B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र
B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र
Q. नागरिकशास्त्र की शिक्षण-प्रविधियों का वर्णन करें।
(Describe the Teaching Techniques of Civics.)
Ans. शिक्षण-प्रविधियाँ अध्ययन कला को सजीव एवं प्रभावोत्पादक बनाती हैं। नागरिकशास्त्र के शिक्षण में इन प्रविधियों की महत्ता और बढ़ जाती है, क्योंकि इसमें सामाजिक एवं नागरिक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का प्रस्तुतीकरण आवश्यक है। प्रस्तुतीकरण को इन प्रविधियों के अवलम्बन से सफल एवं सजीव बनाया जाता है। दूसरे, ये प्रविधियाँ ज्ञानार्जन में बहुत हो
उपयोगी सिद्ध होती हैं। विभिन्न प्रविधियाँ विभिन्न उद्देश्यों के लिए भिन्न-भिन्न अवसरों पर प्रयोग में लायी जाती हैं। वस्तुतः इन सबका अभिप्राय ज्ञानार्जन को प्रभावशाली, ग्राह्य, बोधगम्य एवं रोचक बनाना होता है । प्रविधियों का प्रयोग प्रायः स्वतन्त्र रूप से नहीं होता, वरन् किसी-न-किसी पद्धति के साथ प्रयोग किया जाता है।
सामान्यतः शिक्षण-प्रविधियों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-
(अ) पाठ के विकास में सहायक प्रविधियाँ-इनमें प्रश्न रीति, वर्णन, कथन, व्याख्या अभिनय, निरीक्षण आदि प्रमुख हैं।
(ब) सीखे हुए ज्ञान को स्वार्थी बनाने वाली प्रविधियाँ-इनमें अभ्यास, परीक्षण, कार्य-निर्धारण आदि प्रमुख हैं।
(स) समाजीकृत रीतियाँ-इनमें सामूहिक वाद-विवार (Panel discussion) सेमिनार (Seminar), विचार- समिति प्रविधि (Symposium technique) आदि आती हैं। ये उच्च अधिगम की प्रविधियाँ मानी जाती हैं।
नागरिकशास्त्र-शिक्षण में प्रयुक्त होनेवाली प्रविधियों का वर्णन यों है-
1. प्रश्न प्रविधि-नागरिकशास्त्र शिक्षण में प्रश्न प्रविधि का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को प्रभावोत्पादक बनाया जाता है । प्रश्नों का परम्परागत ध्येय बालक के ज्ञान को जांचना था परन्तु आधुनिक शैक्षिक प्रक्रिया में प्रश्न महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं तथा इस प्रविधि द्वारा बहुत-से प्रयोजनों की पूर्ति की जाती है। प्रश्नों के मुख्य प्रयोजन निम्नलिखित हैं :
(i) छात्रों में कार्य के प्रति कौतूहल एवं रुचि जागृत करना ।
(ii) सीखने की प्रक्रिया में इनके द्वारा पथ-प्रदर्शन करना ।
(iii) विचार-प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना ।
(iv) निर्धारित कार्य के लिए उत्प्रेरणा प्रदान करना ।
(v) कार्य के मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डालना ।
(vi) सामाजिक एवं नागरिक जीवन की जटिलताओं को समझने के लिए उनके मस्तिष्क को तत्पर बनाना।
(vii) अन्वेषण तथा अनुसन्धान के लिए प्रोत्साहित करना ।
(viii) प्रश्नों द्वारा तथ्यों के ज्ञान तथा अनुभवों को व्यवस्थित करने में सहायता प्रदान करना ।
(ix) मौखिक रूप में अभिव्यंजन शक्ति का विकास करना ।
(x) छात्रों के दोषों तथा कठिनाइयों का पता लगाना ।
(xi) छात्रों के अर्जित ज्ञान की उन्नति को जांचना ।
(xii) छात्रों की आवश्यकताओं, अभिरूचियों तथा तात्कालिक समस्याओं का ज्ञान प्राप्त करना।
(xiii) पाठ को दोहराने में सहायता प्रदान करना ।
2. कथन-प्रविधि-शिक्षण-प्रक्रिया में कभी-कभी ऐसे अवसर आ जाते हैं जबकि शिक्षक को कथन प्रविधि का सहारा लेना ही पड़ता है। प्रत्येक बात या तथ्य प्रश्नों द्वारा छात्रों से नहीं निकलवाये जा सकते हैं। अतः जब प्रश्न न पूछने से तथा व्याख्या न करने से हमारा, मन्तव्य सफल होता है तब उस समय हमें कथन करने की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षा से प्रायः प्रत्येक स्तर पर इसका प्रयोग होता है। सामाजिक विषयों के शिक्षण में इस रीति का प्रयोग बहुत लाभदायक सिद्ध होता है, नागरिकशास्त्र शिक्षण में इसका प्रयोग सभी स्तरों पर किया जाता है। परन्तु शिक्षक के कथन में विविधता होगी। प्रशिक्षण महाविद्यालयों के छात्राध्यापकों द्वारा इसका मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है। वे इसका प्रयोग शिक्षण की अन्य प्रविधियों तथा सहायक साधनों के साथ करते हैं। इस प्रविधि की सफलता के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए :
(i) पाठ के प्रारम्भ में सामान्यतः कथन प्रविधि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(ii) कथन बच्चों की आयु तथा मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए और शिक्षक कथन करते समय उनके अवधान विस्तार का ध्यान रखे।
(iii) कथन क्रमबद्ध होना चाहिए ।
(iv) कथन को भाप सरल शब्द एवं प्रभावी होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त भाषा बालकों के मानसिक स्तर के अनुसार हो ।
(v) कथन की शली रोचक एवं बोधगम्य होनी चाहिए।
(vi) कथन करते समय विभिन्न रीतियों तथा सहायक सामग्री-चित्र, मॉडल, मानचित्र आदि की सहायता लना चाहिए।
(vii) शिक्षक को कथन के बाहुल्य पर रोक लगानी चाहिए।
(viii) शिक्षक का स्वर तथा उच्चारण शुद्ध होना चाहिए क्योंकि छात्रों में अनुकरण की प्रवृत्ति अधिक होती है । यदि वह शब्दों का उच्चारण अशुद्ध करेगा तो बालक भी उसका अनुकरण करेंगे।
3. नाटकीय या अभिनयीकरण या अभिनयात्मक प्रविधि-इस प्रविधि के प्रयोग से छात्रों की सृजनात्मक शक्तियों का विकास किया जाता है। शिक्षण में इसका प्रयोग आधुनिक युग की देन है। इसके प्रयोग से कठिन तथा दुरूह विषय को सरल, मनोरंजन एवं बोधगम्य बनाया जा सकता है। इसमें छात्र क्रियाशील रहते हैं। इसके अतिरिक्त नाटकीय प्रविधि द्वारा बालकों की इन्द्रियों को शिक्षित एवं प्रफुल्लित बनाया जाता है। इसके प्रयोग से कर्णेन्द्रिय, नेत्रों तथा हाथों को शिक्षित किया जाता है। इस प्रकार इसमें हाथ तथा मस्तिष्क को शिक्षा के समन्वय के पर्याप्त अवसर प्रदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके द्वारा छात्रों में विषय-ग्राह्यता, आत्मविश्वास एवं अभिव्यंजना-शक्ति विकसित की जाती है तथा उनकी लज्जाशील प्रवृत्ति एवं झिझक का भी निवारण हो जाता है। इसके प्रयोग से छात्र बोलने की कला भी सीख लेते हैं। अरनेस्ट हॉर्न (Earnest Horn) का विचार है कि इसके प्रयोग से छात्रों में नेतृत्व, सहयोग, सृजनात्मक प्रयास करने के भाव तथा प्रेरणा शक्ति का विकास किया जा सकता है। यह सत्य है कि इसका प्रयोग इतिहास में प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। नागरिकशास्त्र में इतिहास की अपेक्षा इसके प्रयोग के लिए कम अवसर हैं। परन्तु इसमें भी इसका प्रयोग समाज-कल्याण के लिए, नागरिक भावना उत्पन्न करने के लिए प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। इसके लिए हम नागरिकशास्त्र में विभिन्न गुणों से युक्त किसी काल्पनिक चरित्र या वास्तविक चरित्र का अभिनय करा सकते हैं। दूसरे, हम अभिनव के ऐसे प्रसंगों का चयन कर सकते हैं जिनमें पात्र अपने कर्तव्यों का निर्वाह उचित ढंग से करते हों। इस प्रकार के अभिनयों द्वारा बालकों में नागरिकता के गुणों का विकास किया जा सकता है तथा नागरिक एवं राष्ट्रीय चरित्र का भी निर्माण हो सकता है। शिक्षक इस प्रविधि का प्रयोग बालकों से कृत्रिम संसदीय कार्यवाही तथा न्यायालयों का अभिनय करवाकर कर सकता है जिसमें बालक अध्यक्ष या स्पीकर, सचिव; जज, जूरी, गवाह आदि का पार्ट अदा कर सकते हैं। न्यायालय का निर्माण करके किसी शैतान लड़के का मुकदमा तय किया जा सकता है जिसमें बालक जज, जूरी, मुदई, मुहालय, वकील, गवाह, अर्दली आदि का पार्ट अदा करेंगे और इस न्यायालय द्वारा कोई न कोई निर्णय, लिया जा सकता है जिसको लागू किया जा सकता है । इस प्रकार अभिनय द्वारा वास्तविक जीवन की स्थितियों को स्पष्ट बनाया जा सकता है तथा बालकों को वयस्क अनुभवों के लिए तैयार किया जा सकता है।
4. परीक्षण प्रविधि-यह प्रविधि पाठ्यक्रम के समस्त विषयों के शिक्षण में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा बालकों के अर्जित ज्ञान की परीक्षा ली जाती है। नागरिकशास्र का शिक्षक इसके प्रयोग में लिखित तथा मौखिक प्रश्नों की सहायता लेता है। इसका सबसे प्रमुख लाभ यह होता है कि शिक्षक को अपने पाठ की सफलता का ज्ञान हो जाता है तथा छात्र भी अपनी कमियों की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रविधि को प्रयोग में लाते समय नागरिकशास्र के शिक्षक को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए।
(i) प्रश्नों में अधिकाधिक वस्तुनिष्ठता लायी जाय ।
(ii) प्रश्न सरल भाषा में प्रस्तुत किये जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रश्न संक्षिप्त, नपे-तुले एवं स्पष्ट हो।
(iii) छात्रों की कठिनाइयों एवं अशुद्धियों को दूर करना चाहिए ।
(iv) प्रश्न प्रस्तावित पाठों के अधिकाधिक क्षेत्र पर आधारित होने चाहिए अर्थात् कुछ मुख्य पाठों पर आधारित न हों, वरन् उनका क्षेत्र विस्तृत हो ।
(v) प्रश्नों का अंकन निष्पक्ष भाव से किया जाना चाहिए अर्थात उनमें पक्षपात के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
नागरिकशास्त्र शिक्षण में परीक्षण प्रविधि का प्रयोग करते समय निम्न प्रकार के प्रश्नों का प्रयोग करना चाहिए:
निबन्धात्मक प्रश्न – लघु उत्तरीय – प्रश्न वस्तुनिष्ठ प्रश्न
(i) निबन्धात्मक प्रश्न-इसका उत्तर निबन्ध के रूप में दिया जाता है। निबन्ध दो-चार या अधिक पृष्ठों में लिखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, नागरिक के कर्तव्यों का विवेचन कीजिए।
(ii) लघु उत्तरीय प्रश्न-इनका उत्तर सीमित एवं संक्षिप्त होता है। उदाहरणार्थ, नागरिक के चार अधिकार बताइये।
(iii) वस्तुनिष्ठ प्रश्न-इनका उत्तर अति लघु एवं निश्चित होता है। उदाहरणार्थ :
(क) भारत के वर्तमान राष्ट्रपति कौन हैं?…………
(ख) भारत के उपराष्ट्रपति कौन हैं?…………….
(ग) भारत के प्रथम प्रधानमंत्री कौन थे?…………
(घ) आजकल हमारे केन्द्रीय वित्तमंत्री ……………हैं।
(ङ) आजकल उत्तर प्रदेश के राज्यपाल……….है
(च) आजकल भारत के प्रधानमंत्री……….है
(छ) आजकल लोकसभा में …………..का बहुमत है।
5. अभ्यास-प्रविधि-यह प्रविधि थॉर्नडाइक (Thorndike) के अभ्यास के नियम’ पर आधारित है। इस नियम के अनुसार बालक किसी तथ्य की कितनी बार आवृत्ति करेगा वह तथ्य उतना उसके मस्तिष्क में स्थायी बनेगा। इस प्रकार ‘अभ्यास’ शब्द का तात्पर्य आवृत्तिमूलक कार्यों से है जिनमें बिना किसी प्रयास के बालक अभिव्यक्ति करता है। एम. पी. मुफात का कहना है
कि अभ्यास द्वारा बालकों में आदतों का निर्माण, विभिन्न कुशलताओं की प्राप्ति तथा उनको किसी परीक्षा के लिए तत्पर बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इस प्रविधि का प्रयोग अर्जित ज्ञान पर पूर्ण अधिकार करने और प्रत्यास्मरण की प्रक्रिया को सरल बनाने वाली कुल प्रतिक्रियाओं को यान्त्रिक बनाने के लिए किया जाता है। इसके प्रयोग से सीखने की प्रक्रिया निरन्तर बनी रहती है नागरिकशास्त्र की शिक्षा में इसका प्रयोग बहुत लाभप्रद है । नागरिकशास्र में इसका प्रयोग किसी प्रकरण की रूपरेखा को ग्रहण करने, किसी प्रश्न के उत्तर को स्मरण करने, चित्र, मॉडल आदि का निर्माण करने हेतु कर सकते हैं।
6. कार्य-निर्धारण प्रविधि-शिक्षण-कला में कार्य-निर्धारण एक प्रयोगात्मक प्रविधि है। सामान्यतः इसका प्रयोग पाठ की समाप्ति के उपरान्त किया जाता है। परन्तु इसका प्रयोग पाठ के अन्त में भी किया जा सकता है । यह कई रूपों में निर्धारित किया जा सकता है। जैसे- -कक्षा-निर्धारण, अवकाश के समय के लिए कार्य, प्रतिदिन के लिए कार्य, गृहकार्य आदि । कार्य-निर्धारण के आधार हैं-प्रथम, परम्परागत कार्य-निर्धारण जो पाठ्य-पुस्तकों पर आधारित होता है तथा द्वितीय आधुनिक कार्य-निर्धारण जो छात्रों की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं पर आधारित होता है। कार्य-निर्धारण के उक्त दोनों प्रकारों को निम्नांकित तालिका द्वारा अधिक स्पष्ट किया जा रहा
कार्य-निर्धारण के प्रकार हैं—
परम्परागत कार्य-निर्धारण
1. याद करने के लिए पृष्ठ-संख्या निर्धारण
2. गद्यांश-निर्धारण
3. प्रश्न लिखने के लिए देना
4. अध्याय निर्धारण आदि
आधुनिक कार्य-निर्धारण
1. इकाई निर्धारण
2. योजना
3. गाइड शीट तैयार कराना
4. स्क्रेप बुक्स तैयार कराना
दुर्भाग्यवश भारत में कार्य-निर्धारण के प्रथम आधार को ही अपनाया जाता है, इसीलिए इस प्रविधि की कटु आलोचना की जाती है। आलोचकों का कथन है कि इसके कारण उनका जीवन नीरस व शुष्क बन जाता है। साथ ही छात्रों के स्वास्थ्य को हानि भी पहुँचायी जाती है। परन्तु ये दोष कार्य-निर्धारण प्रविधि के नहीं हैं वरन् उसके प्रयोग के हैं। यदि कार्य-निर्धारण बालकों की रुचियों, आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तियों के अनुसार किया जाय तो ये दोष दूर हो सकते हैं। नागरिकशास्त्र में द्वितीय प्रकार के आधार को ग्रहण करके कार्य-निर्धारण करना चाहिए आधुनिक कार्य के निर्धारण में छात्रों को योजनाओं, समस्याओं, इकाइयों की सूची में से अपनी योग्यता, रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार कार्य चुनना पड़ता है। इसका विकेन्द्रीकरण छोटे-छोटे
प्रकरणों, क्रियाओं तथा प्रतिवेदन लिखने आदि के कार्यों के रूप में किया जा सकता है । मुफात (M.P. Moffatt) का कथन है, “आज का कार्य-निर्धारण एक ऐसी क्रिया है जिससे कार्य करने के सम्बन्ध में बालक या बालकों के वर्ग तथा शिक्षक में समझौता रहता है। (“Today’s assignment miht be defined as an agreement between the pupil (or group) and the teacher of work to be done.”) उसने आगे लिखा है, ‘कार्य-निर्धारण के लिए अभ्यास-पुस्तिकाएँ, गाइड शीट, स्क्रेप बुक्स तथा रूपरेखाओं के बनाने के कार्य दिये जायें। यदि पाठ्य-पुस्तकों के आधार पर ही कार्य निर्धारित किया जाय तो वह ऐसा होना चाहिए जिससे छात्रों को विचार करने के लिए अवसर प्रदान किये जायें।”
7. वर्णन प्रविधि-गार्लिक (A. H. Garlick) ने वर्णन के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “वर्णन का अर्थ है-शब्दों या संकेतों या दोनों द्वारा किसी वस्तु का चित्र प्रस्तुत करने का कार्य यह शाब्दिक चित्र बनाने की प्रक्रिया है । यह किसी वस्तु का ब्योरा देने का प्रयास करता है जिससे कि बालक उसके बारे में उचित धारणा बना सकें।” (“By description is meant the act of representing a thing by word or sign or by both It is the process of forming a word picture. It tries to give an account of a thing, so that the children may form a just conception of it.”) नागरिक शास्र का शिक्षक इस प्रविधि का प्रयोग करके विभिन्न घटनाओं दृश्यों तथा व्यक्तियों का शाब्दिक चित्र प्रस्तुत करके छात्रों को उनके विषय में
बता सकता है। उदाहरणार्थ, नागरिकशास्त्र का शिक्षक लोकसभा में शपथ-ग्रहण के दृश्य का वर्णन करके बालकों को उससे अवगत करा सकता है। शिक्षक को वर्णन के समय केवल शब्दों का ही सहायता नहीं लेना चाहिए वरन् उसे विषय से सम्बन्धित स्थूल वस्तुएँ भी छात्रों को दिखानी चाहिए। साथ ही वह वर्णन का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप प्रस्तुत करें जिससे छात्रों पर
उसका स्थायी प्रभाव पड़ सके।
8. व्याख्या या स्पष्टीकरण प्रविधि-गार्लिक (A. H. Garlick) के अनुसार, “व्याख्या या स्पष्टीकरण का अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा किसी शब्द-समूह या कथन के अर्थ की समस्त जटिलता हो जाती है।” (“By explanation is meant the process by which is cleaned away from a word phase or statement all obscurity of meaning.” नागरिकशास्त्र का शिक्षक विषय के जटिल तथ्यों, शब्दों तथा घटनाओं को इस प्रविधि के प्रयोग से स्पष्ट कर सकता है। उदाहरणार्थ, राज्य, संविधान, समाज अधिकार आदि शब्द व्याख्या की उपेक्षा करते हैं। व्याख्या शुद्ध, सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिए । व्याख्या उपदेश के रूप में नहीं होनी चाहिए क्योंकि छात्रों को उपदेश अच्छे नहीं लगते हैं।
9. पुनरीक्षण प्रविधि-पुनरीक्षण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए एम. पी. मुफात (M.P. Moffatt, ने लिखा है: “पुनरीक्षण एक निरन्तर प्रक्रिया है जो कार्य को दिशा प्रदान करती है।” (“Review is a continuing process which gives direction to work.”) रिस्क (Tho- mas M. Rksk) के अनुसार “पुनरीक्षण का कार्य अर्थ-पूर्व अध्ययन किये हुए सम्बन्धों की अच्छी जानकारी प्राप्त करने के लिए प्राचीन दृष्टिकोण का नवीनीकरण या नवीन दृष्टिकोण की प्राप्ति है । (“Review means getting a new or a renewal of an old view to assure a better grasp relatinship previously studies.”) वस्तुतः पुनरीक्षण मस्तिष्क में तथ्यों के स्थानीकरण के लिए मात्र उनकी आवृत्ति ही नहीं है वरन् एक सिद्ध स्थिति में उनका एक नवीन दृष्टिकोण है जिससे नवीन प्रकार की समझदारियों (Understandings) द्वारा पाठ के प्रमुख तथ्यों को एकीकृत रूप में विकसित किया जाना चाहिए। साथ ही यह छात्रों के लिए एक चुनौती के रूप में होनी चाहिए।
10. सामूहिक वाद-विवाद प्रविधि-सर्वप्रथम सन् 1929 में हेरी ए, आवर राष्ट्रीय महोदय ने सामूहिक वाद-विवाद (Panel discussion) पर प्रयोग किया । हेरी महोदय ने एक छोटे समूह के रूप में एक निश्चित अवधि के लिए श्रोताओं के सामने वाद-विवाद का आयोजन किया । उस प्रकरण पर महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे गये जिनका उत्तर विशेषज्ञों ने दिया । श्रोताओं ने उन बिन्दुओं का भी स्पष्टीकरण मांगा जिनको वाद-विवाद में सम्मिलित नहीं किया गया था। आजकल इस प्रकार का आयोजन सार्वजनिक रूप में दूरदर्शन तथा रेडियो पर भी किये जाते हैं। इस प्रकार के वाद-विवादों को निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्यों से आयोजित किया जाता है :
(i) सूचनाओं तथा तथ्यों को प्रदान करना ।
(ii) किसी तात्कालिक समस्या का विश्लेषण करना ।
(iii) मूल्यों (values) का निर्धारण करना ।
11. विचारगोष्ठी प्रविधि (Seminar Technique)- यह अनुदेशन या शिक्षण (Intstruction) की ऐसी प्रविधि है जिससे चिन्तन स्तर के अधिगम के लिए अन्त:प्रक्रिया की परिस्थिति उत्पन्न की जाती है। यह प्रविधि लोकतन्त्रीय समाज के लिए अधिक उपयोगी है । इसके प्रयोग से ज्ञानात्मक तथा भावात्मक उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है। विचारगोष्ठी का स्वरूप (Structure of Seminar)-इसके आयोजन में चार प्रकार के व्यक्तियों की भूमिकाएँ होती हैं-
(i) अनुदेशक/व्यवस्थापक (Instractor/Organizer)-इसके ऊपर विचारगोष्ठी के आयोजन का भार होता है। वह विचारगोष्ठी के प्रकरण का निर्धारण करता है।
(ii) अध्यक्ष (President/Chairman/Convener)- इसका चयन विचारगोष्ठी के भागीदारों (Participants) द्वारा किया जाता है। यह कार्यक्रम का संचालन करता है।
(iii) वक्तागण (Speaker)-अनुदेशक प्रकरण को तैयार करने तथा प्रस्तुतीकरण के लिए वक्ताओं का निर्धारण करता है । वह अध्यक्ष के आदेशानुसार अपने प्रपत्र को प्रस्तुत करता है।
(iv) भागीदारी या श्रोतागण (Participants)- विचारगोष्ठी में 20 से 50 भागीदारों को सम्मिलित किया जा सकता है। ये वक्ता द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रपत्र पर प्रश्न कर सकते हैं। अध्यक्ष की आज्ञा से उस प्रकरण से सम्बन्धित अपने विचारों को रख सकते हैं। सेमिनार में प्रकरण से सम्बन्धित प्रपत्रों के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त वाद-विवाद के लिए अवसर दिया जाता है। सेमिनार लघु (Mini), राष्ट्रीय (National) एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजित किये जाते हैं । सेमिनार के प्रयोग से लोकतान्त्रिक मूल्यों का विकास होता है। साथ ही इसके प्रयोग से प्रस्तुतीकरण तथा तर्क करने की क्षमताओं का विकास होता है। यह प्रविधि स्वतन्त्र अध्ययन, वाद-विवाद में भाग लेने तथा बोलने के कौशलों के विकास में सहायक है। इसके द्वारा आलोचनात्मक चिन्तन का विकास होता है।
12. विचार-समिति प्रविधि (Symposium Technique)- प्लेटो ने एक सुन्दर आदान-प्रदान (Dialogue) को सम्पोजियम से सम्बोधित किया था। इसका शाब्दिक अर्थ वह सभा है जिसमें बौद्धिक मनोरंजन किया जाता है। आधुनिक अर्थ में यह वह सभा है जिसमें एक प्रकरण पर वक्तागण अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। इसमें प्रकरण सम्बन्धी विचारों को क्रम में प्रस्तुत किया
जाता है।
विचार-समिति प्रविधि की प्रक्रिया (Procedure of symposium)- इसमें व्यवस्थापक विचार-समिति के आयोजन, प्रकरण या समस्या का निर्धारण करता है। साथ ही वह वक्ताओं को आमन्त्रित करता है। वक्तागण समस्या के विभिन्न पक्षों पर अपने प्रपत्र तैयार करते हैं। प्रत्येक वक्ता के लिए समय निर्धारित कर दिया जाता है । व्यवस्थापक विचार समिति की कार्यवाही के संचालन के लिए अध्यक्ष या संचालक का चयन करता है। व्यवस्थापक विचार समिति को कार्यवाही के संचालन के लिए अध्यक्ष या संचालक का चयन करता है । अध्यक्ष वक्ताओं को क्रम से प्रस्तुतीकरण के लिए आमंत्रित करता है। प्रस्तुतीकरण के तुरन्त बाद श्रोतागणों को प्रश्न करने या वाद-विवाद करने का अवसर नहीं दिया जाता है। विचार-समिति में प्रत्यक्ष रूप से पारस्परिक क्रिया (Interaction) का अवसर नहीं दिया जाता है। वक्तागण अपने प्रपत्र या भाषण के द्वारा पूर्ववक्ता के विचारों की पुष्टि या आलोचना करता है। प्रत्येक वक्ता के प्रस्तुतीकरण के अन्त में अध्यक्ष उसकी समीक्षा करता है। सभी वक्ताओं के प्रस्तुतीकरण के बाद अध्यक्ष एक समीक्षा प्रस्तुत करता है। साथ ही लिखित रूप से भी व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। इसमें श्रोताओं को अन्त:क्रिया (interaction) के लिए अवसर नहीं दिया जाता है। इसके प्रयोग से समायोजन तथा सहयोग की भावनाओं का विकास सम्भव है। साथ ही उसके उपयोग से मूल्यांकन तथा संश्लेषण की क्षमताओं का विकास होता है । यह उच्च कक्षाओं में विशिष्ट प्रकरणों तथा समस्याओं के सम्बन्ध में व्यापक जानकारी प्रदान करने में सहायक है।
13. तुलना प्रविधि- तुलना शिक्षण की सहायक युक्ति है। इसका प्रयोग अन्य प्रविधियों के साथ शिक्षण को अधिक प्रभावी बनाने के लिए किया जाता है । तुलना के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए लैण्डन (Landon) ने लिखा है “तुलना का अर्थ है-एक तथ्य को दूसरे के साथ रखना और दोनों के निकट सम्बन्ध का अध्ययन करना । इसके अर्थ को विस्तृत करने के लिए इसमें विभिन्न
को भी सम्मिलित करना चाहिये ।” तुलना का प्रयोग भूगोल, इतिहास, नागरिकशास्त्र, विज्ञान आदि विषयों में किया जाता है। इस प्रविधि का उद्देश्य है-छात्रों में निरीक्षण, परीक्षण तथा चिन्तन के गुणों का विकास करना । जब शिक्षक दो वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं आदि में समानता एवं विभिन्नता बताते हुए छात्रों से प्रश्न करता है तब उनमें इन गुणों का स्वाभाविक रूप से विकास सम्भव है। इसके अतिरिक्त छात्र एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचकर अपने ज्ञान को निश्चित रूप प्रदान करते
नागरिकशास्त्र में प्रविधि का प्रयोग- नागरिकशास्त्र शिक्षण में तुलना प्रविधि के उपयुक्त प्रयोग के लिये अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ-संसदात्मक शासन प्रणाली तथा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली, लोकतान्त्रिक तथा फासीवादी विचारधाराएँ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली, मौलिक अधिकर एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्त, एकात्मक एवं संघात्मक एकतंत्र तथा कुलीन तंत्र आदि । इनकी परस्पर तुलना द्वारा इनके आपसी सम्बन्ध एवं सापेक्षिक महत्व स्पष्ट होते हैं। साथ ही छात्र उनकी विभिन्नता को समझने में समर्थ होते हैं।
14. साक्षात्कर प्रविधि- इस प्रविधि को शिक्षण की एक सहायक युक्ति के रूप में किया जाता है। इस प्रविधि के माध्यम से शिक्षक छात्रों से सीधा सम्पर्क स्थापित करता है। साक्षात्कार दो प्रकार का होता है-(अ) नियंत्रित (controlled or structured) तथा (ब) अनियंत्रित (Uncontrolled) । नियंत्रित साक्षात्कार में शिक्षक पूर्वनिर्मित प्रश्नावली या पड़ताल सूची के आधार पर साक्षात्कार करता है । अनियंत्रित साक्षात्कार में शिक्षक परिस्थिति के अनुकूल प्रश्न करता है। नागरिकशास्र-शिक्षण में अभिवृत्ति तथा रुचि सम्बन्धी विशिष्ट उद्देश्यों या वांछित व्यवहारगत परिवर्तनों की प्राप्ति के लिये इस प्रविधि का प्रयोग उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
15. नोट्स लिखना तथा बनाना- हमारे विद्यालयों में नोट्स लिखवाने का अत्यधिक प्रचलन है। इसके लिये सबसे अधिक दोषी विषय-अध्यापक है । कुछ शिक्षक पुस्तक से पाठ को पढ़ते हैं या छात्रों से उसे पढ़वाते हैं और फिर उसकी व्याख्या करते हैं। तत्पश्चात वे श्यामपट्ट पर पाठ का सारांश लिख देते हैं और छात्रों को उसे अपनी पुस्तिका में उतार लेने का आदेश दे देते हैं। कुछ शिक्षक ‘सम्भावित’ प्रश्नों पर विस्तृत नोट्स प्रश्नोत्तर रूप में लिखवाते हैं । कुछ शिक्षक छात्रों द्वारा पुस्तक के चुने हुए वाक्यों को रेखांकित करवा देते हैं और उन्हें अपनी अभ्यास पुस्तिकाओं में लिखने के लिये आदेश दे देते हैं। इस प्रकार के चुने हुए ये अंश संक्षिप्त पाठ्य-पुस्तक का कार्य करते हैं। कुछ शिक्षक पाठ्यपुस्तक के प्रत्येक पैराग्राफ के केन्द्रीय विचार को
पुस्तक के मारजिन पर लिखने के लिए कह देते हैं। चाहे ये नोट्स पाठों के सारांश के रूप में लिखवाये जाये या प्रश्नोत्तर रूप में या केन्द्रीय विचारों के रूप में इनका अभिप्राय यह होता है कि छात्र घर जाकर इन्हें याद कर लें और आदेशानुसार इन्हें कक्षा में प्रस्तुत कर सकें।
नोट्स क्यों लिखवाये जाते हैं ?- बहुत से शिक्षकों को पाठ्य-पुस्तकें नोट्स लिखवाने के लिये विवश करती है। स्वतंत्रता के प्रारंभिक काल में हमारी पाठ्य-पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी हुई थीं । शिक्षकों को अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाना होना था और छात्रों को भी पठित सामग्री को अंग्रेजी में अभिव्यक्त करना पड़ता था। इनमें से बहुत-सी पाठ्य-पुस्तकों की भाषा कठिन होती थी जिसे भारतीय छात्र समझ नहीं पाते थे। अत: शिक्षक छात्रों को सरल भाषा में उनकी नोट्स देते थे। साथ ही वे इन पाठ्य-पुस्तकों की व्याख्या करते थे। अत: शिक्षक परीक्षा में शुद्ध उत्तरों को लिखने के लिये उन्हें प्रश्नोत्तर रूप में नोट्स देते थे। नोट्स अंग्रेजी में पाठ्य-पुस्तक होने के कारण ही नहीं लिखाई जाती है वरन् बहुत से ऐसे विद्यालय थे जहाँ शिक्षण का माध्यम प्रादेशिक भाषाएँ थीं। फिर भी वहाँ नोट्स लिखवाये जाते थे । वस्तुत: नोट्स लिखवाना शिक्षण का नहीं वरन् परीक्षा उत्तीर्ण करवाने का साधन बन गया। आज सहायक पुस्तकें वन डे सीरीज आदि इसी की देन है। छात्र शिक्षक से ‘सम्भावित प्रश्नों’ की मांग करते रहते हैं। अत: शिक्षक भी प्रश्नोत्तर तथा टीकाओं के रूप में नोट्स प्रदान करते रहते हैं।