फ्रांस की क्रांति के कारण
फ्रांस की क्रांति के कारण
1789 की फ्रांस की क्रांति की पृष्ठभूमि बहुत पहले ही तैयार हो चुकी थी। तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और
बौद्धिक कारणों से फ्रांस का वातावरण उद्वेलित था। अमेरिकी स्वातंत्र्य संग्राम ने इस क्रांति को निकट ला दिया। इस क्रांति के
प्रमुख कारण अग्रलिखित थे-
◊ राजनीतिक कारण
(i) निरंकुश राजशाही
(ii) राजदरबार की विलासिता
(iii) प्रशासनिक भ्रष्टाचार
(iv) अतिकेंद्रीकृत प्रशासन
(v) प्रशासनिक अव्यवस्था
(vi) न्याय-व्यवस्था की दुर्बलता
(vii) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभाव
◊ सामाजिक कारण
(i) पादरी वर्ग
(ii) कुलीन वर्ग
(iii) सर्वसाधारण वर्ग
(iv) मध्यम वर्ग
◊ आर्थिक कारण
(i) अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था
(ii) दोषपूर्ण कर-व्यवस्था
(iii) कर-वसूली की प्रणाली
(iv) व्यापारिक एवं व्यावसायिक अवरोध
(v) बेकारी की समस्या
◊ सैनिकों का असंतोष
◊ बौद्धिक कारण
(1) मांटेस्क्यू
(ii) वाल्तेयर
(iii) ज्याँ जाक रूसो
(iv) जॉन लॉक
(v) अन्य बुद्धिजीवी
◊ विदेशी घटनाओं का प्रभाव
◊ तात्कालिक कारण
लुई सोलहवाँ की अयोग्यता
राजनीतिक कारण
(i) निरंकुश राजशाही-यूरोप के अन्य देशों के समान फ्रांस में भी निरंकुश राजतंत्र था। राजा के हाथों में सारी शक्ति केंद्रित थी। राजा अपने-आपको ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। उसकी इच्छा ही कानून थी। फ्रांस के बूढे वंश (Bourbon dynasty) का सम्राट लुई चौदहवाँ दंभपूर्वक कहता था-मैं ही राज्य हूँ। (I am the State.) लुई सोलहवाँ का भी कहना था कि “मेरी इच्छा ही कानून है।” इस व्यवस्था में राजा की आज्ञा का उल्लंघन करना अपराध था। फ्रांस में राजा की निरंकुशता को नियंत्रित करने के लिए पार्लमा (Parlement) नामक संस्था थी। यह एक प्रकार का न्यायालय था। इसकी संख्या 17 थी। इसका विकास राजदरबार (curia regis) से हुआ था। यह एक प्रकार का सर्वोच्च न्यायालय भी था जो राजा के निर्णयों की समीक्षा कर सकता था। मुख्य पार्लमा पेरिस में थी। प्रांतों में भी यह संस्था थी। इसमें सिर्फ कुलीन वर्गवाले ही न्यायाधीश थे। इनका पद वंशानुगत था। अतः, ये भी अपनी सुख-सुविधा के लिए राजा पर ही आश्रित थे। इस प्रकार, राजा पर अंकुश लगाने के स्थान पर पार्लमा राजा का ही समर्थन करती थी।
(ii) राजदरवार की विलासिता-फ्रांस का राजदरबार विलासिता का केंद्र था। जनता से वसूला गया धन निर्ममतापूर्वक राजा अपने भोग-विलास और आमोद-प्रमोद पर खर्च करता था। लुई सोलहवाँ पेरिस से मीलों दूर वर्साय के शीशमहल में रहता था।
वह शान-शौकत की जिंदगी व्यतीत करता था। उसकी सेवा के लिए असंख्य पदाधिकारी और दास-दासियाँ थीं। उसकी रानी मेरी एंतोएनेत (ऑस्ट्रिया की राजकुमारी) भी राजकीय आय की फिजूलखर्ची के लिए विख्यात थी तथा ‘मैडम डेफिसिट’ के नाम
से जानी जाती थी। इतना ही नहीं, राजदरबार में चाटुकारों की भीड़ रहती थी जो राजा के ही समान भोग-विलास में मग्न रहते थे।
(iii) प्रशासनिक भ्रष्टाचार-राजा के सलाहकार, सेवक और अधिकारी भ्रष्ट थे। उनका एकमात्र उद्देश्य राजा की चाटुकारिता कर अपना उल्लू सीधा करना था। राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर योग्यता के आधार पर नहीं, बल्कि पैरवी पर नियुक्ति की जाती थी। पदाधिकारी एवं दरबारी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए षड्यंत्र में लगे रहते थे। इससे प्रशासन पर बुरा प्रभाव पड़ा।
(iv) अतिकेंद्रीकृत प्रशासन-फ्रांस की प्रशासनिक व्यवस्था की एक बड़ी दुर्बलता यह थी कि प्रशासन की सारी शक्ति राजा के ही हाथों में केंद्रित थी। उसकी इच्छा और सहमति के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता था। स्वायत्त प्रशासनिक संस्थाओं का प्रचलन नहीं था। इस परिस्थिति में प्रशासनिक व्यवस्था शिथिल पड़ गई. क्योंकि राजा को भोग-विलास से निकलकर प्रशासन की ओर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं थी।
(v) प्रशासनिक अव्यवस्था-फ्रांस में प्रशासनिक एकरूपता का सर्वथा अभाव था। वहाँ का प्रशासन अव्यवस्थित एवं बेढंगा था। विभिन्न प्रांतों, जिलों और अन्य प्रशासनिक इकाइयों में अलग-अलग कानून प्रचलित थे। कानूनों में एकरूपता नहीं थी।
विभिन्न क्षेत्रों में करीब चार सौ कानून प्रचलित थे। माप-तौल की प्रणाली, न्याय-व्यवस्था एवं कानून तथा मुद्रा के प्रचलन में भी
एकरूपता का अभाव था।
(vi) न्याय-व्यवस्था की दुर्वलता-फ्रांस की न्याय-व्यवस्था में भी अनेक दुर्गुण विद्यमान थे। न्याय-व्यवस्था अत्यंत महँगी थी।
छोटे-छोटे मुकदमों में भी अधिक धन खर्च होता था। सुयोग्य जज भी नहीं थे। इसलिए, न्याय पाना अत्यंत कठिन था। फ्रांस की न्यायिक प्रक्रिया की सबसे विचित्र व्यवस्था थी राजाज्ञा या लेटर दी कैचे (Letters de cacher)। इसके द्वारा कोई भी कुलीन,
दरबारी या सम्राट का प्रियपात्र अपने विरोधियों को दंडित करवा सकता था। इसके आधार पर किसी भी व्यक्ति पर बिना मुकदमा चलाए उसे गिरफ्तार किया जा सकता था। धनी लोग इसे खरीद कर इसका मनमाना दुरुपयोग करते थे। इसके अतिरिक्त दंड-संबंधी कानून में वर्ग-विभेद था। समान अपराध के लिए उच्च वर्ग को हलकी सजा, परंतु जनसाधारण को कड़ी सजा दी जाती थी।
(vii) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभाव-फ्रांस की राजनीतिक- प्रशासनिक व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान
नहीं था। राजा के विरुद्ध भाषणों अथवा लेखों के माध्यम से आवाज नहीं उठाई जा सकती थी। भाषण, लेखन एवं प्रकाशन
पर कठोर नियंत्रण था। राजा मुकदमा चलाए बिना भी किसी को गिरफ्तार कर दंडित कर सकता था। धार्मिक स्वतंत्रता भी नहीं थी। फ्रांस का राजधर्म कैथोलिक धर्म था। इसलिए, प्रोटेस्टेंट धर्मावलंबियों के लिए कड़े दंड की व्यवस्था की गई थी।
सामाजिक कारण
फ्रांस का समाज वर्ग-विभाजित था। प्रत्येक वर्ग की स्थिति दूसरे वर्ग से भिन्न थी। समाज तीन वर्गों अथवा इस्टेट्स (Estates) में विभक्त था। प्रत्येक वर्ग के उपवर्ग भी थे। पहला वर्ग पादरियों का तथा दूसरा वर्ग कुलीनों का था। तीसरे वर्ग में समाज के अन्य सभी लोग आते थे।
(i) पादरी वर्ग-फ्रांस में चर्च की प्रभावशाली भूमिका थी। अतः, पादरियों का व्यापक प्रभाव था। यह फ्रांस का सर्वोच्च, शक्तिशाली और सुविधाप्राप्त वर्ग था। इसे अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। पादरी भी दो उपवर्गों में बँटे हुए थे-(i) बड़े पादरी
तथा (ii) साधारण पादरी। बड़े पादरी संख्या में कम थे, परंतु उनके पास अगाध संपत्ति थी। फ्रांस की समस्त भूमि का बहुत
बड़ा भाग उनके नियंत्रण में था। मठों की संपत्ति भी इनके नियंत्रण में थी। इनके पास आलीशान महल और हीरे-जवाहरात
भी थे। इन्हें राज्य को कर नहीं देना पड़ता था, बल्कि ये पादरी ही कुछ विशेष प्रकार के कर वसूलते थे। इनमें किसानों से वसूला जानेवाला धार्मिक कर या टाइद (tithe) महत्त्वपूर्ण था। बड़े पादरियों का जीवन भोग-विलास में बीतता था, आध्यात्मिकता से ये मीलों दूर थे। दूसरी ओर, साधारण पादरी, जो बड़ी संख्या में थे, कष्टमय जीवन व्यतीत करते थे। उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी। इन्हें किसी प्रकार का सम्मान नहीं मिलता था। इन्हें कोई विशेषाधिकार भी नहीं था।
(ii) कुलीन वर्ग- यद्यपि इनका स्थान बड़े पादरियों के नीचे था तथापि यह वर्ग भी सुविधाभोगी था। प्रशासन, सेना तथा न्यायिक
अधिकारियों की नियुक्ति इसी वर्ग से की जाती थी। इनके हाथों में शक्ति और धन दोनों थे। इनके पास फ्रांस की कुलभूमि का 1/5वाँ भाग, आलीशान महल तथा बाग-बगीचे थे। राज्य की ओर से इन्हें उपहार और पारितोषिक भी दिए जाते थे। समाज में इनका काफी सम्मान था। इन्हें माई लॉर्ड, योर प्रेस जैसे सम्मानजनक शब्दों से संबोधित किया जाता था। पादरियों के समान कुलीन वर्ग भी राज्य को कर नहीं देता था। इनका अधिकांश समय भोग-विलास और राजा की चाटुकारिता में व्यतीत होता था।
पादरियों के समान कुलीन वर्ग भी दो वर्गों में विभक्त था-
(i) जन्मजात कुलीन (nobles by birth) तथा (ii) ओहदेदार कुलीन (nobles by robe)। जन्मजात कुलीनों में बड़े कुलीन राजदरबार से जुड़े हुए थे। वे वर्साय में राजा के निकट रहते थे। इनके पास बड़ी जमींदारियाँ थी, पर वे स्वयं वहाँ नहीं रहते थे। चूँकि इनकी जमींदारियों का प्रबंध इनके कर्मचारी देखते थे इसलिए ये अनुपस्थित जमींदार कहलाते थे। छोटे कुलीन अपनी जमींदारी में देहातों में रहते थे। इन्हें देहाती जमींदार कहा जाता था। धन और सम्मान तथा विशेषाधिकार में ये बड़े कुलीनों से कमतर थे। ओहदेदार कुलीन राजा की कृपा प्राप्त कर सम्मान और पद पाते थे। प्रशासनिक पदों पर इनकी नियुक्ति भी होती थी। यद्यपि कुलीनों में भी वर्ग-विभेद और आपसी मनमुटाव था तथापि सर्वसाधारण वर्ग की तुलना में उन्हें अनेक विशेषाधिकार थे।
(iii) सर्वसाधारण वर्ग- सामाजिक पायदान की तीसरी सीढ़ी पर सर्वसाधारण वर्ग के लोग आते थे। इनकी संख्या सबसे बड़ी थी, परंतु यह सुविधाविहीन वर्ग था। सर्वसाधारण वर्ग में किसानों की संख्या सबसे अधिक थी। इनकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी। करों का सारा बोझ इन्हीं पर था। राज्य के अतिरिक्त पादरियों एवं कुलीनों को भी ये कर देते थे। इन्हें बेगार भी करनी पड़ती थी। किसानों को विभिन्न प्रकार के कर देने पड़ते थे। इनपर सामंती करों का बोझ अधिक था। सामंत को नियमित कर देने के अतिरिक्त विशेष अवसरों पर भी उन्हें कर चुकाना पड़ता था, जैसे-जन्मोत्सव, विवाह इत्यादि। सामूहिक रूप से तीसरे वर्ग को
अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष कर या टाइल (taille) चुकाने पड़ते थे, जैसे-नमक, तंबाकू पर। अप्रत्यक्ष कर तो अनगिनत थे। राज्य की संपूर्ण अर्थव्यवस्था तीसरे वर्ग से प्राप्त कर पर ही आधृत थी।
(iv) मध्यम वर्ग-तीसरे इस्टेट में ही मध्यम वर्ग या बुर्जुआ (bourgeoisie) वर्ग भी आता था। मध्यम वर्ग के लोग शहरों में
रहते थे। इनमें पढ़े-लिखे लोग, सरकारी कर्मचारी, लेखक, चिकित्सक, व्यापारी, पूँजीपति सभी आते थे। इनके पास योग्यता और धन दोनों था, परंतु सामाजिक सम्मान एवं विशेषाधिकार नहीं था। अतः, इस इस वर्ग ने जन्मजात विशेषाधिकारों के विरुद्ध आवाज उठाई तथा समानता की माँग की। मध्यम वर्ग के लोगों ने राजतंत्र के विरुद्ध विद्रोह का वातावरण तैयार कर दिया।
आर्थिक कारण
1789 की फ्रांस की क्रांति के लिए अनेक आर्थिक कारण भी उत्तरदायी थे। इनमें निम्नलिखित कारण महत्त्वपूर्ण हैं-
(i) अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था-फ्रांस की अर्थव्यवस्था अव्यवस्थित थी। राजकीय आय और राजा की व्यक्तिगत आय में अंतर नहीं था। किस स्रोत से कितना धन आना है और किन-किन मदों में उन्हें खर्च करना है, निश्चित नहीं था। निश्चित योजना के अभाव में फ्रांस में आर्थिक तंगी थी। क्रांति के समय फ्रांस वस्तुतः दिवालिया हो चुका था।
(ii) दोषपूर्ण कर-व्यवस्था-फ्रांस की कर-प्रणाली दोषपूर्ण थी। समाज के प्रथम दो वर्ग करमुक्त थे। कर का सारा बोझ तृतीय
वर्ग, विशेषतः किसानों पर था। इसलिए, कहा जाता था कि फ्रांस में पादरी पूजा करते हैं, कुलीन युद्ध करते हैं और जनता
कर देती है। (The clergies pray, the nobles fight and the people pay.) ऐसी व्यवस्था में असंतोष होना स्वाभाविक था।
(iii) कर-वसूली की प्रणाली-फ्रांस में कर निश्चित नहीं थे। इन्हें इच्छानुसार बढ़ाया जा सकता था। टैक्स वसूलने का काम
ठीका पर दिया जाता था। ये ठीकेदार (टैक्स फार्मर) मनमाना कर वसूल कर स्वयं अधिक-से-अधिक धन कमाते थे। धन
वसूलने के लिए वे किसानों पर अत्याचार करते थे। ऐसा कहा जाता था कि “टैक्स फार्मर अस्त्र-शस्त्र युक्त आक्रमणकारियों से
भी अधिक विनाशकारी थे।” इसके साथ-साथ विशेष लोगों को छूट देने तथा सही ढंग से खजाना में कर नहीं जमा कराने
से फ्रांस आर्थिक रूप से दिवालिया हो गया। खर्च बढ़ता गया और आमदनी घटती गई।
(iv) व्यापारिक एवं व्यावसायिक अवरोध-अव्यवस्थित अर्थ- व्यवस्था में व्यवसाय एवं वाणिज्य का विकास भी ठप पड़ गया।
व्यवसायियों और व्यापारियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगे हुए थे। उन्हें प्रत्येक प्रांत, जिला, शहर और स्थान में विभिन्न
प्रकार के कर देने पड़ते थे। गिल्ड भी अबाध व्यापार में रोड़ा अटकाते थे। इसलिए, व्यवसाय-वाणिज्य लाभप्रद नहीं रहा।
इसका बुरा असर फ्रांस की अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
(v) वेकारी की समस्या-बेकारी की समस्या ने भी आर्थिक स्थिति को दयनीय बना दिया। औद्योगिकीकरण के कारण घरेलू
उद्योग-धंधे बंद हो गए। इनमें कार्यरत कारीगर और मजदूर बेकार हो गए, अतः वे क्रांति के समर्थक बन गए। कर में
सैनिकों का असंतोष फ्रांस का सैनिक वर्ग, जिसमें अधिकांशतः किसान थे, भी तत्कालीन व्यवस्था से असंतुष्ट था। उन्हें नियमित वेतन नहीं मिलता था। क्रांति के समय सैनिकों का बहुत दिनों से वेतन बकाया था। सैनिकों के भोजन-वस्त्र का भी समुचित प्रबंध नहीं था। सेना में पदोन्नति योग्यता के आधार पर नहीं दी जाती थी। उच्च पदों पर सिर्फ कुलीन वर्ग के लोग ही नियुक्त होते थे। इससे सेना भी असंतुष्ट थी।
बौद्धिक कारण
फ्रांस की क्रांति में फ्रांस के बौद्धिक वर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। फ्रांस में अनेक दार्शनिक, विचारक और लेखक हुए। इन
लोगों ने तत्कालीन व्यवस्था पर करारा प्रहार किया। जनता इनके विचारों से गहरे रूप से प्रभावित हुई एवं क्रांति के लिए तैयार हो गई। जिन दार्शनिकों ने फ्रांस के जनमानस को झकझोर दिया उनमें मांटेस्क्यू, वाल्तेयर और रूसो के नाम विशेष रूप से
उल्लेखनीय हैं।
(i) मांटेस्क्यू (1689-1755)-वह उदार विचारों वाला दार्शनिक था। यद्यपि वह स्वयं कुलीनवंशी था तथापि उसने राज्य और चर्च दोनों की कटु आलोचना की। उसने अनेक पुस्तकों की रचना की, जैसे-पर्शियन लेटर्स (Persian Letters) तथा दि स्पिरिट ऑफ लॉज (The Spirit of Laws)। उसका मानना था कि जीवन, संपत्ति एवं स्वतंत्रता मानव के जन्मसिद्ध अधिकार हैं।
उसने कहा कि यदि शासक उचित रूप से अपने उत्तरदायित्वों का पालन नहीं कर सके तो उसे क्रांति द्वारा नष्ट करने का अधिकार समाज को प्राप्त है। मांटेस्क्यू की सबसे बड़ी देन शक्ति के पृथक्करण (Separation of Powers) का सिद्धांत है।
अपनी पुस्तक विधि की आत्मा अथवा दि स्पिरिट ऑफ लॉज (The Spirit of Laws), जो 1748 में प्रकाशित हुई, में उसने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार, राज्य की शक्तियाँ-कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका-एक ही हाथों में केंद्रित नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने से शासन निरंकुश और स्वेच्छाचारी नहीं होगा। मांटेस्क्यू के सिद्धांतों का प्रभाव अमेरिका में भी पड़ा। अमेरिकी उपनिवेशों ने इंगलैंड से स्वतंत्र होने के बाद अपने संविधान में इस सिद्धांत को प्रमुख स्थान दिया। अतः, फ्रांस में भी ऐसी माँग की जाने लगी।
(ii) वाल्तेयर (1694-1778)- मांटेस्क्यू के समान वाल्तेयर ने भी अपने लेखों और पुस्तकों में राज्य और चर्च की कड़ी आलोचना की। वह प्रबुद्ध निरंकुश शासन में विश्वास करता था। उसका मानना था कि सौ चूहों की अपेक्षा एक सिंह का शासन उत्तम है। उसने चर्च के भ्रष्टाचार पर भी कड़ी चोट की। उसने भ्रष्ट गिरजे को नष्ट करने का आह्वान किया। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण वाल्तेयर को देश-निकाला का दंड भुगतना पड़ा, परंतु जनता पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। उसकी पुस्तकों में उल्लेखनीय हैं-ला हेनरीएड (La Henriade) तथा लेटर्स फिलोसोफिकस (Letters Philosophiques)।
(iii) ज्याँ जाक रूसो (1712-78)-रूसो फ्रांस का सबसे बड़ा दार्शनिक था। उसकी प्रमुख पुस्तकें हैं-एमिली (Emile)
और दि सोशल काँट्रैक्ट (The Social Contract)। वह लोकतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था का समर्थक था। अपनी पुस्तक दि सोशल काँट्रैक्ट (1762 में प्रकाशित) में उसने जनमत (General Will) को ही सर्वशक्तिशाली माना; राज्य तो जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही बना था। वह वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट था। उसका कहना था, मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, पर वह हर जगह जंजीरों से जकड़ा है। (Man is born free but everywhere he is in chains.) रूसो ने इन जंजीरों को तोड़
फेंकने को कहा। रूसो के क्रांतिकारी विचारों ने फ्रांस में क्रांति के विस्फोट के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
(iv) जॉन लॉक (1632-1704)-इस समय का एक अन्य प्रबुद्ध चिंतक था जॉन लॉक। उसने राजशाही के दैवी स्वरूप और
निरंकुशवाद का जोरदार खंडन किया। अपनी पुस्तक टू ट्रीटाइजेज ऑफ गवर्नमेंट (Two Treatises of Govemment),
जो 1690 में प्रकाशित हुई, में उसने अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। वह मानव के प्राकृतिक अधिकारों तथा सीमित राजनीतिक सत्ता का समर्थक था। उसने राजनीतिक उदारवाद का समर्थन किया। उसके विचारों का प्रभाव अमेरिकी संविधान तथा फ्रांस की क्रांति पर पड़ा। रूसो ने लॉक के विचारों को आगे बढ़ाते हुए जनता और राज्य में अनुबंध की बात कही।
(v) अन्य बुद्धिजीवी-इन विचारकों के अतिरिक्त फ्रांस में अन्य लेखक एवं विद्वान भी हुए जिनके विचारों ने क्रांति को प्रेरणा दी। 35 खंडों में प्रकाशित अपने विश्वकोश (Encyclopedie) में दिदरो (1713-84) ने निरंकुश राजतंत्र, सामंतवाद एवं जनता के शोषण की घोर भर्त्सना की। फ्रांस के अर्थशास्त्रियों-क्वेसने, तुरजो और नेकर ने फ्रांस की दुर्बल अर्थव्यवस्था की आलोचना
कर इसमें सुधार लाने के उपाय सुझाए। इन अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक शोषण की आलोचना की तथा मुक्त व्यापार (laissez-faire) की वकालत की। इन सभी का फ्रांस की जनता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
विदेशी घटनाओं का प्रभाव ( फ्रांस की क्रांति के कारण )
फ्रांस की क्रांति पर विदेशी घटनाओं का भी प्रभाव पड़ा। फ्रांस की क्रांति के पूर्व ही 1688 में इंगलैंड में गौरवपूर्ण क्रांति (Glorious Revolution) हो चुकी थी। इसके परिणामस्वरूप इंगलैंड में निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन समाप्त हुआ तथा जनता के नागरिक अधिकारों की सुरक्षा हुई। 1689 में पारित अधिकारों के घोषणापत्र (Bill of Rights) द्वारा नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दी गई। राजा की निरंकुशता पर संसद ने नियंत्रण लगा दिया। फ्रांस में भी लोग इंगलैंड जैसी सांविधानिक शासन-व्यवस्था की कामना करने लगे।
गौरवपूर्ण क्रांति के अतिरिक्त अमेरिकी स्वातंत्र्य संग्राम का भी फ्रांस पर प्रभाव पड़ा। फ्रांसीसी सैनिकों ने लफायते के नेतृत्व
में इस युद्ध में भाग लिया था। उन्होंने देखा था कि अमेरिका के 13 उपनिवेशों ने कैसे औपनिवेशिक शासन को समाप्त कर वहाँ लोकतंत्र की स्थापना की थी। स्वदेश वापस लौटकर उनलोगों ने पाया कि जिन सिद्धांतों की रक्षा के लिए वे अमेरिका में युद्ध कर रहे थे उनका अपने देश में ही अभाव था। अतः, वे सैनिक फ्रांस में क्रांति के अग्रदूत बनकर लोकतंत्र का संदेश फैलाने लगे।
जनसाधारण इससे अत्यधिक प्रभावित हुआ। फ्रांस द्वारा इस संग्राम में भाग लेने से उसकी आर्थिक स्थिति और अधिक बिगड़
गई। इसपर कर्ज का बोझ बढ़ गया। इसे चुकाने के लिए सरकार को भारी सूद देना पड़ा। इसके लिए कर बढ़ाना आवश्यक था। बाध्य होकर लुई सोलहवाँ को इस्टेट्स जेनरल की बैठक बुलानी पड़ी। इसी के साथ क्रांति आरंभ हुई।
तात्कालिक कारण ( फ्रांस की क्रांति के कारण )
लुई सोलहवाँ की अयोग्यता- फ्रांस में विषम परिस्थिति होते हुए भी संभवतः क्रांति नहीं होती अगर शासन की बागडोर एक
योग्य राजा के हाथों में होती। दुर्भाग्यवश क्रांति आरंभ होने के समय फ्रांस की गद्दी पर लुई सोलहवाँ जैसा अविवेकी और
अयोग्य शासक था। मात्र बीस वर्ष की आयु में 1774 में वह गद्दी पर बैठा। अतः, उसमें प्रशासनिक अनुभव नहीं था। उसमें दृढ़
इच्छाशक्ति का भी अभाव था। वह प्रशासन चलाने में असमर्थ था। उसका सारा समय भोग-विलास में व्यतीत होता था। रानी
मेरी एंतोएनेत का उसपर गहरा प्रभाव था जो ऑस्ट्रिया की राजकुमारी थी। वह भी फिजूलखर्ची के लिए विख्यात थी। उस
समय फ्रांस में आर्थिक संकट छाया हुआ था और राज्य तेजी से दिवालियापन की ओर बढ़ रहा था। आरंभ में लुई ने राज्य की
बिगड़ती अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने का प्रयास अपने मंत्रियों के साथ किया, परंतु वे सभी विफल हो गए। लुई के मंत्रियों ने
आर्थिक संकट से बचने के लिए कुछ उपाय सुझाए जिनमें कुलीनों पर कर लगाना शामिल था। कुलीन इसके लिए तैयार नहीं थे। उनलोगों ने राजा पर दबाव डालकर तु| (1774-76) और नेकर (1776-81) को बर्खास्त करवा दिया। बाध्य होकर राजा ने इस्टेट्स जेनरल (Estates General), जो फ्रांस की संसद के समान थी और जिसकी बैठक 175 वर्षों से नहीं हुई थी, को
बुलाने का निर्णय लिया। लुई ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि राजा को अपनी स्वेच्छा से कर लगाने का अधिकार नहीं था। इसके लिए इस्टेट्स जेनरल की मंजूरी आवश्यक थी। 5 मई 1789 को इस्टेट्स जेनरल की बैठक आरंभ हुई। इसके साथ ही फ्रांस में क्रांति का आरंभ हुआ।