S-1

समकालीन भारतीय समाज में शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi

समकालीन भारतीय समाज में शिक्षा | D.El.Ed Notes in Hindi

S-1                 समकालीन भारतीय समाज में शिक्षा
                         दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. “एकमात्र शिक्षा ही समाज में परिवर्तन ला सकती है आधुनिकीकरण के द्वारा” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
                                                अथवा,
आधुनिकीकरण क्या है? यह कहाँ तक भारतीय समाज में परिवर्तन लाने में सहायक है?
उत्तर― अर्थ एवं परिभाषा–पं. जवाहरलाल नेहरू का कथन है कि, “भारत पर
विदेशी आक्रमणों से सम्बद्ध लगातार काफी लम्बे समय तक चला है किन्तु इस संघर्ष के
साथ-साथ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी चलती रही जिसकी परिणति आक्रमणकारियों द्वारा
भारतीय बनने में हुई थी।” यह तथ्य भारतीय संस्कृति द्वारा विदेशी उत्त्वों को अपने में
आत्मसात करने की प्रक्रिया के रूप में आधुनिकीरण का व्यापक स्वरूप है। जो बलराज
मधोक के शब्दों में, “समुचित सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की भावना के विकास की
ही दूसरा नाम है आधुनिकीकरण।” प्रो० रवीन्द्र अग्निहोत्री के अनुसार, “वस्तुतः राष्ट्रीय
भावना पुनर्जीवित करने का ही दूसरा नाम आधुनिकीकरण है- शिक्षा के आधुनिकीकरण का
अर्थ यह स्वीकार किया जा सकता है कि शिक्षा को भारतीय संस्कृति के अनुरूप इस प्रकार
नियोजित किया जाये कि वह हमारी आजको आवश्यकताओं को अधिकतम सीमा तक पूरा
करे।”
        सामाजिक परिवर्तन और आधुनिकीकरण को उपरोस संकल्ला सामाजिक परिवर्तन
की दिशा प्रदर्शित करती है। आज भारतीय समाज में आधुनिकीकरण के आधार पर परिवर्तन
अपेक्षित है जो राष्ट्रीय आशाओं व जो राष्ट्रीय आशाओं व आकांक्षाओं की पुर्ति कर सकें।
      कोठारी शिक्षा आयोग ने भारतीय समाज के भाजी परिवर्तन के संदर्भ में आधुनिकीकरण
के सामंजस्य पर बल देते हुए कहा है कि “आधुनिकीकरण का यह अर्थ नहीं है― कम से
कम हमारी राष्ट्रीय स्थिति में―कि आवश्यक नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों तथ्यों
आत्मानुशासन की भावना उत्पन ही नहीं की जाए या उसकी महता को स्वीकार करने से
इन्कार किया जाये। यदि आधुनिकीकरण को एक जीवन-शक्ति होना है तो उसे आत्मा की
शक्ति से अपनी शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। विज्ञान से काम लेना सीखना चाहिए किन्तु
उसे यह सीखना जरूरी है कि विज्ञान उस पर हावी न हो।… इस समय आवश्यकता इस
बात की है कि शाति और स्वतंत्रता, सत्य और करुणा के महान आदर्शों के लिए जीवित
रहने के रूप में हमारा नया अभियान और गहरी आस्था अभिव्यक्त हो।”
          इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन के सम्प्रत्यय में आधुनिकीकरण के सामंजस्य का विशेष
महत्त्व है क्यों के सामाजिक परिवर्तन की यही संकल्पना शिक्षा द्वारा विकसित होकर
समाज की संरचना में सहायक हो सकती है।
            शिक्षा, आधुनिकीकरण और भारत–आधुनिकीकरण के उपरोक्त विवेचन में शिक्षा की
आधुनिकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया गया है। आधुनिकीकरण के
सम्प्रत्यय के विभिन्न अंगों के सन्दर्भ में इस तथ्य को रेखांकित किया है। कोठारी शिक्षा
आयोग ने भारतीय समाज में शिक्षा द्वारा परिवर्तन लाने हेतु आधुनिकीकरण पर विशेष बल
दिया है। आयोग ने कहा है कि, “यदि बिना किसी हिंसात्मक क्रांति के ‘बड़े पैमान पर यह
परितर्वन’ करना है केवल एक ही साधन है जिसका प्रयोग किया जा सकता है और वह
‘शिक्षा में एक क्रांति की आवश्यकता है जिसके परिणामस्वरूप हमारे द्वारा अत्यन्त वांछित
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्रांति होगी।”
प्रश्न 2. ‘शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक शक्तिशाली साधन है।’ विस्तृत विवेचना कीजिए।
उत्तर― शिक्षा का सामाजिक परिवर्तन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि शिक्षा के फलस्वरूप आविष्कार और खोजें होती है।, जिनके परिणामस्वरूप समाज में परिवर्तन आता है। शिक्षा के कार्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। इसके द्वारा सामाजिक परिवर्तन जिस रूप में होता है, वह निम्नलिखित है:
1. नवीन विचारों का प्रचार― शिक्षा द्वारा ऐसे विचारों का प्रचार होता है, जो सामाजिक परिवर्तन के लिए वातावरण बनाने में सहायक होते हैं। सती-दाह, बाल-विवाह, कन्या-बध, अस्पृश्यता-निवारण जैसी सामाजिक कुप्रथाओं पर रोक शिक्षा द्वारा हुए भारतीय
समाज में परिवर्तन और जागरण द्वारा सम्भव हो सकी । इसी प्रकार विज्ञान की शिक्षा के
कारण परम्परागत मूल्यों और धारणाओं में परिवर्तन हो गया है।
2. शाश्वत मूल्यों को स्थायी करना—प्रत्येक समाज के कुछ शाश्वत मूल्य होते हैं,
जिनके बल पर आधुनिक समाज प्रेरणा प्राप्त करता है। शिक्षा द्वारा हम अपनी सांस्कृतिक
और सामाजिक सम्पत्ति की रक्षा कर सकते हैं और आधुनिक युग की विध्वंसक मनोवृत्तियों
से बचा सकते है।
3. परिवर्तन ग्रहण करने में सहायता देना―जनता में एक स्वाभाविक गुण अथवा दुर्गुण यह होता है कि वह पुरानी परम्पराओं और रुढ़ियों को एकदम त्यागने में हिचकती है और नई व्यवस्था को चाहे वह कितनी ही अच्छे हो, ग्रहण करने में झिझकती है। प्रत्येक परिवर्तन का प्रारम्भ में जनता विरोध करता है। अत: शिक्षा का कर्तव्य है कि वह उन साधनों
को ज्ञान दे, जिनसे इस आवश्यकता की पूर्ति हो। नये परिवर्तन को समाज में ग्रहण कराने
हेतु शिक्षा व्यक्तियों को मानसिक रूप से तैयार करती है। शिक्षा के द्वारा ही समाज के
नये-नये विचारों, धारणाओं, कृषि एवं उत्यान की नयी विधियाँ, रहन-सहल के तौर-तरीकों
को स्वीकार किया है।
            4. ज्ञान के क्षेत्रों का विकास― नये-नये आविष्कारों और अनुसंधानों का ज्ञान शिक्षा
द्वारा प्रभावित होता है, क्योंकि इन आविष्कारों और अन्वेषणों के फलस्वरूप परिवर्तन आते
हैं, जिससे व्यक्ति और समाज प्रभावित होते हैं । इस क्षेत्र में शिक्षा के दो स्पष्ट कार्य होते
हैं― प्रथम अपनी संस्कृति की भौतिक और अभौतिक वस्तुओं की रक्षा अथवा पुरानी संस्कृति
की रक्षा तथा द्वितीय, नये-नये आविष्कारों को प्रोत्साहन देना, जिससे नये-नये तथ्यों की खोज
हो और सत्य प्रकाश में आयें जो मनुष्य की प्रगति को और अधिक बल प्रदान करें।
5. सामाजिक परिवर्तनों की दिशा निर्धारित करना―शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक
परिवर्तनों को, जो स्वत: बिना किसी लक्ष्य के सामने आ जाते हैं, एक वांछित दिशा प्रदान
कर लोगों को उन परिवर्तनों के लिए शिक्षित करना है। इस प्रकार शिक्षा स्वतः आये हुए
परिवर्तनों के प्रति दो प्रकार के कार्य करती है-प्रथम, जनता में शिक्षा द्वारा एक चेतना
उत्पन्न करना, जिससे वह स्वतः हुए परिवर्तनों को वांछित दिशा दे । द्वितीय, ऐसे व्यक्तियों
को उत्पन्न करना जो जनता की गति पहचान सकें और समझों कि कौन परिवर्तन समाज
के हित में है और उन्हें किस प्रकार लाया जाये।
6. परिवर्तन के विरोध का निवारण― समाज में जहाँ कुछ कारक ऐसे होते हैं जो
सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्रिय होते हैं, वहाँ कुछ कारक ऐसे भी होते हैं जो परिवर्तन
में बाधक होते हैं। शिक्षा परिवर्तनों को स्पष्ट करने एवं उनका प्रसार करके उनके विरोधी
कारकों को दूर करती है।
7. संस्कृति को नयी पीढ़ी तक पहुँचना― सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से शिक्षा का
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षा द्वारा जाति की संस्कृति को नयी पीढ़ी तक पहुंचना है। यह
सांस्कृति स्थानान्तरण की क्रिया समाज को स्थायित्व प्रदान करती है। दूसरे शब्दों में, शिक्षा
समाज में स्थायित्व एवं निरन्तरता लाती है।
प्रश्न 3. सतत एवं व्यापक मूल्यांकन की योजना आपके विज्ञापन में, कब लागू हुई? यह पहले की परीक्षा प्रणाली से किस प्रकार भिन है ? चर्चा करें।
उत्तर― पारंपरिक परीक्षा पद्धति― बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से परम्परागत परीक्षा प्रणाली की कटु आलोचना की जा रही है, यद्यपि इससे कुछ शिक्षा-सुधारकों द्वारा प्रचलित पद्धति की आलोचना की गई थी परन्तु अब इसकी आलोचना सामान्य जनता की बातचीत का विषय बन गया। मुख्यत: आलोचना का विषय बाहा परीक्षाएं हैं। परन्तु आन्तरिक परीक्षाएँ भी इस आलोचना से नहीं बच पाती, क्योंकि वे परीक्षाओं के नमूने पर की आधारित है।
डॉ० जाकिर हुसैन का मत है, “हमारे देश की प्रचलित-प्रणाली शिक्षा के लिए अभिशाप सिद्ध हुई है। परीक्षाओं को उनकी उपयोगिता से अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करके हमारी दूषित शिक्षा-पद्धति को अधिक निम्नतर बना दिया गया है। विश्वविद्यालय आयोग के अनुसार, वर्तमान परीक्षा-प्रणाली भारतीय शिक्षा का सबसे अनुपयुक्त लक्षण है।
वर्तमान परीक्षा-प्रणाली में विभिन्न दोष पाये जाते है। उनमें से प्रमुख निम्नलिखित है―
1.विद्यालय-कार्य पर हानिकारक प्रभाव-परीक्षा― प्रणाली ने विद्यालय के शिक्षण कार्य को ही नहीं, वरन् पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि आदि सभी को अधिकृत की रखा है माध्यमिक शिक्षा आयोग का मत है कि परीक्षाएँ विद्यालय जीवन के सम्पूर्ण वातावरण में इस प्रकार परिव्याप्त हो गई है कि वे, बालक तथा शिक्षक-दोनों के समस्त प्रयास के लिए प्रेरणा प्रदान करने वाली मुख्य शक्ति बन गई है…आज परीक्षाएँ पाठ्यक्रम का अनुगमन करने के बजाए उसको अधिकृत करती है, इनके द्वारा प्रयोग का प्रतिकार किया जाता है और विषयों के उपयुक्त प्रस्तुतीकरण तथा उपयुक्त शिक्षण-विधियों को अवरूद्ध किया जाता है। मौलिकता के स्थान पर व्यर्थ की एकरूपता का प्रसार करती है, औसत वृद्धि वाले बालक को ज्ञान के संकुचित क्षेत्र पर दृढ़तापूर्वक एकाग्र होने के लिए प्रात्साहन देती हैं, तथा शिक्षा में अशुद्ध मूल्यों को विकसित करने के लिए बालक को सहायता प्रदान करती हैं।
2. बालकों पर हानिकारक प्रभाव― परीक्षाएँ बालकों के नैतिक स्तर को भी निम्न बनाने के लिए बहुत उत्तरदायी हैं । आज बालक परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए पढ़ते हैं और शिक्षक भी परीक्षा उत्तीर्ण कराने के ध्येय से पढ़ाते हैं। अतः परीक्षा उत्तीर्ण करना तथा उत्तीर्ण कराना साध्य बन गया है, जिसके परिणाम हानिकारक सिद्ध हुए हैं। छात्र उत्तीर्ण करने के लिए नकल करने तथा अन्य अनुपयुक्त साधन प्रयोग में लाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इन परीक्षाओं ने बालकों के नैतिक स्तर के निम्न बनाने में ही सहयोग नहीं दिया है, वरन् इनका हानिकारक प्रभाव उनके स्वास्थ्य, मानसिक तथा संवेगात्मक विकास पर भी पड़ता है परीक्षा के दिनों में छात्र खाना-पीना, घूमना, खेलना आदि सभी कुछ छोड़ देते हैं । उनके मस्तिष्क में सदा परीक्षा का भूत सवार रहता है । इसका उनके शारीरिक एवं मानसिक-दोन प्रकार के स्वास्थ्य पर बुरा पड़ता है । परीक्षा उनके मानसिक विकास को भी अवरूद्ध करत हैं। वे परीक्षा के दृष्टिकोण से मुख्य प्रश्नों के उत्तरों को रटते है।
3. शिक्षकों पर बुरा प्रभाव-बालक ही परीक्षा― पद्धति से प्रभावित नहीं है, वरन् इनका शिक्षकों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। शिक्षकों के रूप में उसकी सफलत परीक्षाओं में उसके छात्रों के परिणामों द्वारा मापी जाती है । बहुधा लोगों को यह कहते सुन जाता है कि अमुक शिक्षक अच्छा है, क्योंकि उसके द्वारा पढ़ाए गए बालकों का परिणा  उच्च रहता है, यहाँ तक कि प्रधानाचार्य शिक्षकों के विषय में अपनी सम्पत्ति देते समय उन परीक्षा परिणामों को ध्यान में रखता है तथा उनको वार्षिक वृद्धि का मिलना या न मिला इन्हीं परीक्षा-परिणामों के ऊपर निर्भर रहता है। इस स्थिति में शिक्षकों को अनैतिक बना में पर्याप्त मात्रा में सहयोग दिया है।
4.अभिभावकों पर प्रभाव― अभिभावकगण भी परीक्षा-पद्धति द्वारा प्रभावित होते हैं, क्योंकि व्यवसाय तथा परीक्षा पास करने में घनिष्ट संबंध है। इस कारण साधारणतया अभिभावकगण केवल इसी बात में रुचि रखते हैं कि उनके बालक परीक्षा उर्तीर्ण कर लें। वे उन पाठ्यक्रम-सहभागी क्रियाओं तथा अन्य शैक्षिक क्रियाओं में कोई रुचि नहीं रखते जो कि बालकों को परीक्षा में अच्छे अंक लाने में प्रत्यक्ष रूप से सहायता नहीं देती है। अत: अभिभावकों के लिए अच्छी शिक्षा का एक मात्र मापदण्ड-परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना ही है।
5. अवैध― वर्तमान परीक्षाएँ वैध नहीं है, क्योंकि इनके द्वारा उन शक्ति या योग्यता का मापन नहीं होता, जिसको परीक्षा लेने वाला मापक करना चाहता है, इन परीक्षाओं द्वारा केवल रटने की शक्ति को प्रोत्साहन मिलता है। इनके द्वारा उनकी समझदारी, बुद्धि, रुचियों, प्रवृत्तियों, कुशलताओं आदि को नहीं, मापा जाता, वरन् उनकी लेखन-शक्ति, भाषा आदि को जाँचा जाता है, जबकि परीक्षाओं का मुख्य उद्देश्य समझदारी, बुद्धि आदि को मापना होना चाहिए।
6. अविश्वसननीयता-विश्वसनीयता का तात्पर्य यह है कि परीक्षा द्वारा प्राप्त होने वाला परिणाम प्रायः संगत होता है। वर्तमान परीक्षाओं में इसका अभाव पाया जाता है। ये परीक्षाएँ इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती क्योंकि इन परीक्षाओं में बालकों द्वारा प्राप्त किए जाने वाले अंक प्रायः एक से नहीं रहते वरन् इनमे अधिक विचलन पाया जाता है ।
7.अंकन में विविधता-वर्तमान परीक्षा प्रणाली का एक मुख्य दोष यह है कि इसके अंकन में बहुत विविधता पाई जाती है । इस सम्बन्ध में विभिन्न परीक्षण हुए, उदाहरणार्थ―
स्टार्च महोदय ने बताया कि ज्यामिति की कापियाँ 144 अनुभवी शिक्षकों द्वारा जाँची गई।
इनमें से ढेरों ने 100 में से 90 से अधिक अंक दिये, 18 ने 80 या इससे अधिक अंक दिये,
74 परीक्षकों ने 60 से 80 के अन्दर अंक प्रदान किये । कुछ ने 20 से 60 से कम अंक दिये
तथा परीक्षक ने 10 से भी कम अंक प्रदान किये।
        सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की उपयोगिता― सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का मूल है । यह मूल्यांकन जितना बच्चों को सिखाने में कारगर है, उतना ही शिक्षकों को अपने शिक्षण प्रक्रिया को समझने एवं परखने का मौका देता है। साथ-ही-साथ शिक्षकों को सिखाने की नई पद्धति एवं प्रक्रिया अपनाने के लिए प्रेरित करता है। सतत् व्यापक मूल्यांकन के लिए आवश्यक है कि सतत एवं व्यापक शिक्षण सुनिश्चित करें। इसके लिए यह आवश्यक होगा कि हम शिक्षण की विधियों को बच्चों की आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित करें तथा उनमें आवश्यक बदलाव करते रहें । अतएव हमें शिक्षण की शुरूआत बच्चों के अनुभवों से करनी होगी। बच्चों के अपने ही अनुभव पर किए गए चिंतन द्वारा ।
     सतत् मूल्यांकन की विशेषताएँ― सतत् मूल्यांकन से निम्नलिखित लाभों की आशा
की जा सकती है:
1. सतत् मूल्यांकन में छात्र निरन्तर अध्ययनशील रहेंगे। रटने के स्थान पर समझने का
प्रयास करेंगे।
2. सतत् मूल्यांकन में शिक्षक अपने कार्यों की शैक्षिक उपलब्धियों का सही ढंग से
मूल्यांकन करेंगे । वे उनकी प्रगति के बारे मे जान सकेंगे और उनका मार्गदर्शन कर सकेंगे।
3. सतत् मूल्यांकन में चान्स फैक्टर समाप्त हो जाएगा। इसमें वे ही छात्र अच्छा अंक
प्राप्त करेंगे जो योग्य होंगे।
प्रश्न 4. शिक्षा, विद्यालय तथा समुदाय से हमारी कौन-कौन सी अपेक्षाएँ हैं ?
                                               अथवा,
शिक्षा, विद्यालय तथा समुदाय एक दूसरे से क्या-क्या अपेक्षाएँ रखते हैं ?
                                                अथवा,
शिक्षा, विद्यालय तथा समुदाय के कौन-कौन से कार्य अथवा उद्देश्य हैं।
उत्तर―शिक्षा से हमारी सामान्य अपेक्षाएँ निम्नलिखित हैं―
(क) जन्मजात शक्तियों का प्रगतिशील विकास―मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रत्येक
बालक में प्रेम, जिज्ञासा, कल्पना तर्क तथा आत्मसम्मान आदि जन्मजात शक्तियाँ होती है।
लगभग सभी शिक्षा शास्त्रियों का मत है की बालक की इन सभी जन्मजात शक्तियों को
विकसित करना शिक्षा का प्रथम कार्य है।
(ख) व्यक्ति सर्वांगीण विकास― शिक्षा का दूसरी अपेक्षा व्यक्ति का सम्पूर्ण तथा सर्वांगीण विकास करना है। जिससे बालक को ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाये तथा वह एक सफल नागरिक के रूप में सत्यम, शिवम् एवं सुन्दरम का अनुभव करके आत्म-साक्षात्कार कर सके । व्यक्ति के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा आध्यात्मिक आदि सभी पहलू सम्मिलित है। यदि इनमें से किसी एक पहलू का भी विकास न किया गया तो बालक अपने भावी जीवन के अनेक क्षेत्रों में भटकता फिरेगा।
(ग) मूल-प्रवृतियों का नियंत्रण― शिक्षा से तीसरी अपेक्षा यह है कि वह बालक को उसकी मूल-प्रवृतियों पर नियंत्रण रखना, उसके मार्ग को उचित दिशा में शोधन करके उच्च कोटि के कार्य में लगाना सिखाये जिससे व्यक्ति तथा समाज दोनों निरंतर विकसित होते रहें।
(घ) चरित्र-निर्माण तथा नैतिक विकास―शिक्षा से चौथी अपेक्षा बालक के चरित्र का निर्माण तथा नैतिक विकास करना है। वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य के चरित्र-निर्माण का आधार उसकी मूल-प्रवृतियों की होती है । यह मूल-प्रवृतियां जन्म से न अच्छी होती है और न बुरी । इनकी अच्छाई अथवा बुराई इनके शोधन पर निर्भर करती है। यदि बालक की मूल-प्रवृतियों को अनियंत्रित स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई तो वह अन्य पशुओं कई भांति
बर्बरतापूर्ण व्यवहार करने लगेगा । इसके विपरीत यदि उसकी मूल-प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते
हुए उचित दिशा में मोड़ दिया जाये तो बालक का व्यवहार स्वयं उसके तथा समाज के अन्य
सभी व्यक्तियों के लिए प्रशंसनीय एवं लाभपद होगा। यदि बालक को चरित्रवान बनता है।
(3) प्रौढ़ जीवन के लिए तैयारी― शिक्षा से पांचवीं अपेक्षा यह है कि वह बालक को प्रौढ़ जीवन के लिए तैयार करे । दूसरे शब्दों में शिक्षा बालक के अंदर ऐसी क्षमता तथा योग्यता पैदा करे कि वह भावी जीवन में प्रौढ़ नागरिक बनकर अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों का पालन करते हुए पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक हर प्रकार की समस्या को सुलझाकर सफल जीवन व्यतीत कर सके।
(च) सामाजिक भावना का विकास― स्कूल के सामाजिक वातावरण में रहते हुए बालक नए-नए प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में भाग लेता है जिससे उसमें सामाजिक भावना की जागृति के साथ-साथ प्रेम, दया, सहनशीलता, सहानुभूति, सहयोग तथा परोपकार आदि ऐसे अनेक सामाजिक गुण सहज में ही विकसित हो जाते हैं जिनसे सुसज्जित होकर वह अपने भावी जीवन में समाज हित के कार्यों को करते हुए समाज की भलाई को ही अपनी भलाई समझने लगता है।
(छ) उत्तम नागरिकों का निर्माण― किसी भी नागरिक को उत्तम नागरिक उसी समय कहा जा सकता है जब उसमें सत्यता, देश-भक्ति, ईमानदारी, कर्तव्य परायणता तथा नेतृत्व आदि गुणों पाये जाते हों। इन गुणों के केवल शिक्षा के द्वारा ही विकसित किया जा सकता है। अत: शिक्षा से सातवीं अपेक्षा है कि वह बालकों में उत्तम गुण का विकास करे, इत्यादि ।
विद्यालय से सामान्य अपेक्षाएँ निम्नलिखित हैं―
(क) सामाजिक वातावरण का निर्माण-जिसमें एक सुरक्षित और देखभाल करने वाला वातावरण शामिल है जहाँ सभी विद्यार्थी आत्रित और महत्वपूर्ण महसूस करें और अपने विद्यालय के प्रति अपनापन महसूस करें इससे विद्यार्थियों को उनके नैतिक विकास में मदद मिलती है।
(ख) बौद्धिक वातावरण प्रदान करना― जिसमें हर कक्षा के सभी विद्यार्थियों को उनका सर्वोत्तम कार्यप्रदर्शन करने और गुणवत्तापूर्ण काम करने के लिए सहयोग और चुनौती दी जाती है इसमें एक समृद्ध, कड़ी और जुड़कर करने वाली पाठ्यचर्या और इसे पढ़ाने के लिए योग्य व शक्तिशाली अध्यापक समूह शामिल है। विद्यालय विद्यार्थियों के लिए सीखने के ऐसे लक्ष्य निश्चित करे जो उनकी निजी जरूरतों को प्रतिबिंबित करते हैं और उन्हें उपयुक्त ढंग से चुनौती देते हैं।
(ग) नियम और नीतियाँ― जो विद्यालय के सभी सदस्यों को सीखने और व्यवहार के उच्च मानकों के लिए उत्तरदायी ठहराती हैं। परम्पराएँ और दिनचर्याएँ उन साझा मूल्यों से निर्मित जो विद्यालय के शैक्षणिक और सामाजिक मानकों का सम्मान और उन्हें सुदृढ़
करती हैं। साथ ही विद्यार्थियों के साथ संयुक्त रूप से व्यवहार नीति विकसित करे और उसे
सभी कक्षाओं में प्रदर्शित करे ।
(घ) संरचनाएँ― स्टाफ और विद्यार्थियों को समस्याओं का समाधान करने और विद्यालय के वातावरण और उनके सामान्य जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णय लेने में और उसके लिए साझा उत्तरदायित्व प्रदान करने के लिए उनसे उचित संरचनाएँ प्रदान करने की अपेक्षा है।
(ङ) विद्यार्थियों के सीखने और चरित्र के विकास में सहायता करना― इसके लिए विद्यालय माता-पिता के साथ प्रभावी ढंग से काम करने के तरीके विकसित करे, संबंधों और व्यवहार के लिए नियम जो उत्कृष्टता और नैतिक परिपाटी की व्यावसायिक संस्कृति की रचना करते हैं, का विकास हो, इसकी अपेक्षा है। एक विद्यालय से यह भी अपेक्षा है कि वह सभी विद्यार्थियों की घर की भाषा को महत्व दे और उसका सम्मान करे, इत्यादि ।
समुदाय से हमारी सामान्य अपेक्षाएँ निम्नलिखित हैं―
(क) स्कूलों की स्थापना― समुदाय से अपेक्षा है कि वह विभिन्न प्रकार के स्कूलों का निर्माण करे जिससे समुदाय की संस्कृति सुरक्षित रह सके, विकसित हो सके तथा उसे भावी पीढ़ी के बालकों तथा बालिकाओं को हस्तांतरित की जा सके।
(ख) शिक्षा के उद्देश्य का निर्माण तथा शिक्षा पर नियंत्रण― समुदाय शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण करता है तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए विभिन्न स्कूलों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा वह नियंत्रण रखे, यह भी उससे अपेक्षा है।
(ग) सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था समुदाय शिक्षा के विभिन्न स्तरों को सुनिश्चित करे तथा सार्वभौमिक शिक्षा की व्यवस्था करे।
(घ) पाठ्यक्रम का निर्माण शैक्षिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पाठ्यक्रम की आवश्यकता होती है। अतः समुदाय आधारभूत पाठ्यक्रम तथा शिक्षा संगठन की रूपरेखा भी तैयार करने में सहयोग करे ।
(ङ) व्यवसायिक तथा औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था― वर्तमान युग में व्यवसायिक एवं औद्योगिक शिक्षा परम आवश्यक है। अतः समुदाय विभिन्न प्रकार के व्यवसायिक, औद्योगिक तथा तकनीकी स्कूलों के निर्माण में भी सहयोग करे ।
(च) प्रौढ़ शिक्षा― समुदाय की उन्नति के लिए बालक तथा बालिकाओं की शिक्षा तो आवश्यक है ही, परंतु इससे भी अधिक उन प्रौढ़ को शिक्षा की आवश्यकता है जिनके कन्धे पर समुदाय की विभिन्न आवश्यकताओं तथा समस्याओं को सुलझाने का भार है । अतः समुदाय प्रौढ़ एवं विकलांगता शिक्षा का भी उचित प्रबंध करे, यह उससे अपेक्षा है।
(छ) स्कूलों के लिए धन की व्यवस्था― शैक्षिक संस्थाओं को सुचारू रूप से चलने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। अत: समुदाय इन संस्थाओं के भवन निर्माण, फर्नीचर, तथा शिक्षकों के वेतन आदि विभिन्न बातों के लिए अधिक से अधिक धन की व्यवस्था करे।
(ज) नागरिकों तथा स्कूल के नेताओं में सहयोग― स्कूलों की प्रगति के लिए नागरिकों तथा स्कूल के नेताओं में सहयोग होना परम आवश्यक है। अत: समुदाय शिक्षा के विकास हेतु केवल आर्थिक सहायता देकर स्कूलों पर नियंत्रण ही नहीं रखता अपितु नागरिकों तथा स्कूल के नेताओं में सहयोग भी स्थापित करने की उससे अपेक्षा है, इत्यादि ।
प्रश्न 5. शिक्षा और ‘माध्यम’ भाषा पर अपने विचार प्रस्तुत करें।
                                             अथवा,
“आज बदलते समय के साथ जहाँ शिक्षा के माध्यम’ भाषा के तौर पर अंग्रेजी की तरफ समाज के झुकाव को देखा जा सकता है, वहीं भारतीय भाषाओं के विस्तार एवं प्रतिष्ठा का भी सवाल उठ रहा है।” इन सब अपेक्षाओं का प्रभाव विद्यालय परिवेश की प्रक्रियाओं पर किस प्रकार पड़ा है तथा उसका समाधान क्या है ? उसकी पड़ताल करें।
उत्तर― स्वामीनाथन अय्यर की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के सीखने के लिए सर्वाधिक
सरल भाषा वही है जो वे घर में बोली जाने वाली भाषा सुनते हैं । यही उनकी मातृभाषा है।
भारत में हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुग, कन्नड़ आदि सभी भारतीय भाषाएँ
मातृभाषाएँ ही हैं। विभिन्न विषयों के शिक्षण के लिए जिस भाषा का प्रयोग होता है, वह
शिक्षा का माध्यम कहलाती है। शिक्षा का माध्यम अपनी मातृभाषा भी हो सकती है और
दूसरी भाषा भी । इसलिए भाषा किसी-न-किसी उद्देश्य या प्रयोजन के संदर्भ में सीखी अथवा
सिखाई जाती है, लेकिन मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का मुख्य उद्देश्य अपने समान
और देश में संप्रेषण प्रक्रिया को सुदृढ़ व्यापक और सशक्त बनाना होता है। इसी के आधार
पर व्यक्ति अपने समाज और संस्कृति के साथ जुड़ा रहता है, क्योंकि वह उसकी संस्कृति
और संस्कारों की संवाहक होती है। यह पालने की भाषा होती है जिससे व्यक्ति का
समाजीकरण होता है
       भारत में मातृभाषा को विषय के रूप में अधिकतर पढ़ाया जाता है किंतु इसके लगभग
सभी राज्यों में, एकाध छोड़ कर, माध्यम की भाषा के रूप में अपनी मातृभाषा का प्रयोग
नहीं हो रहा है। विदेशों में अंग्रेजी बच्चे को विदेशी भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है, लेकिन
शिक्षा के माध्यम के रूप में वहाँ अपनी भाषा का ही इस्तेमाल होता है। उनकी भाषा जीवंत
और सशक्त होती है। इससे वे नए ज्ञान-विज्ञान तथा साहित्य का सृजन करते हैं और इसी
कारण वहाँ सामान्य पुरस्कार से ले कर नोबल पुरस्कार विजेता तक के मनीषी जन्म लेते
है।
    भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमने न तो अपनी शिक्षा पद्धति पर गंभीरता से विचार
किया और न ही शिक्षा के माध्यम की ओर ध्यान दिया। सामाजिक-भाषिक दृष्टि से यदि
देखा जाए तो विकासशील देशों ने अंग्रेजी की भूमिका को या तो समझा नहीं है या जानबूझ
कर उसकी उपेक्षा को है। यत्र से विषय की प्रवीणता और कुशलता के विकास की जो
अपेक्षा की जाती है, जो के शिक्षा के माध्यम होने से उसका अभाव ही मिलता है। विषय
को न समझ पाने के कारण सत्र को या तो विषय को रटना पड़ता है या वह परीक्षा में नकल
मारता है और कभी-कभी उसे उपहास का पात्र भी बनना पड़ता है। अगर वह विषय को
ग्रहण भी कर लेता है, फिर भी उसको अंग्रेजी में अभिव्यक्ति नहीं कर पाता है। इस प्रकार
विदेशी भाषा अंग्रेजी के माध्यम से गणित, विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र आदि विषयों को
पड़ना-पहाना बहुत ही अनर्थकारी हो जाता है। ऐसी स्थिति में रटने से छात्र अपनी परीक्षा
तो उत्तीर्ण कर लेता है, लेकिन उसकी सृजनात्मक शक्ति, अकादमिक उत्कृष्टता और
मौलिकता को क्षति अवश्य हो जाती है।
           हमारे मस्तिष्क में यह बात बैठा दी गई है कि अंग्रेजी से ही हमारी प्रगति हो सकती
है। यह भ्रम फैलाया गया है कि उच्च स्तरीय नौकरी या रोजगार प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी
पढ़ना और अंग्रेजी में पड़ाना नितांत आवश्यक है, भारतीय भाषाओं के शिक्षण से कभी प्रगति
नहीं हो सकती।
          इसीलिए अपने बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों पढ़ाने के लिए माता-पिता और
अभिभावकों में होड़ लगी रहती है। यह स्वाभाविक है कि बच्चों की प्रगति हर माँ-बाप की
तमन्ना होती है और उसके अच्छे रोजगार के वे सपने देखते रहते है। अगर हमारी शिक्षा
प्रणाली में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी अथवा भारतीय भाषाओं को तरजीह दी जाए और उसे
रोजगार एवं उद्योग आदि क्षेत्रों से जोड़ दिया जाए तथा विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वाणिज्य,
अर्थशास्त्र, गणित आदि विषयों के माध्यम की भाषा बनाया जाए, तभी अंग्रेजी का यह भ्रम
और मोह दूर हो पाएगा। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘हरिजन’ पत्रिका के 9 जुलाई, 1938
के अंक में अंग्रेजो के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने के अपने कटु अनुभवों के बारे में बताते
हुए कहा है कि हमें और हमारे बच्चों को अपनी विरासत पर ही आगे बढ़ना होगा । अगर
हम दूसरों से लेंगे तो अपने-आप को शक्तिहीन बना देंगे । विदेशी खाद पर हम पनप नहीं
सकते । “मैं विदेशी भाषाओं के खजाने को अपनी भाषाओं के माध्यम से लेना चाहता हूँ।”
          भाषा की शक्ति उसके प्रयोग पर निर्भर रहती है। इस प्रक्रिया में शिक्षा ही सर्वाधिक
सहयोग दे सकती है। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाना होगा और भारतीय भाषाओं
के साथ न्याय करना होगा और उन्हें अपना हक देना होगा। लेकिन इसमें राजनैतिक
संकल्प-शक्ति और प्रशासनिक दायित्व एवं नियंत्रण को नितांत आवश्यकता है। तभी
मातृभाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थान मिल सकने की अपेक्षा की जा सकती
है। भारत बहुभाषी देश है। इसमें अंग्रेजी, फ्रेंच, फारसी, अरबी आदि विदेशी भाषाओं को
सीखने में कोई समस्या नहीं है, लेकिन हिन्दी और भारतीय भाषाओं को मार कर नहीं, उनको
पीछे धकेल कर नहीं और उन्हें दोयम दर्जे का बना कर नहीं।
प्रश्न 6. राष्ट्रीय विकास और शिक्षा में क्या संबंध है ? उल्लेख करें।
                                       अथवा,
राष्ट्र के विकास में शिक्षा की क्या भूमिका है ?
उत्तर―शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्व को विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि शिक्षा किसी भी राष्ट्र या समाज की प्राणवायु है, उसकी प्रेरणा है, उसकी ऊर्जा है और किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके द्वारा हासिल किए गए शैक्षिक स्तर पर ही निर्भर करता है। यदि सीधे तौर पर देखा जाए तो शिक्षा से सीधा मतलब ज्ञान और तथ्यों की समझ जागृत करना है। हम जानते हैं कि शिक्षा विकास का आधारमूलक सत्य है इसीलिए तो शिक्षाविहीन समाज से विकसित राष्ट्र की कल्पना करना किसी भी देश के लिए सम्भव नहीं है। शिक्षित समाज ही राष्ट्र विकास की अवधारणा को साकार करने में समर्थ है। हम इंसान जन्म से लेकर अपने अस्तित्व के धूमिल होने तक शिक्षारत रहते हैं, बस यही कुछ बदलाव है तो वह है “शिक्षा का स्वरूप” और यही से राष्ट्र के विकास में शिक्षा की भूमिका की शुरूआत होती है।
        सामान्यतः विकास का अभिप्राय आर्थिक तरक्की से है मगर समय के साथ-साथ विकास
के पैमाने बदलते रहे। उनके चर्चा का केंद्रबिंदु बदलता रहा । आर्थिक विकास से हरित
विकास और अब सतत विकास । एक तरफ महात्मा गाँधी है जिनके लिए विकास आर्थिक
तरक्की के साथ नैतिक मूल्य और धार्मिकता का मेल होता है। वहीं दूसरी तरफ अमर्त्यसेन
है जिनके लिए सच्चा विकास मनुष्य का अपनी अन्तर्निहित क्षमताओं को विकसित करने
की स्वतंत्रता है। खैर हम किसी भी तरह के विकास की बात कर ले, शिक्षा हमेशा उसका
महत्वपूर्ण अंग रहा है । मानव को अधिक परिपक्व, खुशहाल और समझदार बनाने में शिक्षा
हर युग में प्रभावी रही है। यह लोगों की उत्पादकता और रचनात्मकता को बढ़ाता है जिससे
एक क्रियाशील मानव संसाधन का निर्माण होता है जो देश को सर्वागीण विकास की ओर
अग्रसर करता है।
         एक आकलन के मुताबिक देश के औसत स्कूली शिक्षा में एक प्रतिशत तक की वृद्धि
आर्थिक वृद्धि को 6% से 15% तक बढ़ा सकती है। कोई भी राष्ट्र बिना मानवी पूँजी में
निवेश के निरंतर विकास नहीं कर सकता । मानव पूँजी को तैयार करने का सबसे प्रभावकारी
रसायन शिक्षा है। एक अनुमान के अनुसार 1948-49 से 1968-69 तक प्रति व्यक्ति
उत्पादकता बढ़ाने में शिक्षा का योगदान 14% के आस-पास था जो बाद के वर्षों में बढ़कर
35% हो गया। आज के समय में तो शिक्षा अर्थव्यवस्था को गति देने में मुख्य भूमिका में
है। शिक्षा ने महिलाओं की स्थिति में भी अभूतपूर्व परिवर्तन किया है।
जो व्यक्ति आज शिक्षा ग्रहण कर रहा है कल वो कार्यस्थल में प्रवेश करेगा, परसों
उसकी उपस्थित कॉपोरेट बोर्ड रूम में होगी, उसके बाद सत्ता गलियारे में । इस तरह शिक्षा
समावेशी विकास को भी बढ़ावा देती है बशर्ते शिक्षा सर्वसुलभ हो।
प्रश्न 7. शिक्षा के निजीकरण पर उदारवादी दृष्टिकोण तथा आलोचनात्मक विमर्श प्रस्तुत करें।
उत्तर― शिक्षा के निजीकरण पर उदारवादी दृष्टिकोण कहता है कि शिक्षा में गुणवत्ता के लिए निजीकरण आवश्यक है। निजी संस्थानों में योग्य फैकल्टी, अत्याधुनिक तकनीकी, अनुशासन, मूलभूत सुविधाएँ सरकारी संस्थानों से काफी बेहतर होती हैं। भारत जैसा विकासशील देश आर्थिक दबाव के कारण शिक्षा पर अधिक व्यय वहन नहीं कर सकता है। हमारा शिक्षा पर व्यय हमारे सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) का मात्र 2.8 प्रतिशत है जबकि विकसित देशों में सामान्यतः स्वीकृत मानदंड 6 प्रतिशत या उससे भी अधिक है। इसके फलस्वरूप शिक्षा यहाँ बड़े प्रचार से वंचित रही है और इसका उत्तर है―
शिक्षा का निजीकरण । आज देश में शिक्षा के स्तर को उठाने के लिए सरकार के सतत् प्रयासों
के फलस्वरूप हमारी लगभग दो-तिहाई आबादी शिक्षित तो हो गई है। लेकिन अभी भी भारत
को 21वीं शताब्दी में विश्व के सबसे अधिक अशिक्षित लोगों के देश की उपाधि दी जाती
है। सरकार तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को लेकर शिक्षा कार्यक्रमों को आगे बढ़ा पाने में
अपने को असहाय पाती है।
          कोषों की कमी एक गंभीर समस्या है। अतः शिक्षा, खासकर उच्च शिक्षा, के क्षेत्र में
निजी क्षेत्र की भागीदारी की जरूरत है। सरकारी विद्यालयों में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के
अधिकतम विद्यालयों में भवन और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त सुविधाओं का अभाव होता है
और कभी-कभी शिक्षक भी नहीं होते हैं। इन स्कूलों में बर्बादी और भ्रष्टाचार जोरों पर होता
है। वर्तमान शिक्षा नीति केवल यही सुनिश्चित करती है कि छात्र नियमित रूप से कक्षा में
जाते हैं या नहीं । नियमित उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने अनेक योजनाएँ
बनाई, जैसे—मध्याह्न भोजन की योजना और विद्यालयों में 7वीं तक के छात्रों को अनुतीर्ण
नहीं करना । इससे विद्यालय छोड़ने वालों की दर में कमी आई है । तथापि, शिक्षा की गुणवत्ता
में कमी आई है। निजी क्षेत्र इसमें संलग्न हो सकते हैं । विशिष्ट श्रेणी के पब्लिक स्कूलों
में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता खासकर ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों
से प्रमाणित हो गई है।
      दूसरी तरफ, शिक्षा के निजीकरण से अक्षमता, भ्रष्टाचार शिक्षक, उपकरण, प्रयोगशालाएँ
और पुस्तकालयों जैसे मानवीय संसाधनों के अपर्याप्त उपयोग की दूर किया जा सकता है
जो अब हमारी शिक्षा पद्धति के अनिवार्य अंग बन गए है।
      शिक्षा के निजीकरण का आलोचनात्मक विमर्श कहता है कि शिक्षा के निजीकरण का
नकारात्मक पहलू भी है। यह भविष्य में मुनाफे और निहित आर्थिक लाभों को लाती है।
श्रेष्ठ स्कूलों में अत्यधिक शुल्क लिया जाता है जो सामान्य भारतीय की सामर्थ्य से बाहर
है। ये समर्थ और असमर्थ लोगों के बीच एक खाई उत्पन्न करती है। शिक्षा के निजीकरण
ने समाज के उच्च वर्गों के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विषमता को बढ़ाने
का काम किया है। निजी क्षेत्र तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा उपलब्ध कराने में भी रुचि
लेता हुआ जान पड़ता है। इनमें से कुछ संस्थान विभिन्न मदों पर छात्रों से लाखों रुपए लेकर
भी उन्हें बुनियादी सुविधाएँ नहीं दे पाते है। यह शिक्षा के निजीकरण के मूल उद्देश्य को मात
देता है।
            वैसे भी यदि निजी क्षेत्र प्राथमिक/उच्च विद्यालय शिक्षा में संलग्न है तो उनमें से
अधिकांश संस्थानों में मुख्यतः सरकारी निधि या सहायता प्राप्त संस्थानों में अनुदान से प्राप्त
धन को अक्सर दूसरे नाम पर खर्च करके स्थिति को बदतर बना दिया जाता है।
           इस तरह के संस्थानों के शिक्षकों को शायद ही कभी पूरा वेतन दिया जाता है जबकि
उन्हें सरकारी वर्ग के समान पूर्ण रकम की प्राप्ति की रसीद देनी होती है और उनके कार्यकाल
की कोई गारंटी नहीं होती है । इसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को छोड़कर शेष
निजी स्कूलों के शिक्षकों को अनुबंध के आधार पर रुपए दिए जाते हैं।
प्रश्न 8. शिक्षा और शिक्षा के संवैधानिक प्रावधानों का वर्णन भारतीय संविधान के संदर्भ में करें।
उत्तर― भारतीय संविधान में शिक्षा को नागरिकों का मूल अधिकार माना गया है। भारतीय नागरिक अपने शिक्षा संबंधी मूल अधिकार का प्रयोग कर सके, इसके लिए संविधान
में निम्नांकित प्रावधान भी उल्लेखित किए गए हैं―
(क) शिक्षा समवर्ती सूची में―1976 के 42वें संविधान संशोधन में शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया गया था ताकि केंद्र और राज्य दोनों इस पर कानून बना सकें।
(ख) 0 से 6 वर्ष तक के शिशु की देखभाल व शिक्षा― 2001 के 93वें संविधान संशोधन में यह अनिवार्य रूप से जोड़ा गया (अनुच्छेद 45) कि 0-6 वर्ष तक के बच्चों के देखभाल, पोषण व पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था राज्य सरकार के द्वारा की जाएगी।
(ग) 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा― संविधान के अनुच्छेद 45 में यह घोषणा की गई है कि राज्य सरकार 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य रूप से शिक्षा की व्यवस्था करें (अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा अधिनियम 2009) । यह कानून बच्चों (नागरिकों) के मूल अधिकार में भी निहित है।
(घ) शिक्षा संस्थानों में प्रवेश का समान अधिकार― संविधान के अनुच्छेद 29(2) में यह स्पष्ट है कि राज्य केंद्र पोषित संस्थानों में धर्म, मूल, वंश अथवा जाति के आधार पर किसी भी प्रकार से किसी को प्रवेश लेने से वंचित नहीं किया जाएगा।
(ङ) स्त्री शिक्षा की विशेष व्यवस्था― अनुच्छेद 15(3) में यह व्यवस्था दी गई है कि राज्य सरकार स्त्रियों की शिक्षा का विकास करने हेतु कोई भी उपबंध बना सकती है।
(च) समाज के कमजोर वर्ग (sc-st) के बच्चों की शिक्षा की विशेष व्यवस्था―
सर्वप्रथम संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता का अंत किया गया तथा अनुच्छेद 46 में
यह व्यवस्था दी गई कि राज्य जनता के कमजोर वर्गों की शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितो की
विशेष सावधानी से उन्नति के लिए प्रयास करेगी तथा अन्यास और शोषण के विरुद्ध उसका
संरक्षण भी करेगी।
(छ) अल्पसंख्यकों की शिक्षा की विशेष व्यवस्था― अल्पसंख्यकों की शिक्षा व्यवस्था हेतु संविधान के अनुच्छेद 30 में कहा गया है कि धर्म या भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा संस्थानों की स्थापना व प्रशासन का अधिकार होगा।
(ज) धार्मिक शिक्षा के संदर्भ में स्पष्ट निर्देश― अनुच्छेद 28 में यह घोषणा की गई है कि राज्य/केंद्र निधि पोषित किसी भी संख्या में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी तथा अनुच्छेद 22 के तहत किसी भी बच्चे को किसी धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
(झ) राष्ट्रीय महत्व के उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्रों की व्यवस्था केंद्र द्वारा-संघ सूची की प्रविष्टि संख्या 62 से 65 तक राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र, पुस्तकालय संस्थान आदि की स्थापना व संचालन संबंधी पूर्ण निर्देशन उल्लिखित हैं।
(ट) राष्ट्रीय महत्व की भाषाओं की शिक्षा-संविधान के अनुच्छेद 344 (1) में 22 भाषाओं को सूचीबद्ध कर के राष्ट्रीय महत्व का दर्जा दिया गया है।
प्रश्न 9. शिक्षा पर आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण तथा सामाजिक परिवर्तन का
प्रभाव कैसे पड़ता है ? इनके द्वारा शिक्षा का प्रसार (अथवा प्रगति) कैसे होती है?
उत्तर—(क) आधुनिकीकरण और शिक्षा शिक्षा और आधुनिकीकरण के मध्य निकट का सम्बन्ध है। आधुनिकीकरण परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। शिक्षा के सन्दर्भ में प्रो. सिंह का मत है कि आधुनिक शिक्षा विश्व दृष्टिकोण पर केन्द्रित है जो आधुनिक समाज के लक्ष्यों को स्वीकारने के लिए आवश्यक बौद्धिक योग्यता प्रदान करती है। आधुनिकीकरण को तीन क्षेत्रों में विश्लेषित किया जा सकता है। प्रथम-शिक्षा के सांस्कृतिक तत्वों में, द्वितीय-इसकी संगठनात्मक संरचना में और अंतिम वृद्धि की दर में । एस. सी. दुबे (1988) के अनुसार शिक्षा आधुनिकीकरण का एक सशक्त माध्यम है क्योंकि शिक्षा ज्ञान की वृद्धि करती है एवं मूल्यों एवं धारणाओं में परिवर्तन लाती है जो आधुनिकीकरण के उद्देश्य तक पहुँचने के लिए आवश्यक है।
       आधुनिकीकरण के मूल्यों को प्रसारित करते हुए शिक्षा के उपयोग पर बल देने की बात
सतर के दशक के बाद समझी जाने लगी। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा उसके
साथ-साथ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तीव्रतर होती जाएगी और विकास योजनाओं में जनता
की भागीदारी बढ़ेगी। महिला साक्षरता के प्रतिशत के बढ़ने से भी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया
तीव्र हुई है। शिक्षा और संचार को तोध गति से विकास के परिणामस्वरूप गाँवों में भौतिक
और सांस्कृतिक परिवर्तन हो नहीं हो रहे वरन् नवीन मूल्य सम्बन्ध व आकाक्षाएँ भी विकसित
हो रहे हैं। अतः स्पष्ट है कि शिक्षा और आधुनिकीकरण में साध्य और साधन का सम्बन्ध है। शिक्षा आधुनिकीकरण का एक सशक्त माध्यम है जो आधुनिकीकरण के उद्देश्यों तक पहुँचने के लिए आवश्यक है।
(ख) वैश्वीकरण और शिक्षा― वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने समाज के सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र शिक्षा को गहरे से प्रभावित किया है। वैश्वीकरण वर्तमान समय में व्यापारिक माहौल को एक ऐसी अवधारणा है जो पूरे विश्व को एक मंडल अथवा केंद्र बनाने की ओर अग्रसर है। वैश्वीकरण मूलतः आर्थिक प्रक्रिया है, क्योंकि वर्तमान समय में बाजार की नीतियों सभी स्थानों पर लागू होती है चाहे वह शिक्षा ही क्यों ना हो । अतः वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने शिक्षा को सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पक्षों में प्रभावित किया है।
          साक्षरता में वृद्धि, शिक्षा में सूचना प्रौद्योगिकी व संचार तकनीकी के नवीनतम साधनों
के सर्वसुलभता, रोजगार अवसरों का सृजन, शिक्षा से उत्पादकता में वृद्धि, ज्ञान व तकनीकी
का अप्रतिबंधित वैश्विक आदान-प्रदान, संस्कृतिकरण, वैश्विक शिक्षा की अवधारणा को मूर्त
रूप प्रदान करना आदि के द्वारा वैश्वीकरण के शिक्षा पर सकारात्मक प्रभावों को इंगित किया
जा सकता है। वहीं इसके नकारात्मक प्रभावों में शिक्षा को आर्थिक दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति
का बढ़ना है। वर्तमान में शिक्षा एक बाजार की वस्तु बन गई है जिसे उत्पादकता से जोड़
कर देखा जा जाने लगा है। शिक्षा आम व्यक्ति व निम्न वर्ग की पहुंच से दूर व सामाजिक
तथा क्षेत्रीय विषमता को बढ़ावा देने वाली सिद्ध हो रही है तथा विद्यार्थी में अनुशासनहीनता
व असंतोष को बढ़ा रही है। शिक्षा में भावात्मक पक्ष व सौंदर्यबोध के स्थान पर केवल
ज्ञानात्मक पक्ष को विकसित करने पर बल है। वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप विद्यार्थियों में
पश्चिमीकरण व आधुनिकीरण की प्रवृत्ति के अनुकरण को बल मिला है। जिससे विद्यार्थियों
में नैतिक व मानवीय मूल्यों का पतन तथा सांस्कृतिक हास हुआ है।
     शिक्षा के वैश्वीकरण से ज्ञान का प्रसार बहुत तेजी से होता है । इसके बारा बौद्धिक संपदा
का विस्तार, विकसित व विकासशील देशों की शिक्षा व्यवस्था में समन्वय स्थापित होना,
शिक्षा के साधनों विधियों, प्रविधियों, संचार साधनों का शिक्षण अधिगम की संरचना व
विधियों, सूचना तकनीकी व संप्रेषण माध्यमों का शिक्षा के क्षेत्र में सुलभ होना सुनिश्चित
होता है जो शिक्षा का सार्वभौमिकरण व प्रसार का आधार प्रदान करता है।
             (ग) सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा― शिक्षा से समाज में जागरूकता आती है।
जागरूकता से क्रांति आती है और क्रांति से परिवर्तन आता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते
हैं कि शिक्षा समाज में बदलाव लाने का सबसे अच्छा माध्यम है। जब शिक्षा द्वारा सामूहिक
विचार परिवर्तित होते हैं तब सामाजिक परिवर्तन होता है। विज्ञान तथा तकनीकी का विकास
शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन का एक उदाहरण है। लोग शिक्षा के प्रति अधिक जागरूक
हो गाए है तथा शिक्षा ने पाले में समाज के लोगों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास किया है।
तकनीक एवं पाए खेतों में उभरती संभावनाओं ने शिक्षा का प्रसार तेजी से किया है। शिक्षा
पराया को संपत्ति तथा शक्ति के चप में परिवर्तित करने में तथा साथ-साथ इसके वृद्धि
पर शिक्षण के प्रयास में सहायता करती है। यद्यपि शिक्षा सभी लोगों के उच्च स्तर तथा
स्थिति को सुनिश्चित नहीं करती फिर भी विना शिक्षा के व्यक्ति द्वारा सामाजिक गतिशीलता
प्राप्त करना असंभव है। इसके अतिरिक्त शिक्षा अवसरों की समानता में तीन प्रकार से
भूमिका निभाती है―
● जो लोग शिक्षित होने के इच्छुक हैं उन्हें सुविधाओं के लाभ लेने के योग्य बनाने के कार्य को संभव बनाना।
● शिक्षा की विषय वस्तु का विकसित करना जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास को प्रोन्नत करें।
● धर्म, भाषा, जाति वर्ग आदि पर आधारित पारस्परिक सहिष्णुता वाले सामाजिक वातावरण का निर्माण करना ।
        सामाजिक परिवर्तन आर्थिक विकास को गतिशील करता है जो सामाजिक परिवर्तन के
लिए सहायता करता है। शिक्षा अवसरों तथा अनुभवों को प्रदान कर समाज को परिवर्तित कर सकती है जिसके माध्यम से व्यक्ति स्वयं को विभिन्न परिस्थितियों में समायोजित कर सकता है। हम शिक्षा द्वारा समाज में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन देख सकते हैं। जैसे―
स्मार्टफोन ने समाज में संसार की पद्धति के परिवर्तित कर दिया है, स्मार्टबोर्ड ने शिक्षण
अधिगम प्रक्रिया को परिवर्तित कर दिया है, इत्यादि । इसके अलावा शिक्षा जातीय व्यवस्था,
सामाजिक पिछड़ापन, धार्मिक अंधविश्वास इत्यादि के प्रति भी लोगों को जागरूक कर समाज
में परिवर्तन लाती है।
प्रश्न 10. शिक्षा का सार्वभौमीकरण की अवधारणा, आवश्यकता एवं अवरोध का वर्णन करें। शिक्षा के सार्वभौमीकरण में राज्य की क्या भूमिका है ?
उत्तर― अंग्रेजी भाषा में “यूनिवर्स” शब्द का अर्थ विश्व, दुनिया, संसार होता है । इसी से “यूनिवर्सलाइजेशन” शब्द बना जिसका हिंदी रूपांतरण “सार्वभौमिकरण” है । साहित्यिक
दृष्टि से देखें तो सर्व का अर्थ “सभी” तथा भूमि का अर्थ “क्षेत्र” अर्थात जिसकी पहुँच
सभी जगह हो उसे ही सर्वभौम कहा जाता है। सार्वभौमिकरण का ही पर्याय सर्वव्यापी भी है और शिक्षा के क्षेत्र में यह शब्द अत्यंत प्रासंगिक व ग्राहा हैं। इसका तात्पर्य है शिक्षा के
सभी क्षेत्रों तक पहुँचाना । (सामान्यतः शिक्षा के सार्वभौमीकरण का अर्थ है शिक्षा का सर्वव्यापी करण अर्थात शिक्षा सभी के लिए सुलभ एवं प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण का अर्थ है 6 से 14 वर्ष तक की आयु वर्ग के सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा समान रूप से सुलभ कराई जाए।) शिक्षा प्रसार हेतु सर्वभौमिकरण का स्पष्ट उद्देश्य यह है कि सभी चालकों, बालिकाओं, नागरिकों को जाति, रंग, मूल, वंश, धर्म, लिंग संबंधी में भिन्नताओं
को नजर अंदाज करते हुए शिक्षा प्राप्ति के समान अवसर पहुंचाना तथा शिक्षा को सुनिश्चित
करना । इस विषय में कोई संदेह नहीं है कि यह कार्य कठिन होने के साथ चुनौतीपूर्ण भी है, किंतु बृहद पैमाने पर दीर्घकालिक प्रयास से शनै शनै संभव व सफल भी हो सकता है। इसके सफल क्रियान्वयन के लिए निम्न बिंदुओं पर विशेष रूप से कार्य करने की आवश्यकता
है―
● सर्वभौमिकरण हेतु वंचित छात्रों का चयन
● वंचित नागरिकों का शिक्षण संस्थानों से निश्चित जुड़ाव
● यथोचित प्रक्रिया से संस्थानों में नामांकन
● अध्ययन हेतु अध्येता का संस्थानों में ठहराव
● शैक्षिक सुविधाओं की अत्यंत सरलता व सगमता आदि ।
शिक्षा के सार्वभौमिकरण की आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं―
(क) लोकतांत्रिक विकास के लिए
(ख) राष्ट्रीय भावना विकसित करने के लिए
(ग) प्रति नागरिक के व्यक्तित्व विकास के लिए
(घ) आर्थिक रूप से व्यक्तिगत व सार्वजनिक समृद्धि के लिए
(ङ) सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए आदि ।
शिक्षा के सार्वभौमिकरण के अवरोध निम्नलिखित हैं―
(क) जनसंख्या की बेतहाशा वृद्धि
(ख) आर्थिक संसाधनों का अभाव
(ग) शिक्षा अधिनियमों का सख्ती से लागू न होना
(घ) संवैधानिक लोच व कमजोरी
(ङ) भौगोलिक कारण
(च) सामाजिक पिछड़ापन
(छ) प्रौढ़ निरक्षता
(ज) क्षेत्रीय असंतुलन
(झ) सरकार के लोकलुभावन व वोटिंग की राजनीति आदि ।
शिक्षा के सार्वभौमीकरण में राज्य की भूमिका― प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के
प्रश्न को लेकर ही प्राथमिक शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाने के लिए संसद ने (86वां
संशोधन) संविधान अधिनियम सन् 2002 में पारित किया गया । सन् 1998 में हुए राज्य के
शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन की सिफारिशों के आधार पर ‘सर्व शिक्षा अभियान योजना’ विकसित की गई जिसमें सभी को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया जिसे नवम्बर 2000 में स्वीकृति दी गयी।
भारत में शिक्षा को समवती सूची में रखा गया है इसके अन्तर्गत देश में शिक्षा व्यवस्था केन्द्र व राज्य सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व है। केन्द्र सरकार नीतियों का निर्माण का है तथा प्रान्तीय सरकारों को शिक्षा की व्यवस्था के सम्बन्ध में सलाह देती है। जहाँ तक प्राथमिक शिक्षा की बात है तो राज्य सरकार इसकी व्यवस्था अलग-अलग ढंग से करती है, कुछ राज्य सरकारों के इसे तो अपने हाथ में ले लिया है तथा कुछ ने इसे स्थानीय निकाय पर छोड़ दिया है। सभी अपने-अपने तरीके से कार्य कर रहे हैं । संविधान की धारा 21 में कहा गया है कि कानून, संकल्प द्वारा राज्य अपने अनुरूप छह से चौदह वर्ष की आयु धर्म के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करेगा। बच्चों को विद्यालय में सभी प्रकार की सुविधाएँ, शिक्षण-अधिगम सामग्री, छात्रवृत्ति आदि अनेकों सुविधाएँ राज्य मुफ्त प्रदान करेगा जिससे कोई भी विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने से वंचित न रह जाए।
प्रश्न 11. विद्यालयी शिक्षा के अब तक के विकास का ऐतिहासिक एवं समकालीन नीतिगत परिप्रेक्ष्यों के आधार पर वर्णन करें।
                                                अथवा,
विद्यालयी शिक्षा के विकास में शिक्षा नीतियों के ऐतिहासिक एवं समकालीन नीतिगत परिप्रेक्ष्य की व्याख्या करें।
उत्तर― विद्यालय शिक्षा के अब तक के विकास को जानने के लिए सरकार द्वारा लागू किए गए विभिन्न ऐतिहासिक नीतियों और उनके समकालीन नीतिगत परीक्षाओं को जानना जरूरी है, जिससे आज विद्यालय शिक्षा के स्वरूप की व्यापक समझ बनेगी। समकालीन राष्ट्रीय शिक्षा की व्यापक समझ के लिए इन नीतियों की पड़ताल आवश्यक है, जो शैक्षिक बदलाव की पृष्ठभूमि में रहे हैं और जिनका प्रभाव विद्यालयों के विभिन्न घटकों पर पड़ा है।
इनमें से कुछ प्रमुख नीतियों का उल्लेख निम्नलिखित है―
(क) माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952-53―स्वतंत्रता के पश्चात माध्यमिक शिक्षा के सभी पक्षों की परिस्थितियों की जांच एवं रिपोर्ट प्रस्तुत करना इसका लक्ष्य था। इसन अपनी रिपोर्ट के आधार पर माध्यमिक शिक्षा की एक नवीन संगठनात्मक स्वरूप के अनुशंसा की जिसने शिक्षा को प्राथमिक स्तर या अवर बुनियादी स्तर, माध्यमिक स्तर, उच्च माध्यमिक स्तर तथा पूर्व विश्वविद्यालय स्तर में बांटा। इसने व्यवसायिक व तकनीकी संस्थानों व बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना की वकालत की।
(ख) शिक्षा आयोग 1964-66― इसे कोठारी आयोग के नाम से जाना जाता है। आयोग ने विद्यालयी शिक्षा, उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, कृषि शिक्षा, विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान, अध्यापक प्रशिक्षण एवं अध्यापक स्तर विद्यार्थी कल्याण नई तकनीक एवं विधियाँ, मानव शक्ति, शैक्षिक प्रशसन और शैक्षिक वित्त पर अपनी रिपोर्ट तैयार की। इसके अतिरिक्त इसने सात कार्यकारी समूह बनाया स्त्री शिक्षा, पिछड़े वर्गों की शिक्षा, विद्यालय
भवन, विद्यालय समुदाय सोबध स्थायिकी, पूर्व प्रावधिक शिक्षा और विद्यालय पाठ्यचर्या।
अपनी रिपोर्ट में इस्ले शिक्षा में सुध्धयों को आवश्यकता मार दिया। अल्पादकता को बढ़ाना,
विद्यालय व शैक्षिक सरेचना में बदलाव, गुणवत्ता आदि यरको पर इसने अपने सुझाव प्रस्तुत
किए। इसने सुझाव दिया कि प्राथमिक विद्यालय के विस्तार की योजना इस प्रकार बनाई
जाए कि बच्चे के घर से लिस्ट पाथायिक विद्यालय तक 1 मील की दूरी पर और उच्च प्राथमिक विद्यालय 1 से 3 मील की दूरी के बीच उपलब्ध हो।
(ग) राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968― इस नीति ने अनेक पहलुओं पर अपनी संस्तुतियाँ
दीं जिनमें से कुछ दिनलिखित हैं―
● निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा
● भाषाओं का विकास
● समान शैक्षिक अवसर
● पिछड़े वर्गों और जरजातियों के बीच शिक्षा विकास
● विकलागों के लिए शिक्षा का विस्तार, इत्यादि।
इस नोति ने देश के सभी भागों में एक विस्तृत व समरूप शैक्षिक संरचना बनाने की अनुशंसा की। इसका अंतिम लक्ष्य 10 पद्धति को अपनाना था। जैसे कि माध्यमिक स्तर को पूरा करने हेतु 10 वषोप विद्यालय शिक्षा, विद्यालयों में स्थित वीच उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा और महाविद्यालयों में उपयोग डियो पायकम।
(घ) राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1956― यह भागों में विभाजित है। रिपोर्ट के विभिन्न
भागों में शिक्षा के लगभग सभी पहलुओं पर चर्चा की गई है। इसको कुरा प्रमुख विशेषताएँ
हैं―
● पूरे देश में शिक्षा के एक सम्मान प्रतिरूप 1023 को शोध लागू करने की अनुशंसा।
● शिक्षा पर जोडीपी व्यय को प्रतिशत तक बढ़ाकर पर्याप्त धन उपलब्ध कराना।
● प्राथमिक शिक्षा को पूर्णता तक निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ विद्यालयों की गुणवत्ता में सुधार को संस्तुति ।
● सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले विद्यार्थियों के लिए और अधिक विद्यालय खोले जाएं और संसाधन उपलब्ध कराए जाएँ।
● प्राथमिक माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर शैक्षिक कार्यक्रमों का पुनसंगठन करना, विद्यालयी पाजयचर्या को पुनसंगजित करने को भी अनुशंसा की
(ड) संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992― इसमें कमजोर वर्गों को शिक्षा के लिए मध्याह भोजन, लेखन सामग्री, निशुल्क शिक्षा जैसे विशेष प्रावधान किए गए। गैर सरकारी
संगठनों के लिए नए विशेष विद्यालय खोलने और विद्यार्थियों को व्यवसायिक प्रशिक्षण देने
के लिए इस क्षेत्र में आगे आने के प्रावधान किए गए । पूर्व बाल्यकाल और शिक्षा से संबंधित
आंगनबाड़ियों और बालवाड़ियों की स्थापना का प्रावधान किया गया। विद्यालय में नामांकन
के अनुसार शिक्षकों की न्यूनतम संख्या का सुझाव दिया गया। नवोदय विद्यालयों की गुणवत्ता
में वृद्धि और दूसरे विद्यालयों के लिए एक आदर्श स्थापित करने पर बल दिया गया। शिक्षक
प्रशिक्षण कार्यक्रमों को संवैधानिक दर्जा दिए जाने की संस्तुति की गई, इत्यादि ।
             इन सबके अलावा राष्ट्रीय ज्ञान आयोग 2006-09, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा
2005 में भी विद्यालय और शिक्षा में सुधार के लिए व्यवस्थित व क्रमागत उपचारों और नई
क्षमताएँ विकसित करने की अनुशंसा की गई।
प्रश्न 12. विद्यालयी मूल्यांकन प्रक्रिया पर शिक्षा नीतियों का क्या प्रभाव पड़ा है? वर्णन करें।
उत्तर― विभिन्न शिक्षा नीतियों द्वारा समय समय पर विद्यालयी पाठ्यचर्या की समीक्षा
की गई और उनमें बदलाव किया गया। जिसके साथ ही साथ मूल्यांकन प्रक्रिया पर भी इन
नीतियों का स्पष्ट प्रभाव पड़ा । इन्हें हम निम्नलिखित ढंग से समझ सकते हैं―
(क) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 1975 का विश्लेषण― राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-1975 में मूल्यांकन का प्रमुख लक्ष्य यह देखना था कि पाठ्यक्रमों के निर्धारित उद्देश्यों की किस सीमा तक प्राप्ति हुई है। मूल्यांकन को उपयोगी बनाने के लिए उसमें इन विशेषताओं का होना आवश्यक है―
● मूल्यांकन लिखित, प्रायोगिक और मौखिक परीक्षाओं, निरीक्षण, स्तरीकरण इत्यादि विभिन्न साधनों और तरीकों से होना चाहिए ताकि विभिन्न उद्देश्यों और वस्तु सामग्री से संबद्ध संप्राप्ति का मूल्यांकन हो सके। मूल्यांकन थोड़े-थोड़े समय पर कई बार होना चाहिए।
● मूल्यांकन शिक्षा-प्रक्रिया में ही सन्निहित होना चाहिए। प्रत्येक बच्चे के लिए लगातार प्रगति का लेखा रखने की प्रणाली का विकास किया जाना चाहिए। इसका आधार निरीक्षण और मौखिक परिक्षाएँ होनी चाहिए।
● प्रायोगिक परीक्षाएँ भी प्रारम्भ करनी चाहिए। निरीक्षण जाँच-सूचियाँ, मौखिक परीक्षाएँ, विद्यार्थियों द्वारा वस्तुओं का मूल्यांकन भी इस परीक्षण के अतिरिक साधनों विधियों के रूप में प्रयुक्त होना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो वार्षिक परीक्षा भी ली जा सकती है, किन्तु वर्ष भर में किए गए अन्य मूल्यांकनों की तुलना में इस पर अधिक बल नहीं देना चाहिए, इत्यादि ।
इन नीतियों के द्वारा इसने मूल्यांकन प्रक्रिया को केवल उनकी उपलब्धि का आकलन
ना मानकर उनकी शैक्षिक प्रगति में लगातार सुधार करने के प्रयासों पर बल दिया और उसमें
बदलाव लाए।
(ख) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2000 का विश्लेषण―इसने इन बातों पर
बल दिया कि―
● मूल्यांकन की प्रकृति मानवीय होगी। यह मूल्यांकन छात्रों को सामाजिक इकाई के रूप में विकसित होने में सहायक होगा और उन्हें अनावश्यक पीड़ा, चिंता परेशानी और अपमान से बचाएगा।
● मूल्यांकन अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया में ही निहित होगा और शिक्षा की संपूर्ण अवधि तक जारी रहेगा।
● मूल्यांकन छात्रों की पृष्ठभूमि और पूर्व-अनुभवों पर भी विचार करेगा।
● विशिष्ट आवश्यकता वाले छात्रों के लिए वैकल्पिक मूल्यांकन प्रक्रिया अपनानी
होगी और मूल्यांकन को मानवीय, छात्र-मित्रवत और लचीला बनाना होगा, इत्यादि।
इसने मूल्यांकन प्रक्रिया को लचीला व पढ़ाई के साथ साथ चलने वाला बनाया। इसमें विशेष आवश्यकता वाले छात्रों के लिए अलग से वैकल्पिक मूल्यांकन रणनीति बनाने की शुरूआत की।
(ग) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 का विश्लेषण― इसने माना कि भारतीय शिक्षा में मूल्यांकन शब्द परीक्षा, तनाव और दुश्चिता से जुड़ा हुआ है। एक अच्छी मूल्यांकन और परीक्षा पद्धति सीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन सकती है जिसमें शिक्षार्थी और शिक्षातंत्र दोनों को ही विवेचमात्मक और आलोचनात्मक प्रति पुष्टि से फायदा हो सकता है। अत: इसने मूल्यांकन प्रक्रिया में बदलाव करते हुए व्यवस्था दी कि मूल्यांकन का 30 प्रतिशत भाग आंतरिक परीक्षण पर आधारित हो, जिसमें हिन्दी भाषा की सहज समझ को परखा जा सके तथा 70 प्रतिशत भाग बाह्य परीक्षा से आकलन हो जिससे रटने की आदत को हतोत्साहित किया जा सके। इस प्रकार मूल्यांकन प्रक्रिया पर शिक्षा नीतियों द्वारा समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं जिनका स्पष्ट प्रभाव छात्रों की शैक्षिक प्रगति व पाठ्यचर्या पर पड़ा है।
प्रश्न 13. शिक्षा किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन में भूमिका निभाती है ? उल्लेख
करें।
                                                  अथवा,
शिक्षा किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन का माध्यम है? वर्णन करें।
उत्तर― शिक्षा व्यक्ति के विचारों तथा जीवन को सशक्त करने के लिए एक अभिकर्ता की तरह कार्य करती है। जब शिक्षा द्वारा सामूहिक विचार परिवर्तित होते हैं तब सामाजिक परिवर्तन होता है। विज्ञान तथा तकनीकी का विकास शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन का एक उदाहरण है। लोग शिक्षा के प्रति अधिक जागरूक हो गए हैं तथा शिक्षा ने बदले में समाज
के लोगों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास किया है। शिक्षा जनसंख्या को संपत्ति तथा शक्ति
के रूप में परिवर्तित करने के साथ-साथ इसके वृद्धि पर नियंत्रण के प्रयास में सहायता करती
है। यद्यपि शिक्षा सभी लोगों के उच्च स्तर तथा स्थिति को सुनिश्चित करती है नहीं करती
है, फिर भी बिना शिक्षा के व्यक्ति द्वारा सामाजिक गतिशीलता प्राप्त करना असंभव है। इसके
अतिरिक्त शिक्षा अवसरों की समानता में तीन प्रकार से भूमिका निभाती है―
         (क) जो लोग शिक्षित होने के इच्छुक हैं, उन्हें सुविधाओं के लाभ लेने के योग्य बनाने
के कार्य को संभव बनाना।
         (ख) शिक्षा के विषय वस्तु को विकसित करना जो वैज्ञानिक तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण
के विकास को प्रोन्नत करें।
        (ग) धर्म, भाषा, जाति, वर्ग आदि पर आधारित पारस्परिक सहिष्णुता तथा सामाजिक
वातावरण का निर्माण करना।
             सामाजिक परिवर्तन आर्थिक विकास की गति को गतिशील करता है जो समाज में
परिवर्तन के लिए सहायता करता है। प्रगतिशील अर्थव्यवस्था एक प्रतियोगी समाज का
निर्माण करती है। शिक्षा अवसरों तथा अनुभवों को प्रदान कर समाज को परिवर्तित कर
सकती है जिसके माध्यम से व्यक्ति स्वयं को विभिन्न परिस्थितियों में समायोजित कर सकता
है।
            हम भी समाज में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन देख सकते हैं। उदाहरण के लिए
स्मार्टफोन ने समाज में संचार की पद्धति को परिवर्तित कर दिया है, स्मार्ट बोर्ड ने शिक्षण
अधिगम प्रक्रिया को परिवर्तित कर दिया है, इत्यादि ।
प्रश्न 14. मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिनियम क्या है? इसके प्रमुख प्रावधान एवं उद्देश्यों का उल्लेख करें। यह शिक्षा के सार्वभौमीकरण में किस प्रकार सहायक है ? (अथवा भूमिका निभाता है)
उत्तर― संविधान (छियासीवां संशोधन) अधिनियम, 2002 ने भारत के संविधान में अंत
स्थापित अनुच्छेद 21-क ऐसे ढंग से जैसा कि राज्य कानून द्वारा निर्धारित करता है, मौलिक
अधिकार के रूप में छह से चौदह वर्ष के आयु समूह में सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य
शिक्षा का प्रावधान करता है। इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम निशुल्क और अनिवार्य बाल
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 है। अनुच्छेद 21-क और आरटीई अधिनियम 1
अप्रैल, 2010 को लागू हुआ। आरटीई अधिनियम के शीर्षक में “निशुल्क और अनिवार्य”
शब्द सम्मिलित हैं। ‘निशुल्क शिक्षा’ का तात्पर्य यह है कि किसी बच्चे जिसको उसके
माता-पिता द्वारा स्कूल में दाखिल किया गया है, को छोड़कर कोई बच्चा जो उचित सरकार
द्वारा समर्थित नहीं है, किसी किस्म की फीस या प्रभार या व्यय जो प्रारंभिक शिक्षा जारी रखने
और पूरा करने से उसको रोके अदा करने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा । ‘अनिवार्य शिक्षा’
उचित सरकार और स्थानीय प्राधिकारियों पर 6-14 आयु समूह के सभी बच्चों को प्रवेश,
उपस्थिति और प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करने का प्रावधान करने और सुनिश्चित करने की
बाध्यता रखती है। आरटीई अधिनियम निम्नलिखित का प्रावधान करता है―
(क) किसी पड़ोस के स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए बच्चों का अधिकार ।
(ख) यह स्पष्ट करता है कि ‘अनिवार्य शिक्षा’ का तात्पर्य छह से चौदह आयु समूह के प्रत्येक बच्चे को निशुल्क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने और अनिवार्य प्रवेश, उपस्थिति और प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करने को सुनिश्चित करने के लिए उचित सरकार की बाध्यता से है। ‘निशुल्क’ का तात्पर्य यह है कि कोई भी बच्चा प्रारंभिक शिक्षा को जारी रखने और पूरा करने से रोकने वाली फीस या प्रभारों या व्ययों को अदा करने का उत्तरदायी नहीं होगा।
(ग) यह गैर-प्रवेश दिए गए बच्चे के लिए उचित आयु कक्षा में प्रवेश किए जाने का प्रावधान करता है।
(घ) यह निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने में उचित सरकारों, स्थानीय प्राधिकारी और अभिभावकों कर्तव्यों और दायित्वों और केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच वित्तीय और अन्य जिम्मेदारियों को विनिर्दिष्ट करता है।
(ङ) यह अन्यों के साथ-साथ छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर), पवन और अवसंरचना, स्कूल के कार्य दिवस, शिक्षक के कार्य के घंटों से संबंधित मानदण्डों और मानकों को निर्धारित करता है।
(च) यह राज्य या जिले अथवा ब्लॉक के लिए केवल औसत की बजाए प्रत्येक स्कूल के लिए रखे जाने वाले छात्र और शिक्षक के विनिर्दिष्ट अनुपात को सुनिश्चित करके अध्यापकों की तैनाती के लिए प्रावधान करता है, इस प्रकार यह अध्यापकों की तैनाती में किसी शहरी-ग्रामीण संतुलन को सुनिश्चित करता है। यह दसवर्षीय जनगणना, स्थानीय प्राधिकरण, राज्य विधान सभा और संसद के लिए चुनाव और आपदा राहत को छोड़कर गैर-शैक्षिक कार्य के लिए अध्यापकों की तैनाती का भी निषेध करता है।
(छ) यह उपयुक्त रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति के लिए प्रावधान करता है अर्थात अपेक्षित प्रवेश और शैक्षिक योग्यताओं के साथ अध्यापक ।
(ज) यह (क) शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न (ख) बच्चों के प्रवेश के लिए
अनुवीक्षण प्रक्रियाएँ (ग) प्रति व्यक्ति शुल्क (घ) अध्यापकों द्वारा निजी ट्यूशन और (ङ) बिना मान्यता के स्कूलों को चलाना निषिद्ध करता है।
(झ) यह संविधान में प्रतिष्ठापित मूल्यों के अनुरूप पाठ्यक्रम विकास के लिए प्रावधान करता है और जो बच्चे के समग्र विकास, बच्चे के ज्ञान, संभाव्यता और प्रतिभा
निखारने तथा बच्चे की मित्रवत प्रणाली एवं बच्चा केन्द्रित ज्ञान की प्रणाली के माध्यम से
बच्चे को डर, चोट और चिंता से मुक्त बनाने को सुनिश्चित करता है।
          यह अधिनियम शिक्षा के सार्वभौमीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि इस
अधिनियम में सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और अनिवार्य शिक्षा प्रदान का प्रावधान है, जिससे
ज्ञान, कौशल और मूल्यों से लैस करके उन्हें भारत का प्रबुद्ध नागरिक बनाया जा सके। यादि
विचार किया जाए तो आज देशभर में स्कूलों से वंचित लगभग एक करोड़ बच्चों को शिक्षा
प्रदान करना सचमुच हमारे लिए एक दुष्कर कार्य है । इसलिए इस लक्ष्य को साकार करने
के लिए सभी हितधारकों-माता-पिता, शिक्षक, स्कूलों, गैर-सरकारी संगठनों और कुल
मिलाकर समाज, राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार की ओर से एकजुट प्रयास का आह्वान
किया गया है। इस अधिनियम में इस बात का प्रावधान किया गया है कि पहुंच के भीतर
वाला कोई निकटवर्ती स्कूल किसी भी बच्चे को प्रवेश देने से इनकार नहीं करेगा। स्कूल
प्रबंधन समितियाँ अथवा स्थानीय अधिकारी स्कूल से वंचित बच्चों की पहचान करेंगे और
उन्हें समुचित प्रशिक्षण के बाद उनकी उम्र के अनुसार समुचित कक्षाओं में प्रवेश दिलाएंगे।
सम्मिलित विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अगले वर्ष से निजी स्कूल भी सबसे निचली
कक्षा में समाज के गरीब और हाशिये पर रहने वाले वर्गों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित
करेंगे।
मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिनियम के निम्नलिखित उद्देश्य हैं―
(क) 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करवाना।
(ख) 6 वर्ष से सा 4 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे का स्कूल में अनिवार्य प्रवेश, उपस्थिति व शिक्षा की समाप्ति सुनिश्चित करना ।
(ग) बच्चों का बहुमुखी विकास । संविधान में समाहित मूल्यों का विकास ।
(घ) अधिकतम स्तर पर मानसिक व शारीरिक क्षमताओं का विकास ।
(ङ) बालकों को बालक केन्द्रित व बालक मित्रवत् तरीके से गतिविधियों द्वारा सिखाना।
(च) निर्देशों का माध्यम जहाँ तक हो सके बच्चों की मातृभाषा में होना ।
(छ) बच्चों को भयमुक्त बनाना और अपने विचार स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करने में मदद करना।
(ज) बच्चों की समझने की क्षमता का लगातार विश्लेषण और उसे उसकी सामर्थ्य पर लागू करना।
(झ) नजदीक में स्कूल की उपलब्धता सुनिश्चित करना । यह भी सुनिश्चित करना कि गरीब वर्ग का कोई भी बालक किसी भी कारण से प्राथमिक शिक्षा से वंचित न रहे, इत्यादि ।
प्रश्न 15. शिक्षा संस्थाएँ सामाजिक परिवर्तन व पुननिर्माण के अभिकरण के रूप में कैसे हैं?
                                                        अथवा,
सामाजिक परिवर्तन व पुनर्निर्माण के अभिकरण के रूप में शिक्षायी संस्थाओं
(विद्यालय) की भूमिका का उल्लेख करें।
उत्तर― एक शैक्षिक संस्था या इकाई एक संगठन हैं जो एक वृहद सामाजिक व्यवस्था के अंश या भाग के रूप में मानी जाती है। यह संगठन लोगों का एक समूह है जो एक साथ कार्य करते हैं। इस दृष्टि से विद्यालय, मदरसे, गुरुकुल जैसी शिक्षा संस्थाएँ, एक सामाजिक इकाई है जिसमें लोगों का एक समूह एक साथ कार्य करता है। ये शिक्षण संस्थाएँ औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के अत्यंत महत्वपूर्ण अभिकरण होते हैं । ये संस्कृति के हस्तांतरण के अत्यंत महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं।
            इनके कार्य शिक्षण अधिगम प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज के
सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने, उन्हें दूसरी पीढ़ियों में हस्तांतरित करने, सामाजिक
पुनर्निर्माण व परिवर्तन तथा उनकी प्रक्रिया में भी योगदान देते हैं। यह एक सामाजिक इकाई
की तरह कार्य करते हैं जहाँ शिक्षक तथा विद्यार्थी शिक्षण अधिगम वातावरण में कार्य करते
हैं तथा सीखते हैं। इस शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का मुख्य लक्ष्य समाज के सदस्यों में ऐसी
नागरिकता को मनःस्थापित करना है जो राष्ट्र की प्रगति में सहायता कर सकती है। विद्यालयों
में औपचारिक शिक्षा समाज की मान्यताओं तथा मूल्यों, रिवाजों तथा परंपराओं के निर्माण,
उत्थान, संरक्षित तथा हस्तांतरित करने में भी सहायता करती है। इसके अलावा बच्चों का
सर्वांगीण विकास करना, उनमें नेतृत्व गुणों का विकास करना, अर्थव्यवस्था के लिए कार्य
शक्ति उत्पन्न करना, समाज का पुनर्निर्माण करना, सहयोग तथा सुरक्षा के भाव को विकसित
करना, आत्मानुशासन के भाव को विकसित कर समाज को गतिशील बनाने व आधुनिक
परिवर्तनों को अपनाते हुए समाज के पुनर्निर्माण व परिवर्तन में अग्रणी भूमिका निभाने के
कार्य भी इन शिक्षण संस्थाओं द्वारा बखूबी निभाए जाते हैं।
      यहाँ विभिन्न पाठ्यचर्या तथा पाठ्यसहगामी गतिविधियों के आयोजन द्वारा स्वस्थ और
सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाया जाता है, ताकि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास किया जा सके।
यहाँ लोकतांत्रिक वातावरण में सभी सदस्यों को विभिन्न कार्य करने के लिए समान अवसर
उपलब्ध कराए जाते हैं तथा सभी को सीखने तथा निष्पादन के लिए समान अवसर उपलब्ध
होते हैं।
प्रश्न 16. शिक्षा, विद्यालय तथा समुदाय में कौन-कौन से समकालीन बदलाव हुए हैं तथा इनका क्या प्रभाव पड़ा है ?
उत्तर―शिक्षा में समकालीन बदलाव―अगस्त, 1947 से ही स्वतंत्र भारत में शिक्षा विषय सभी शिक्षाविदों एवं बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित करने लगा था। इसी संदर्भ में
दिसम्बर 1947 में वर्तमान मध्य प्रदेश के रीवा नगर में अखिल भारतीय शिक्षा-सम्मेलन में शिक्षा पर होने वाले व्यय पर भी विचार किया गया। इसके पश्चात विभिन्न स्तरों की शिक्षा पर विचार करने हेतु विभिन्न आयोगों, समितियों इत्यादि का गठन किया गया। इनमें से मुख्य आयोगों व समितियों का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित है―
(क) विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन 1948
(ख) माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन 23 सितम्बर, 1952, जिसका उद्देश्य था भारत की तात्कालिक माध्यमिक शिक्षा के सब पक्षों की जांच करना एवं उनके विषय में रिपोर्ट देना और उसके पुनर्गठन एवं सुधार के सम्बंध में सुझाव प्रस्तुत करना ।
(ग) शिक्षा आयोग का गठन 14 जुलाई, 1964 जिसका उद्देश्य था भारत सरकार की शिक्षा के राष्ट्रीय स्वरूप व उसके सभी स्तरों एवं पक्षों पर शिक्षा के विकास के लिए सामान सिद्धांतों एवं नीतियों के विषय से परामर्श देना।
(घ) राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 जिसमें 17 कार्यक्रमों को सम्मिलित किया गया है और शिक्षा के आधारभूत लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को भी निर्धारित किया गया।
(७) नई शिक्षा नीति, 1986 जिसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें सारे देश के लिए एक समान शैक्षिक ढाँचे को स्वीकार किया और अधिकांश राज्यों ने 1023 की संरचना को अपनाया।
(च) संशोधित राष्ट्रीय नीति 1986, आचार्य रामामूर्ति की अध्यक्षता में 7 मई 1990 को भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति को संशोधित करने के लिए एक कमेटी गठित की।
इसके मुख्य विचार निम्न बिन्दुओं पर केन्द्रित थे:
● शिक्षा के उद्देश्य
● सामान्य स्कूल प्रणाली
● व्यक्तियों का कार्य हेतु सशक्तिकरण
● स्कूल विश्व व कार्य स्थल में संबंध स्थापित करना।
● परीक्षा सुधार
● मातृभाषा को स्थान
● स्त्रियों को शिक्षा
● धार्मिक अंतरों को शैक्षिक उपलब्धि, अवसरों आदि के सन्दर्भ में कम करना
● विद्यालय प्रशासन का विकेन्द्रीकरण
(छ) सर्वशिक्षा अभियान, जो राष्ट्र में सभी के लिए शिक्षा प्रदान करने के लिए पक्के तौर पर कटिबद्ध है, निःशुल्क तथा अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा, विशेष जरूरतों वाले बच्चों के समावेशन, निरक्षरता के उन्मूलन, व्यावसायीकरण, महिलाओं की समानता के लिए शिक्षा, अनुसूचित जातियों/जनजातियों तथा अल्पसंख्यकों की शिक्षा इसकी प्राथमिकताओं के क्षेत्र
विद्यालय में हुए समकालीन बदलाव सर्वशिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के अंतर्गत विभिन्न हस्तक्षेपों के माध्यम से विद्यालय बुनियादी ढांचे के प्रावधानों के तहत उल्लेखनीय प्रगति की गयी है। एसएसए के प्रारंभ होने के बाद से 2.23 लाख प्राथमिक और करीब 4 उच्च प्राथमिक विद्यालयों के लिए विद्यालय भवन तैयार किए गए हैं। प्रत्येक विद्यालय में छात्राओं और छात्रों के लिए एक पृथक कार्यात्मक शौचालय होने के प्रधानमंत्री के आह्वान पर राज्यों, संघशासित प्रदेशों, केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों और निजी संस्थानों ने सकारात्मक प्रक्रिया व्यक्त की है। शौचालयों को स्वच्छ, कार्यात्मक और बेहतर बनाए रखने को सुनिश्चित करने की दिशा में भी कदम उठाए जा रहे हैं। आज हम विद्यालयों को मात्र इमारतों और कक्षाओं के रूप में ही नहीं देखते हैं, एक स्कूल में मूल शिक्षण स्थितियों के साथ-साथ इसमें बिजली की व्यवस्था, कार्यात्मक प्रयोगशाला और पाठन स्थल, विज्ञान प्रयोगशालाएँ, कम्प्यूटर प्रयोगशालाएँ, शौचालय और मध्याह्न भोजन को पकाने के लिए एलपीजी कनेक्शन भी अवश्य होना चाहिए तथा इसके लिए लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। सभी राज्यों और संघशासित प्रदेशों को सलाह दी जा चुकी है कि वह वर्तमान वर्ष में सभी माध्यमिक विद्यालयों में बिजली की व्यवस्था को सुनिश्चित करें जबकि शेष विद्यालयों को एक लघु अवधि की सीमा के भीतर शामिल किया जा सकता है।
समुदाय में हुए समकालीन बदलाव―समकालीन सामाजिक परिवेश देखने पर यही
प्रतीत होता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय समाज अपने पूर्ववर्ती समाज के
बिल्कुल अलग है। शिक्षा का प्रसार, सुधारवादी आंदोलन, पाश्चात्य संस्कृति से संपर्क,
आधुनिक चिंतनधारा, औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक प्रगति आदि की वजह से नया समुदाय
उभकर सामने आया है। शिक्षा के प्रसारण ने समाज को धर्माध, अज्ञानता जातिवाद तथा
असमानता से बचने के लिए अनुकूल माहौल का निर्माण किया है। अतः प्रत्येक समुदाय
अपनी प्रगति के लिए नई पीढ़ी को अच्छी से अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयास
कर रहा है। यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर अब तक समुदाय ने अपने प्रगति
के लिए राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा को सदैव अपने
आदर्शों और उद्देश्यों के अनुसार मोड़ा है तथा अब भी मोड़ रहा है। समुदाय शिक्षा संस्था
के रूप में बालक को औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों रूप से शिक्षित कर रहा है।
         शिक्षा, विद्यालय तथा समुदाय में हुए समकालीन बदलावों का प्रभाव―शिक्षा, विद्यालय
तथा समुदाय में हुए समकालीन परिवर्तनों का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। राज्य सरकारों की
साझेदारी के साथ केंद्र द्वारा प्रायोजित एवं भारत सरकार द्वारा कार्यान्वित सर्व शिक्षा अभियान
(एसएसए) ने आरम्भिक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने में यथेष्ट सफलता पाई है। आज देश
के 14.5 लाख प्राथमिक विद्यालयों में 19.67 करोड़ बच्चे दाखिल हैं। स्कूली शिक्षा को
बीच में छोड़ कर जाने की दर में यथेष्ट कमी आई है, किंतु यह अब भी प्राथमिक स्तर
पर 16% एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर 32% बनी हुई है, जिसमें उल्लेखनीय कमी करना
आवश्यक है। जैसा कि स्पष्ट है कि भारत ने स्कूलिंग में निष्पक्षता एवं अभिगम्यता सुनिश्चित
का विषय है। विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर को सुधारने के लिये केंद्र एवं राज्य
करने के मामले में अच्छा प्रदर्शन किया है। हालांकि एक औसत छात्र में ज्ञान का स्तर चिंता
दोनों सरकारें नवीन व्यापक दृष्टिकोणों एवं रणनीतियों को बना रहे हैं। कुछ विशेष कार्यक्षेत्रों
की बात करें तो अध्यापकों, कक्षा कक्ष में अपनाई जाने वाली कार्यविधियों, छात्रों में ज्ञान
के मूल्यांकन एवं निर्धारण, विद्यालयी अवसंरचना, विद्यालयी प्रभावशीलता एवं सामाजिक
सहभागिता से संबंधित मुद्दों पर कार्य किया जा रहा है। हाल ही में प्रारंभ किए गये अटल
अभिनव अभियान और अटल टिंकरिंग लैब से छात्रों के बीच महत्वपूर्ण विश्लेषण,
सृजनात्मकता और समस्या को सुलझाने जैसी गतिविधियों को बल मिलेगा।
          देश के सभी सरकारी माध्यमिक विद्यालयों को आईसीटी से लैस किया जा रहा है ताकि
बच्चों को पढ़ाने में आईसीटी का लाभ लिया जा सके और उनमें सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी
साक्षरता में भी सुधार किया जा सके । छात्रों और शिक्षकों का समक्ष आधार डाटा बनाने के
लिए कदम उठाए जा रहे हैं। इससे बच्चों के एक कक्षा से अगली कक्षा में जाने की प्रक्रिया
पर निगरानी रखी जाएगी और इस प्रकार से स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की पहचान के लिए
प्रणाली को सक्षम बनाया जाएगा और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि सभी पात्र बच्चे
मध्याह्न भोजन, पाठ्य पुस्तकें और छात्रवृत्तियों को प्राप्त करने के साथ-साथ छात्र और
शिक्षक की उपस्थिति की निगरानी भी की जाएगी।
      विद्यालय शिक्षा के मामले में समुदाय विद्यालय प्रबंधन समितियों के माध्यम से विद्यालय
प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अब तक इन समितियों को विद्यालय भवन के
निर्माण जैसी गतिविधियों के प्रावधानों में शामिल किया जा चुका है। एसएमसी बैठक,
सामाजिक अक्षण अथवा विद्यालय शिक्षा पर ग्रामसभा बैठकों जैसे प्रयासों को भी विद्यार्थी
के अध्ययन में जोड़ने और उनका मूल्यांकन करने की आवश्यकता से जोड़ने के प्रयास छात्रों
की प्रगति में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि माता-पिता
और समुदाय के सदस्य आगे कदम बढ़ाते हुए अपने बच्चों के शिक्षण के लिए विद्यालयों
की जवाबदेही पर नियंत्रण बना सकते हैं इसके लिए भाषा को आसानी से समझने के लिए
शिक्षण लक्ष्यों को कक्षावार तैयार करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं और विद्यालयों के
साथ-साथ इसके व्यापक प्रचार-प्रसार को प्रदर्शित करने की भी योजना है।
प्रश्न 17.आर्थिक सुधारों का शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ा है? वर्णन करें।
                                                अथवा,
आर्थिक सुधारों के शिक्षा पर प्रभाव की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर―आर्थिक सुधारों से अभिप्राय उन सभी उपायों से हैं जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था
को अधिक कुशल, प्रतियोगी तथा विकसित करना है। मुख्य आर्थिक सुधार उदारीकरण,
निजीकरण तथा वैश्वीकरण है। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद भारत में 7 फीसद की
औसत वृद्धि दर से विकास हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप यह मध्य आय वर्ग का देश
बन गया है । क्रय शक्ति में बढ़ोतरी के साथ ही लोगों की आकांक्षाएँ भी बढ़ी हैं। अभिभावक
अब बच्चों के लिए बेहतर व्यवस्था चाहते हैं। यहाँ तक कि गरीब अभिभावक भी, जिनके
लिए अपने जीवन को बदलने की एकमात्र आशा बच्चों को अच्छी शिक्षा दे कर ही पूरी
हो सकती है, पढ़ाई के लिए गैर-सरकारी स्कूलों को चुनने लगे हैं।
        गीता गाँधी किंग्डन की डिस्ट्रिक्ट इनफॉर्मेशन सिस्टम ऑन एडुकेशन (डीआईएसई) के
शुरूआती आँकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि वर्ष 2010 और 2014 के बीच
13,498 नए सरकारी स्कूल खुलने के बाद भी सरकारी स्कूलों में छात्रों के नामांकन में 1.13
करोड़ की कमी आई है जबकि निजी स्कूलों में 1.85 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। 10.2
लाख सरकारी स्कूलों में से एक लाख स्कूलों में सिर्फ 20 बच्चों का नामांकन हुआ है।
इसके अलावा 3.6 लाख सरकारी स्कूलों में छात्रों की अधिकतम संख्या सिर्फ 50 तक है।
वर्ष 2016 के लिए 18 जनवरी को जारी की गई एनुअल स्टेटस ऑफ एडुकेशन रिपोर्ट में
पढ़ाई की गुणवत्ता की दयनीय स्थिति को उजागर किया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है
कि तीसरी कक्षा के सिर्फ 25 फीसद छात्र ही दूसरी कक्षा के स्तर की किताबें पढ़ सकने
में सक्षम हैं। निश्चित ही ऐसे स्कूलों में निवेश करने का कोई विशेष फायदा नहीं मिल पा
रहा है। इसलिए सिर्फ बजट में आवंटन बढ़ा देने से कोई खास फर्क नजर नहीं आने वाला
है।
     मौजूदा समय में सरकार शिक्षा पर जीडीपी का 3.8% खर्च करती है जबकि लंबे समय
से इस खर्च को 6 फीसद तक बढ़ाने की उम्मीद की जाती रही है।
        आर्थिक सुधारों के कारण शिक्षण संस्थाओं के ढांचागत विकास में भी बदलाव आया
है। सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत नए स्कूलों का निर्माण, छात्र-शिक्षक अनुपात में वृद्धि
तथा स्कूलों में बुनियादी ढांचे आदि का व्यापक विकास हुआ है परंतु यह अभी भी लक्ष्य
से दूर है। बिहार जैसे राज्यों की बात करें तो अब राज्य सरकार ने शिक्षा पर अपेक्षाकृत अपने
बजट का अधिक प्रतिशत खर्च कर रही है। छात्रों को विद्यालय आने के लिए कई प्रोत्साहन.
दिए जा रहे हैं जैसे मध्याह्न भोजन, प्रोत्साहन राशि, साइकिल, पोशाक इत्यादि । इनसे स्कूलों
में उपस्थिति व नामांकन बढ़े हैं।
         स्वतंत्रता के बाद से विकसित देशों के समान भारत में भी शिक्षा को व्यवसायिक रूप
दिया जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है तथा व्यय भी बढ़ता जा रहा है।
परंतु यह पाया गया कि शैक्षिक प्रगति तथा शिक्षा पर व्यय के अनुपात में राष्ट्र का विकास
नहीं हुआ है। हमारे देश में कुछ राज्यों जैसे केरल में शिक्षितों का प्रतिशत ज्यादा है, किन्तु
आर्थिक विकास कम, जबकि हरियाणा व पंजाब में शिक्षा का विकास अपेक्षाकृत कम व
आर्थिक विकास अधिक हुआ है। विश्लेषण करने पर यह पाया गया कि शिक्षा के अलावा
भी विकास में एक तत्व कार्य करता है। वह शायद नैतिक चरित्र तथा कार्य के प्रति निष्ठा
है। दूसरा तथ्य है कि शिक्षा का गुण अर्थात शिक्षा प्रदान करना व आर्थिक विकास के लिए
शिक्षा प्रदान करना अलग-अलग बात है।
प्रश्न 18. सरकार द्वारा शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किए जा रहे प्रयासों का उल्लेख करें।
उत्तर―सरकार द्वारा सभी समस्याओं को दूर करने के लिए समय-समय पर अनेकों
प्रयास किये जा रहे हैं। विभिन्न कार्यक्रम तथा योजनायें चलायी जा रही हैं जिससे इन
समस्याओं से छुटकारा मिल सके व सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। भारत
सरकार द्वारा समय-समय पर प्राथमिक शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के लिए अनेक कार्यक्रम
चलाये जा रहे हैं उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार से हैं―
(क) शिक्षा का अधिकार―प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए तथा शिक्षा को
सर्वसुलभ बनाने के लिए दिसम्बर 2002 में संविधान के (86वें संसोधन) अधिनियम, 2002
के भाग III (मूलभूत अधिकार) में एक नई धारा 21 जोड़कर 6-14 आयु वर्ग के सभी
बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाने की बात की गयी है।
संविधान की धारा 21 में कहा गया है कि कानून संकल्प द्वारा राज्य अपने अनुरूप छह से
चौदह वर्ष की आयु वर्ग के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का
अधिकार प्रदान करेगा। बच्चों को विद्यालय में सभी प्रकार की सुविधाएँ, शिक्षण-अधिगम
सामग्री, छात्रवृत्ति आदि अनेकों सुविधाएँ राज्य मुफ्त प्रदान करेगा जिससे कोई भी विद्यार्थी
शिक्षा प्राप्त करने से वंचित न रह जाए।
(ख) ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड का उद्देश्य प्राथमिक विद्यालयों
में पाठ्य-सामग्री तथा शैक्षिक उपकरण जैसी आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था को सुनिश्चित
करना है। शिक्षक उपकरण, कक्षा शिक्षण सामग्री, खेल सामग्री, प्राथमिक विज्ञान किट, लघु
औजार किट, टू-इन-वन ऑडियो उपकरण, पुस्तकालयों के लिए पुस्तकें, विद्यालय की घंटी,
चॉक, झाइन तथा कूड़ादान, वाद्य-यंत्र ढोलक, तबला, श्यामपट्ट, फर्नीचर, शिक्षक के पास
आकस्मिक व्यय के लिए घन, प्रसाधन लड़के एवं लड़कियों के लिए अलग-अलग, पेयजल
आदि व्यवस्था निर्धारित की गयी। ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना को सन् 1987-88 में लागू
किया गया तथा वर्ष 1992 में इस योजना के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करके इसके अंतर्गत
निम्नलिखित बदलाव किये गये हैं―
● वर्तमान में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड को शेष सभी विद्यालयों विशेषकर अनुसूचित
जाति अनुसूचित जनजाति के क्षेत्रों के विद्यालयों में जारी रखा जाए।
● नामांकित बच्चों के आधार जहाँ आवश्यक हो उन प्राथमिक विद्यालयों में 3
अध्यापकों एवं 3 कमरों की व्यवस्था की जाए।
● उच्च प्राथमिक विद्यालयों तक ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना का विस्तार किया जाए।
(ग) मध्याह्न भोजन योजना― प्राथमिक शिक्षा को सुलभ बनाने तथा सर्व शिक्षा अभियान के लक्ष्यों को पूरा करने में सहयोग करने के लिए सरकार ने मध्याह्न भोजन योजना का सुभारम्भ किया। देश के कई भागों में गरीबी के कारण विद्यालयों में बच्चों का प्रवेश नहीं हो पाता है। इस समस्या के कारण अधिकांश बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। ऐसे बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए. विद्यालयों में नामांकन बढ़ाने, उन्हें विद्यालय में बनाये रखने और उपस्थिति के साथ-साथ बच्चों के बीच पोषण स्तर सुधारने के लिए राष्ट्रीय पोषण सहयोग कार्यक्रम 15 अगस्त 1995 से शुरू किया गया । केन्द्र द्वारा प्रायोजित इस योजना को सर्वप्रथम देश के 2408 ब्लॉकों में शुरू किया गया। वर्ष 1997-98 के अन्त तक देश के सभी ब्लॉकों में लागू कर दिया गया। 2002 में इसे बढ़ाकर सरकारी सहित अन्य सरकारी सहायता प्राप्त व स्थानीय निकायों के स्कूलों में कक्षा एक से कक्षा पाँच तक के बच्चों के लिए लागू किया गया।
(घ) जनशाला कार्यक्रम― जनशाला कार्यक्रम भारत सरकार और संयुक्त राष्ट्र संघ
की पाँच एजेन्सियों—यू.एन.डी.पी., यूनीसेफ, यूनेस्को, आई.ल.ओ., यू.एन.एफ.पी.ए. का
साझा प्रयास है तथा प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण का लक्ष्य प्राप्त करने हेतु चल रहे
प्रयासों को सहयोग देने हेतु चलाया गया। जनशाला कार्यक्रम समुदाय आधारित प्राथमिक
शिक्षा कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा का विशेषकर बालिकाओं, वंचित समुदायों
के बालकों, सीमान्त समूहों, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अल्पसंख्यकों कामकाजी
बालकों तथा विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए और अधिक सरल एवं प्रभावपूर्ण
बनाना है। जनशाला की एक विशेषता इसका ब्लॉक आधारित कार्यक्रम होना है जिसमें
सामुदायिक सहभागिता और विकेन्द्रीकरण पर बल दिया गया है।
(ङ) कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय योजना― यह योजना सरकार के सौजन्य
से प्रारम्भ की गयी । इसने छात्राओं को शिक्षित करने में बहुत योगदान दिया। इस प्रकार के
विद्यालयों को ब्लॉक स्तर पर स्थापित किया गया है। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित
जनजाति, अल्पसंख्यक एवं पिछड़े वर्ग की छात्राओं को अध्ययन के लिए प्रवेश दिया जाता
है। यह विद्यालय उन विकास खण्डों में स्थापित किये गये हैं जो शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए
तथा दुर्गम स्थानों से संबंधित हैं।
(च) छात्रवृत्ति वितरण योजना–प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा विभाग
भारतीय विद्यार्थियों की स्कूली और उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियों/शिक्षा वृत्तियों का वित
पोषण करता है। ये योजनाएँ राज्यों/केन्द्रशासित क्षेत्रों की सरकारों के माध्यम से संचालित
की जाती हैं, इत्यादि।
प्रश्न 19. भारत में प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण में राज्यों को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
उत्तर–प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण से सम्बन्धित हैं—विद्यालयों की सार्वभौम
व्यवस्था, सार्वभौम नामांकन, सार्वभौम रूप से विद्यालयों में टिके रहना । ये तीनों समस्याएँ
जो प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण में देखने को मिलती हैं किसी न किसी रूप में एक
दूसरे से सम्बन्धित हैं। इनके भीतर ऐसे कारण देखने को मिलती हैं जो किसी न किसी रूप
में तीनों समस्याओं से सम्बन्धित हैं जैसे समाज का पिछड़ापन, शिक्षा के प्रति सकारात्मक
मनोवृत्ति का अभाव, आर्थिक अभाव, लिंग संबंधी असमानताएँ, संसाधनों का समुचित प्रयोग
न किया जाना और सर्वप्रमुख जनसंख्या की वृद्धि आदि ।
       प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण की संकल्पना स्वीकार करती है कि बिना जाति, धर्म
या मत आदि की ओर ध्यान दिये शिक्षा प्रत्येक बालक का अधिकार है किन्तु विभिन्न
समस्याओं के कारण प्रत्येक बालक अपने इस अधिकार को प्राप्त करने में सफल नहीं हो
पा रहा है जो इस प्रकार हैं―
(क) प्रशासनिक समस्याएँ―वर्तमान समय में प्राथमिक शिक्षा को निम्न भागों में
बाँटा जा सकता है―
1. सरकारी मान्यता प्राप्त
2. आर्थिक सहायता प्राप्त
3. गैर सहायता प्राप्त
      इन सभी विद्यालयों में प्रवेश, शुल्क, वेतन तथा प्रबंधन अलग-अलग है। इस कारण
इन विद्यालयों में एक वर्ग का नियंत्रण नहीं है। सभी अपने-अपने तरीके से कार्य कर रहे
हैं। इस कारण प्राथमिक शिक्षा के स्वरूप में एक रूपता नहीं हो पा रही है। यह सबसे
बड़ी प्रशासनिक समस्या है।
(ख) पाठ्यचर्या सम्बन्धी समस्याएँ―वर्तमान शिक्षा में पाठ्यचर्या का बोझ भी
बच्चों के लिए अत्यधिक है। इसके साथ-साथ देश में करीब 84 प्रतिशत विद्यालय बहुकक्षीय
स्वरूप के हैं यानि हर एक शिक्षक को एक समय में एक से अधिक कक्षाएँ सम्भालनी पड़ती
हैं। वहीं मध्याह भोजन योजना प्रारम्भ होने से कई पाठशालाएँ ठसाठस भरी हुई हैं जहाँ
शिक्षक छात्र अनुपात 1:60 या 80 या कहीं-कहीं 100 भी हैं वहाँ यह सम्भावनाएँ बहुत कम
है कि शिक्षक सभी बच्चों द्वारा अपेक्षित स्तर तक सीखना सुनिश्चित करें और फिर पाठ्यक्रम
को पूरा करा सकें।
(ग) कक्षा का बहुस्तरीय स्वरूप―आज की परिस्थितियों में जब अलग-अलग
पृष्ठभूमि वाले बच्चों को शाला में लाने का प्रयास किया जा रहा है तो यह स्थिति और भी
स्पष्ट रूप से उभर कर आती है। पाठ्यक्रम को निर्धारित करते समय सारे 40 से 50 बच्चों
को एक ही स्तर पर मानकर एकरूपता अपनाई जाती है। सीखने और सिखाने के बीच
तालमेल के अभाव में समस्या आती है।
(घ) न्यूनतम अधिगम स्तर―प्रायः यह देखा जाता है कि अलग-अलग क्षेत्रों से
शिक्षा प्राप्त बच्चों के स्तर में काफी असमानता आती है। केवल पाठ्यक्रम पूरा करने की
मानसिकता से हटकर यह निश्चित करने की आवश्यकता है कि उनकी कक्षा से अधिकांश
बच्चे वह सीखें जो उनसे अपेक्षित है। इसलिए कक्षाओं में दक्षता आधारित शिक्षण होना
चाहिए।
(ङ) शिक्षकों से सम्बन्धित समस्याएँ―प्राथमिक स्तर पर स्थानीय शिक्षकों का होना
अनिवार्य है ऐसे शिक्षक पाठषाला में आ रहे बच्चों की पृष्ठभूमि, संस्कृति, आदतें व भाषा
समझ सकते हैं। बच्चे भी स्थानीय शिक्षकों से बेहतर सम्बन्ध बना सकेंगे। प्रायः यह देखा
जाता है कि दूर-दराज के इलाकों की शालाएँ बहु-कक्षा शालाएँ बन जाती हैं क्योंकि शिक्षक
वहाँ जाना नहीं चाहते हैं जबकि मुख्य मार्ग या हाइवे के पास के विद्यालयों में आवश्यकता
से अधिक शिक्षक हो जाते है। कई स्थानों पर विशेषतः पहाड़ी क्षेत्र के विद्यालयों में शिक्षक
जाना नहीं चाहते हैं यदि मजबूरी हो तो कई घंटों पैदल चलकर विद्यालय पहुँचते हैं वहाँ
केवल औपचारिकता के बाद वापस आ जाते हैं । ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षण की बात को
सोचा भी नहीं जा सकता है।
(च) ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा में कमी―प्राथमिक शिक्षा की योजनाओं में भवन
निर्माण, शिक्षकों की नियुक्ति, फर्नीचर एवं खेल सामग्री आदि सभी में कमीशन लिया जाता
है और सस्ते व घटिया किस्म की सामग्री उपलब्ध करायी जाती है। सरकारी विद्यालयों में
अधिकांश शिक्षक शिक्षण कार्य में रूचि नहीं लेते हैं इन कारणों से शिक्षा की गुणवत्ता
प्रभावित होती है।
(छ) विद्यालयों का अस्वस्थ वातावरण― प्राथमिक विद्यालयों का अस्वस्थ वातावरण
भी प्राथमिक शिक्षा की एक बड़ी समस्या है। प्राथमिक विद्यालयों में फर्नीचर व अधिगम
सामग्री आदि की सुविधाएँ नहीं है। यहाँ बच्चों की रूचि का कोई ध्यान नहीं दिया जाता
है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं में शिक्षक रूचि नहीं लेते हैं व बच्चों की उपस्थिति अनियमित
रहती है। प्राथमिक विद्यालयों के वातावरण को स्वस्थ व शैक्षिक बनाने के लिए सरकार प्रयास
करती है। लेकिन कर्तव्यनिष्ठा व माता-पिता का सहयोग न मिलने के कारण आज भी
प्राथमिक शिक्षा की स्थिति में वह सुधार नहीं हो पा रहे हैं जो होने चाहिए थे।
प्रश्न 20. विविधता, असमानता तथा वंचना की अवधारणात्मक समझ विकसित करें एवं इनके शैक्षिक संदर्भो (कारणों सहित) का उल्लेख करें।
उत्तर―विविधता―विविधता का अर्थ है विभिन्नता। एकरूपता के प्रतिकूल शब्द
विविधता है। एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री के अनुसार भारतीय समाज और संस्कृति एक रंग
की साड़ी नहीं है अपितु बहुरंगी चुनरी है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ विश्व के अन्य देशों
की अपेक्षा सबसे अधिक विभिन्न परिस्थितियों का परिदृश्य एक साथ देखने को मिल सकता
। यह भिन्नता का प्रदेश लघु स्तर से लेकर बहुधा पैमाने पर देखा जा सकता है। लोगों
का रहन सहन, आवास, भोजन, बोली, व्यवहार, प्रकृति, आकृति आदि पहलू है जो अपने
प्रदर्शन से हमें विभिन्नता का साक्षात्कार कर आते हैं और यही भिन्नता विविधता कहलाती
है। इस विविधता का अनुभव किसी विद्यालय के परिवेश में भी किया जा सकता है। अतः
एक शिक्षक का दायित्व बनता है कि वह ऐसे शिक्षायी माहौल का निर्माण करें जिसमें
विविधताओं का सम्मान हो, किसी भी प्रकार की असमानता का व्यवहार न हो, तथा एक
समावेशी वातावरण में बच्चों को विकसित होने का अवसर मिले । विविधता के प्रकार
निम्नलिखित हैं―
(क) क्षेत्रीय विविधता
(ख) जातिगत विविधता
(ग) धार्मिक विविधता
(घ) भाषाई विविधता
(ङ) सांस्कृतिक विविधता
(च) परिवेश के आधार पर विविधता
(छ) आकार या बनावट के आधार पर विविधता
(ज) लिंग आत्मक विविधता
(झ) उम्र सापेक्ष विविधता
असमानता–समान शब्द की उत्पत्ति हिंदी भाषा में संस्कृत के शब्द “सम” से ली की
अर्थ है-बराबर । समानता शब्द का ही प्रतिलोम असमानता है, अर्थात बराबर
नहीं होना, क्योंकि समानता शब्द का आधार भी विविधता के ऊपर ही आधारित है। इस
संदर्भ में हमेशा याद रखना चाहिए कि विविधता असमानता नहीं है। विविधता के प्रमुख
घटक यथा भूगोल (क्षेत्र), भाषा, जाति आर्थिक, आदि तुलनात्मक रूप में अध्ययन किए
जाने लगे। यदि लोगों में इन सभी आधारों पर श्रेष्ठता या निम्नता की प्रकृति जागृत होने
लगे तो इसे हम असमानता का संबोध दे सकते हैं। सहस्त्राब्यिों तक सुविधाविहीन, धन,
प्रतिष्ठा व ताकत से महरूम एक बड़े वर्ग को सुविधायुक्त, बेहतर व सम्मानित जीवन जीने
की व्यवस्थाओं से दूर रखा गया। सुविधाओं से वंचित किए जाने का आधार बना जन्म का
कुल, लिंग, निवास स्थान, भाषा, आस्था व मान्यताएँ, धर्म व सम्प्रदाय आदि । ये आधार जो
मूल रूप में विविधताएँ हैं के कारण किसी वर्ग व व्यक्ति विशेष को विकसने के लिए जरूरी
मौलिक सुविधाओं से वंचित किए जाने से ही असमानता जन्म लेती है। इस प्रकार असमानता
सत्ता व वर्चस्ववादी ताकतों के प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यवहार द्वारा विकास के साधनों के असमान
वितरण से उत्पन हुई वह स्थिति है जिसमें एक ही समाज में भिन्न-भिन्न जन व समुदाय
विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में रहने को बाध्य होते हैं।
           (नोट-असमानता के कारण व प्रभाव भी विविधता के आधार पर ही प्रमाणित हो
सकते हैं)
वंचना― वंचना का तात्पर्य वंचित होना या किसी एक प्रकार के “दूराव” से है। किसी
विशेष व्यक्तिगत अथवा सामूहिक कारणों से जब हमारा अलगाव किसी ऐसी वस्तु,स्थिति
या परिस्थिति से हो जाए तो हमारे पारिस्थितिक तंत्र में उपलब्ध हो तो यही अलगाव वंचना
कहलाती है। वॉलमैन के अनुसार “वंचना निम्न स्तरीय जीवन दशा या अलगाव को घोषित
करता है जो कि कुछ व्यक्तियों को उनके समाज की सांस्कृतिक उपलब्धियों में भाग लेने
से रोकता है। “शिक्षा के संदर्भ में जब कोई बालक समाज में रहते हुए अपने सामाजिक,
आर्थिक व शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति किसी रूढ़िवादिता या विरोधाभासी बल के द्वारा
नहीं कर सके तो इसे ही वंचना समझा जाएगा। विकास हेतु आवश्यक सुविधाओं से वंचित
होने तथा इस असमानता के व्यवहार के कारण व्यक्ति व समुदाय के अंदर वंचन का भाव
जन्म लेता है और वह स्थिति जिसमें वचित व्यक्ति जीता है ‘वंचना’ के रूप में जाना जाता
है। सुक्ष्मता से देखा जाए तो वंचन, व्यक्ति तथा समुदाय दोनों के स्तर पर दो प्रकार से हो
सकता है। व्यक्ति तथा समूह के अंदर वंचन का भाव इस कारण से भी हो सकता है कि
वह जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए संघर्ष कर रहा हो और इस संघर्ष के बावजूद
भी उनसे वंचित हो या शारीरिक तथा मानसिक रूप से इतना अक्षम हो कि सामान्य सुविधाओं
के उपलब्ध रहने के बावजूद भी उसका उपयोग न कर पाए। इस प्रकार के वंचन को
वास्तविक वंचन (Absolute Deprivation) कहा जा सकता है । वंचन का दूसरा भाव इस
कारण भी उत्पन्न हो सकता है कि या समूह किसी दूसरे व्यक्ति या समूह की
अपेक्षा भौतिक संसाधनों, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा अन्य किसी भी कारण से अपने आपको
वचित महसूस कर रहा हो । वंचन के इस भाव को सापेक्षिक वंचन (Relative Deprivation)
कहा जाता है। इस प्रकार वंचन को मोटे तौर पर चार प्रकार से देखा जा सकता है―
वास्तविक वैयक्तिक वंचन (Absolute Individual Deprivation), सापेक्षिक वैयक्तिक
वंचन (Relative Individual Deprivation), वास्तविक सामुदायिक वंचन (Absolute
Fraternal Deprivation), सापेक्षिक सामुदायिक वंचन (Relative Fraternal
Deprivation)
प्रश्न 21. वर्तमान संदर्भ में शिक्षकों के समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियाँ हैं तथा
इनके क्या समाधान हैं?
उत्तर–वर्तमान संदर्भ में शिक्षकों के समक्ष निम्नलिखित चुनौतियाँ हैं―
(क) शिक्षक एक वेतनभोगी सरकारी सेवक―सरकार की इस सोच के कारण
सरकार की सभी व्यवस्थागत नीतियों का पालन करने का मानसिक बोझ होने से तनाव की
उत्पत्ति ।
(ख) गैर शैक्षिक कार्यों की अधिकता―जनगणना, पशुगणना, बीएलाओ, चुनाव
कार्य, स्वास्थ्य संबंधी कार्य आदि में जबरन लगाए जाने के कारण भौतिक व मानसिक दोनों
रूप से शिक्षा से अलगाव ।
(ग) शिक्षकों के विभिन्न प्रकार―पद एवं नियुक्ति के आधार पर सहायक शिक्षक,
पारा शिक्षक, नियोजित शिक्षक, अतिथि शिक्षक आदि के रूप में अनावश्यक वर्गीकरण से
शिक्षकों में हीन भावना।
(घ) वेतन की असमानता-शिक्षकों के विभिन्न प्रकार होने के कारण समान कार्य
समान वेतन से वंचित शिक्षकों में असंतोष।
(ङ) वेतन की अनियमितता-राज्य कर्मी के रूप में शिक्षक ही एक ऐसे वेतनभोगी
है जिन्हें कई-कई महीनों पर उपहार स्वरूप वेतन मिलता है।
(च) शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में दोष-सरकार की अधिकांश शिक्षक प्रशिक्षण
परियोजनाएँ पाठ्यचर्या केंद्रित होती है ना कि शिक्षक केंद्रित ।
          इसके अलावा शिक्षक अस्मिता और वृत्ति से संबंधित तनावों में विद्यालयी कार्य की
अधिकता, अभिभावकों में सहयोग की कमी, शिक्षकों में अपिसी मतभेद, घर से विद्यालय
की बहुत ज्यादा दूरी, विद्यालय में अनावश्यक सामाजिक दखल आदि भी शिक्षकों के समक्ष
चुनौतियाँ हैं जो उनके शिक्षण कार्य में बाधा उत्पन्न करती है।
समाधान―
(क) शिक्षकों की कमी को पूरा करें—वर्तमान में कई राज्य अपने प्राथमिक स्कूल
शिक्षकों की आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाए हैं। शिक्षा के अन्य स्तरों पर यह चुनौती
और भी व्यापक है। इसलिए, रकार को ऐसी नीतियों को अपनाना होगा जिनसे इस व्यापक
कमी को पूरा किया जा सके।
(ख) बेहतरीन उम्मीदवारों को आकर्षित करें― सभी बच्चों के लिए यह महत्वपूर्ण
है कि उन्हें कम से कम अच्छी स्तर की योग्यता रखने वाले शिक्षक पढ़ाएं । इसलिए, सरकारों
को अच्छे शिक्षक उम्मीदवारों के दायरे को बढ़ाकर शिक्षा की उपलब्धता में सुधार करने के
लिए निवेश करना चाहिए। नीति निर्माताओं को अपना ध्यान अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों
पर ध्यान देने और शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की भी आवश्यकता है, जैसे सजातीय
अल्पसंख्यक, जो अपने समुदायों में सेवा कर सकें। ऐसे शिक्षक सांस्कृतिक संदर्भ में और
स्थानीय भाषा से परिचित होते हैं और उपेक्षित बच्चों के शिक्षा अवसरों में सुधार कर सकते
हैं।
(ग) शिक्षकों की सहायता के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षक तैयार करना—यह
सुनिश्चित करने के लिए शिक्षकों को सभी बच्चों की शिक्षा में सुधार करने के लिए उत्कृष्ट
प्रशिक्षण दिया जाए। यह महत्वपूर्ण है कि शिक्षकों को प्रशिक्षण देने वाले प्रशिक्षकों को
वास्तविक कक्षा शिक्षण चुनौतियों का ज्ञान एवं अनुभव हो तथा उनसे कैसे निपटा जाए।
इसलिए नीति-निर्माताओं को ऐसे शिक्षक प्रशिक्षकों को प्रशिक्षित करना सुनिश्चित करना
चाहिए जिन्हें कक्षा शिक्षण आवश्यकताओं का पर्याप्त अनुभव हो। जो नए योग्यता प्राप्त
शिक्षकों को शिक्षण ज्ञान को कार्यकलापों में परिणत करने में समर्थ बनाएँ, जिससे सभी
बच्चों की शिक्षा में सुधार हो । नीति निर्माताओं को प्रशिक्षित उपलब्ध कराने चाहिए ताकि
वे इस बदलाव के अनुरूप बन सकें।
(घ) शिक्षकों की वहाँ नियुक्ति करना जहाँ उनकी सर्वाधिक आवश्यकता है―
सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न केवल उत्कृष्ट शिक्षकों की ही भर्ती करके
उन्हें प्रशिक्षित किया जाए, बल्कि उन्हें ऐसे क्षेत्रों में भी तैनात किया जाए जहाँ उनकी
सर्वाधिक आवश्यकता है। पर्याप्त मुआवजा, बोनस वेतन, अच्छा आवास तथा व्यावहारिक
विकास अवसरों के रूप में सहायता का प्रयोग प्रशिक्षित शिक्षकों को ग्रामीण या उपेक्षित क्षेत्रों
में पद स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए किया जाना चाहिए । इसके अलावा,
सरकारों को शिक्षकों की स्थानीय रूप से भर्ती की जानी चाहिए तथा उन्हें सेवाकालीन
प्रशिक्षण दिलाना चाहिए ताकि सभी बच्चे, चाहे वे कहीं भी रहते हों, को शिक्षक मिलें जो
उनकी भाषा और संस्कृति को समझ सकें और इस प्रकार उनकी शिक्षा में सुधार कर सकें।
(ङ) बेहतरीन शिक्षकों को बनाए रखने के लिए प्रतिस्पर्धा करियर और वेतन
ढांचे का प्रयोग करना― सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शिक्षकों को इतना
कमाना चाहिए कि वे अपने परिवारों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठा सकें और उनके वेतन
समान व्यवसायों के साथ बराबरी कर सकें। सभी शिक्षकों के निष्पादन में सुधार करने के
लिए एक आकर्षक करियर और वेतन ढांचे का प्रयोग किया जाना चाहिए।
(च) प्रभाव को अधिकतम करने के लिए शिक्षक के अधिकार में सुधार
करना― सरकारों को शिक्षकों के कदाचार जैसे अनुपस्थित रहना, अपने छात्रों को प्राइवेट
ट्यूशन देना तथा स्कूलों में टेंडर आधारित हिंसा की समस्याओं का समाधान करने के लिए
शासन नीतियों में सुधार करना चाहिए । सरकारें शिक्षकों की अनुपस्थिति का समाधान करने
के लिए शिक्षकों की कार्य स्थितियों में सुधार करने, यह सुनिश्चित करने कि उन्हें गैर-शिक्षण
कार्य देकर उन पर अतिरिक्त भार न डाला जाए तथा उन्हें अच्छी स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध
कराने की दिशा में कार्य कर सकती हैं।
(छ) शिक्षा में सुधार करने के लिए शिक्षकों को नए पाठ्यक्रम की जनकारी
देना― शिक्षकों को समग्र और लचीली पाठ्यक्रम नीतियों का समर्थन देने की आवश्यकता
है ताकि उपेक्षित समूहों से बच्चों की शिक्षण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।
उपयुक्त पाठ्यक्रम सामग्री और डिलीवरी पद्धति से शिक्षक शिक्षा असमानताओं को कम कर
सकते हैं ताकि कम अंक पाने वाले छात्र कदम मिलाकर साथ चल सकें, इत्यादि ।
प्रश्न 22. शिक्षकों और शिक्षा से संबंधित नीतियों के नीतिगत संदर्भो का वर्णन
करें।
                                                  अथवा,
शिक्षकों तथा शिक्षा पर शिक्षा नीतियों का क्या प्रभाव पड़ा है ? उल्लेख करें।
उत्तर―हमारे विद्यालयों में जिस प्रकार से शिक्षक व शिक्षिकाओं की व्यवस्था चल रही
है उस प्रकार की व्यवस्था बनने की पीछे शिक्षा नीतियों एवं उनके क्रियान्वयन की सफलता
व असफलता का एक पूरा इतिहास है। आज जब शिक्षा की दशा लेकर कोई बात होती
है तो सबसे पहले शिक्षकों का ध्यान आता है जिसमें उनकी गुणवत्ता, शिक्षण पेशे के प्रति
लगन आदि मुद्दों पर सवाल खड़े किये जाते हैं और इन सब के उत्तर की अपेक्षा शिक्षक
से ही की जाती है। इन बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षक समुदाय ने जानबूझकर शिक्षा
की गुणवत्ता को गिराने की कोशिश की है। हालांकि यह संकुचित निष्कर्ष जायज नहीं है,
लेकिन उठाए गए सवाल बहुत महत्वपूर्ण है जिनकी पड़ताल शिक्षा नीतियों के संदर्भ में जरूरी
है।
(क) शिक्षा आयोग 1964―स्वतंत्रता के बाद यह पहला आयोग था जिसन संपूर्ण
शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा का अध्ययन किया तथा प्राथमिक स्तर के
शिक्षकों के बारे में कई अनुशंसाएँ की । इसने प्राथमिक स्तर पर 2 वर्षों की न्यूनतम प्रशिक्षा
कार्यक्रम की अवधि को आवश्यक बताया । इसने शिक्षा वर्ष के कार्य दिनों की संख्या 180-
90 से बढ़ाकर 230 दिनों तक करने की सिफारिश की । कुछ माध्यमिक प्रशिक्षण शालाओं
में शिक्षा वर्ष की यह अवधि इस रूप में बढ़ाई गई जिसके अच्छे परिणाम दृष्टिगोचर हुए।
इसने अपना मत दिया कि सिद्धांत विषयों के अध्ययन के अलग-अलग विषयों में पढ़ायी जाने
वाली सामग्री का उस काम के साथ सीधा संबंध होना चाहिए जो स्कूल में पढ़ाते समय करना
है।
(ख) शिक्षक आयोग 1985―इसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि शिक्षकों के वेतन और
वेतनमानों की समय-समय पर समीक्षा करने की आवश्यकता है ताकि उन्हें अत्यधिक स्फीति
या अपरदन के प्रभावों से बचाया जा सके । इसने ग्रामीण क्षेत्रों में महिला शिक्षकों की जरूरत
पर बल दिया। इसके अलावा उच्चतर माध्यमिक स्तर तक की लड़कियों को मुफ्त शिक्षा
देने की जरूरत पर भी बल दिया।
(ग) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005―इसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि
जितनी आजादी, इन्जत और लचीलापन शिक्षार्थियों को चाहिए उतना ही शिक्षकों को भी
फिलहाल तो प्रशासनिक ऊँच-नीच एवं नियंत्रण, परीक्षाएँ, पाठ्यचर्या सुधार का केंद्रीयकृत
नियोजन, ये सभी शिक्षक और मुख्य शिक्षा की स्वतंत्रता पर तमाम प्रतिबंध लगाते हैं । इसने
शिक्षकों से संबंधित कई नीतियाँ प्रस्तुत की जिसमें स्कूल में शिक्षकों की मांग के अनुरूप
उनकी उपलव्यता, छात्र-शिक्षक अनुपात के लिए स्वीकृत मानदंडों को पूरा करना, शिक्षा
की सामाजिक मांग, अनिवार्य स्कूल शिक्षा, स्कूल छोड़ने की आयु, प्रत्येक छात्रों के शिक्षण
के घंटे, पाठ्यचर्या में वैकल्पिक विषयों की संख्या और शिक्षकों के स्कूल दायित्व पर अपने
प्रस्ताव पारित किए।
(घ) समान स्कूल प्रणाली आयोग 2007―समान स्कूल प्रणाली के मानकों में
शिक्षकों के वेतन और भत्ते संबंधित मानक सबसे महत्वपूर्ण है । इसने सबसे पहले शिक्षकों
के वेतन व भत्तों और उनकी शैक्षिक योग्यता व पेशे के दायित्व को ध्यान में रखकर निर्धारित
किया है। इसने सुझाव दिया कि शिक्षकों का वेतन इतना होना चाहिए कि इस पेशे के प्रति
प्रतिभाओं को आकर्षित किया जा सके और उनका ठहराव सुनिश्चित हो सके । शिक्षकों को
दिया जाने वाला वेतन और भत्ता उन पेशेवरों द्वारा अर्जित राशि के समतुल्य होना चाहिए
जिनकी शैक्षिक योग्यता व प्रशिक्षण शिक्षकों के समकक्ष है । दूसरा यह भी महत्वपूर्ण है कि
वेतन भत्तों का समय पर भुगतान हो और किसी भी हालत में उस पर रोक ना लगाई जाए।
इसने सेवा में पदोन्नति की संभावना, वार्षिक वेतन वृद्धि का प्रावधान, मुद्रास्फीति के दबाव
के अनुसार वेतन ढांचा की संरचना इत्यादि बातों पर बल दिया।
(ङ) शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009—इसमें शिक्षकों की नियुक्ति व
तैनाती से संबंधित न्यूनतम शैक्षिक अहर्ताएं सुनिश्चित की, विद्यालय में विद्यमान अप्रशिक्षित
शिक्षकों के लिए विशेष अवधि के अंदर प्रशिक्षण प्राप्त कर न्यूनतम शैक्षणिक अर्हता धारणा
करने का प्रावधान किया । इसलिए अध्यापकों के वेतन, भत्ते और सेवा शर्त के निर्धारण को
अधिसूचित किया । इसने शैक्षणिक अवधि में अध्यापकों के लंबे समय तक बने रहने के
समर्थकारी उपबंध किए, अध्यापकों के विद्यालय प्रबंध समिति को जवाबदेह बनाया, सभी
अध्यापकों के वेतनमान और भत्ते, चिकित्सीय सुविधाएँ, पेंशन, उपदान, भविष्य निधि और अन्य
निहित फायदे, वैसी ही अहर्ता, कार्य और अनुभव के लिए बराबर करने का प्रावधान किये।
(च) जस्टिस वर्मा रिपोर्ट 2012―जस्टिस वर्मा आयोग ने पूरी अध्यापक शिक्षा
व्यवस्था को पुनर्संरचित करने की बात कही है। शिक्षकों की गुणवत्ता के दृष्टिकोण से शिक्षण
प्रशिक्षण संस्थान और शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सुधार करने का सुझाव दिया है । इसके
अनुसार शिक्षक बिना नियमित प्रशिक्षण के विद्यालय में नहीं पढ़ा पाएंगे। दूसरा दूरस्थ शिक्षा
से सिर्फ सेवाकालीन संवर्धन कार्यक्रमों को ही किया जा सकेगा। आयोग ने शिक्षक शिक्षा
कार्यक्रम की अवधि को भी बढ़ाने पर जोर दिया है।
         इसके अलावा ‘अध्यापक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2010’
(एनसीएफटीई 2010) ने भी भावी शिक्षकों की तैयारी के लिए प्रशिक्षण पाठ्यचर्या से
संबंधित कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। उनमें शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम के पूर्ववर्ती स्वरूप
को बदलने की बात कही गई है। साथ ही प्रशिक्षण के तरीके में नवाचारी परिवर्तन और
अवधि में भी वृद्धि की अनुशंसा की गई है।
   प्रभाव―अगर हम इन नीतियों के प्रभाव की बात करें तो शत् प्रतिशत इन नीतियों का
पालन अभी तक सरकार द्वारा नहीं कराया जा सका है। जब इन नीतियों के आलोक में
उपर्युक्त उन्नति, मौद्रिक पुरस्कार, पदोन्नति के अवसर, काम करने की परिस्थितियाँ और
अन्य कल्याणकारी हित लाभों की स्वीकृति व एक समान वेतनमान भविष्य में शिक्षकों को
मिल जाए तब शिक्षकों के रूप में आने वालों के लिए यह शिक्षण व्यवस्था और अधिक
आकर्षण बनेगी। यदि हम स्वतंत्रता पूर्व से लेकर अब तक के काल को देखे तो देश में
शिक्षकों के व्यवस्थाओं में विकास की झलक तो मिलती ही है, परंतु आज भी शिक्षक से
संबंधित कई समस्याएँ बहुत पहले से हमारी शिक्षा व्यवस्था में विद्यमान है।
प्रश्न 23. विद्यालयी पाठ्यचर्या पर शिक्षा नीतियों का क्या प्रभाव पड़ा है? वर्णन करें।
उत्तर―शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति पाठ्यचर्या के द्वारा होती है। पाठ्यचर्या शैक्षिक
उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन है। पाठ्यचर्या में केवल विषयों का ज्ञान नहीं होता वरन् उसमें
छात्र की सभी अनुभव निहित होता है। पाठ्यचर्या उन सभी क्रियाकलापों का एक समूह है
जिन्हें अध्यापक तथा छात्र एक साथ मिलकर शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास
करते हैं। पाठ्यचर्या के आधार पर ही शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का
समुचित आयोजन सम्भव हो पाता है।
          1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद
(NCERT) द्वारा 1975 में पाठ्यचर्या रूपरेखा की रचना की गई। 1976 में संविधान में
संशोधन किया गया और शिक्षा के उत्तरदायित्व को समवर्ती सूची में लाया गया और पहली
बार वर्ष 1986 में शिक्षा पर पूरे देश की एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी। शिक्षा की राष्ट्रीय
नीति (1986) ने सिफारिश की कि पूरे देश की स्कूली पाठ्यचर्या के मूल में एक सर्वसामान्य
(कॉमन कोर) तत्व हो । इस नीति ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद को
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा विकसित करने व इस रूपरेखा की समय-समय पर समीक्षा
करने का उत्तरदायित्व सौंपा।
      राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) की अनुशांसा के अनुरूप राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और
प्रशिक्षण (NCERT) द्वारा 1975 के बाद 1988 वर्ष 2000 और 2005 में एक तेजी से
बदलते विकासशील संदर्भ में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा प्रस्तुत की गई। विद्यालय
पाठ्यचर्या पर इन नीतियों का स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ा जिन्हें हम निम्नलिखित प्रकार से
समझ सकते हैं―
(क) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 1975―इसके अनुसार प्रारंभिक स्तर के
बच्चों की पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जिसमें―
1. बच्चे की प्रत्युन्नति, जिज्ञासा, सर्जन शक्ति और क्रियाशीलता आदि में लचकहीन
और अनाकर्षक शिक्षण-विधि और परिवेश के कारण रूकावट नहीं आनी चाहिए ।
2. पाठ्यक्रम में बच्चे की सामाजिक, बौद्धिक, भावनात्मक और शारीरिक परिपक्वता
तथा समुदाय की सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखना जाना चाहिए।
3. प्रत्येक बच्चे की सफलता की सीमाओं की यथार्थ दृष्टि से समझना और प्रत्येक स्कूल
के लिए इस न्यूनतम सीमा का अतिक्रमण करके परिस्थितियों के अनुसार अधिक सफलता
प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना।
4. बहुत से बच्चों के लिए प्राथमिक स्तर ही अंतिम भी होता है। अत: उन्हें ऐसी शिक्षा
देना अत्यन्त आवश्यक है, जो उन्हें अपने जीवन के लिए तथा स्वयं सीखने के लिए तैयार
कर सके।
(ख) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 1988–राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के
मार्गदर्शी सिद्धांतों का अनुपालन करते हुए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद
ने समूचे स्कूली पाठ्यक्रम को संशोधित करके कक्षा एक से बारह तक के लिये संशोधित
पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित की । राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-1988 के आधार पर राज्यों तथा
केन्द्रशासित प्रदेशों ने भी पाठ्यक्रम में संशोधित करने तथा स्कूल, शिक्षा प्रणाली में चरणबद्ध
तरीके से नई पाठ्यपुस्तकें विकसित करने के लिये कदम उठाये है। आधुनिकीकरण और
प्रासंगिकता की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम में पाठ्यचर्या के बोझ को कम
करने की जरूरत पर विशेष ध्यान दिया गया है।
(ग) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2000–पर्यावरण शिक्षा का प्राथमिक स्तर
के प्रथम दो वर्षों की शिक्षा में भाषा, गणित एवं अन्य गतिविधियों के साथ समन्वय या समेकन
प्राथमिक स्तर पर ही कला शिक्षा, स्वास्थ्य तथा शारीरिक शिक्षा और विषय में शिक्षा,
सामाजिक विज्ञान में विषयवस्तु आधारित समझ पैदा करने वाला समेकित उपागम, विज्ञान
और प्रौद्योगिकी का समेकन माध्यमिक स्तर परगणित को जीवन के निकट लाना और वर्तमान
विज्ञान-प्रयोगशालाओं में व्यावहारिक गणित के लिए स्थान नियत करना आदि कुछ नए तत्व
हैं जो इस दस्तावेज के अंग हैं। भाषा कौशलों के मौखिक एवं श्रव्य मूल्यांकन की प्रणाली
लागू करने, व्यक्तिगत और समूह में स्व-मूल्यांकन की प्रणाली अपनाने और ऐसे ही अन्य
नवीन तत्वों का भी इस दस्तावेज में समावेश है।
(घ) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005-इसकी शिक्षण नीतियों में―
● कक्षा में सभी विद्यार्थियों के लिए समावेशी वातावरण तैयार करना।
● ज्ञान निर्माण में विद्यार्थियों की सहभागिता और रचनात्मकता को बढ़ावा ।
● प्रयोगात्मक माध्यमों द्वारा सक्रिय शिक्षण ।
● पाठ्यचर्या की प्रक्रियाओं में बच्चों की सोच, जिज्ञासा और प्रश्नों के लिए पर्याप्त स्थान।
● विद्यार्थियों की सहभागिता के क्षेत्र, अवलोकन, अन्वेषण, विश्लेषणात्मक विमर्श
आदि महत्वपूर्ण ज्ञान की विषय-वस्तु को शिक्षण में शामिल करना । विषयवस्तु
के चुनाव एवं व्यवस्था को तथा ज्ञान निर्माण की प्रक्रियाओं को उनके हिसाब से
अनुकूलित करना इत्यादि शामिल हैं।
   इस प्रकार हम देखते हैं कि पाठ्यचर्या के वर्तमान स्वरूप तक पहुँचने में शिक्षा नीतियों
का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है तथा विभिन्न विषयों के लिए पाठ्यचर्या का निर्माण इन्हीं शिक्षा
नीतियों के आलोक में किया गया है। इन नीतियों के आलोक में छात्रोंके लिए पाठ्यचर्या
में विभिन्न लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं । जैसे—बारह वर्ष तक भाषा पढ़ने के बाद विद्यार्थी
में सप्रेषण के कौशल के साथ परिस्थिति के अवलोकन, उसकी जाँच-पड़ताल और विश्लेषक
के रूप में सामंजस्य करने के कौशल का विकास भी हो जाए । वह कुशल पाठक, लेखक,
श्रोता और आलोचक भी उनमें हो सके। विज्ञान के शिक्षण में इस तरह की तब्दीली की
गई कि हर बच्चे को अपने रोज के अनुभवों को जांचने और उनका विश्लेषण करने में सक्षम
बनाये। भाषा में त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू किया गया । गणित की शिक्षा का ऐसा पाठ्यक्रम
विकसित किया गया जो चिंतन और तर्क में अभूतना की संकल्पना करने और उनका व्यवहार
करने में समस्याओं को सूत्रबद्ध करने और सुलझाने में उनकी सहायता करे, इत्यादि ।
प्रश्न 24. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा क्या है ? शिक्षा में गुणवत्ता अथवा गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा का सवाल बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए क्यों जरूरी है ?
• उत्तर―गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ऐसी शिक्षा है जो हर बच्चे की वैयक्तिक विभिन्नता का
घ्यान रखने वाली होती है। हर बच्चे के सीखने का तरीका अलग-अलग होता है। ऐसे
में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हर बच्चे के सीखने के तरीकों को अपने में समाहित करने वाली होती
है ताकि क्लास में कोई भी बच्चा सीखने के पर्याप्त अवसर से वंचित न रह जाये । इसके
साथ ही हर बच्चे को विभिन्न गतिविधियों, खेल और प्रोजेक्ट वर्क के माध्यम से उनको
सीखने का मौका इसमें दिया जाता है। ऐसी शिक्षा में चीजों को समझने (अर्थ निर्माण) के
ऊपर विशेष फोकस होता है। बच्चों को चर्चाओं के माध्यम से अपनी बात कहने और ज्ञान
निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी का मौका मिलता है। इस नजरिये से संचालित होने वाली
कक्षाओं में गतिविधियों और विषयवस्तु में एक विविधता होती है। शिक्षक के नजरिये में
लचीलापन होता है। वे हर बच्चे को साथ-साथ सीखने के अतिरिक्त खुद के प्रयास से भी
सीखने का पर्याप्त मौका देते हैं ताकि बच्चों का आत्मविश्वास बढ़े।
        शिक्षा हमारे देश का मुख्य आधार है। यह राष्ट्रीय मानव संसाधन विकास के लिए एक
साधन है। दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में सूचीबद्ध भारत शिक्षा
की बात आने पर कतार में बहुत पीछे रह जाता है। कम गुणवत्ता की शिक्षा भारत के विकास
को 21वीं शताब्दी की अर्थव्यवस्था की मांगों को पूरा करने से रोक रही है । व्यापक स्तर
पर यह देखा गया है कि छात्र, अवधारणाओं को आत्मसात करने के बजाय यांत्रिक रूप
से सीखना ज्यादा पसंद करते हैं । अध्ययनों ने छात्रों के उच्च विद्यालयों में जाने के साथ
उनकी शिक्षा पर सवाल उठाया है।
        यूनेस्को की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बच्चों को शिक्षा की उपलब्धता
आसान हुई है, लेकिन गुणवत्ता का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है और स्कूल जाने वाले
बच्चे भी बुनियादी शिक्षा से वंचित हो रहे हैं । समस्या केवल बच्चों को स्कूल भेजने की
नहीं है। स्कूल जाने वाले बच्चे भी शिक्षा के घटिया स्तर के कारण पिछड़ रहे हैं। प्राथमिक
स्कूल जाने वाले करीब एक तिहाई बच्चे, चाहे वे कभी स्कूल गए हों या नहीं बुनियादी शिक्षा
नहीं प्राप्त कर रहे हैं। उनमें पढ़ने लिखने के बुनियादी कौशल विकसित नहीं हो पाये हैं।
नामांकन के लक्ष्य के करीब पहुंचने के बाद गुणवत्ता का सवाल सबसे अहम हो गया है।
देश में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में एनुअल स्टेटस आँफ एजुकेशन की एक
रिपोर्ट पर गौर करना उपयुक्त होगा, जिसके मुताबिक देश की कक्षा पांच के आधे से अधिक
बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं। ये तथ्य हमारी प्राथमिक शिक्षा की
गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त हैं।
        शिक्षा यदि गुणवत्तापूर्ण न हो तो वह बेमतलब हो जाती है। इसका लाभ न तो हासिल
करने वाले को होता है और न ही प्रदेश व देश को। इसमें भी व्यवसायिक शिक्षा की गुणवत्ता
पर तो और ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 25. स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता में कमी होने के क्या कारण है ?
उत्तर―प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें
सर्वाधिक आवश्यक होती हैं-श्रेष्ठ और पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम । शिक्षकों की
कमी की बात तो आए दिन उठती रहती है, पर इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि
जो शिक्षक हैं, क्या वे इतने योग्य और कुशल हैं कि बच्चों को समुचित रूप से शिक्षा दे
पाएं? इस संबंध में तथ्य यही है कि शिक्षकों की कमी तो है, पर सरकारी स्कूलों में अधिक।
निजी स्कूल इस समस्या से कम ग्रस्त हैं। अब रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की, तो यहाँ भी
सब कुछ ठीक नहीं दिखता । सरकारी स्कूलों में ढांचागत सुविधाओं की कमी और अध्यापकों
की नाकामी के चलते हालत यह है जो अभिभावक खर्च वहन करने की स्थिति में है वह
अपने बच्चों के सरकारी स्कूलों में पढ़ाना ही नहीं चाहता । प्राइवेट स्कूलों में लूट का आलम
यह है कि वहाँ वर्दी से लेकर किताबें-कापियां तक भारी भरकम मूल्यों पर बेची जाती हैं
और अभिभावकों को स्कूल द्वारा निर्धारित सप्लायर से ही किताबें कापियां और वर्दी खरीदना
पड़ती हैं । इन स्कूलों के बच्चों की हालत यह है कि नर्सरी के बच्चे जब स्कूल से निकलते
हैं तो पीठ पर लादे बस्तों के बोझ के कारण उनसे चला भी नहीं जाता । प्राइवेट अंग्रेजी
माध्यम स्कूलों के पाठ्यक्रम में एलकेजी और केजी के बच्चों का पाठ्यक्रम दूसरी–तीसरी
कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम से भी कठिन है जिसके कारण इन स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों
की बौद्धिक क्षमता घट रही है और व्यवहार उग्र हो रहा है । सरकारी स्कूल जहाँ कम शिक्षकों
की समस्या से जूझ रहे हैं, वहीं निजी विद्यालय अनुचित पाठ्यक्रम चला रहे हैं आने वाली
पीढ़ियों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।
     यह हालत तब हैं, जब पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है । प्राथमिक शिक्षा
को बेहतर बनाने के इस कानून में कई अच्छे प्रावधान हैं, लेकिन ज्यादातर राज्यों ने इस
कानून को सही ढंग से अपनाया ही नहीं है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के मुताबिक
स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए और शिक्षा की गुणवत्ता पूरी करने के लिए
समय-सीमा तय थी। कानून के अनुसार राज्य सरकारों ने न तो स्कूलों में शिक्षकों की
नियुक्ति की है और न ही बुनियादी सुविधाएँ प्रदान की हैं। यही वजह है कि शिक्षा की
गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हो रहा है। देश में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में
राज्यों की वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करना जरूरी है जिसके अनुसार देश की पांचवीं कक्षा के
आधे से अधिक बच्चे दूसरी कक्षा की किताब ठीक से नहीं पढ़ सकते । प्राथमिक और उच्च
शिक्षा की गुणवत्ता के लिए श्रेष्ठ, पर्याप्त शिक्षक और गुणवत्तायुक्त पाठ्यक्रम होने चाहिए
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है। शिक्षकों की कमी तो हमेशा चर्चा का मुद्दा रहता है लेकिन
जो नियुक्त शिक्षक है, क्या समय-समय पर उनकी पढ़ाने की योग्यता को मापा गया या उन्हें
और अधिक आधुनिक तरीके से पढ़ने के लिए किसी प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया, इस
पर चर्चा कम ही होती है।
प्रश्न 26. सार्वजनिक शिक्षा बनाम निजी शिक्षा के मुद्दे पर अपना तर्क प्रस्तुत करें।
                                                   अथवा,
सार्वजनिक शिक्षा एवं निजी शिक्षा के लाभ व दुष्प्रभावों का उल्लेख करें। .
उत्तर―सार्वजनिक शिक्षा एक आधुनिक विचार है, जिसमें सभी बच्चों को चाहे वे
किसी भी लिंग, जाति, वर्ग, भाषा आदि के हों, शिक्षा उपलब्ध कराना शासन का कर्तव्य
माना जाता है। आजादी के बाद गठित सभी शिक्षा आयोगों में एक बात पर आम राय रही
है कि शिक्षा में समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए समान स्कूली शिक्षा
व्यवस्था को स्थापित करना पहला कदम है, लेकिन इन सिफारिशों को हकीकत में बदलने
के लिए क्रियान्वयन की कोशिश आज भी एक सपना है। हमारे देश में शिक्षा को सरकारी
व गैर सरकारी दोनों रूपों से चलाया जा रहा है। शिक्षा को निजी लोगों और संस्थानों के
हवाले करना और उनको उनके तरीके से काम करने की आजादी देने को शिक्षा का
निजीकरण अथवा प्राइवेट शिक्षा कहते है। पिछले कुछ दशकों में शिक्षा के तरीकों में बदलाव
आया है। पहले शिक्षण संस्थान सरकार द्वारा चलाए जाते थे परंतु कुछ समय से यह निजी
संगठनों की साझेदारी से भी चलाए जाने लगे हैं। निजी संस्थानों में सरकार का कोई हस्तक्षेप
नहीं होता है। निजी विद्यालयों में संस्थान अपने अनुसार नियम बनाते है । शिक्षा को निजी
हाथों में सौपने के लाभ और दुष्प्रभावों को हम निम्न तरीके से समझ सकते हैं―
लाभ―
(क) सुविधाएँ और नई तकनीक―निजी अथवा प्राइवेट विद्यालयों में सरकारी
विद्यालय के मुताबिक ज्यादा सुविधाएँ होती है। निजी विद्यालयों में अधिकतर नए यंत्रों के
द्वारा पढ़ाया जाता है, जैसे कंप्यूटर, इंटरनेट आदि । बच्चों को यहाँ सभी चीजें व्यवहारिक
रूप से सिखाई जाती है। इन विद्यालयों में शौचालय, पुस्तकालय जैसी मूल सुविधाए उपलब्ध
होती है।
(ख) दाखिला लेने की प्रक्रिया―ऐसे संस्थानों में दाखिला पाने के लिए बच्चों को
एक परीक्षा से गुजरना पड़ता है व ऐसा करने से बच्चों को छांट कर प्रवेश दिया जाता है।
 इन विद्यालयों में सीमित संख्या में ही बच्चों को दाखिल दिया जाता है।
(ग) शिक्षकों की जांच―निजी स्कूलों में हर विषय के लिए अलग अलग शिक्षक
होते है। ऐसे विद्यालयों में शिक्षक अपने विषय में निपुण होते है और वास्तविक रूप से छात्रों
को ज्ञान देते है।
      ऐसे संस्थानों में पढ़ने के कारण शिक्षा के स्तर में सुधार हुआ है। कई बार ऐसे आँकड़े
सामने आते है जिनसे सरकारी शिक्षा संस्थानों पर एक बड़ा सवाल उठता है। सरकारी
विद्यालयों में कई बार छात्रावास, पुस्तकालय व अन्य मूलभूत सुविधाएं मौजूद नहीं होती है।
दुष्प्रभाव―
(क) मनमानी फीस वसूलना―निजी संस्थान अभिवावकों से मनमानी फीस वसूलते
है। यह सबसे बड़ा नुकसान है शिक्षा के निजीकरण का । गरीब लोग जिनके पास पैसे नहीं
हैं और वह अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहते है परंतु वह ऐसा नहीं कर सकत
है।
(ख) भ्रष्टाचार की चरम सीमा―मझले स्तर व उच्च स्तर के परिवार के बच्चे ही
ऐसे विद्यालयों में दाखिला लेने में समर्थ है। ऐसे विद्यालयां में एडमिशन लेने के लिए
भ्रष्टाचार चरम सीमा पर रहता है।
      सरकारी विद्यालयों में गरीब छात्रों के लिए खाना और पुस्तक देने की योजनाएं होती
है परंतु प्राईवेट विद्यालय में ऐसा नहीं होता है।
(ग) शिक्षा का व्यवसाय बनना―निजी विद्यालयों ने शिक्षा के नाम पर बिजनेस
खोल लिया है। वह अलग-अलग गतिविधियों के नाम पर पैसे वसूलते है और डोनेशन का
नाम रख कर एक बड़ी रकम वसूलते है।
            सरकारी विद्यालय में शिक्षा के लाभ व दुष्प्रभाव
लाभ―
(क) खाना और किताबें मिलना―सरकार द्वारा सरकारी स्कूलों में कई ऐसी
योजनाएँ है जिनमें बच्चों को खाना, वर्दी, किताबे मुफ्त में मुहैया कराई जाती है। ऐसा
इसलिए कराया जाता है जिससे बच्चे स्कूल में आए और अपना भविष्य सुधारने का प्रयास करे।
          निम्न स्तर के बच्चों को सही पोषण और पढ़ाई देने के लिए यह योजनाएं चलाई गई
हैं। इसके अलावा छात्रों को विद्यालय में बुलाने और देश में शिक्षा स्तर को सुधारने के लिए
यह प्रयास किए गए हैं।
(ख) कम दाम में शिक्षा मिलना―सरकार द्वारा चलाए जाने विद्यालयों में गरीब
बच्चों को शिक्षित होने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। ऐसे स्कूलों में कम दाम में या
मुफ्त में छात्रों को पढ़ाया जाता है। गरीबी बच्चों के लिए कई बार छात्रवृत्ति दी जाती है।
दुष्प्रभाव―
(क) शिक्षकों की कमी―सरकारी स्कूलों में कई बार यह देखा गया है कि वहाँ पर
शिक्षकों की कमी होती हैं। हर विषय के शिक्षक विद्यालय में मौजूद नहीं होते हैं।
विद्यालय में ज्यादा छात्र होते है और इस कारण से सभी छात्रों पर ध्यान देने में शिक्षक
असमर्थ रहते हैं। कई बार यह देखा गया है कि स्कूलों में 50 प्रतिशत शिक्षकों के पद खाली
है और स्कूल में प्रिंसिपल भी नहीं है।
(ख) मूलभूत सुविधाएँ न होना―सरकारी विद्यालयों में कई दफा पुस्तकालय नहीं
होते हैं। इसके अलावा शौचालय की सुविधा भी कई बार छात्रों को उपलब्ध नहीं होती है।
बिजली पानी आदि की समस्याएँ भी इन स्कूलों में रहती हैं। कई बार स्कूलों में किताबे पहुँच
जाती हैं, पर छात्रों को नहीं मिल पाती हैं।
प्रश्न 27. स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं?
उत्तर―शिक्षा की कोई व्यवस्था केवल तभी बेहतर हो सकती है, जब शिक्षक अच्छे
हो । विद्यालय के बुनियादी ढांचे में सुधार व शिक्षक छात्र अनुपात जैसे सुझाव तो महत्वपूर्ण
हैं हो । शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए शिक्षकों की क्षमताओं का विकास करना बहुत
जरूरी है। अध्ययन के दौरान मिले साक्ष्यों से यह बात स्पष्ट हुई है कि शिक्षकों को सहयोग
मिलने से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होता है, उनको सहयोग न मिलने की स्थिति में शिक्षा
की गुणवत्ता में गिरावट होती है। अच्छे शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने और बच्चों
को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलाने के लिए चार सूत्रीय कार्यक्रम पेश करती है।
(क) अच्छे शिक्षकों का चयन बच्चों की विविधता को ध्यान में रखते हुए किया जाये।
(ख) शिक्षकों को शुरूआती कक्षाओं से कमजोर बच्चों की मदद करने के लिए
प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
(ग) देश के ज्यादा चुनौती वाले हिस्सों में सबसे अच्छे अध्यापकों की नियुक्ति की जानी
चाहिए ताकि असमानता को कम किया जा सके।
(घ) सरकार को शिक्षकों को पेशे में बने रहने लायक प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि
किसी भी परिस्थिति में यह सुनिश्चित किया जा सके कि सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल
सके।
      लेकिन यह जिम्मेदारी अकेले शिक्षकों पर नहीं डाली जा सकती है। शिक्षकों को काम
करने के लिए अच्छे तरीके से निर्मित पाठ्यक्रम और मूल्यांकन पर ध्यान देने की जरूरत
है। इसके साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र को होने वाली फंडिग में कमी भी एक मुद्दा है । सरकार
शिक्षकों के प्रशिक्षणों पर कागजों में तो काफी काम दिखा रही है, बजट भी खर्च हो रहा
है, लेकिन शिक्षक प्रशिक्षणों से किसी लाभ की बात से इनकार करते हैं। शिक्षक प्रशिक्षण
कार्यक्रम को औपचारिकता के रूप में देखते हैं। इस मानसिकता में बदलाव के लिए भी
प्रयास करने की जरूरत है। अत: शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के पाठ्यक्रम एवं व्यवस्था
को भी वर्तमान शिक्षा संदर्भ की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हए तैयार करने की
आवश्यकता है। बच्चों को उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करने के लिए यह जरूरी है कि
शिक्षण पेशे में सर्वश्रेष्ठ और सबसे तीव्र बुद्धि व्यक्तियों को आकर्षित किया जाए । इस पेशे
में प्रवेश करने के लिए उच्च मानक होने चाहिए और साथ ही उनकी क्षमताओं को विकास
करने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान भी होने चाहिए । अध्यापन को व्यावसायिक बनाना
बहुत जरूरी है। जैसे हमारे शिक्षकों को विभिन्न करियर पथ और विकास के लिए मार्ग
उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
प्रश्न 28. भारतीय संविधान के संदर्भ में राज्य, लोकतंत्र और शिक्षा के प्रावधानों
का वर्णन करें।
                                              अथवा,
भारतीय संविधान के संदर्भ में शिक्षा में विभिन्न लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए
किए हुए संवैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था का उल्लेख करें जो बच्चे की शिक्षा तथा
उसकी स्थितियों को प्रभावित करते हैं।
उत्तर― शिक्षा ही व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करती है, इसलिए हमारे संविधान में कई
ऐसे प्रावधान हैं जो सभी जाति और धर्म के व्यक्तियों को समानता का अधिकार देते हैं जिससे
उसका विकास उचित दिशा में हो सके । संविधान के अनुच्छेद 28 में तीन प्रकार की शिक्षण
संस्थाओं का उल्लेख किया गया है-एक-वे शिक्षण संस्थाएँ, जिनकी देख-रेख पूर्णतया
सरकार द्वारा होती है। इन संस्थाओं में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
हां नैतिक शिक्षा जिसका किसी धर्म विशेष से संबंध न हो, दी जा सकती है।
          शिक्षा से तात्पर्य विद्यालय के अंदर या बाहर मिलने वाले वे सारे अनुभव हैं जो कि
व्यक्ति को किसी भी प्रकार से उसके पूरे जीवन काल में उसे प्रभावित करते हैं। यह
व्यक्तित्व के विकास की एक प्रक्रिया है जिससे चरित्र का निर्माण होता है। इस प्रकार शिक्षा
समूचे जीवन चलने वाली चेतन और अचेतन दोनों प्रक्रिया है जिसे समय, स्थान या व्यक्ति
की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है। महात्मा गाँधी के अनुसार शिक्षा से तात्पर्य
बालक-बालिका के अंदर से क्षमताओं को बाहर निकाल कर उसके शरीर, आत्मा एवं
मस्तिष्क का विकास करना है। आमतौर पर हम विद्यालय में बच्चों को दिए जाने वाले
अनुदेशन या किसी भी तरह के ज्ञान को शिक्षा समझते हैं, लेकिन वास्तव में शिक्षा वही है,
जो व्यक्तित्व का विकास करे और व्यक्ति को इस योग्य बनाए कि वह अपने चरित्र का
निर्माण कुशल ढंग से कर सके और विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को विचलित न होने दे।
        शिक्षा से ही व्यक्ति न केवल अपनी आदतों और व्यवहार में परिवर्तन लाकर स्वयं को
समाज में अनुकूलित करने का प्रयास करता है बल्कि विपरीत स्थितियों में भी धैर्य बनाए
रख सकता है ताकि उसकी क्षमता जीवन की समस्याओं से लड़ पाने में उसकी सहायता
कर सके । शिक्षा समाज में व्याप्त आधारहीन आस्थाओं, अर्थहीन परंपराओं और सैकड़ों
सामाजिक कुरीतियों को दूर करती है और एक नई सोच का विकास करती है। इससे
व्यावसायिक अनुभव भी व्यक्तियों को प्राप्त होते हैं, जिसका जीवन में उपयोग कर व्यक्ति
अपनी आजीविका के अनेक साधन जुटाता है। शिक्षा ही व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करती
है, इसलिए हमारे संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं जो सभी जाति और धर्म के व्यक्तियों
को समानता का अधिकार देते हैं जिससे उसका विकास उचित दिशा में हो सके । संविधान
के अनुच्छेद 28 में तीन प्रकार की शिक्षण संस्थाओं का उल्लेख किया गया है―एक-वे
शिक्षण संस्थाएँ, जिनकी देख-रेख पूर्णतया सरकार द्वारा होती है। इन संस्थाओं में किसी भी
प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। हां, नैतिक शिक्षा, जिसका किसी धर्म विशेष से
संबंध न हो, दी जा सकती है। इस अनुच्छेद के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने तौर पर
किसी धार्मिक पूजा पाठ में भाग ले सकता है, लेकिन उसके लिए इसे बाध्य नहीं किया जा
सकता । दो-ट्रस्ट द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थाएँ, जिनका प्रशासन सरकार के हाथ में होता
है, इन संस्थाओं में अगर प्रबंध समिति चाहे तो धार्मिक शिक्षा प्रदान कर सकती है, लेकिन
उसे हर संप्रदाय के लिए अलग धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ेगी । हिंदू बच्चों को
कुरान पढ़ने के लिए या मुस्लिम बच्चों को गीता पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
तीन-वे संस्थाएं, जो सरकार से केवल आर्थिक सहायता लेती हैं, लेकिन प्रशासन सरकार के
हाथ में नहीं होता । इन संस्थाओं में भी बिना किसी की इच्छा के किसी भी व्यक्ति को किस
भी धार्मिक सभा में भाग लेने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता । संविधान के अनुच्छेद
29 में भी कुछ इस तरह के प्रावधान हैं, जिनसे समानता और स्वतंत्रता को बल मिलता है,
जैसे यह अनुच्छेद अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति की रक्षा करने का पूरा
अधिकार देता है। इसलिए वह अपने अलग संगठन बना सकते हैं और अपनी स्वयं की
धार्मिक शिक्षण संस्थाएं स्थापित कर सकते हैं। साथ ही धार्मिक और भाषायी आधार पर
कार्यक्रमों का आयोजन भी कर सकते हैं । उच्चत्तम न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि
अल्पसंख्यक अपनी भाषा या लिपि की रक्षा के लिए आंदोलन भी चला सकते हैं । अगर
उनकी भाषा या संस्कृति को किसी प्रकार का खतरा हो । संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के
तहत भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों को यह अधिकार दिया गया है कि वे अपनी संस्कृति
और भाषा की रक्षा के लिए अपनी स्वयं की शिक्षा संस्था स्थापित करके उसे चला सकते
हैं। संविधान का अनुच्छेद 41 कहता है कि राज्य अपनी आर्थिक क्षमता की सीमा में रहते
हुए अपने नागरिकों के लिए कार्यात्मक शिक्षा और सरकारी सहायता पाने के अधिकार को
सुनिश्चित करेगा । विशेष रूप से बेरोजगारी, बुढ़ापा, बीमारी या अपंगता की स्थिति में।
      शिक्षा के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21,41 और 45 को संशोधित करके अब
मौलिक अधिकारों में शामिल कर दिया गया है। नए कनूनों के मुताबिक आरक्षण की
सुविधाओं के अलावा भारत के कई राज्यों में निशुल्क पुस्तकें, कापियां, बैग, यूनिफार्म आदि
प्रदान किए जा रहे हैं। स्नातक तक अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों को शिक्षा के
लिए कोई फीस नहीं देनी होती है और व्यावसायिक शिक्षा के लिए अगर वे कुछ शुल्क फीस
के रूप में चुकाते भी हैं तो उन्हें बाद में छात्रवृत्ति के रूप में वापस कर दी जाती है।
सर्वशिक्षा अभियान भारत सरकार ने 2000-2001 में आरंभ की, जिसका मकसद है
कि चौदह साल तक के सभी बच्चों को निशुल्क और मुफ्त शिक्षा देना, ताकि देश का कोई
भी बच्चा अशिक्षित न रहे । इसे पूरा करने का दायित्व राज्यों पर डाला गया। इसके द्वारा
पहली बार बच्चों को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया गया है जिसे राज्य द्वारा
परिवार और समुदायों की सहायता से किया जाएगा।
           संविधान का अनुच्छेद 46 प्रावधान करता है कि राज्य समाज के कमजोर वर्गों में
शैक्षणिक और आर्थिक हितों विशेषतः अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का
विशेष ध्यान रखेगा और उन्हें सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित
रखेगा । शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान अनुच्छेद 15(4) में किया गया है जबकि
पदों एवं सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 16(4), 16(4क) और
16(4ख) में किया गया है।
प्रश्न 29. विद्यालयों के नाम, व्यवस्था तथा भवन संरचनाओं के नीतिगत संदर्भों
की व्याख्या करें।
                                                  अथवा,
किसी विद्यालय के नाम उसकी व्यवस्था तथा भवन संरचनाओं पर शिक्षा
नीतियों का क्या प्रभाव पड़ता है वर्णन करें?
                                                  अथवा,
समकालीन भारतीय शिक्षा की व्यापक समझ के लिए उन नीतियों की पड़ताल
करें जो शैक्षिक बदलाव की पृष्ठभूमि में रहे हैं तथा जिनका प्रभाव प्रारंभिक
विद्यालयों के विभिन्न घटकों पर पड़ा है। जैसे—विद्यालयों के नाम, व्यवस्था और
भवन संरचना।
उत्तर―’विद्यालय’ शब्द उस संस्था को दिया गया नाम है जिसे समाज में सीखने-सिखाने
कार एक महत्वपूर्ण औपचारिक केन्द्र माना जाता है। विद्यालय का हमारे जीवन पर प्रभाव
विद्यालय से शिक्षा संपन्न कर लेने के साथ खत्म नहीं हो जाता बल्कि यह प्रभाव आजीवन
देखने को मिलता है। शिक्षा के केन्द्र अथवा एक संस्था के रूप में विद्यालय अचानक ही
अस्तित्व में नहीं आ गया है बल्कि उसका अपने विकास का एक इतिहास है और इस इतिहास
में शिक्षा नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा नीतियों द्वारा विद्यालय के विभिन्न घटकों
की के नीतिगत संदर्भो की पड़ताल हम निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं―
             (क) विद्यालय के नाम एवं स्वरूप के नीतिगत संदर्भ―यदि हम अपने शैक्षिक
इतिहास को देखें तो पाएंगे कि समय-समय पर कई ऐसी शिक्षा नीतियों को बनाया गया
जिनके कारण विद्यालय के नाम में बुनियादी बदलाव हुए । उन नीतियों का विश्लेषण करें
तो निम्नलिखित तीन तरह के प्रावधानों को चिह्नित किया जा सकता है जिसके कारण कई
तरह के नामवाले विद्यालयों की स्थापना हुई या फिर पुराने विद्यालयों के नाम में कुछ परिवर्तन
हुआ:
● विद्यालय के स्वामित्व से संबंधित नीतियों के प्रावधान
● विद्यालय के प्रकार से संबंधित नीतियों के प्रावधान
● विद्यालय के स्वरूप से संबंधित नीतियों के प्रावधान
उदाहरण―
       राजकीय कन्या मध्य विद्यालय जहाँ ‘राजकीय’ स्वामित्व को ‘कन्या’ और ‘मध्य’ प्रकार
एवं स्वरूप को दर्शा रहा है।
     विद्यालय के नाम को विश्लेषित करने का एक महत्वपूर्ण आधार यह हो सकता है कि
विद्यालय का स्वामित्व किसके पास है। इसी के आधार पर हम अक्सर किसी विद्यालय के
नाम के साथ-साथ ‘सरकारी’ अथवा ‘निजी’ विद्यालय वाली पहचान को भी जोड़कर देखते
हैं।
      विद्यालयों के बनने तथा उनके नामों को निर्धारित करने के पीछे शिक्षा नीतियों की प्रमुख
भूमिका रही है। उदाहरण के लिए ‘नवोदय विद्यालय’ की स्थापना का श्रेय राष्ट्रीय शिक्षा नीति
1986 को जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 ने ऐसे विशेष प्रतिभा गा अभिरूचि वाले
बालक-बालिकाओं को जो आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों से आते हैं, ध्यान में रखकर देश
के विभिन्न भागों में गति-निर्धारक (पेस सेटिंग) विद्यालयों के स्थापना की अनुशंसा की।
प्रधानमंत्री द्वारा 2007 के स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में की गई घोषणा के अनुपालन
में मॉडल स्कूल योजना का प्रारंभ नवम्बर, 2008 में किया गया था। योजना का उद्देश्य एक
स्कूल प्रति ब्लाक की दर से ब्लाक स्तर पर उत्कृष्टता के बैंचमार्क के रूप में 6000 मॉडल
स्कूलों की स्थापना के माध्यम से प्रतिभावान―
            ग्रामीण बच्चों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराना है। उन नीतियों के कारण
विद्यालयों में ही एक गैर बराबरी का बहुपरतीय व्यवस्था बन गई। इन विद्यालयों के बनाने
के पीछे कुछ कल्याणकारी उद्देश्य थे तो कुछ व्यवस्थामूलक, जिनकी ओट में सामाजिक
असमानता का भाव भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। बिहार में भी कल्याण की अवधारणा पर
आधारित कई विद्यालय खोले गए।
      ऐसे कुछ उदाहरणों द्वारा हम समझ सकते हैं कि किसी विद्यालय का नाम तथा उसकी
स्थापना से लेकर वर्तमान समय तक उसके नाम एवं स्वरूप में किया गया परिवर्तन, अपने
आप में देश की शिक्षा नीति के विकास क्रम का संकेत है। विद्यालय के नाम का हरेक शब्द
किसी न किसी नीतिगत या ऐतिहासिक परिवर्तन की ओर इशारा करते हैं।
(ख) विद्यालय की व्यवस्था के नीतिगत संदर्भ―विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था का स्तर
शिक्षा की निरंतरता को प्रदर्शित करता है और दो स्तरीय शिक्षा के बीच के अंतर को भी।
उदाहरण के लिए इस विहार में शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न स्तर निम्नलिखित है―
प्राथमिक स्तर― कक्षा 1 से 5
प्रारंभिक स्तर― कक्षा 1 से 8
उच्च प्राथमिक स्तर― कक्षा 6 से 8
माध्यमिक स्तर― कक्षा 9 से 10
उच्च माध्यमिक स्तर― कक्षा 11 से 12
      इसके अलावा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 के मॉडल को भी समझना आवश्यक है,
जिसके अनुसार 1023 के मॉडल यानि 10 वर्ष तक की प्राथमिक अवस्था की सामान्य शिक्षा,
फिर 2 साल की विशेष शिक्षा (व्यवसायिक पाठ्यक्रम भी) और फिर 3 वर्षीय विश्वविद्यालय
शिक्षा की व्यवस्था की नीति बनाई गई। आगे शिक्षा आयोग 1964-66 ने भी स्कूली व्यवस्था
कि एक लचीली शैक्षिक संरचना की कल्पना की जिसमें निम्नलिखित बिंदुओं का समावेश
किया गया―
● 1 वर्ष से 3 वर्ष तक की पूर्व स्कूली अवस्था
● 7से 8 वर्ष तक की प्राथमिक अवस्था जिसके दो उप भाग हों । प्रथम 4 वर्ष से
5 वर्ष की अवर प्राथमिक अवस्था, द्वितीय 3 वर्ष की उच्चतर प्राथमिक अवस्था ।
● अवर माध्यमिक अथवा हाई स्कूल अवस्था जिसमें 2 या 3 वर्ष के सामान्य शिक्षा
हो अथवा 1 से 3 वर्ष की व्यवसायिक शिक्षा हो ।
● उच्चतर माध्यमिक अवस्था जिसमें 2 वर्ष की सामान्य शिक्षा हो अथवा 1 से 3
वर्ष की व्यवसायिक शिक्षा हो।
● उच्चतर शिक्षा की अवस्था जिसमें 3 या उससे अधिक वर्षों की प्रथम डिग्री
पाठ्यक्रम हो तथा जिसके उपरांत द्वितीय डिग्री अथवा शोध डिग्रियों के पाठ्यक्रम
हो जिनकी विभिन्न अवधियाँ हो ।
इससे विद्यालयी व्यवस्था के एक सार्वभौमिक स्वरूप को गढ़ने और नीतियां बनाने में
कई दिक्कतें आती थी। इस संदर्भ में शिक्षा आयोग ने अलग-अलग नाम से चलने वाले
विभिन्न स्तरों के विद्यालयों के लिए कुछ सामान नाम वाली व्यवस्था की।
● पूर्व प्राथमिक
● प्राथमिक (कक्षा 1 से 7 या 1 से 8) जिसमें अवर प्राथमिक कक्षा 1 से 4 या 1
से 5, उच्चतर प्राथमिक कक्षा 5 से 8 या 6 से 8
● माध्यमिक (कक्षा 8 से 12 या 9 से 12) जिसमें अवर माध्यमिक कक्षा 8 से 10
या 9 से 10, उच्चतर माध्यमिक कक्षा 11 से 12
इन शिक्षा नीतियों के अंशों के माध्यम से विद्यालयी व्यवस्था के विषय में अनुमान
लगाया जा सकता है।
(ग) विद्यालय भवन की संरचनाओं के नीतिगत संदर्भ―विद्यालय भवन की
संरचना से तात्पर्य है विद्यालय की भौतिक संरचना के सभी तत्व, जैसे― विद्यालय की भूमि,
इमारत, कमरे, शौचालय, खेल परिसर इत्यादि । विद्यालय का भवन स्वयं में शिक्षा नीतियों
के कारण विद्यालय के विकास की कहानी समेटे रहता है। विद्यालय भवन के बदलते स्वरूप,
जनमें अपलब्ध होने वाली भौतिक सुविधाएँ और उनके स्वामित्व में होने वाले परिवर्तन शिक्षा
चीतियों और सामाजिक बदलाव से प्रभावित होते हैं।
      बदलती नीतियों के साथ-साथ विद्यालय भवन से संबंधित अपेक्षित मापदंडों में भी कई
बदलाव आए हैं। उदाहरण के लिए समान स्कूल प्रणाली 2007 की रिपोर्ट में प्राथमिक
विद्यालयों के पतनों के संदर्भ में कुछ मापदंड निर्धारित किए गए हैं जिनके अनुसार प्रत्येक
प्राथमिक विद्यालय के वर्ग कशा वाला जिसमें प्रत्येक कक्ष 40 वर्ग मीटर का हो, बरामदा 50
वर्ग मीटर का, कर्मचारी का 50 वर्ग मीटर, संसाधन कक्ष 10 वर्ग मीटर, प्रसाधन कक्ष 5
वर्ग मीटर तथा रसोई गैस एवं अन्य 100 वर्ग मीटर अर्थात कुल मिलाकर 415 वर्ग मीटर
में होना चाहिए। इससे पहले राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के सुझाए गए प्रावधानों के आलोक
में कच्चे भवन वाले विद्यालयों को दो कमरे वाले पक्के भवन के रूप में निर्मित किया जाने
लगा था। विद्यालयों में शौचालयों की व्यवस्था पर भी ध्यान देना शुरू हुआ था।
         इसके अलावा निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिनियम 2009 तथा राष्ट्रीय
पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 ने भी आज की अपेक्षाओं के अनुसार विद्यालय की अवसंरचना
में परिवर्तनों की जरूरत पर जोर दिया। शिक्षा को हर बच्चे का अधिकार बन जाने के कारण
अब सभी बच्चों के लिए संसाधन पूर्ण विद्यालय मुहैया कराना अनिवार्य हो गया । इसलिए
सरकार ने विद्यालयों की संख्या को बढ़ाने तथा कई विद्यालयों को उत्क्रमित करने पर जोर
दिया । निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिनियम 2009 के अनुसार कक्षा 1 से कक्षा
5 के बालकों के संबंध में विद्यालय आसपास की 1 किलोमीटर के दायरे की पैदल दूरी के
भीतर स्थापित किया जाए तथा कक्षा आठ से कक्षा 6 के बालकों के संबंध में विद्यालय
आसपास की 3 किलोमीटर की पैदल दूरी के भीतर स्थापित किया जाए । विद्यालय निर्माण
की योजना, उनकी स्थिति और ढांचागत अपेक्षाओं से संबंध कई पूर्ववर्ती प्रावधानों को पुनः
निर्धारित किया गया। विद्यालयों में सीढ़ियों के साथ रैंप का निर्माण आवश्यक हो गया।
विद्यालयों के दरवाजों को चौड़ा किया गया था कि निःशक्त बच्चे अपनी साइकिल लेकर
कक्षा तक पहुँच सकें। शौचालय छोटे और हैंडल युक्त होना जरूरी हो गए । मध्याह्न भोजन
योजना के कारण स्कूल परिसर में किचन शेड भी दिखाई पड़ने लगे। इस अधिनियम में
स्कूलों को हर मौसम के अनुकूल बनाने का निर्देश तय कर दिया । वर्गवार कमरे और
प्रधानाध्यापक कक्ष का अस्तित्व आवश्यक कर दिया गया जिससे विद्यालय भवन में परिवर्तन
दिखने लगे।
        राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 दस्तावेज नए स्वच्छ और सुरक्षा मानकों को लेकर
विद्यालय भवन के साथ समझौता नहीं करने की बात कही। इसमें कहा गया कि ढांचागत
सुविधा में खेल के मैदान से समझौता नहीं हो । कक्षा-कक्ष में पर्याप्त प्राकृतिक रौशनी हो ।
इसने कक्षा के भौतिक स्थान को सीखने के माध्यम के रूप में परिवर्तित करने का बल दिया।
विद्यालय भवन का कितना सृजनात्मक उपयोग हो सकता है, इसको बढ़ावा देने के लिए
विद्यालय भवन के पारंपरिक ढांचे में बदलाव लाने की अपेक्षा की गई। समावेशी शिक्षा और
आपदा प्रबंधन के दृष्टिकोण से भी विद्यालय भवन में अपेक्षित बदलाव लाने पर जोर दिया
गया। आज के संदर्भ में सरकारी विद्यालयों के निर्माण में योजना से प्राप्त अनुदान राशि के
अलावा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से प्राप्त राशियों को भी लगाया जा रहा है। उन राशियों से
राज्य की शिक्षा व्यवस्था में कई बदलाव भी आ रहे हैं।
प्रश्न 30. बिहार के विशेष सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि में
विद्यालय के परिवर्तनकारी चरित्र को समझना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर―हमारे विद्यालयों में विविध पृष्ठभूमि से बच्चे आते हैं और वे अपने परिवार,
समाज और परिवेश से जुड़े अनुभव व ज्ञान को भी साथ लेकर आते हैं। हमारी शिक्षा
व्यवस्था के सामने यह चुनौती बन जाती है कि वह इस अनुपम मानवीय संपदा का उपयोग
एवं मार्गदर्शन किस प्रकार करती है ? और विभिन्न समुदाय के बच्चों को कक्षा में
सम्मानजनक स्थान किस हद तक दे पाती है ? हमारे समाज में केवल विविधता ही नहीं,
बल्कि अनेक क्षेत्रों में असमानता, शोषण और भेदभाव व्याप्त है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था
इसे बदलने में मददगार हो सकती है? हमारे शिक्षकों को सामाजिक बदलाव में अपनी
भूमिका अदा करनी है तो उन्हें वर्तमान में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, संस्कृति को समझना
ही होगा । हमारा संविधान, जो राष्ट्र की दिशा निर्धारित करता है, उसमें निहित आदर्श हमें
सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरित करते हैं और हमारे शासन तंत्र को इसके लिए निर्देशित
करते हैं, एक शिक्षक के लिए इन आदर्शों व उद्देश्यों को समझना बहुत आवश्यक होगा।
हमारे बिहार के विद्यालयों में ऐसे शिक्षकों एवं शिक्षिकाओं की जरूरत है जिसके लिए
शिक्षण वृत्ति एक स्वाभाविक प्रतिबद्धता हो और जो शिक्षण को एक आनन्ददायी कार्य मानते
हों। उन्हें पढ़ाये जाने वाले विषय व पढ़ाने के कौशल तो अच्छी तरह से आते ही हों, साथ
ही वह उन बच्चों को भी बेहतर तरीके से जानते व समझते हों जिन्हें वे पढ़ा रहे हैं। अतः
विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि, खासकर उपेक्षित वर्ग से आने वाले
बच्चों के प्रति विद्यालय के शिक्षकों में सजगता एवं संवेदनशीलता होना सबसे जरूरी है,
जिसके बिना उन बच्चों को विद्यालयी शिक्षा की प्रक्रिया में शामिल कर पाना असम्भव है।
साथ ही एक शिक्षक या शिक्षिका में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लगाव उसे सीखने-सिखाने
की प्रक्रिया को रोचक व सहज बनाने में सहायी होता है। बिहार जैसे बहुलातावादी समाज
में बेहतर शिक्षा तभी संभव हो सकती है जबकि हम ‘समता’ व ‘बहुलता’ की समझ को
अपनी शिक्षा प्रक्रिया के केन्द्र में रखें।
         अत: शिक्षकों के लिए बिहार के विशेष सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि
व विद्यालय में हो रहे परिवर्तन व उसके परिवर्तनकारी चरित्र को समझना आवश्यक है जिससे
प्रशिक्षित शिक्षक अपनी नयी भूमिका में बच्चों को उन स्थितियों को आलोचनात्मक तरीके
से समझने में मदद करेंगे जिनमें वे रहते हैं। बच्चे विभिन्न माध्यमों (पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम,
पाठ्यपुस्तक, शिक्षक, परिवेष आदि) से दिये जाने वाले ‘ज्ञान’ को मात्र स्वीकार न करें बल्कि
उनपर प्रश्नचिह्न भी लगा सके। ऐसी आदर्श शैक्षिक स्थिति का निर्माण एक सक्षम शिक्षक
या शिक्षिका के माध्यम से ही हो सकता है।
प्रश्न 31.राज्य की कल्याणकारी चरित्र के साथ-साथ उपजी वैसी राजनीतिक
स्थितियों का उल्लेख करें जिसके कारण शिक्षा की स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव
पड़ा है?
                                                अथवा,
राजनीतिक परिस्थितियों (हस्तक्षेप) के कारण शिक्षा की स्थिति पर क्या प्रभाव
पड़ा है ? उल्लेख करें।
                                                  अथवा,
शिक्षा की गुणवत्ता के गिरते स्तर के लिए कौन-कौन से कारक जिम्मेदार है ?
उल्लेख करें।
उत्तर― भारत में शिक्षा का अधिकार कानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया।
इसके तहत 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का प्रावधान
किया गया है। आज हम इस लक्ष्य की प्राप्ति के काफी करीब हैं परंतु शिक्षा की गुणवत्ता
पहले के मुकाबले कम हुई है। शिक्षा की स्थिति खराब होने का एक कारण शिक्षा में बहुत
गहरे तक घुसी हुई राजनीति भी है। कभी आठवीं तक फेल नहीं करने की नीति लागू होती
है तो कभी उसे हटा दिया जाता है, ऐसे ही निर्णय पाठ्यक्रम को लेकर लागू किये जाते हैं।
शिक्षा से संबंधित बड़े फैसलों में शिक्षकों के विचारों को जगह देनी चाहिए । यहाँ शिक्षकों
का मतलब शिक्षकों की राजनीति से जुड़ी इकाइयां बिल्कुल नहीं है, शिक्षा की गिरती स्थिति
के और भी कई राजनीतिक कारण गिनाए जा सकते हैं जैसे―
       सरकारी स्कूलों की लगातार गिर रही साख एक गंभीर चिन्ता का विषय है।
भूमंडलीकरण के दौर में शिक्षा के नवीन एवं लीक से हटकर प्रयोग हो रहे हैं, ऐसे चुनौतीपूर्ण
समय में भारत में सरकारी स्कूलों का भविष्य क्या होगा? यह एक अहम् सवाल है । लेकिन
प्रश्न जितने बड़े हैं, समस्या जितनी गंभीर है, उसे देखते हुए व्यापक एवं लगातार प्रयत्नों
की अपेक्षा है।
● मानव संसाधन मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों से कहा है कि शिक्षकों को जनगणना,
चुनाव या आपदा राहत कार्यों को छोड़कर अन्य किसी भी ड्यूटी पर न लगाया जाए।
सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 में संशोधन करते हुए शिक्षकों की
ट्रेनिंग अवधि मार्च 2019 तक बढ़ा दी । 2010 में यह कानून लागू हुआ था तो देश
भर में करीब साढ़े चौदह लाख शिक्षकों की भर्ती की गई थी। इनमें बहतों के पास
न तो बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई डिग्री थी, न प्रशिक्षण । इनकी ट्रेनिंग का काम
31 मार्च 2015 तक पूरा होना था, जो नहीं हो पाया तो अब अधिनियम में संशोधन
करना पड़ा।
● 14 साल तक के सभी बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा मिले इसके लिए इस संशोधन
का स्वागत होना चाहिए, लेकिन सरकारी स्कूलों की बीमार हालत को देखते हुए ऐसे
फैसलों को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हुआ जा सकता । क्योंकि बहुत से सरकारी स्कूल
ऐसे हैं जहाँ पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। एक या दो शिक्षकों के ऊपर 100 से ज्यादा बच्चों
को पढ़ाने की जिम्मेदारी है। वर्तमान में सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की बात हो रही
है, लेकिन लंबे-लंबे प्रशिक्षण सत्रों के बीच सतत् पढ़ाई के सिलसिले की सांस उखड़
रही है, शिक्षक करीब एक महीने तक विभिन्न ट्रेनिंग सत्रों का हिस्सा होने के कारण
स्कूल से बाहर होते हैं। शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कामों में लगाने और शिक्षा के गिरते
हुए स्तर के लिए उनको ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिशें साथ-साथ जारी हैं । इन
स्थितियों में बदलाव की आवश्यकता है।
● सबसे अहम सवाल है कि सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम
बनाना होगा । इसके लिये साधनों के साथ-साथ सोच को विकसित करना होगा । कोरा
शिक्षकों को प्रशिक्षित करने से क्या फायदा यदि इन स्कूलों में बच्चे ही नहीं आते हों।
दोहरी शिक्षा व्यवस्था ने अभिभावकों के मन में यह बात बिठा दी है कि बच्चे को पढ़ाना
है तो उसे इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजा जाए । हालांकि ऐसे स्कूलों के लिए भी कोई
मानक नहीं है और इनमें ज्यादातर का हाल सरकारी स्कूलों जैसा ही है। जाहिर है,
समस्या सिर्फ शिक्षकों की ट्रेनिंग से नहीं जुड़ी है। समस्या है सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता
बढ़ाने की, उनको प्रतिष्ठित करने की। इस समस्या से उबरने के लिए नीति आयोग
के सीईओ अमिताभ कांत ने शिक्षा को प्राइवेट हाथों में सौंप देने का सुझाव दिया है,
लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। बल्कि उसके अपने खतरे हैं। प्राइवेट स्कूलों
की वकालत करने की बजाय सरकारी स्कूलों को प्राइवेट जैसा बनाने की आवश्यकता
है।
● पिछले कुछ सालों में सरकारी स्कूलों में जिस तेजी के साथ कागजी काम बढ़ रहा है,
उससे स्कूल एक ‘डेटा कलेक्शन एजेंसी’ के रूप में काम करते नजर आते हैं । अभी
बहुत से शिक्षकों का शिक्षण कार्य कराने वाला समय आँकड़े जुटाने में या गैर-शैक्षणिक
गतिविधियों में इस्तेमाल हो रहा है। स्कूलों का हाल ये है कि शिक्षक योजनाओं की
डायरी भर रहे हैं। बच्चे कक्षाओं में खाली बैठे हैं। उनके बस्ते बंद है। वे शिक्षकों
का इंतजार कर रहे हैं कि वे क्लासरूम में आएं और पढ़ाएं। उनको कोई काम दें।
उनको कुछ बताएं । पिछला पाठ जहाँ पर छूटा था, वहाँ से आगे पढ़ाएं । जबकि शिक्षक
व्यवस्था के आदेश की पालना करने में जुटे हैं।
प्रश्न 32. अभिवंचित तथा उपेक्षित वर्ग के लिए शिक्षा कैसी होनी चाहिए?
सरकार ने इनके लिए क्या प्रावधान किए हैं तथा इनके समक्ष कौन-कौन सी
चुनौतियाँ (मुद्दे) हैं?
उत्तर―विद्यालय अथवा कक्षा में कुछ बालक-बालिकायें ऐसे भी होते हैं जो इन
सामान्य बालकों से शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पर्याप्त भिन्नता
रखते हैं। ये बालक सुविधाओं के क्षेत्र में भी सामान्य बालकों से कम होते हैं (बोसियो-1
1956) तथा विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित सुविधाओं जैसे-आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक,
सामाजिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक रूप से वंचित रह जाते है। ऐसे बालकों में आदिवासी,
अल्पसंख्यक, मलिन बस्तियों में रहने वाले, वेश्याओं के बच्चे, बाल अपराधी, बाल श्रमिक,
सुविधाविहीन बच्चे आदि आते हैं। सुविधाओं के अभाव में उनका विकास सामान्य बालकों
की तुलना में कम होता है तथा उनके विकास में गतिरोध आ जाता है इस प्रकार क्षमता
रखने पर भी वे वातावरणात्मक सुविधाओं के अभाव में विकास नहीं कर पाते है तथा सामान्य
बालकों की तुलना में पिछड़ जाते हैं। अत: समाज का यह कर्तव्य है कि शिक्षा के माध्यम
से ऐसे बालकों को विकास के समान अवसर प्रदान करें क्योंकि किसी भी राष्ट्र के सामाजिक,
आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए शिक्षा एक शक्तिशाली माध्यम है। यदि शिक्षक
इस लक्ष्य को पूरा करना चाहता है तो उसे इस प्रकार नियोजित किया जाए कि समाज का
प्रत्येक व्यक्ति इस योग्य बन सके कि वह अपनी क्षमताओं, कुशलताओं और अभिवृत्तियों
का समुचित विकास कर सकें। सभी को समानता के आधार पर एक जैसी शिक्षा सुलभ
हो, जिससे समाज के सभी लोगों को अपनी क्षमता विकसित करने का पूरा अवसर मिल
सके।
        भारतीय संविधान के अन्तर्गत विभिन्न जाति समूहों अथवा वर्ग विशेष के लिए अनेक
ऐसे उपबन्धों का समावेश किया गया है, जो इन इस वर्णित जातियों के सामाजिक एवं शैक्षिक
उन्नति में सहायक है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4), 46,335,338,339,340,
341 तथा 342 में अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्ग के कल्याण के विशेष
प्रावधान किए गए हैं।
      एसएसए ने प्राथमिक शिक्षा तक पहुँच बढ़ाने के क्षेत्र में भारी प्रगति की है, अब स्कृल
न जाने वाले शेष 81 लाख बच्चों को स्कूलों में लाने, मिडिल स्कूली शिक्षा सुविधाओं को
बढ़ावा देने तथा पढ़ाई के परिणामों में और सुधार करने पर ध्यान दिया जा रहा है। इसके
अलावा, प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई बीच में छोड़ देने वालों की औसत दर पिछले कुछ वर्षों
से लगभग 9 प्रतिशत के आस-पास बनी हुई है। उपेक्षित समुदायों की स्कूल जाने वाली
पहली पीढ़ी और बच्चों को स्कूल में बनाए रखना आखिरी चुनौती बना हुआ है।
      संक्षेप में हम कह सकते हैं कि शिक्षा में समानता के लक्ष्य के रास्ते में दो प्रमुख कारक
बाधक हैं। पहले कारक में बाधाओं के क्रम में स्कूलों में नामांकन, ठहराव व अच्छा प्रदर्शन,
सांस्कृतिक पृथक्करण, लिंग विभेदीकरण, संवेगात्मक असुरक्षा और अन्य परिस्थितियाँ हैं।
दूसरे कारक में शैक्षिक व्यवस्था में अलचीलापन या विशेष रूप से बच्चों के आवश्यकताओं
के अनुकूलन में असक्षम होना, जिससे इन बाधाओं को दूर किया जा सके । अलाभान्वित
बच्चे जिन बाधाओं का सामना कर रहे हैं, उन्हें बाहर निकालने की मदद के लिए और कुछ
संरचनात्मक सुधार व शिक्षा व्यवस्था में नवाचार, जो अलाभान्वितों की शिक्षा की सुगमता
के लिए जरूरी है, प्रयास किये जाने चाहिए। हालांकि स्कूलों के सार्वभौमिकरण तथा अवसरों
की समानता की तरफ हुई वृद्धि धीमी और असन्तोषपूर्ण है। सरकार वंचित बच्चों व युवाओं
की शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने के लिए भरपूर प्रयास कर रही है परंतु वंचितों
की शैक्षिक स्थिति को उच्च बनाने के लिए संवेदनशील, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक
पर्यावरण की भी बहुत आवश्यकता है।
प्रश्न 33. समान विद्यालय व्यवस्था क्या है ? इसके प्रावधानों एवं स्वरूप पर प्रकाश डालें।
                                                अथवा,
सार्वजनिक शिक्षा जहाँ अभिवंचित वर्ग को तथा उपेक्षित वर्गों को प्रारंभिक
शिक्षा के लिए जिम्मेदार है, वहीं निजी शिक्षा को व्यापारीकरण से मुक्त होकर शिक्षा
के सार्वजनिकरण के उद्देश्य से समतामूलक पहुँच एवं भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु
एक मंच पर लेने की आवश्यकता है, इसे समान विद्यालय व्यवस्था के रूप में देखने
का प्रयास करें।
उत्तर―देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए देश में पड़ोसी
स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली की मांग होती रही है। इसका मतलब यह है कि
एक गाँव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीव, लड़के या लड़की, किसी भी जाति
या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे । इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी
सुविधाएंँ मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च
सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। सामान्यतः स्कूल सरकारी होगें, किन्तु फीस न लेने वाले
परोपकारी उद्देश्य से (न कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से) चलने वाले कुछ निजी स्कूल भी
इसका हिस्सा हो सकते हैं। जब बिना भेदभाव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब परिवारों के बच्चे
एक ही स्कूल में पढ़ेंगे तो अपने आप उन स्कूलों की उपेक्षा दूर होगी, उन पर सबका ध्यान
होगा और उनका स्तर ऊपर उठेगा। भारत के सारे बच्चों को शिक्षित करने का कोई दूसरा
उपाय नहीं है । दुनिया के मौजूदा विकसित देशों में कमोबेश इसी तरह की स्कूल व्यवस्था
रही है और इसी तरह से वे सबको शिक्षित बनाने का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं।
         कोठारी आयोग (1964-66) या राष्ट्रीय शिक्षा आयोग, भारत का ऐसा पहला शिक्षा
आयोग था जिसने अपनी रिपोर्ट में सामाजिक बदलावों को ध्यान में रखते हुए कुछ ठोस
सुझाव दिए जो निम्नलिखित हैं―
(क) आयोग में समान स्कूल प्रणाली (कामन स्कूल सिस्टम) की वकालत की और
कहा कि समान स्कूल प्रणाली पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार हो सकेगी जहाँ सभी
तबके के बच्चे एक साथ पढ़ेगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी
स्कूल से भागकर प्राइवेट स्कूलों का रुख करेंगे और पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी।
(ख) सामान्य पाठयक्रम के जरिए बालक-बालिकाओं को विज्ञान व गणित की शिक्षा
दी जाय। दरअसल सामान्य पाठयक्रम की अनुशंसा बालिकाओं को समान अवसर प्रदान
करती है।
(ग) 25 प्रतिशत माध्यमिक स्कूलों को ‘व्यावसायिक स्कूल में परिवर्तित कर दिया जाय।
(घ) सभी बच्चों को प्राइमरी कक्षाओं में मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाय।
(ड) माध्यमिक स्तर (सेकेण्डरी लेवेल) पर स्थानीय भाषाओं में शिक्षण को प्रोत्साहर
दिया जाय।
      24 जुलाई 1968 को भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई। यह पूर्ण
रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर आधारित थी।
      समान विद्यालय व्यवस्था को लागू करने में सार्वजनिक एवं निजी विद्यालयों की भूमिका
महत्वपूर्ण है। निजी विद्यालयों को उनका बुनियादी चरित्र बदले बिना तथा नई शिक्षण पद्धति,
छात्र शिक्षक अंतःक्रिया व छात्रों के बीच सामाजीकरण में उनके प्रयोगों की रोकथाम के बिना
समान स्कूल प्रणाली के दायरे में लाया जाए। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 21’क’
के प्रावधान के अनुरूप उन्हें 6 से 14 वर्ष के बच्चों को चाहे वे किसी भी शैक्षणिक, आर्थिक
व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के हों उन्हें अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान
किया गया है। वहीं प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण की आवश्यकता के महत्व को मानते
हुए ही अवरोध की समस्या को कम करने हेतु शैक्षिक वातावरण को पर्याप्त समुन्नत बनाने
एवं शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने पर बल दिया गया है। इन दोनों के तालमेल एवं एक
मंच पर लेने से ही समान विद्यालय व्यवस्था की अवधारणा को सफल तरीके से क्रियान्वित
किया जा सकता है।
प्रश्न 34. बच्चे और उनके शिक्षा के अधिकार के संवैधानिक प्रावधानों का
उनसे संबंधित विमों के परिप्रेक्ष्य में उल्लेख करें। यह बच्चे की शिक्षा तथा उसकी
स्थितियों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं ?
                                               अथवा,
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बच्चों की शिक्षा में विभिन्न लोकतांत्रिक मूल्यों
को लिए हुए संवैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था का उल्लेख करें जो उनकी शिक्षा
तथा उसकी स्थितियों को प्रभावित करते हैं।
उत्तर―भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बच्चों की शिक्षा के लिए कई प्रावधान किये
गए हैं जो किसी भी लोकतांत्रिक समाज में शिक्षा की स्थितियों बेहतर बनाते हैं और सभी
तक शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करते हैं । उनमें से कुछ का उल्लेख एवं उनसे संबंधित विमर्श
निम्नलिखित हक जो उनकी शिक्षा व उसकी स्थितियों को प्रभावित करते हैं―
(क) निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम―शिक्षा का अधिकार अब 6 से
14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए एक मौलिक अधिकार है । सरल शब्दों में इसका अर्थ
यह है कि सरकार प्रत्येक बच्चे को आठवीं कक्षा तक की निःशुल्क पढ़ाई के लिए उत्तरदायी
होगी, चाहे वह बालक हो अथवा बालिका अथवा किसी भी वर्ग का हो। इस प्रकार इस
कानून ने देश के बच्चों को मजबूत, साक्षर और अधिकार संपन्न बनाने का मार्ग तैयार कर
दिया है।
      इस अधिनियम में सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और अनिवार्य शिक्षा प्रदान का प्रावधान
है, जिससे ज्ञान, कौशल और मूल्यों से लैस करके उन्हें भारत का प्रबुद्ध नागरिक बनाया जा
सके । यदि विचार किया जाए तो आज देशभर में स्कूलों से वंचित करोड़ों बच्चों को शिक्षा
प्रदान करना सचमुच हमारे लिए एक दुष्कर कार्य है। इसलिए इस लक्ष्य को साकार करने
के लिए सभी हितधारकों माता-पिता, शिक्षक, स्कूलों, गैर-सरकारी संगठनों और कुल
मिलाकर समाज, राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार की ओर से एकजुट प्रयास का आह्वान
किया गया है।
        इस अधिनियम में इस बात का प्रावधान किया गया है कि पहुँच के भीतर वाला कोई
निकटवर्ती स्कूल किसी भी बच्चे को प्रवेश देने से इनकार नहीं करेगा । इसमें यह भी प्रावधान
शामिल है कि प्रत्येक 30 छात्र के लिए एक शिक्षक के अनुपात को कायम रखते हुए पर्याप्त
संख्या में सुयोग्य शिक्षक स्कूलों में मौजूद होना चाहिए । स्कूलों को पाँच वर्षों के भीतर अपने
सभी शिक्षकों को प्रशिक्षित करना होगा। उन्हें तीन वर्षों के भीतर समुचित सुविधाएँ भी
सुनिश्चित करनी होगी, जिससे खेल का मैदान, पुस्तकालय, पर्याप्त संख्या में अध्ययन कक्ष,
शौचालय, शारीरिक विकलांग बच्चों के लिए निर्बाध पहुँच तथा पेय जल सुविधाएँ शामिल
हैं। स्कूल प्रबंधन समितियों के 75 प्रतिशत सदस्य छात्रों की कार्यप्रणाली और अनुदानों के
इस्तेमाल की देखरेख करेंगे । स्कूल प्रबंधन समितियाँ अथवा स्थानीय अधिकारी स्कूल से
वंचित बच्चों की पहचान करेंगे और उन्हें समुचित प्रशिक्षण के बाद उनकी उम्र के अनुसार
समुचित कक्षाओं में प्रवेश दिलाएंगे । सम्मिलित विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अगले
वर्ष से निजी स्कूल भी सबसे निचली कक्षा में समाज के गरीब और हाशिये पर रहने वाले
वर्गों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करेंगे।
    इस अधिनियम का बच्चों के शिक्षा और उसकी मौजूदा स्थितियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा
है। स्कूलों में नामांकन बढ़ा है। बच्चों की उपस्थिति बेहतर हुई है । परंतु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
की प्राप्ति का लक्ष्य अभी भी प्राप्त करना शेष है, जिसमें कई बाधाएँ हैं। यह संविधान में
प्रतिष्ठापित मूल्यों के अनुरूप पाठ्यक्रम के विकास के लिए प्रावधान करता है और जो बच्चे
के समग्र विकास, बच्चे के ज्ञान, संभाव्यता और प्रतिभा निखारने तथा बच्चे की मित्रवत
प्रणाली एवं बच्चा केन्द्रित ज्ञान की प्रणाली के माध्यम से बच्चे को डर, चोट और चिंता
से मुक्त बनाने को सुनिंश्चित करेगा।
(ख) संविधान के अनुच्छेद 23 में बलात्श्रम, बेगार लेना, जबरदस्ती कार्य लेना, मानव
व्यापार को प्रतिबंधित कर दंडनीय अपराध बनाया गया है।
(ग) संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को
किसी कारखाने या खान में काम करने के लिये नियोजित नहीं किया जायेगा। किसी
परिसंकटमय नियोजन में नहीं रखा जायेगा।
(घ) संविधान के निति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 39-ई में पुरुष और स्त्री कर्मकारों
के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक
आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या
शक्ति के अनुकूल न हो।
(ड.) अनुच्छेद 39-एफ के अनुसार बालकों के स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में
स्वच्छ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जायें और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की
शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक, परित्याग से रक्षा की जाये।
(च) अनुच्छेद 45 के अनुसार राज्य 6 वर्ष के आयु के सभी बच्चों के पूर्व बाल्यकाल
के देखरेख और शिक्षा देने का प्रयास करेगा।
     भारत के संविधान में राज्य के नागरिकों पर भी कुछ मूल कर्तव्य आरोपित किये गये
हैं जिसके अनुच्छेद 51-एक के अनुसार 6 वर्ष की आयु से 14 वर्ष के आयु के बच्चों के
माता पिता और प्रतिपाल्य के संरक्षक जैसा मामला हो उन्हें शिक्षा का अवसर प्रदान करें।
    इन सभी संवैधानिक प्रावधानों को बच्चों की शिक्षा और उसकी स्थितियों पर सकारात्मक
प्रभाव पड़ा है। बच्चों एवं अभिभावकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है। वंचित समान
के अभिभावक भी अब बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर जोर देने लगे हैं। परंतु अभी भी
शत् प्रतिशत सार्वभौमिक एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने में कई बाधाएँ हैं
जिन्हें पार करना बाकी है।
प्रश्न 35. “समाज में नवाचार और विकास के लिए शिक्षा होनी चाहिए।” इस
कथन पर अपने विचार प्रस्तुत करें।
                                              अथवा,
समाज में नवाचार और विकास के लिए शिक्षा कैसी होनी चाहिए? वर्णन करें।
उत्तर― किसी उपयोगी कार्य के लिए किसी व्यक्ति या निकाय के द्वारा किया गया विचार
अथवा अभ्यास नवाचार कहलाता है। सभी कार्य ऐसे होते है जो पहले कहीं न कहीं किसी
न किसी के द्वारा पूर्व में किये जा चुके है परंतु अपने पूर्व में किये कार्य को यदि अपनी नई
रचनात्मक शैली प्रदान की है तो यही प्रयास नावचार बन जाता है। यदि हम अपने छात्रों
की उन्नति करनी है तो हमे छात्रों के नामांकन, उपस्थिति और ठहराव बढ़ाने के साथ-साथ
रोचक शिक्षण की पद्धतियों में परिवर्तन लाना ही होगा।
         समाज की बेहतरी और विकास के लिए, विद्यालयों में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया
प्रभावी रूप से सम्पन्न करने के लिए हमे नवाचार स्वीकारने की होंगे। आधुनिक युग में
व बच्चों के बहुमुखी, सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा पद्धति में नयापन व रोचक बनाने
के लिए नवाचार की आवश्यकता है तभी बच्चों का सकारात्मक विकास, नैतिक मूल्यों व
आदर्शों का विकास संभव है।
          वर्तमान शिक्षण विधियों और पढ़ाने के तौर-तरीकों में नवीनता का समावेश करके
शिक्षक, विद्यार्थियों का रुझान शिक्षा के प्रति बढ़ा सकते हैं। किताबी ज्ञान के अलावा छात्रों
के मानसिक, शारीरिक व आध्यात्मिक विकास करना भी शिक्षक का ही दायित्व है। छात्रों
को उनके लक्ष्य को हासिल करवाने के लिए परंपरागत तरीकों के अलावा ऐसे नए तरीके
भी खोजे जा सकते हैं जो छात्र-छात्राओं के अस्तित्व से छात्र-छात्राओं को अवगत करा सकें
या उनके अंदर जो हुनर, कौशल, प्रतिभा है उससे उनकी पहचान कराने में कारगर सिद्ध
हो सकें।
          बच्चा, शिक्षक के पाठ पढ़ाने की अपेक्षाकृत अपने अनुभव से अधिक सीखता है।
बच्चा तभी सीखेगा, उसमें रचनात्मकता तभी आएगी जब कक्षा में शिक्षक पाठ्य सहगामी
कार्य या संबंधित गतिविधियाँ अधिक करवाएंगे। विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप या
गतिविधियाँ होने से बच्चों की मानसिक, शारीरिक व सामाजिक रूप से सक्रियता बढ़ती है,
उनमें आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता के गुण पैदा होते हैं। विद्यालय में एक ऐसा वातावरण
होना चाहिए कि बच्चों को कक्षा में प्रवेश करते ही सक्रियता का एहसास हो तभी बच्चे
सक्रिय और सृजनशील होंगे। एक अच्छा शिक्षक वही होता है जो बाल मनोविज्ञान का
अच्छा ज्ञाता भी हो । शिक्षा में नवाचारी गतिविधियों के लिए मानवीय संसाधन जैसे शिक्षक
और विद्यार्थी, अन्य संसाधन ब्लैक बोर्ड, पुस्तकालय, चित्रकला कक्ष, संगीत कक्ष, विज्ञान
कक्ष, विभिन्न खेलों से सम्बंधित सामग्री, अलमारियां क्राफ्ट, और विज्ञान संबंधी सामग्री,
पेड़-पौधे, समय-समय पर होने वाली पाठ्यसहगामी गतिविधियाँ व शैक्षिक भ्रमण भी एक
आकर्षक नवाचार के दायरे में आता है।
      जाहिर सी बात है कुछ बदलाव करने के लिए, समाज की बेहतरी के लिए जो ठोस
कदम उठाए जाते हैं जो नवाचार प्रयोग में लाए जाते हैं शुरू में कठिन मेहनत तो करनी
ही पड़ती है, कुछ कठिनाइयों का सामना तो करना ही पड़ता है, पर्याप्त समय लगता है
परेशानियां भी होती है लेकिन इसका यह मतलब हरगिज नहीं की आधुनिक डिजिटल युग
को देखते हुए भी हम शिक्षक व शिक्षण पद्धति में नवाचार ना अपनाएं । आधुनिक युग में
परंपरागत सोच को, उन्हीं विचारों को अपनाते रहेंगे नवाचार को शामिल नहीं करेंगे तो यह
छात्रों के साथ ही नहीं बल्कि राष्ट्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा क्योंकि आज के छात्र
ही कल के राष्ट्र का भविष्य हैं अत:नवाचार को न अपनाना किसी भी सूरत-ए-हाल में
न्यायोचित नहीं है।
प्रश्न 36. समाज में समता, समानता, समावेशीकरण व सामाजिक न्याय की
अवधारणा, आवश्यकता एवं उन्हें हासिल करने में अवरोधों का वर्णन करें।
उत्तर―समता व समानता-समता लोकतंत्र रूपी दर्शन का एक मजबूत आधार स्तंभ
है जिसके अनुरूप राज्य का लक्ष्य समाज में व्याप्त सभी प्रकार की गैर बराबरी को समाप्त
करना है। गरीब और अमीर, शिक्षित और अशिक्षित, सुविधा संपन्न और सुविधा विहीन,
शक्ति संपन और शक्तिविहीन, उच्च वर्ग और निम्न वर्ग आदि सभी विभेद, बगैर बराबरी
की खामियों को पाट कर एक समतामूलक समाज की स्थापना, एक लोकतांत्रिक राज्य का
प्रधान लक्ष्य है। समता एक आदर्श व्यवस्था है, एक दर्शन है जिसकी प्राप्ति का साधन
समानता है। समानता, समता की स्थापना के भाव से किया गया व्यवहार है। समता माध्य
है और समानता साधन । एक लोकतांत्रिक राज्य में समानता का अर्थ है कि उसके सभी
नागरिक एक समान है। किसी भी नागरिक के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार ना हो । उसे समान
रूप से विकास के अवसर प्राप्त हो । धीरे-धीरे यह समझा और स्वीकार किया जाने लगा
कि समानता का मतलब यह होना चाहिए कि समाज में कोई भी इतना गरीब न हो कि उसके
पास बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन न हों और मानसिक तथा शारीरिक विकास
के लिए उसे प्राथमिक अवसर सुलभ न हों। रूसो के शब्दों में कहें तो ‘समानता’ से हमारा
मतलब यह नहीं होना चाहिए प्रत्येक व्यक्ति को बिल्कुल बराबरी की सत्ता और धन प्राप्त
होना चाहिए, बल्कि उसका मतलब यह होना चाहिए कि कोई भी नागरिक इतना धनवान
न हो कि वह दूसरों को खरीद ले और किसी भी नागरिक को इतना निर्धन न होना चाहिए
कि वह विकने के लिए मजबूर हो जाए।
         सामाजिक न्याय― एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय (social justice) की
बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है। इसके मुताबिक किसी
के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना
चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे ‘उत्तम जीवन’ की
अपनी संकल्पना को घरती पर उतार पाएँ । विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के
देशों में राजनीतिक सिद्धांत के दायरे में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा और उससे जुड़ी
अभिव्यक्तियों का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है।
          सामाजिक न्याय राज्य द्वारा बनाई जाने वाली नीतियों के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य
करता है। सामाजिक न्याय का संबंध सिर्फ किसी विधिक मामले में न्यायलय द्वारा दिए गए
निर्णय के आधार पर प्राप्त न्याय मात्र से नहीं है। यह उससे कहीं आगे एक व्यक्ति या
समुदाय चाहे वह हाशिए पर ही क्यों न जी रहा हो उसके मूलभूत अधिकारों के संरक्षण,
उसके मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तथा उसे सम्मान पूर्वक जीवन जीने की दशाओं को
विकसित करने से भी सामाजिक न्याय का संबंध है। सामाजिक न्याय संसाधनों पर सब के
हक को पोषित करता है तथा उन संसाधनों का सभी के लिए सदुपयोग कर सब के विकास
के लक्ष्य को प्राप्त करने का पक्षधर है।
            समावेशीकरण― समावेशीकरण किसी व्यवस्था की ऐसी प्रवृत्ति है जिसमें उसके
विकास की बयार से समाज का कोई भी वर्ग, समुदाय व व्यक्ति अछूता ना हो । इसमें विकास
की मुख्यधारा से सभी वर्गों, समुदायों व व्यक्तियों को जोड़े जाने की व्यवस्था की जाती है।
समावेशी करण लोकतंत्र का मूल चरित्र है। समावेशी करण का लक्ष्य है एक समतामूलक
समाज की स्थापना । समावेशीकरण में किसी समाज के हाशिए पर जी रहे अंतिम व्यक्ति
की बेहतरी भी शामिल होती है। समावेशीकरण का दायित्व सभी नागरिकों का विकास है―
चाहे वह शहर का हो या गाँव का, अमीर हो या गरीब, अगड़ा हो या पिछड़ा, शिक्षित हो
या अशिक्षित आस्तिक और नास्तिक सभी के प्रति समान भाव रखते हुए सभी की बेहतरी
के लिए निरंतर कार्य करना ही समावेशीकरण का उद्देश्य है।
         शिक्षा का समावेशीकरण यह बताता है कि विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति
के लिए एक सामान्य छात्र और एक अशक्त या विकलांग छात्र को समान शिक्षा प्राप्ति के
अवसर मिलने चाहिए। इसमें एक सामान्य छात्र एक अशक्त या विकलांग छात्र के साथ
विद्यालय में अधिकतर समय बिताता है।
इन सब की प्राप्ति में निम्नलिखित अवरोध है―
(क) वर्चस्ववादी ताकतें
(ख) सत्ता के विविध केंद्र
(ग) क्षेत्र, भाषा, जाति, वर्ग, लिंग संप्रदाय, रहन-सहन, खान-पान आदि तमाम
आधारों पर विभेदकारी ताकतों द्वारा समाज में पैदा की गई खाई।
(घ) गैर बराबरी को पोषित करने वाली कोई भी व्यवस्था
(ङ) अशिक्षा आदि।
प्रश्न 37. समाज में सत्ता, वर्चस्व तथा प्रतिरोध की अवधारणा, प्रकार, कारकों
तथा प्रभावों की समझ विकसित करें।
उत्तर―सत्ता–सत्ता को हम प्रायः शक्ति के अपरूप के रूप में जानते हैं, परंतु यह
शक्ति का विवर्त है । शक्ति को जब केंद्रीय बृहत रूप से कानूनी तौर पर अधिकार के साथ
जोड़ दिया जाता है तो उसे सत्ता का रूप मान लेना उचित होता है। कुछ विद्वानों की
परिभाषाओं को देखे तो―
पेटरसन―आदेश देने व उसके पालन की आज्ञा का अधिकार सत्ता कहा जाता है।
ऐलन-प्रायोजित कार्यों के क्रियान्वयन को संभव बनाने हेतु सौंपी गई शक्तियाँ एवं अधिकार
सत्ता कहलाते हैं।
डेनिस–सता निर्णय लेने एवं आदेश देने का अधिकार है।
सत्ता के प्रकार―
(क) लोकतंत्र― लोकतंत्र वैसी सरकार है जिसे जनता चुनती है। यह दो प्रकार की
होती है―पहला प्रत्यक्ष लोकतंत्र जिसमें जनता सीधे राष्ट्राध्यक्ष या सरकार का चयन कारती
है तथा दूसरा अप्रत्यक्ष लोकतंत्र जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है तथा
प्रतिनिधि मिलकर सरकार बनाते हैं व राष्ट्राध्यक्ष चुनते हैं।
(ख) गणराज्य–वैसी व्यवस्था जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है
तथा प्रतिनिधि मिलकर सरकार बनाते हैं व राष्ट्राध्यक्ष चुनते हैं । यह वस्तुतः प्रत्यक्ष लोकतंत्र
या प्रतिनिधित्वपूर्ण लोकतंत्र ही है।
(ग) वास्तविक राजतंत्र–वैसी व्यवस्था जिसमें राजा या रानी शासन करते हैं, जिसे
शासक कहा जाता है। सभी शक्तियों शासक में ही निहित होती है।
(घ) सीमित राजतंत्र―ऐसी व्यवस्था जिस में राजा या रानी का शासन प्रतीक के रूप
में होता है, जबकि वास्तविक शक्ति जनता द्वारा चुने गए सरकार में निहित होती है। यह
व्यवस्था राजतंत्र एवं गणतंत्र के मिश्रण के रूप में विकसित हुई परंतु वर्तमान में गणतंत्र
प्रधान बन गई।
(ङ) अभिजात्य तंत्र―इस व्यवस्था के अंतर्गत कुछ सुविधा संपन्न शिक्षा प्राप्त व
तभाकथित अभिजात वर्ग के लोगों द्वारा शासक या सरकार का चयन किया जाता है।
(च) सैनिक शासन या सैनिक तानाशाही―इस व्यवस्था में सत्ता का अधिग्रहन
सेना व सेना प्रमुख द्वारा कर लिया जाता है जिसके कारण राज्य की शक्ति सेना के कब्जे
में होती है।
(छ) तानाशाही―इस व्यवस्था में सत्ता पर किसी एक व्यक्ति या एक समूह का
कब्जा हो जाता है जिसके द्वारा शासन किया जाता है।
(ज) लोकतांत्रिक गणराज्य सामान्यतया साम्यवादी देशों ने अपनी शासन व्यवस्था
को लोकतांत्रिक गणराज्य का नाम दिया है, परंतु वास्तव में यह लोकतंत्र व गणराज्य से भिन्न
एक दल का शासन होता है।
(झ) अराजकता यह कोई व्यवस्था नहीं है बल्कि व्यवस्थाहीनता की स्थिति है।
कानून व न्याय का नितांत अमाव है,सत्ता व सरकार की घोर असफलता से उत्पन्न स्थिति है।
(ट) धर्मतंत्र-इस व्यवस्था में किसी धर्म या संप्रदाय के सिद्धांतों के अनुरूप धर्म या
संप्रदाय के अधिकारियों व पुजारियों द्वारा शासन व्यवस्था चलाई जाती है।
वर्चस्व―किसी व्यक्ति, समूह, संस्था आदि द्वारा किसी संसाधनों पर कब्जा व उनके
उपयोग को सुनिश्चित करना शक्ति व वर्चस्व है, किंतु एक परिस्थिति यह भी आ सकती
है कि विभिन्न शक्ति केंद्रों के बीच वर्चस्व का संघर्ष बढ़ने लगे तो इस परिस्थिति में एक
ऐसे केंद्रीय अधिकार व नियम की आवश्यकता होगी तो सभी पर नियंत्रण कर सके । यही
नियंत्रक शक्ति सत्ता के रूप में पहचानी जाती है। पुणः यदि वर्चस्व एवं प्रतिरोध की बात
करें तो वर्चस्व को थोड़ी और गहराई से समझना होगा । व्यक्ति के अंदर भिन्नता के रूप
में कोई न कोई शक्ति निहित होती है। यही शक्ति जब अंतर्मुखी हृदय से निःसृत होकर
बाह्य परिवेश में प्रकट होकर संसाधनों आदि का प्रयोग करने में सुनिश्चित व सुदृढ़ रूप से
सक्षम होने लगे तो इसे ही वर्चस्व कहाँ जाने लगता है। वर्चस्व द्वारा शासक वर्ग उन वर्गों
की सहमति हासिल करता है जिस पर उसे प्रभुत्व कायम रखना है। शिक्षा और जनसंचार
माध्यम इसमें मदद करते हैं। इन्हें विचार धारात्मक राज्य-तंत्र की भी संज्ञा दी जा सकती है।
प्रतिरोध―प्रतिरोध का सीधा-सीधा अर्थ है―विरोध । यह विरोध व्यवस्था से अपने से
अधिक ताकतवर से, समाज से, धर्म से, जाति से या अन्य किसी से भी हो सकता है। अर्थात
जब इन ऊपर वर्णित संगठनों से असहमति हो तो उसका विरोध होगा या उसके प्रति प्रतिरोध
होगा। अतः यह भी स्पष्ट है कि प्रतिरोध असंगत, अन्यायिक, अनैतिक एवं असंवैधानिक
के विरुद्ध ही होगा। लेकिन यह अनिवार्य नहीं है कि हर जगह ऐसा ही हो । अर्थात प्रतिरोध
न्याय व संगत के विरुद्ध भी हो सकता है। लेकिन ऐसा प्रतिरोध सकारात्मक कम और
नकारात्मक अधिक होता है, क्योंकि लोकतंत्र या किसी व्यवस्था में उस व्यवस्था के साथ
एवं विचारधारा के साथ सौ प्रतिशत सहमति या असमति संभव नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था
के अंतर्गत सत्ता का मूल आधार वर्चस्व ही है जो कि सैद्धांतिक रूप से जनता में ही निहित
रहती है। इस शक्ति का वास्तविक उपयोग सत्ता अर्थात सरकार के द्वारा किया जाता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस सत्ता का उपयोग लोक कल्याण, नागरिक उत्थान, संसाधनों के
समूचित वितरण व सामान्य जीवन स्तर को ऊँचा बनाने के लिए किया जाता है। परंतु जब
सत्ता लोक कल्याण के कार्यक्रमों से विमुख होकर वर्चस्व वादी ताकतों को तुष्ट व पुष्ट करने
में लीन हो जाती है तब एक बड़े वर्ग तक मूलभूत संसाधनों की पहुँच प्रमुख उद्देश्य नहीं
रह जाता है। ऐसे में सुविधाओं से वंचित समूह के अंदर प्रतिरोध जन्म लेने लगता है।
प्रतिरोध विरोध की अभिव्यक्ति है। प्रतिरोध के निम्नलिखित प्रमुख कारण हो सकते हैं―
(क) संसाधनों का असमान वितरण
(ख) बिना लोक इच्छा के संसाधनों पर एकाधिकार
(ग) सामाजिक विषमता
(घ) सामान्य लोगों का शोषण
(ङ) निम्न जीवन स्तर
(च) आर्थिक आधार पर समाज में बढ़ती खाई इत्यादि ।

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