रूढ़िबद्धता को परिभाषित कीजिए। भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़िबद्धता की व्याख्या कीजिए। Define Stereotyping. Describe stereotyping pervaded in Indian Society.
रूढ़िबद्धताएँ, जनरीतियों की ही तरह अनौपचारिक सामाजिक मानदण्ड होती हैं। जनरीतियों से ही रूढ़ियों का निर्माण होता है। जब कोई जनरीति बहुत अधिक व्यवहार में आने पर समूह के लिए अति आवश्यक समझ ली जाती है तब वह रूढ़ियों का स्वरूप धारण कर लेती है।
जहोदा के अनुसार, रूढ़िबद्धता एक समूह के प्रति पूर्व कल्पित मतों का संकेत करती है।
स्मिथ के अनुसार, रूढ़िबद्धता, अन्धविश्वासों का एक ऐसा समुच्चय है जो गलत या अधूरी सूचना पर आधारित है तथा जिसे पूरे समूह के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
- रूढ़ियाँ व्यक्ति के व्यवहार को विशेष एवं मान्य रूप से संचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं।
- सामाजिक संरचना के स्थायित्व में रूढ़ियों की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण होती है।
- रूढ़ियाँ प्रायः गतिहीन होती हैं एवं सामाजीकरण की प्रक्रिया में व्यक्ति उनको आत्मसात् करते हुए उसके अनुरूप व्यवहार करते हैं ।
- रूढ़ियों में निरन्तरता का गुण पाया जाता है जिसके कारण ये समाज में स्थायित्व प्राप्त कर लेती हैं जिसके फलस्वरूप समाज में परिवर्तन होने के बावजूद रूढ़ियाँ समाज में व्याप्त रहती हैं।
- रूढ़ियों के पीछे कानून की सहमति नहीं होती है फिर भी इनका प्रभाव व्यवहार में कानून से अधिक होता है।
- रूढ़ियों में नैतिकता का अंश होता है इसलिए इनका पालन धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में किया जाता है।
- रूढ़ियाँ हमारे जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।
- रूढ़िवादी परम्पराएँ प्रायः लिंग भेद को जन्म देती हैं।
- रूढ़िबद्धता कल्पना आधारित प्रक्रिया है क्योंकि रूढ़िवादी परम्पराओं के अन्तर्गत किसी भी परम्परा में मात्र कल्पनाओं का ही समावेश होता है।
- रूढ़िबद्धता को अतार्किक प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है क्योंकि अनेक सामाजिक परम्पराओं के मूल में कोई तर्क नहीं होता है।
- प्रायः जो देश रूढ़िवादी परम्पराओं का अनुकरण करता है वह कभी भी विकसित नहीं हो सकता है।
- रूढ़िबद्धता आधुनिक विकास में बाधक होती है। अनेक प्रकार की आधुनिकता सम्बन्धी उपाय रूढ़िबद्धता के कारण असफल हो जाते हैं।
उपर्युक्त विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि रूढ़िबद्धता व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की दृष्टि से अनुपयोगी तथा निरर्थक प्रक्रिया है जो कि समाज के चहुंमुखी विकास में बाधा उत्पन्न करती है। रूढ़िबद्धता के कारण ही सामाजिक विसंगतियों का जन्म होता है।
- सकारात्मक रूढ़िबद्धता – सकारात्मक रूढ़ियाँ, ऐसी रूढ़ियाँ होती हैं जो व्यक्ति से विशेष प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा रखती हैं। उदाहरण के लिए जीवन में ईमानदारी रखना, माता-पिता का आदर करना आदि सकारात्मक रूढ़ियाँ हैं ।
- नकारात्मक / निषेधात्मक रूढ़िबद्धता – सकारात्मक रूढ़ियों के विपरीत निषेधात्मक रूढ़ियाँ वर्जना (Taboo ) के रूप में हमें कुछ विशिष्ट व्यवहार करने से रोकती हैं। उदाहरण के लिए- चोरी नहीं करनी चाहिए, वेश्यावृत्ति से दूर रहना चाहिए एवं सट्टेबाजी नहीं करनी चाहिए आदि ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रूढ़ियों में नैतिकता का पर्याप्त प्रभाव रहता है एवं इनका पालन करना भी सामाजिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अतः अतिथि का आदर करना, स्त्रियों से आदरपूर्वक व्यवहार करना इत्यादि रूढ़ियों के ही उदाहरण हैं जिनका पालन सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप करना व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
- लिंगपरक रूढ़िबद्धता- लड़की और लड़के के बारे में बनाई गयी असमान तथा एक तरफा धारणा लड़कों एवं पुरुषों को लड़कियों एवं औरतों से अधिक महत्त्व देता है। यह सामाजिक धारणा एवं व्यक्तियों के विचार एवं लैंगिक रूढ़िबद्धता को प्रदर्शित करता है। लैंगिक रूढ़िबद्धता समाज को पुरुष प्रधान बनाने के साथ ही स्त्रियों की शिक्षा, सामाजिक सहभागिता एवं स्वतन्त्रता को प्रभावित करती है। यह सामाजिक रूढ़िबद्धता प्राचीन काल से प्रारम्भ होकर वर्तमान तक अपने उसी रूप में चली आ रही है। समाज एवं बुद्धिजीवी वर्ग कितना भी महिला सशक्तीकरण एवं लैंगिक समानता का गुणगान करते रहें परन्तु इसके लिए लोगों के विचारों एवं भावनाओं में परिवर्तन, उनकी सोच एवं दूरदर्शी विचारों का प्रवाह आवश्यक है।
- बाल विवाह – वर्तमान में भारत एक विकासशील देश है। अपने विकास के साथ ही उसके विभिन्न सामाजिक स्वरूपों में भी विकास हुआ है परन्तु बहुत सी सामाजिक रूढ़ियों में आज भी पिछड़ापन है।
बाल विवाह अपने बदले हुए स्वरूप में आज भी विद्यमान है। समाज के एक पक्ष ने शिक्षित एवं जागरूक होकर बाल विवाह का त्याग भले ही किया है परन्तु पूर्ण रूप से इस रूढ़िवादिता का अन्त नहीं माना जा सकता है।
- दहेज प्रथा – समाज में व्याप्त विभिन्न रूढ़िवादियों में दहेज प्रथा एक प्रमुख रूढ़िबद्धता है। प्रारम्भ में राजा एवं महाराजा इसे अपनी शान समझकर वर पक्ष को धन, भूमि, सैनिक आदि प्रदान करते थे परन्तु समाज के सभी वर्गों ने इसे अनिवार्य रूप से अपना लिया तथा आज यह अनिवार्य बन गया है ।
- पिण्डदान हेतु पुत्र की महत्ता – भारतीय समाज में विविध प्रकार की रूढ़िबद्धताएँ हैं जिनमें से एक रूढ़िबद्धता पिण्डदान हेतु पुत्र का होना आवश्यक है। सामान्यतः यह कहा जाता है कि पुत्र ही माता-पिता के लिए मुक्ति (मोक्ष) का द्वार खोलता है अर्थात् जब तक पुत्र द्वारा माता-पिता का पिण्डदान नहीं किया जाता तब तक उन्हें (माता-पिता) मोक्ष प्राप्त नहीं होता है। भारतीय समाज में यह रूढ़िबद्धता प्राचीनकाल से चली आ रही है तथा वर्तमान समय में भी यह व्याप्त है । यद्यपि वर्तमान में इस रूढ़िबद्धता का प्रभाव कुछ कम हो गया है किन्तु पूर्ण रूप से अभी इसका अन्त नहीं हुआ है।
- स्त्रियों से मात्र गृहकार्य की अपेक्षा – भारतीय समाज में यह कहा जाता है कि गृहकार्य करने में मात्र स्त्रियों ( लड़कियों एवं महिलाओं) की ही सहभागिता होनी चाहिए अर्थात् केवल बालिकाओं एवं महिलाओं को ही गृहकार्य (घर का कामकाज ) करना चाहिए । आधुनिक भारतीय समाज में इस रूढ़िबद्धता का कुछ अंश तक खण्डन किया जा चुका है। अब पुरुष एवं बालक भी घर के कार्यों में अपनी भागीदारी का उचित निर्वहन कर रहे हैं।
- पुरुष ही घर का पालनहार – प्राचीन भारतीय समाज में पुरुष को ही घर का पालनहार या पालनकर्ता माना जाता था। इसीलिए पूरे परिवार को उसकी प्रत्येक उचित एवं अनुचित बात का समर्थन करना होता था परन्तु धीरे-धीरे इस रूढ़िबद्धता में सुधार होता गया । वर्तमान में एक परिवार को अपनी-अपनी बातें कहने का पूर्ण अधिकार है एवं उसे यह भी अधिकार है कि वह घर के प्रत्येक सदस्य की अनुचित व्यवहार या बातों के प्रति आवाज बुलन्द कर सकता है।
इस प्रकार समाज की ये रूढ़ियाँ आज भी हमारे भारतीय समाज में किसी न किसी रूप में व्याप्त हैं जो इन रूढ़ियों का पालन करते हैं। वे समाज में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं एवं जो इनका पालन नहीं करते हैं वे हीन या घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं। इस प्रकार रूढ़ियों के सन्दर्भ में हम यह कह सकते हैं कि रूढ़ियाँ जीवन की समस्याओं के लिए प्रश्न न रखकर उत्तर प्रस्तुत करती हैं अर्थात् रूढ़ियाँ इतनी बलवती होती हैं कि वे किसी भी व्यवहार को उचित अथवा अनुचित घोषित कर देती हैं ।