B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र
B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र
Q. माध्यमिक स्तर पर नागरिकशास्त्र-शिक्षण के उद्देश्यों का वर्णन करें।
(Describe the Teaching Objectives of Civics at secondary levels.)
Ans. “किसी भी विषय के शिक्षण के लिए निर्धारित शिक्षण उद्देश्य जैसे होंगे वैसे ही शिक्षण क्रियाएँ होंगी।” इस उक्ति से स्पष्ट होता है कि शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सुचारू व सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए सबसे पहले शिक्षण उद्देश्यों को निर्धारित करना परमावश्यक हो जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में जब इन उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है, तो इन्हें शैक्षिक उद्देश्य नाम लेकर परिभाषित किया जाता है। व्यावहारिक रूप में लिखे गये उद्देश्य अधिगमकर्ता को अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रेरित करते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति तक सक्रिय रखने में सहायक होते हैं इसलिए नागरिक शास्त्र के शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है-
1. देश के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक मसलों पर तर्क द्वारा निर्णय कर सकने की क्षमता का विकास करना ।
2. देश में घटित हो रही राजनैतिक एवं सामाजिक घटनाओं की तथ्यपूर्ण जानकारी करने में रुचि विकसित करना।
3. शिक्षार्थियों में अप्रत्याशित स्थिति में अपने अर्जित ज्ञान का प्रयोग कर सकने की शक्ति का विकास करना।
4. शिक्षार्थियों को सामूहिक आयोजनों में उत्साहपूर्वक सक्रिय भाग लेने की आदत विकसित करना।
5. शिक्षार्थियों को परिवार और समाज में स्वयं पर अनुशासन रखते हुए कानून तथा नियमों का पालन करने में तत्पर रहना।
6. शिक्षार्थियों को सामुदायिक हित के लिए स्वहित का बलिदान करने के लिए तैयार करना।
7. सामाजिक एकता को भंग किये बिना तुरन्त ही सामाजिक परिवर्तन कर सकने के लिए शिक्षार्थियों में चेतना और जिज्ञासा विकसित करना ।
8. नागरिक गुणों एवं क्षमताओं के विकास के लिए निरन्तर प्रयत्न करना ।
9. किसी सामयिक समस्या का प्रजातांत्रिक हल ढूँढ़ने के लिए विद्यार्थियों को तैयार करना ।
10. शिक्षार्थियों में सहयोग, परस्पर सहायता, सहिष्णुता और समाज सेवा के प्रति रुचि विकसित करना।
11. पूजा के विभिन्न तरीकों के प्रति आदर-भाव एवं सहिष्णुता के भाव विद्याथ्रियों में विकसित करना।
12. शिक्षार्थियों में संकुचित विचारधारा त्याग कर विश्वबन्धुत्व जैसे विशाल दृष्टिकोण को अपनाने की भावना विकसित करना ।
नागरिकशास्त्र के अनुदेशनात्मक उद्देश्य वे उद्देश्य हैं, जो समाज और राष्ट्र की आवश्यकता के अनुकूल आवश्यकताओं को देखते हुए उनकी पूर्ति के लिए अनुपालन स्वरूप बनाये गये हैं। वे अनुदेशनात्मक उद्देश्य कहलाते हैं, जिनकी पूर्ति में ही राष्ट्र का विकास, राष्ट्र का भविष्य और समाज का भविष्य सुनिश्चित है। इन अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का निर्माण करने के लिए विशिष्ट
विषयवस्तु को आधार मानकर निर्धारित करने की आवश्यकता पड़ती है। ये एक प्रकार से अध्यापकों को निर्देशन देते हैं कि उन्हें विषयवस्तु को किस प्रकार से पढ़ाना है, अवबोध कराना है और ग्रहण किये गये उद्देश्यों का मूल्यांकन करना है। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की महत्ता को इस उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है कि जैसे नाव चलाने वाले नाविक के लिए अन्तिम गन्तव्य स्थल पर पड़ाव स्थल सुनिश्चित होना चाहिए, तभी वह समुद्र की गहराइयों तथा थपेड़ों को पार कर निश्चित स्थान पर पहुंच सकता है। उसी प्रकार अध्यापक को भी अपने शिक्षण कार्य को प्रारम्भ करने से पहले अपने गन्तव्य स्थान
(उद्देश्य) तथा पड़ाव स्थल (सहायक सामग्री, उदाहरण, दृष्टांत, घटनाएँ) को सुनिश्चित चाहिए, जिससे वह अपने निश्चित स्थान (उद्देश्यों की प्राप्ति) तक पहुँच सके । नागरिकशास्त्र की विषय वस्तु यों तो छात्र अथवा शिक्षार्थियों के चारों ओर बिखरी पड़ी है और छात्र उसके बारे में जानते भी हैं परन्तु उसे क्रमबद्ध कर, सुनियोजित कर, व्यवस्थित तरीके प्रदान कर नागरिकशास्त्र
विषय की महत्ता को स्थापित किया जा सकता है । यह कार्य अध्यापक तभी कर सकता है जब वह प्रत्येक कालांश में पढ़ाई जानेवाली विषयवस्तु के पीछे छिपे अदृश्य मूल उद्देश्य को सुनिश्चित कर ले इसलिए प्रत्येक पाठ के पूर्व अनुदेशात्मक या विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण करना अत्यन्त आवश्यक है । उद्देश्य निर्धारित करने के साथ-साथ अध्यापक के मस्तिष्क में यह बात भी पूर्णतया स्पष्ट होनी चाहिए कि छात्र को बताये जाने वाले ज्ञान के परिणामस्वरूप छात्र के व्यवहार में क्या परिवर्तन लाना चाहता है इसलिए इन उद्देश्यों का निर्धारण विद्यार्थियों के व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में लिखित स्वरूप दिया जाता है।
नागरिकशास्त्र के विशिष्ट उद्देश्य अथवा अनुदेशनात्मक उद्देश्य
(Specific Objectives or Instructional Objectives of Civics)
नागरिकशास्त्र के तीन प्रकार के विशिष्ट या अनुदेशनात्मक उद्देश्य बताये गये हैं-
(अ) ज्ञानात्मक उद्देश्य (Knowledge of Domain)
(ब) भावात्मक उद्देश्य (Affective Domain)
(स) मनोगत्यात्मक उद्देश्य (Psycho-motor Domain) अब हम उपरोक्त तीनों विशिष्ट उद्देश्यों का विस्तृत अध्ययन निम्नलिखित प्रकार करेंगे-
(अ) ज्ञानात्मक उद्देश्य (Domain Knowledge)-इसका विकास डॉ. ब्लूम ने 1956 ई. में अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में किया। इसमें मस्तिष्क एवं मन से सम्बन्धित क्रियाओं का समावेश किया गया है। इसमें तथ्यों, सूचनाओं को एकत्र करना एवं विषयवस्तु का मूल्यांकन करना आदि का समावेश करना होता है । कठिनाइयों को दूर करने की दृष्टि से ज्ञानात्मक पक्ष को छ: उपवर्गों में विभक्त किया गया है, जो निम्नलिखित हैं-
1. ज्ञान (Knowledge)-ज्ञान में मुख्यतः दो बातों पर ध्यान दिया जाता है—(1) प्रत्यास्मरण और (2) प्रत्याभिज्ञान । प्रत्यास्मरण का अर्थ है-सीखे हुए ज्ञान का पुनःस्मरण करना तथा प्रत्याभिज्ञान का अर्थ है–सीखे हुए ज्ञान का सामान्य प्रत्यक्ष से उसमें दिये विस्तृत ज्ञान को ग्रहण करना।
प्रत्यास्मरण का उदाहरण: भारत में स्थानीय स्वशासन की त्रिस्तरीय व्यवस्था की संस्थाओं के
नाम बताओ । प्रत्याभिज्ञान का उदाहरण-‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में दुष्यन्त को अँगूठी के माध्यम
से
शकुन्तला के सम्बन्ध को स्मरण कराया गया है। यहाँ अंगूठी के पीछे बड़ी घटना जुड़ी है।
2. अवबोध (Understaning)-अवबोध का अर्थ समझ से लिया जाता है। किसी भी विषयवस्तु की जानकारी प्राप्त करने के बाद दोनों प्रकार की बातों में तुलना करने की योग्यता, कारण तथा प्रभाव जानकर निर्णय कर सकने की योग्यता विकसित करना तथा कठिन विषयवस्तु की व्याख्या तथा विश्लेषण करने की योग्यता विद्यार्थी को उस विषयवस्तु का अवबोध कराती है
इस आधार पर नागरिकशास्त्र विषय से तथ्यों, पदों, प्रत्ययों तथा सामान्य कारणों और धारणाओं का विद्यार्थी “अवबोध करता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति करने पर बालक (विद्यार्थी) विभिन्न तथ्यों, पदों के मध्य तुलना करता
है। जैसे—अमरीका की प्रजातंत्रीय शासन व्यवस्था तथा भारत की प्रजातात्रिक शासन प्रणाली की तुलना । उदाहरणार्थ-एक सदनीय, द्विसदनीय विधानसभाओं का उदाहरण देता है। कारण और प्रभाव के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण और अन्तर्निहित धारणाओं की व्याख्या करता है।
उदाहरण : सकारात्मक व्यवस्था को बनाये रखने का कारण, राष्ट्रपति जो नाममात्र का शासक रखने का कारण । राजतंत्र प्रथा प्रचलित न हो जाय, इसके तथ्य व राज्य में सम्बन्ध स्थापित करता है। समाज में साक्षात्कार और विभिन्न आंकड़ों से तथ्य तथा परिणाम निकाल सकता है
3. ज्ञानोपयोग (Application)-इसका अर्थ है-सैद्धान्तिक रूप में प्राप्त ज्ञान का व्यावहारिक जीवन की समस्याओं को सुलझाने में प्रयोग या उपयोग करना । शिक्षार्थी इस उद्देश्य की प्राप्ति करने पर नवीन समस्या का विश्लेषण तथा संश्लेषण कर सकता है एवं निष्कर्ष निकाला जा सकता है । घटनाओं के आधार पर भविष्यवाणी भी कर सकता है। इस उद्देश्य को प्राप्त कर
विद्यार्थी अपने ज्ञान के आधार पर जीवन की समस्याओं को हल करने में प्रयुक्त कर सकने की क्षमता को विकसित करता है।
4. विश्लेषण (Analysis)-इस उद्देश्य के अन्तर्गत विषयवस्तु को अलग-अलग भागों में बाँटकर उसमें भेद-प्रभेद करना, पहचानना, उदाहरण देना, निष्कर्ष निकालना और रूपरेखा तैयार करनी होती है। यह उद्देश्य उपयुक्त तीनों उद्देश्यों से कुछ उच्च स्तर का है । प्राय: माध्यमिक स्तर पर इसकी उपयोगिता समझी जाती है। इसमें विषयवस्तु सम्बन्धी तत्वों, सम्बन्धों व संगठित किये जाने वाले नियमों के विकास पर ध्यान दिया जाता है।
5. संश्लेषण (Synthesis)-इसके अन्तर्गत अलग-अलग अध्ययन किये गये भागों को मिलाकर पुनः एक किया जाता है । सामान्यतः इसमें पूर्वानुभवों को नवीन विषय-सामग्री के साथ जोड़ते हैं। विचारों एवं तथ्यों को सुसम्बद्ध और क्रमबद्ध करके पूर्वापर सम्बन्ध बनाना संश्लेषण में सम्मिलित है। यह उच्च स्तरीय ज्ञान में प्रयुक्त किया जाता है। इसमें चुनना, मिलाना, पुनः
वर्णन करना, सारांश करना, संगठित करना, निष्कर्ष निकालना आदि सम्मिलित हैं। इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों में तीन प्रकार की योग्यताओं का विकास करना होता है-
(i) समग्रित सम्प्रेषण करना । (ii) नवीन योजनाओं का संगठन कना । (iii) अमूर्त सम्बन्धों को खोजना।
6. मूल्यांकन (Evaluation)-इसके अन्तर्गत दी गयी विषयवस्तु के मूल्यों का निर्णय करना सम्मिलित किया जाता है। विषयवस्तु का निर्णय पाठ के निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। वस्तुतः इसमें विषयवस्तु के अधिगम का मूल्यांकन करना होता है। विषयवस्तु का मूल्य निर्धारण करते समय निम्नलिखित दो बातों को स्मरण रखना आवश्यक है–
(i) अन्त:साक्ष्य : आन्तरिक मानदण्डों या साक्ष्यों के आधार पर निर्णय करना ।
(ii) बाह्य साक्ष्य : इसमें विषयवस्तु के मूल्य का निर्णय बाह्य मानदण्डों के आधार पर करना होता है
इस प्रकार के मूल्यांकन में जाँच करना, विभेद करना, तुलना करना, निष्कर्ष निकालना, विषमता बताना, आलोचना करना, वर्णन करना आदि को सम्मिलित किया जाता है।
(ब) भावनात्मक उद्देश्य (Affective Domain)- विषयवस्तु के ज्ञान के पश्चात् व्यक्ति में सोच, विचार, चिन्तन और दृष्टिकोण में झुकाव और रुझान में परिवर्तन आना ही भावनात्मक परिवर्तन है। इसमें तीन प्रकार के परिवर्तन होते हैं-
(1) रुचि,
(2) अभिरुचि और
(3) अभिवृत्ति ।
1. रुचि (Interest)-(i) विद्यार्थी में प्रशासनिक एवं नागरिक जीवन की समस्याओं को हल करने की क्षमता विकसत होती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति पर छात्र सामाजिक एवं नागरिक जीवन की समस्याओं से सम्बन्धित पुस्तकें, पत्रिकाएँ आदि पढ़ने में विशेष रुचि लेता है।
(ii) समाज सुधारकों और नेताओं की जीवनियाँ पढ़ता है।
2. अभिरुचि अथवा प्राकृतिक रुचि (Aptitude)-
(i) अपने समूह में सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं पर विचार करता है।
(ii) विद्यालय की सामाजिक प्रवृत्तियों में सक्रिय भाग लेता है।
(iii) सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं से सम्बन्धित चित्र एवं रचनाएँ एकत्रित करता है।
(iv) स्कूल-पत्रिका में नागरिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विषयों पर अपने विचार लिखता है।
3. अभिवृत्ति या मुद्रा (Attitude)-कभी-कभी इसको दृढ़ निश्चय भी कहा जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि विचारों का बनना, दृष्टिकोण विकसित होना और सम्बन्धित विचारधारा को गुणा के रूप में धारणा करना कहा जा सकता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति से विद्यार्थी में निम्नांकित गुण विकसित होते हैं-
(i) अच्छे नागरिक में वांछनीय सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास होता है। विषय वस्तु नागरिकशास्त्र के पदों और सिद्धान्तों के सम्बन्ध में सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करती है।
(ii) प्रस्तावित नियमों का आदर करता है।
(iii) स्वस्थ मानवीयता का दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। नये विचारों को ग्रहण करता है और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है।
(iv) सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना ग्रहण करता है।
(v) महान् विचारकों और नेताओं का आदर करता है तथा उनके विचारों की अभिव्यक्ति करता है।
(स) क्रियात्मक पक्ष या मनोदैहिक पक्ष (Practical or Psycho-motor Do- main)-अनुदेशनात्मक उद्देश्यों के मनोदैहिक पक्ष के प्रवर्तक ए. जे. हैरो (1972) है। मनोदैहिक पक्ष को कुछ विद्वान मनोगत्यात्मक तथा मनोदैहिक कौशल कहकर पुकारते हैं। इस उद्देश्य का सम्बन्ध मुख्य रूप से शारीरिक क्रिया कौशल से होता है । इसमें हस्तकलाएँ सम्मिलित हैं। इसके अन्तर्गत हर प्रकार के कौशल में वृद्धि करने की दृष्टि से परिवर्तन भी किया जा सकता है। जैसे—भाषा में चित्र बनाना, भूगोल में मानचित्र पूर्ति करना, विज्ञान में मॉडल बनाना, प्रतिरूप निर्माण आदि । ब्लूम ने इस पक्ष पर विचार तो किया लेकिन इससे अधिक कार्य नहीं किया । ब्लूम ने इसको क्रियात्मक पक्ष के नाम से सम्बोधित किया।
अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अध्यापक के कार्य
(Functions of a Teacher for Instructional Objectives)
इन उद्देश्यों की पूर्ति हो सके, इसके लिए अध्यापक अपनी कक्षा में निम्नांकित कार्य करता–
(i) अनुदेशनात्मक या विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अध्यापक दैनिक पाठ योजनाओं का निर्माण करता है, जिन विशिष्ट उद्देश्यों की क्रिया विषयवस्तु पर आधारित होती है तथा विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर सम्प्रेषित की जाती है।
(ii) अध्यापक प्रतिदिन शिक्षार्थी के अधिगम का मूल्यांकन करता है। प्रतिदिन प्रदान की गयी विषयवस्तु को किस अंश के सम्प्रेषण में अध्यापक कितना सफल रहा है, इसकी पहचान इसी उद्देश्य पर आधारित मूल्यांकन से भी सम्भव है
(iii) ज्ञान के उद्देश्य की प्राप्ति हुई है अथवा नहीं? यह जानकारी प्राप्त करने के लिए अध्यापक ‘कब और कहाँ” जैसे प्रश्न शिक्षार्थियों से पूछता है
(iv) अवबोधक उद्देश्य को पूरा करने के लिए अध्यापक “क्यों, कैसे, कारण, प्रभाव, वर्गीकरण” आदि के आधार पर प्रश्न पूछते हैं।
(v) ज्ञानोपयोग के उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए अध्यापक दैनिक पाठ योजना में निष्कर्षात्मक प्रश्नों का समावेश करता है। नयी परिस्थितियों में ज्ञान के प्रयोग के अवसर प्रदान करता है।
(vi) अध्यापक विद्यार्थियों में अभिवृत्ति का विकास करने के लिए महत्व, दृष्टिकोण तथा विचारात्मक अभिव्यक्ति के प्रश्नों को अपनी दैनिक पाठ-योजना में समावेशित करता है।
(vii) अध्यापक विद्यार्थियों को हस्तकला अथवा कौशलात्मक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए छात्रों से मानचित्र, रेखाचित्र, रेखांकन, मॉडल, प्रतिरूप निर्माण, चार्ट आदि के निर्माण एवं प्रदर्शन के सम्बन्ध में प्रश्न पूछता
इस प्रकार अध्यापक तीस मिनट के कालांश में प्रदान की गयी विषय-वस्तु का आकलन भी कर लेता है कि छात्रों ने इसका कितना प्रतिशत ग्रहण किया है और आगे किस विषयवस्तु का पुनः समावेश करने की आवश्यकता है, का निर्धारण भी कर लेना चाहिए। तभी अध्यापक इन उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है तथा अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
निष्कर्ष (Conclusion)-नागरिकशास्त्र विषय के अनुदेशात्मक उद्देश्यों अथवा विशिष्ट उद्देश्यों के तीनों पक्षों; ज्ञानात्मक , भावात्मक और क्रियात्मक या मनोदैहिक पक्षों की पूर्ति करने के लिए अध्यापक को कक्षा के बाहर भी अनेकानेक कार्य करने पड़ते हैं। कक्षान्तर्गत कार्यों में विद्यार्थियों को सभी विशिष्ट उद्देश्यों को ध्यान में रखकर प्रश्न पूछना, चार्ट, रेखाचित्र, मॉडल आदि बनवाना जैसे कार्यों को सम्मिलित किया जाता है। कक्षा से बाहर कार्यों में अध्यापक द्वारा विशिष्ट उद्देश्यों को ध्यान में रखकर दैनिक पाठ योजना का निर्माण करना, सुन्दर और आकर्षक सहायक सामग्री का निर्माण करना आदि को सम्मिलित किया जाता है। एक योग्य और प्रशिक्षित अध्यापक सामग्री का निर्माण करना आदि को सम्मिलित किया जाता है । एक योग्य और प्रशिक्षित अध्यापक द्वारा ही इन उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव है । अप्रशिक्षित अध्यापक इन उद्देश्यों को पूरा करने में सर्वथा असमर्थ देखा जाता है इसलिए प्रशिक्षित एवं अनुभवी अध्यापक ही इस क्रिया में अधिक सफलता अर्जित कर सकते हैं। इस प्रकार यह दायित्व योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षक को ही सौंपा जाना चाहिए ।