यूनान का स्वतंत्रता संग्राम
यूनान का स्वतंत्रता संग्राम
स्वतंत्रता संग्राम के कारण-यूनान प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राष्ट्र था। इसका अतीत गौरवमय था। यहाँ की साहित्यिक, कलात्मक, दार्शनिक, वैज्ञानिक एवं चिकित्सा-संबंधी उपलब्धियों से पूरा यूरोप प्रभावित हुआ था। पुनर्जागरण काल में यूनानी सभ्यता-संस्कृति अनेक राष्ट्रों के लिए प्रेरणादायक बन गई। 15वीं शताब्दी में यूनान ऑटोमन साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। इस साम्राज्य के अंतर्गत विभिन्न भाषा, धर्म और नस्ल के निवासी थे। तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य के प्रति उनमें लगाव की भावना नहीं थी; क्योंकि उन्हें तुर्की ने अपने साम्राज्य में आत्मसात करने का प्रयास नहीं किया था। 18वीं शताब्दी से तुर्की की शक्ति कमजोर पड़ने लगी। उसे यूरोप का मरीज (Sick Man of Europe) कहा जाने लगा। साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर राष्ट्रवादी तत्त्व सक्रिय हो गए। 18वीं सदी के अंतिम चरण तक यूनान में राष्ट्रवादी विचारधारा बलवती होने लगी। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, नेपोलियन के युद्धों और वियना काँग्रेस के विरुद्ध आक्रोश ने इस विचारधारा को आगे बढ़ाया। राष्ट्रवादी भावना के विकास में धर्म की प्रमुख भूमिका थी। यूनानी, यूनानी चर्च (ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च) के अनुयायी थे। समान धार्मिक भावना के कारण उनमें जातीय एकता की अनुभूति हुई। 18वीं शताब्दी के अंत में यूनान में बौद्धिक आंदोलन भी हुआ।कोरेंड्स नामक दार्शनिक ने यूनानियों में राष्ट्रप्रेम की भावना का प्रचार किया। अपने लेखों द्वारा उसने यूनानियों को उनकी प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा के प्रति जागरूक रहने का संदेश दिया। कान्सटेंटाइन रीगास नामक एक अन्य नेता ने गुप्त समाचारपत्रों का प्रकाशन कर यूनानियों में तुर्की से स्वतंत्र होने की भावना प्रज्वलित की। यूनानियों में स्वतंत्रता की भावना जगने का एक कारण यह भी था कि तुकी सामाज्य में उनकी स्थिति अन्य लोगों से अच्छी थी। उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता थी. प्रशासन में उन्हें उच्च पद प्राप्त थे तथा आर्थक दृष्टि से वे समृद्ध थे। यूनान में शक्तिशाली शिक्षित मध्यम वर्ग भी था जो राष्ट्रीयता की भावना से प्रभावित था। स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए यूनान में भी इटली के समान गुप्त क्रांतिकारी समितियों गठित की गई। ऐसी समितियों में प्रमुख थी ओडेसा में स्थापित हिटोरिया फिल्के नामक संस्था। इसका उद्देश्य बाल्कन क्षेत्र सेतुकी शासन समाप्त करना था। इस संस्था की सदस्य संख्या हजारों में थी। इसका प्रभाव यूनान के बाहर भी था।
विद्रोह का आरंभ एवं स्वरूप-1821 में एलेक्जेंडर हिप्सलाटी के नेतृत्व में मोलडेविया में विद्रोह हुआ। इससे भयभीत होकर मेटरनिक ने रूस के समाट जार एलेक्जेंडर पर यूनानी विद्रोह को दबाने के लिए दबाव डाला। यद्यपि जार यूनानियों का समर्थक था, परंतु उसपर मेटरनिक का प्रभाव था। इसलिए, रूस ने विद्रोहियों की सहायता नहीं की। अतः, तुर्की के सुलतान ने सेना की सहायता से विद्रोह को कुचल दिया। हिप्सलांटी को गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया गया। विद्रोह की विफलता से यूनानी हताश नहीं हुए। उन लोगों ने अपना संघर्ष जारी रखा। मोरिया द्वीप में दूसरा व्यापक विद्रोह हुआ। विद्रोहियों को यूरोप के अन्य देशों से सहायता मिलने लगी। कवियों और कलाकारों ने यूनान को यूरोपीय सभ्यता का पालना (cradle of European civilisation) बताकर राष्ट्रवादियों के लिए समर्थन जुटाया। अनेक देशों से स्वयंसेवक यूनानी ईसाइयों की
सहायता के लिए यूनान पहुँचे। विख्यात अँगरेज कवि लॉर्ड बायरन ने यूनानियों की धन से सहायता की तथा स्वयं भी युद्ध में भाग लेने पहुंचे। वहीं 1824 में उनकी मृत्यु हो गई।
तुर्की के सुलतान महमूद द्वितीय ने मोरिया के विद्रोह को धार्मिक स्वरूप प्रदान किया। उसने इस्लाम की रक्षा के लिए मुसलमानों का आह्वान किया। सेना की सहायता से उसने यूनानी केंद्रों पर आक्रमण किया। 1822 में लगभग बीस हजार यूनानी मौत के घाट उतार दिए गए। सुलतान स्वयं विद्रोह को दबाने में कठिनाई महसूस कर रहा था। अतः, उसने मिस्र के शासक पाशा महमत अली से सहायता की मॉग की। महमत अली ने सेना और धन से सुलतान की सहायता की। फलतः, यूनानियों का विद्रोह दबा दिया गया। यूनानियों पर हुए अत्याचारों से यूरोप में आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति की भावना जगी। उन्हें धन तथा हथियार भेजे गए। 1826 में ब्रिटेन और रूस यूनानी-तुर्की संघर्ष में हस्तक्षेप करने को तैयार हो गए। नए जार निकोलस ने खुलकर यूनानियों का साथ देने का निर्णय किया। फ्रांसीसी सम्राट चार्ल्स दशम भी यूनान का समर्थक बन गया। 1827 के लंदन सम्मेलन में इंगलैंड, फ्रांस तथा रूस ने तुर्की के विरुद्ध संयुक्त कार्रवाई करने का निश्चय किया। तुर्की से राजनीतिक संबंध तोड़कर रूस ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया। नावारिनो की खाड़ी में संयुक्त सेना इकट्ठी हुई। तुर्की की सहायता सिर्फ मिस्र ने की। रूसी सेना ने तुर्की को पराजित कर दिया। बाध्य होकर तुर्की को रूस के साथ 1829 में एड्रियानोपुल की संधि करनी पड़ी। इस संधि के द्वारा सुलतान ने यूनान में वंशानुगत राजशाही और स्वशासित यूनान प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। यूनानी राष्ट्रवादी इससे संतुष्ट नहीं हुए। उन लोगों ने संधि को ठुकरा दिया। इंगलैंड तथा फ्रांस भी यूनान पर रूसी प्रभाव की स्थापना के विरोधी थे। अतः, 1832 में कुस्तुनतुनिया की संधि द्वारा स्वतंत्र यूनान राष्ट्र की स्थापना हुई। बवेरिया के राजकुमार ऑटो को यूनान का शासक बनाया गया। यूनान तुर्की शासन से मुक्त हो गया। रूसी प्रभाव भी यूनान पर से समाप्त हो गया।
यूनानी स्वतंत्रता संग्राम के परिणाम-यूनानियों ने लंबे और कठिन संघर्ष के बाद ऑटोमन साम्राज्य के अत्याचारी शासन से मुक्ति पाई। यूनान के स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र का उदय हुआ। यद्यपि इस प्रक्रिया में गणतंत्र की स्थापना नहीं हो सकी, परंतु एक स्वतंत्र राष्ट्र के उदय ने मेटरनिक की प्रतिक्रियावादी नीति को गहरी ठेस लगाई। प्रतिक्रियावाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद की विजय हुई। यूनानियों की विजय से 1830 के क्रांतिकारियों को प्रेरणा मिली। बाल्कन क्षेत्र के अन्य ईसाई राज्यों में भी राष्ट्रवादी आंदोलन आरंभ करने की चाह बढ़ी।