1st Year

विभिन्न अवस्थाओं में लैंगिकता का विकास किस प्रकार होता है? लैंगिकता विकास में प्राथमिक शिक्षा की भूमिका वर्णन कीजिए ।

प्रश्न  – विभिन्न अवस्थाओं में लैंगिकता का विकास किस प्रकार होता है? लैंगिकता विकास में प्राथमिक शिक्षा की भूमिका वर्णन कीजिए ।
How does the Development of Sexuality in various stages. Explain the Role of Primary Education in the Development of Sexuality.
उत्तर- लैंगिकता का विकास
व्यक्तित्व विकास में बालक के लैंगिक विकास को फ्रायड `ने विभक्त किया है। इनकी संख्या इन्होंने तीन बतायी है । फ्रायड ने शैशव अवस्था को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। इसकी अवधि 5-6 वर्ष की होती है। फ्रायड का यह कहना था कि बालक के जीवन के प्रारम्भिक कुछ ( 5-6) वर्षों में व्यक्ति को जैसे अनुभव प्राप्त होते हैं उससे उसका प्रौढ़ व्यक्तित्व प्रभावित होता है। फ्रायड ने एक प्रत्यय लिबिडो (Libido) का उल्लेख किया है इसके अन्तर्गत केवल कामवासना की सन्तुष्टि को ही नहीं रखा जा सकता है बल्कि इसके अन्तर्गत वे सभी व्यवहार आते हैं जिनका सम्बन्ध प्रेम, स्नेह, लगाव आदि से होता है। व्यक्ति के वे सभी कार्य जिनसे उसे सुख मिलता है, लिबिडो से सम्बन्धित होते हैं। फ्रायड महोदय कहते हैं कि शैशव अवस्था में लिबिडो शिशु के मुँह में होता है इस कारण वह अधिकतर अंगूठा चूसता रहता है। उनके अनुसार, अंगूठा चूसना कामवृत्ति को सन्तुष्ट करने का प्रयास है। उन्होंने काम सम्बन्धी चेतना का उदय शैशव अवस्था में ही माना है। इस अवधि में बालक सुख के लिए क्रियाशील होता है वह उन्हीं कार्यों को करता है जिनसे उसे सुख मिलने की सम्भावना होती है।

व्यक्तित्व विकास की दूसरी अवस्था में बालक के मन की कामवृत्ति दब जाती है इसलिए इस अवस्था को फ्रायड ने अव्यक्त अवस्था कहा है। इस समय बालक का ध्यान ऐसे कार्यों की ओर जाता है जिससे उसका सामाजिक विकास होने लगता है। यह अवधि उन्होंने 6-12 वर्ष की आयु तक की मानी है। तीसरी अवस्था किशोरावस्था है जो 12-18 या 20 वर्ष की आयु तक रहती है। इस काल में कामवृत्ति पुनः प्रकट होने लगती है तथा किशोर बालक या बालिका कामुक विचार वाले तथा ऐसे कार्यों में रुचि लेने लगते हैं। किशोर बालक तथा बालिकाओं में प्रेम की प्रवृत्ति अधिक हो जाती है। फ्रायड महोदय ने बालक के लैंगिक विकास (Sexuality Development) को निम्न पाँच अवस्थाओं में बाँटा है-

  1. मौखिक अवस्था (Oral Stage) – इस अवस्था का समय फ्रायड ने जन्म से लेकर 2 वर्ष की अवस्था तक माना है । इस अवस्था में शिशु माँ के स्तन को मुँह से चूस कर आनन्द प्राप्त करता है। जब बालक 1 वर्ष का हो जाता है तब मौखिक अवस्था का दूसरा पक्ष प्रारम्भ होता है । दूसरे पक्ष में शिशु का लिबिडो स्वकेन्द्रित होता है। इसमें बालक चूसकर, निगलकर, काटकर तथा मुख सम्बन्धी इसी तरह की अन्य क्रियाओं के द्वारा सुख की प्राप्ति करता रहता है। इस अवस्था में शिशु के सभी कार्य सुख सिद्धान्त से प्रेरित होते हैं ।
  2. गुदा अवस्था (Anal Stage ) – इस अवस्था का काल 2 से 4 वर्ष की आयु तक माना है। इस अवस्था में बालक की रुचि गुदा स्थान एवं इससे सम्बन्धित क्रियाओं में अधिक रहती है। इसमें बालक में आत्मचेतना का विकास होने लगता है। उसका लिबिडो स्वयं में अत्यधिक केन्द्रित हो जाता है। फलस्वरूप बालक अपने आप से प्रेम करने लगता है। इस प्रकार के आत्म प्रेम को फ्रायड ने आत्मरति का नाम दिया है। इस अवस्था में भी सुख सिद्धान्त की प्रधानता रहती है लेकिन जब बालक की आयु लगभग चार वर्ष की होने लगती है तब उसे यथार्थ का कुछ-कुछ अनुभव होने लगता है फलस्वरूप सुख सिद्धान्त के आधार पर कार्य करने की प्रवृत्ति में कमी आ जाती है।
  3. लिंग प्रधान अवस्था (Phellic Stage) – लैंगिक विकास की तीसरी अवस्था लिंग प्रधान है। इसकी अवधि चार से छः वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में लिबिडो का केन्द्र जननेन्द्रियों पर होता है। इस अवस्था में बालक का लिबिडो सबसे हटकर माता तथा पिता पर केन्द्रित होने लगता है। पुत्र का लिबिडो माता पर तथा पुत्री का लिबिडो पिता पर केन्द्रित होता है। फ्रायड के अनुसार, इस अवस्था में बालक यथार्थ के प्रति धीरे-धीरे आकर्षित होने लगता है।
  4. सुप्तावस्था (Latency Stage) – इस अवस्था की अनुभूति प्रायः 6 से 12 वर्ष के बालक एवं बालिकाओं में होती है। 6 वर्ष का बालक द्यालय में शिक्षा के लिए जाता है तो उसका सम्पर्क अपनी आयु के अन्य बालकों एवं बालिकाओं से होता है। इस अवस्था में बालक एवं बालिकाओं का मानसिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास धीरे-धीरे होने लगता है। इस अवस्था में उसमें पराअहम् का विकास होता है। पराअहम् का सम्बन्ध सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से होता है। जब पराअहम् पर्याप्त मात्रा में विकसित हो जाता है तब बालक अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत होने लगता है। इस अवस्था में बालक यह नहीं चाहता कि माता-पिता उसके प्रति अत्यधिक प्रेम का प्रदर्शन करें। वह ‘यह अनुभव करता है कि उसकी उम्र अधिक हो गई है तथा वह अपना अच्छा बुरा अब समझने लगा है। इस अवस्था में उस पर अपने साथियों का अधिक प्रभाव पड़ने लगता है। इस अवस्था के अन्त में बालक एवं बालिकाएँ स्वतन्त्र रहने का प्रयास करते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी स्वतन्त्रता में माता-पिता बाधक हों।
  5. जननेन्द्रिय अवस्था (Genital Stage)-12 वर्ष के बाद से लेकर प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति में लैंगिक अभिरुचि विकसित होने लगती है। 13 वर्ष के किशोर बालक एवं बालिकाओं में यौवन की चेतना जाग्रत होने लगती है। वे यौवनारम्भ (Puberty) के काल में प्रवेश करते हैं अब लैंगिक चेतना सक्रिय दिखायी देती है। यह भी देखा गया है कि 12 से 15 वर्ष की आयु में किशोरों में समलिंगरति की प्रवृत्ति दिखायी देती है लेकिन जब किशोरों को विचारणीय वातावरण मिलता है तो यह प्रवृत्ति कम हो जाती है तथा तब इसके स्थान पर विषमलिंगरति (Heterosexuality ) की प्रवृति प्रकट होती है। फ्रायड द्वारा वर्णित इन अवस्थाओं से स्पष्ट है कि फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धान्त में विकास की मनोलैंगिक अवस्थाएँ प्रमुख स्थान रखती है। ध्यान रखने योग्य बात है कि यदि बालक का लालन-पालन सुचारू रूप से होता है तथा उसे सामाजिक व नैतिक विकास के लिए वांछनीय पर्यावरण मिलता है तो उसका विकास सुचारू रूप से होता है तथा वह प्रौढ़ जीवन में परिपक्व व यथार्थवादी बनता है।
लैंगिकता विकास में प्राथमिक शिक्षा की भूमिका (Role of Primary Education in the Development of Sexuality)
  1. प्राथमिक शिक्षा संस्थाओं में लैंगिकता के विकास के लिए सह-शिक्षा की व्यवस्था की जाती है।
  2. प्राथमिक स्तर पर व्यापक शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण लैंगिकता की व्यापकता के लिए किया जाता है।
  3. स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोण के विकास के लिए प्राथमिक स्तर पर रोचक पाठ्यक्रम एवं लिंगीय समानता को प्रदर्शित करने वाले चित्रों का प्रयोग किया जाता है।
  4. उत्तम कार्य करने वाले बालक एवं बालिकाओं को विद्यालय में प्रोत्साहित किया जाता है जिसके फलस्वरूप पुरुष प्रधानता का मिथक टूटता है।
  5. इस स्तर पर लैंगिकता के विकास के लिए विविध प्रकार की पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाता है।
  6. विद्यालयों में बालक एवं बालिकाएँ विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलाप एक-दूसरे की सहायता से करते है जिससे उनमें सहयोग की भावना का विकास होता है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में रहती है।
  7. विद्यालय में शिक्षकों के द्वारा बालक एवं बालिकाओं के प्रति अभेद – पूर्ण व्यवहार के द्वारा ही लैंगिक शिक्षा सकारात्मक दिशा की ओर आगे बढ़ती है।
  8. प्राथमिक स्तर पर जब अभिभावक एवं समाज के लोग, बालक एवं बालिकाओं की प्रतिभा एवं कार्यों में भेद नहीं देखते तो उनमें लैंगिक भेद-भावों के प्रति उदारता आती है।

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