं।
● पाठ नियोजन में प्रयोग किए जाने वाली शिक्षण प्रविधि के उचित प्रयोग से
अनावश्यक और उद्देश्यविहिन भटकाव से बचा जा सकता है।
प्रश्न 2. हिन्दी भाषा सीखने के लिए सीखने की योजना के प्रमुख बिन्दुओं का
उल्लेख करें।
उत्तर– सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण अंग है सीखने की योजना एक
उचित क्लासरूम योजना, शिक्षकों को व्यवस्थित रखेगी जिससे वे ज्यादा पढ़ा सकेंगे।
फलस्वरूप बच्चों को निश्चित उद्देश्य तक पहुँचने में आसानी होगी। एक उचित सीखने की
योजना तैयार करने में समय लगन और बच्चों की क्षमताओं को लेकर शिक्षकों की समझ
अहम् भूमिका निभाती है। जितना तैयार शिक्षक होगा उतना ही पाठ में आने वाली
अनअपेक्षित बाधाओं को वो अच्छे से निर्देशित करेगा। नीचे कुछ प्रमुख बिंदु दिए गए हैं।
जिनसे एक उचित सीखने की योजना बना सकते हैं―
(क) उद्देश्यों को रेखांकित करें—उद्देश्यों को रेखांकित करने से शिक्षक कक्षा में
प्रवेश करने से पहले अपनी शिक्षण पद्धति पर व्यवस्थित ढंग से सोचते हैं। कक्षा में प्रवेश
करने से पहले निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर जान लें :
पाठ का विषय क्या है ?
भाषा की किस क्षमता द्वारा विद्यार्थी क्या सीखें ? इत्यादि ।
(ख) मूल बात का स्पष्टीकरण देना―अधिक बच्चों का ध्यान केंद्रित करें और
सीखने की विभिन्न शैलियों को अपनाएं। शिक्षक अपनी गतिविधियों और उदहारणों द्वारा
भाषा शिक्षण की विधाओं, विषयवस्तुओं को समझाने की जो योजना बनाएंगे, आकलन करें
कि कितना समय प्रत्येक पर व्यय होगा। विस्तृत चर्चाओं और स्पष्टीकरण के लिए समय
नियोजित करें लेकिन, दूसरी समस्या पर जाने के लिए तैयार रहें। साथ ही रणनीति पहचानें
जिससे बच्चों को समझ आता हो।
(ग) बच्चे जो सीखें उसे प्रयोग में लाएँ—अब जब बच्चों ने जानकारी प्राप्त कर
ली है, तो अब शिक्षकों को एक ऐसी गतिविधि करानी है जिसमें उन्होंने जो सीखा है उसे
प्रयोग कर सकें। उदाहरण के लिए यदि उन्होंने पत्र लेखन सीखा है जो उसे लिखने के लिए
उन्हें प्रेरित करें। हालांकि, पहली बार में संभव नहीं है इसलिए पहले उन्हें प्रशिक्षण की गाड़ी
में बिठाएँ। वीडियो क्लिप, वर्कशीट, चित्र या गतिविधियों के बारे में सोचें। विभिन्न क्षमता
के बच्चों पर विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ निश्चित करें।
(घ) समीक्षा–कैसे पता करेंगे कि बच्चे सीख रहे हैं ? इसके लिए उनकी सीख को
जांचना होगा। उन प्रश्नों के बारे में सोचें जिससे उनकी समझ को जांच सकते हैं, उन्हें लिखें
और उनकी संक्षिप्त व्याख्या कर लें ताकि शिक्षक विभिन्न तरीके से प्रश्न पूछने के लिए तैयार
हो जाएं। यदि बच्चे नहीं समझ पा रहे तो जानकारी पर वापस जाएं।
(ङ) निष्कर्ष और पूर्वावलोकन का विकास करें― कक्षा में पढ़ाई गई सामग्री को
देखें और पाठ के महत्वपूर्ण बिंदु का सार तैयार करें। शिक्षक बच्चों की मदद ले सकते हैं
या सभी विद्यार्थियों से एक पेपर पर सीखा सबकुछ लिखने को कह सकते हैं। उदाहरण के
लिए यदि उन्होंने विशेषण के बारे में सीखा है तो उन्हें पाठ से संबंधित विशेषणों को लिखने
के लिए कह सकते हैं। शिक्षक बच्चों को समझ को समझने के लिए उनके उत्तरों का सहारा
ले सकते हैं फिर वो समझाएं जो बच्चों को समझ ना आया हो।
पाठ के सार के अलावा अगले पाठ के पूर्वावलोकन के साथ पाठ समाप्त करें। उदाहरण
के लिए यदि अगले पाठ में साहित्य की कोई विधा जैसे—यात्रा वृत्तांत हो तो बच्चों को स्वयं
के अनुभव से किसी यात्रा का वर्णन करने को कहकर उसे विषयवस्तु से जोड़ सकते हैं।
इस पूर्वावलोकन से बच्चों की रुचि में वृद्धि होगी और अलग-अलग विचारों से जुड़कर वृहद
सोच के साथ जुड़ सकेंगे, इत्यादि ।
प्रश्न 3. हिन्दी सीखने के लिए सीखने की योजना के प्रमुख प्रकार कौन-कौन
से हैं ? वर्णन करें।
उत्तर–किसी कार्य की सफलता का प्रतिशत तब और अधिक बढ़ जाता है जब उस
कार्य का सम्पादन योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। विद्यालय में सीखने-सिखाने का
कार्यक्रम भी योजनानुकूल और चरणबद्ध रूप में होने से शिक्षण व अधिगम सरल, स्पष्ट
तथा सुदृढ़ हो जाते हैं। अब यह स्पष्ट हो जाता है कि सीखने की योजना का निर्माण करना
एक शिक्षक के लिए क्यों आवश्यक है। सीखने की योजना तीन प्रकार के हैं—1. वार्षिक
सीखने की योजना, 2. मासिक सीखने की योजना, 3. दैनिक सीखने की योजना।
1. वार्षिक सीखने की योजना–विद्यालय में एक कक्षा विशेष में पूरे वर्ष भर के
पाठ्यक्रमनुसार हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वार्षिक सीखने की योजना
की जाती है। इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण वर्ष में क्या शिक्षण करना है ? कितना शिक्षण करना
है आदि जैसे समस्याओं को निराकरण कर शिक्षण कार्य को अवरोधमुक्त स्वरूप प्रदान किया
जाता है।
सीखने की वार्षिक योजना के अन्तर्गत हिन्दी शिक्षण के शिक्षक वर्ष विशेष का
पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, रचनात्मक कार्य, साप्ताहिक कक्षाओं की संख्या, शिक्षण दिवसों की
संख्या, उपलब्ध शिक्षण अधिगम सामग्री आदि को अपने शिक्षण में सुविधानुसार सुनिश्चित
कर लेता है। पाठ्यक्रम के अनुरूप पाठ की संख्याओं को सम्पूर्ण वर्ष की कालांशों से
विभाजित कर यह स्पष्ट और सुनिश्चित किया जाता है कि एक पाठ का अध्यापन कार्य
कितने कालांशों में पूर्ण कराना है। छात्रों में हिन्दी भाषा शिक्षण के रचनात्मक कार्य,
व्याकरण कार्य आदि की भी जगह वार्षिक सीखने की योजना में होती है। यहाँ एक बात
ध्यान देने योग्य है कि विद्यालय की स्थिति, कार्य क्षमता, शिक्षार्थियों का बौद्धिक और
मानसिक स्तर, शैक्षिक सामग्री की उपलब्धता, पाठ्यक्रमानुकूल समय सीमा का निर्धारण
आदि का विशेष रूप से समावेशन वार्षिक शिक्षक योजना में आवश्यक है।
2. मासिक सीखने की योजना―वार्षिक शिक्षण योजना के सफल संपादन और
क्रियान्वयन के उद्देश्य प्राप्ति हेतु पाठ्यक्रम के पाठों को मासिक आधार पर बांटा जाता है।
प्रत्येक माह में किन-किन पाठों को उनके उपपाठों अथवा उपइकाईयों के आधार पर शिक्षण
कराना है, इसका निर्धारण मासिक शिक्षण योजना के आधार पर होता है। प्रत्येक माह के
कार्यदिवसों की संख्या के अनुसार हिन्दी भाषा शिक्षण दिवसों की संख्यानुरूप मासिक शिक्षण
योजना का निर्माण किया जाता है। इसमें मासिक जांच परीक्षा, गतिविधियों के साथ
परियोजना कार्यों में संलिप्त दिवसों की संख्या को घटाकर मासिक शिक्षण योजना बनाई जाती
है।
मासिक शिक्षण योजना को समान रूप से गति प्रदान करने के लिए इसके क्रियान्वयन
निरंतरता का होना अति आवश्यक शर्त है। माह के अंतिम दिन यह स्पष्ट हो जाता है कि
हम मासिक शिक्षण योजना के अनुकूल पाठ्यक्रम से कितना आगे या पीछे कक्षा में चल
रहे हैं।
3. दैनिक सीखने की योजना–वार्षिक पाठ्यक्रम के पाठ का नियोजन जब कालांश
विशेष के आधार पर किया जाता है तो इसे दैनिक सीखने की योजना के नाम से जानते हैं।
यह पाठ विशेष की प्रत्येक इकाई को ध्यान में रख कर बनाई जाती है, इस कारण इसे इकाई
सीखने की योजना भी कहते हैं।
यह शिक्षण, अधिगम, आंकलन एवं मूल्यांकन की दृष्टिकोण से शिक्षार्थियों के बौद्धिक
स्तर, दक्षताओं, शिक्षण प्रक्रियाओं, शिक्षण अधिगम सामग्री के समुचित प्रयोग, छात्रों की
क्रियाशीलता आदि का दैनिक स्तर पर निर्धारण करने में सहायता कराती है। यह शिक्षण
को सरल, स्पष्ट, प्रभावी बनाकर प्रश्नों एवं उत्कंठाओं का समाधान कर अधिगम को संतुष्ट
बनाती है। पाठ्यक्रम की सफलता को सुव्यवस्थित और श्रेणीबद्ध करने का कार्य दैनिक/इकाई
सीखने की योजना द्वारा संभव है।
प्रश्न 4. हिन्दी भाषा के अंतर्गत भाषा संरचना, वर्ण, शब्द और वाक्य का वर्णन करें।
उत्तर― भाषा संरचना-भाषा-संरचना का मूलाधार संरचनात्मक पद्धति है जिस
प्रकार भवन रचना में ईट, सीमेंट, लोहा, शक्ति अर्थात् मजदूर और कारीगर की आवश्यकता
होती है, उसी प्रकार भाषा-संरचना में ध्वनि, शब्द, पद, वाक्य, और अर्थ की अपनी-अपनी
भूमिका होती है।
वर्ण–उच्चारित ध्वनि संकेतों को (वायु) ध्वनि कहा जाता हैं। जबकि लिखित ध्वनि
संकेतों को देवनागरी लिपि के अनुसार वर्ण कहा जाता है। देवनागरी लिपि में प्रत्येक ध्वनि
के लिए एक निश्चित संकेत (वर्ण) होता हैं।
हिंदी में उच्चारण की दृष्टि से वर्णों की संख्या 45 (35 व्यंजन, 10 स्वर) जबकि लेखन
की दृष्टि से कुल वर्ण 52 (39 व्यंजन, 13 स्वर) होते हैं। हिंदी भाषा में प्रयुक्त सबसे छोटी
ध्वनि वर्ण कहलाती है। यह मूल ध्वनि होती है, इसके और खण्ड नहीं हो सकते। जैसे:
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क, ख् आदि हिंदी वर्णमालाः वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते
हैं हिंदी वर्णमाला में 44 वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिंदी वर्णमाला में वर्णों
के दो प्रकार होते हैं—स्वर और व्यंजन ।
शब्द―एक या एक से अधिक वर्णों से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक ध्वनि शब्द है। जैसे―
एक वर्ण से निर्मित शब्द-न (नहीं) व (और) अनेक वर्णों से निर्मित शब्द-कुत्ता, शेर,
कमल, नयन, प्रासाद, सर्वव्यापी, परमात्मा आदि। भाषा प्रायः सार्थक शब्दों का समूह ही
होती है।
वाक्य–दो या दो से अधिक शब्दों के सार्थक समूह को वाक्य कहते हैं। उदाहरण के
लिए ‘सत्य से विजय होती है।’ एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु
‘सत्य विजय होती।’ वाक्य नहीं है क्योंकि इसका अर्थ नहीं निकलता है तथा वाक्य होने
के लिए इसका अर्थ निकलना चाहिए। जैसे—’सत्य से विजय होती है। इस प्रकार शब्दों
का व्यवस्थित रूप जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों का आदान प्रदान करता है, वाक्य
कहलाता है। एक सामान्य वाक्य में क्रमशः कर्ता, कर्म और क्रिया होते हैं।
प्रश्न 5. हिन्दी सीखने के संदर्भ में आकलन का क्या अर्थ है ? इसका सीखने
की प्रक्रिया के रूप में, शिक्षार्थी को सीखने में मदद करने के रूप में, शिक्षातंत्र को
प्रतिपुष्टि देने के रूप में तथा उत्पाद और प्रक्रिया के रूप में वर्णन करें।
उत्तर– सीखने के सन्दर्भ में आकलन का अर्थ शिक्षण की उन सभी औपचारिक तथा
अनौपचारिक प्रक्रियाओं से जुड़ा है जो एक छात्र की अधिगम के दौरान प्राप्त किए
उपलब्धियों को शैक्षणिक सत्र में लगातार मापने के लिए किया जाता है। हिन्दी शिक्षण के
संदर्भ में आकलन का अर्थ प्रत्येक छात्र की कक्षानुसार हिन्दी भाषा में प्राप्त शैक्षिक
उपलब्धियों को मापना है। ये उपलब्धियाँ उस छात्र विशेष की भाषायी कुशलताओं (सुनना,
बोलना, पढ़ना, लिखना) के संदर्भ के साथ-साथ भाषा का व्यवहारिक उपयोग कर पाने की
दिशा में ही क्यों न हो । प्रत्येक छात्र दूसरे अन्य छात्र की अपेक्षा भिन्न-भिन्न क्षमताओं और
विषमताओं को धारण किए होता है। अतः इस आधार पर उनके आकलन के मानक और
तरीके भी अलग-अलग होते हैं। आकलन कोई एकबार प्रयोग में लाई जाने वाली व्यवस्था
नहीं होती है। यह नित्य और निरंतर, कक्षाकक्ष के अंदर और बाहर चलने वाली प्रक्रिया
है जिसके आधार पर छात्रों की त्रुटियों, कमियों, बाधाओं आदि का पता लगाकर उनका
उपचारात्मक निदान किया जाता है।
आकलन का अर्थ, सीखने की प्रक्रिया के रूप में—बच्चों में सीखने के गुण उनके
जन्म से पूर्व विद्यमान होते हैं। परिवार, समाज एवं विशेष रूप से विद्यालय उनके इन्हीं
योग्यताओं के विकास हेतु मात्र अवसर प्रदान कराते हैं जिनके कारण बच्चा अच्छी तरह से
सीख सके। हिन्दी सीखने के संदर्भ में आकलन सीखने की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग
हैं विद्यालयी शिक्षण में बच्चा आकलन की इस प्रक्रिया से अछूता नहीं रह सकता है। इस
प्रक्रिया में शिक्षक हिन्दी शिक्षण करते समय इस बात का आकलन करते हैं कि बच्चे की
समझ पाठ के संदर्भ में कहाँ तक विकसित हो पाई है। क्या छात्र का पूर्व ज्ञान पठित पाठ
के साथ छात्र को जोड़ कर राख पा रहा है। क्या बच्च संदर्भों के साथ अपनी योग्यता एवं
क्षमतानुसार उचित उदाहरणों को प्रस्तुत कर पा रहा है या नहीं।
शिक्षार्थी को सीखने में मदद करने के रूप में—आकलन की प्रक्रिया के इस चरण
में शिक्षक शिक्षार्थी को सीखने में मदद करने के रूप में आकलन करता है। शिक्षक छात्र
की कमियों, कठिनाईयों, समस्याओं, अधिगम की बाधाओं को पता करते हैं। हिन्दी शिक्षण
में भाषा की आधारभूत कुशलताओं में छात्र की पहुँच एवं दक्षता की जानकारी लेना, उनके
सफल अधिगम के मार्ग की बाधाओं को चयन करना, इन समस्याओं का यथासंभव निराकरण
करना आदि आकलन को सीखने के रूप में छात्र के लिए लाभकारी बनाता है।
शिक्षातंत्र को प्रतिपुष्टि प्रदान करने के रूप में―आकलन का अर्थ मात्र छात्रों की
शैक्षिक योग्यताओं, उपलब्धियों, अवसरों का मापन नहीं है, अपितु यह विद्यालयी शिक्षातंत्र
को छात्रों की प्रतिपुष्टि (Feedback) देने का भी महत्वपूर्ण कार्य करती है। प्रतिपुष्टि प्राप्त
होने के कारण शिक्षक, विद्यालयी व्यवस्था, छात्र के माता-पिता/अभिभावक आदि के
साथ-साथ स्वयं छात्र भी हिन्दी शिक्षण आने वाली अपनी समस्याओं से अवगत होते हैं तथा
वे स्वयं इन समस्याओं का समाधान करने लगते हैं। प्रतिपुष्टि छात्रों में एक प्रेरणा भरती है
जिससे छात्र उत्साहित होकर और अधिक अच्छा करने का प्रयास करते हैं।
उत्पादन और प्रक्रिया के रूप में―हिन्दी शिक्षण के संदर्भ में आकलन का सर्वाधिक
विशेष और प्रभावशाली भूमिका उत्पाद और प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत होता है। कक्षा में
हिन्दी शिक्षण के बाद छात्र की भाषा में किस प्रकार के परिवर्तन आए, क्या छात्र इनका
उपयोग अपनी दैनिक दिनचर्या में वार्तालाप करते समय कर पा रहे हैं, क्या पठन और वाचन
में उच्चारण की शुद्धता एवं लेखन में वर्तनी की शुद्धता पर छात्र की पकड़ मजबूत हुई है,
व्याकरण के नियमों, सूत्रों, सिद्धांतों की जानकारी आदि जैसे बिन्दुओं पर छात्र की ओर से
संतोषजनक परिणाम प्राप्त हो रहे हैं अथवा नहीं। यदि अनुकूलन करते समय उत्पाद
साकारात्मक और अनुकूल परिणाम प्रदर्शित कर रहा है तब हमारी शिक्षण प्रक्रिया, कक्षा
का वातावरण, शिक्षण प्रविधि आदि अधिगम के अनुरूप है। यदि उत्पाद नाकारात्मक और
प्रतिकूल परिणाम दे रहा है तब हमें अपनी शिक्षण प्रक्रिया में बदलाव लाने की आवश्यकता है।
इस प्रकार आकलन को विभिन्न सोपानों में रखा जा सकता है। जहाँ पीले सोपान में
विभिन्न साधनों, माध्यमों का उपयोग करते समय कई प्रकार से जानकारी को प्राप्त किया
जाता है, जैसे—पर्यवेक्षण, वार्तालाप, चर्चा, परियोजना कार्य आदि ।
दूसरे सोपान द्वारा अध्यापन और अधिगम में सुधार लाने हेतु अभिलेखों को तैयार करने
की आवश्यकता है। साक्ष्य के लिए छात्र के कार्यों के नमूने एकत्रित किए जाएँ। रिपोर्ट में
विभिन्न क्षेत्र में छात्र की प्रगति दिखलाई जाए।
तीसरे सोपान में छात्र के रिपोर्ट के अनुसार शिक्षक, माता-पिता, छात्र स्वयं की उन्नति
एवं प्रगति के लिए सहायता लेने की आवश्यकता है। ऐसा करने से छात्र के माता-पिता को
छात्र की प्रगति और कमियों की जानकारी प्राप्त होती है और वे घर पर छात्र को उचित
मार्गदर्शन और कठिन परिश्रम करने हेतु प्रेरित करते हैं।
अन्त में, चतुर्थ सोपान की सहायता से शिक्षार्थी के अधिगम को विस्तार देने के लिए
अभ्यास कार्य आदि का सहारा लेकर उत्पाद अनुसार प्रक्रिया में परिवर्तन लाते हैं।
प्रश्न 6. हिन्दी भाषा शिक्षण में सीखने के संकेतकों का वर्णन करें।
उत्तर—संकेतक हमें बच्चों के प्रगति के मानदण्ड प्रदान करते हैं। संकेतक हमें यह
बताते हैं कि बच्चे ने अभी तक कितना ज्ञान व कौशल अर्जित किया है। साथ ही संकेतक
हमें यह भी बताते हैं कि बच्चे की प्रगति की दिशा क्या है। साथ ही ये आकलन के प्रति
शिक्षक व विद्यालय का नजरिया प्रस्तुत करते हैं। यह नजरिया स्थानीय आवश्यकताओं के
अनुसार अपने मानदण्डों के निर्धारण को दर्शाता है। हिंदी भाषा शिक्षण में सीखने के
संकेतकों का वर्णन निम्नलिखित हैं जो यह निर्धारित करता है इस स्तर पर बच्चे सीखने के
इन मानदंडों को प्राप्त कर चुके हों―बच्चे―
(क) सुनी अथवा पढ़ी रचनाओं (हास्य, साहसिक, सामाजिक आदि विषयों पर आधारित
कहानी, कविता आदि) की विषय-वस्तु, घटनाओं, चित्रों और पात्रों, शीर्षक आदि के बारे
में बातचीत करते हैं/प्रश्न पूछते हैं/अपनी स्वतंत्र टिप्पणी देते हैं/अपनी बात के लिए तर्क
हैं/ निष्कर्ष निकालते हैं।
(ख) अपने आस-पास घटनेवाली विभिन्न घटनाओं की बारीकियों पर ध्यान देते हुए
उन पर मौखिक रूप से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं/ प्रश्न पूछते हैं।
(ग) भाषा की बारीकियों पर ध्यान देते हुए अपनी (मौखिक) भाषा गढ़ते हैं।
(घ) विविध प्रकार की सामग्री (अखबार, बाल साहित्य, पोस्टर आदि) में आए
संवेदनशील बिंदुओं पर (मौखिक/लिखित) अभिव्यक्ति करते हैं।
(ङ) अपनी पाठ्यपुस्तक से इतर सामग्री (अखबार, बाल पत्रिका, होर्डिंग्स आदि) को
समझते हुए पढ़ते और उसके बारे में बताते हैं।
(च) विभिन्न स्थितियों और उद्देश्यों (बुलेटिन पर लगाई जानेवाली सूचना, कार्यक्रम की
रिपोर्ट, जानकारी आदि प्राप्त करने के लिए) के लिए पढ़ते और लिखते हैं।
(छ) स्वेच्छा से या शिक्षक द्वारा तय गतिविधि के अंतर्गत लेखन की प्रक्रिया की बेहतर
समझ के साथ अपने लेखन को जाँचते हैं और लेखन के उद्देश्य और पाठक के अनुसार
लेखन में बदलाव करते हैं, जैसे-किसी घटना की जानकारी के बारे में बताने के लिए, स्कूल
की पत्रिका के लिए लिखना और किसी दोस्त को पत्र लिखना।
(ज) भाषा की बारीकियों पर ध्यान देते हुए अपनी भाषा गढ़ते हैं और उसे अपने लेखन
में शामिल करते हैं।
(झ) भाषा की व्याकरणिक इकाइयों (जैसे-कारक-चिह्न, क्रिया, काल, विलोम
आदि) की पहचान करते हैं और उनके प्रति सचेत रहते हुए लिखते हैं।
(ञ) विभिन्न उद्देश्यों के लिए लिखते हुए अपने लेखन में विराम-चिह्नों, जैसे—पूर्ण
विराम, अल्प विराम, प्रश्नवाचक चिह्न, उद्धरण चिह्न का सचेत इस्तेमाल करते हैं।
(ट) स्तरानसार अन्य विषयों, व्यवसायों, कलाओं आदि (जैसे—गणित, विज्ञान,
सामाजिक अध्ययन, नृत्यकला, चिकित्सा आदि) में प्रयक्त होनेवाली शब्दावली को समझते
हैं और संदर्भ एवं स्थिति के अनुसार उनका लेखन में इस्तेमाल करते हैं।
(ठ) पाठ्यपुस्तक और उससे इतर सामग्री में आए संवेदनशील बिंदुओं पर लिखित में
अभिव्यक्ति करते हैं।
(ड) अपनी कल्पना से कहानी, कविता, पत्र आदि लिखते हैं। कविता, कहानी को
आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं, इत्यादि ।
प्रश्न 7. हिन्दी भाषा में सतत् और व्यापक मूल्यांकन की संकल्पना स्पष्ट करें।
उत्तर― मूल्यांकन दो शब्दों से मिलकर बना है, मूल्य+अंकन अर्थात् मूल्य आंकना ।
वस्तुतः जब हम किसी सामान को खरीदते हैं तब हमारे सामने उसे खरीदने के लिए एक
उद्देश्य होता हैं। मूल्य का आंकना इसी उद्देश्य पर निर्भर करता है कि किसका मूल्य आंकना
है, क्यों आंकना है, कैसे आंकना है तथा मूल्य का अंकन कर लेने के बाद किस निर्णय
पर पहुँचना है। ठीक इसी प्रकार शिक्षण का सबसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण कार्य है : शिक्षण
के उद्देश्य का निर्धारण। यह मूल्यांकन ही है जो शिक्षक को बतलाता है कि कि छात्र ने
शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति सफलतापूर्वक कहाँ तक की है। उसे ज्ञान, कौशल, अभिरूचि,
अभिवृति आदि में किस स्तर तक प्रगति हुई है ? कहाँ किस प्रकार की कमी, समस्या,
कठिनाई या बाधा उत्पन्न हुई है और इनके निदान हेतु कौन से समाधान उपयोग में लाए
जा सकते हैं। इस प्रकार शैक्षिक मूल्यांकन का वास्तविक अर्थ है “पाठ्यचर्या के उद्देश्यों
और मूल्यों और शिक्षार्थियों की प्रवृति और प्रगति का अंकन करना।”
यहाँ सतत् का अर्थ निरंतर या लगातार और व्यापक का अर्थ विस्तृत है। जब मूल्यांकन
की प्रक्रिया निरंतर और विस्तृत चलती है तब उसे सतत् और व्यापक मूल्यांकन कहते हैं।
सतत् और व्यापक मूल्यांकन में पाठ्यक्रम से संबंधित समस्त शैक्षिक क्रियाओं तथा
उपलब्धियों को आंका जाता है। कोठारी आयोग (1966) ने मूल्यांकन की संकल्पना को
स्पष्ट करते हुए यह बतलाया है कि “अब यह माना जाने लगा है कि मूल्यांकन एक सतत्
या अनवरत प्रक्रिया है । यह शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न अंग है और शिक्षण लक्ष्यों से
घनिष्ठ रूप से संबंधित है।”
हिन्दी भाषा शिक्षण में सतत् और व्यापक मूल्यांकन की आवश्यकता को नकारा नहीं
जा सकता है। हिन्दी भाषा शिक्षण में इसकी आवश्यकता निम्नांकित बिन्दुओं द्वारा समझो
जा सकती है—
(क) सतत् और व्यापक मूल्यांकन के बिना हिन्दी भाषा शिक्षण के विभिन्न उद्देश्यों और
लक्ष्यों की प्राप्ति के स्तर की जांच कर पाना अत्यंत कठिनाई भरा है।
(ख) पाठ्यक्रम की उपयुक्तता और उसमें अपेक्षित बदलाव के आधारों का अनुमान
भी सतत् और व्यापक मूल्यांकन की सहायता से ही लगाया जा सकता है।
(ग) यह एक शिक्षण विधि भी है। पाठ्यवस्तु के शिक्षण करते समय इसके द्वारा ही
अगले शिक्षण बिन्दु की ओर आगे बढ़ा जा सकता है।
(घ) शिक्षार्थियों को सीखते समय अधिगम में आने वाली समस्याओं कमियों,
कठिनाईयों आदि का पता भी सतत् और व्यापक मूल्यांकन की मदद से चल पाता है । इसी
के अनुसार शिक्षक शिक्षार्थियों को उपचारात्मक शिक्षण दे पाते हैं।
(ङ) यह सतत् और व्यापक मूल्यांकन है जिसके द्वारा शिक्षार्थियों के व्यक्तित्व,
अभिरूचि, अभिवृत्तियों आदि को समुचित मार्गदर्शन व निर्देशन प्राप्त होने के लिए एक
निश्चित आधार प्राप्त हो पाता है।
सतत् और व्यापक मूल्यांकन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो शिक्षा, शिक्षार्थी
और शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का मूल्यांकन करके उचित मार्गदर्शन प्रदान कराती है। हिन्दी
भाषा शिक्षण के अंतर्गत यह न केवल छात्र के अधिगम और व्यक्तित्व की जांच कराती है
बल्कि हिन्दी भाषा के संपूर्ण कार्यक्रम, पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या, पाठ्यपुस्तक, उद्देश्य, शिक्षण
विधियों, शैक्षिक तथा सह-शैक्षिक क्रियाओं का मूल्यांकन, परिणामों का अवलोकन तथा
आलेखन भी करती है। हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न मूल्यांकन
युक्तियों को अपनाया जाना चाहिए। ये युक्तियाँ हैं—परीक्षण, प्रेक्षण, जांच-पड़ताल और
विश्लेषण । भाषिक कौशलों के मूल्यांकन के लिए मौखिक परीक्षा विशेष रूप से महत्वपूर्ण
है, जबकि लेखन कौशलों का मूल्यांकन हम प्रश्नों की सहायता से कर सकते हैं। प्रेक्षण
युक्ति के साधन हैं—जांच सचि, निर्धारण मापनी, प्रश्नावली, साक्षात्कार आदि। इनकी मदद
से शिक्षार्थी के व्यवहार परिवर्तनों को जांचा जा सकता है।
इस प्रकार सतत् और व्यापक मूल्यांकन के आधार पर हम छात्र को लगातार सजग
और सचेत रहने के लिए प्रेरित एवं उत्साहित करते हैं। इसमें छात्र के समग्र विकास के सभी
पक्ष शामिल होते हैं। इसकी विशेषता यह है कि एक ओर मूल्यांकन में विस्तृत रूप से सीखने
की प्रक्रिया का आकलन किया जाता है तो दूसरी ओर निरंतरता पर विशेष ध्यान दिया जाता
है। परंपरागत शिक्षा व्यवस्था में भटकाव होने के बाद ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता
थी कि जिसमें छात्र अपने समस्त कौशलों का विकसित कर सके। छात्र ज्ञान, जीवन मूल्य,
तथा मानवीय आदर्शों को अपना सकें। इसका समाधान सतत् और व्यापक मूल्यांकन के
रूप में उभर कर आया। सतत् और व्यापक मूल्यांकन व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षण अधिगम
की प्रक्रिया सम्पूर्ण वर्ष भर चलती है जिससे छात्र सहज रूप से सीख सकें। इसमें मूल्यांकन
की नियमितता, अधिगम अन्रालों का समाधान, सुधारात्मक उपाय एवं स्व-मूल्यांकन के लिए
पृष्ठपोषण आवश्यक पक्ष है।
प्रश्न 8. हिन्दी भाषा शिक्षण के आकलन में प्रश्नों की क्या भूमिका है ?
उत्तर―भाषा शिक्षण में आकलन करते समय प्रश्नों की भूमिका काफी प्रभावी और
महत्वपूर्ण होती है। कक्षा में प्रश्नों को पूछते समय शिक्षक को यह पता चल जाता है कि
किस बच्चे/छात्र की अधिगम पाठ्यवस्तु में कहाँ तक सुदृढ़ और सुनिश्चित हुई है। प्रश्नों
के कारण भाषा की कक्षा में छात्रों के विभिन्न प्रकार के भाषाई कौशलों से जुड़े छोटे से छोटे
कुशलताओं की पहचान बड़ी सरलता से हो जाती है। जैसे—श्रवण में ध्वनियों के महीन
अंतर की पहचान, वाचन में ध्वनियों के उच्चारण के साथ मौखिक अभिव्यक्ति की कुशलता
में प्रगति, बोलने और लिखने की दक्षताएँ, शब्द भण्डारण आदि के साथ-साथ व्याकरण की
संरचनाओं की भी जानकारी स्वतः मिल जाती है। इस प्रकार छात्रों के भाषाई अधिगम की
कक्षाओं में प्रश्नों की सशक्त भूमिका को हम नकार नहीं सकते हैं। प्रश्नों के निम्नांकित
प्रकार होते हैं―
(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न– वस्तुनिष्ठ प्रश्न प्रश्नों के सूक्ष्मतम रूप होते हैं। ये एक शब्द,
एक वाक्य आदि की सहायता से उत्तर दिये जाते हैं। वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के प्रकार इस तरह
है―
बहुविकल्प वाले प्रश्न– ऐसे प्रश्नों में एक प्रश्न के साथ कई सारे विकल्प उत्तर के
रूप में दिये जाते हैं जिनमें मात्र एक विकल्प ही सही उत्तर होता है।
रिक्त स्थान वाले प्रश्न–ऐसे प्रश्नों में वाक्य/वाक्यों के अंदर रिक्त/खाली स्थान छोड़े
जाते हैं। छात्रों को अपनी समझ के साथ उपयुक्त शब्द का चयन कर इन रिक्त स्थानों को
भरना होता है।
अनुरूपण या मिलान―पठित पाठ के सामग्री को दो खण्डों में प्रस्तुत कर छात्रों द्वारा
प्रथम खण्ड के शब्द या वाक्य का सही मिलान दूसरे खण्ड के सही शब्द या वाक्य के साथ
करना होता है।
(ख) लघु उत्तरीय प्रश्न–लघुत्तरीय प्रश्नों के उत्तर की सीमा एक वाक्य से अधिक
(50-60 शब्दों) किन्तु सात-आठ वाक्यों के अंदर निर्धारित होती है। इनका निर्धारण इस
प्रकार किया जाता है कि इनके उत्तर देते समय छात्र को एक प्रश्न में 5 मिनट से अधिक
का समय न लगे। लघुत्तरीय प्रश्नों के अधिकाधिक प्रयोग से भाषा शिक्षक पाठ्यपुस्तक के
अधिकांश भागों की जांच सरलता और सूक्ष्मता से कर सकते हैं।
(ग) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न– ऐसे प्रश्नों में उत्तर की सीमा 20-25 वाक्यों (200-250
शब्दों) के अंदर निर्धारित की जाती है। उनके उत्तर देते समय छात्रों को 25-30 मिनट को
सीमा तय करनी चाहिए। दीर्घउत्तरीय प्रश्नों के उत्तर देते समय छात्रों का मुख्य ध्येय प्रश्न
की मांग को पूरा करने में होना चाहिए, अन्यथा विषय से विषयान्तर होने की संभावना काफी
बढ़ जाती है। ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने के कारण छात्रों में लेखन कला, शब्द भण्डारण, वर्तनी
की शुद्धिया, विराम चिह्नों का सही प्रयोग, व्याकरण में कुशलता आदि का विकास होते चला
जाता है।
(घ) निबंधात्मक प्रश्न निबंधात्मक प्रश्नों का कार्यक्षेत्र काफी विस्तृत होता है, जिस
कारण छात्रों में संशय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि उन्हें क्या और कितना लिखना है ?
प्रत्येक छात्र अपनी समझ और ज्ञान के आधार पर उत्त देता है। ठीक यही प्रस्थिति उत्तर
का मूल्यांकन करने वाले परीक्षक के साथ उत्पन्न हो जाती है। वह प्रस्तुत उत्तर को अपने
ज्ञान की कसौटी पर परख कर व्यक्तिगत अंकन करता है।
अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रश्नों की आवश्यकता अथवा उपयोगिता मात्र भाषा
शिक्षण में नहीं वरन् प्रत्येक विषय की कक्षाओं में कितनी उपयोगी और प्रभावी है। प्रश्नों
के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि छात्र विशेष की अधिगम कितनी स्पष्ट और सुदृढ़
हुर्द है अथवा उसमें कहाँ कितनी कमी रह गई है। पुनः शिक्षक उन कमियों को दूर करने
का यथासंभव प्रयास करता है।
प्रश्न 9. हिन्दी भाषा शिक्षण में आकलन का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर― मनुष्य जन्म से ही एक सामाजिक प्राणी है। अपनी आवश्यकताओं, विचारों,
भावों, अभिव्यक्ति आदि का प्रकटीकरण वह भाषा की मदद से ही करता है। दैनिक दिनचर्या
में भाषा के कौशलों (सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना) द्वारा ही काम होते हैं। विद्यालय में
जब छात्र हिन्दी भाषा का ज्ञान प्राप्त करते हैं तब उन्हें भाषा के विकास एवं प्रयोग में आने
वाली समस्याओं को पता लगाकर उनके समाधान हेतु किए गए उपचार मात्र आकलन द्वारा
ही संभव है। हिन्दी भाषा में आकलन का अर्थ भाषा के कौशलों का विकास और उसका
व्यवहारिक जीवन में आवश्यकता एवं अवसर अनुकूल प्रयोग हेतु किए गए मापन से है।
आकलन में यह मापन अधिगम में आने वाली समस्याओं का निराकरण तथा समुचित व
संतोषप्रद परिणाम प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं। यह नित्य, निरंतर, कक्षाकक्ष के अंदर
एवं बाहर, शैक्षिक तथा गैर शैक्षिक दोनों प्रकार से किया जाता है। हिन्दी भाषा शिक्षण में
आकलन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं—
(क) अधिगम की स्पष्टता और प्रगति का बोध कराने हेतु―भाषा शिक्षण में
आकलन करने से स्पष्ट हो जाता है कि छात्र का अधिगम कितना, कहाँ और किस स्तर
पर सुनिश्चित हुआ है। पठित पाठ के अधिगम की स्पष्टता से छात्र के ज्ञान में हुए प्रगति
का बोध हो पाता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित हो पाता है कि छात्र का अधिगम कहाँ तक
संपुष्ट हुई है।
(ख) शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए― किसी भी पाठ के शिक्षण से पूर्व उसके
कुछ शैक्षिक उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं। इन शैक्षिक उद्देश्यों का आकलन छात्रों के
व्यवहारगत परिवर्तनों की मदद से किया जाता हैं। जैसे-हिन्दी भाषा शिक्षण में भाषा या
व्याकरण शिक्षण कराने के बाद आकलन से यह ज्ञात हो जाता है कि छात्रों ने पठित पाठ
के शैक्षिक उद्देश्यों को अपने व्यवहारिक जीवन में कितना अपनाया है।
(ग) छात्रों की कमियों एवं योग्यताओं को ज्ञान करने हेतु―आकलन से यह पता
चल जाता है कि हिन्दी भाषा के अधिगम में छात्रों का कौन सा पक्ष (श्रवण, वाचन, पठन,
लेखन) कमजोर है अथवा वे किन-किन पक्षों में निपुण हुए हैं। आकलन छात्रों की कमियों
और उनकी योग्यताओं को ज्ञात करके उनका उपचारात्मक निराकरण करने में सहायता के
उद्देश्य से किया जाता है। यह उपचारात्मक शिक्षण की अवधारणा को बल देता है।
(घ) उचित शिक्षण―प्रविधियों के प्रयोग हेतु-पाठ्य विषयवस्तु को अधिगम के
दृष्टिकोणों से पूरा कराने के उद्देश्य से शिक्षण विधियों का चयन किया जाता है। प्रत्येक
शिक्षण विधि के प्रयोग की एक सीमा होती है। आकलन द्वारा यह स्पष्ट हो पाता है कि
अमुक शिक्षण विधि पाठ के अधिगम का संतोषप्रद रूप से सम्पन्न करा पाने में कहाँ तक
सक्षम है, आवश्यकतानुसार हम उसमें प्रयोगात्मक परिवर्तन कर सकते हैं।
(ङ) पृष्ठपोषण एवं प्रतिपुष्टि के लिए―आकलन का प्रमुख उद्देश्य छात्र की
कमियों, त्रुटियों, समस्याओं आदि से अवगत होकर उनके समाधान हेतु उचित अवसर, प्रयास,
सुझाव इत्यादि कराना है। साथ ही इन बिन्दुओं की प्रतिपुष्टि भी अंकित करना है जिससे छात्र
के माता-पिता, अभिभावक, अन्य शिक्षक के अतिरिक्त छात्र स्वयं भी इनको जानकर इनके
उपचार हेतु प्रयास करें। पृष्ठपोषण व्यवहार में परिवर्तन लाने का एक सशक्त उदाहरण है।
(च) पुनर्बलन में सहायता करने हेतु―आकलन का एक अन्य उद्देश्य है छात्र को
पुनर्बलन करना। हिन्दी शिक्षण के किसी क्षेत्र में यदि छात्र की कमी या समस्या है तो शिक्षक
उक्त छात्र को पुनर्बलित कर उस कमी या समस्या को दूर करने का प्रयास करते हैं। दूसरी
ओर छात्र की अच्छाई या अन्य योग्यता को भी पुर्बलन की सहायता से और अधिक बढ़ाई
जा सकती है। छात्रों को उत्साहित कराने के लिए पुनर्बलन आवश्यक है।
(छ) समुचित मार्गदर्शन करने के लिए― निरंतर आकलन के द्वारा ही एक शिक्षक
यह निरीक्षण कर पाता है कि छात्र मंद, प्रखर, औसत, सामान्य श्रेणी की बुद्धि वाला है।
यह श्रेणीगत विभाजन भाषा शिक्षक को प्रत्येक छात्र का समुचित मार्गदर्शन कराने में सहायता
करती है। छात्रों की अभिरूचि और उत्साह के अनुसार ही उनका व्यवसायिक एवं शैक्षिक
मार्गदर्शन किया जाता है।
(ज) शिक्षण के लाभकारी और संतोषजनक परिणाम हेतु― एक शिक्षक अपने
छात्रों का आकलन करके शैक्षिक नीति में परिवर्तन ला सकता है। यदि छात्र की रूचि हिन्दी
शिक्षण में नहीं जग रही है तब उस छात्र की रूचि को जागृत कर विषय की ओर छात्रों
का ध्यान आकर्षित कराना शिक्षक के हाथों में है। इन्हीं प्रकार के प्रयासों से शिक्षण के
लाभकारी व संतोषजनक परिणाम प्राप्त कराने का उद्देश्य आकलन के द्वारा सिद्ध होता है।
अतः स्पष्ट है कि आकलन का उद्देश्य सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं और सामग्री का
सुधार करते हुए उन लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना है जो विद्यालय के विभिन्न चरणों के लिए
निर्धारित किए जाते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि यह पता चल सके कि शिक्षार्थी
की क्षमता और उसका अधिगम किस स्तर तक विकसित हुआ है। यहाँ आकलन का अर्थ
शिक्षार्थियों का नियमित परीक्षण नहीं है बल्कि शिक्षार्थियों का अच्छा आकलन अपने दैनिक
गतिविधियों और अभ्यास की सहायता से किया जा सकता है।
प्रश्न 10. हिन्दी शिक्षण हेतु प्रारंभिक कक्षा की हिन्दी पाठ्यपुस्तक के किसी
एक अध्याय के लिए सीखने की योजना तैयार करें।
उत्तर–सीखने की योजना
शिक्षक का नाम―
कक्षा― कलांश― तिथि–
विषय – हिन्दी इकाई—5
विषयवस्तुः सच्ची मित्रता
विषय वस्तु से संबंधित पूर्व समीक्षा (शिक्षण से पहले किया जाने वाला कार्य)
1. यह विषय वस्तु इस कक्षा के पाठ्यचर्या/पाठ्यक्रम में उल्लेखित किन किन
उद्देश्यों/बिंदुओं से जुड़ा हुआ है ?
यह विषयवस्तु बच्चों में हिन्दी साहित्य के गद्य विद्या के कहानी की समझ को विकसित
करता हैं भाषा संबंधी समझ को बढ़ाने के साथ-साथ कहानी के मंचन की भी जानकारी देता
है।
2. क्या यह विषय वस्तु पूर्ववत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है ? कैसे ? यह
विषय वस्तु इस कक्षा की और किन-किन विषयों इकाइयों से जुड़ा हुआ है ? क्या मैंने इस
विषय वस्तु का पहले शिक्षण किया है? क्या मुझे विषय वस्तु से संबंधित पर्याप्त समझ है?
नहीं, यह पूर्ववत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल नहीं है। हाँ, मैंने इस विषयवस्तु
का पहले शिक्षण किया है। मुझे विषयवस्तु से संबंधित पर्याप्त समझ है। जहाँ भी कहानी
संबंधी चर्चा होगी उससे यह विषयवस्तु से जोड़ा जा सकता है।
3. विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण।
यह विषयवस्तु द्वारिका के राजा भगवान श्रीकृष्ण और उनके बालसखा सुदामा की सच्ची
मित्रता पर आधारित एक कहानी है। इसमें मित्रता की वास्तविक परीभाषा बतलाई गई है।
कि मित्रता जात-पात, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि के बंधनों से काफी ऊपर और श्रेष्ठ
है। यह बच्चों में भाषाई ज्ञान के साथ-साथ कहानी के मंचन की उत्सुक्ता भी पैदा करती है।
4. सीखने-सिखाने की विधियाँ इन विधियों को क्यों चुना गया ?
सामूहिक चर्चा से बच्चे विषयवस्तु से जुड़ेंगे। रोलप्ले से उनमें विषय की समझ बढ़ने
के साथ-साथ उनकी प्रतिभा को निखारने का भी अवसर प्राप्त होगा।
5. सीखने की योजना
40 मिनट की इस कक्षा में सर्वप्रथम 10 मिनट शिक्षक कक्षा में बच्चों से उनके कित्र
एवं उनकी मित्रता के बारें में चर्चा करेंगे जिससे बच्चे विषयवस्तु के साथ सहज होकर जुड़
जाएंगे। इसके बाद के अगले 10 मिनट कहानी का वाचन पहले शिक्षक फिर बच्चे
बारी-बारी से करेंगे। शिक्षक इस दौरान बच्चों से विषय आधारित प्रश्नों को भी पूछेंगे। इसके
बाद अगले 5 मिनट बच्चों से एक दूसरे से विषय से संबंधित प्रश्न पूछने की गतिविधि कराई
जाएगी। अंत के 15 मिनट में शिक्षक कहानी के मंचन के लिए एक टीम चयन करके बच्चों
के साथ कहानी का मंचन करवाएंगे। आवश्यकतानुसार बीच-बीच में शिक्षक बच्चों को
उचित दिशा-निर्देश भी देते रहेंगे। इस दौरान शिक्षक मूल्यांकन का कार्य भी जारी रखेंगे।
शिक्षक द्वारा स्व मूल्यांकन के सुझाव बिंदु (शिक्षण के बाद किया जाने वाला कार्य)
1. क्या विद्यार्थी ने उन उद्देश्यों को समझा जिसके लिए यह विषय वस्तु थी ? इसका
मूल्यांकन किया गया कि नहीं?
हाँ, छात्रों ने उद्देश्यों को समझा। यह उनके मूल्यांकन से स्पष्ट हो गया।
2. क्या इस विषय वस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता है? क्यों
या क्यों नहीं ?
विषयवस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता तो नहीं है, परंतु अगली
कक्षा में विषय से संबंधित और अधिक प्रश्न हल करने से छात्र और अच्छी प्रकार से सीखेंगे।
3. साथियों द्वारा पूछे गए प्रमुख सवाल क्या थे? कितने विद्यार्थियों ने सवाल पूछे ?
छात्रों द्वारा आपस में पूछे गए प्रमुख प्रश्न थे―
1. कृष्ण कहाँ के राजा थे ?
2. कृष्ण और सुदामा के गुरू का क्या नाम था ?
3. कृष्ण की पत्नी का क्या नाम था ?
4. सुदामा ने भेंट के लिए क्या ले गए ? आदि ।
लगभग 5 छात्रों ने प्रश्न पूछें।
4. आपने उन सवालों को कैसे समझाया ? क्या विद्यार्थियों को स्वयं उन सवालों का हल
करने का मौका मिला ?
छात्रों को उदाहरण की सहायता से समझाया गया। बिल्कुल छात्रों को स्वयं उन प्रश्नों
को हल करने का अवसर मिला और उन्होंने संवाद कहे।
5. विषय वस्तु के सीखने-सिखाने में किस प्रकार के संसाधनों (T L M) का प्रयोग
किया गया ? उनकी उपयोगिता क्या रही।
कहानी के मंचन एवं पात्रों को संसाधन बनाया गया। इनकी उपयोगिता छात्रों को आनंद
और मनोरंजन देने वाली रही।
6. इस विषय वस्तु को यदि दोबारा पढ़ाना हो तो आप सीखने-सिखाने की योजना में
क्या बदलाव करेंगे ?
जी नहीं, यदि इस विषयवस्तु को दोबारा पढ़ाना हो तो बच्चों को किसी अन्य कहानी
पर रोलप्ले करवाने का कार्य करेंगे।
7. इस विषय वस्तु से संबंधित कोई ऐसा सवाल जिसे आपको अपने संस्थान के विषय
विशेषज्ञ तथा मेंटर से चर्चा करने की अपेक्षा है ?
कोई नहीं।
8. कोई अन्य टिप्पणी ।
नहीं ।
प्रश्न 11. लेखन के क्या अर्थ है ? इसकी संकल्पना का वर्णन करें। लेखन का
विकास किस प्रकार होता है ?
उत्तर―भाषा की चार कौशलों: सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना में सबसे अंतिम
पड़ाव है लेखन। यह सुनना, बोलना और पढ़ना के बाद आता है। अतः यह स्पष्ट हो जाता
है कि बच्चा लेखन के पूर्व सुनने, बोलने और पढ़ने में कुशलता प्राप्त कर चुका है। यह
सम्प्रेषण की सबसे सशक्त, कारगर और दीर्घकालिक साधन है। लेखन के माध्यम से हम
अपने भावों, विचारों, अभिव्यक्तियों, संप्रत्ययों आदि को एक स्वरूप प्रदान कर सकते हैं।
संवादों को मान रूप में रखकर अपनी आने वाली पीढ़ियों तक स्थानान्तरित कर सकते हैं।
लेखन में कुशलता प्राप्त कर लेने के बाद हम भाषाई कुशलताओं को अर्जित कर लेते हैं।
लेखन की संकल्पना/अवधारणा―ध्यान देने योग्य बात यह है कि लेखन की
आवश्यकता क्यों पड़ी ? विचारों को लिपिबद्ध कर उसे भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा
सके, इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लेखन का जन्म हुआ। लेखन के लिए आवश्यक हो
जाता है कि छात्र अमूर्त प्रतीकों की मदद से विचारों व भावों को अभिव्यक्त करना जानते
हों। वर्णमाला के अक्षर अमूर्त होते हैं, क्योंकि उनकी आकृति और उनके उच्चारण के मध्य
कोई एकरूपता नहीं होती है। इस कारण अमूर्त संकेतों की मदद से संवाद की कला को
ही लेखन कहा जाता है।
लेखन का विकास―लेखन कौशल का विकास कराने के लिए आरंभिक स्तर पर
बच्चों में चित्रकारी करने के अवसर प्रदान कराकर किया जा सकता है। कक्षाकक्ष में उन्हें
भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृतियों के माध्यम से अपनी बात कहने की स्वतंत्रता देनी चाहिए।
बच्चे द्वारा बनाए गए आड़ी-तिरछी रेखाओं की माध्यम से वर्ण का ज्ञान देनी चाहिए। बच्चों
में गलतियाँ करने जैसे भयपूर्ण स्थिति को नष्ट कर उन्हें उत्साहित करने की आवश्यकता है।
प्रश्न 12. शुरूआती लेखन क्या है ? इसका विकास कैसे होता है ?
उत्तर―विद्यालय में जब बच्चों के बीच ध्वनियों को सही से पढ़ पाने की क्षमता
पूर्णरूपेण विकसित कर जाती है तब आरंभ होने वाले लेखन की प्रक्रिया की शुरूआती
लेखन/आरंभिक लेखन/प्रारंभिक लेखन कहलाती है।
पठन कौशल की कुशलता प्राप्त करने के बाद बच्चे स्वयं ही लेखन करने के प्रति
उत्साहित होने लगते हैं। यही उत्साह छात्रों को लेखन कला में समृद्ध बनाती है।
आरंभिक लेखन में बच्चों से सुंदर, स्पष्ट, व्यवस्थित और मानक रूप में लिखे जाने
की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इस अवस्था में बच्चे अपने मानसिक स्तर के अनुसार वर्णों,
अक्षरों और शब्दों को आड़ी-तिरछी रेखाओं या चित्र विशेष के रूप में लिखने का प्रयास
करता है। शुरूआती लेखन का आरंभ बच्चे के परिवेश से होना शुरू हो जाता है, जब बच्चा
परिवेश में मुद्रित वर्णों के संदर्भ में कोई खास परिकल्पना स्थापित कर लेता है। जैसे—खतरे
के निशान का चिह्न, खेलते समय संकेतों को बिस्कुट या चॉकलेट के लिफाफे को देखकर
उसके नाम को बता देना आदि।
शुरूआती लेखन का विकास―लेखन की कला भी शिक्षण का एक अभिन्न अंग
है, जो वर्णमाला के ज्ञान से संबंध रखता है। शुरूआती लेखन के विकास के लिए बच्चों
को ऐसे अवसर प्रदान किये जाएं जहाँ वे अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचा पाने व दूसरों
के विचारों को समझ पाने के व्यापक संदर्भों का सार्थक प्रयास कर सकें। शुरूआती लेखन
के विकास की प्रक्रिया जटिल आकृतियों के निर्माण से आरंभ होती है। इसी क्रम में बच्चे
आड़ी-तिरछी रेखाओं द्वारा कई प्रकार के चित्रों को बनाते हैं। यहाँ आवश्यकता इस बात
है कि लेखन में हुई अशुद्धियों को शिक्षक नजरअंदाज करके छात्रों को सुधार करने हेतु प्रेरित
करते रहें। चूँकि लेखन के समय बच्चे अमूर्त प्रतीकों के जरिए अपने विचार और भाव
व्यक्त करते हैं। यहाँ वर्णमाला के अक्षरों की आकृतियाँ एवं उनसे जुड़ी ध्वनियों के मध्य
कोई समरूपता नहीं होती है।
शुरूआती लेखन के विकास में शिक्षकों को निम्नांकित बातों पर ध्यान देने की
आवश्यकता है―
शुरूआती लेखन की प्रक्रिया का विकास बच्चे द्वारा परिवेश में बोर्ड, चार्ट, विज्ञापन,
प्रिंट आदि को देखकर आरंभ हो जाता है। अतः शिक्षक को कक्षा में बड़े-बड़े किन्तु सरल
विज्ञापनों द्वारा लेखन करानी चाहिए।
लिखना सौखने के लिए फर्श, रेत आदि प्रमुख साधन है। शुरूआती लेखन में शिक्षक
को वर्णमाला का ज्ञान इन्हीं साधनों की मदद से देनी चाहिए।
वर्णमाला चार्ट, बारहखड़ी चार्ट, सरल और बिना मात्रा वाले शब्दों को कक्षा में
लटकाकर अलग-अलग प्रकार के शब्दों का निर्माण करवाकर बच्चों के शब्द भंडार को
समृद्ध किया जा सकता है।
बच्चों को विश्वास दिलाने की आवश्यकता है कि उनके द्वारा लिखे गए बातों को कोई
पढ़ेगा। ऐसा करने से लेखन को उद्देश्य प्राप्त होता है, जो लेखन के लिए नितांत आवश्यक
है। यह शुरूआती लेखन में बच्चों को पाठकों के लिए विषयवस्तु और शैली प्रयोग हेतु प्रेरित
करेगा। शुरूआती लेखन की इस प्रक्रिया से बच्चे स्वयं शब्दों और संरचना के अर्थ को
समझने लगेंगे।
सबसे अधिक जरूरी और प्रभावशाली प्रक्रिया है―शिक्षकों का बच्चों के लेखन पर
प्रतिक्रिया। अशुद्धियाँ होने पर छात्रों का ध्यान उन पर इंगित करवाना चाहिए और सुधार
हेतु विकल्प खुले रहने चाहिए।
बच्चे जब लिखना आरंभ करते हैं तब वे कई बार अपने खुद के हिज्जे या स्व-वर्तनी
बनाते हैं, वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे शब्दों के उच्चारण को उसके बनावट का आधार
मानते हैं।
प्रश्न 13. बच्चों में लेखन क्षमता का विकास कैसे करेंगे ?
उत्तर―भाषा सीखने का एक स्वाभाविक क्रम होता है : सुनना, बोलना, पढ़ना और
लिखना। प्राथमिक स्तर से ही बच्चों में इन चारों कौशलों को विकसित करने का प्रयास
करना चाहिए। बच्चों में जैसे ही अक्षरों की पहचान व शुद्ध उच्चारण करने की क्षमता
विकसित होने लगे, उन्हें लेखन कार्य सिखाना प्रारंभ कर देना चाहिए। यहाँ आवश्यकता इस
बात पर विशेष ध्यान देने की है कि बच्चे भाषा का व्यवहारिक पक्ष पहले समझते हैं, उसका
यांत्रिक पक्ष बाद में। अतः इस बात को ध्यान में रखकर बच्चे के लेखन क्षमता के विकास
के तरीके को अपनाना चाहिए। लेखन कौशल के विकास हेतु निम्नलिखित विधियों को
उपयोग में लाया जा सकता है―
● बच्चों को लेखन तभी सिखाना आरंभ किया जाए जब उसकी अंगुलियाँ और हाथों
की मांसपेशियाँ कलम/पेंसिल पकड़ने योग्य हो जाएँ।
● आरंभ में बच्चों द्वारा कागज अथवा श्यामपट्ट पर तरह-तरह की रेखाएँ खींचने
का अभ्यास कराना चाहिए।
● बच्चों से तरह-तरह के बीजों की मदद से खेल-खेल में विभिन्न वर्गों की
आकृतियाँ बनाने का अभ्यास कराना चाहिए।
● उन्हें जमीन पर, बालू या रेत पर उंगली घुमाकर वर्णों की आकृतियों का अनुसरण
एवं अभ्यास कराना चाहिए।
● विभिन्न वर्णों की आकृतियों से बने चित्र या प्रतीक को दिखाकर उसे स्वयं बनाने
का अभ्यास कराना चाहिए।
● अक्षरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटकर एक-एक टुकड़े का अभ्यास कराएं और
साथ ही पुनः उन टुकड़ों को मिलाकर पूरा अक्षर बनवाया जाए। उदाहरण-
ग+य+अज्ञ आदि ।
● अनुलिपि, प्रतिलिपि, श्रुतिलेख आदि की सहायता से वर्णों को शुद्ध-शुद्ध लिखने
का अभ्यास कराना चाहिए।
● चित्र बनाना, रेखाचित्र से कहानी बनाकर लिखना, कहानी को आगे बढ़ाकर
लिखना, लयात्मक शब्दों से तुकबंदी, मूकचित्र कथा को अपनी कहानी प्रदान
कराना आदि जैसी गतिविधियों को प्रयोग में लाकर लेखन क्षमता को विकसित
कराया जा सकता है।
● कलम या पेंसिल को अंगूठे और मध्य अंगुली के बीच रखा जाना चाहिए तथा
तर्जनी को कलम के ऊपर से पकड़ना चाहिए। ऐसा करने से लेखन काफी सुन्दर,
स्पष्ट और सुडौल होता है।
प्रश्न 14. लेखन की चरणबद्ध प्रक्रिया को स्पष्ट करें।
उत्तर―भाषा के आधारभूत कौशलों, सु.बो.प.लि. में लिखना या लेखन अंतिम पड़ाव
है। लेखन करने से पूर्व बच्चों में सुनना, बोलना और पढ़ना जैसे कौशलों का विकास हो
चुका होता है। अर्थात् बच्चे में भाषा की समझ आ चुकी होती है। लेखन किसी भी भाषा
को कागज पर जटिल आकृतियों द्वारा लिपिबद्ध करने की कला है। लेखन में व्यक्ति अमूर्त
प्रतीकों द्वारा अपने भावों, विचारों, अभिव्यक्तियों, संदेशों आदि को व्यक्त करता है।
अमूर्तता इस कारण होती है। क्योंकि शब्दों की आकृतियाँ और उनके उच्चारण के बीच
किसी प्रकार की समरूपता नहीं होती है। जैसे-‘घर’ के उच्चारण और ‘घर’ के लेखन
के मध्य कोई समरूपता नहीं होती हैं। इस प्रकार लेखन अमूर्त प्रतीकों की मदद से अपनी
बाद को लिपिबद्ध करने की कला है।
आरंभिक अवस्था में हम बच्चों से साफ, सुन्दर, स्पष्ट और व्यवस्थित ढंग से लिख
पाने की कल्पना नहीं कर सकते हैं। आरंभिक लेखन के समय बच्चों की कोमल और
नाजुक अंगुलियों में पेंसिल पकड़ने से तकलीफ हो सकती है। इस कारण बच्चों को लेखन
सिखाने में फर्श, रेत आदि उपयुक्त व्यवस्था एवं छात्रोनुकूल साधन होती है। कभी-कभी
गीली मिट्टी की सहायता से भी शब्दों का निर्माण कराया जा सकता है। यह अवस्था लेखन
की आरंभिक और स्वतंत्र अवस्था है।
लेखन की चरणबद्ध प्रक्रियाएँ―जैसे, बच्चा लेखन का प्रयास करते चला जाता है
उसकी लेखन की प्रक्रिया भी स्वतः विकसित होते चली जाती है। लेखन की चरणबद्ध
प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं―
(क) आड़ी-तिरछी रेखाएँ―लेखन के प्रारंभिक रचण में बच्चों के द्वारा अपने मन
के विचारों और भावों का प्रकटीकरण आड़ी-तिरछी रेखाओं के माध्यम से होता है। इन
टेढ़े-मेढ़े लकीरों में बच्चों की कल्पना जगत पूरी तरह से समाया हुआ रहता है। जैसे—
एक खड़ी रेखा बच्चे के लिए पेड़, खंभा, मकान, आदमी आदि कुछ भी हो सकता है।
(ख) प्रतीकात्मक चित्र―आड़ी-तिरछी रेखाओं की मदद से निर्मित चित्रों के द्वारा
बच्चे अपने मन के भावों को व्यक्त कर देते हैं। बच्चे इन आकृतियों में स्वयं के द्वारा पढ़े
अथवा देखी गयी वस्तु को चित्ररूप में प्रदर्शित करते हैं।
(ग) स्व वर्तनी—इसमें बच्चे प्रतीकात्मक चित्रों के साथ स्वयं की वर्तनी का भी प्रयोग
करने लगते हैं। यह भाषा की मानक और शुद्ध वर्तनी न होकर बच्चों द्वारा निर्मित होती है।
उपरोक्त चरणों से आगे बढ़कर अब बच्चा परंपरागत लेखन की ओर आगे बढ़ता है।
यहाँ बच्चा शब्दानुकूल लेखन करने लगता है। जैसे—घर को घर, पुस्तक को पुस्तक आदि ।
लेखन का यह चरण बच्चों में चित्र के अनुरूप शब्दों को समायोजित करना सिखा देता है। ।
आगे प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर छात्रों में लेखन की चरणबद्ध प्रक्रियाएँ भी
बदलती जाती हैं।
● सुलेख–लेखन की प्रक्रिया में सुलेख का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। यह इन बातों
की ओर छात्रों का ध्यान खींचता है—पूर्ण, सुदर, स्पष्ट एवं सुडौल अक्षरों को लिखना,
माथाबंधन या शिरोरेखा का प्रयोग, हांशिया को छोड़ना, अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द आदि में
मध्य एक वर्ण जितना दूरी बनाना, विराम-चिह्नों का समुचित प्रयोग, इत्यादि ।
● भाषा के विभिन्न अभ्यास―लेखन की प्रभावशीलता भाषा की शुद्धता पर
आधारित होती है। इस कारण छात्रों को अधिक से अधिक भाषा संबंधी अभ्यासों में सक्रिय
रहना चाहिए। कक्षा में लिखित अभ्यास हेतु मौखिक कार्य, श्यामपट्ट का अधिक उपयोग,
वर्तनी की शुद्धता आदि का कार्य कराना चाहिए।
● वर्तनी के अभ्यास वर्तनी के अभ्यास हेतु छात्रों को मानक लिपि का समुचित
ज्ञान, उच्चारण की शुद्धता, व्याकरण के रूपों का ज्ञान होना चाहिए।
● शाब्दिक अभ्यास–वाक्यों के अनुरूप अनुकूल शब्दों का सही प्रयोग लेखन को
प्रभावी बनाता है। संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, क्रिया विशेषण, लिंग, वचन,
विभक्ति,
एकार्थी एवं समानार्थी शब्द आदि का अभ्यास कराना नितांत आवश्यक हो जाता है।
● वाक्य रचना का ज्ञान-प्रश्नों के उत्तर देकर, प्रश्नों की रचना, वाक्य के विभिन्न
रूपों, एक से दूसरे रूप में परिवर्तन, काल परिवर्तन आदि का अभ्यास कराना भी लेखन
की चरणबद्ध प्रक्रिया का अभिन्न अंग है।
● अनुच्छेद निर्माण–सुनियोजित, ऋखलाबद्ध और सम्बद्ध वाक्यों का समूह अनुच्छेद
कहलाता है। प्रत्येक अनुच्छेद को अपना विशेष भाव और विचार होता है। अतः छात्रों को
लेखन की चरणबद्ध प्रक्रिया के अंतिम चरण में अनुच्छेद लेखन कराने की जरूरत है 1
भिन्न-भिन्न विषयों पर अनुच्छेद लेखन से छात्रों में लेखन की प्रक्रिया विकसित, विस्तृत और
परिमार्जित हो पाती है।
प्रश्न 15. लिखना सिखाने के दौरान बच्चों को कार्यों पर शिक्षकों की प्रतिक्रिया
का स्वरूप कैसा होना चाहिए तथा उसका क्या महत्व है ?
उत्तर― बच्चे जैसे ही लिखना शुरू करते हैं उनका आगे बढ़ना शिक्षक की प्रतिक्रिया
पर निर्भर करता है। आज हमारे स्कूल में सिर्फ व्याकरण और अक्षर विन्यास पर ज्यादा जोर
दिया जाता है। बच्चों की कॉपियाँ लाल रंग से अंकित की हुई मिलती हैं, जो शिक्षक की
नकारात्मक प्रतिक्रिया को दिखाती है। अगर बच्चे सही लिखते हैं, तो सिर्फ टिक (सही)
चिह्न और शिक्षक का हस्ताक्षर दिखता है। ये दोनों ही खतरनाक हैं और प्रतिक्रिया
आधी-अधूरी है। बच्चों की गलतियाँ सुधारने के अलावा शिक्षक को अपने विचार भी लिखने
चाहिए, जैसे—यह आपको कुछ याद दिलाती है, यह अच्छी लिखी हुई है, और क्या लिखा
जा सकता था इत्यादि। ऐसे बहुत से तरीके हैं, जिससे उस लिखे हुए शब्द या वाक्य पर
शिक्षक अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं। वे बच्चों को लिखी हुई चीजों के बारे में बता सकते
हैं कि यह किस प्रकार बातचीत की कला है, ना कि सिर्फ एक व्याकरण और वर्णमाला
के कुछ शब्द ।
यदि शिक्षक कॉपी देखते समय सिर्फ गलतियों को गोला लगाकर उसे दिखाते हैं, तो
वे बच्चे की सिर्फ कमियाँ ही दिखा रहे हैं। ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि बच्चे के कौशल
को दिखाएँ और जहाँ पर सुधार की गुजाइश है, वहाँ पर वैकल्पिक चीजों की बात करें।
शिक्षक बच्चे की गलतियों को पहचानने में सहायता करें, जैसे कोई अक्षर विन्यास बार-बार
गलत हो रहा है, तो उससे मिलता-जुलता शब्द दें और उसे उन शब्दों में से सही शब्दों को
पहचानने के लिए प्रेरित करें। ऐसा दो-तीन बार करने से उसमें सुधार आ जाता है। यदि
शिक्षक बच्चे को गलतियाँ पहचानने में शामिल करते हैं, तो बच्चे अपने काम का मूल्यांकन
करने में सक्षम होंगे।
प्रश्न 16. लिखना सिखाने में आने वाली समस्याएँ कौन-कौन सी हैं ? उनके
समाधान के तरीके बताइए।
उत्तर–बच्चा प्राय: शिक्षकों का अनुसरण करते हुए लेखन करता है। अतः एक भाषा
शिक्षक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह लेखन से जुड़ी हुई समस्याओं को स्वयं
ढूंढकर उसका उपचारात्मक निदान निकालें। लेखन के दो पक्ष होते हैं—व्यवहारिक पक्ष और
यांत्रिक पक्ष लेखन में आने वाली प्रमुख समस्याएँ निम्नांकित हैं—
● वर्तनी संबंधी दोष–लेखन में हमें प्रायः ऐसा देखने को मिलता है कि बच्चे शब्दों
की वर्तनी (उच्चारण) संबंधी गलतियाँ करते हैं। वे दिन को दीन, पिता को पीता या पानी
को पाणि अदि लिख देते हैं। ऐसी स्थिति में जैसा बेला जाए ठीक ही लिख जाना चाहिए।
● अक्षरों का मानक रूप में नहीं होना–बच्चे प्रायः ‘क’ को ‘फ’ या ‘ख’ को ‘ख’
एवं ‘घ’ को ‘घ’ आदि को लिखने में गलती करते हैं। यह आवश्यक हो जाता है कि लेखन
में सदा अक्षरों को उनके मानक रूप में लिखा जाए।
● समान आकार–लेखन की एक अन्य समस्या देखने को मिलती है कि वर्णों अथवा
अक्षरों का आकार एक समान नहीं होता है। कोई वर्ण बड़ा तो कोई छोटा होता है। व
का एक समान आकार में होना लेखन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।
● मात्राओं का सटीक प्रयोग―लेखन करते समय बच्चे मात्राओं का समुचित प्रयोग
नहीं कर पाते हैं। इससे उनका लेखन काफी प्रभावित होता है। यह समस्या उनके लेखन
में अशुद्धि और उनके लेखन को अप्रभावी बनाता है।
● शिरोरेखा/माथाबंधन का अभाव― बच्चे लेखन करते समय सही ढंग से
शिरोरेखा या माथाबंधन का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। यह स्थिति उनके लेखन में दोष उत्पन्न
करने में सहायक होती हैं।
● विराम चिह्नों का प्रयोग-बच्चों को विराम चिह्नों की समुचित और सही प्रयोग
की जानकारी नहीं हो पाने से वे प्रायः ऐसी समस्या से ग्रसित हो जाते हैं।
● संदर्भ से अलगाव―बच्चे लेखन करते समय संदर्भ से भटक जाते हैं। उनका संदर्भ
से अलगाव उनके लेखन कौशल को काफी कमजोर बनाता है।
इस प्रकार भाषा शिक्षण के शिक्षक को यह चाहिए कि वह बच्चों के लेखन में पाई
जाने वाली समस्याओं तक अपनी पहुँच को स्थापित कर उसका उचित निराकरण करें। यह
प्रक्रिया भाषा के शिक्षकों को आरंभ से ही बच्चों के लेखन में सुधार हेतु देने की आवश्यकता
है।
प्रश्न 17. पढ़ने और लिखने में क्या संबंध है ? उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें ।
उत्तर― पढ़ना, भाषाई शिक्षण कौशल का आधारभूत और आवश्यक अंग है। इसका
अर्थ मात्र वाचन करने तक सीमित न होकर मुख्य रूप से समझकर अर्थ ग्रहण करने से
है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पढ़ना मात्र अक्षरों की पहचान करना न होकर उनसे
निर्मित शब्दों/वाक्यों/अनुच्छेदों आदि के अर्थ और भाव को समझने से भी है। यह पाठ्य
वस्तुओं को पढ़कर उनमें निहित अवधारणाओं को गढ़ने, उनके विचारों को समझने आदि
जैसी कुशलताओं को विकसित कराने में पूरी तरह सक्षम कौशल है। पढ़ने के क्रम में पाठक
का रचना से संवाद होता है जिसके फलस्वरूप पाठक का अनुभव विस्तार प्राप्त कर लेता
है।
लिखना, भाषाई कौशल की अंतिम कुशलता है। लेखन में भावों, विचारों, अनुभवों,
सम्प्रत्ययों आदि को सार्थक विशिष्ट ध्वनियों के प्रतीक चिह्नों (लिपि) का प्रयोग अभिव्यक्ति
के साधनरूप में होता है। लेखन के प्रत्येक भाषा की अपनी लिपि होती है जो हमारे संवाद
एवं सम्प्रेषण को बल प्रदान कर उसे भविष्य के लिए संरक्षण देने का कार्य भी करती है।
पढ़ने और लिखने में संबंध―भाषा शिक्षण में आधारभूत चारों कौशल सुनना, बोलना,
पढ़ना और लिखना का आपस में अनन्तसंबंध है। एक कौशल का विकास दूसरे कौशल
के विकास को काफी हद तक प्रभावित करता है। प्रभाव के इस क्रम से पढ़ना और लिखना
भी अछूता नहीं है। दोनों घटना एक साथ घटित होने वाली प्रक्रिया है। जब हम लिखते
हैं तब उसे पढ़ते हैं और पढ़ते समय लिखित विषयवस्तु का होना एक अनिवार्य और
आवश्यक शर्त है।
पढ़ने में हम भाषिक ध्वनियों का प्रयोग वाचन के माध्यम से करते हैं, दूसरी ओर लिखने
में ये भाषिक ध्वनियाँ लिपि का रूप ले लेती हैं। दोनों प्रक्रियाओं में मानसिक क्रियाओं की
उपस्थिति समान रूप से होती है, मात्र उनका स्वरूप बदल जाता है। जहाँ पढ़ने में अनुतान,
बलाघात, विराम आदि जैसी मानसिक क्रियाएँ भाषिक ध्वनियों के रूप में होती है, वहीं
लिखने में यह सारी प्रक्रिया विराम चिह्नों के द्वारा सम्पादित होती है। निष्कर्षतः हम ऐसा
कह सकते हैं कि विद्यालय में बच्चों को ऐसे अवसर और मंच दिये जायें जिनसे उनका भाषा
के कौशलों के साथ अधिकाधिक सम्पर्क स्थापित हो सके और उनकी भाषाई कुशलता और
अधिक परिमार्जित हो सकें।
प्रश्न 18. क्या बच्चों को लिखना सिखाने में आने वाली समस्याएँ वास्तव में
समस्याएँ हैं या बच्चों द्वारा सीखने की प्रक्रिया के स्वाभाविक चरण ? स्पष्ट करें।
उत्तर―सीखने के प्रारंभिक चरणों में भाषा को लिखना भाषा को बोलने की अपेक्षा
ज्यादा कठिन होता है। सुनते और बोलते समय बच्चा सीखी हुई भाषा से परिचित हो चुका
होता है। बालक सिर्फ अक्षरों में नहीं बोलता, इसलिए पढ़ने के शुरूआती दौर में उसे अर्थपूर्ण
शब्दों, वर्ण और मात्राओं का परिचय कराया जाता है। यह शब्द, वर्ण एवं मात्राएँ महज कुछ
संकेत होते हैं जिन्हें एक निर्धारित शैली से लिखने पर पढ़ा जा सकता है। बच्चों के लिए
अक्षर नए अनुभव होते हैं। अतः इन्हें सीखने में उन्हें कुछ समय लगता है। वे आड़ी, तिरछी
एवं वक्र रेखाओं से अक्षरों का निर्माण करते हैं जिस दौरान उन्हें कई समस्याएँ आती हैं,
परंतु वास्तव में वह सीखने की प्रक्रिया के स्वाभाविक चरण ही होते हैं। कुछ सीखने की
अक्षमताओं वाले बच्चों को छोड़कर वे सभी आरंभिक दौर में ऐसी समस्याओं से गुजरते हैं,
जिन्हें वे अभ्यास एवं गतिविधियों द्वारा सीख जाते हैं।
बच्चे जब लिख रहे होते हैं तब मुंह से भी बोलते जाते हैं। लिखने के लिए दो चीजें
आवश्यक होती है—एक मांसपेशियों को संचालन, दूसरा आकृतियों की पहचान लिखना
सीखना तब अधिक सहज, सरल और सार्थक होता है जब बच्चों को अपनी भाषा, अपने
कल्पना, अपनी दृष्टि से लिखने के अवसर हो। जब बच्चे लिखना सीख रहे होते हैं तब
उन्हें स्वयं के अनुमान, परिचित कविता, कहानी और बातचीत को लिखने में अधिक आनंद
अनुभव होता है। बच्चों को स्वयं की समझ पर आधार लिखने का अभ्यास समझ कर
लिखना कौशल के विकास में सहायक होता है।
प्रश्न 19. क्या आकलन सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का हिस्सा है ? स्पष्ट करें।
आकलन किसका व कब कर सकते हैं ?
उत्तर― किसी भी कार्य की सफलता के लिए उस कार्य की कार्य पद्धति, सिद्धांत, कार्य
की गति, संसाधन आदि का मापन करना उस कार्य का अभिन्न अंग है। ठीक इसी प्रकार
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शिक्षण अधिगम की कमियों, समस्याओं, बाधाओं, उनके
निराकरण हेतु उपायों, पृष्ठपोषण, प्रतिपुष्टि आदि के लिए आकलन एक अभिन्न अंग है।
यह न केवल सीखने वाले शिक्षार्थी का, वरन् सिखाने वाले शिक्षकों का भी होता है।
आकलन सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग होता है। यह शिक्षक शिक्षार्थी
और अधिगम तीनों को प्रभावित करता है। विद्यालय में अपने निजी अनुभवों के साथ बच्चे
आते हैं और वे अपने इन्हीं अनुभवों को सीखने की प्रक्रिया का आधार बनाते हैं। ऐसी स्थिति
में शिक्षक को चाहिए कि वे बच्चों के इन्हीं अनुभवों के आधार पर ही सीखने-सिखाने की
प्रक्रिया को कक्षा में संपादित करें, जिससे छात्रों का अधिगम सरल, सहज, स्पष्ट और सुदृढ़
हो सके। एक आवश्यक बात यह भी है कि प्राथमिक स्तर पर बच्चे कैसे सीखते हैं या फिर
उन्हें कैसे सिखाया जाए। इसी आधार पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के अंतर्गत छात्रों के
आकलन प्रक्रिया की व्यवस्था की जा सकती है। यदि आकलन के दौरान किसी बच्चे की
अधिगम स्पष्ट नहीं हो पा रही है तब सिर्फ बच्चे में ही कमी नहीं है, शिक्षक को भी
स्वआकलन करने की आवश्यकता है कि आखिर किन कारणों से वह बच्चा स्पष्ट अधिगम
तक अपनी पहुँच नहीं बना पा रहा है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों अपने
आप में सुधार करेंगे जिससे कि अधिगम स्पष्ट हो सके। आकलन छात्र को सीखने की
प्रक्रिया में सीखते समय छात्र को सीखने में मदद करने के रूप में उसकी कमियों और
समस्याओं को दूर करके, शिक्षातंत्र को प्रतिपुष्टि प्रदान करने के रूप में पृष्ठपोषण करके,
उत्पाद और प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट और सफलतम परिणाम देकर सहायता करता है। अतः
हम ऐसा कह सकते हैं कि आकलन सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है।
आकलन किसका करेंगे ?–आकलन किसका किया जाए? यह प्रश्न अपने आप
में काफी महत्वपूर्ण है। आखिर बच्चों का आकलन करते समय हम किस तथ्य की खोज
उनके आकलन में करते हैं। शिक्षा का वास्तविक अर्थ न केवल बच्चे की शैक्षिक विकास
से है अपितु शिक्षा बच्चे का समग्र विकास (शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावात्मक,
संज्ञानात्मक) से जुड़ी मूलभूत आवश्यकता है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि आकलन
का पैमाना मात्र बच्चे की शैक्षिक उपलब्धियों को आधार बना कर तय नहीं किया जाना
चाहिए बल्कि इन सभी गैर-शैक्षिक उपलब्धियों को भी आकलन में सम्मिलित करना चाहिए
जिससे कि बच्चे का समग्र विकास होना संभव हो। इस प्रकार आकलन करने के लिए यह
नितांत आवश्यक है कि एक शिक्षक विद्यालय में अपनी कक्षाकक्ष के अंदर और बाहर होने
वाली उन सभी प्रकार की शैक्षिक एवं गैर-शैक्षिक गतिविधियों का आकलन सुक्ष्मता से करें
जिनमें बच्चे की सहभागिता रहती है। साथ ही आकलन की प्रक्रिया को सूचना और
पृष्ठपोषण प्रदान करने में सहायक भूमिका निभानी चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो सके कि
शिक्षक और सम्पूर्ण विद्यालयी व्यवस्था किस स्तर पर बच्चे को शिक्षा व अधिगम दे सकने
में सफलता प्राप्त कर चुके हैं। एक बच्चे के अधिगम को पूरी तरह एवं स्पष्ट रूप से समझने
के लिए निम्नांकित बिंदुओं पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है―
(क) अलग-अलग विषयों में एक विशेष समयावधि में बच्चे की प्रगति और उसमें
होने वाले परिवर्तनों को ज्ञात करना।
(ख) छात्र की व्यक्तिगत एवं विशेष आवश्यकताओं की पहचान करना।
(ग) सर्वाधिक उत्तम तरीकों के आधार पर अध्यापन और सीखने की स्थितियों का
योजना निर्माण ।
(घ) बच्चे की अभिरूचि, क्षमता, योग्यता, कुशलता आदि के अनुसार छात्र की मदद
करना ।
(ङ) छात्र को पुनर्बलित करना, उत्साहवर्द्धन करना।
(च) पृष्ठपोषण और प्रतिपुष्टि को अन्य शिक्षकों, माता-पिता, अभिभावक आदि तक
संप्रेषित कर पाना ।
(छ) छात्र को स्व-आकलन हेतु प्रेरित कर आकलन के प्रति विद्यमान डर का नाश करना।
(ज) प्रत्येक छात्र को सीखने और प्रगति में सहायता करते हुए सुधार की यथासंभव
प्रयासों की खोज करना।
आकलन कब करेंगे ?―विद्यालय में सीखने-सिखाने के उत्पाद/अधिगम के परिणामों
की समुचित प्राप्ति के लिए आकलन शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के साथ निरंतर जुड़ा हुआ
है। समग्र रूप से आकलन के लिए सीखने के सभी पहलुओं को आशानुकूल पहचान देने
की आवश्यकता है। अतः कक्षा के प्रत्येक बच्चे की प्रोफाईल बनाने की आवश्यकता होती
है। हो सकता है कि आकलन के तरीके और पद्धतियाँ अलग-अलग हों। जब शिक्षक
निरंतरता के साथ बच्चे की प्रगति पर लगातार नजर रखेंगे तब उस पर प्रतिक्रिया करने,
पृष्ठपोषण देने, सुधारात्मक उपायों को अपनाने के लिए कुछ अन्तराल तो तय करने होंगे।
ये अन्तराल व्यवहारिक अविधियां की हों, जिनका अनुसरण किया जाए। चूँकि कक्षा में
अनौपचारिक रूप से अवलोकन की प्रक्रिया तो चलती रहनी ही चाहिए। हर 15-20 दिनों
के अंदर एकबार पुनरावलोकन करते हुए पारदर्शी समीक्षा भी होनी चाहिए। ऐसा करने से
शिक्षण उत्कृष्ट और अधिगम सुदृढ़ हो पाता है।
दैनिक आकलन–बच्चों के साथ निरंतर अंतःक्रिया करते हुए लगातार उनको कक्षा
के अंदर और बाहर आकलन करना।
सावधिक आकलन–हरेक 3-4 माह में एक बार बच्चों के कार्यों की जांच करना,
एकत्रित जानकारियों के आधार पर अपना विचार प्रस्तुत करना, कमियों व समस्याओं का
समाधान सहित बताना ।
प्रश्न 20. भाषा में अकलन व मूल्यांकन के विभिन्न तरीकों का उल्लेख करें।
उत्तर―भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। किसी भी भाषा को सीखने का सबसे बड़ा
उद्देश्य होता है विभिन्न स्थितियों में भाषा का प्रभावी प्रयोग करने की क्षमता विकसित करना ।
भाषा प्रयोग की क्षमता अवसरों की समृद्धता पर निर्भर करती है। अतः बच्चों को सुनने,
पढ़ने बोलने और लिखने के ढेरों मौके दिए जाने चाहिए ताकि वह अपने भाषाई कौशल का
विकास कर सके । आकलन के विभिन्न तरीके होते हैं, इन तरीकों में अलग-अलग प्रकार
के तकनीकों और उपकरणों की मदद से सफलता मिलती है। ये तकनीक और उपकरण
निम्न हैं―
(क) हिंदी भाषा के अंतर्गत सुनना और बोलना जैसी भाषायी क्षमताओं का आकलन
करने के लिए बातचीत बेहद सरल सहज तरीका है। बातचीत करते समय चिंतन क्षमता का
विकास होता है।
(ख) इसके अलावा उनमेकहानी कहना, कविता पाठ, कहानी को आगे बढ़ाना, किसी
चित्र का मौखिक वर्णन करना, शब्द अंताक्षरी के द्वारा भी सुनने और बोलने की क्षमताओं
का आकलन कर सकते हैं।
(ग) पढ़ने की क्षमता का आकलन करने के लिए उनसे समाचार पत्र पढ़ना, किसी
कहानी, कविता, डायरी, लेख, निबंध, भाषण, साक्षात्कार आदि को पढ़ने के बाद समझ
संबंधी सवाल पूछे जा सकते हैं।
(घ) विभिन्न संदर्भों में भाषा की पाठ्यपुस्तक को भी आकलन का आधार बनाया जा
सकता है।
(ङ) लेखन की क्षमता का आकलन करने के लिए उन्हें निबंध, कहानी, कविता,
डायरी, पत्र, विज्ञापन चित्र वर्णन आदि पर लिखने का कार्य करवाया जा सकता है।
(च) निबंध, कहानी, कविता, डायरी, पत्र, चित्र वर्णन आदि लिखने के कार्य द्वारा एक
ही विषय पर अलग-अलग शैली के लेखन का विश्लेषण भी किया जा सकता है।
(छ) मौखिक आकलन― मौखिक आकलन भाषा की कक्षा में सबसे सरल, सटीक
और प्रभावी आकलन है। विद्यालय में छात्रों से औपचारिक अथवा अनौपचारिक क्रियाकलापों
के आयोजन के माध्यम से संवाद के कौशलों, अभिनय, प्रस्तुती, प्रदर्शन, भाषाई शुद्धता,
व्याकरणिक समझ आदि का आकलन भाषा शिक्षक सरल रूप से कर सकते हैं। मौखिक
आकलन के प्रकार निम्न हैं—
1. प्रश्नोत्तरी― प्रश्नोत्तरी का सहायता से भाषा शिक्षक अपनी कक्षा के छात्रों की
भाषाई कुशलता, व्याकरण की शुद्धता, उच्चारण की स्पष्टता आदि का आकलन बड़ी
आसानी से कर सकते हैं। प्रश्नों का स्वरूप सरल और प्रकृति छात्रों के पाठ्यक्रम के
साथ-साथ उनके अपने परिवेश से जुड़े होने चाहिए। ऐसा करने से छात्रों की रूचि कक्षा
में प्रदत्त किये जा रहे विषयवस्तु के साथ उत्साहपूर्वक और आनंदमय रूप से बन पाता है।
2. कहानी वाचन–बच्चों में कहानियों को सुनना-सुनाना एक अलग रामांच को भर
देता है। उनका कहानियों से जुड़ाव बचपन से ही होता है। कहानी वाचन के समय शिक्षक
छात्रों की वाचन कला, उच्चारण में शुद्धता, शब्दों के उतार-चढ़ाव वाली ध्वनियों, वाक्य
चयन आदि का आकलन आसानी से कर सकते हैं।
3. सस्वर पठन– भाषा की कक्षाओं में स्वर पठन सबसे प्राचीन और पारंपरिक
तकनीक है। वर्तमान में भी यह काफी प्रसांगिक और प्रभावशाली है। सस्वर पठन की मदद
से शिक्षक छात्रों के पढ़ने की गति, वाचन में स्पष्टता, उच्चारण की शुद्धता, विराम चिह्नों
की सटीकता आदि का आकलन कर पाते हैं।
4. प्रदर्शन कला और अभिनय―प्रदर्शन और अभिनय के कारण छात्रों में स्वाबलम्बन,
आत्मनिर्भरता, अभिव्यक्ति को प्रकट करने का तरीका, संवाद की कुशलता एवं उसके प्रभाव,
कहे गए विषय के प्रति स्पष्ट समझ आदि का विकास होता है। इन तकनीकों में भाषाई
अनुतान, बालाघात, शारीरिक भाषा, हाव-भाव आदि का आकलन शिक्षण कर पाते हैं।
(ज) लिखित आकलन―लेखन आकलन मात्र लेखन कला की दक्षता नहीं बल्कि
पढ़ना, सुनना, सुनकर समझ पाना, कल्पना कर पाने, अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति देने आदि
का भी आकलन कराने में सहायक होता है। लिखित आकलन करते समय लेखन में छात्रों
की कल्पनाशीलता, सृजनात्मकता विश्लेषण कर पाने के साथ विषयवस्तु को अपने अनुभवों
के साथ जोड़ पाने आदि की क्षमता पर शिक्षकों को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
यदि छात्र निबंध लेखन करते समय गाय को पालतू के स्थान पर घरेलू जानवर भी लिखता,
तब ऐसी परेस्थिति में दोनों शब्दों का चयन ठीक है।
(झ) अवलोकन―विद्यालय में छात्रों द्वारा किये जा रहे औपचारिक अथवा अनौपचारिक
शैक्षिक गतिविधियों की मदद से शिक्षकों द्वारा किया गया आकलन अवलोकन कहा जाता
है। छात्रों की अभिरूचियाँ, व्यवहारों में परिवर्तन, उनकी समस्याओं, उनके उपचारात्मक
निदान, व्यक्तिगत प्रक्रिया में व्यक्तिगत चर्चा, सामूहिक परिचर्चा, प्रदर्शन कला के विभिन्न
विधाओं यथा नाटक, संवाद, भाषण, लेखन, चित्रकारी आदि का सहायता से अवलोकन की
जाती है।
(ट) पोर्टफोलियों—किसी छात्र द्वारा किये गये कार्यविशेष के प्रत्येक भाग को उक्त
छात्र के पोर्टफोलियों में संकलित किया जाता है। इसके निर्माण का मुख्य उद्देश्य यह है कि
छात्र स्वयं का मूल्यांकन स्वयं कर सकता है और छात्र स्वचिंतन करने को प्रेरित भी होता
है। पोर्टफोलियों का उपयोग छात्र के रचनात्मक मूल्यांकन में विशेष रूप से प्रभाव डालने
में समर्थ होता है।
(ठ) जांच सूची—यह छात्र के व्यक्तिगत व्यवहार, विशेषताओं, परिवर्तनों और किसी
विशेष घटना में उसकी उपस्थिति के विषय में अवलोकन कराने का महत्वपूर्ण कार्य करती
है। इसकी मदद से शिक्षक अपने छात्रों की कमजोर कुशलताओं को उचित मार्गदर्शन एवं
कुशल प्रशिक्षण की मदद से मजबूजी प्रदान कराता है। अधिगम की पूर्णता के लिए संबंधित
विषयवस्तु को वस्तुनिष्ठ प्रश्नों की सहायता से लक्ष्य प्रदान किया जाता है।
(ड़) रेटिंग स्केल—यह एक प्रकार का गुणात्मक एवं स्तरात्मक पैमाना होता है
जिसका उपयोग छात्रों के विकास की सूक्ष्म अवलोकन करते समय किया जाता है। इसमें
संख्यांक अंकित रहते हैं जिसके द्वारा छात्रों के गुण/स्तरों की माप ली जाती है।
प्रश्न 21. प्रारंभिक कक्षा में लेखन के संदर्भ में भाषा सीखने के संकेतकों का
वर्णन करें ।
उत्तर― प्रारंभिक कक्षा में लेखन के संदर्भ में भाषा सीखने के संकेतकों निम्नलिखित
हैं जो निर्धारित करता है कि इस स्तर पर बच्चे―
(क) विभिन्न स्थितियों और उद्देश्यों (बुलेटिन पर लगाई जानेवाली सूचना, कार्यक्रम
की रिपोर्ट, जानकारी आदि प्राप्त करने के लिए) के लिए पढ़ते और लिखते हैं।
(ख) स्वेच्छा से या शिक्षक द्वारा तय गतिविधि के अंतर्गत लेखन की प्रक्रिया की बेहतर
समझ के साथ अपने लेखन को जाँचते हैं और लेखन के उद्देश्य और पाठक के अनुसार
लेखन में बदलाव करते हैं, जैसे—किसी घटना की जानकारी के बारे में बताने के लिए स्कूल
की भित्ति पत्रिका के लिए लिखना और किसी दोस्त को पत्र लिखना।
(ग) भाषा की बारीकियों पर ध्यान देते हुए अपनी भाषा गढ़ते हैं और उसे अपने लेखन
में शामिल करते हैं।
(घ) भाषा की व्याकरणिक इकाइयों (जैसे—कारक-चिह्न, क्रिया, काल, विलोम
आदि) की पहचान करते हैं और उनके प्रति सचेत रहते हुए लिखते हैं।
(ङ) विभिन्न उद्देश्यों के लिए लिखते हुए अपने लेखन में विराम-चिह्नों, जैसे—पूर्ण
विराम, अल्प विराम, प्रश्नवाचक चिह्न, उद्धरण चिह्न का सचेत इस्तेमाल करते हैं।
(च) स्तरानसार अन्य विषयों, व्यवसायों, कलाओं आदि (जैसे—गणित, विज्ञान,
सामाजिक अध्ययन, नृत्यकला, चिकित्सा आदि) में प्रयुक्त होनेवाली शब्दावली को समझते
हैं और संदर्भ एवं स्थिति के अनुसार उनका लेखन में इस्तेमाल करते हैं।
(छ) पाठ्यपुस्तक और उससे इतर सामग्री में आए संवेदनशील बिंदुओं पर लिखित में
अभिव्यक्ति करते हैं।
(ज) अपनी कल्पना से कहानी, कविता, पत्र आदि लिखते हैं। कविता, कहानी को
आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं, इत्यादि।
प्रश्न 22. संदर्भ आधारित व्याकरण किसे कहते हैं ? इसका क्या महत्व है ?
कक्षा में भाषा सिखाने में इसका उपयोग किस प्रकार करेंगे ? उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर― आमतौर पर व्याकरण शिक्षण के लिए पारंपरिक व्याकरण शिक्षण पद्धति का
ही उपयोग किया जाता है। इसमें छात्र मूल रूप से स्वर, व्यंजन, उच्चारण, वर्तनी, शब्द
भेद, उपसर्ग, प्रत्यय, सन्धि, समास, मुहावरे, लोकोक्तियां, औपचारिक लेखन आदि का
उपयोग कर व्याकरणिक नियम, व्याख्या, सूत्र, प्रयोग तथा व्यवहार की शिक्षा प्राप्त करते
हैं। व्याकरण शिक्षण की यह पद्धति काफी पुरानी और परंपरागत है। दूसरी ओर आज
विद्यालयों में हिन्दी भाषा की कक्षाओं में पाठ्यपुस्तकें द्वारा हिन्दी साहित्य (गद्य तथा पद्य)
की मदद से ही व्याकरण की शिक्षा प्रदान कराने की व्यवस्था की गई है। इसी शिक्षण पद्धति
को संदर्भ आधारित व्याकरण कहते हैं।
संदर्भ आधारित व्याकरण में पाठ्यपुस्तक के प्रत्येक पाठ यथा-कविता, कहानी, प्रसंग,
नाटक आदि से संदर्भित व्याकरण आधारित भाषा ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। यह व्याकरण
का ज्ञान परंपरागत व्याकरण शिक्षण से थोड़ा हटकर बिल्कुल नई और एक नवाचारी प्रयोग
है, जो काफी प्रभावी, रोचक और सफल है। संदर्भ आधारित व्याकरण में पाठ से संबंधित
शब्दों अथवा वाक्यों की सहायता से व्याकरण शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। यही व्यवस्था
फिर अगले पाठ में संबंधित संदर्भानुसार व्याकरण का ज्ञान छात्रों तक सहज, रोचक और
उत्साही वातावरण तैयार करके प्रदान कराती है।
संदर्भ आधारित व्याकरण का महत्व काफी प्रभावकारी है। यह एक ही समय में छात्रों
को हिन्दी के पाठ्यपुस्तक की अधिगम को तो सुनिश्चित कर पाने में सक्षम है ही, साथ
ही साथ पठित पाठ/संदर्भ के आधार पर संबंधित व्याकरण के ज्ञान को भी प्रभावशाली तरीके
से प्रदान कर सकने में सहायक होता है। इस नई व्याकरण शिक्षण व्यवस्था के अनुसार छात्रों
को व्याकरण की समझ प्राप्त कर पाने में अधिक कठिनाइयों का सामना करना नहीं होता
है। चूँकि वे मानसिक और बौद्धिक रूप से पाठ से जुड़ें होते हैं, इसलिए अभ्यास के प्रश्नों
में जब भाषा ज्ञान के संदर्भ आधारित व्याकरण का शिक्षण कराया जा रहा होता है तब उनका
पूरा ध्यान कक्षा में बना रहता है।
संदर्भ आधारित व्याकरण का शिक्षण हम कक्षा-कक्ष में पाठ संसर्ग विधि के द्वारा कर
सकते हैं। कक्षा में भाषा शिक्षण करते समय उचित अवसरों, प्रसंग अथवा संदर्भानुसार
शिक्षण अपने छात्रों से संबंधित व्याकरण के बिन्दुओं को स्पष्ट करते चलें। ऐसा करने से
छात्र किसी व्याकरणिक सिद्धांत, सूत्र या परिभाषा की समझ प्राप्त करने के लिए स्वयं के
पठित पाठ से उदाहरण निकाल सकते हैं और फिर इन्हीं उदाहरणों की मदद से प्रेरित होकर
छात्र व्याकरण के नियमों तक अपनी पहुँच को स्थापित कर सकते हैं। इस प्रकार संदर्भ
आधारित व्याकरण काफी स्वाभाविक, स्पष्ट और प्रभावी रूप से व्याकरण शिक्षण करा
सकता है।
उदाहरण–कक्षा-3 की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में एक पाठ है ‘सच्ची मित्रता’। यह
एक कहानी है जो श्रीकृष्ण और उनके बालसखा सुदामा की दोस्ती पर आधारित है। कथा
के अधिकांश छात्र-छात्राओं ने इस कहानी को अवश्य ही सुना होगा। अब उपरोक्त कहानी
के आधार पर आईए हम देखते हैं कि किस प्रकार एक भाषा शिक्षक संदर्भ आधारित
व्याकरण की शिक्षा अपने छात्रों को प्रदान कर सकता है।
(क) शब्दार्थ―प्रेम-स्नेह, उपहार-भेंट, तोहफा, द्वारपाल–पहरेदार, संकोच―
झिझक, हिचकिचाहट विदा लेना-चले जाना, चमत्कार- अद्भुत कार्य ।
(ख) विपरीतार्थक शब्द―
राजा……… सुख……… बचपन………
अंदर……. मित्र…….. गाँव………
(ग) अशुद्ध शब्दों को शुद्ध करें-
क्रीष्ण……….. चम्तकार……….
सींहासन………. दवारपाल………
(घ) विशेषण वाले शब्दों को चुनें―राजा, मित्र, गरीब, अमीर, दयालु, कृपा, प्रेमी ।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कक्षा में भाषा सीखने के क्रम में संदर्भ आधारित
व्याकरण छात्रों को अधिगम को सक्रिय, क्रियाशील, प्रभावी बनाता है। छात्र स्वयं सीखने
को प्रेरित होते चले जाते हैं और इस प्रकार का सृजनात्मक ज्ञान छात्रों के अधिगम को
सुदृढ़ता प्रदान कर दीर्घाकालिक स्थायित्व प्रदान करता है।
प्रश्न 23. व्याकरण सिखाने हेतु कुछ गतिविधियों का उल्लेख करें।
उत्तर―मनुष्य जन्मजात और स्वभावगत रूप से एक सामाजिक प्राणी है। यह स्वयं
को समाज में स्थापित कर पाने के उद्देश्य से सार्थक ध्वनियों की मदद से वैचारिक
आदान-प्रदान करता है। इन्हीं सार्थक ध्वनियों को भाषा की संज्ञा दी गई है। बाद में भाषा
के व्यवस्थित, नियमानुकूल और सूत्रों द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था व्याकरण के रूप में अस्तित्व
में आई। यह व्याकरण ही है जो हमें भाषा को शुद्धतम स्वरूप में रखने, उनको विकृतियों
से बचाने तथा शब्दों को वाक्य के अनुरूप उचित स्थान प्रदान करने का कार्य कराती है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याकरण की शिक्षा क्यों और कितनी आवश्यक है।
बालमन की स्वाभाविक प्रकृति ही स्वच्छेद होती है। बच्चे किसी भी पाठ हो गतिविधियों
की सहायता से बड़ी आसानी से प्रभावशाली तरीके द्वारा सीख लेते हैं। गतिविधियों न केवल
कक्षाकक्ष में बल्कि कक्षा के बाहर भी छात्रों का पूरा ध्यान विषयवस्तु की ओर आकर्षित
और केंद्रित करा सकती हैं। गतिविधियाँ बाल केंद्रित शिक्षा के साथ-साथ नवाचारी शिक्षा
का भी अभिन्न अंग है। भाषा शिक्षण विशेषकर व्याकरण शिक्षण में हम गतिविधियों की
मदद से छात्रों के ज्ञान और अधिगम को स्थायित्व प्रदान करा सकते हैं। गतिविधियों में छात्रों
की संलिप्तता होने से छात्रों में चिंतन, कल्पनाशीलता, सृजनात्मकता, रचनात्मकता आदि
जैसे गुणों को विकास तो होता ही है, साथ ही साथ वे किसी भी सूत्र, निर्णय, सिद्धांत या
संप्रत्यय तक स्वयं भी पहुँच सकते हैं।
व्याकरण सिखाने में प्रयुक्त कुछ गतिविधियाँ निम्न प्रकार से करायी जा सकती हैं―
(क) बच्चों को उनके परिवार, परिवेश, समाज, वातावरण आदि में उपस्थित वस्तुओं,
प्राणियों आदि के नाम के अनुसार संज्ञा के भेद के उदाहरणों के रूप में विभक्त कराना।
(ख) फ्लैश कार्ड पर मैं, हम, तुम, आप, वे, यह, वह आदि लिखकर वाक्यों में संज्ञा
के स्थान पर उपयुक्त सर्वनाम के प्रयोग की जानकारी देना।
(ग) श्यामपट्ट पर कारक के विभक्तिकरण में ‘से’ और ‘से’ अर्थात् करण विभक्ति
और आपादान विभक्ति आदि की सही जानकारी दे सकना।
(घ) कक्षा के छात्रों को एकल एवं समूह में अलग-अलग रूप में खड़ा करवा कर
उनके वचन (एकवचन बहुवचन) की जानकारी दे सकते हैं।
(ङ) छात्रों द्वारा श्यामपट्ट पर उनके परिवार के सदस्यों के बारे में नाम लिखवाकर लिंग
(स्त्रीलिंग-पुल्लिंग) संबंधी जानकारी दे सकते हैं।
(च) छात्रों की कक्षाकक्ष में श्रुतीलेख लेखन कराकर, उन्हें आपस में एक दूसरे की
कॉपियां जांच करे के लिए कहकर उनके वर्तनी एवं विराम-चिह्नों की समुचित जानकारी का
पता लगाया जा सकता है।
(छ) छात्रों को उनके स्वयं के नाम का अर्थ पूछकर उनके शब्द भंडार को बढ़ाया जा
सकता है।
(ज) छात्रों को एक शब्द प्रदान कर उसके आगे एवं पीछे शब्दों को जोड़कर उपसर्ग
और प्रत्यय का ज्ञान दिया जा सकता है। जैसे―
कु+कर्म = कुकर्म, कर्म+हीन = कर्महीन, बे+शर्म = बेशर्म, ईमान+दार = ईमानदार,
बे+ईमान = बेईमान, शर्म+सार = शर्मसार आदि ।
उपरोक्त उदाहरणों द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार भाषा की कक्षाओं
गतिविधियों द्वारा व्याकरण के शिक्षण में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को रोचक, आनंददायी
और प्रभावी बनाया जा सकता है। इन गतिविधियों के माध्यम से छात्रों को ध्यान और उनकी
एकाग्रता को पूरी तरह से पाठ्यवस्तु के साथ जोड़कर रखा जा सकता है। ये गतिविधियाँ
हमें छात्रों को कल्पनाशील, चिंतक, रचनात्मक विचार तक पहुँच बना पाने में सहायता
करती है।
प्रश्न 24. व्याकरण में होने वाली अशुद्धियाँ कौन-कौन सी हैं? उनका निराकरण
किस प्रकार करेंगे ? कुछ गतिविधियाँ भी सुझाएँ।
उत्तर―व्याकरण में होने वाली अशुद्धियाँ―
(क) प्रस्तुतीकरण संबंधी अशुद्धियों
(ख) वाक्य रचना संबंधी अशुद्धियाँ
(ग) व्याकरणिक तत्वों (जैसे—संज्ञा, सर्वनाम, कारक, विशेषण, लिंग आदि) की
पहचान सही ना कर पाने संबंधी त्रुटियाँ।
(घ) वर्तनी संबंधी त्रुटियाँ
(ङ) वर्ण विच्छेद व मात्राओं के ज्ञान संबंधी त्रुटियाँ
(च) शुद्ध उच्चारण संबंधी त्रुटियाँ
(छ) शब्द चयन तथा सटीक वाक्य रचना संबंधी त्रुटियाँ
(ज) वाक्य समूहों के समन्वय संबंधी त्रुटियाँ, इत्यादि ।
निराकरण―इन त्रुटियों का निराकरण मात्राओं के ज्ञान एवं वर्ण विच्छेदों की जानकारी
देने अथवा अध्यापक के उचित निर्देश द्वारा दूर किया जा सकता है। सामान्य अशुद्धियों को
श्यामपट्ट पर लिखकर बार-बार शुद्ध उच्चारण द्वारा निराकरण किया जा सकता है।
व्याकरणिक तत्वों (जैसे– संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, कारक आदि) की पहचान के लिए उनसे
संबंधित वाक्य अथवा अनुच्छेद देकर उनकी पहचान व गुणों को बताकर वैसे शब्दों को
चुनकर लिखने हेतु कार्य कराए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए विद्यार्थियों से विशेषण की
अवधारणा व उसकी पहचान समझने के लिए निम्नलिखित गतिविधि कराई जा सकती हैं―
कक्षा में सभी छात्रों को अलग-अलग समूहों में बैठाया जाएगा। प्रत्येक समूह को पाठ
का कुछ अंश दिया जाएगा। अंश पढ़ने के लिए पर्याप्त समय दिया जाएगा। हर समूह के
पास पाठ का अलग-अलग अंश होगा। सभी समूह को अपने अंश को पढ़कर उस में आने
वाले विशेषण के शब्दों को छांट कर उन्हें अलग उत्तर पुस्तिका में लिखना है। इसके बाद
सभी उन शब्दों से वाक्य का निर्माण करेंगे। समूह कार्य द्वारा प्रत्येक विद्यार्थी एक-एक करके
अपने कार्य का प्रदर्शन करेगा। इस कार्य हेतु उन्हें अंक भी दिए जा सकते हैं। शिक्षकों द्वारा
दी गई प्रतिपुष्टि एवं विद्यार्थियों के कार्य के सराहना व्याकरण सीखने में विद्यार्थियों के लिए
अभिप्रेरणा का कार्य करती है।
प्रश्न 25. कक्षा में हिन्दी भाषा का रचनात्मक शिक्षण किस प्रकार करेंगे ?
कक्षायी प्रक्रियाओं द्वारा रचनात्मक शिक्षण की भी चर्चा करें।
उत्तर―विद्यालय आने के पूर्व प्रत्येक बच्चा अपने आप में अपने व्यावहारिक अनुभवों,
विचारों और ज्ञान से भरा होता है। विद्यालय की व्यवस्था में आने पर जब उसे औपचारिक
ज्ञान दी जाने जगती है तो बच्चा कक्षायी प्रक्रियाओं में दी जाने वाली शिक्षण को अपने ज्ञान
व अनुभवों की कसौटी पर जांचता है। रचनात्मक शिक्षण का सिद्धांत पूरी तरह बाल केंद्रित
और छात्रों के पूर्व ज्ञान, आस्थाओं, विचारों, अनुभवों पर आधारित होता है। कक्षा में शिक्षक
बालक के पूर्व ज्ञान, संकल्पनाओं, संप्रत्ययों, सूचनाओं को साधन बनाकर नई समझ जो
विषयवस्तु पर आधारित होती है, का निर्माण करता है। रचनात्मक शिक्षण में शिक्षार्थी केन्द्र
में होते हैं दूसरी ओर शिक्षक की भूमिका एक सुगमकर्ता के रूप में होती है। शिक्षक कक्षा
में छात्रों की अन्तः क्रियाओं एवं गतिविधियों की सहायता से विषयवस्तु आधारित अधिगम को
सुनिश्चित करवाता है।
भाषा शिक्षण के रूप में कक्षा में हिन्दी भाषा का रचनात्मक शिक्षण अत्यावश्यक तथा
महत्वपूर्ण कार्य है। हिन्दी हमारी मातृभाषा है और इस कारण हमारी कक्षा में आने वाले
बच्चों को भी उनके स्तर पर हिन्दी की जानकारी एवं समझ का होना स्वाभाविक है। आज
आधुनिक शिक्षण व्यवस्था में अनुशासन और व्यवस्था के नाम पर अधिकांश विद्यालयों में
बाल केंद्रित शिक्षा के स्थान पर अध्यापक केंद्रित शिक्षा प्रदान की जा रही है जो रचनात्मक
शिक्षण के लिए प्रतिकूल वातावरण निर्माण कर रही है। ऐसी स्थिति में शिक्षार्थियों का
मानसिक और बौद्धिक विकास संक्रमित हो जाता है तथा उनकी रचनात्मकता कुंठित होने
लगती है। रचनात्मक शिक्षण के लिए शिक्षक को यह भी समझने की आवश्यकता है कि
विद्यालय में आने वाला प्रत्येक शिक्षार्थी भिन्न-भिन्न पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक,
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से होता है। इस कारण उनके सीखने की क्षमताएँ भी भिन्न-भिन्न होती
है। अतः कक्षा में आए प्रत्येक शिक्षार्थी को लोकतांत्रिक शिक्षण वातावरण के अंतर्गत शिक्षण
देना भी रचनात्मक शिक्षण की कक्षायी प्रक्रिया का आधारभूत अंग है। छात्रों को विषयवस्तु
की समझ प्रदान करते समय शिक्षक को चाहिए कि वह प्रत्येक शिक्षार्थी को अंतःक्रियाओं
के द्वारा कक्षा में सक्रिय बना सके। शिक्षार्थियों को अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए उन्हें स्वयं
से प्रयास और अभ्यास कराने की आवश्यकता है, विषयवस्तु से संबंधित प्रश्नों को बिना किसी
भय के कक्षा में रखने के अवसर दिए जाने की आवश्यकता है, उत्तर या निष्कर्ष पर पहुँचने
के लिए उनके अनुभवों, ज्ञानों, विचारों आदि को विषयवस्तु के साथ जोड़ने की आवश्यकता
है। यह परिदृश्य शिक्षार्थियों को कक्षा में सक्रिय विषयवस्तु के प्रति चितनशील और अधिगम
में स्थायित्व प्रदान करने में सहायता करती है।
कक्षा में रचनात्मक शिक्षण की प्रक्रियाएँ–रचनात्मक विधि में छात्रों को निम्नलिखित
स्वतंत्रता प्रदान की जाती है―
● स्वयं सक्रिय रहने की।
● सोचने-विचारने की।
● प्रश्न पूछने की।
● अपने अनुभवों को, विचारों एवं सुझावों को साझा करने की।
● स्वयं अर्थ की रचना करने की।
● प्रत्येक छात्र को अपनी गति से सीखने की।
● स्वयं से किताबें पढ़ने तथा अन्य स्रोतों से अध्ययन करने की।
कक्षा शिक्षण में एक शिक्षक रचनात्मक शिक्षण की निम्नलिखित प्रक्रियाओं को अपना
सकता है―
(क) छात्रों के पूर्व ज्ञान और अनुभवों पर विषयवस्तु के शीर्षक पर पहुँच कर।
(ख) छात्रों के साथ शिक्षण के पूर्व विषयवस्तु पर अनौपचारिक चर्चा करके।
(ग) विषयवस्तु से संदर्भित कठिन शब्दों के अर्थ, संरचना तथा उनके प्रयोगों को
बतलाकर, साथ ही छात्रों से शब्दों के बारे में पूछ कर।
(घ) विषयवस्तु से उठने वाले छोटे-छोटे प्रश्नों को बीच-बीच में पूछ कर।
(ङ) छात्रों के व्यक्तिगत विचारों को पूछ कर।
(च) छात्रों द्वारा श्यामपट्ट कार्य करवा कर।
(छ) विषयवस्तु आधारित गतिविधियों, परियोजना कार्य आदि में सक्रिय करवा कर।
(ज) छात्रों को पुनर्बलित करके, आदि।
उपरोक्त प्रक्रियाएँ शिक्षार्थियों को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से कक्षा में
सक्रिय बनाती है। अन्तःक्रियाओं, गतिविधियों, परियोजना कार्यों आदि के द्वारा छात्र
चिंतनशील, निष्कर्ष पर स्वयं की समझ बनाने वाला, सृजनशील इत्यादि गुणों से भर जाता
है। उसके अपने अनुभवों, ज्ञान, विचारों को जब शिक्षक द्वारा उचित मार्गदर्शन मिलता है
तब शिक्षार्थी की समझ और अधिगम अधिक संपुष्ट एवं दीर्घकालिक होती है। रचनात्मक
शिक्षण शिक्षक को एक सुगमकर्ता के रूप में प्रस्तुत करता है जो लोकतांत्रिक शिक्षण
व्यवस्था का प्रतिपालन अपनी कक्षा में करता है।
प्रश्न 26. प्रारंभिक स्तर पर हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर― जैसा कि हमें ज्ञात है कि बच्चा विद्यालय आने से पूर्व ही मातृभाषा का उपयोग
करना शुरू कर देता है। विद्यालय आने पर उसे औपचारिक रूप से भाषा की शिक्षा प्रदान
की जाती है। भाषा के आधारभूत कौशलों में सु.बो.प.लि (सुनना, बोलना, पढ़ना और
लिखना) आता है। हिन्दी भाषा में भी यही चार कौशलों में छात्र निपुण हो जाते हैं जिने
उनकी भाषा अलंकृत और परिमार्जित हो जाती है। प्राथमिक स्तर के बच्चों को हिन्दी भाषा
शिक्षण के निम्नांकित उद्देश्य हैं―
(क) ज्ञान संबंधी उद्देश्य― प्राथमिक स्तर पर भाषा (हिन्दी) शिक्षण का उद्देश्य बच्चों
में हिन्दी की भाषायी ज्ञान का विकास करना है। हिन्दी भाषा शिक्षण के कारण बच्चों में
हिन्दी भाषा के मूल और आधारभूत तत्वों की जानकारी प्राप्त होती है। व्याकरण के समुचित
ज्ञान से वे अपने व्यावहारिक जीवन में हिन्दी भाषा के शब्दों का यथासंभव और अनुकूल
ढंग से प्रयोग करेंगे। इस प्रकार वे हिन्दी भाषा की वाक्स संरचना का प्रयोग जीवन में विभिन्न
परिस्थितियों का सामना करते समय कर सकेंगे।
(ख) सौंदर्यबोध संबंधी उद्देश्य–हिन्दी भाषा का साहित्य अनुपम सौंदर्य से भरा पड़ा
है। प्राथमिक स्तर पर हिन्दी भाषा शिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य बच्चों में साहित्य का
सौंदर्यबोध कराना भी है। हिन्दी भाषा शिक्षण के कारण छात्रों में कविता, कहानी, नाटक,
चित्रण आदि के प्रति रूचि जागृत होती है। यह जागृती छात्रों को साहित्य के सौंदर्यबोध से
परिचय कराती है और उनाक साहित्य रसास्वादन भी कराती है। छात्र काव्य सौंदर्य, नाद
सौंदर्य, भाव सौंदर्य आदि की पहचान कर सकने में स्वयं सक्षम बन जाते हैं। साहित्य का
सौंदर्यबोध छात्रों में अभिव्यक्ति और प्रदर्शन की कला को और अधिक निखार देता है।
(ग) कुशलता संबंधी उद्देश्य―भाषा की कुशलताओं में स्वाभाविक क्रमिकता होता
है। बालक सर्वप्रथम सुनता है फिर वह बोलता है, इसके बाद वह पढ़ना सीखता है और
अन्त में लिखना सीखता है। प्रथम दो कौशल (सुनना व बोलना) ग्राह्यत्मक कौशल है,
जिसके द्वारा बालक मौखिक अथवा लिखित रूप में व्यक्त विचारों को ग्रहण कर सके। दूसरी
ओर बाद के दोनों कौशल (पढ़ना और लिखना) अभिव्यक्तात्मक कौशल है, जिसकी
सहायता से बालक अपने अनुभवों और विचारों को दूसरे के सम्मुख व्यक्त कर सके । इस
प्रकार हिन्दी भाषा शिक्षण का एक प्रमुख उद्देश्य छात्रों को भाषा की कुशलता प्रदान करना है।
(घ) सृजनात्मक उद्देश्य―प्रत्येक बच्चा अपने आप में सृजनशील होता है जिसे
विकास प्रदान कराने के लिए कुशल नेतृत्व एवं समुचित अवसर देने की आवश्यकता होती
है। हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्य का एक प्रभावी और महत्वपूर्ण उद्देश्य है—छात्रों में
रचनात्मक क्षमता का विकास कराना । उदाहरण-
● छात्रों को पत्र, निबंध, कविता, कहानी, लेख, संवाद आदि के लेखन के लिए प्रेरित
करें।
● लेखन में मौलिकता लाने हेतु विषयानुकूल भाषा एवं शैली के प्रयोग में कुशल बनाना ।
● ग्रहण किए गए विचारों को स्वयं प्रभावी ढंग से व्यक्त कर पाने के लिए
कल्पनाशील बनाना।
● पठित अंश को आवश्यकतानुसार संक्षेपण या विस्तारीकरण कर सकना, आदि ।
(ङ) अभिरूचि एवं अभिवृति संबंधी उद्देश्य―हिन्दी भाषा शिक्षण का एक अन्य
महत्वपूर्ण उद्देश्य है अभिरूचि एवं अभिवृति संबंधी उद्देश्य । यह बच्चों को हिन्दी भाषा और
हिन्दी भाषियों के प्रति सहिष्णु बनाने का काम करती है । पाठ्यक्रम के अतिरिक्त हिन्दी भाषा
की अन्य पुस्तकों के लेख, कविता, कहानी, जीवनी, आत्मकथा आदि पढ़ने की ओर बच्चों
को प्रेरित करती है। हिन्दी भाषा के कार्यक्रमों, हिन्दी साहित्य के प्रति अभिरूचि को जगाने
का कार्य करती है। नैतिक कथाओं, प्रेरक प्रसंगों, महापुरुषों की जीवनियों, युक्तियों आदि
के प्रभाव के कारण बच्चे का चारित्रिक और आत्मिक दोनों उत्थान हो पाता है।
इस प्रकार हम ऐसा कह सकते हैं कि हिन्दी भाषा शिक्षण के सभी उद्देश्य एक दूसरे
के सहयोगी हैं जो साथ-साथ चलते हैं। किसी एक उद्देश्य के प्रयास से दूसरे अन्य उद्देश्य
का विकास प्रभावित हो जाता है। प्रारंभिक स्तर पर इन उद्देश्यों का महत्व और प्रभावशीलता
कक्षा के अनुसार कम या अधिक हो सकता है, किन्तु हिन्दी भाषा शिक्षण के संदर्भ में प्रत्येक
उद्देश्य एक-दूसरे के अनुपूरक हैं। अत: भाषा शिक्षक के रूप में हमारा दायित्व बनता
कि हम अपने बच्चों को इन सभी उद्देश्यों की सफलता के दृष्टिकोण से शिक्षण सुनिश्चित करें।
प्रश्न 27. हिन्दी शिक्षण हेतु सीखने की योजना की प्रमुख चुनौतियों का उल्लेख करें।
उत्तर―किसी भी विषयवस्तु के अधिगम की सफलता कक्षाकक्ष में एक सफल सीखने
की योजना के द्वारा ही संभव हो सकती है। सीखने की योजना शिक्षक, शिक्षार्थी और
पाठ्यवस्तु तीनों में सामंजस्य स्थापित कर अधिगम को सरल, सुलभ और सुग्राह्य बनाती है।
अत: एक शिक्षक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह सीखने की योजना का निर्माण
करने से पूर्व निम्नांकित प्रमुख चुनौतियों को ध्यान में विशेष रूप से रखे―
(क) स्पष्ट उद्देश्य—किसी भी कार्य को सफलता विशेषकर उसके स्पष्ट उद्देश्य पर
आधारित होती है। अधिगम को सफलता पाठ्यवस्तु के स्पष्ट उद्देश्य पर निर्भर करती है।
इसके कारण सोखने की योजना निर्माण को एक मजबूत आधार मिल जाता है जिससे शिक्षक
और शिक्षार्थी दोनों लाभानवित होते हैं। यह कक्षाकक्ष में प्रदत्त पाठ को समुचित मार्गदर्शन
कराने में सहायता कराती है।
(ख) समुचित ज्ञान–सीखने की योजना निर्माण करने वाले शिक्षक को कक्षा में प्रदत्त
विषयवस्तु का पर्याप्त और समुचित ज्ञान होना आवश्यक है। इसके आभाव में तथ्यों
घटनाओं, उदाहरणों आदि का सामंजस्य कक्षा में नहीं हो पाता है।
(ग) अन्य विषयों से जुड़ाव―सीखने की योजना निर्माण की एक अन्य बड़ी समस्या
है अन्य विषयों से जुड़ाव। योजना निर्माणकर्ता शिक्षक को उत्तम योजना निर्माण के लिए
अपने विषय विशेष के साथ-साथ अन्य विषयों की भी अच्छी जानकारी और पकड़ होना
आवश्यक है। ऐसा इस कारण संभव होता है क्योंकि पाठ की अच्छी समझ और व्यापक
अधिगम प्रदान करते समय कभी-कभी शिक्षक को अन्य विषयों के संदर्भ में पाठ को जोड़ने
की आवश्यकता पड़ जाती है।
(घ) उचित शिक्षण सिद्धांतों, नीतियो और विधियों की समझ―सीखने की
योजना के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन एवं उसके परिणामस्वरूप होने वाले लाभों के लिए
पाठदाता शिक्षक को उचित शिक्षण सिद्धांतों, नीतियों और प्रविधियों की समुचित और विस्तृत
समझ रखने की आवश्यकता होती है।
(ङ) शिक्षार्थियों के प्रति समझ―प्रदत्त पाठ शिक्षण में उपयोग की जाने वाली
शिक्षण विधि का प्रयोग कक्षाकक्ष के प्रत्येक छात्र की मानसिक, बौद्धिक और ग्राह्य करने
की क्षमता को देख कर की जाती है। अतः पाठदाता शिक्षक को अपने शिक्षार्थियों के प्रति
पर्याप्त समझ स्थापित करके सीखने की योजना का निर्माण अत्यंत आवश्यकत हो जाता है।
(च) छात्रों के पूर्वज्ञान/पूर्वसमझ का भरपूर उपयोग-विषयवस्तु के प्रति छात्रों
का पूर्वज्ञान अथवा पूर्वसमझ उन्हें पाठ से जोड़ने में सहायता करता है। यह पाठ के
सफलतापूर्वक अधिगम की एक अनिवार्य और आवश्यक शर्त होती है। इस कारण स्पष्ट
हो जाता है कि सीखने की योजना का निर्माण छात्रों के पूर्वज्ञान/पूर्वसमझ को ध्यान में रखकर
करना चाहिए।
(छ) कक्षा का शैक्षिक स्तर― प्रत्येक कक्षा में शिक्षण और शैक्षिक वातावरण का
स्तर भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। सीखने की योजना के निर्माण करते समय कक्षा विशेष
के शैक्षिक स्तर को ध्यान में रखना जरूरी हो जाता है। ऐसा नहीं होने पर कक्षायी शिक्षण
अस्त-व्यस्त और अधिगम अपूर्ण ही जाता है।
(ज) सोपान विभाजन–पाठ्यवस्तु के प्रकारण को अलग-अलग सोपानों में विभाजित
कर प्रत्येक सोपान के अनुकूल शिक्षण विधि को प्रयोग में लाना भी सीखने की योजना निर्माण
की महत्वपूर्ण बिन्दु है। सोपानों में विभाजन होने से अधिगम सरल, सहज व स्पष्ट हो पाता
हैं जिसके फलस्वरूप शिक्षार्थी और शिक्षक दोनों लाभान्वित होते हैं।
(झ) शिक्षण अधिगम सामग्री का उपयोग―शिक्षण अधिगम सामग्री (TLM) का
उपयोग पाठ के विभिन्न सोपानों की जटीलता को स्पष्ट करने के उद्देश्य से की जाती है अतः
इसका चयन इसकी उपयोगिताओं को ध्यान में रखकर विधिपूर्वक करना चाहिए। इसके
प्रयोग से वास्तविकता और छात्रों की पाठ के प्रति रोचकता बनी रहती है।
(ट) परिवर्तनशीलता―सीखने की योजना का निर्माण शिक्षण और अधिगम के
उद्देश्यों की सफल प्राप्ति हेतु की जाती है। अर्थात् शिक्षण में स्पष्टता, स्वाभिवकता, सजीवता
और मनोरंजकता लाने के लिए शिक्षक आवश्यकतानुसार इसकी संरचना में अनुकूल परिवर्तन
कर सकते हैं।
समय सीमा― समय सीमा का कुशलतापूर्वक निर्धारण सीखने की योजना की अन्य
आधारभूत बिन्दु है। शिक्षक को पाठ हेतु दिये गये कालांश के अनुसार ही पाठ की प्रस्तुती
प्रत्येक सोपान के साथ करना आवश्यक हो जाता है। शिक्षक कालांश से अधिक समय ले
नहीं सकते, क्योंकि ऐसा करने से अन्य कक्षाएँ बाधित होंगी।
प्रश्न 28. वर्तनी में होने वाली अशुद्धियाँ कौन-कौन सी है? उनका निराकरण
किस प्रकार करेंगे? कुछ गतिविधियाँ भी सुझाएँ।
उत्तर― वर्तनी संबंधी अशुद्धियाँ एवं उनमें सुधार―
उच्चारण दोष अथवा शब्द रचना और संधि के नियमों की जानकारी की अपर्याप्तता
के कारण सामान्यतः वर्तनी अशुद्धि हो जाती है। वर्तनी की अशुद्धियों के प्रमुख कारण निम्न
हैं―
● उच्चारण दोष–कई क्षेत्रों व भाषाओं में, स-श, व-ब, न ण आदि वर्णों में अर्थभेद
नहीं किया जाता तथा इनके स्थान पर एक ही वर्ण स ब या न बोला जाता है जबकि हिन्दी
में इन वर्णों की अलग-अलग अर्थ भेदक ध्वनियाँ है। अतः उच्चारण दोष के कारण इनके
लेखन में अशुद्धि हो जाती है। जैसे―
अशुद्ध शुद्ध
कोसिस कोशिश
सीदा सीधा
सबी सभी
पाणी पानी
बबाल बवाल
● जहाँ ‘श’ एवं ‘स’ एक साथ प्रयुक्त होते हैं वहाँ ‘श’ पहले आयेगा एवं ‘स’ उसके
बाद जैसे―शासन, प्रशंसा, नृशंस, शासक। इसी प्रकार ‘श’ एवं ‘च’ एक साथ आने पर
पहले ‘श’ आयेगा फिर ‘प’, जैसे–शोषण, शीर्षक, विशेष, शेष, वेशभूषा, विशेषण आदि।
●’स्’ के स्थान पर पूरा ‘स’ लिखने पर या ‘स’ के पहले किसी अक्षर का मेल करने
पर अशुद्धि हो जाती है, जैसे-इस्त्री (शुद्ध होगा—स्त्री), अस्नान (शुद्ध होगा–स्नान),
परस्पर अशुद्ध है जबकि शुद्ध हैं परस्पर ।
● अक्षर रचना की जानकारी का अभाव देवनागरी लिपि में संयुक्त व्यंजनों में दो
व्यंजन मिलाकर लिखे जाते हैं, परंतु इनके लिखने में त्रुटि जाती है, जैसे―
अशुद्ध शुद्ध
आर्शीवाद आशीर्वाद
निर्मान निर्माण
पुर्नस्थापना पुनर्स्थापना
बहुधा ” के प्रयोग में अशुद्धि होती है। जब’ ‘ (रेफ) किसी अक्षर के ऊपर लगा
हो तो वह उस अक्षर से पहले पढ़ा जाएगा। यदि हम सही उच्चारण करेंगे तो अशुद्धि का
ज्ञान हो जाता है। आशीर्वाद में”, ‘वा’ से पहले बोला जायेगा–आर्शीवाद । इसी प्रकार
निर्माण में ‘ ‘ का उच्चारण ‘मा’ से पहले होता है, अतः मा के ऊपर आयेगा।
● जिन शब्दों में व्यंजन के साथ स्वर, एवं आनुनासिक का मेल हो उनमें उस अक्षर
को लिखने की विधि है—
अक्षर स्वर ‘अनुस्वार’ (ं ) । जैसे—त् ए ‘अनुस्वार = शर्तें
म् ओ ‘अनुस्वार = कर्मों ।
इसी प्रकार औरों, धर्मों, पराक्रमों आदि को लिखा जाता है।
● कोई, भाई, मिठाई, कई, ताई आदि शब्दों को कोयी, भायी, मिठायी, तायी आदि
लिखना अशुद्ध है। इसी प्रकार अनुयायी, स्थायी, वाजपेयी शब्दों को अनयाई, स्थाई, वाजपेई
आदि रूप में लिखना भी अशुद्ध होता है।
● सम् उपसर्ग के बाद य, र, ल, व, श, स, ह आदि ध्वनि हो तो ‘म्’ को हमेशा
अनुस्वार (ं ) के रूप में लिखते हैं, जैसे—संयम, संवाद, संलग्न, संसर्ग, संहार, संरचना,
संरक्षण आदि। इन्हें सम्शय, सम्हार, सम्वाद, सम्रचना, सम्लग्न, सम्रक्षण आदि रूप में
लिखना सदैव अशुद्ध होता है।
● आनुनासिक शब्दों में यदि ‘अ’ या ‘आ’ या ‘ऊ’ की मात्रा वाले वर्गों में आनुनासिक
ध्वनि ( ) आती है तो उसे हमेशा (‘) के रूप में ही लिखा जाना चाहिए। जैसे—दाँत,
पूँछ, ऊँट, हूँ, पाँच, हाँ, चाँद, हँसी, ढाँचा आदि परंतु जब वर्ण के साथ अन्य मात्रा हो तो
(ं ) के स्थान पर अनुस्वार ( ं ) का प्रयोग किया जाता है, जैसे—फेंक, नहीं, खींचना,
गोंद आदि ।
● विराम चिह्नों का प्रयोग न होने पर भी अशुद्धि हो जाती है और अर्थ का अनर्थ हो
जाता है। जैसे―
● रोको, मत जाने दो।
● रोको मत, जाने दो।
● इन दोनों वाक्यों अल्प विराम के स्थान परिवर्तन से अर्थ बिल्कुल उल्य हो गया है।
● ‘घ’ वर्ण केवल षट् (छह) से बने कुछ शब्दों, यथा―पट्कोण, षड़यंत्र आदि के
प्रारंभ में ही आता है। अन्य शब्दों के शुरू में ‘श’ लिखा जाता है। जैसे—शोषण, शासन,
शेषनाग आदि।
● संयुक्तक्षरों में ‘ट्’ वर्ग से पूर्व में हमेशा ” का प्रयोग किया जाता है, चाहे मूल
शब्द ‘श’ से बना हो, जैसे—सृष्टि, पष्ट, नष्ट, कष्ट, अष्ट, ओष्ठ, कृष्ण, विष्णु आदि ।
● ‘क्श’ का प्रयोग सामान्यतः नक्शा, रिक्शा, नक्श आदि शब्दों में ही किया जाता है,
शेष सभी शब्दों में ‘क्ष’ का प्रयोग किया जाता है। जैसे-रक्षा, कक्षा, क्षमता, सक्षम, शिक्षा,
दक्ष आदि।
● ‘ज्ञ’ ध्वनि के उच्चारण हेतु ‘ग्य’ लिखित रूप में निम्न शब्दों में ही प्रयुक्त होता
है— ग्यारह, योग्य, अयोग्य, भाग्य, रोग से बने शब्द जैसे—आरोग्य, आदि में इनके अलावा
अन्य शब्दों में ‘ज्ञ’ का प्रयोग करना सही होता है, जैसे-ज्ञान, अज्ञात, यज्ञ, विशेषज्ञ, विज्ञान,
वैज्ञानिक आदि ।
वर्तनी की अशुद्धि को दूर करने के लिए किसी एक अक्षर या मात्रा से संबंधित उच्चारण
और उसके लेखन को शुद्ध करने के लिए निम्नलिखित गतिविधि कराई जा सकती है। गतिविधि
कक्षा को अलग-अलग समूहों में बांट दें तथा शिक्षक श्यामपट्ट पर किसी एक अक्षर
या मात्रा से संबंधित वर्तनी की अशुद्धि वाले शब्दों को लिखेंगे। छात्रों को उन्हें समूह में शुद्ध
करने को कहेंगे। जैसे—संयुक्ताक्षर से संबंधित शब्दों के अशुद्ध रूप लिख कर बच्चों से
उन्हें शुद्ध करने के कार्य करवाए जाएंगे। इस प्रकार जिस समूह के बच्चे सबसे अधिक शब्दों
को शुद्ध करेंगे, उसे विजेता माना जाएगा। ऐसी ही अन्य गतिविधि दूसरे वर्तनी संबंधी अशुद्धि
के लिए बारी-बारी से किया जा सकता है, जिसमें उच्चारण दोष के निराकरण संबंधी
गतिविधियों को भी शामिल कर सकते हैं।
प्रश्न 29 सीखने की योजना का निर्माण करते समय क्या सावधानियाँ बरतनी
चाहिए ? स्पष्ट कीजिए।
अथवा,
पाठ योजना का निर्माण करते समय किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए ?
उत्तर–पाठ योजना के निर्माण में सावधानियाँ―शिक्षण की कुशलता बहुत कुछ
पाठ-योजना पर निर्भर करती है। अतः शिक्षकों, विशेष रूप से विद्यार्थी शिक्षकों को
पाठ-योजना बनाते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए―
1. उद्देश्य की स्पष्टता―पाठ योजना में उद्देश्य की स्पष्टता होनी चाहिए। उद्देश्य के
स्पष्ट अथवा परिभाषित होने से शिक्षक तथा विद्यार्थी दोनों पक्ष उसको प्राप्त करने में सक्रिय
हो जायेंगे।
2. विषय का ज्ञान―पाठ-योजना बनाने के लिए शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान
होना चाहिए। कुछ शिक्षकों को अपना विषय स्पष्ट नहीं होता। इससे वे पाठ के विभिन्न
तथ्यों तथा घटनाओं को स्पष्ट करने में असमर्थ हो जाते हैं। अतः प्रत्येक शिक्षक विशेषतः
विद्यार्थी-शिक्षकों को इस सम्बन्ध में सतर्क रहते हुए जिस पाठ की योजना बनानी हो उसे
पूरी तरह पढ़ लेना चाहिए। यदि हो सके तो विद्यार्थी-शिक्षक केवल पाठ्य पुस्तक को ही
न पढ़े अपितु अन्य सहायक पुस्तकों में से भी प्रकरण सम्बन्धी सामग्री पढ़ कर लिखें।
3. समस्त विषयों का सामान्य ज्ञान― उत्तम पाठ-योजना बनाने के लिए शिक्षक को
अपने विषय का पूर्ण तथा अन्य सभी विषयों का हल्का-हल्का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।
इसका कारण यह है कि ज्ञान एक पूर्ण इकाई होती है। इसे अलग-अलग भागों में विभाजित
नहीं किया जा सकता। अतः किसी भी विषय को उत्तम ढंग से पढ़ाने के लिए शिक्षक को
उस विषय से सम्बन्धित दूसरे विषयों का ज्ञान भी अवश्य होना चाहिए।
4. शिक्षक के सिद्धांतों तथा विधियों अथवा नीतियों का ज्ञान–पाठ योजना बनाने
के लिए शिक्षक को शिक्षण-सिद्धांतों शिक्षण-सूत्रों, शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों का पूर्ण
ज्ञान होना चाहिए। इससे वह पाठ-योजना में प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधियों का
ठीक-ठीक उल्लेख कर सकेगा।
5. विद्यार्थियों की प्रकृति का ज्ञान―प्रत्येक विषय को पढ़ाने की उपयुक्त विधि उस
समय उपयोगी हो सकती है जब शिक्षण की विषय-सामग्री के साथ-साथ विद्यार्थियों की
प्रकृति का भी पूर्ण ज्ञान हो।
6. पूर्वज्ञान की स्पष्टता―पाठ योजना बनाते समय शिक्षक को विद्यार्थियों के पूर्वज्ञान
को ध्यान में रखना चाहिए। इसका कारण यह है कि पूर्व ज्ञान के आधार पर दिया हुआ
नवीन ज्ञान स्थायी तथा ग्राह्य हो जाता है। दूसरे शब्दों में, किसी पाठ का सरलतापूर्वक विकास
उसी समय हो सकता है जब शिक्षक को विद्यार्थियों के पूर्व-ज्ञान की स्पष्टता हो।
7. कक्षा स्तर का ज्ञान–पाठ योजना बनाते समय शिक्षक को कक्षा-स्तर का ज्ञान
अवश्य होना चाहिए, कुछ नवीन शिक्षक पाठ-योजना बनाते समय कक्षा के स्तर को ध्यान
में नहीं रखते। इससे शिक्षण अस्त-व्यस्त हो जाता है और विद्यार्थियों की समझ में कुछ नहीं आता।
8. सोपानों का विभाजन―पाठ-योजना बनाते समय शिक्षक को चाहिए कि वह
प्रकरण को एक से अधिक आवश्कतानुसार सोपानों में विभाजित कर लें । साथ ही यह भी
निश्चित कर लें कि किस सोपान में किस शिक्षण विधि अथवा नीति का प्रयोग किया
जायेगा। इससे पाठ-योजना सरलतापूर्वक बन जाती है तथा शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों पक्षों
के लिए सरल एवं ग्राह्य हो जाती हैं।
9. सहायक सामग्री का प्रयोग पाठ-योजना बनाते समय यह निश्चित कर लेना
चाहिए कि सहायक सामग्री का किस सोपान में किस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए कब
प्रयोग किया जायेगा ? दूसरे शब्दों में, सहायक सामग्री को आवश्यकतानुसार विधिपूर्वक प्रयोग
करना चाहिए। इससे पाठ की स्वाभाविकता तथा रोचकता बनी रहेगी।
10. लचीलापन–पाठ-योजना शिक्षक की दासी होती है, स्वामिनी नहीं। अतः शिक्षण
में आकर्षण तथा रोचकता लाने के लिए शिक्षक पाठ-योजना में आवश्यक परिवर्तन करने
के लिए स्वतंत्र है।
11. समय का ज्ञान–पाठ योजना बनाते हुए शिक्षक को समय का ध्यान रखना
चाहिए। दूसरे शब्दों में, शिक्षक को यह बात स्पष्ट रूप से मालूम होनी चाहिए कि पाठ
योजना विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करने में कितना समय लगेगा तथा निर्धारित समय में कुल
कितनी क्रियाएँ सफलतापूर्वक की जा सकती हैं।
प्रश्न 30. शुद्ध उच्चारण से क्या तात्पर्य है? शुद्ध उच्चारण का महत्त्व
प्रतिपादित करते हुए अशुद्ध उच्चारित ध्वनियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर― भाषा शिक्षण में शुद्ध उच्चारण का महत्त्व
हिन्दी ध्वन्यात्मक भाषा है अर्थात् इसके वर्ण, लिपि, चिह्न और उच्चारित ध्वनि एक
है। एक ध्वनि के लिए एक वर्ण है। लिपी, चिह्न और ध्वनि की समरूपता के कारण
उच्चारण की शिक्षा का विशेष महत्त्व हैं।
शुद्ध उच्चारण से तात्पर्य― शुद्ध उच्चारण अर्थात् मानक उच्चारण। हिन्दी का
विशाल क्षेत्र हैं उसमें अनेक बोलियाँ, अनेक विभाषाएँ है। इनकी हिन्दी भाषा के शुद्ध
उच्चारण पर दुष्प्रभाव पड़ता है। शुद्ध उच्चारण केवल वर्णों के शुद्ध उच्चारण से नहीं वरन् शब्द
और वाक्य स्तर पर उच्चारण में बलाघात, अनुतान संगम का भी ध्यान रखना आवश्यक है।
शुद्ध उच्चारण से अर्थग्रहण से सुगमता, भाव सम्प्रेषण में तीव्रता आती है। शुद्ध
उच्चारण से यह भाव है कि शब्द का व्याकरण कोटि के अनुसार उचित विराम के साथ
उच्चारण । सुशिक्षित विद्वान् भाषा का जिस तरह उच्चारण करता है, उसी के अनुरूप
उच्चारण करना; जैसे—’सत्य’ का उच्चारण प्रारंभ में कई तरह से संभव है, सन् + य, सत्य,
स/त्य, सत + य, सत् + त्य इनमें से कौन-सा उच्चारण शुद्ध है। इसका मानक शुद्ध
उच्चारण है—सत् + त्य। इसी तरह, प्रत्यय ज्ञान से अनभिज्ञ बालक अधिकतर शब्द
उच्चारण अधि-कतर भी कर सकता है, परंतु यह उच्चारण अशुद्ध है।
उच्चारण सम्बन्धी अशुद्धियाँ और उनका निराकरण―उच्चारण सम्बन्धी अशुद्धियाँ
सामान्यतः निम्नलिखित प्रकार की होती है। इन अशुद्धियों को दूर के लिए उनके शुद्ध
उच्चारण के अभ्यास के प्रति हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए।
हिन्दी वर्णों में ऋ, ञ, ष, ज्ञ के मूल उच्चारण की जगह अब उनका उच्चारण क्रमश:
रि, यँ, श, ग्य के रूप में होने लगता है। ऋ संस्कृत तत्सम शब्दों में ही प्रयुक्त होता है;
‘जैसे— ऋग्वेद, ऋजु, ऋण, ऋषि, ऋद्धि आदि। ऋ के उच्चारणाभ्यास के लिए ॠ की मात्रा
“०̅” वाले शब्द भी बता दिए जाएँ: जैसे—कृपा, कृषि, गृह, घृणा, दृश्य, मृत्यु, श्रृंगार, सृष्टि
आदि । इसी प्रकार ज्ञ युक्त शब्द भी बात दिए जाएँ भले ही उसका मूल उच्चारण हम भूल
से गए हैं। घ का उच्चारण श के समान हो गया है पर लिखित मूल उच्चारण हम भूल
से गए हैं। ष का उच्चारण श के समान हो गया है पर लिखित रूप में उसकी जगह श
का प्रयोग अशुद्ध है। ञ प्रयोग हिन्दी में स्वतंत्र रूप से नहीं होता है।
अशुद्ध शुद्ध
अ, आ संबंधी समाजिक सामाजिक
अराधना आराधना
आधीन अधीन
अनाधिकार अनधिकार
इ ई संबंधी कवी कवि
शांती शांति
बुद्धी बुद्धि
पितांबर पीताबर
आशिर्वाद आशीर्वाद
उ, ऊ संबंधी गूरू गुरू
साधू साधु
पशू पशु
शुन्य शून्य
पुज्य पूज्य
ए, ऐ संबंधी एतिहासिक ऐतिहासिक
एच्छिक ऐच्छिक
ओ, औ संबंधी औसर अवसर
नौनीत नवनीत
ॠ, रि, र किरपा कृपा
द्रिष्टि दृष्टि
निर्पराध निरपराध
प्रथक पृथक
सौहार्द्र सौहार्द
आर्शिवाद आशीर्वाद
छ, क्ष, च्छ छुद्र क्षुद्र
दीच्छा दीक्षा
छेत्र क्षेत्र
छत्रिय क्षत्रिय
ट, ठ संबंधी घनिष्ट घनिष्ठ
विशिष्ठ विशिष्ट
पृष्ट पृष्ठ
अभीष्ठ अभीष्ट
ड, ढ़, र संबंधी पड़ना पढ़ना
लढ़ना लड़ना
लरका लड़का
न, ण संबंधी चरन चरण
गुन गुण
प्रमान प्रमाण
प्रनाली प्रणाली
व, ब संबंधी वरषा वर्षा
बिषय विषय
बहीष्कार बहिष्कार
श, ष, स संबंधी श्रोत स्रोत
प्रशाद प्रसाद
संतोश संतोष
बिसेश विशेष
नमष्कार नमस्कार
लोप-आगम विषय
संबंधी अध्यन अध्ययन
स्वालंबन स्वावलंबन
अस्नान स्नान
चिन्ह चिह्न
मध्यान्ह मध्याह्न
प्रश्न 31. व्याकरण का अर्थ एवं परिभाषा दें। व्याकरण-शिक्षण के उद्देश्य तथा
भाषा-शिक्षण में व्याकरण का महत्त्व तथा उपयोगिता स्पष्ट करें।
उत्तर―भाषा एक महान् शक्ति है। इसका दुरुपयोग और सदुपयोग दोनों हो सकते हैं।
देश और काल के कारण भी उनमें प्रतिफल, प्रत्येक स्थान पर परिवर्तन की संभावना रहती
है। शारीरिक-मानसिक दोषों के कारण भी उसके स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है। यदि
नियमों द्वारा उसको स्थिर न रखा जाये तो भाषा की उपादेयता, महत्ता तथा स्वरूप ही नष्ट
हो जायेगा। अतः भाषा के शीघ्र परिवर्त्तन को रोकने के लिए ही व्याकरण का उस पर
नियंत्रण कर दिया गया है, परंतु, व्याकरण भाषा का अनुशासन मात्र ही करता है, शासन
नहीं। वह भाषा का सृजन नहीं, परिष्कार ही करता है।
भाषा की सुन्दरता के लिए शब्द-शक्तियों (अभिघा, लक्षणा, व्यंजना), गुणों (ओज,
माधुर्य, प्रसाद), रीतियों (वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली आदि) तथा अलंकारों का होना आवश्यक
है। इसके विपरीत, भाषा-विज्ञान की अज्ञानता, बल-प्रयोग, पीढ़ी और स्थान परिवर्त्तन,
भावोवेश, सादृश्य तथा व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण भाषा में अनेक प्रकार के दोष
उत्पन्न हो जाते हैं, जिनको दूर कर भाषा में सुन्दरता लाना ही व्याकरण का कार्य है। अतः
लक्ष्य और लक्षणों के व्यवस्थित वर्णन का नाम ही व्याकरण है।
व्याकरण की शाब्दिक व्युत्पत्ति वि + आ + कृ धातु + ल्युट् प्रत्यय के रूप में की जाती
है। इसका अर्थ है—”व्याक्रियन्ते (व्युत्याद्यन्ते) शब्दा येन अर्थात् जिसके द्वारा अर्थस्वरूप
से शब्द-सिद्धि हो। पतंजलि ने महाभाष्य में व्याकरण को ‘शब्दानुशासन’ कहा है। यह भाषा
का शासक न होकर अनुशासक है अर्थात् इसके द्वारा भाषा को व्यवस्थित किया जाता है।
डॉ. स्वीट के अनुसार व्याकरण भाषा का व्यावहारिक विश्लेषण है।
भाषा विचार-विनिमय का सर्वोत्कृष्ट साधन है। संसार के प्रत्येक क्षेत्र के निवासी
किसी-न-किसी भाषा का प्रयोग कर भावाभिव्यक्ति करते हैं। विभिन्न भाषाओं के सर्वमान्य
रूप से दृष्टिपात और गहनता से विचार करने के बाद किंचित नियमों को निर्धारित किया
गया। विभिन्न भाषाओं के सर्वमान्य रूप से दृष्टिपात और गहनता से विचार करने के बाद
किंचित नियमों को निर्धारित किया गया। विभिन्न भाषाओं के ये नियम ही उन भाषाओं के
व्याकरण का निर्माण करते हैं। प्रत्येक भाषा नियमबद्ध होती है और भाषा को बाँधनेवाले
नियम ही उस भाषा के व्याकरण की कथावस्तु होती है। भाषा के संरक्षण के आधार पर
डॉ. स्वीट ने अपनी पुस्तक “न्यू इंगलिश ग्रामर” में व्याकरण की परिभाषा इस प्रकार दी
है―
“Grammar is the practical analysis of a language its anatomy.”
सानशिन के अनुसार, “Grammar deals merely with differences in the
grouping of words in a sentence.”
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि व्याकरण का उद्देश्य भाषा सिखाना नहीं, परंतु,
भाषा के सम्बन्ध में इन बातों का ज्ञान कराना है―
(i) भाषा-रचना का ज्ञान कराना,
(ii) वाक्यो में आनेवाले शब्द-समूहों के अंतर को स्पष्ट करना।
(iii) भाषा सम्बन्धी कुछ प्रयोगों का अध्ययन।
(iv) भाषा से सम्बंधित नियमों का कथन।
व्याकरण-शिक्षण के उद्देश्य:
1. छात्रों को शुद्ध भाषा का प्रयोग सिखाना।
2. छात्रों को वाक्यों, शब्दों तथा वर्गों की शुद्धता का ज्ञान कराना ।
3. भाषा को विकृत होने से बचाना।
4. विद्यार्थियों में ऐसी क्षमता उत्पन्न करना कि जिससे कि वे कम-से-कम शब्दों में
शुद्धता से अपने भाव अभिव्यक्त कर सके।
5. साथ ही, उनमें ऐसी योग्यता उत्पन्न करना जिससे कि वे भाषा की अशुद्धता को
समझ सकें और उनमें भाषा को परखने की शक्ति का विकास हो सकें।
6. विद्यार्थियों को भाषा के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिचित करा देना है।
भाषा-शिक्षण में व्याकरण का स्थान, महत्त्व तथा उपयोगिता–व्याकरण-शिक्षण
के महत्त्व और उपयोगिता के विषय में विद्वानों में परस्पर मतभेद है।
प्रथम मत– कुछ विद्वानों के अनुसार, भाषा शिक्षण में व्याकरण का अत्यधिक महत्त्व
है। बिना व्याकरण के जाने भाषा पर कोई व्यक्ति पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं कर सकता।
भाषा के तात्विक पक्ष को समझने के लिए यह आवश्यक है कि व्याकरण के नियमों को
भी समझा जाये। भाषा में बोलने और लिखने की शुद्धता बिना व्याकरण के ज्ञान नहीं आ
सकती। सीताराम चतुर्वेदी के अनुसार, “व्याकरण की शिक्षा भाषा की शिक्षा का एक
आवश्यक और अपरिहार्य अंग है। भाषा प्रयोग का उचित रहस्य समझने के लिए व्याकरण
का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।”
द्वितीय मत— भाषा सीखने के लिए व्याकरण का जानना आवश्यक नहीं है। इस मत
के समर्थकों का कहना है कि भाषा-शिक्षण में या भाषा सीखने के लिए व्याकरण के नियमों
का ज्ञान रखना आवश्यक नहीं है। भाषा बोलकर तथा अनुकरण से सीखी जाती है, न कि
व्याकरण के नियमों को रटकर। इस सम्बन्ध में रायर्बन का कथन है-
‘बालक निर्देश और अनुकरण के द्वारा भाषा सीखेंगे वनिस्पत भाषा सीखने के। उनके
लिए यहीं आवश्यक है कि पर्याप्त पढ़ें तथा अच्छी प्रकार सुनें । “
तृतीय मत― इस मत के अनुसार, व्याकरण-शिक्षण आवश्यक है, उस पर अत्यधिक
बल देना उचित है। छात्रों के लिए व्याकरण का ज्ञान उतना ही पर्याप्त है जितना कि उन्हें
पाठ्य पुस्तक समझने के लिए आवश्यक है।
अब प्रश्न उठता है कि समस्या के निदान के लिए शिक्षक कौन-सा मार्ग अपनावें ?
शिक्षक को विभिन्न मतों के भ्रमजाल में नहीं फँसना चाहिए। इस सम्बन्ध में उन्हें
व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। भाषा की शुद्धता उसकी नियामक शक्ति को जानने
के लिए विभिन्न स्तरों पर भाषा-शिक्षण आवश्यक है। प्राथमिक स्तर तक व्याकरण के
व्यावहारिक पहलुओं पर बल दिया जाये और छठी श्रेणी से सैद्धान्तिक पक्ष पर अधिक ध्यान
दिया जाये। ध्वनि-तत्त्वों तथा शब्द-निर्माण एवं वाक्य रचना का ज्ञान विद्यार्थियों को
माध्यमिक स्तर से देना अधिक लाभदायक होगा। व्याकरण का व्यावहारिक पहलू उसके
सैद्धान्तिक पहलू से अधिक महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी है। अतः व्याकरण शिक्षकों में नियमों
को रहने की प्रवृत्ति का बहिष्कार करना चाहिए। छात्रों को व्याकरण सम्बन्धी जो भी ज्ञान
दिये जायें, वे अपनी पाठ्य पुस्तकों में आये उदाहरणों को ध्यान में रखकर।
भाषा को व्याकरण के नियमों में जकड़ना भी हानिप्रद है और साथ ही उसे
व्याकरणविहीन बनाना भी।
यदि हम व्याकरण को साधन के स्थान पर साध्य मानकर उसके नियम आदि रटाना ही
अपना कर्त्तव्य समझते हैं तो उसका नीरस होना स्वाभाविक है। दूसरी ओर, यदि भाषा-व्यवस्था
सम्बन्धी कुछ नियम ही नहीं बनाये गए और न ही उनका पालन किया गया तो भाषा का
कोई रूप न होगा, न शब्दों में एकरूपता रहेगी, न वाक्य रचना में। तब अर्थ और भाव
समझना भी दूभर हो जायेगा।
अतः भाषा-शिक्षण में व्याकरण के ज्ञान को स्वीकारते हुए अध्यापक को अपने विवेक
के आधार पर व्याकरण का प्रयोग करना चाहिए।
व्याकरण-शिक्षण का कार्य वर्ग-6 से किया जाना चाहिए क्योंकि इस स्तर पर छात्रों का
भाषा का पर्याप्त अधिकार हो जाता है। रायबर्न, थाम्पसन तथा बायट भी इसी मत के समर्थक है।
रायबर्न ने लिखा है—जब छात्र माध्यमिक कक्षाओं में पहुँचेंगे, तब उनकी आयु ऐसी
होगी कि वे समझ सकेंगे कि बोलने ओर लिखने के कुछ नियम होते हैं। क्रमशः वे समझने
लगेंगे कि विभिन्न शब्द विभिन्न कार्य करते हैं और उनमें परस्पर विभिन्न सम्बन्ध होते हैं।
यही समय नियमित व्याकरण प्रारम्भ करने का है क्योंकि छात्र उससे सबकुछ लाभ उठा सकते हैं।
अतः व्याकरण-शिक्षण का आरम्भ छात्रों की मानसिक और बौद्धिक क्षमता को ध्यान
में रखकर करना चाहिए।