Pedagogy of civics

B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र

B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र

(What are the General Principles of Teaching Civics.)
Ans. नागरिकशास्त्र-शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त —इस सिद्धान्त का अर्थ यह है कि पाठ्य-वस्तु का छात्र के वास्तविक जीवन से सम्बन्ध स्थापित किया जाए। जब वह सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है तब छात्र पाठ्य-वस्तु को अधिक सुगमता एवं शीघ्रता से प्राप्त कर लेते हैं । जॉन डीवी (John Dewey) का मत है कि शिक्षा जीवन है । जब शिक्षा जीवन है तो छात्रों को जीवन की ठोस परिस्थितियों का ज्ञान कराया जाए जिससे वे विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त करके अपने जीवन को समृद्ध बना सकें। अतः इस दृष्टिकोण से पाठ्य-वस्तु का जीवन की ठोस परिस्थितियों से सम्बन्ध स्थापित करना अनिवार्य है। दूसरे, नागरिकशास्त्र प्रतिदिन के जीवन का विवेचन करने वाला शास्त्र है। इस कारण भी उसकी विषय-वस्तु का जीवन से सम्बन्ध स्थापित करना अनिवार्य है। अत: हम कह सकते हैं कि नागरिकशास्त्र के शिक्षक को कक्षा-शिक्षण छात्रों के जीवन से सम्बन्धित करके करना
चाहिए।
2. प्रेरणा का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त का अर्थ यह है कि छात्रों को नवीन ज्ञान या किसी कार्य का उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया जाए, क्योंकि प्रेरित होने पर ही बालक की रुचि स्वयं उस विषय-वस्तु या कार्य में जाग्रत हो जाती है। जब बालक की कार्य में रुचि होगी तो वह उसे सुगमता से सीखने में सफल होगा। साथ ही वह ज्ञान अधिक स्थायी रहेगा। अतः नागरिकशास्त्र के शिक्षक को नवीन ज्ञान को प्रस्तुत करने से पूर्व छात्रों को उसे सीखने के लिए प्रेरित करना अनिवार्य है। वह उनको प्रेरित करने के लिए आवश्यकतानुसार विभिन्न साधनों एवं ढंगों का प्रयोग कर सकता है।
3. रुचि का सिद्धान्त-यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। शिक्षण को सफल एवं प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है कि पाठ्य-वस्तु में छात्रों की रुचि उत्पन्न की जाए। जब छात्र की उसमें रुचि उत्पन्न हो जायेगी, तब वह तल्लीन होकर उसका सरलता से ज्ञान प्राप्त कर लेगा । नागरिकशास्त्र का शिक्षक विषय-वस्तु में छात्रों की रुचि उत्पन्न करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग कर सकता है। उदाहरणार्थ, विषय-वस्तु का छात्रों के वास्तविक जीवन से सम्बन्ध स्थापित करना बालकों की क्रियाओं से उनका सम्बन्ध स्थापित करना, विभिन्न ढंगों से उनकी कौतूहल-प्रवृत्ति को जागृत करना ।
4. क्रियाशीलता का सिद्धान्त—बालक स्वभाव से क्रियाशील होते हैं। वे हर समय कुछ-न-कुछ करते रहते हैं। अतः शिक्षण करते समय बालक की क्रियाशीलता को आधार बनाया जाए, क्योंकि जितनी अधिक उनकी क्रिया होगी, उतनी ही अधिक सीखने और शिक्षण की प्रक्रिया होगी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शिक्षण को बालकों की क्रियाशीलता को आधार बनाकर अपना शिक्षण कार्य करना चाहिए । नागरिकशास्त्र के शिक्षक को इस मूलभूत एवं मनोवैज्ञानिक आधार की अवहेलना नहीं करनी चाहिए । उसको इसे आधार बनाकर पात्रों को सक्रिय एवं योग्य नागरिक बनाने लिए सदैव प्रयास करने चाहिए।
5. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त रिवलिन का कथन है, “शिक्षा अभिप्राय युक्त एवं नैतिक क्रिया है अत: यह कल्पना ही नहीं की जा सकती है कि यह उद्देश्यहीन है।” जब शिक्षा सोद्देश्यपूर्ण क्रिया है तब शिक्षण द्वारा उसकी प्राप्ति के लिए कार्य करना अनिवार्य है इस दृष्टिकोण से शिक्षक को अपने उद्देश्य को अपने समक्ष बनाये रखना अनिवार्य है। यदि उसके मस्तिष्क में उद्देश्य स्पष्ट नहीं होगा तो उसके पथ से विचलित हो जाने की सम्भावना रहेगी। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि शिक्षक को अपने शिक्षण को सफल एवं प्रभावशाली बनाने के लिए अपने प्रत्येक पाठ के उद्देश्य का पूर्ण ज्ञान होना अनिवार्य है। रायबर्न का मत है कि यह सिद्धान्त हमारे शिक्षण को स्पष्ट एवं निश्चित बनाकर रोचक एवं प्रभावशाली बनाता है। शिक्षक को ही पाठ के उद्देश्य का ज्ञान होना आवश्यक नहीं है वरन् छात्रों को भी इसका ज्ञान होना आवश्यक है; क्योंकि इसके ज्ञान की रुचि विषय-वस्तु में जागृत हो जाती है।
6. चयन का सिद्धान्त—इस सिद्धान्त का अर्थ है कि ज्ञान अति विस्तृत है। अत: छात्रों की योग्यता के अनुसार उसमें से केवल उपयोगी एवं आवश्यक बातों का ही चयन करना चाहिए । नागरिकशास्त्र के शिक्षक में चयन की योग्यता का होना आवश्यक है क्योंकि उसे यह चयन करना पड़ेगा कि किस कक्षा को और कितना पढ़ाया जाना चाहिए? इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करके वह अपने शिक्षण को सफल बनाने में समर्थ हो सकता है।
7. नियोजन का सिद्धान्त-अति विस्तृत ज्ञान से चुनी हुई प्रमुख बातों को छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करने से पूर्व उनको नियोजित करना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि किसी पाठ को पढ़ाने से पूर्व यह निश्चित कर लेना चाहिए कि उसे कितनी विषय-वस्तु पढ़ानी है, उसको पढ़ाने के लिए किन विधियों को अपनाना है, किस-किस सहायक सामग्री का प्रयोग करना है, कक्षा में उपस्थित होने वाली सम्भावित समस्याओं को किस प्रकार हल करना है? यदि वह ऐसा न करेगा तो उसे विभिन्न संकटपूर्ण स्थितियों एवं असफलताओं का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि सफलता की कुंजी पूर्व नियोजन में निहित है। साथ ही नियोजन अपव्यय को रोकता है और शिक्षण को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध बनाने में सहायता प्रदान करता है।
8. विभाजन का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त का अर्थ है कि शिक्षक को अपनी पाठ्य-वस्तु को सुगम बनाने के लिए उसका प्रस्तुतीकरण क्रमिक सोपानों में करना चाहिए । इन सोपानों का क्रम ऐसा होना चाहिए कि शिक्षण करते समय वह स्वाभाविक ढंग से एक सोपान से दूसरे सोपान पर पहुँच सके।
9. लोकतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त नागरिकशास्त्र के शिक्षक को शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए कक्षा में लोकतन्त्रीय पर्यावरण का निर्माण करना चाहिए। इसके लिए शिक्षक को अपना दृष्टिकोण लोकतन्त्रीय बनाना होगा। साथ ही उसे छात्रों के व्यक्तित्व को आदर की दृष्टि से देखना होगा। इसके अतिरिक्त उसको छात्रों को प्रश्न पूछने, अपने विचारों को प्रकट करने और अपने सन्देहों को दूर करने के लिए स्वतन्त्रता देनी चाहिए। शिक्षक को कक्षा में पक्षपात रहित होकर सबके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार के वातावरण में छात्रों में उत्तम नागरिकता के गुणों का विकास करना सम्भव हो सकेगा।
10. आवृत्ति का सिद्धान्त—इस सिद्धान्त का अर्थ है कि अर्जित ज्ञान को स्थायी बना के लिए दोहराया जाए। नागरिकशास्त्र का शिक्षक इस सिद्धान्त का आवश्यकतानुसार प्रयोग कर सकता है क्योंकि दोहराने की मात्रा पाठ पर निर्भर होती है । वह उनके अनुसार यह निर्णय करेगा कि किन तथ्यों को दोहराया जाए और कितनी बार दोहराया जाए।
नागरिकशास्त्र-शिक्षण के सूत्र (Maxims of Civics Teaching)-  शिक्षण-शास्त्र में हमको अनेक सूत्र प्राप्त होते हैं। इनका आविष्कार नहीं किया गया वरन् इनको खोजा गया है। इस कार्य में कॉमेनियस, रूसो, पेस्टालॉजी तथा हर्बर्ट स्पेन्सर का बहुत योगदान रहा है। इन सूत्रों का अनुसरण करने से शिक्षक अपने कार्य में सफलता प्राप्त करता है अतः नागरिकशास्त्र
के शिक्षक को शिक्षण के समय निम्नलिखित सूत्रों का प्रयोग करना चाहिए-
1. ज्ञात से अज्ञात की ओर—यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बच्चा अपने पूर्व ज्ञान का सहारा लेकर नवीन ज्ञान को प्राप्त करता है। अतः बालक जो जानता है उसी पर नवीन ज्ञान का आधारित किया जाए । नागरिक शास्त्र के शिक्षक को, छात्र जो कुछ जानते हैं, उसको आधार बनाकर नवीन पाठ को पढ़ाना चाहिए । अतः शिक्षक को प्रत्येक प्रकार के पाठ में इस सूत्र का प्रयोग करना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि छात्र नगरपालिका के संगठन के विषय में जानते हैं तो इस ज्ञान के आधार पर उन्हें नगरपालिका के कार्यों के विषय में बताया जा सकता है। इसी प्रकार विधान सभा के संगठन एवं कार्यों के ज्ञान के आधार पर लोकसभा के विषय में पढ़ाया जा सकता है।
2. सरल से जटिल की ओर–इस सूत्र का अर्थ है कि बालकों को पहले सरल विषय की ओर बातें बतायी जाएँ, उसके बाद ही जटिल बातों का ज्ञान कराया जाना चाहिए। यदि इस क्रम के विपरीत कार्य किया गया तो बालक की विषय में रुचि उत्पन्न नहीं हो पायेगी। इस सम्बन्ध में हर्बर्ट स्पेन्सर ने लिखा है, “यदि ज्ञान प्रदान करने में इस क्रम को ग्रहण नहीं किया गया, तो छात्र शब्दों के अलावा कुछ नहीं सीख पायेगा और शीघ्र ही उसे विषय से घृणा तथा अरुचि हो जायेगी।’ परन्तु इस सम्बन्ध में यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ‘सरल’ बालक के दृष्टिकोण से हो, न कि शिक्षक के। क्योंकि जो बात बालक के दृष्टिकोण से कठिन है, हो सकता है वह शिक्षक के दृष्टिकोण से सरल हो। अत: ‘सरल’ और ‘कठिन’ का निर्माण बालक के दृष्टिकोण से किया जाए। उदाहरणार्थ, नागरिकशास्त्र के शिक्षक को इस सूत्र अनुसार राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली का ज्ञान देने से पूर्व चुनाव-पद्धति का ज्ञान देना चाहिए।
3. सुगम से कठिन की ओर-इस सूत्र का अर्थ यह है कि छात्रों को पहले पाठ को सुगम बतों को बताएँ । इसके बाद ही उन्हें पाठ की कठिन बातों का ज्ञान कराया जाना चाहिए । उदाहरणार्थ, यदि नागरिकशास्त्र का शिक्षक राष्ट्रपति के अधिकारों के विषय में पढ़ रहा है तो उसे इस सूत्र के अनुसार पहले कार्यपालिका, वैधानिक आदि अधिकारों के विषय में पढ़ाना
चाहिए और बाद में संकटकालीन अधिकारों के विषय में बताना चाहिए।
4. स्थूल से सूक्ष्म की ओर-इस सूत्र का अर्थ है कि प्रारम्भ में बालकों को स्थूल वस्तुओं का ज्ञान देना चाहिए। बाद में उन्हें सूक्ष्म विचारों का ज्ञान प्रदान किया जाए। उदाहरणार्थ, यदि नागरिकशास्त्र का शिक्षक ग्राम पंचायत के कार्यों के विषय में पढ़ाना चाहता है तो उसे पहले उन वस्तुओं एवं कार्यों को दिखाना चाहिए जो गाँव में ग्राम पंचायत द्वारा ग्राम की सफाई, रोशनी, शिक्षा आदि के लिये किये गये हैं।
5. अनिश्चित से निश्चित की ओर-प्रारम्भिक काल में बालक का ज्ञान अनिश्चित एवं अस्पष्ट होता है। इस सूत्र के अनुसार शिक्षक को इस अस्पष्ट एवं अनिश्चित ज्ञान को प्रारम्भिक बिन्दु बनाकर धीरे-धीरे इसे स्पष्ट बनाना चाहिए। उदाहरणार्थ, विद्यालय आने से पूर्व बालक विधानसभा एवं लोकसभा के चुनावों के विषय में बहुत कुछ सुन चुका होता है परन्तु इनकी चुनाव-प्रणाली के विषय में उसका ज्ञान अपरिपक्व एवं अनिश्चित होता है। अत: इसे इनकी चुनाव-प्रणाली के विषय में पढ़ाते समय इस अनिश्चित ज्ञान को आधार बनाकर आगे बढ़ना चाहिए।
6. विशिष्ट के सामान्य की ओर—इस सूत्र का अर्थ है—विभिन्न विशिष्ट उदाहरणों या तथ्यों के आधार पर कोई सामान्य नियम निकालना । इस सूत्र का प्रयोग करते समय शिक्षक को छात्रों के समक्ष कुछ विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने पड़ते हैं और छात्र उनका परीक्षण करके उनसे सम्बन्धित नियम निकालते हैं। उदाहरणार्थ, यदि नागरिकशास्त्र का शिक्षक आदर्श नागरिक के गुणों के विषय में पढ़ा रहा है तो उसे इस सूत्र का प्रयोग करने के लिए पहले कुछ उत्तम नागरिकों-महात्मा गाँधी, नेहरू, महाराणा प्रताप आदि के उदाहरण प्रस्तुत करने पड़ेंगे; उनके गुणों के विवेचन के आधार पर वह आदर्श नागरिकों के गुणों को सामान्यीकरण के रूप में निकलवायेगा।
7. पूर्ण से अंश की ओर-अवयवीवादी मनोवैज्ञानिकों (Gestalt Psychologists) ने सिद्ध कर दिया है कि वस्तुओं के विषय में बालक के विचार खण्डों में नहीं होते हैं। अत: इस सिद्धान्त के अनुसार बालक को पहले पूर्ण का ज्ञान कराया जाए और उसके बाद ही उसके अंशों को बताया जाए। इसी सिद्धान्त के आधार पर इकाई योजना (Unit Plan) का जन्म हुआ। अत: शिक्षक को छात्रों को पूरी बात बताने के बाद ही उसके भागों को बताना चाहिए।
8. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर-छात्रों को किसी विषय का पूर्ण ज्ञान एवं निश्चित ज्ञान देने के लिए शिक्षक द्वारा विषय-वस्तु का विश्लेषण एवं संश्लेषण करना अनिवार्य है। क्योंकि विश्लेषण बालक को किसी बात को समझने में सहायता देता है और संश्लेषण उस ज्ञान को निश्चित रूप प्रदान करता है। अत: नागरिकशास्त्र के शिक्षक को अपने शिक्षण में आवश्यकतानुसार इस सूत्र का प्रयोग करना चाहिए।
9. मनोवैज्ञानिक से क्रमबद्धता की ओर—इस सूत्र के अनुसार विषय-वस्तु को बालकों की रुचियों, रुझानों आदि के अनुसार प्रस्तुत करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि बालक की रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं, रुझानों आदि को ध्यान में रखकर छात्रों को पढ़ाना चाहिए। जैसे-जैसे उनका ज्ञान बढ़ता जाए वैसे-वैसे उनके ज्ञान को तार्किक बनाते जाइये।
10. समीप से दूर की ओर इस सूत्र के अनुसार पहले बालक को समीपस्थ पर्याप्त का ज्ञान देना चाहिए और इसके बाद उसे दूर के वातावरण से अवगत कराया जाए। उदाहरणार्थ, नागरिकशास्त्र में सबसे पहले परिवार का ज्ञान दिया जाए क्योंकि बालक उससे घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। इसके बाद उसे उसके पड़ोस ग्राम या नगर, जिला, प्रदेश, राज्य, राष्ट्र तथा विश्व का ज्ञान दिया जाए। उपर्युक्त सिद्धान्तों एवं सूत्रों का अनुसरण करके शिक्षक अपने शिक्षण को सफल एवं प्रभावशाली बना सकता है। साथ ही वह अपने छात्रों को कुछ सिखाने में भी समर्थ होगा। आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक पाठ में प्रत्येक सूत्र का अनुसरण किया जाए । यह पाठ की प्रकृति पर निर्भर है कि उसके अध्यापन के लिए किस शिक्षण-सूत्र का प्रयोग किया जाए।

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