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राष्ट्रवाद की अवधारणा – यूरोप में राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद की अवधारणा – यूरोप में राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद आधुनिक राजनीति की देन है। यह राजनीतिक चेतना का प्रतिफल है। इसके द्वारा क्षेत्रविशेष अथवा सामाजिक और
सांस्कृतिक परिवेश में निवास करनेवालों में एकता की भावना का विकास होता है। यद्यपि राष्ट्रवाद की अवधारणा पुनर्जागरण काल में ही जन्म ले चुकी थी, परंतु 18वीं और 19वीं शताब्दियों में इसका विकास हुआ। इसका आरंभ फ्रांस की 1789 की महान क्रांति से माना जा सकता है। इस क्रांति में पहली बार जनता ने एकजुट होकर निरंकुशवाद का सशक्त रूप से विरोध किया और फ्रांस में राजसत्ता का परिवर्तन किया। क्रांति के बाद कुछ समय के लिए यूरोप में प्रतिक्रियावादी तत्त्व प्रभावशाली हो गए, परंतु 1830 के पश्चात राष्ट्रवादी भावनाएँ पुन: बलवती हो गई। फलस्वरूप, 19वीं शताब्दी में यूरोप में क्रांतियों का दौर आरंभ हुआ। इसके साथ ही राष्ट्रवादी धारणा का विकास हुआ जिसने जर्मनी और इटली का एकीकरण संभव कर दिया। पोलैंड, हंगरी और यूनान (ग्रीस) भी राष्ट्रवाद की लहर में समाहित हो गए।

यूरोप में राष्ट्रवाद

• राष्ट्रवाद की अवधारणा
• फ्रांस में राष्ट्रवाद
• राष्ट्रवाद के प्रसार में नेपोलियन बोनापार्ट का योगदान
• 18वीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रवाद का निर्माण
• उदारवादी राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद की अवधारणा

राष्ट्रवाद का सामान्य अर्थ लगाया जा सकता है अपने राष्ट्र के प्रति सोच और लगाव की भावना का विकास। भाषाई, नस्ली और आवासीय आधार पर राष्ट्र का निर्माण होता है। धर्म भी राष्ट्र का आधार होता है। फ्रांसीसी दार्शनिक अन्सर्ट रेनन ने 19वीं शताब्दी में राष्ट्रवाद की एक नई और व्यापक परिभाषा दी। राष्ट्रवाद की कल्पना फ्रांसीसी कलाकार सॉरयू ने भी की। उन्होंने एक कल्पनादर्श की रचना अपने चित्रों द्वारा की। इन चित्रों में विभिन्न राष्ट्रों की पहचान कपड़ों और प्रतीक चिह्नों द्वारा की गई। 19वीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्रवाद शक्तिशाली तत्त्व के रूप में विकसित हुआ। इसने बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों के स्थान पर राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना को फ्रांस की 1789 की क्रांति एवं नेपोलियन की विजयों ने बढ़ावा दिया। फ्रांसीसी क्रांति ने कुलीन वर्ग के हाथों से राजनीति को निकालकर सर्वसाधारण एवं मध्यम वर्ग तक
पहँचा दिया। नेपोलियन ने विजित राज्यों में राष्ट्रवादी भावना जागृत कर दी। इटली और जर्मनी को मात्र भौगोलिक अभिव्यक्ति से बाहरम लाकर उसने इनके एकीकरण का मार्ग प्रशस्त कर दिया। साथ ही, नेपोलियन के युद्धों और विजयों से अनेक राष्ट्रों में फ्रांसीसी आधिपत्य के विरुद्ध देशभक्तिपूर्ण आक्रोश पनपा जिसने राष्ट्रवाद का विकास किया।

फ्रांस में राष्ट्रवाद

यूरोप में राष्ट्रवाद की स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति सबसे पहले फ्रांस में हुई। क्रांति के पहले वहाँ वूर्वो राजवंश का निरंकुश शासन था। क्रांति के समय वहाँ का राजा लुई सोलहवाँ था। क्रांति द्वारा तानाशाही को समाप्त कर जनता ने सत्ता अपने हाथों में ले ली। अब प्रभुसत्ता राजा के हाथों में न रही, बल्कि जनता के हाथों में चली गई। जनता ही अब राष्ट्र की नियति निर्धारित करनेवाली बन गई। क्रांति आरंभ होने के साथ ही क्रांतिकारियों ने राष्ट्रीय और सामूहिक पहचान की भावना जगानेवाले कार्य किए। पितृभूमि और नागरिक जैसे शब्दों द्वारा फ्रांसीसियों में एक सामूहिक भावना और पहचान बढ़ाने का प्रयास किया गया। नए संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार देकर समानता की स्थापना पर बल दिया गया। राजवंशीय झंडा के स्थान
पर राष्ट्रध्वज के रूप में एक नया फ्रांसीसी झंडा अपनाया गया जो तिरंगा था। पुरानी संस्था स्टेट्स जेनरल के स्थान पर नेशनल
असेंबली का गठन किया गया। इसके सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था ‘सक्रिय नागरिकों द्वारा की गई। नेशनल असेंबली अथवा राष्ट्रीय सभा ने राजशाही का समर्थन करनेवाली सामंती व्यवस्था को समाप्त कर दिया। मानव एवं नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की गई। इसमें दो बातों पर विशेष बल दिया गया-(i) संप्रभुता राज्य (राष्ट्र) में निहित है, व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में नहीं; (ii) नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करना तथा उन्हें समान अधिकार देना राज्य का कर्तव्य है। नेशनल असेंबली ने राजा के अधिकारों को सीमित कर संवैधानिक राजतंत्र की व्यवस्था की, लेकिन कन्वेंशन
ने राजतंत्र को समाप्त कर राजा-रानी को मौत की सजा दी। 21 जनवरी 1793 को लुई सोलहवें को गिलोटिन पर चढ़ाकर
सार्वजनिक रूप से फाँसी दी गई। कुछ समय बाद रानी को भी फाँसी दे दी गई। क्रांति के दौरान प्रशासनिक व्यवस्था में सुधारकर एक- समान कानून लागू किया गया। आंतरिक आयात-निर्यात शुल्क समाप्त किया गया तथा नाप-तौल की एक नई पद्धति अपनाई गई। क्षेत्रीय भाषा के स्थान पर फ्रेंच भाषा को प्रोत्साहित किया गया। यह राष्ट्रीय भाषा बन गई।
फ्रांसीसी क्रांतिकारी फ्रांस में हुए इन परिवर्तनों से संतुष्ट नहीं थे। वे क्रांति के संदेश का प्रसार फ्रांस के बाहर अन्य यूरोपीय राष्ट्रों में भी करना चाहते थे। क्रांतिकारियों ने घोषणा की कि फ्रांसीसी राष्ट्र का यह भाग्य और लक्ष्य था कि वह यूरोप के लोगों को निरंकुश शासकों से मुक्त कराए। फ्रांसीसी क्रांति ने यूरोप में निरंकुशवाद के विरुद्ध राष्ट्रीयता की भावना जागृत कर दी। फ्रांस की देखा-देखी अन्य यूरोपीय राष्ट्रों में भी छात्र और शिक्षित मध्यम वर्ग निरंकुशवाद के विरुद्ध संगठित होने लगे। दूसरी ओर, फ्रांसीसी घटनाओं ने यूरोप के निरंकुश शासकों के विरुद्ध खतरे की घंटी बजा दी। फ्रांस में राजशाही की सुरक्षा के लिए ऑस्ट्रिया-प्रशा ने युद्ध आरंभ कर दिया। फ्रांसीसी सैनिक एवं स्वयंसेवक इसे “यूरोपीय राजाओं एवं कुलीनों के विरुद्ध जनता की जंग” मानकर राष्ट्रभक्ति का गीत मार्सिले गाते हुए इस युद्ध में शरीक हुए। मार्सिले फ्रांस का राष्ट्रगान बन गया। नेपोलियन के सैनिक अभियानों के दौरान फ्रांसीसी सेना हॉलैंड, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड और इटली पहुँची। फ्रांसीसी सेना के साथ राष्ट्रवाद एवं क्रांति की भावना भी इन देशों में पहुँची। इस प्रकार, फ्रांसीसी क्रांति ने यूरोप में राष्ट्रवाद का प्रसार किया।

राष्ट्रवाद के प्रसार में नेपोलियन बोनापार्ट का योगदान

नेपोलियन बोनापार्ट ने 1799 में डायरेक्टरी का शासन समाप्त कर प्रथम कॉन्सल के रूप में फ्रांस में सत्ता पर अधिकार कर लिया। 1804 में वह फ्रांस का सम्राट भी बन गया। प्रथम कॉन्सल बनने के पूर्व ही उसने ऑस्ट्रिया को पराजित कर इटली के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया था। सम्राट के रूप में उसने ब्रिटेन के अतिरिक्त यूरोप के बड़े भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके साथ ही क्रांति का संदेश नेपोलियन के प्रभाववाले यूरोपीय क्षेत्रों में पड़ा। फ्रांसीसी आधिपत्यवाले राज्यों में भी वैसी ही संस्थाएँ स्थापित की गई जो फ्रांस में प्रचलित थीं। फ्रांस पर आश्रित राज्यों में भी नेपोलियन संहिता,
फ्रांसीसी शासन और अर्थव्यवस्था लागू की गई। 1804 में नेपोलियन संहिता द्वारा जन्मजात विशेषाधिकार समाप्त कर दिया गया। कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत अपनाया गया। नागरिकों के संपत्ति-संबंधी अधिकारों की सुरक्षा की गई। सामंती व्यवस्था समाप्त कर दी गई। इससे किसानों को भू-दासत्व से मुक्ति मिल गई। वे सामंती कर चुकाने से भी बच गए। इसी प्रकार, कारीगरों पर श्रेणी-संघों का नियंत्रण समाप्त कर दिया गया। प्रशासनिक नियुक्तियों में योग्यता को आधार बनाया गया। यातायात और संचार व्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास किया गया। समान शुल्क, समान माप-तौल की प्रणाली और एक
मुद्रा के प्रचलन से व्यापार-वाणिज्य और उद्योग-धंधों का विकास हुआ। इससे फ्रांस-अधिकृत राज्यों में एक नई आशा जगी। वहाँ भी तानाशाही के विरुद्ध आवाजे उठने लगी तथा राष्ट्रवाद का विकास हुआ।
अन्य प्रकार से भी नेपोलियन ने राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा दिया। आरंभ में विजित राष्ट्रों एवं नगरों, जैसे-हॉलैंड, स्विट्जरलैंड,
मिलान, वारसा इत्यादि में फ्रांसीसी सेना का उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया, परंतु धीरे-धीरे फ्रांसीसी प्रभुता और आधिपत्य के विरुद्ध देशभक्ति की भावना बलवती होने लगी। यह भावना अत्यंत शक्तिशाली रूप में सभी यूरोपीय देशों में पनपी तथा देशवासियों के प्रति एकता की भावना में परिलक्षित हुई। जर्मनी और इटली में राष्ट्रवादी भावना सबसे अधिक प्रबल थी। दोनों देशों में फ्रांसीसी आधिपत्य के विरुद्ध असंतोष की भावना बढ़ने लगी। नेपोलियन ने इटली में ट्रांसपेडेन गणराज्य एवं सिसेल्पाइन गणराज्य तथा जर्मनी में राइन राज्यसंघ की स्थापना कर इटली एवं जर्मनी के भावी एकीकरण की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। इसी प्रकार, उसने वारसा की ग्रैंड डची बनाकर पोलैंड में भी राष्ट्रवादी भावना जागृत की।

18वीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रवाद का निर्माण

18वीं शताब्दी के मध्य में यूरोप में एकीकृत राष्ट्र नहीं थे। वे विभिन्न छोटे-छोटे स्वायत्त और अर्द्ध-स्वायत्त राजनीतिक इकाइयों में बँटे हुए थे, जैसे-राजशाही, डची, कैंटन इत्यादि। पूर्वी और मध्य यूरोप निरंकुश राजशाही के नियंत्रण में था। इन राजतंत्रों में विभिन्न भाषा-भाषी और प्रजातीय लोग निवास करते थे। इनकी संस्कृति और भाषा एक नहीं थी। इसलिए, इनकी सामुदायिक पहचान नहीं थी। ऑस्ट्रिया-हंगरी हैप्सवर्ग साम्राज्य के अंतर्गत था। साम्राज्य में अलग-अलग क्षेत्र और प्रजाति के लोग निवास करते थे। इस साम्राज्य में टिरॉल, ऑस्ट्रिया, सुडेटनलैंड और बोहेमिया सम्मिलित थे। यहाँ के कुलीन वर्ग के लोग जर्मनभाषी थे। लोम्बार्डी और वेनेशिया भी इसी साम्राज्य में थे, परंतु वहाँ इतालवी भाषा बोली जाती थी। हंगरी की आधी आबादी मैग्यार भाषा बोलती थी, शेष अन्य प्रकार की बोलियाँ बोलते थे। गेलीसिया का कुलीन वर्ग पोलिश भाषा बोलता था। इनके अतिरिक्त हैप्सबर्ग साम्राज्य की सीमा में अधीनस्थ के रूप में बहुत बड़ा कृषक समुदाय भी रहता था। इनमें प्रमुख थे उत्तर में बोहेमियाई तथा स्लोवाक, कार्निओला में स्लोवेन्स, दक्षिण में क्रोएट और पूरब में ट्रांसिल्वेनिया में रहनेवाले राउमन। इन विभिन्न वर्गों को सिर्फ सम्राट के प्रति निष्ठा ही एक सूत्र में बाँधे हुई थी, अन्यथा भाषा और प्रजाति के लिहाज से सभी एक-दूसरे से अलग थे।
राष्ट्रवाद के विकास में सहायक तत्त्व-18वीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रवाद के विकास में अनेक तत्त्वों ने योगदान दिया। इस समय कुलीन वर्ग सामाजिक और राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली था। जमीन का अधिकांश भाग इसके नियंत्रण में था जिसपर कुलीन छोटे किसानों, काश्तकारों और भूदासों से खेती करवाते थे। इनके पास बड़ी-बड़ी जागीरें भी थीं। कुलीन स्वयं शहरों में बड़ी-बड़ी हवेलियों में रहते थे और अपने मातहतों से ग्रामीण क्षेत्र में कृषि करवाते थे। जनसंख्या के दृष्टिकोण से यह छोटा वर्ग था, अधिक संख्या किसानों की थी, परंतु कुलीन वर्ग का प्रभाव बहुत अधिक था। इसकी विशिष्ट जीवनशैली थी
जो क्षेत्रातीत थी। ये फ्रेंच भाषा बोलते थे। वैवाहिक संबंधों द्वारा कुलीन परिवार एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। कुलीन वर्ग के अतिरिक्त मध्यम वर्ग भी इस समय प्रभावशाली था। 18वीं-19वीं शताब्दियों में औद्योगिकीकरण का प्रभाव व्यापार- वाणिज्य के विकास पर भी पड़ा। औद्योगिक उत्पादन, नगरों के विकास, बाजारों के विस्तार से व्यापारी वर्ग का प्रभाव बढ़ा। नई
आर्थिक व्यवस्था में नए सामाजिक वर्गों का उदय हुआ। ऐसे वर्गों में प्रमुख थे श्रमिक वर्ग और मध्यम वर्ग। मध्यम वर्ग का दायरा बड़ा था। इसके अंतर्गत उद्योगपति, पूँजीपति, व्यापारी, नौकरीपेशा लोग और अन्य व्यवसायी आते थे। कुलीन वर्ग के विशेषाधिकारों की समाप्ति के बाद सबसे प्रभावशाली सामाजिक समूह मध्यम वर्ग ही बना। शिक्षित होने के कारण इस वर्ग में राष्ट्रवादी भावना का विकास अधिक हुआ। फ्रांस की क्रांति और आगे की क्रांतियों में भी मध्यम वर्ग (बुर्जुआ वर्ग) की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
रूमानीवाद-राष्ट्रवाद के विकास में रूमानीवाद (romanticism) का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था। रूमानीवाद के अंतर्गत राष्ट्रवाद की भावना का विकास करने के लिए संस्कृति का सहारा लिया गया। अत:, रूमानीवाद एक सांस्कृतिक आंदोलन बन गया। इसने एक विशिष्ट प्रकार के राष्ट्रवाद का प्रचार किया। कला, साहित्य, संगीत के माध्यम से राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रकट करने का प्रयास हुआ। रूमानीवादी पांडित्यपंथी नहीं थे। उन लोगों ने भावनाओं, अंतर्दृष्टि और रहस्यवादी भावनाओं पर अधिक बल दिया। सामूहिक विरासत और संस्कृति को राष्ट्र का आधार बनाने का प्रयास किया गया। लोककथाओं, भाषा और संगीत का सहारा लेकर जर्मनी और पोलैंड में राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया गया। चित्रकला में नारी को राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया, जैसे-फ्रांस में मारीआन और जर्मनी में जर्मेनिया।

उदारवादी राष्ट्रवाद

नागरिक एवं राजनीतिक उदारवाद-उदारवाद शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के मूलशब्द ‘लिबर’ (liber) से मानी गई है।
इस शब्द का अर्थ ‘आजाद’ है। उदारवादी व्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के समक्ष समानता पर बल देते थे। सरकार के विषय में इनकी मान्यता थी कि यह आम सहमति से बनी हो। फ्रांसीसी क्रांति के बाद उदारवादियों ने निरंकुश राजशाही, कुलीनों और पादरी वर्ग के विशेषाधिकारों की समाप्ति की माँग की। उदारवादी निरंकुश राजतंत्र के स्थान पर संविधान और प्रतिनिधि सरकार की स्थापना पर बल देते थे। निजी संपत्ति की सुरक्षा के अधिकार की भी ये मांग करते थे। इसी आधार पर फ्रांस में सिर्फ धनी व्यक्तियों को ही मताधिकार दिया गया। महिलाओं को भी मताधिकार से लंबे समय तक वंचित रखा
गया। अतः, सैद्धांतिक रूप से भले ही उदारवादियों ने समानता पर बल दिया, परंतु व्यवहार में इसे लागू नहीं किया गया। इसीलिए, 19वीं और 20वीं शताब्दियों के आरंभिक वर्षों में महिलाओं-सहित सभी वयस्कों के लिए मताधिकार की माँग को लेकर आंदोलन हुए। उदारवादी राष्ट्रवादियों ने प्रेस की आजादी का मुद्दा भी उठाया।
आर्थिक उदारवाद-अर्थव्यवस्था के संबंध में भी उदारवादियों की अपनी अवधारणा थी। उदारवादी मुक्त व्यापार के पक्षधर थे। वे आर्थिक गतिविधियों में राजकीय नियंत्रण के विरोधी थे। वे चाहते थे कि बाजार सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो तथा बिना राजकीय हस्तक्षेप अथवा नियंत्रण के पूँजी का आवागमन हो। मध्यम वर्ग ने सशक्त रूप से इस माँग को रखा। इसका प्रमुख कारण यह था कि राजकीय नियंत्रण में व्यापारियों को घाटा होता था। उदाहरण के लिए, नेपोलियन द्वारा स्थापित जर्मन महासंघ के प्रत्येक राज्य की अपनी मुद्रा थी। नाप-तौल की प्रणाली भी अलग-अलग थी। प्रत्येक राज्य में सीमाशुल्क अलग-अलग दरों से वसूले जाते थे। यह परिस्थिति व्यापार-वाणिज्य के विकास में अवरोधक थी। अत:, मध्यम वर्ग, जिसके अंतर्गत वाणिज्यिक वर्ग भी था, एक ऐसे एकीकृत क्षेत्र की माँग कर रहा था जहाँ अबाध गति से व्यापारिक गतिविधियाँ चलाई जा सकें।
ऐसा प्रयास 1834 में किया गया। प्रशा ने एक शुल्क संघ जॉल्वेराइन (Zollverein) की स्थापना की। इसमें जर्मन महासंघ के
सभी राज्य सम्मिलित हो गए। इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए जर्मन अर्थशास्त्री फ्राइडरीख लिस्ट ने लिखा, “जॉल्वेराइन का लक्ष्य जर्मन लोगों को आर्थिक रूप में एक राष्ट्र में बाँध देना है …
जर्मन लोग यह समझ गए हैं कि एक मुक्त आर्थिक व्यवस्था ही राष्ट्रीय भावनाओं के उत्पन्न होने का एकमात्र जरिया है।” इस संघ की स्थापना का जर्मन राज्यों की अर्थव्यवस्था पर आशानुकूल प्रभाव पड़ा। अब व्यापारी पूरे क्षेत्र में अनावश्यक शुल्क देने से बच गए। प्रचलित मुद्रा की संख्या घटाकर सिर्फ दो कर दी गई। संपूर्ण महासंघ में यातायात के साधनों का विकास हुआ। रेल लाइन के प्रसार से गतिशीलता बढ़ गई। इस प्रकार, जॉल्वेराइन ने आर्थिक हितों की सुरक्षा कर राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। आर्थिक राष्ट्रवाद ने व्यापक राष्ट्रवाद के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

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