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समाजवाद और साम्यवाद

समाजवाद और साम्यवाद

समाजवाद

1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने समाज और अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना से संबद्ध नई विचारधाराओं को जन्म दिया। सामंती व्यवस्था और चर्च के आधिपत्य को समाप्त कर इसने स्वतंत्रता और समानता की भावना पर बल दिया। फलतः, सामाजिक बदलाव से संबद्ध विभिन्न विचारधाराओं का उदय हुआ। इनमें उदारवादी अथवा रैडिकल, रूढ़िवादी या प्रतिक्रियावादी, अतिवादी, समाजवादी तथा साम्यवादी प्रमुख थे। उदारवादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा धार्मिक स्वतंत्रता के हिमायती थे। वे निरंकुश वंशानुगत शासन के विरोधी भी थे। अतिवादी विशेषाधिकारों और संपत्ति के केंद्रीकरण के विरोधी थे। प्रतिक्रियावादी पुरातन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहते थे। वे उदारवादियों और अतिवादियों की नीतियों के विरोधी थे। समाजवादियों और साम्यवादियों की सोच इनसे अलग थी। औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप हुए सामाजिक-आर्थिक बदलाव के आधार पर वे समाज और अर्थव्यवस्था की पुनर्संरचना करना चाहते थे।
औद्योगिक क्रांति सबसे पहले इंगलैंड में हुई। इससे एक ओर आर्थिक प्रगति हुई तो दूसरी ओर समाज में पूँजीपति और श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। पूँजीपतियों ने अपने हाथों में पूँजी और मुनाफा का केंद्रीकरण कर लिया। श्रमिकों की स्थिति दयनीय बनी रही। इस प्रकार, औद्योगिक क्रांति ने दो प्रकार की आर्थिक व्यवस्था और दो सामाजिक वर्गों को उत्पन्न कर दिया। कारखानेदारी प्रथा के विकास से पूँजीपति एवं श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। इससे सामाजिक खाई बढ़ी। पूँजीपति वर्ग पूँजी-संचय एवं उद्योगों में निवेश कर संपन्न होता गया और श्रमिक वर्ग की स्थिति गिरती गई। कम मजदूरी, काम के अधिक घंटे,
संगठनात्मक कमी से उनका शोषण होने लगा।
कुछ नए चिंतक इस व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते थे। उनका मानना था कि नागरिक और कानूनी समानता से भी अधिक
महत्त्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक समानता है तथा इसके लिए अधिक प्रयास की आवश्यकता है। ये चिंतक समाजवादी
(Socialists) के नाम से जाने गए। इन लोगों ने ऐसी अर्थव्यवस्था के निर्माण की बात कही जिसमें उत्पादन के साधनों एवं पूँजी पर राज्य का नियंत्रण हो। उनका यह भी मानना था कि उत्पादन निजी लाभ के लिए न होकर समस्त समाज के लिए हो। ‘समाजवाद’ शब्द का पहला व्यवहार 1827 में हुआ।
आधुनिक काल में समाजवादी विचारधारा ने एक नया सामाजिक चिंतन दिया। इसने पूँजीपतियों द्वारा श्रमिकों के शोषण के
विरुद्ध प्रतिरोध करने तथा वर्गविहीन समाज की स्थापना करने का आह्वान किया। आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद व्यक्तिगत स्वामित्व के स्थान पर उत्पादन में सामूहिक स्वामित्व का पक्षधर है। समाजवादी ऐसी अर्थव्यवस्था की स्थापना पर बल देते हैं जिसमें उत्पादन के सभी साधनों, कारखानों तथा विपणन पर सरकार का एकाधिकार हो। उनका मानना है कि समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन व्यक्तिगत लाभ के लिए न होकर संपूर्ण समाज के लिए हो।
समाजवादी विचारधारा की उत्पत्ति – समाजवादी विचारधारा के स्रोत 18वीं शताब्दी के प्रबोधन आंदोलन के दार्शनिकों के लेखों में ढूँढ़े जा सकते हैं, जैसे-सेंट साइमन, रॉबर्ट ओवेन इत्यादि। आरंभिक समाजवादी आदर्शवादी थे, उनके लिए यह एक सिद्धांत मात्र था। इसलिए, उन्हें स्वप्नदर्शी समाजवादी (Utopian Socialists) कहा गया। इनमें फ्रांस के सेंट साइमन तथा चार्ल्स फूरिए का प्रमुख स्थान था।
आरंभिक समाजवादी-समाजवादी आंदोलन और विचारधारा मुख्यत: दो भागों में विभक्त की जा सकती है-(i) आरंभिक
समाजवादी अथवा कार्ल मार्क्स के पहले के समाजवादी और (ii) कार्ल मार्क्स के बाद के समाजवादी। आरंभिक समाजवादी
‘आदर्शवादी’ या ‘स्वप्नदर्शी’ (Utopian) समाजवादी कहे गए। वे उच्च और अव्यावहारिक आदर्श से प्रभावित होकर ‘वर्गसंघर्ष’ की नहीं, बल्कि ‘वर्गसमन्वय’ की बात करते थे। दूसरे प्रकार के समाजवादियों- फ्रेडरिक एंगेल्स, कार्ल मार्क्स और उनके बाद के चिंतक जो ‘साम्यवादी’ कहलाए–ने ‘वर्गसमन्वय’ के स्थान पर ‘वर्गसंघर्ष’ की बात कही। इन लोगों ने समाजवाद की एक नई
व्याख्या प्रस्तुत की जिसे वैज्ञानिक समाजवाद कहा जाता है।
आदर्शवादी समाजवादी चिंतक-आदर्शवादी समाजवादी चिंतकों में सेंट साइमन, चार्ल्स फूरिए, लुई ब्लाँ तथा रॉबर्ट ओवेन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रथम यूटोपियन समाजवादी सेंट साइमन था। उसका मानना था कि राज्य और समाज का पुनर्गठन इस प्रकार होना चाहिए जिससे शोषण की प्रक्रिया समाप्त हो तथा समाज के गरीब तबकों की स्थिति में भी सुधार लाया जा सके। इसके लिए सभी लोगों को समन्वित रूप से काम करना चाहिए। राज्य और समाज को निर्धन वर्गों के भौतिक और नैतिक उत्थान के लिए कार्य करना चाहिए। उसका यह भी मानना था कि प्रत्येक को उसकी क्षमता के अनुसार कार्य तथा प्रत्येक को उसके कार्य के अनुसार पारिश्रमिक मिलना चाहिए। आगे चलकर सेंट साइमन की यह उक्ति समाजवाद का मूलमंत्र बन गई। सेंट साइमन के सिद्धांतों को चार्ल्स फूरिए ने आगे बढ़ाया। फूरिए औद्योगिकीकरण का विरोधी था। उसकी मान्यता थी कि श्रमिकों को बड़े कारखानों में काम करने के बदले छोटे नगरों एवं कस्बों में छोटी औद्योगिक इकाइयों में काम
करना चाहिए। इससे पूँजीपति उनका शोषण नहीं कर पाएंगे। किसानों की स्थिति में भी वह सुधार लाना चाहता था। लुई ब्लाँ ने
सुधारों की जो योजना प्रस्तुत की वह अधिक व्यावहारिक थी। उसने सुझाव दिया कि आर्थिक सुधारों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के पूर्व राजनीतिक सोच और व्यवस्था में सुधार लाना आवश्यक है। उसने सामाजिक कार्यशालाओं की स्थापना कर पूँजीवाद की बुराइयों को समाप्त करने की बात कही। इंगलैंड में आदर्शवादी समाजवाद का जनक विख्यात उद्योगपति रॉबर्ट ओवेन था।
रॉबर्ट ओवेन-इंगलैंड में समाजवाद का प्रवर्तक रॉबर्ट ओवेन (1771-1858) को माना जाता है। इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति के
परिणामस्वरूप कारखानेदारी व्यवस्था का उदय और विकास हुआ। इसमें श्रमिकों का शोषण किया गया। इसे रोकने के लिए ओवेन ने एक आदर्श समाज की स्थापना का प्रयास किया। उसने स्कॉटलैंड के न्यू लूनार्क नामक स्थान पर एक आदर्श कारखाना और मजदूरों के आवास की व्यवस्था की। इसमें श्रमिकों को अच्छा भोजन, आवास और उचित मजदूरी देने की व्यवस्था की गई। श्रमिकों की शिक्षा, चिकित्सा की भी व्यवस्था की गई। साथ ही, काम के घंटे घटाए गए और बाल-मजदूरी समाप्त की गई। वृद्धावस्था बीमा योजना भी लागू की गई। ओवेन के इस प्रयास से मुनाफा में वृद्धि हुई। इससे वह संतुष्ट हुआ। उसने माना कि संतुष्ट श्रमिक ही वास्तविक श्रमिक है। यद्यपि ओवेन का आदर्शवाद पूरी तरह सफल नहीं हो सका तथापि
ब्रिटिश सरकार ने 1819 में फैक्टरी कानून पारित कर श्रमिकों की स्थिति में सुधार लाने का प्रयास किया। ब्रिटेन में चार्टिस्ट आंदोलन (1838) भी हुआ। 1833 में फैक्टरी अधिनियम और अन्य कानूनों द्वारा श्रमिकों को सुविधाएँ दी गईं।
19वीं शताब्दी में समाजवादी विचारधारा का तेजी से प्रसार हुआ। फ्रांस में लुई ब्लाँ ने सामाजिक कार्यशालाओं की स्थापना कर पूँजीवाद की बुराइयों को समाप्त करने की बात कही। जर्मनी भी समाजवादी विचारधारा से अपने को अलग नहीं रख सका। रूस में भी समाजवाद ने अपनी जड़ें जमा लीं। समाजवादियों ने व्यक्तिगत संपत्ति के स्वामित्व के विरुद्ध समाज द्वारा नियंत्रित संपत्ति की बात की। यद्यपि आरंभिक समाजवादी अपने आदर्शों की पूर्ति में सफल नहीं हो सके, लेकिन इन लोगों ने ही पहली बार पूँजी और श्रम के बीच संबंध निर्धारित करने का प्रयास किया। कार्ल मार्क्स ने आरंभिक समाजवादियों की विफलता को ध्यान में रखकर ही नई समाजवादी व्याख्या प्रस्तुत की।

साम्यवाद

कार्ल मार्क्स – समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में कार्ल मार्क्स (1818-83) की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मार्क्स का जन्म जर्मनी के राइन प्रांत के ट्रियर नगर में एक यहूदी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम हेनरिक मार्स था। वे एक विख्यात वकील थे। कार्ल मार्क्स ने बॉन तथा बर्लिन विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण की। उसने अर्थशास्त्र का गहन अध्ययन किया। मार्स पर रूसो, मांटेस्क्यू एवं हीगेल की विचारधारा का गहरा प्रभाव था। 1843 में उसने अपने बचपन की मित्र जेनी से विवाह किया। विवाह के बाद वह पेरिस गया जहाँ 1844 में उसकी भेंट फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ हुई। एंगेल्स के विचारों से प्रभावित होकर मार्क्स भी श्रमिकों की स्थिति पर चिंतन करने लगा। मार्क्स और एंगेल्स ने मिलकर 1848 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो
(Communist Manifesto) अथवा साम्यवादी घोषणापत्र प्रकाशित किया। इसे आधुनिक समाजवाद का जनक माना जाता है। मार्क्स ने पूँजीवाद की घोर भर्त्सना की और श्रमिकों के हक की बात उठाई।
मजदूरों को अपने हक के लिए लड़ने को उसने उत्प्रेरित किया। उसने लिखा, श्रमिकों को अपनी बेड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं खोना है। उन्हें विश्व पर विजय प्राप्त करनी है। दुनिया के श्रमिकों एक हो। मार्क्स ने अपनी विख्यात पुस्तक दास कैपिटल (Das Kapital) का प्रकाशन 1867 में किया। इसे समाजवादियों की बाइबिल कहा जाता है। यही दो पुस्तकें मार्क्सवादी दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों को प्रस्तुत करती हैं। मार्क्सवादी दर्शन साम्यवाद (Communism) के नाम से विख्यात हुआ। मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों के कारण उसे जर्मनी से निष्कासित कर दिया गया। उसने अपना शेष जीवन लंदन में व्यतीत किया।
मार्क्सवादी दर्शन-मार्क्स ने समाजवाद की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उसने पहली बार इतिहास की आर्थिक (भौतिक) व्याख्या की। उसका मानना था कि आर्थिक गतिविधियाँ ही मानवजीवन और इतिहास के स्वरूप को निर्धारित करती है। मावर्स का मानना था कि मानव इतिहास वर्गसंघर्ष (class struggle) का इतिहास है। इतिहास उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण के लिए दो वर्गों में चल रहे निरंतर संघर्ष की कहानी है। वे प्रत्येक ऐतिहासिक घटना के लिए आर्थिक कारणों को उत्तरदायी मानते हैं। उन्होंने आदिम साम्यवादी युग से समाजवादी युग तक के इतिहास को पाँच चरणों में विभक्त किया। ये हैं-(i) आदिम साम्यवादी युग (i) दासता का युग (iii) सामंती युग (iv) पूँजीवादी युग और (v) समाजवादी युग। मार्क्स के अनुसार, इतिहास का छठा चरण आनेवाला है, जब वर्गविहीन समाज की स्थापना होगी तथा जिसमें वर्गसंघर्ष नहीं होगा। यह साम्यवादी युग होगा। कार्ल माक्र्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों में प्रमुख हैं-(i) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत (ii) वर्गसंघर्ष का सिद्धांत (i) इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या (iv) मूल्य एवं अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत तथा (v) राज्यहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना का सिद्धांत। मोटे तौर पर इतिहास के तीन चरण हैं-प्राचीन, मध्य और आधुनिक। प्रथम चरण में स्वतंत्र लोगों और गुलामों के बीच, द्वितीय में सामंतों और किसानों के बीच तथा अंतिम चरण में पूँजीपतियों और श्रमिकों के बीच संघर्ष होता है। औद्योगिक
समाज पूँजीवादी समाज है। इसमें पूँजीपति अपनी पूँजी के आधार पर मजदूरों द्वारा अर्जित मुनाफा को हड़प लेता है। श्रमिक की स्थिति दयनीय बनी रहती है। पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त किए बिना श्रमिकों की स्थिति में सुधार नहीं आ सकता है। अतः, मार्क्स ने मजदूरों का आह्वान किया कि वे एकजुट हों, पूँजीवाद और बुर्जुआ वर्ग की सत्ता को समाप्त करें और संपत्ति पर समाज का नियंत्रण स्थापित करें। मावर्स को विश्वास था कि इस संघर्ष में अंतिम विजय श्रमिकों की होगी, बुर्जुआ वर्ग का स्थान सर्वहारा वर्ग लेगा। ऐतिहासिक प्रक्रिया के पूरा होते ही वर्गविहीन समाज की स्थापना होगी तथा राज्य विलुप्त हो जाएगा। मार्स का दर्शन साम्यवादी दर्शन के नाम से विख्यात है।
मार्क्सवाद का प्रसार-मार्क्सवादी विचारधारा का प्रसार तेजी से हुआ। इससे सर्वहारा वर्ग को पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा मिली। यूरोप के विभिन्न भागों में समाजवादी विचारधारा से प्रभावित दल स्थापित किए जाने लगे, जैसे-जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, ब्रिटेन में लेवर पार्टी, फ्रांस में सोशलिस्ट पार्टी, रूस में रूसी सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी। अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन भी स्थापित किया गया। लंदन में 1864 में मार्क्स के प्रयासों से प्रथम इंटरनेशनल (अंतरराष्ट्रीय संघ) की स्थापना हुई। इसमें मार्क्स ने श्रमिकों को संबोधित करते हुए कहा कि अपने प्रयासों द्वारा ही वे अपनी स्थिति में परिवर्तन ला सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि उनका अंतिम लक्ष्य पूँजीवाद का विनाश होना चाहिए। सम्मेलन में यह नारा भी दिया गया कि अधिकार के बिना कर्तव्य नहीं और कर्तव्य के बिना अधिकार नहीं। 1883 में मार्क्स की मृत्यु के बाद पेरिस में द्वितीय अंतरराष्ट्रीय संघ की बैठक 1889 में हुई जिसमें विभिन्न देशों के 400 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में आठ घंटे के कार्य-दिवस की माँग रखी गई। यह निर्णय भी लिया गया कि प्रतिवर्ष 1 मई का दिन मजदूर वर्ग की एकता के प्रतीकस्वरूप अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस (मई दिवस) के रूप में मनाया जाए। 1 मई 1890 को यूरोप और अमेरिका में हड़ताल और प्रदर्शन किए गए तथा अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया गया। द्वितीय अंतरराष्ट्रीय संघ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने सैन्यवाद एवं युद्ध के विरुद्ध आंदोलन तथा सभी राष्ट्रों की बुनियादी समानता तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता के उनके अधिकार पर बल दिया। समाजवादी आंदोलन के विकास से श्रमिक वर्ग में यह आशा जगी कि शोषण एवं उत्पीड़न से मुक्त समाज का निर्माण होगा। रूस में 1917 की क्रांति के बाद पहली साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई।

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