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बिहार में सूखाग्रस्त क्षेत्र की समस्या

बिहार में सूखाग्रस्त क्षेत्र की समस्या

बिहार में सूखाग्रस्त क्षेत्र की समस्या

जहां पर 120 सेंटीमीटर से कम वर्षा होती है उसे सूखाग्रस्त क्षेत्र की संज्ञा भी दी जाती है। भारत का दो तिहाई क्षेत्र सूखा पीड़ित है। देश के एक तिहाई क्षेत्र में सूखा प्रकोप ज्यादा गंभीर है, जहां 75 सेंटीमीटर से कम वर्षा होती है। बिहार में दक्षिणी बिहार के कैमूर, रोहतास, गया, औरंगाबाद, नवादा, मुंगेर, जमुई, शेखपुरा, लखी सराय, भागलपुर, पटना, नालंदा और जहानाबाद के कुछ इलाके सूखा पीड़ित हैं। इनमें कई जिले बाढ़ और सूखा दोनों से पीड़ित हैं। जैसे टाल क्षेत्र वाले जिले बाढ़ से भी पीडित
हैं और उनके दक्षिणी इलाके मानसून की असमानता में सूखे से भी पीड़ित हो जाते हैं। कुल मिलाकर बिहार का 20 प्रतिशत क्षेत्र सूखा से पीड़ित है।
बिहार में सूखाग्रस्त क्षेत्र होने का मुख्य कारण मानसून की अनिश्चितता और परिवर्तनशीलता है। मानसून के कमजोर पड़ने से इन क्षेत्रों में कृषि करना कठिन हो जाता है। दक्षिण बिहार का मैदान ही सूखाग्रस्त है क्योंकि गर्मी के दिनों में यहां बहने वाली
नदियां सूख जाती हैं जबकि हिमालय से बहने वाली नदियों में सालों भर पानी रहता है। चूंकि दक्षिण बिहार की नदियां पठार के वर्षा प्रतिरूप पर निर्भर करती हैं, अत: यह जरूरी है कि पठारी भागों में इन नदियों को बांधकर जल संग्रह कर लिया जाता
और गर्मी में उसका प्रयोग किया जाता।
बेहतर जल प्रबंधन और इच्छा शक्ति के अभाव ने भी दक्षिणी बिहार के मैदान को सूखाग्रस्त बना दिया है। दक्षिणी बिहार के मध्य में जैसे पटना, नालंदा, जहानाबाद, औरंगाबाद, गया, नवादा तथा मुंगेर के कुछ इलाकों में वर्षा 100 सेंटीमीटर से कम होती है। यह भी एक कारण है जिससे इन इलाकों को सूखाग्रस्त होने की संभावना बढ़ जाती है। गंगा के दक्षिणी मैदान की
भूमि ढालयुक्त और पथरीली है। वहां की मिट्टी भी छिछली है जिसमें भूमिगत जल नहीं जा पाता और वर्षा का जल ऊपर से शीघ्र बहकर निकल जाता है।
भूमिगत जल के कम होने के कारण गर्मी के दिनों में जल संकट गहरा हो जाता है। इस क्षेत्र में वनों के अतिशय कटने से भी मृदा में नमी की कमी हो गयी है। जिससे कृषि प्रभावित होती है और सूखा का प्रकोप बढ़ जाता है। वनों के कटने से भी वर्षा
की मात्रा कम हो गयी है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार कृषि क्षेत्र में लंबे समय के औसत के मापदंड के अनुसार यदि
वार्षिक वर्षा में 75 प्रतिशत से अधिक कमी रहती है तो इसे कठोर सूखा कहते हैं। यदि वार्षिक वर्षा में 50 प्रतिशत से अधिक और 75 प्रतिशत से कम वार्षिक वर्षा हो तो इसे मध्यम तीव्रता का सूखा कहेंगे। यदि वार्षिक वर्षा में 25 प्रतिशत की कमी
हो तो इसे सामान्य सूखा कहते हैं। सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम के कार्य दल ने 1982 में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के पहचान का आधार सुखाड़ वर्षा की आवर्तता के स्थान पर वार्षिक वर्षा को आधार बनाया है।
75-112 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र सामान्य सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं और 75 सेंटीमीटर से कम वर्षा वाले क्षेत्र को कठोर सूखाग्रस्त क्षेत्र माना जाता है। सूखा असाधारण रूप से शुष्क मौसम का काल होता है जिसमें पानी की कमी हो जाती है और कृषि कार्य प्रभावित होता है। सूखा से निपटने के लिये वनीकरण बहुत आवश्यक है। पठारी क्षेत्र में प्रतिवर्ष 120 सेंटीमीटर
से अधिक वर्षा होती है, जहां से दक्षिणी बिहार के मैदानी नदियों में जल आता है। मानसून के समय यह जल व्यर्थ ही गंगा में मिल जाता है। अगर इसे संग्रह कर लिया जाये तो बिहार में सूखे की समस्या नहीं रहेगी। दक्षिणी बिहार के मैदानी भागों में धरातल थोड़ा उबड़-खाबड़ है। इन इलाकों के बेसिन लिस्टिंग या क्रम में तालाब बनाकर पानी को संरक्षित रखा जा सकता है।
इससे जहां एक ओर भूमिगत जल का पर्याप्त भंडार जमा हो सकता है, वहीं दूसरी ओर गर्मी में कृषि कार्य के लिये प्रयोग किया जा सकता है। दुर्गावती जलाशय क्यूल बीयर, बड़आ जलाशय, चंदन जलाशय, पंचाने वीयर, पैमार वीयर, फल्गू वीयर, लीलाजन्य वीयर, सकरी वीयर, निक्सर वीयर, भेरहर वीयर को ध्यान में रखकर इन ऊपरी घाटी में जलाशय बनाने की संभावना को ढूंढना चाहिये।

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