वन्य समाज और उपनिवेशवाद
वन्य समाज और उपनिवेशवाद
वन और मानवजीवन का अटूट संबंध है। मानव अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगल और इसके उत्पादों पर
आज भी आश्रित है। भारत में वनों की बहुलता है। इनमें अनेक जनजातियाँ निवास करती हैं। ऐसा माना जाता है कि ये
जनजातियाँ भारत की मूल निवासी हैं। इसीलिए, इन्हें ‘आदिवासी’ कहा जाता है। आदिवासियों एवं जनजातियों का तो
संपूर्ण जीवन ही वनों पर आश्रित था। औपनिवेशिक शक्तियों का जब प्रसार हुआ तो जंगल भी उपनिवेशवाद के शिकार बने।
फलतः, वन्य समाज और अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों का आदिवासियों एवं जनजातियों पर प्रतिकूल
प्रभाव पड़ा। अपने परंपरागत जंगल-संबंधी अधिकारों के छीने जाने एवं दिकुओं के शोषण के विरुद्ध उन लोगों ने समय-समय
पर प्रतिरोध एवं विद्रोह किए। इनसे उन्हें पूर्ण राहत तो नहीं मिली, परंतु उनकी स्थिति में कुछ सुधार अवश्य आया।
वन और जीवन का संबंध
वनों से हमारा संबंध अतिप्राचीनकाल से ही है। हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का विकास वनों में ही हुआ। वनों में ही
हमारे ऋषि-मुनियों ने तपस्या की, चिंतन और मनन किया तथा वेद-पुराणों की रचना की। साहित्य में वनों का बखान भी किया
गया है। आज भी वनों का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। वन हमारे आर्थिक जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। ये हमारी राष्ट्रीय
संपत्ति हैं। वन हमारे लिए अनेक प्रकार से उपयोगी हैं।
वनों की उपयोगिता-वन तापमान में कमी लाकर अधिक वर्षा कराते हैं। ये भूमि के कटाव को भी रोकते हैं। वनों का आर्थिक
महत्त्व बहुत अधिक है। इनसे इमारती लकड़ी, रेल-स्लीपर एवं फर्नीचर बनाने की लकड़ी मिलती है। बाँस, रस्सी एवं केंदू पत्तों
का व्यवहार विभिन्न प्रयोजनों में होता है। वन पशुओं के लिए चरागाह का भी काम करते हैं। इनसे औषधियुक्त पौधे, जड़ी-बूटियाँ, फल-फूल, शहद, गोंद, लाह जैसी वस्तुएँ मिलती हैं। इनकी सहायता से अनेक लघु उद्योग चलाए जाते हैं। वन पशु-पक्षियों को आश्रय भी प्रदान करते हैं। वनों का धार्मिक महत्त्व भी है। भारत की लगभग 21.2 प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित हैं।
मानवजीवन अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों पर आश्रित है। आदिवासियों और जनजातियों के लिए तो
वन ही उनका सर्वस्व है जहाँ वे जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं, सारा क्रियाकलाप करते हैं और अंततः वन में ही अंतिम विश्राम लेते
हैं। जनजातीय सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक व्यवस्था में वनों का विशिष्ट स्थान है। भारत में विभिन्न प्रकार के वन हैं तथा
संपूर्ण भारत में फैले हुए हैं। जनसंख्या में वृद्धि, कृषि के विस्तार और औपनिवेशिक नीतियों के कारण 18वीं शताब्दी से वनों का क्षेत्र संकुचित होने लगा। बड़े स्तर पर जंगलों की कटाई की जाने लगी। इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे।
वन और औपनिवेशिक नीति
सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ वन्य समाज और वनों की स्थिति में परिवर्तन आया। जनसंख्या में वृद्धि, नई
बस्तियों की स्थापना और कृषि के विस्तार के लिए जंगलों की कटाई आरंभ हुई। इसने वननाशन (deforestation) की प्रक्रिया
को बढ़ावा दिया। औपनिवेशिक काल में औद्योगिक विकास एवं सरकारी नीतियों के कारण यह प्रक्रिया और तीव्र हुई। इसके
अनेक कारण थे-
(i) औपनिवेशिक सरकार द्वारा वनों को अनुत्पादक मानना- औपनिवेशिक शासक जंगलों को काट कर कृषि का विस्तार
करना चाहते थे जिससे बढ़ती जनसंख्या को आवास, कृषि और अनाज की सुविधा उपलब्ध कराई जा सके। कृषि के विस्तार के
साथ-साथ भू-राजस्व की वृद्धि की भी संभावना थी। इससे सरकार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती। फलतः, 19वीं शताब्दी
के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बड़े पैमाने पर जंगलों को काट कर कृषियोग्य भूमि का विस्तार किया गया।
(ii) ब्रिटिश साम्राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करना- औपनिवेशिक काल में वननाशन का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण था
ब्रिटिश साम्राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करना। ब्रिटिश सरकार अपने यहाँ के अनाज की कमी की पूर्ति भारतीय कृषि का
विस्तार कर करना चाहती थी। साथ ही, वह वाणिज्यिक फसलो के उत्पादन जैसे जूट, गन्ना, कपास को बढ़ावा देना चाहती थी
जिनकी यूरोप में बहुत अधिक माँग थी।
(iii) ब्रिटिश जहाजरानी के लिए लकड़ी की आवश्यकता- भारत में वननाशन का एक प्रमुख कारण यह था कि 19वीं
शताब्दी के आरंभ तक इंगलैंड में बलूत पेड़ के जंगल तेजी से घटते जा रहे थे। इस पेड़ की लकड़ी का उपयोग जहाजरानी में
किया जाता था। इसकी आपूर्ति कम होने से इंगलैंड की शाही नौसेना के लिए भीषण समस्या उठ खड़ी हुई। अतः, अँगरेजी
सरकार ने भारत में खोजी दल भेज कर वैसे वृक्षों का पता लगाया जिनकी लकड़ी का उपयोग जहाजों के निर्माण में किया जा सके। भारत के जंगलों में ऐसे पर्याप्त लंबे, सीधे तनेवाले कठोर और मजबूत वृक्ष थे, जैसे-सागवान, सखुआ इत्यादि जिनका उपयोग जहाजों के निर्माण में हो सकता था। फलतः, भारत में जंगलों को काट कर उसकी लकड़ी इंगलैंड को निर्यात की जाने लगी।
(iv) भारत में रेल का विस्तार-भारत में भी औपनिवेशिक शासकों को लकड़ी की आवश्यकता थी। 19वीं शताब्दी के पाँचवें दशक में भारत में रेल का आरंभ किया गया। इसे औपनिवेशिक शासकों ने अपनी सैनिक, प्रशासनिक और आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया। रेल इंजन के लिए कोयला (आरंभिक चरण में लकड़ी कोयला) तथा रेल पटरी
बिछाने के लिए लकड़ी के पटरों की आवश्यकता थी। अतः, जैसे-जैसे रेल का विकास होता गया वैसे-वैसे जंगलों की कटाई
में भी तीव्रता आई। साथ ही, जिस मार्ग से रेल लाइन निकाली गई उसके इर्द-गिर्द के जंगल भी काट दिए गए।
(v) जंगलों के स्थान पर वागवानी को बढ़ावा देने की नीति- भारत में औपनिवेशिक काल में बड़े स्तर पर जंगलों की कटाई
का एक अन्य कारण था। अंगरेजों ने अपने व्यापारिक लाभ के लिए प्राकृतिक जंगलों को काट कर वहाँ बागान लगवाने की
नीति अपनाई। इन बागानों में रबर, चाय और कॉफी के उत्पादन को बढ़ावा दिया गया। इनकी यूरोप में बहुत अधिक माँग थी।
अंगरेज व्यापारी इनका निर्यात कर धन कमाना चाहते थे। इसलिए, औपनिवेशिक सरकार ने भारत में वनों के विस्तार के स्थान पर बागवानी को बढ़ावा देने की नीति अपनाई।
सरकारी नीतियों का कार्यान्वयन-अंगरेजी सरकार ने अपनी नीतियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप भारत में कार्य किया।
वनों के अधिकतम उपयोग और वन संपदा को अनावश्यक विनाश से बचाने के लिए सरकार ने जर्मनी निवासी डायट्रिच
बॅडिस को भारत में इंस्पेक्टर जनरल ऑफ फॉरेस्ट्स इन इंडिया (Inspector General of Forests in India) नियुक्त किया। बॅडिस ने जंगलों की समुचित व्यवस्था के लिए भारतीय वन सेवा (Indian Forest Service) की स्थापना 1864 में की।
उसने भारतीय वन अधिनियम (Indian Forest Act) को 1865 में पारित करवाया। सरकार ने 1906 में देहरादून में इंपीरियल
फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Imperial Forest Research Institute) की स्थापना भी की। इसके सुझाव पर वैज्ञानिक वनीकरण (scientific forestry) की नीति अपनाई गई। भारतीय वन अधिनियम 1865 में क्रमश: 1878 और 1927 में संशोधन किए गए। 1878 में किए गए संशोधन के अनुसार, वनों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया। ये श्रेणियाँ थीं-आरक्षित, संरक्षित तथा ग्राम्य वन। सबसे अच्छी श्रेणी के वनों को आरक्षित कोटि में रखा गया। आदिवासी इन वनों का उपयोग नहीं कर सकते थे। वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सिर्फ अन्य दो प्रकार के वनों से ही कर सकते थे।
सरकारी नीतियों का जनजातियों पर प्रभाव-इन सरकारी नीतियों ने जनजातियों के जीवन और उनकी संपूर्ण व्यवस्था को
गहरे रूप से प्रभावित किया। अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातियाँ वन संपदा का व्यवहार अपनी आवश्यकतानुसार
करती थीं। इनके आर्थिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बाहरी हस्तक्षेप नहीं था। परंतु, जंगलों में बाहरी लोगों (दिकू) के
प्रवेश ने जनजातियों के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। जनजातियों का जीवन जंगलों पर ही आधृत था, परंतु सरकारी नीतियों के कारण उन्हें जंगल के उत्पादों का व्यवहार करने से रोक दिया गया।
उनकी झूम खेती पर रोक लगा दी गई। वे जंगलों में न तो शिकार कर सकते थे और न ही स्वतंत्रतापूर्वक जलावन अथवा घरों के लिए लकड़ी ले सकते थे। पशुओं के लिए चरागाह की भी समस्या उत्पन्न हो गई। साफ किए गए जंगलों को कृषियोग्य
बनाए जाने पर जनजातियों पर लगान का बोझ डाल दिया गया। लगान की वसूली के लिए जमींदारों और पुलिसकर्मियों का
जंगलों में प्रवेश आरंभ हुआ। इसके साथ-साथ व्यापारी, महाजन और साहूकार भी आए। इन सबने मिलकर किसानों और
जनजातियों का शोषण आरंभ किया। जनजातियों की पारंपरिक राजनीतिक और प्रशासनिक-व्यवस्था नष्ट हो गई। दिकुओं के
संपर्क में आने से परंपरागत सामाजिक जीवन भी बिखरने लगा। वर्ग-विभेद की भावना प्रबल हो गई। ईसाई मिशनरियों के
आगमन से धार्मिक जीवन भी प्रभावित हुआ। जनजातियों का शारीरिक एवं आर्थिक शोषण बढ़ गया। फलतः, अनेक व्यक्ति
जंगल छोड़कर रोजगार की तलाश में मजदूर के रूप में शहरों एवं खदानों में चले गए। इस प्रकार, औपनिवेशिक नीतियों ने
भारतीय वन्य समाज एवं जीवन की नैसर्गिकता समाप्त कर दी। आदिवासी पुलिस, जमींदार, महाजन एवं साहूकार के चंगुल में
जकड़ गए। शोषण की चक्की में वे पिसते गए। उनकी सुननेवाला कोई नहीं था। बाध्य होकर इन लोगों ने शोषण के विरुद्ध गोलबंद होना एवं शोषण का प्रतिरोध करना आरंभ कर दिया।