Pedagogy of civics

B.ed Notes in Hindi | नागरिकशास्त्र शिक्षण

B.ed Notes in Hindi | नागरिकशास्त्र शिक्षण

Q.7. राष्ट्रीय राजनीति में नागरिकशास्त्र शिक्षण की भूमिका का विवेचन करें।
(Discuss the role of civics teaching in national politics)
Ans. सदियों की गुलामी के बाद देश को स्वतंत्रता मिली। 15 अगस्त पुण्य राष्ट्र पर्व बन गया। साथ ही नयी-नयी समस्याओं और उत्तदायित्यों को भी साथ लाया। इस दिन हमने सोचा-मानो हम युगों की प्रगाढ़ निद्रा से जागकर अब कर्त्तव्यरत होने जा रहे हैं। अधिकार मिले-सभी नागरिक अधिकार-मौलिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक और हमने स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारे का पाठ पढ़ा । किन्तु इन अधिकारों के साथ हमें नागरिक के महान् कर्त्तव्य का भी निर्वाह करना है। उन गम्भीर दायित्वों का भी निर्वाह करना है जो हमारी स्वाधीनता न हमें दिये।
इन अधिकारों के सच्चे उपयोग तथा दायित्वों के निर्वाह के लिए हमें नागरिकशास्त्र का अध्ययन करना परमावश्यक है क्योंकि नागरिकशास्त्र हमें यह सिखाता है कि अधिकार एवं कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं जिनको पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता । यदि हम अपने अधिकारों का सच्चा उपयोग करना चाहते हैं तो हमको अपने दायित्वों का सत्यनिष्ठा के साथ निर्वाह भी करना होगा। अतः नागरिकशास्त्र की इस दृष्टिकोण से बहुत उपयोगिता है।
सदियों की गुलामी के कारण हममें ऐसे गुणों का अभाव हो गया जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए परमावश्यक है। हममें आत्म-सम्मान एवं आत्म-गौरव नाम की कोई वस्तु न रही। हम अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को हेय की दृष्टि से देखने लगे। हम अपने दायित्वों को केवल दण्ड के भय से निर्वाह करने के आदी हो गये हैं और स्वतन्त्रता के बाद हमनै केवल
अधिकारों की मांग की। जब कानून या किसी शक्ति ने हमें अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए बाध्य किया तभी हमने अपने दायित्वों को निभाने के लिए उकसाते हुए कदम उठाये जबकि हमें स्वेच्छा एवं समझदारी के साथ इनको निभाने के लिए तत्पर होना चाहिए था।
उक्त परिस्थितियों ने भारत में नागरिकशास्त्र की उपयोगिता को और भी बढ़ा दिया क्योंकि नागरिकशास्त्र द्वारा हम नागरिकों में नागरिक कुशलता, राष्ट्रीय समस्याओं के समझने एवं उनका समाधान करने की क्षमता, अनुशासन, सहिष्णुता, आत्म-सम्मान, स्वेच्छा से आज्ञा-पालन एवं उनकी भावना आदि गुणों के विकास में सहायता प्रदान कर सकते हैं। साथ ही उक्त परिस्थितियों
ने दूर करके एक आदर्श समाज के निर्माण में सहयोग दे सकते हैं।
आज हम चारों ओर अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अत्याचार, अराजकता एवं अव्यवस्था के बारे में सुनते एवं देखते हैं। साथ ही भाषा, जाति, सम्प्रदाय, धर्म, क्षेत्र आदि के नाम पर लोगों को लड़ते-झगड़ते देखत हैं। इन झगड़ों एवं संघर्षों के फलस्वरूप हम अपनी राष्ट्रीय एकता को विशृंखलित होते देख रहे हैं जिसके फलस्वरूप यह मांग की जा रही है कि शिक्षा राष्ट्रीय एकता के लिए होनी चाहिये । शिक्षा द्वारा इन विघटनकारी प्रवृत्तियों को दूर करके सहिष्णुता, सामंजस्य, सौहार्द आदि की भावनाओं का विकास किया जाये। नागरिकशास्त्र का अध्ययन इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। नागरिकशास्त्र हमें सिखाता है कि ‘रहो और रहने दो।’ यह सिदान्त मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम, सहयोग एवं सद्भावना उत्पन्न करता है। आज की परीस्थितियों
 में सद्भावना का विकास करना अनिवार्य है । साथ ही नागरिकशास्त्र राष्ट्रीय चरित्र एवं  राष्ट्रीय चेतना के विकास में सहायक है। यह शास्त्र उस सामाजिक गुणों के विकास में भी सहायक है जो एक सफल एवं सुखद सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य है।
अन्त में हम कह सकते हैं कि भारत में लोकतंत्र की स्थापना अभी हुई है, उसे देखते हुए भारतीय विद्यार्थियों के लिए नागरिकशास्त्र के अध्ययन का बहुत महत्व है। लोकतंत्र के लिए सबसे अधिक आवश्यकता प्रबुद्ध एवं जागरूक नागरिकों की है और नागरिकता की इस भावना तथा राजनैतिक नेतृत्व के गुण विकसित करने की क्षमता इस शास्त्र के अध्ययन में ही निहित है। इस कारण आज इस शास्त्र या समाज विज्ञान (Social Science) के अध्ययन को अधिकाधिक महत्व प्रदान किया जा रहा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में नागरिकशास्र को एक पृथक एवं महत्वपूर्ण विषय के रूप में नहीं देखा जाता था। इसका प्रमुख कारण यह था कि अंग्रेजों को मुख्य उद्देश्य भारत पर शासन करना था। इसी कारण वे लोग यह नहीं चाहते थे कि यहाँ के निवासियों में राजनैतिक जागरूकता आये, क्योंकि वे राजनैतिक सजगता का परिणाम अमेरिका में देख चुके थे। उन्हें अमेरिकन उपनिवेशों से हाथ धोना पड़ा था । यद्यपि उनके शासनकाल में राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ, परन्तु जनता में जो विचार एवं सजगता नागरिकशास्त्र के अध्ययन द्वारा विकसित की जाती है, वह नहीं हो सकी। इसी कारण शताब्दियों की दासता ने भारतीयों को बहुत-सी अच्छी बातों से वंचित रखा । इस दासता ने व्यक्ति तथा राष्ट्र का अध:पतन कर दिया था। साथ ही नागरिकता के गुणों का सम्यक् विकास नहीं हो सका । इस अध: पतन की दशा से देश के नागरिकों को उठाने हेतु
नागरिकशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता है।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत ने अपने को लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया । लोकतन्त्र तभी सफल हो सकता है जब उसके नागरिक सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से सजग होंगे। उनको सजग बनाने के लिए उन्हें अपने कर्तव्यों (कुटुम्ब, पड़ोस, ग्राम, नगर, जिला, प्रदेश, देश तथा विश्व के प्रति) एवं अधिकारों का ज्ञान कराना परमावश्यक है। उनको अपने अधिकारों के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि दूसरों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त उनमें उत्तरदायित्व ग्रहण करने तथा उसका पूर्ण क्षमता के अनुसार निर्वाह करने की भावना का विकास होना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने लोकतन्त्रीय भारत की शैक्षिक आवश्यकताओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, “शिक्षा-व्यवस्था को आदतों, दृष्टिकोण और चरित्र के गुणों के विकास में योग देना पड़ेगा, जिससे कि नागरिक लोकतन्त्रीय नागरिकता के दायित्वों का योग्यता से निर्वाह कर सकें और उन ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विरोध कर सकें जो व्यापक राष्ट्रीय और धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण के विकास में बाधक हो ।” उक्त सभी आवश्यकता की पूर्ति एवं नागरिकता के विकास के लिए नागरिकशास्त्र का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
दासता ने हमारी सामाजिक स्थिति एवं सम्बन्धों को भी दूषित कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप हमारे समाज में विभिन्न सामाजिक कुरीतियाँ उत्पन्न हो गयी थीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे समक्ष प्रश्न उठा है कि सामाजिक कुरीतियों को किस प्रकार दूर किया जाये और उनको दूर करके एक आदर्श समाज की स्थापना किन सिद्धान्तों एवं आदर्शों के आधार पर की
जाये ? एक नागरिक को दूसरे नागरिक के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ? पड़ोसी राष्ट्रों के साथ कैसे सम्बन्ध रखे जायें? इन समस्त प्रश्नों का आदर्श हल नागरिकशास्त्र द्वारा प्रदान किया जाता है। इसलिए भी भारत के लिए इस शास्त्र का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है।
यह कहना पूर्णतया सत्य है कि आज के छात्र कल के नागरिक हैं और राष्ट्र का भविष्य उन्हीं के चरित्र एवं आदर्शों पर निर्भर है । इसलिए यह परमावश्यक है कि छात्रों में उत्तम चारित्रिक गुणों एवं आदर्शों को विकसित करने के लिए उनको इस शास्त्र का अध्ययन कराया जाना चाहिए।
सदियों की गुलामी के बाद देश को स्वतन्त्रता मिली। 15 अगस्त पुण्य राष्ट्र-पर्व बन गया। साथ ही नयी-नयी समस्याओं और उत्तरदायित्वों को भी साथ लाया । उस दिन हमने सोचा-मानों हम युगों की प्रगढ़ निद्रा से जागकर अब कर्त्तव्यरत होने जा रहे हैं। अधिकार मिले सभी नागरिक अधिकार-मौलिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक और हमने स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारे का पाठ पढ़ा । किन्तु इन अधिकारों के साथ हमें नागरिक के महान् कर्त्तव्यों का भी निर्वाह करना है, उन गभीर दायित्वों का भी सफलतापूर्वक निर्वाह करना है जो हमारी स्वाधीनता ने हमें दिये।
इन अधिकारों के सच्चे उपभोग तथा दायित्वों के निर्वाह के लिए हमें नागरिकशास्त्र का अध्ययन करना परमावश्यक है क्योंकि नागरिकशास्त्र हमें यह सिखाता है कि अधिकार एवं कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं जिनको पृथक-पृथक् नहीं किया जा सकता है। यदि हम अपने अधिकारों का सच्चा उपयोग करना चाहते हैं तो हमको अपने दायित्वों का सत्यनिष्ठा के साथ
निर्वाह भी करना होगा। अत: नागरिकशास्र का इस दृष्टिकोण से बहुत महत्व है।
सदियों की गुलामी के कारण हममें ऐसे गुणों का अभाव है जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए परमावश्यक है। हममें आत्म-सम्मान एवं आत्म-गौरव नाम की कोई वस्तु न रही। हम अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को हेय की दृष्टि से देखने लगे। हम अपने दायित्वों को केवल दण्ड के भय से निर्वाह करने के आदी हो गये और स्वतन्त्रता के बाद हमने केवल अधिकारों को ही मांग की। जब कानून या किसी शक्ति ने हमें अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए बाध्य किया तभी हमने अपने दायित्वों को निभाने के लिए अलकसाते हुए कदम उठाये जबकि हमें स्वेच्छा एवं समझदारी के साथ इनको निभाने के लिए तत्पर होना चाहिए था।
उक्त परिस्थितियों ने भारत में नागरिकशास्त्र के महत्व को और भी अधिक बढ़ा दिया। नागरिकशास्त्र द्वारा हम नागरिकों में नागरिक कुशलता, राष्ट्रीय समस्याओं को समझने एवं उनका समाधान करने की क्षमता, अनुशासन, सहिष्णुता, आत्म-सम्मान, स्वेच्छा से आज्ञा-पालन करने की भावना आदि गुणों का विकास करके उनको योग्य एवं कुशल नागरिक बनाने में समर्थ हो सकते हैं। साथ ही उक्त परिस्थितियों को दूर करके एक आदर्श समाज के निर्माण में सहयोग दे सकते हैं।
आज हम चारों ओर अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अत्याचार, अराजकता एवं व्यवस्था के बारे में सुनते एवं देखते हैं। साथ ही. भाषा, जाति, सम्प्रदाय, धर्म, क्षेत्र आदि के नाम पर लोगों को लड़ते-झगड़ते देखते हैं। इन झगड़ों एवं संघर्षों के परिणामस्वरूप हम अपनी राष्ट्रीय एकता को विशृंखलित होते देख रहे हैं जिसके फलस्वरूप चारों ओर से यह मांग की जा रही है कि शिक्षा
राष्ट्रीय एकता के लिए होनी चाहिए । शिक्षा द्वारा इन विघटनकारी प्रवृत्तियों को दूर करके सहिष्णुता सामंजस्य, सौहार्द आदि की भावनाओं का विकास किया जाये।
शिक्षा आयोग के शब्दों में, “नागरिक और राष्ट्रीय एकीकरण एक ऐसी समस्या है जिससे कई मोर्चों पर जूझना पड़ेगा जिनमें से एक शिक्षा की है। हमारी राय में शिक्षा में निम्नलिखित को स्थान देकर कार्य में सफलता प्राप्त की जा सकती है।’
(i) लोक शिक्षा की एक समान स्कूल प्रणाली शुरू की जाये।
(ii) शिक्षा के सभी स्तरों पर सामाजिकता तथा राष्ट्रीय सेवा को शिक्षा का एक अभिन्न अंग बनाया जाये।
(iii) राष्ट्रीय चेतना को प्रोत्साहन दिया जाये।
उक्त समस्याओं के समाधान में नागरिकशास्त्र का अध्ययन बहुत सहायक है। नागरिकशास्त्र हमें सिखाता है कि ‘रहो और रहने दो’ यह सिद्धान्त मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम, सहयोग एवं सद्भावना उत्पन्न करता है । आज की परिस्थितियों में सद्भावना का विकास करना अनिवार्य है। साथ ही नागरिकशास्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण के निर्माण में भी सहायक है जिसके अभाव की आज हम अपने देश में अनुभूति कर रहे हैं । नागरिकशास्र उन सामाजिक गुणों के विकास में भी सहायता करता है जो एक सफल एवं सुखद सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य है।
26 जनवरी, 1950 को भारत का नवीन संविधान लागू किया गया। इस संविधान ने भारत को धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया । आज देश धर्म-निरपेक्षता तथा लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों पर अग्रसर हो रहा है। लोकतन्त्र में सभी वर्गों एवं सम्प्रदायों तथा धर्मों को उचित स्थान प्रदान करने के लिए नागरिकशास्र का बहुत महत्व है। इसके अध्ययन से व्यक्ति यह जानने में समर्थ हो सकता है कि उनको किस प्रकार से उचित स्थान प्रदान किया जाये। साथ ही यह उनको लोकतन्त्रीय जीवन के ढंग को सिखला सकता है। ऐसा यह लोगों को स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृत्व का महत्व बतलाकर और उनमें सहयोग, परोपकारिता, ‘रहो और रहने दो’ की भावना आदि का विकास करके कर सकता है।
छात्रों के दृष्टिकोण से भारत में नागरिकशास्त्र का महत्व बहुत अधिक है, क्योंकि आज देश के छात्रों में अशान्ति, नैराश्य एवं उच्छृखलता का बोलबाला है। इसके अतिरिक्त वे ही आने वाले कल के भावी नागरिक हैं। उन्हीं को इस देश के सभी क्षेत्रों के कार्यों का भार अपने कन्धों पर उठाना है। अत: नागरिकशास्त्र उनको इस अवस्था से निकलने में सहायता प्रदान करेगा। साथ ही उनको अपने दायित्वों एवं अधिकारों से अवगत कराकर योग्य नागरिक बनने में सहायता प्रदान कर सकता है।

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