प्रथम विश्वयुद्ध की विशेषताएँ
प्रथम विश्वयुद्ध की विशेषताएँ
प्रथम विश्वयुद्ध की विशेषताएँ
1914-18 के युद्ध को अनेक कारणों से प्रथम विश्वयुद्ध कहा जाता है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-
(i) यह प्रथम युद्ध था, जिसमें विश्व के लगभग सभी शक्तिशाली राष्ट्रों ने भाग लिया। यह यूरोप तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि एशिया, अफ्रीका और सुदूरपूर्व में भी लड़ा गया। ऐसा व्यापक युद्ध पहली बार हुआ था, इसलिए 1914-18 का युद्ध प्रथम विश्वयुद्ध कहलाया।
(ii) यह युद्ध जमीन के अतिरिक्त आकाश और समुद्र में भी लड़ा गया।
(iii) इस युद्ध में नए मारक और विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों एवं युद्ध के अन्य साधनों का उपयोग किया गया था। इसमें मशीनगन तथा तरल अग्नि का पहली बार व्यवहार किया गया। बम बरसाने के लिए हवाई जहाज का उपयोग किया गया। इंगलैंड ने टैंक और जर्मनी ने यू-बोट पनडुब्बियों का बड़े स्तर पर व्यवहार किया।
(iv) प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिकों के अतिरिक्त सामान्य जनता ने भी सहायक सेना के रूप में युद्ध में भाग लिया।
(v) इस युद्ध में सैनिकों और नागरिकों का जितने बड़े स्तर पर संहार हुआ वैसा पहले के किसी युद्ध में नहीं हुआ था।
(vi) इस युद्ध ने स्पष्ट रूप से यह दिखा दिया कि वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरुपयोग मानवता के लिए कितना घातक हो सकता है।
इस प्रकार, प्रथम विश्वयुद्ध को विश्व इतिहास में एक युगांतकारी घटना माना जा सकता है।
पेरिस शांति सम्मेलन
नवंबर 1918 में विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात विजित राष्ट्रों ने पेरिस में एक शांति सम्मेलन का आयोजन जनवरी 1919 में
किया। इसके पूर्व जनवरी 1918 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने अपना चौदह-सूत्री योजना प्रस्तुत किया। इसमें
विश्वशांति स्थापना के तत्त्व निहित थे। इसमें गुप्त संधियों को समाप्त करने, समुद्र की स्वतंत्रता को बनाए रखने, आर्थिक
प्रतिबंधों को समाप्त करने, अस्त्र-शस्त्रों को कम करने, शांति स्थापना के लिए विभिन्न राष्ट्रों का संगठन बनाने, रूसी क्षेत्र को
मुक्त करने, फ्रांस को अलसेस-लॉरेन देने, सर्बिया को समुद्र तक मार्ग देने, तुर्की साम्राज्य के गैर-तुर्कों को स्वायत्त शासन का
अधिकार देने, स्वतंत्र पोलैंड का निर्माण करने जैसे सुझाव दिए गए। पेरिस शांति सम्मेलन में इन्हें स्थान दिया गया। पेरिस शांति
सम्मेलन में सभी विजयी राष्ट्रों के राजनयिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। रूस और पराजित राष्ट्रों को इस सम्मेलन में आमंत्रित
नहीं किया गया। सम्मेलन में 27 देशों ने भाग लिया। सम्मेलन के निर्णयों पर अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow
Wilson), इंगलैंड के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज (Lloyd George) तथा फ्रांस के प्रधानमंत्री जॉर्ज क्लिमेंशू (George Clemenceau) का प्रभाव था। इस सम्मेलन में पराजित राष्ट्रों के साथ अलग-अलग पाँच संधियाँ की गईं। ये संधियाँ थीं-(i) सेंट
जर्मेन की संधि (Treaty of St Germain), (ii) त्रियानो की संधि (Treaty of Trianon), (iii) निऊली की संधि (Treaty of Neuilly), (iv) वर्साय की संधि (Treaty of Versailles) तथा (v) सेवर्स की संधि (Treaty of Sevres)। पहली संधि ऑस्ट्रिया के साथ, दूसरी हंगरी के साथ, तीसरी बुल्गेरिया के साथ, चौथी जर्मनी और अंतिम तुर्की के साथ की गई। इन संधियों ने यूरोप का मानचित्र बदल दिया।
सेंट जर्मेन की संधि – (1919) के द्वारा ऑस्ट्रिया को अपना औद्योगिक क्षेत्र बोहेमिया तथा मोराविया चेकोस्लोवाकिया को,
बोस्निया और हर्जेगोविना सर्बिया को देना पड़ा। इनके साथ मांटिनिग्रो को मिलाकर यूगोस्लाविया का निर्माण किया गया।
पोलैंड का पुनर्गठन हुआ। ऑस्ट्रिया का कुछ क्षेत्र इटली को भी दिया गया। त्रियानो की संधि (1920) अनुसार, तथा रूथेनिया चेकोस्लोवाकिया को दिया गया। यूगोस्लाविया तथा रूमानिया को भी अनेक क्षेत्र दिए गए। इन संधियों के परिणामस्वरूप ऑस्ट्रिया-हंगरी की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति अत्यंत दुर्बल हो गई। निऊली की संधि (1919) स्लोवाकिया ने बुल्गेरिया का अनेक क्षेत्र यूनान, यूगोस्लाविया और रूमानिया को दे दिए गए। फ्रांस को सीरिया तथा पैलेस्टाइन, इराक और दे दिया। सेवर्स की संधि (1920) के द्वारा ऑटोमन साम्राज्य विखंडित कर दिया गया। इसके अनेक क्षेत्र यूनान और इटली को ट्रांसजोर्डन को ब्रिटिश मैडेट के अंतर्गत कर दिया गया। इससे तुर्की में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इन सभी संधियों में सबसे अधिक व्यापक और प्रभावशाली वर्साय की संधि (1919) थी जो जर्मनी के साथ की गई।
वर्साय की संधि – इस संधि में 440 धाराएँ थीं। इसने जर्मनी को राजनीतिक, सैनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से पंगु बना दिया।
संधि के मुख्य प्रावधान अग्रलिखित थे—(i) जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्रों को युद्ध के लिए दोषी मान कर उनकी घोर निंदा
की गई। साथ ही, मित्र राष्ट्रों को युद्ध में जो क्षति उठानी पड़ी थी उसके लिए हर्जाना देने का भार जर्मनी पर थोपा गया। (ii) 1870 में जर्मनी द्वारा फ्रांस के विजित अलसेस और लॉरेन प्रांत फ्रांस को वापस दे दिए गए। इसके अतिरिक्त जर्मनी का सार प्रदेश, जो लोहे और कोयले की खानों से भरा था, पंद्रह वर्षों के लिए फ्रांस को दिया गया। (iii) जर्मनी की पूर्वी सीमा पर का अधिकांश भूभाग पोलैंड को दिया गया। समुद्रतट तक पोलैंड को पहुँचने के लिए जर्मनी के बीचोबीच एक विस्तृत भूभाग निकालकर पोलैंड को दिया गया। यह क्षेत्र पोलिश गलियारा कहलाया। (iv) डांजिंग और मेमेल बंदरगाह राष्ट्रसंघ के अधीन कर दिए गए। कुल मिलाकर जर्मनी को अपने तेरह प्रतिशत भूभाग और दस प्रतिशत आबादी से हाथ धोना पड़ा। (v) जर्मनी के
निरस्त्रीकरण की व्यवस्था की गई। जर्मन सेना की अधिकतम सीमा एक लाख निश्चित की गई। युद्धोपयोगी सामानों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। (vi) जर्मनी के सभी नौसैनिक जहाज जब्त कर उसे सिर्फ छह युद्धपोत रखने का अधिकार दिया गया। पनडुब्बियों और वायुयान रखने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। (vii) राइन नदी के बाएँ किनारे पर इकतीस मील तक के भूभाग का पूर्ण असैनिकीकरण कर इसे पंद्रह वर्षों के लिए मित्र राष्ट्रों के नियंत्रण में दे दिया गया। (viii) जर्मनी के सारे उपनिवेश मित्र राष्ट्रों ने आपस में बाँट लिया। दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका और पूर्वी अफ्रीका के उपनिवेशों को इंगलैंड, बेल्जियम, पुर्तगाल और दक्षिण अफ्रीका को दे दिया गया। तोगोलैंड और कैमरून पर फ्रांस ने अधिकार कर लिया। प्रशांत महासागर क्षेत्र तथा चीन के जर्मन-अधिकृत क्षेत्र जापान को मिले।
निस्संदेह, वर्साय की संधि जर्मनी के लिए अत्यंत कठोर और अपमानजनक थी। इसकी शर्ते विजयी राष्ट्रों द्वारा एक
विजित राष्ट्र पर जबरदस्ती और धमकी देकर लादी गई थीं। जर्मनी ने इसे विवशता में स्वीकार किया। उसने इस संधि को
अन्यायपूर्ण कहा। जर्मनी को संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश किया गया। चूँकि उसने स्वेच्छा से इसे कभी भी स्वीकार नहीं
किया इसलिए वर्साय की संधि को आरोपित संधि (dictated peace) कहते हैं। जर्मन नागरिक इसे कभी स्वीकार नहीं कर सके। संधि के विरुद्ध जर्मनी में प्रबल जनमत बन गया। हिटलर और नाजीदल ने वर्साय की संधि के विरुद्ध जनमत को अपने पक्ष में कर सत्ता हथिया ली। शासन में आते ही उसने संधि की व्यवस्था को नकार कर अपनी शक्ति बढ़ानी आरंभ कर दी। इसकी परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई। इसीलिए कहा जाता है कि वर्साय की संधि में द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज निहित थे।
इन संधियों के परिणामस्वरूप जर्मनी के अतिरिक्त अन्य केंद्रीय शक्तियों को भी पेरिस सम्मेलन में भारी क्षति उठानी पड़ी। ऑस्ट्रियाई साम्राज्य टुकड़ों में बँट गया तथा उसके अवशेष पर अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ। हंगरी और बुल्गेरिया को
भी अपने अनेक क्षेत्र खोने पड़े। युद्ध में पराजित होने से तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य का भी विघटन हो गया। पेरिस शांति सम्मेलन ने यूरोप को दो गुटों में विभक्त कर दिया–एक गुट इस व्यवस्था को बदलना चाहता था तो दूसरा इसे बनाए रखना।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस व्यवस्था को अपनी स्वीकृति नहीं दी। फ्रांस और इटली भी इस व्यवस्था से निराश थे। सम्मेलन में
रूस की अवहेलना की गई। इस प्रकार, पराजित केंद्रीय शक्तियों के साथ विजयी मित्र राष्ट्रों के व्यवहार ने पेरिस में शांति की
स्थायी व्यवस्था नहीं की, बल्कि अशांति को बढ़ावा देकर द्वितीय विश्वयुद्ध का द्वार खोल दिया। सम्मेलन पर अपनी प्रतिक्रिया
व्यक्त करते हुए अमेरिकी प्रतिनिधि गिलबर्ट ह्वाइट ने लिखा था कि यह आश्चर्यजनक नहीं है कि उनलोगों ने एक खराव संधि
की। आश्चर्यजनक यह है कि उनलोगों ने शांति तो स्थापित की। (It is not surprising that they made a bad peace. What is surprising is that they managed to make peace at all.)