समकालीन भारतीय समाज में शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi
समकालीन भारतीय समाज में शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. सामाजिक बदलाव के सम्बन्ध में मैर्क्स वेबर के क्या विचार हैं?
लिखिए।
उत्तर―मैर्क्स वेबर के अनुसार समाज का विकास वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया के अनुसार
होता है। एक वर्ग का किसी अन्य वर्ग पर प्रभुत्व होने के कारण वर्ग द्वन्द्व उत्पन्न होता है।
इस द्वन्द्व का यह परिणाम निकलता है कि उत्पादन के तरीकों में प्रौद्योगिकी परिवर्तन आने
लगता है। इसके कारण उत्पादन की प्रक्रिया भी विकसित होती है। इससे नए वर्गों की रचना
होती है। इससे वर्ग संघर्ष एक नया रूप ले लेता है।
प्रश्न 2. मैर्क्स वेबर के सामाजिक स्तरीकरण के विचार लिखिए।
उत्तर―मैर्क्स वेबर ने वर्ग में जीवन अवसर को विशेष महत्त्व दिया है । इसका अर्थ
उन अवसरों से है, जो किसी-किसी व्यक्ति (स्त्री व पुरुष) को अपने जीवन में विभिन्न धर्मों
में मिलते हैं। श्रमिक वर्ग के बच्चों की शिक्षा महंगी नहीं होती । वे बच्चे परिवार में अपने
रोजगार की दक्षता प्राप्त कर लेते हैं। मध्यम वर्गीय या उच्च वर्गीय व्यक्ति अपने वर्ग के
व्यक्तियों से सीखते हैं। व्यक्ति विशेष अवसर पर कोई भी विशेष वस्तु या व्यवहार को देखता
है, उसी का अनुकरण करने लगता है।
प्रश्न 3. सामाजिक विविधता को ध्यान में रखते हुए कक्षा में शिक्षक का व्यवहार
कैसा होना चाहिए?
उत्तर–सामाजिक विविधता का रूप कक्षा में देखा जा सकता है क्योंकि बालक तो
समाज से ही आते हैं। शिक्षक को सोचना चाहिए कि बचपन में सीखने की क्षमता प्राय:
सभी की समान नहीं होती है। शिक्षक को अपनी कक्षा में जातिगत या धार्मिक भावनाओं
सम्बन्धी व्यवहार नहीं करना चाहिए। शिक्षक को सम्भाव से सभी को शिक्षा देने का लक्ष्य
रखना चाहिए। लड़की व लड़के के प्रति भी समान भाव रखना चाहिए । प्रायः देखा जाता
है कि आजकल लड़कियाँ भी शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों से पीछे नहीं रहती हैं।
प्रश्न 4. वंचना किसे कहते है ? वास्तविक वंचन और सापेक्षिक वंचन क्या है?
उत्तर―विकास हेतु आवश्यक सुविधाओं से वंचित होने तथा असमानता के व्यवहार
के कारण व्यक्ति व समुदाय के अन्दर वंचन का भाव उत्पन्न होता है और वह स्थिति जिसमें
वंचित व्यक्ति जीता है ‘वंचना’ के रूप में जाना जाता है । सूक्ष्मता से देखा जाए तो वंचन,
व्यक्ति तथा समुदाय दोनों के स्तर पर दो प्रकार से हो सकता है। व्यक्ति तथा समूह के अन्दर
वंचन का भाव इस कारण भी हो सकता है कि वह जीवन के मूलभूत आवश्यकताओं के
लिए संघर्ष कर रहा हो और इस संघर्ष के बावजूद भी उनसे वंचित हो या शारीरिक तथा
मानसिक रूप से इतना अक्षम हो कि सामान्य सुविधाओं के उपलब्ध रहने के बावजूद भी
उसका उपयोग न कर पाएँ । इस प्रका के वंचन की ‘वास्तविक वंचन’ कहा जाता है। वंचना
का भाव इस कारण से भी उत्पन्न हो सकता है कि व्यक्ति या समूह किसी दूसरे व्यक्ति या
समूह की अपेक्षा भौतिक संसाधनों सामाजिक प्रतिष्ठा तथा अन्य किसी भी कारण से अपने
आपको वंचित महसूस कर रहा हो तो वंचन के इस भाव को सापेक्षिक वंचन कहा जाता है।
प्रश्न 5. समाज में विविधता के कितने रूप हैं ? केवल नाम बताए ।
अथवा,
हमारे देश में विविधता के मुख्य स्वरूपों को लिखिए।
उत्तर―समाज में अलग-अलग प्रकार से विविधताएँ देखने को मिलती हैं, जिनमें कुछ
निम्न प्रकार से है―
(1) जातिगत विविधता,
(2) लिंग के आधार पर विविधता,
(3) धार्मिक विविधता,
(4) सांस्कृतिक विविधता,
(5) भाषायी विविधता,
(6) रंग-रूप शारीरिक विविधता,
(7) उम्र के आधार पर विविधता,
(8) स्थान के आधार पर विविधता,
(9) पहनावे के आधार पर विविधता,
(10) ग्रामीण/शहरी विविधता ।
प्रश्न 6. समावेशीकरण क्या है ?
उत्तर–आप विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत में निवास करते हैं। किसी
भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के केंद्र में वहाँ के नागरिक की बेहतरी होती है । नागरिक से आशय
सभी नागरिकों से है; चाहे वह शहर का हो या गाँव का, अमीर हो या गरीब, अगड़ा हो
या पिछड़ा, शिक्षित हो या अशिक्षित, आस्तिक हो या नास्तिक सभी के प्रति समान भाव रखते
हुए सभी की बेहतरी के लिए निरंतर कार्य करना ही स्वतंत्र, समानता, बंधुत्व व न्याय के
सिद्धांतों पर आधारित एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक गणराज्य का दायिव है।
अतः लोकतांत्रिक राष्ट्र का दायित्व विकास के लिए ऐसे प्रतिमान को देना है, जिसमें हाशिए
पर जी रहे समाज के अन्तिम व्यक्ति की बेहतरी भी शामिल हो अर्थात् विकास की बयार
से समाज का कोई भी वर्ग, समुदाय व व्यक्ति अछूता न हो । किसी व्यवस्था की यह प्रवृत्ति
ही समावेशीकरण कहलाती है; जिसमें विकास की मुख्य धारा से सभी वर्गों, समुदायों व
व्यक्तियों को जोड़े जाने की व्यवस्था की जाती है। समावेशीकरण लोकतंत्र का मूल चरित्र
है। समावेशीकरण का लक्ष्य एक समतामूलक समाज की स्थापना है।
प्रश्न 7. भारतीय संविधान में शिक्षा संबंधी प्रावधानों को संक्षेप में बताएँ।
अथवा,
मूल अधिकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी
धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसक समस्त नागरिक को
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय दिलाने के लिए तथा विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास,
धर्म एवं उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता सुनिश्ति करने वाली बन्धुता
बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर,
1949 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते है।
इस प्रस्तावना से स्पष्ट है कि भारत प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य है और यह
6 मूल सिद्धांतों स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व, समाजवाद धर्मनिरपेक्षता और न्याय पर
आधारित है। इस संविधान के अनुच्छेद 12 से 32 तक में नागरिकों के मूल अधिकारों को
स्पष्ट किया गया है। प्रारम्भ में इस संविधान में नागरिकों को 7 मूल अधिकार दिए गए थे,
परन्तु 1979 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों को
मूल अधिकारों की सूची से निकालकर उसे कानूनी अधिकारों की सूची में जोड़ दिया गया
और इस प्रकार 6 मूल अधिकार रह गए। 2002 में सरकार ने संविधान में 86वाँ संशोधन
कर शिक्षा के अधिकार को 6-14 आयु वर्ग के बच्चों की शिक्षा का मूल अधिकार प्रदान
कर उसे स्पष्ट एवं सुनिश्चित कर दिया गया। वर्तमान में भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित
6 मूल अधिकार प्राप्त हैं :
1. समानता का अधिकार।
2. स्वतंत्रता का अधिकार।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार।
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार ।
5. शिक्षा (6-14 आयु वर्ग के बच्चो की शिक्षा) एवं संस्कृति का अधिकार ।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार ।
प्रश्न 8. प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकता पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।
उत्तर―अंग्रेजी भाषा में Universe शब्द का अर्थ विश्व, दुनिया, संसार है। इसी से
Universalization (यूनिवर्सलाइजेशन) बना है, जिसके हिन्दी रूपान्तर सार्वभौमिकरण,
सार्वजनीकरण या सार्वव्यापीकरण प्रयोग में लाए जाते हैं। इन सबका भाव एक ही है। जब
कोई चीज या घटना पूरे विश्व तक फैल जाए तो वह स्थिति सार्वभौमिक, सार्वजनिक या
सार्वव्यापिक कहलाती है। उदाहरण के लिए यदि कोई बीमारी पूरी दुनिया में फैल जाए तो
हम कहेंगे कि अमुक बीमारी ने सार्वभौमिक रूप धारण कर लिया है। इसी प्रकार भ्रष्टाचार
या आतंकवाद पूरे विश्व को अपनी लपेट में ले ले तो हम कहेंगे कि यह विश्वव्यापी घटना
(Universal Phenomenon) बन गई । प्राथमिक शिक्षा के सार्वव्यापीकरण का भी यह अर्थ
है। इसका उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा को प्रत्येक बालक एवं बालिका तक पहुँचाना है । अतः
प्राथमिक शिक्षा का सार्वव्यापीकरण शिक्षा के प्रसार के लिए किए जाने वाले उन प्रयासों को
कहते है, जिनके द्वारा इस आयु वर्ग के सभी बालकों को प्रजाति, रंग, धर्म व लिंग सम्बन्धी
विभिन्नताओं का ध्यान किए बिना शिक्षा प्राप्ति के अवसर सुलभ कराए जा सके।
प्रश्न 9.शैक्षिक अवसरों की समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर–शैक्षिक अवसरों की समानता से तात्पर्य शैक्षिक अवसरों की एकरूपता से नहीं
है। शैक्षिक अवसरों में एकरूपता मनोवैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं की दृष्टि से
अनुपयुक्त एवं अपर्याप्त है क्योंकि व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण प्रत्येक व्यक्ति की
शैक्षिक आवश्यकताएं पृथक-पृथक प्रकार की शिक्षा सम्बन्धी रुचियों तथा क्षमताएं
पृथक-पृथक होती हैं, इस कारण वे पृथक-पृथक होती हैं, उनकी शिक्षा सम्बन्धी रुचियों
तथा क्षमताएँ पृथक-पृथक होती हैं, इस कारण वे पृथक-पृथक प्रकार की शिक्षा प्राप्त करना
चाहते हैं। इसके साथ ही साथ राष्ट्रीय शैक्षिक आवश्यकताएं पृथक-पृथक होती है।
शैक्षिक असवसरों की समानता हमारा तात्पर्य जाति, धर्म, रंग, रूप, लिंग तथा क्षेत्र
के आधार पर पक्षपात न करते हुए सबके लिए उपयुक्त शैक्षिक अवसर प्रदान करने से है।
यह शैक्षिक अवसरों की समानता का शाब्दिक अर्थ है। मूल अर्थ में शैक्षिक अवसरों की
समानता से तात्पर्य है-उन व्यक्तियों के लिए अतिरिक्त शैक्षिक साधन जुटाना जो किन्हीं
कारणों से पिछड़े हुए हैं। यहां उद्देश्य एवं भावना यह है कि जब ऐसे वर्गों तथा व्यक्तियों
के लिए अतिरिक्त शैक्षिक साधन उपलब्ध होंगे तो वे सुविधा प्राप्त वर्गों के समान शिक्षा प्राप्त
कर अपनी उन्नति एवं प्रगति कर सकते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अनुसार, “शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक उद्देश्य शैक्षिक
अवसरों की समानता प्रदान करना है एवं पिछड़े अथवा अपर्याप्त सुविधाएँ प्राप्त वर्ग या
व्यक्तियों को अपने विकास के लिए शिक्षा प्राप्त करने के योग्य बनाना है।”
प्रश्न 10. भारत के संविधान की उद्देशिका में समता शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
अथवा,
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘समता’ शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―भारत के संविधान की उद्देशिका में ‘समता’ अर्थात् ‘समानता’ शब्द की अर्थ
यह है कि भारत के प्रत्येक लोगों को स्वतंत्रता का अधिका है कि अपनी सोच, अपने विचार
प्रकट कर सकता है व उससे स्वतंत्र है कि अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकता है उस पर
कोई पाबंदी नहीं है तथा वह कहीं पर भी जा कर रह सकता है।
प्रश्न 11. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘प्रमुख-सम्पन्न’ शब्द का अयम कीजिए।
उत्तर―’प्रभुत्व’ ‘सम्पन्न’ शब्द का अर्थ स्वशासित है। लोगों को अपने से जुड़े हर
मामले में फैसला करने का सर्वोच्च अधिकार है। कोई भी बाहरी शक्ति भारत की सरकार
को आदेश नहीं दे सकती है। विश्व के जितने भी देश, विदेशी उपनिवेशवाद से मुक्त हुए
है, वे अपनी जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए प्रशासित व्यवस्था लागू करते हुए
स्वयं को सम्प्रभुता सम्पन्न देश घोषित करते हैं।
प्रश्न 12. गुणवतापूर्ण पाठ्यचर्या/विषयवस्तु कैसी होनी चाहिए?
उत्तर― गुणवतापूर्ण पाठ्यचर्या विषयवस्तु-विद्यालय में पढ़ा जाने वाली विषय वस्तु
ऐसी होनी चाहिए, जिसकी समक्ष विद्यार्थाियों को अपनी दिन-प्रतिदिन के जीवन से सम्बन्धित
समस्याओं को हल करने में मदद कर सके । पाठ्क्रम राष्ट्र द्वारा निर्धारित शिक्षा कि लक्ष्यों
को प्राप्ति के साधन के रूप में निर्मित किया जाता है । पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए, जो
विद्यार्थी केन्द्रित एवं वैयक्तिक विभिन्नताओं पर आधारित हो, विद्यार्थियों को वर्तमान
सामाजिक समस्याओं से परिचित कराकर उनमें सामाजिक कुशलता का विकास करे, उनमें
वाछित भाषायी एवं गतितीय/तार्किक योग्यता का विकास करें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
करें, जीवन कौशलों का विकास करे, मानवीय मूल्यों विशेष रूप से शांति को विकसित करे,
बच्चों की विविधताओं एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया जाना चाहिए।
पाठ्यक्रम ऐसा हो, जिसमें राष्ट्रीयता कि साथ-साथ क्षेत्रीयता की भावना को विषयवस्तु के
रूप में शामिल किया गया हो । उच्च गुणवत्ता हेतु पाठ्यक्रम/पाठ्यचर्चा उपरोक्त तथ्यों को
संज्ञान में रखकर निर्मित की जानी चाहिए । विद्यार्थी के व्यक्तिगत विकास में गुणवतापूर्ण
पाठ्यचर्चाविषयवस्तु की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
प्रश्न 13. सर्व शिक्षा अभियान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर–सर्व शिक्षा अभियान केन्द्र द्वारा एक प्रायोजित कार्यक्रम है, जो केन्द्र एवं राज्य
सरकार के सहयोग एवं सहभागिता की बुनियाद पर खड़ा है । इसके.अन्तर्गत केन्द्र एवं राज्य
सरकार द्वारा प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में योजनाधीन निवेश सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत
शामिल कर लिए जाएंगे। सर्व शिक्षा अभियान प्रारंभिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का शैक्षिक
अभियान है । यह 2002 से 2007 तक (प्रथम चरण) तथा 2008 से 2010 तक (द्वितीयय
चरण) प्रारंभिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण के लक्ष्य को पूरा करने के शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े
देश के सभी राज्यों में चलाया जा रहा है । यह एक ऐसा कार्यक्रम है, जो एक ओर संवैधानिक
दायित्व के तहत एवं शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में सहभागिता प्राप्त कर तथा
विद्यालयों में क्रियाशीलता बढ़ाकर उपयोगी एवं संदर्भ के अनुकूल प्रारंभिक स्तर तक शिक्षा
देने हेतु एक सुखद वातावरण के निर्माण पर बल देता है । इस शैक्षिक अभियान के अन्तर्गत
के अन्तर्गत प्रत्येक जिला के 6-14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को शत-प्रतिशत शिक्षित बनाना
प्रश्न 14. एक जनतंत्रात्मक देश में पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत क्या है ?
उत्तर―एक जनतंत्रात्मक देश में पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत-जनतंत्रात्मक देश में
लोकतांत्रिक शिक्षा का तात्पर्य उस शिक्षा से है, जो बालक को समाज में अच्छी तरह रहने
के योग्य बनाये । मुदालियर माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “लोकतंत्र हर व्यक्ति की
मर्यादा तथा उसके मूल्य में पूर्ण आस्था रखता है।”
इस लोकतंत्रात्मक शिक्षा का एक उद्देश्य सबका हित करना है, सबका विकास करने
का अवसर प्रदान करना है तथा सभी में पारस्परिक एकता, राष्ट्रीयता सद्भावना एवं सहयोग
की भावना की वृद्धि करना है। जॉन डिवी ने लिखा है कि “प्रजातंत्र में ऐसी शिक्षा की
व्यवस्था करनी चाहिए जो व्यक्तियों की रुचि, सामाजिक कार्यों तथा सम्बन्धों में समन्वय
पैदा कर सके। बिना किसी कठिनाई और व्यवस्था तथा रूकावट के सामाजिक परिवर्तन कर
सके।”
प्रश्न 15. बिहार में विद्यालय शिक्षा के पाठ्यक्रम का गठन किस प्रकार हुआ
है?
उतर―बिहार राज्य के माध्यमिक विद्यालय के लिए नवीन शिक्षा योजना (10 + 2 +3)
का पाठ्यक्रम 1980 से ही लागू किया गया है। शिक्षा की नवीन संरचना में आमूल परिवर्तन
हुए हैं। इस शिक्षा योजना के अन्तर्गत दस वर्षों कह विद्यालय शिक्षा के पाठ्यक्रम की
निम्नांकित भागों में बाँटा गया है :
प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम-वर्ग 1 से 5 मध्य विद्यालय के पाठ्यक्रम-वर्ग 6 से 7
तक, माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम वर्ग 8 से 10 तक, जहाँ मध्य विद्यालय या बुनियादी
विद्यालय के आठवें वर्ग के छात्रों को पढ़ाएं जाते हैं । माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में
निम्नांकित विषय रखे गये है—भाषा, गणित, विज्ञान, समाज अध्ययन तथा कार्यानुभव के
विषय, गृह,-विज्ञान (केवल लड़कियों के लिए) तथा समाजशास्त्र को छोड़कर सभी विषय
अनिवार्य हैं।
प्रश्न 16, पाठ्यचर्या में मूल्यांकन का क्या महत्त्व है ? लिखिए।
उत्तर–पाठ्यचर्या में मूल्यांकन का महत्त्व निम्नलिखित है :
1. दिन-प्रतिदिन नई खोजें हो रही हैं । ज्ञान के क्षेत्र के विकास के लिए पाठ्यचर्चा का
मूल्यांकन कर उसमें नई ज्ञान सामग्री को स्थान दिया जाता है।
2. पाठ्यचर्या का मूल्यांकन कर उसमें अप्रचलित भाग को निकाला जा सकता है,
क्योंकि उनका उपयोग पुराना हो जाता है।
3. पाठ्यचर्या का मूल्यांकन इसलिए भी किया जाता है ताकि आगे की श्रेणी की
आवश्यकताओं और वर्तमान श्रेणी के उद्देश्यों के मध्य रिक्ति को पहचाना जा सके और
इसकी भरने के लिए उचित अधिगम अनुभवों का चुनाव किया जा सके।
4. पाठ्यचर्या को अधिक उपयोगी बनाने के लिए भी इसका मूल्यांकन किया जाता है।
इसके उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास किया जाता है।
5. पाठ्चर्या मूल्यांकन के द्वारा यह भी निष्कर्ष निकाला जाता है कि इसको छात्रों द्वारा
कहाँ तक ग्रहण किया जाता है।
प्रश्न 17. पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या में अन्तर निम्नलिखत है
पाठ्यक्रम पाठ्यचर्या
1. पाठ्यक्रम पाठ्यचर्चा का केवल अंग है। 1. पाठ्यचर्चा शिक्षण प्रक्रिया का एक अभि-
अंग है।
2.पाठ्यक्रम में केवल सैद्धांतिक ज्ञान हैं। 2. इसका स्वरूप व्यापाक है।
3.पाठ्यक्रम का निर्माण शिक्षाविद् करते 3.पाठ्यचर्चा का निर्माण अध्यापक स्वयं
करता है।
4.पाठ्यक्रम में ज्ञानात्मक पक्ष की ओर 4. पाठ्यचर्चा में छात्र के सन्तुलित एवं
ध्यान दिया जाता है। सर्वांगीण विकास पर ध्यान दिया जाता है।
5.पाठ्यक्रम में विषय से सम्बन्धित 5.पाठ्यचर्चा में ज्ञानात्मक, कौशलात्मक एवं
क्रियाएँ होती है। भावात्मक सभी पक्षों से सम्गन्धित क्रियाएँ
होती हैं।
6.पाठ्यक्रम का क्षेत्र सीमित होता है। 6.पाठ्यचर्चा का क्षेत्र व्यापक होता है।
प्रश्न 18. बच्चों में ज्ञान, कौशल एवं समझ बढ़ाने के लिए पाठ्यचर्चा की क्यों
जरूरत है?
उत्तर―संभवतः शिकार से जीवनयापन करने वाले समाज को किसी विषय पर सोचने
की जरूरत नहीं पड़ी होगी कि बच्चों को क्या सिखाएँ और कैसे सिखाएँ, लेकिन आधुनिक
समाज में इन प्रश्नों से नहीं बचा जा सकता है।
ज्ञान का अथाह भण्डार मानव सभ्यता किया है, इसका बहुत थोड़ा भाग ही वह समाज
से सीखता है । 6 वर्ष की आयु तक उसके बहुत-सा ज्ञान, कौशल, जानकारी समक्ष आदि
होते हैं किन्तु यह समक्ष ज्ञान का एक छोटा-सा अंश मात्र होता है। विद्यालय बच्चे के इस
ज्ञान, कौशल, जानकारियाँ आदि कुशलता के स्तर को परिष्कृत करने या बेहतर बनाने में
मदद करता है। बच्चे करीबन 6 वर्ष से 18 वर्ष की आयु तक विद्यालय में ही तमाम
ज्ञानोपार्जन करते हैं । किन्तु इसमें यह समस्या उत्पन्न हो जाती है कि किस वर्ष में क्या ज्ञान
दिया जाये, किन आधार पर उन्हें आगे की कक्षा में जाये दिया जाने, बच्चों को जो सिखाया
गया है उसे जाँचने के लिए परीक्षा प्रणाली को किन आधारों पर तय किया जाये इत्यादि ।
इन सभी प्रश्नों का कोई आधार होना चाहिए, कोई मापदण्ड होना चाहिए।
इन सभी प्रश्नों के उत्तर के लिए पाठ्यचर्चा की आवश्यकता होती है। पाठ्यचर्चा स्कूल
में क्या करना चाहिए क्यों करना चाहिए और कैसे करना चाहिए आदि समस्याओं के बारे
में दिशा निर्देर्शित करने वाले सिद्धांतों, मान्यताओं का एक दस्तावेज होता है। स्कूल
पाठ्यचर्चा बच्चों में ज्ञान, क्षमताओं, कौशलों और अभिवृत्तियों का विकास करने में मदद
करता है जो कि पूरी तरह बौद्धिक ही नहीं अपितु सामाजिक, नैतिक, भावानात्मक और
व्यावहारिक भी हो।
अतः यह कहा जा सकता है कि पाठ्यचर्चा बच्चों के ज्ञान, क्षमताओं, कौशल,
जानकारियों के हर पहलू को दिशा निर्देशित करता है और उनके विकास में मदद करता है।
प्रश्न 19. गाँधीजी ने विद्यालय और अनुशासन के बारे में क्या कहा है ?
उत्तर―विद्यालय–गाँधीजी ने विद्यालय को सामुदायिक केन्द्र के रूप में व्यवस्थित
करना चाहते है। उनके अनुसार विद्यालय ऐसे केन्द्र होने चाहिए, जहाँ विद्यार्थियों का सब
प्रकार कर विकास हो, जो समाज की सेवा करे और जो समाज के साथ सहयोग रखें।
विद्यालय का संगठन इस संगठन इस ढंग से होना चाहिए जिससे वे आत्म निर्भर बन सकें
अर्थात् हस्तकौशल के उत्पादनों से विद्यालय का खर्च निकाला जा सके । गाँधीजी के विद्यालय
सम्बन्धी विचारों के विषय में डॉ० एम० एस० पटेल कर कहना है कि, “वे चाहते हैं कि
हम अपने स्कूल को समुदायों में बदल दें, जहाँ पर विद्यार्थियों की वैयक्तिकता नष्ट न हो,
वरन् सामाजिक सम्पर्कों और सेवा के अवसरों में विकसित हो।”
अनुशासन―गाँधीजी हृदय और चरित्र की शुद्धता में विश्वास करते थे। इसलिए
अनुशासन उनके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था । वे उसे अत्यन्त मूल्यवान मानते थे । गाँधीजी स्वयं
अनुशासित जीवन व्यतीत करते थे, इसीलिए ये शिक्षा में अनुशासन को अनिवार्य मानते थे।
लेकिन ये दमनात्मक अनुशासन के विरोधी थे। दमन या शक्ति के द्वारा अनुशासन स्थापित
करने के पक्ष में नहीं थे। ये मुक्तिवादी तथा प्रभावात्मक अनुशासन के पक्षधर थे। इस
सम्बन्ध में पोलक ने लिखा है कि, “मि. गाँधी के चरित्र पर विचार करते हुए यह बहुत
स्वाभाविक है कि वे शारीरिक दण्ड में केवल अविश्वास ही नहीं करते थे, वरन् इन्होंने बालकों
के साथ व्यवहार करने में उसे प्रयोग करने को मना भी किया है।”
प्रश्न 20. बिहार के गांवों के सन्दर्भ में विद्यालय कौन-सी महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभा सकते हैं?
उत्तर―बिहार के गाँवों के सन्दर्भ में विद्यालय व्यापक समुदाय के लिए और भी
महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। जैसे—विश्वविद्यालय अकादमिक और सामाजिक
मुद्दों पर समाज में नये विचार एवं बहस को जन्म देने में हिरावल भूमिका अदा कर सकते
है, उसी प्रकार गाँव में उच्च विद्यालय या संभवतः मध्य विद्यालय भी परिवर्तन के केंद्रक
बन सकते हैं। यह एक ओर अध्यापकों की गुणवता और उनके सामाजिक सरोकार की
गहनता पर तथा दूसरी ओर समुदाय के साथ विद्यालय के संपर्क पर निर्भर करेगा। शायद
गाँव में स्वच्छता अभियान शुरू करने की सर्वाधिक उपयुक्त जगह विद्यालय ही है । विद्यालय
सरकार के बच्चों संबंधी अनेक पहलकदमियों के लिए सबसे उपयुक्त नोडल एजेंसी बन
सकते हैं।
★★★

