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CTET Notes in Hindi | शारीरिक विकास, क्रियात्मक विकास एवं मानसिक विकास

CTET Notes in Hindi | शारीरिक विकास, क्रियात्मक विकास एवं मानसिक विकास

शारीरिक विकास, क्रियात्मक विकासएवं मानसिक विकास

◆ शारीरिक विकास से तात्पर्य बालकों में उम्र के अनुसार आकार (Body Size), शारीरिक अनुपात (Body Proportions), हड्डियों (Bones), माँसपेशियों (Muscles), दाँत (Teeth) तथा तंत्रिकातंत्र (Nervous System) में समुचित विकास से होता है।
◆ बालकों में शारीरिक विकास एकसमान गति से हमेशा नहीं होता है। कभी यह तेजी से होता है, तो कभी मंद गति से।
◆ मेरेडिथ (Meredith) तथा टेन्नर (Tanner) के अनुसार, “शारीरिक विकास की चार विभिन्न अवस्थाएँ हैं जिनमें दो में शारीरिक विकास की गति मंद होती है और दो में शारीरिक विकास की गति तीव्र होती है।”
◆ पूर्व प्रसूतिकाल तथा जन्म के प्रथम 6 महीनों में शारीरिक विकास की गति काफी तीव्र होती है। जन्म के 7-8 महीने के बाद से शारीरिक विकास की गति मंद पड़ने लगती है और एकसमान गति (Uniform Rate) से लगभग 12 वर्ष तक चलती रहती है। 12 से 15/16 वर्ष की उम्र में शारीरिक विकास की गति एक बार फिर तीव्र हो जाती है। इसे मनोवैज्ञानिकों ने तारूण्य विकास लहर (Puberty Growth Spurt) कहा है। इसके बाद पूर्ण परिपक्वता की प्राप्ति तक बालकों के शारीरिक विकास की गति में मंदता आ जाती है। इस अवस्था में उनका शारीरिक विकास जिस ऊँचाई तक पहुँच जाता है वह बुढ़ापे तक बना रहता है। सिर्फ वजन घटता-बढ़ता रहता है।
◆ हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “एक क्रमिक (Orderly) एवं संगत (Coherent) परिवर्तनों के उत्तरोत्तर शृंखला (Progressive Sequence) को विकास कहा जाता है। अर्थात् विकास में गुणात्मक परिवर्तन (Qualitative Changes) तथा परिमाणात्मक परिवर्तन (Quantitative Changes) दोनों सम्मिलित रहते हैं।”
◆ शरीर के अंगों के आकार तथा संरचना में परिवर्तन परिमाणात्मक परिवर्तन (Quantitative Changes) के उदाहरण हैं।
◆ गैसेल (Gesel) के अनुसार, “परिपक्वता का तात्पर्य बालकों में होनेवाली उन शारीरिक प्रक्रियाओं से होता है जो स्वयं (Sell) तथा आनुवंशिक रूप से (Genetically) निर्धारित तथ्यों द्वारा निदेशित होते हैं।
◆ गैसेल के अनुसार, “बालकों में होनेवाले सभी फिलोजेनेटिक क्रियाएँ परिपक्वता पर आधारित होते हैं। फिलोजेनेटिक क्रियाओं का तात्पर्य वैसी क्रियाओं से होता है, जो सभी प्रजाति के बच्चों में पायी जाती है। जैसे-छोटे शिशुओं द्वारा सरकना
या खिसकना (Creeping), घुटने के बल चलना (Crawling) ,बैठना, चलना (Walking) इत्यादि ।”
◆ फिलोजेनेटिक क्रियाओं में प्रशिक्षण (Training) से बहुत कम लाभ होता है।
◆ विकास (Development) का संबंध सभी तरह के शारीरिक परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन से होता है। परंतु परिपक्वता का संबंध बालकों में आनुवंशिकता से प्राप्त अंतःशक्तियों (Potentialities) की खुली अभिव्यक्ति से होता है।
शारीरिक विकास की अवस्थाएँ
Stages of Physical Development
मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थओं को 10 भागों में बाँटा है-
1. पूर्वप्रसूतिकाल (Prenatal Period): यह अवस्था गर्भधारण से प्रारंभ होका जन्म तक की होती है।
2. शैशवावस्था (Infancy): यह अवस्था जन्म से प्रथम 10-14 दिनों तक की है।
3. बचपनावस्था (Babyhood): यह अवस्था जन्म के 2 सप्ताह से प्रारंभ होकर 2 साल तक की होती है।
4. बाल्यावस्था (Childhood): यह अवस्था 2 वर्ष से प्रारंभ होकर 12 वर्ष तक की होती है। मनोवैज्ञानिकों ने इसे दो भगों में बाँटा है-
(a) प्रारंभिक बाल्यावस्था (Early Childhood): यह अवस्था 2 वर्ष से प्रारंभ होकर 6 वर्ष की होती है। इसे शिक्षकों द्वारा प्राक् स्कूल अवस्था (Pre School Age) या प्राक्टोली अवस्था (Pre Gang Stage) भी कहा जाता है।
→ इसी अवस्था में बालकों में महत्वपूर्ण शारीरिक विकास (PhysicalDevelopment), भाषा विकास (LanguageDevelopment), प्रत्यक्षणात्मक एवं संज्ञानात्मक विकास (Perceptual and Cognitive Development), बौद्धिक विकास (Intellectual Development), सामाजिक विकास (Social Development) तथा सांवेगिक विकास (Emotional Developmemt) होता है।
→6 वर्ष की उम्र में बालकों के शरीर का औसत वजन 50 पौंड तथा ऊँचाई लगभग 45 ईंच के बराबर होता है।
→ बालकों के शारीरिक गठन में भी अंतर होने लगता है। कुछ बालकों का शारीरिक गठन मोटा होता है यानी वे एंडोमॉर्फिक (Endomorphic Build) होते हैं। कुछ का शारीरिक गठन हृष्ट-पुष्ट (Muscular) होता है, अर्थात् मेसोमॉर्फिक गठन
(Mesomorphic Build) के होते हैं। कुछ का शारीरिक गठन दुबला-पतला होता है अर्थात् वे एक्टोमॉर्फिक गठन के होते हैं।
(b) उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood): यह अवस्था 6 वर्ष से प्रारंभ होकर बालिकाओं में 10 वर्ष की उम्र तक तथा बालकों में 6 वर्ष से प्रारंभ होकर 12 वर्ष की उम्र तक होती है। इस अवस्था से बालक बालिकाओं में यौन परिपक्वता आ जाता है।
→ इस अवस्था को माता पिता, शिक्षकों तथा मनोवैज्ञानिकों द्वारा बालकों के कार्यों के आधार पर विभिन्न नाम दिये गये हैं।
→ माता पिता द्वारा इस अवस्था को उत्पाती अवस्था (Troublesome Stage) कहा गया, क्योंकि अक्सर बालक अपने माता-पिता की बाते न मानकर अपने साथियों की बातें अधिक मानते हैं।
→ शिक्षकों ने इस अवस्था को प्रारंभिक स्कूल अवस्था (Elementary School Stage) कहा है, क्योंकि इस अवस्था में बालक स्कूल में औपचारिक शिक्षा के लिए जाना प्रारंभ कर देते हैं।
→ मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था को गिरोह अवस्था (Gang Age) कहा है, क्योंकि इस अवस्था में बालकों में अपने गिरोह या समूह के अन्य सदस्यों द्वारा स्वीकृत किया जाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।
→ इस अवस्था में बालकों में महत्वपूर्ण शारीरिक विकास, भाषा विकास, सांवेगिक विकास, सामाजिक विकास, मानसिक विकास तथा संज्ञानात्मक विकास होते हैं, जिनका ज्ञान होने से शिक्षक आसानी से बालकों का मार्ग निर्देशन कर पाते हैं।
→ उत्तर बाल्यावस्था में बालकों की ऊँचाई में औसतन 2 से 3 इंच की वार्षिक वृद्धि होती है। 11 वर्ष की लड़की की औसत ऊँचाई 58 इंच तथा उसी उम्र में लड़का की औसत ऊँचाई 57.5 इंच होती है।
→ इस अवस्था में शरीर का वजन 3 से 5 पौंड तक औसतन प्रति वर्ष बढ़ता है। बालकों में पेशीय उत्तक (Muscle Tissue) की अपेक्षा चर्बी उत्तक (Fat Tissue) का अधिक विकास होता है।
इस अवस्था के अंत तक बालकों में 28 स्थायी दाँत निकल आते हैं और 4 स्थायी
दाँत किशोरावस्था (Adolescence) में निकलते हैं।
→ पियाजे के अनुसार, “इस अवस्था में बालक चिंतन के मूर्त परिचालन की अवस्था में होता है, जहाँ इससे पहले सीखे गये संप्रत्यय को अधिक मजबूत, स्पष्ट एवं मूर्त (Concrete) बनाने का प्रयास करता है।
5. तरुणावस्था या प्राक्-किशोरावस्था (Puberty or Pre-Adolescence): लड़कियों में यह अवस्था 11 वर्ष की तथा लड़कों में यह अवस्था 12 वर्ष से 14 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालिका का शरीर एक वयस्क के शरीर का रूप ले लेता है।
6. प्रारंभिक किशोरावस्था (Early Adolescence) : यह अवस्था 13-14 वर्ष से प्रारंभ होकर 17 वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में शारीरिक विकास तथा मानसिक विकास बालकों में अधिकतम होता है और उनमें विवेक तथा उचित-अनुचित का ख्याल अधिक नहीं रहता है।
7. परवर्ती किशोरावस्था (Later Adolescence): यह अवस्था 17 वर्ष से 19-20 वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में बालक पूर्णरूपेण शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वतंत्र हो जाता है और अपने भविष्य के बारे में तरह-तरह की योजनाएँ बनाना शुरू कर देता है। बालक तथा बालिकाओं में विपरीत लिंग (Opposite Sex) के व्यक्तियों के प्रति अभिरुचि अधिक हो जाती है।
8. प्रारंभिक वयस्कता (Early Adulthood): यह अवस्था 21 वर्ष से 40 वर्ष की होती है। इस अवस्था में व्यक्ति शादी कर अपना घर-परिवार बसाता है और किसी व्यवसाय (Occupation) में लग जाता है तथा अपने आत्मविकास (Self-Development) को मजबूत कर आगे बढ़ता है।
9. मध्यावस्था (Middle Age): यह अवस्था 40-60 वर्ष की होती है। इसमें व्यक्ति द्वारा पूर्वप्राप्त उपलब्धि (Achievement)तथा आकांक्षाओं को बहुत सुदृढ़ (Consolidate) किया जाता है।
10. बुढ़ापा या सठियावस्था (Old Age or Senescence) : यह अवस्था 60 वर्ष से मृत्यु तक की होती है। इस अवस्था में शारीरिक तथा मानसिक शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है और सामाजिक कार्यों में व्यक्ति का लगाव कम होता चला जाता है
विकासात्मक पाठ एवं शिक्षा
Development Task and Education
→ हेभिगहर्स्ट (Havighurst) के अनुसार, “विकासात्मक पाठ वह पाठ है जो व्यक्ति की जिंदगी की किसी खास अवधि से या अवधि के बारे में संबंधित होता है तथा जिसकी सफल उपलब्धि से व्यक्ति में खुशी होती है और परवर्ती कार्यों को करने में उसे आनंद आता है, परंतु असफल होने से व्यक्ति को दुःख होता है, समाज में तिरस्कार मिलता है और परवर्ती कार्यों को करने में उसे कठिनाई भी होती है।”
→ विकासात्मक पाठ के द्वारा निम्नांकित तीन तरह की पूर्ति होती है-
★ विकासात्मक पाठ से शिक्षकों तथा अभिभावकों को यह जानने में सुविधा होती है कि एक खास उम्र पर बालक क्या सीखते हैं और क्या नहीं।
★ विकासात्मक पाठ बालकों को उन व्यवहारों को सीखने में एक प्रेरणा का काम करता है, जिसे सामाजिक समूह (Social Group) उसे सीखने के लिए उम्मीद करता है।
★ विकासात्मक पाठ शिक्षकों तथा माता-पिता को यह बताता है कि उन्हें अपने बच्चों से निकट भविष्य तथा सुदूर (Remote) भविष्य में क्या उम्मीद करना चाहिए। अतः विकासात्मक पाठ शिक्षकों तथा अभिभावकों को अपने बच्चों को इस ढंग से तैयार करने की प्रेरणा देते हैं ताकि वे भविष्य की नयी चुनौतियों का सामना कर सकें।
> हेभिंगहर्ट ने बाल्यावस्था (Childhood), किशोरावस्था (Adolescence) तथा प्रारंभिक वयस्कावस्था के लिए निम्नलिखित विकासात्मक पाठ तैयार किये हैं-
(a) प्रारंभिक बाल्यावस्था के लिए विकासात्मक पाठ (Development Task for Early Childhood (0-6 वर्ष)
★ चलना सीखना (Learning to Walk)
★ ठोस आहार लेना सीखना
★ बोलना सीखना
★ मल-मूत्र त्याग करना सीखना
★ यौन अंतरों तथा यौन शालीनता (Sex Modesty) को सीखना
★ शारीरिक संतुलन बनाये रखना सीखना
★ सामाजिक एवं भौतिक वास्तविकता के सरलतम संप्रत्यय को सीखना
★ अपने-आपको माता-पिता, भाई-बहनों तथा अन्य लोगों के साथ सांवेगिक रूप से संबंधित करना सीखना।
★ सही तथा गलत के बीच विभेद करना सीखना तथा अपने में एक विवेक (Conscience) विकसित करना।
(b) उत्तर बाल्यावस्था के लिए विकासात्मक पाठ (Developmental Task for Later Childhood) (6-12 वर्ष)
★ साधारण खेलों के लिए आवश्यक शारीरिक कौशल (Physical Skills) को सीखना।
★ अपने-आपके प्रति एक हितकर मनोवृति (Wholesome Attitude) विकसित करना।
★ अपने ही उम्र के साथियों के साथ मिलना-जुलना सीखना।
★ उपयुक्त पुरुषोचित (Masculine)तथा स्त्रियोचित (Feminine)यौन भूमिकाओं को सीखना।
★ पढ़ना, लिखना तथा गिनती करने से संबंधित मौलिक कौशल (Fundamental Skills) विकसित करना।
★ दिन-प्रतिदिन की सुचारु जिंदगी के लिए आवश्यक संप्रत्ययों को सीखना।
★ नैतिकता, मूल्य (Values) तथा विवेक (Conscience) को सीखना।
★ व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Independence) प्राप्त करने की कोशिश
करना।
★ सामाजिक समूहों एवं संस्थानों के प्रति मनोवृति विकास करना ।
(c) किशोरावस्था के लिए विकासात्मक पाठ (Developmental Task for Adolescence) (13 से 19/20 वर्ष)
★ दोनों यौनों (Sex) की समान उम्र के साथियों (Agemates) के साथ नया एवं एक परपिक्व संबंध कायम रखना।
★ उचित पुरुषोचित या स्त्रियोचित भूमिकाएँ सीखना।
★ माता-पिता तथा अन्य वयस्कों (Adults) से हटकर एक सांवेगिक स्वतंत्रता कायम करना।
★ किसी व्यवसाय का चयन करना तथा उसके लिए अपने आपको तैयार करना ।
★ जीवन की प्रतियोगिताओं के लिए आवश्यक संप्रत्यय (Concepts)तथा बौद्धिक कौशलों (Intellectual Skill) को सीखना।
★ पारिवारिक जीवन तथा शादी के लिए अपने-आपको तैयार करना।
★ सामाजिक रूप से उत्तरदायी व्यवहार का निर्धारण करना तथा उसे प्राप्त करने की भरपूर कोशिश करना।
★ आर्थिक स्वतंत्रता की प्राप्ति की ओर अग्रसर होना।
(d) प्रारंभिक वयस्कता के लिए विकासात्मक पाठ (Developmental Task for Early Adulthood) (21-40 वर्ष)
★ अपना जीवनसाथी चुनना
★ शादी करके अपने जीवनसाथी के साथ रहना सीखना ।
★ एक पारिवारिक जिंदगी प्रारंभ करना ।
★ बाल-बच्चों का लालन-पालन करना सीखना।
★ घर-परिवार को ठीक ढंग से चलाना सीखना ।
★ किसी व्यवसाय में लग जाना ।
★ नागरिक उत्तरदायित्व ग्रहण करना।
★ एक अनुकूल सामाजिक समूह तैयार करना ।
क्रियात्मक विकास
Motor Development
>> क्रियात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में उनकी मांसपेशियों तथा तंत्रिका के समन्वित कार्य द्वारा अपनी शारीरिक क्रियाओं (Bodily Activities) पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने से होता है।
>>हरलॉक के अनुसार, “माँसपेशियों, तंत्रिकाओं (Nerves) तथा तांत्रिक केंद्रों की समन्वित क्रियाओं द्वारा शारीरिक गति पर नियंत्रण प्राप्त करना क्रियात्मक विकास कहलाता है।” जैसे—जिस शिशु के हाथ तथा पैर की माँसपेशियाँ तथा तंत्रिकाएँ
विकसित रहती हैं और उन दोनों के बीच ठीक ढंग से समन्वय (Co-ordination) होता है, उस शिशु में हाथ-पैर के सहारे चलना या सिर्फ पैर के सहारे चलने की प्रक्रिया अधिक तेजी से होती है।
क्रियात्मक विकास के सिद्धांत
Principles of Motor Development
क्रियात्मक विकास के नियम निम्नलिखित हैं-
(a) क्रियात्मक विकास माँसपेशियों तथा तंत्रिकाओं की परिपक्वता पर निर्भर करता है-
→ जन्म के समय शिशुओं में निचली तंत्रिका केंद्र (Lower Nerve Center) (जो मेरुदंड (Spinal Cord) में अवस्थित होता है ) ऊपरी तंत्रिका केंद्र (Upper Nerve Centre) (जो मस्तिष्क में अवस्थित होता है) की अपेक्षा अधिक विकसित होता है। मेरुदंड
द्वारा मूलतः सहज क्रियाओं (Reflex Actions) का नियंत्रण होता है।
→ जन्म के कुछ समय बाद से ही बालकों में सहज क्रिया (Reflex Action) का होना पाया जाता है।
→ एक साल की उम्र में बालकों के मस्तिष्क का कुछ भाग जैसे लघु मस्तिष्क (Cerebellum) तथा वृहत् मस्तिष्क (Cerebrum)का विकास हो जाता है, जिसके फलस्वरूप बालक ऐच्छिक क्रियाएँ (Voluntary Actions) करना प्रारंभ कर देता है।
→ लघु, मस्तिष्क के विकास होने से शिशु के क्रियात्मक व्यवहार जैसे–चलना, पकड़ना इत्यादि अधिक संतुलित दिखते हैं।
→ 5 वर्ष की अवस्था हो जाने पर लघु मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है और बच्चों के क्रियात्मक व्यवहार पूर्णतः संतुलित हो जाते हैं।
→ क्रियात्मक विकास माँसपेशियों की परिपक्वता पर भी निर्भर करता है। माँसपेशियाँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं–धारीदार पेशियाँ (Striped Muscles) तथा अधारीदार पेशियाँ (Unstriped Muscles)।
→ धारीदार पेशियों का संबंध क्रियात्मक व्यवहार से सीधा है और इसके द्वारा सभी ऐच्छिक क्रियाएँ (VoluntaryActions) नियंत्रित होती हैं। ऐसे माँसपेशियों का विकास बाल्यावस्था (Childhood) में धीरे-धीरे होता है। अतः बालकों में ऐच्छिक
क्रियाओं का विकास भी धीरे-धीरे होता है।
(b) किसी भी क्रियात्मक निपुणता को तब तक नहीं सीखा जा सकता जब तक बालक पूर्णरूपेण उसे करने के लिए परिपक्व न हो गया हो : बालकों को किसी प्रकार की क्रियात्मक निपुणता (Motor Skill) तब तक नहीं सिखायी जा सकती है जब तक
उनका परिपक्वन (Maturation) पूर्ण न हो गया हो ।
> परिपक्वन के अभाव में दिया गया प्रशिक्षण (Training) तथा खुद बालक द्वारा किये गये प्रयास (Effort) से कुछ क्षणिक लाभ (Temporary Advantage) हो भी सकता है, परंतु स्थायी लाभ नहीं हो सकता।
(c) क्रियात्मक विकास में एक पूर्वानुमेय पैटर्न होता है (Motor Developmemt Follows a Predictable Pattern) : क्रियात्मक विकास एक निश्चित क्रम (Sequence) के अनुसार सभी बालकों में होता है। अतः यह पूर्वानुमेय (Predictable) होता है। बालकों में क्रियात्मक विकास दो प्रकार के क्रम (Sequence) द्वारा होता है मस्तकाधोमुखी क्रम (Cephalocaudal Sequence) तथा निकट-दूर विकास क्रम (Proximodistal Development Sequence)
→ मस्तकाधोमुखी क्रम (Cephalocaudal Sequence) में विकास सिर से पैर की ओर होता है।
→ निकट-दूर का विकास क्रम (Proximodistal Development Sequence) के अनुसार बालकों के शरीर के उन अंगों का विकास पहले होता है, जो शरीर के केंद्र में होते हैं और शरीर के छोर (Periphery) पर आनेवाले अंगों का विकास
बाद में होता है।
→ निकट-दूर विकासात्मक क्रम के अनुसार बालकों के पेट, छाती, बाँह तथा जाँघ में क्रियात्मक विकास पहले तथा घुटना (Knee), हाथ की अँगुलियों, पैर की अंगुलियों आदि में विकास बाद में होता है।
(d) क्रियात्मक विकास के लिए मानक बनाना संभव है (It is Possible to Establish Norms for Motor Development) : शिशु के विभिन्न प्रकार के क्रियात्मक विकासों के लिए मनोवैज्ञानिकों द्वारा एक मानक (Norm) तैयार किया गया है। इस मानक द्वारा यह पता चलता है कि किस उम्र के शिशु द्वारा किस तरह का क्रियात्मक व्यवहार (Motor Behaviour) किया जाता है। इससे माता-पिता तथा शिक्षक दोनों को ही एक प्रकार का मार्गदर्शन (Guidance) प्राप्त होता है और वे किसी विशेष उम्र के बालक से न तो ज्यादा और न ही कम उम्मीद करते हैं।
(e) क्रियात्मक विकास में वैयक्तिक भिन्नता होती है।
मानसिक विकास
Mental Development
→ मानसिक विकास से तात्पर्य मानसिक क्षमताओं के विकास से होता है। इस मानसिक क्षमता में चिंतन करने की क्षमता, तर्क करने की क्षमता, याद रखने की क्षमता, सही-सही प्रत्यक्षणात्मक विभेद करने की क्षमता इत्यादि सम्मिलित होते हैं।
→ जेम्स ड्रेवर (James Drever) के अनुसार, ‘व्यक्ति के जन्म से परिपक्वता तक की मानसिक क्षमताओं एवं मानसिक कार्यों के उत्तरोत्तर प्रकटन एवं संगठन की प्रक्रिया को मानसिक विकास कहा जाता है।”
मानसिक विकास की विशेषताएँ:
(a) मानसिक विकास शिशुओं की आयु के साथ बढ़ता है।
(b) आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों में विस्तार ।
(c) नवीन विचारों एवं चिंतन का विकास ।
(d) समय का ज्ञान ।
(e) अपनी इच्छा एवं मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति ।
(f) योजना बनाने की क्षमता।
(g) गत अनुभवों से लाभ उठाने की क्षमता।
(h) मानसिक विकास में एक क्रमबद्धता होती है।
मानसिक विकास की अवस्थाएँ
Suage of Mental Development
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मुख्य रूप से मानसिक विकास की तीन अवस्थाएँ होती हैं-
(a) प्रतिवर्त या सहज क्रियाओं की अवस्था
Stage of Reflex Action
» जन्म के समय से 10-11 महीने की आयु तक शिशुओं में सहज क्रियाओं (Reflex Actions) की प्रधानता होती है। उनमें चूसना, निगलना, कंडरा प्रतिवर्त (Tendon Refles), घुटना या जानु प्रतिवर्त (Knee Reflex), बेबिन्स्की प्रतिक्षेप (Babinski
Reflex) इत्यादि प्रधान हैं।
» 1 वर्ष की उम्र हो जाने पर इनमें कुछ प्रतिवर्त, पादतलीय प्रतिवर्त तथा करतल प्रतिवर्त अपने-आप समाप्त हो जाता है। इस समय तक मस्तिष्क का कुछ भाग जैसे लघु मस्तिष्क तथा वृहत् मस्तिष्क का विकास हो जाता है, जिसके फलस्वरूप
बालक कुछ ऐच्छिक क्रियाएँ करना आरंभ कर देता है।
» इस प्रकार 13-14 महीने की उम्र तक बालक प्रतिवर्त प्राणी से चिंतनशील या परावर्तक प्राणी (Reflective Organism) हो जाता है।
(b) इच्छित या ऐच्छिक क्रियाओं की अवस्था (Stage of Desired or Voluntary Activities): मानसिक विकास की यह दूसरी अवस्था होती है जो 17-18 महीने की उम्र से प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में बालकों का वृहत् मस्तिष्क अधिक परिपक्व
हो जाता है। फलस्वरूप बालकों में भाषा का विकास हो जाता है और वे तरह-तरह की ऐच्छिक क्रियाएँ करने लगता है।
(c) उद्देश्यपूर्ण कार्य करने की अवस्था (Stage of purposeful action) : यह अवस्था 2 वर्ष की आयु से प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में बालक उद्देश्यपूर्ण कार्य, जैसे—किसी खिलौना को पकड़ने, लिखने के लिए कलम पकड़ने, दौड़ने आदि का कार्य प्रारंभ कर देते हैं।
> मानसिक विकास की यह अंतिम अवस्था मानी गई है और आनेवाले वर्षों में बालक में अन्य तरह-तरह के मानसिक क्षमताओं का विकास होता जाता है।
शैशवावस्था तथा बचपनावस्था में मानसिक विकास (Mental Development During Infancy and Babyhood): जन्म से 2 वर्ष की अवधि में होनेवाले मानसिक विकास प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
1. संवेदन की क्षमता का विकास शिशुओं में विभिन्न प्रकार के संवेदन क्षमता का विकास होता है। जैसे-दृष्टि संवेदन, श्रवण संवेदन, घ्राण संवेदन, स्वाद संवेदन तथा त्वक संवेदन (Skin or Cutancous Sensation) इत्यादि।
2. समझ का विकास (Growth of Understanding) नवजात शिश, पहले उद्दीपन का अर्थ नहीं समझता है। जैसे जैसे उम्र बढ़ता है उसका मानसिक विकास होता जाता है, उसमें समझ की शक्ति का विकास होता है। सबसे पहले शिशु अपनी माता को पहचानता है तब पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों को।
» प्रारंभ में शिशु उन उद्दीपनों, वस्तुओं एवं व्यक्तियों के प्रति अनुक्रिया करता है, जिनके तत्वों में काफी समानता होती है। 12 महीने के उम्र हो जाने पर बालक उद्दीपनों एवं व्यक्तियों में विभेद करना पूर्णतः सीख लेते हैं ।
3. दिकस्थान संप्रत्यय (Concept of Space): नवजात शिशु में दिकस्थान संप्रत्यय अविकसित होता है अर्थात् एक नवजात शिशु यह नहीं समझ पाता है कि कोई वस्तु किस दिशा में है और कितनी दूरी पर है।
> 13वें महीने से अधिकतर शिशु उन वस्तुओं को छूने की कोशिश नहीं करते जो उनसे 20 इंच से अधिक दूरी पर होती है। परंतु, जब वस्तु 20 इंच से कम दूरी पर होती है, तब वह उसे छूने या पकड़ने की कोशिश करता है। अतः इससे यह
सिद्ध होता है कि इस अवस्था में मानसिक विकास होने के साथ-साथ शिशुओं में दिकस्थान संप्रत्यय भी विकसित हो जाता है।
4. भार का संप्रत्यय (Concept of Weight): शिशु को भार का ज्ञान ठीक से नहीं होता है। वह भार की मात्रा का अंदाज वस्तु के आकार के आधार पर लगाता है। शिशु यह समझता है कि बड़े आकार की सभी वस्तुएँ छोटे आकार की सभी वस्तुओं से भारी होती है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ मानसिक विकास में भी वृद्धि होती है।
5. समय का संप्रत्यय (Concept of Time): शिशुओं में समय का ज्ञान प्रारंभ में कुछ नहीं होता है। वह सुबह, शाम, दोपहर, रात नहीं समझता है। जब शिशु 22-23 महीने का होता है तब वह सुबह, शाम, दोपहर का हल्का अर्थ समझने लगता है
और जब वह पूर्णतः 24 महीने का हो जाता है तब उसमें ‘आज’, ‘कल’ एवं ‘परसों’ का भी कुछ-कुछ ज्ञान होने लगता है।
6. आत्म-संप्रत्यय (Self Concept): अपने-आपके बारे में जो शिशु एक प्रतिमा बनाता है उसे आत्म-संप्रत्यय (Self Concept) कहा जाता है। शिशुओं में इस अवस्था में पहले शारीरिक आत्म-संप्रत्यय का विकास होता है। 2 वर्ष बाद बालकों में मानसिक
आत्म-संप्रत्यय (Mental Self Concept) विकसित होता है जिसमें उसके संवेग, चिंतन, स्मृति इत्यादि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
7. यौन भूमिका संप्रत्यय (Sex Role Concepts) : नवजात शिशुओं में यह ज्ञान नहीं होता है कि लड़का तथा लड़की की आवाज, वेशभूषा व्यवहार में क्या अंतर होता है। 2 साल की उम्र में मानसिक विकास में वृद्धि के साथ यह विकास हो जाता है।
8. सामाजिक संप्रत्यय (Social Concepts): नवजात शिशु में माता पिता की क्रियाओं एवं संवेगों के प्रति अनुक्रिया करने की क्षमता नहीं होती है। परंतु, 8वें महीने से वे माता-पिता द्वारा दिखाये गये संवेगों के प्रति विशेष आनन अभिव्यक्ति (Facial
Expression) अपनी प्रतिक्रिया अर्थात् सांवेगिक प्रतिक्रियाओं (Emotional Reactions) द्वारा व्यक्त करते हैं।
प्रारंभिक बाल्यावस्था में मानसिक विकास
Mental Development During Early Childhood
» प्रारंभिक बाल्यावस्था 2 वर्ष से प्रारंभ होकर 6 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में बालकों का मानसिक विकास अधिक तीव्र गति से होता है। बालकों की बौद्धिक क्षमताएँ बढ़ जाती हैं।
» बालक में वस्तुओं एवं घटनाओं के बीच संबंध को समझने तथा परखने की क्षमता तीव्र हो जाती है। इस अवस्था में बालकों में क्रियात्मक संगठन (Motor Co-ordination) की क्षमता भी बढ़ जाती है। इस अवस्था में होनेवाले मानसिक विकास निम्नलिखित हैं-
1. अन्वेषणात्मक प्रवृत्ति का विकास (Development of Exploratory Tendency): इस अवस्था में बालकों में मानसिक विकास का स्तर कुछ ऊँचा हो जाने से उत्सुकता अभिप्रेरण (Curiosity Motive) अधिक प्रबल हो जाता है; फलस्वरूप वह क्या, कहाँ, कैसे एवं क्यूँ से प्रारंभ होनेवाले प्रश्न अधिक पूछते हैं।
> प्रायः यह देखा जाता है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ ऐसे प्रश्न अधिक करती हैं तथा उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर के परिवार के बालकों द्वारा निम्न सामाजिक- आर्थिक स्तर के परिवार के बालकों की अपेक्षा इस ढंग से अन्वेषणात्मक प्रश्न
(Exploratory Questions) अधिक पूछे जाते हैं।
2. जीवन-मृत्यु के संप्रत्यय (Concept of Life and Death): इस अवस्था में बालकों में जीवन एवं मृत्यु के संप्रत्यय का विकास हो जाता है। बालक सजीव एवं निर्जीव वस्तुओं में अंतर समझने लगता है।
3. दिकस्थान संप्रत्यय (Concept of Space): चार वर्ष की अवस्था में बालकों में छोटी दूरी का सही-सही प्रत्यक्षण करने की क्षमता विकसित हो जाती है, परंतु लंबी दूरी का सही रूप से प्रत्यक्षण 6 वर्ष के बाद ही संभव हो पाता है।
4. चिंतन एवं तर्क (Thinking and Logic): इस अवस्था में बालकों में चिंतन एवं तर्क का विकास होता है। इस अवस्था में बालकों का मानसिक विकास (Mental Development) इस स्तर का होता है कि वह जोड़, घटाव, गुणा, भाग इत्यादि
जैसी प्रक्रियाएँ करता है, परंतु इन सबके पीछे छिपे नियमों को वह नहीं समझ पाता है। अर्थात् चिंतन तर्कसंगत (Logical) नहीं होता है।
> इस अवस्था में बालकों के चिंतन में आत्मकेंद्रिता (Egocentricity) अधिक होती है, क्योंकि उनके चिंतन में उनकी आवश्यकताओं की भूमिका प्रधान होती है।
उत्तर-बाल्यावस्था में मानसिक विकास
Mental Development in Later Childhood
» उत्तर-बाल्यावस्था की अवस्था 6 से 12/13 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालकों को अपने साथियों का एक समूह होता है। उनका सामाजिक विकास अधिक मजबूत हो जाता है जिससे उसका मानसिक विकास भी अत्यधिक प्रभावित होता है।
» इस अवस्था में बालकों में ठोस एवं संक्रियात्मक चिंतन (Concrete and Operational Thinking) एवं मुद्रा संबंधी संप्रत्यय (Concept of Money) इत्यादि का विकास होता है।
» इस अवस्था में बालक स्पष्ट रूप से इंच, फीट, वर्ग, मील, मीटर तथा किलोमीटर का अर्थ समझने लगता है।
» 9-10 वर्ष के उम्र में बालक 1000 तक की संख्या का अर्थ समझने लगता है। दिन, तारीख, मास, वर्ष समझने की भी क्षमता विकसित हो जाती है।
» 12-13 वर्ष के उम्र में बालकों में योजना बनाकर काम करने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है।
किशोरावस्था में मानसिक विकास
Mental Development During Adolescence
> किशोरावस्था 13 वर्ष से प्रारंभ होकर 19-20 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में लड़कों एवं लड़कियों की मानसिक क्षमता का विकास अधिकतम बिन्दु पर होती है।
> मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, इस अवस्था के अंत तक लड़के-लड़कियों में मानसिक विकास अधिकतम हो जाता है और जीवन के बाद के वर्षों में इस मानसिक क्षमता का मात्र सुदृढ़ीकरण होता है।
> इस अवस्था में किशोर तथा किशोरियों की अभिरुचियाँ अधिक विस्तृत हो जाती हैं। इन अभिरुचियों में सामाजिक अभिरुचियाँ तथा शैक्षणिक अभिरुचि का महत्व शिक्षा के दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण है।
किशोरावस्था में होनेवाले मानसिक विकास निम्नलिखित हैं-
(a) चिंतन में औपचारिक क्रियाएँ (FormalOperations in Thinking): इस अवस्था में किशोरों का चिंतन अधिक क्रमबद्ध होता है और सभी तरह की औपचारिक संक्रियाओं (Formal Operations) की मदद से विभिन्न तरह के विश्लेषण करने में सक्षम होते हैं।
> इस अवस्था में बालक किसी समस्या के समाधान में अपनी चिंतन प्रक्रिया को इतना तार्किक (Logical) एवं क्रमबद्ध (Systematic) बनाकर रखते हैं कि उन्हें किसी तरह की समस्या का समाधान करने में कम-से-कम कठिनाई होती है।
(b) एकाग्रचितता (Concentration): इस अवस्था में किशोरों का मानसिक विकास इस स्तर का हो जाता है कि उनमें एकाग्रचित होने की क्षमता बढ़ जाती है।
(c) तथ्यों को सामान्यीकरण की क्षमता (Ability toGeneralise Facts): किशोरावस्था में किशोरों में अमूर्त ढंग से सामान्यीकरण करने की क्षमता होती है।
(d) दूसरों के साथ संचार करने की क्षमता में वृद्धि (Increase in the Ability to Communicate with others)
(e) समझ एवं पकड़ की क्षमता में वृद्धि (Increase in the Ability to Catech and Understand)
(f) निर्णय करने की क्षमता में वृद्धि (Increase in the Ability to Make Decision)
(g) afar erfarer at facra (Development of Memory Power)
(h) नैतिक संप्रत्ययों की समझ (Understanding Moral Concepts)
(i) समस्या को अमूर्त संकेतों द्वारा समाधान करने की क्षमता (Ability to Solve problems by Abstract Symbols)
(j) बाहरी दुनिया के प्रमुख व्यक्तित्व एवं परिस्थितियों के साथ तादात्म्य (Identification with Major Personalities and Conditions of External Worlds)
परीक्षोपयोगी तथ्य
> शारीरिक विकास से तात्पर्य बालकों की उम्र के अनुसार शारीरिक आकार (Body Size), शारीरिक अनुपात (Body Proportions), हड्डियाँ (Bones), मांसपेशियाँ (Muscles), दाँत तथा तंत्रिका तंत्र (Nervous System) के समुचित विकास से होता है।
> प्रारंभिक बाल्यावस्था में कुछ बालकों का शारीरिक गठन (Body Build) मोटा होता है वे एण्डोमॉर्फिक कहलाते हैं, कुछ का शारीरिक गठन हट्ठा-कट्ठा होता है, वे मेसोमॉर्फिक गठन के होते हैं, कुछ का शारीरिक गठन दुबला-पतला होता है, वे
एक्टोमॉर्फिक गठन (Ectomorphic Build) के होते हैं।
> क्रियात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में उनकी मांसपेशियों तथा तंत्रिकाओं के समन्वित कार्य द्वारा अपनी शारीरिक क्रियाओं (Bodily Activities) पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने से होता है।
> बालकों के क्रियात्मक विकास के प्रयोगात्मक अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर क्रियात्मक विकास मूलतः मस्तकाधोमुखी विकास क्रम (Cephalocaudal Development Sequence) के अनुसार अर्थात सिर से पैर की दिशा में होता
पाया गया है।
> मानसिक विकास से तात्पर्य व्यक्ति के जन्म से परिपक्वता तक की मानसिक क्षमताओं एवं मानसिक कार्यों के उत्तरोत्तर प्रकटन एवं संगठन की प्रक्रिया से होता है।
> मनोवैज्ञानिकों ने मानसिक विकास की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है प्रतिवर्त्त या सहज क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Action), इच्छित या ऐच्छिक क्रियाओं की अवस्था (Stage of Desived or Voluntary Activities) तथा उद्देश्यपूर्ण कार्य करने की अवस्था (Stage of Purposeful Action)।
> जिंदगी के प्रथम पाँच साल में बालकों के मानसिक विकास की कई विशेषताएँ हैं, जिनमें संवेदन की क्षमता का विकास, समाज का विकास, दिकस्थान संप्रत्यय (Concept of Space), भार का संप्रत्यय (Concept of Weight), समय का संप्रत्यय
(Concept of Time) तथा आत्म-संप्रत्यय (Self-Concept), यौन भूमिका संप्रत्यय, सामाजिक संप्रत्यय इत्यादि महत्वपूर्ण है।
> प्रारंभिक बाल्यावस्था (Early Childhood) में बालकों में होनेवाले मानसिक विकास की प्रमुख विशेषताओं में अन्वेषणात्मक प्रवृति का विकास, जीवन मृत्यु का संप्रत्यय, दिकस्थान संप्रत्यय (Concept of Space) चिंतन एवं तर्क इत्यादि प्रमुख हैं।
> उत्तर बाल्यावस्था (Later Childhood) में बालकों में होनेवाले मानसिक विकास की विशेषताओं में ठोस एवं संक्रियात्मक चिंतन, जीवन-मृत्यु का संप्रत्यय मृत्यु के बाद जीवन का संप्रत्यय, मुद्रासंबंधी संप्रत्यय का विकास आदि महत्वपूर्ण हैं।
> किशोरावस्था में होनेवाले मानसिक विकास की विशेषताओं में चिंतन में औपचारिक संक्रियाएँ, एकाग्रचित्तता, तथ्यों के सामान्यीकरण की क्षमता, दूसरों के साथ संचार करने की क्षमता, समझ एवं पकड़ की क्षमता में वृद्धि, स्मृति शक्ति का विकास,
नैतिक संप्रत्ययों की समझ, समस्या का अमूर्त संकेतों द्वारा समाधान करने की क्षमता तथा बाहरी दुनिया के प्रमुख व्यक्तित्व एवं परिस्थितियों के साथ तादात्म्य करने की क्षमता आदि प्रधान हैं।
> द्रुतगामी विकास का नियम शारीरिक विकास का एक प्रमुख नियम है। बाल्यावस्था में बच्चों का शारीरिक विकास अत्यंत तीव्र गति से होता है।
> डॉ. एस जलोटा ने 12 से 16 वर्ष के बच्चों के लिए हिंदी में साधारण मानसिक योग्यता परीक्षण प्रतिपादित किया।

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