उपनिवेशवाद के विरुद्ध जनजातीय गोलबंदी एवं आंदोलन
उपनिवेशवाद के विरुद्ध जनजातीय गोलबंदी एवं आंदोलन
उपनिवेशवाद के विरुद्ध जनजातीय
गोलबंदी एवं आंदोलन
तत्कालीन बंगाल में अँगरेजों का उद्देश्य
18वीं शताब्दी में बंगाल में अँगरेजी सत्ता की स्थापना एवं दीवानी की प्राप्ति के समय वर्तमान झारखंड (तत्कालीन बिहार)
बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत था। अतः, ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालक इस क्षेत्र से भी राजस्व प्राप्त करना चाहते थे, परंतु यह
कार्य आसान नहीं था। यहाँ के स्थानीय राजा मुगलों के अधीनस्थ करद-राजाओं के समान थे जो स्वेच्छा से आवश्यकतानुसार कर देते थे। यही स्थिति जमींदारों और जागीरदारों की भी थी। दूसरी ओर कंपनी का इस क्षेत्र पर नियंत्रण बढ़ाना आवश्यक था। इसके लिए अनेक कारण थे-
(i) नए व्यापारिक मार्ग की आवश्यकता-ईस्ट इंडिया कंपनी को दीवानी प्राप्त होने के समय संथाल परगना के पहाड़ी क्षेत्र एवं बिहार के मैदानी इलाके से गुजरनेवाले मार्ग पर बंगाल के नवाब मीरकासिम और मराठों के आक्रमण होते रहते थे। अतः, विकल्प के रूप में झारखंड होकर बनारस तक एक नए व्यापारिक मार्ग की आवश्यकता केपनी को पड़ी। इस नए मार्ग के खुल जाने झारखंड के राजा और जागीरदार भी कंपनी के सहयोगी बन जाते
(ii) वागी जमीदारों पर नियंत्रण की आवश्यकता-झारखंड दक्षिण बिहार के बागी जमीदारों की शरणस्थली था। कंपनी द्वारा
दबाव डाले जाने पर वे भाग कर झारखंड में शरण लेते थे। ऐसे लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए झारखंड पर कंपनी का अधिकार होना आवश्यक था।
(iii) मराठा आक्रमणों से सुरक्षा की आवश्यकता-दक्षिण बिहार तथा दक्षिण-पश्चिम बंगाल को मराठा आक्रमणकारियों से
सुरक्षित रखने के लिए भी झारखंड पर कंपनी का नियंत्रण आवश्यक बन गया।
अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने झारखंड में प्रवेश करने की नीति अपनाई। 1760 में मिदनापुर पर
आधिकार कर अँगरेज सिंहभूम एवं निकटवर्ती क्षेत्र पर अपना प्रभाव बढ़ाने लगे। धीरे-धीरे संपूर्ण झारखंड उनके प्रभाव में आ
गया। इस क्षेत्र के प्रशासन की व्यवस्था की गई, पुलिस न्यायालय स्थापित किए गए तथा लगान वसूली का प्रबंध किया गया। यह सारा प्रबंध जनजातियों के हितों की उपेक्षा कर किया गया। सरकारी अमला, जागीरदार, जमीदार, महाजन, सूदखोर, पुलिस सभी मिलकर आदिवासियों का उत्पीड़न करने लगे। उनपर अत्यधिक कर लगा दिए गए तथा इन्हें नहीं चुकाने पर जमीन से बेदखल किया जाने लगा। कॉर्नवालिस की स्थायी बंदोबस्ती का तो और भी घातक प्रभाव पड़ा। फलतः, आदिवासियों का आक्रोश फूट पड़ा। उनलोगों ने एक ही साथ कंपनी सरकार, जमीदार, जागीरदार, पुलिस, साहूकार और सूदखोरों का विरोध करना आरंभ कर दिया। अतः, आदिवासी विद्रोह एक ही साथ राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और धार्मिक विद्रोह बन गए।