F-3

F-3 | प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा

F-3 | प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा

F-3 | प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा

प्रश्न 15. बालक केंद्रित उपागम की संकल्पना की सोदाहरण व्याख्या उपयुक्त
उपागम माना जाता है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―शिक्षार्थी केंद्रित उपागम का मुख्य केंद्र शिक्षार्थी होता है न कि शिक्षक। इस उपागम
के अनुसार शिक्षा का व्यापक उद्देश्य बच्चे का सर्वतोमुखी विकास होता है। पाठ्यचर्या बच्चों
की आवश्यकताओं, अभिरुचियों अभिवृत्तियों और योग्यताओं पर आधारित होती है। इसमें
शिक्षार्थी अपनी गति के अनुसार अधिगम के कौशलों के विकसित करते हैं। क्रिया द्वारा सीखने
का अनुभव करने और बच्चे की सक्रिय प्रतियोगिता पर जोर दिया जाता है। इस उपागम में
शिक्षण प्रक्रिया के स्थान पर अधिगम प्रक्रिया पर बल दिया जाता है।
शिक्षार्थी केन्द्र उपागम के कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित है―
(i) लचीली पाठ्यचर्या, (ii) शिक्षण की विभिन्न विधियाँ, (iii) विविध अधिगम अनुभव
क्रियाकलाप, (iv) विभिन्न अधिगम समय, (v) बच्चों की प्रगति के निर्धारण की विभिन्न
विधियाँ, (vi) कक्ष में लोकतांत्रिक वातावरण।
वास्तविक कक्षा स्थिति में शिक्षार्थी केंद्रित उपागम का कार्यान्वयन–वास्तविक कक्ष
स्थिति में शिक्षार्थी केंद्रित उपागम का प्रयोग निम्न प्रकार किया जाता है―
(i) सर्वप्रथम शिक्षक एक मित्र, सुसाध्यकर्ता, मार्गदर्शक या मध्यवर्ती व्यक्ति के रूप
में सुनियोजित क्रियाकलापों द्वारा प्रत्येक बच्चे के लिए प्रेरक अधिगम परिवेश की
रचना करते हैं।
(ii) बच्चों को व्यक्तिगत रूप से जानना-प्रत्येक बच्चा अपनी योग्यताओं अभिरुचियों,
पसंद-नापसंद और व्यवहार की दृष्टि से एक-दूसरे से भिन्न होता है। कुछ ऐसे
अभिलक्षण भी होते हैं, जो बच्चों में प्रत्येक अभिलक्षण विशिष्ट आयु वर्ग में समान
होते हैं। हम बच्चों के शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास के
अनुसार शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का आयोजन करते हैं।
(iii) बच्चे कैसे सीखते हैं इसका ज्ञान होना–बच्चे कैसे सीखते हैं, इस बात की जानकारी
शिक्षक को होनी चाहिए तभी बच्चों के अधिगम के संवर्धन में सहायता कर सकते
हैं। सीखने के कुछ तरीके निम्नलिखित हैं―
(i) पूर्व ज्ञान के आधार पर सीखते हैं। अतः पूर्व ज्ञान को ध्यान में रखकर अधिगम
अनुभवों का आयोजन करते हैं। (ii) सीखने की गति भिन्न होती है, अतः अधिगम
के लिए समय निर्धारित करने में नम्यता होनी चाहिए। (iii) बच्चों का अधिगम
मूर्त से अमूर्त की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा विशेष से सामान्य की ओर
बढ़ता है। अतः अधिगम अनुभवों की योजना में इस सिद्धान्त का ध्यान में रखते
हैं। (iv) व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखते हैं। (v) बच्चे प्रोत्साहन और प्रशंसा
मिलने पर बेहतर सीखते हैं। (vi) विषय वस्तु रोचक एवं परिचित हो, वच्चे आसानी
से सीखते हैं, (vii) यदि शिक्षण प्रक्रिया आनंदमयी और क्रियाकलाप आधारित हो
तो अधिगम बेहतर होता है।
(iv) प्रत्येक शिक्षार्थी को सहभागिता के लिए प्रोत्साहित करना―प्रत्येक बच्चे को
शिक्षण-अधिगम क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से सम्मिलित करने से अधिगम बेहतर
होगा। ऐसा तब होगा जब हम सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार करेंगे। शिक्षार्थी
के लिंग, संस्कृति समाज, आर्थिक स्थिति, योग्यता के आधार पर भेद नहीं करेंगे।
प्रश्नों के उत्तर देते समय बच्चों को प्रोत्साहित करेंगे। सभी शिक्षार्थियों से दृष्टि सम्पर्क
बनाए रखेंगे जिससे लगे कि हम सभी से बात कर रहे हैं। समय-समय पर बैठने
की व्यवस्था को बदलेंगे। कक्षा में कभी-कभी घूमते रहेंगे। बच्चों से व्यक्तिगत रूप
से बात करेंगे।
पाठ्यचर्या और पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में नम्यता/लचीलापन―विभिन्न बच्चों के
अनुसार पाठ्यचर्या को भिन्न-भिन्न तो नहीं बनाया जा सकता। परन्तु पाठ्यचर्या के व्यवहार
में प्रयुक्त की जाने विधियों, सामग्री में नम्यता और भिन्नता हो सकती है। पाठ्यचर्या के केन्द्रीय
तत्व सभी बच्चों के लिए समान होंगे।
        प्रत्येक बच्चे को सक्रिय बनाने और उसकी वैयक्तिक आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि
से परिप्रश्न, समूह अधिगम, समूह अनुशिक्षण, स्व शिक्षण, क्रियाकलाप काफी उपयोगी सिद्ध
होते हैं। प्रभावी प्रश्न शिक्षार्थियों को समीक्षात्मक दृष्टि से सोचने तथा नए विचारों को परस्पर
संबंद्ध करने और नए अधिगम को अपने वर्तमान ज्ञान से समकालीन करने के लिए अभिप्रेरित
करते हैं। भीड़ भरी कक्षा में, सभी शिक्षार्थियों को भाग लेने। अधिगम में सहभगी बनाने के
लिए समूह कार्य बहुत उपयोगी है। समूह कार्य द्वारा बच्चों में आत्मविश्वास, संप्रेषण कौशल
तथा सहयोग की आदत को विकसित किया जा सकता है। समूह बनाते समय यह ध्यान रखते
हैं कि एक समूह में 4-5 शिक्षार्थी ही रहें। प्रत्येक समूह को स्पष्ट निर्देश, दायित्व और समय
निर्धारित करते हैं। प्रत्येक समूह का एक नेता होता है। समूह के प्रत्येक सदस्य को क्रियाकलाप
में भाग लेना सुनिश्चित करते हैं। अंत में, इतना समय अवश्य रखते हैं कि सभी समूह को
एक साथ बैठाकर अनुवर्ती कार्य किया जा सके।
(v) विविध सामग्री के माध्यम से सीखना―शिक्षण अधिगम को बेहतर बनाने के लिए
शिक्षण-अधिगम सामग्री अत्यावश्यक है। सर्वोत्तम अधिगम सामग्री बच्चे के स्थानीय
परिवेश में उपलब्य सजीव या निर्जीव वास्तविक वस्तुएँ होती है, किन्तु सदा वास्तविक
वस्तुओं को प्राप्त करना, उनसे अंत:क्रिया कर पाना संभव नहीं होता। अत: चार्ट,
चित्र, कार्यपत्रक या मॉडल के रूप में विविध प्रकार की अधिगम सामग्री का निर्माण
और विकास करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त बौद्धिक खेल, पहेलियाँ, खेल सामग्री,
कविताएँ, नाट्यगीत कहानी की पुस्तके तथा पत्रिकाओं के माध्यम से बेहतर अधिगम
हो सकता है। सीखने के लिए अधिगम कोना भी उपर्युक्त स्थल है, जहाँ ज्ञानवर्द्धक,
प्रेरणादायक, रुचिकर और आनंददायक सामग्री उपलब्ध हों।
(vi) अपनी गति से सीखना―प्रत्येक बच्चा, बुद्धि, योग्यता और अभिरुचि की दृष्टि से
एक-दूसरे से भिन्न होता है। अतः तीव्र गति से सीखने वाले बच्चं. के लिए समुन्नयन
कार्य उपलब्ध कराना होगा। मंद गति से सीखने वाले पर ध्यान देना जरूरी है और
उसे अपनी गति से सीखने में सहायता करनी होगी। बच्चों की तुलना एक-दूसरे
से नहीं करना चाहिए।
(vii)परिवीक्षण―शिक्षक को सारी कक्षा में ध्यान रखना चाहिए। कक्षा में क्या हो रहा
है, इस पर ध्यान रखने से बच्चों में सक्रियता, सतर्कता और जागरूकता आती है।
(viii) मूल्यांकन―सीखने की प्रक्रिया में सुधार लाने के साथ-साथ शिक्षण प्रक्रिया गुणवत्ता
के लिए मूल्यांकन आवश्यक है। इससे शिक्षकों, बच्चों और अभिभावकों को प्रतिपुष्टि
प्राप्त होती है।
चाहिए।
मूल्यांकन बच्चों के संज्ञानात्मक और असंज्ञानात्मक दोनों क्षेत्रों का होना चाहिए, जैसे–
ज्ञान कौशल, दक्षताएँ, सामाजिक और संवेगात्मक व्यवहार आदि का।
        मूल्यांकन निरंतर होना चाहिए ताकि उपचरात्मक शिक्षण हो सके।
        मूल्यांकन परीक्षा, मौखिक, अवलोकन और संचित अभिलेखों द्वारा समग्रता से किया जाना
मूल्यांकन में बच्चों की उपलब्धियों और समस्या क्षेत्रों (कमियों) का भी उल्लेख होना
चाहिए।
        मूल्यांकन एक बच्चे की तुलना दूसरे बच्चे के साथ करने के लिए ही नहीं की जात
बल्कि, एक बच्चे की तुलना उसके स्वयं की उपलब्धियों से की जानी चाहिए। यह बताना
आवश्यक है कि उसने कितना Progress किया है।
(ix) स्व-मूल्यांकन―शिक्षकों के उचित मार्गदर्शन से बच्चे अपनी उपलब्धियों एवं कमियों
का स्वयं मूल्यांकन कर सकते हैं। अपनी गलतियों से सीख सकते हैं। इससे उनमें
आत्म-नियंत्रण का विकास होता है।
    शिक्षार्थी केंद्रित उपागम के शिक्षार्थी को क्रियाशील होना, सक्रिय होना आवश्यक है।
मनोवैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार किया है कि शिक्षार्थी को जितनी अधिक-से-अधिक
ज्ञानेन्द्रियों को प्रयोग सीखने में होगा, अधिगम उतना ही प्रभावी होगा। इसी सिद्धान्त के तहत
Learning by doing, biobservation by TLM, by activity की परिकल्पना की गई। इस
प्रकार शिक्षार्थी केंद्रित उपागम अधिक प्रभावी है इसे निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है―
(a) इसे प्रत्येक शिक्षार्थी को अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय सहभागिता का अवसर मिलता है।
(b) यह उपागम सीखने की स्वतंत्रता पर बल देता है। इसमें ऐसी परिस्थिति प्रदान की
जाती है कि शिक्षार्थी स्वत: सहजता से रुचिपूर्वक अनुक्रिया करते हैं और प्रश्नों
के उत्तर देते हैं।
(c) इसमें बच्चे स्वतः अभिप्रेरित होते हैं, सीखने के लिए। अतः अनुशासन संबंधी समस्या
कम हो जाती है।
प्रश्न 16. विद्यालय में होने वाली औपचारिक और अनौपचारिक गतिविधियाँ किस
तरह बच्चों के समाजीकरण को प्रभावित करती हैं ?
उत्तर―विद्यालयों के विकास के पहले शिक्षा का कार्य परिवार तथा समुदाय द्वारा ही सम्पन्न
होता था लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ संस्कृति का ढाँचा पेचीदा हो गया और इसकी
रेखाएँ टेढ़ी-मेढ़ी हो गई। परिवार तथा समुदाय के लिए संस्कृति का संरक्षण असंभव हो गया।
फलतः विद्यालय का आर्विभाव एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था के रूप में हुआ। ज्यों-ज्यों संस्कृति
सम्पन्न होती जा रही है, ज्यों-ज्यों इसकी पेचीदगी बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों विद्यालय का
महत्व बढ़ता जा रहा है। आज के विद्यालय का कार्य पहले से अधिक बढ़ गया है।
          विद्यालय के कार्यों के प्रकार-विद्यालय के कार्यों को आम तौर पर दो भागों में बाँटा
जा सकता है―
(i) औपचारिक कार्य तथा (ii) अनौपचारिक कार्य।
(i) विद्यालय के औपचारिक कार्य―
1. चरित्र-निर्माण तथा आध्यात्मिकता स्वतंत्रता का प्रशिक्षण देना।
2. अतीत की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखना और उसे अधिक मूल्यवान बनाकर
आगे आनेवाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना।
3. छात्रों में सोचने और निर्णय करने की शक्तियों का विकास करना, जिससे वे अपने
समझने और कार्य करने के लिए प्रयोग कर सकें।
4. छात्रों के नेतृत्व के गुणों का विकास करना, जिससे वे प्रजातंत्र के अच्छे नागरिकों
के रूप में अपने कर्तव्यों को कुशलतापवूक कर सकें।
5. छात्रों को ऐसा प्रशिक्षण देना, जिससे वे समाज तथा अन्य व्यक्तियों पर भार बने
बिना सम्मानपूर्ण ढंग से अपनी जीविका की समस्या को हल कर सकें।
6. छात्रों को ऐसा लाभप्रद ज्ञान देना, जिससे वे सन्तुलित मस्तिष्क का विकास कर सकें।
ऐसे मस्तिष्क वाला व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों से सूझ-बूझ वाला और साहसी होता
है। साथ ही, वह अज्ञात भविष्य के मूल्यों का निर्माण कर सकता है।
7. विभिन्न प्रकार के विकासात्मक कार्यों द्वारा छात्रों के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना।
8. विद्यालय द्वारा ऐसे क्रियाशीलनों का आयोजन करना जिससे छात्रों में नागरिकता की
भावना, देश-प्रेम, राष्ट्रीयता, एकता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण का
विकास हो सके।
9. अवकाश के समय का सुदपयोग सिखाना।
(i) विद्यालय के अनौपचारिक कार्य―
1. समाज-सेवा, सामाजिक उत्सवों का आयोजन करके छात्रों को सामाजिक प्रशिक्षण
देना।
2. सक्रिय वातावरण का निर्माण करके छात्रों के रुचिकर और रचनात्मक क्रियाओं को
प्रोत्साहित करना।
3. खेल-कूद, स्काउटिंग, सैनिक शिक्षा, स्वास्थ्य-कार्य आदि की व्यवस्था करके छात्रों
को शारीरिक प्रशिक्षण देना।
4. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, चित्रकलाओं, प्रदर्शनियों, संगीत-सम्मेलनों और नाटकों का
प्रबन्ध करके बालक और बालिकाओं को भावनात्मक प्रशिक्षण देना।
5. विद्यालय को सामुदायिक जीवन पर प्रशिक्षण देना।
यहाँ हम विद्यालय के औपचारिक और अनौपचारिक कार्यों का अवलोकन करे तो हम
देखते हैं कि ये गतिविधियाँ बच्चों के समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इनके
बच्चों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। बच्चों में नेतृत्व क्षमता, सामाजिक कार्यों की क्षमता या
ये कहा जाए कि इनसे उनका समग्र विकास होता है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ये
दोनों कार्य बच्चों के समाजीकरण में महत्वपूर्ण हैं।
प्रश्न 17. ‘खेल’ का अर्थ समझाएँ। खेल की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
अथवा, बालकों के खेल की चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर―खेल का अर्थ (Meaning of Play)-खेल बच्चों की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति
होती है। खेलों के द्वारा बालक के शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक विकास के साथ-साथ
सामाजिक अन्त:क्रिया का विकास होता है। खेलों को बालकों की वृद्धि और विकास में भी
महत्वपूर्ण योगदान होता है।
       खेल की क्रिया अहम-प्रेरित (Self-Motivated) होती है तथा आनन्ददायक भी होतो
है, खेल की क्रिया बच्चों में उत्साह, स्फूर्ति, आत्म विश्वास, चंचलता, प्रसन्नता आदि गुणों
का विकास करती है।
     आधुनिक युग में खेल के महत्व को विद्वानों ने स्वीकार किया है। इसीलिए विभिन्न शाखाओं
में खेल से जुड़ी विभिन्न क्रियाओं को शामिल किया गया है। जैसे―ड्रामा, संगीत, विभिन्न
खेल इत्यादि। आजकल दूरदर्शन और रेडियो के माध्यम से भी ‘खेलों’ के महत्व को दर्शाया
एवं बताया जा रहा है। खेलों से जुड़े खिलौनों के प्रयोग के माध्यम से बच्चों के बौद्धिक
विकास को बल प्रदान किया जा रहा है। ग्रास (Gross) के विचारानुसार खेलों के द्वारा बच्चे
विभिन्न कौशलों का अभ्यास करते हैं।
        क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) ने खेल को इस प्रकार परिभाषित किया है―”खेल वह
क्रिया है जिसमें एक व्यक्ति उस समय व्यस्त होता है जब वह उस कार्य को करने के लिए
स्वतंत्र होता है जिस कार्य को वह करना चाहता है।” (“Play can be defined as the activity
in which a person engages when he is free to do what he wants to.”)
        हरलॉक (Hurlock, 1978) के अनुसार, “खेल वह कोई भी क्रिया है जो प्राप्त होने
वाले आनन्द के लिए की जाती है परंतु इसके अन्तिम परिणाम पर कोई विचार नहीं किया
जाता है।” (“It means any activity engaged in for the enjoyment it givews,
without consideration of the end result.”      ―Hurlock, 1978)
      रसेल (Russel) के अनुसार, “खेल एक आनन्ददायक शारीरिक या मानसिक क्रिया है
जो अपने आप में पूर्ण है और जिसका कोई अव्यक्त लक्ष्य नहीं होता है।” (“Play may
be defined as a joyful bodily or mental activity which is sufficient to itself &
does not seck any ulterior gola.”     ―Russel.)
               कुछ लोगों ने खेल को रचनात्मक क्रियाओं की अभिव्यक्ति माना है तथा कुछ लोग
इसे आनन्दपूर्ण स्वाभाविक तथा रचनात्मक क्रिया कहा है। वेलनटाईन (Valentine) के अनुसार
खेल किसी कार्य में एक प्रकार का मनोरंजन है। अत: ‘खेल’ (Play) एक स्वाभाविक
(Spontaneous) और आत्म-प्रेरित (Self-Motivated) शारीरिक या मानसिक क्रिया है जो
अपने आप में पूर्ण है तथा जिसका कोई अव्यक्त लक्ष्य नहीं होता। इसके परिणाम पर कोई
विचार नहीं किया जाता।
                      फ्रोबल (Frobel) के अनुसार, “बच्चे के विकास का सर्वोत्तम रूप खेल ही है।
सक्रियात्मक होता है तथा अन्त:करण का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है। यह प्रसन्नता तथा
संतोष प्रदान करता है, आन्तरिक और बाहरी आराम होता है।”
खेल की विशेषताएँ (Characteristics of Play):
खेल की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं―
1. खेल स्वतंत्र होते हैं। वास्तव में यह स्वतंत्रता है।
2. खेल ‘साधारण’ (Ordinary) या वास्तविक जीवन नहीं होते।
3. खेल ‘साधारण जीवन’ (Ordinary life) से भिन्न होते हैं।
4. खेल ‘व्यवस्था’ (Order) पैदा करते हैं, खेल के लिए ‘व्यवस्था’ (Order) चाहिए।
5. खेल का सम्बन्ध किसी भौतिक रुचि से नहीं होता तथा इनमें से कोई ‘लाभ’ भी
उठाया नहीं जा सकता।
6. खेल एक स्वाभाविक (Spontaneous) प्रवृत्ति है।
7. यह एक आत्म-प्रेरित शारीरिक मानसिक क्रिया है।
8. खेल शारीरिक या मानसिक क्रिया है।
9. यह स्वयं में पूर्ण होती है।
10. खेल बच्चों में स्फूर्ति और चंचलता पैदा करते हैं।
11. बच्चे खेल की अन्तिम परिणाम पर कोई विचार नहीं करते।
12. खेल का कोई गुप्त लक्ष्य नहीं होता। केवल प्रत्यक्ष लक्ष्य होते हैं।
13. खेल का मुख्य लक्ष्य आनन्द और स्वतंत्रता की प्राप्ति होती है।
14. खेल को जन्मजात प्रवृत्ति माना है लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि खेल सीखने और
वातावरण पर आधारित है।
15. प्रत्येक खेल में रचनात्मकता (Creativeness) का पाया जाना आवश्यक नहीं।
16. खेल से बालक में संतुष्टि का संचार होता है।
17. खेल बच्चों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
18. खेल स्वेच्छा पर आधारित होता है।
19. खेल आराम के रूप में भी कार्य करता है।
बच्चों के खेल की विशेषताएं (Characteristics of Children’s Play) :
प्रौढ़ व्यक्तियों की अपेक्षा बालकों में खेल की भिन्न विशेषताएं होती हैं जोकि निम्न है―
1. परम्पराओं से प्रभावित (Influenced by Traditions)-समाज या देश से जुड़ी
परम्पराओं से भी बालकों के खेल अत्यधिक प्रभावित होते हैं। बच्चे आमतौर पर अपने बड़ों
से कुछ न कुछ सीखते हैं, लेकिन फिर भी वे उनसे कुछ न कुछ नयापन जोड़ देते हैं, इस
प्रकार के नयेपन की वृद्धि हर पीढ़ी (Generation) करती रहती है। यह किसी बालक विशेष
का कार्य नहीं होता।
2.दिवास्वप्न अवस्था (Stage of Dary Dreaming)―दिवास्वप्न की अवस्था का प्रारम्भ
लगभग दस वर्ष की आयु से हो जाता है। इसके पश्चात् धीरे-धीरे मन खेल से दूर होने लगता
है तथा वह खाली समय में बैठकर दिवास्वप्न देखने लगता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ
उसके दिवास्वप्नों की प्रकृति बदलने लगती है।
3.खोजक अवस्था (Exploratory Stage)―बालकों के खेल का विकास एक निश्चित
क्रम से होता है तथा सबसे पहली अवस्था खोजक-अवस्था होती है। इस अवस्था के दौरान
बच्चा जो भी चीज देखता है उसे झपटने का प्रयास करता है। इस अवस्था से उसके हाथों
में क्रियात्मक और कौशलों (Skills) का विकास प्रारम्भ हो जाता है। कुछ समय के पश्चात्
वह घिसटकर (Crawling) चलने लगता है। वह गेंद आदि के पीछे घिसटता है। इसके पश्चात्
ही वह चलना सीखता है।
4. खिलौना अवस्था (Toy Stage)―एक वर्ष की अवस्था से बालक का खिलौनों से
खेलना शुरू हो जाता है। आठ वर्ष की अवस्था तक बालकों का खिलौनों के साथ खेलना
अपनी चरम सीमा तक पहुंच जाता है। लगभग दो वर्ष की आयु तक बालक यह समझता
है कि खिलौनों में भी जीवन है।
5. खेल अवस्था (Play Stage)―एक वर्ष के पश्चात् जब बच्चा ठीक प्रकार से चलना
शुरू कर देता है तब वह दूसरे बच्चों के साथ खेलना शुरू कर देता है। शुरू में वह दूसरे
बच्चों के साथ खिलौनों से खेलता है लेकिन आयु बढ़ने के साथ-साथ वह दूसरे खेलों में
भी रुचि लेना शुरू कर दता है। आठ-नौ वर्ष तक वह खिलौने के साथ खेलते हुए दौड़ने
लगता है और सामूहिक खेलों में अधिक रुचि लेने लगता है। स्कूल शुरू होने पर वह नये-नये
बच्चों के साथ मिलकर वह नये-नये खेल सीखता है। इसी अवस्था से उसमें ‘शौक’
(Hobbies) विकसित होने लगती है।
6. आयु के साथ क्रियाओं में कमी (Decrease in Activities with Age)―जैसे-जैसे
बच्चे की आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे उसकी खेल-क्रियाएँ भी कम होती चली जाती हैं। इस
कमी का मुख्य कारण होता है पढ़ने, लिखने तथा काम की ओर उन्मुख होना। साढ़े सात
वर्ष की अवस्था में खेल-क्रियाओं (Play Activities) की औसत संख्या 27, साढ़े ग्यारह
वर्ष की अवस्था में 21 तथा साढ़े सोलह वर्ष की आयु में यह औसत केवल 13 रह जाता
है। आयु बढ़ने के साथ-साथ बच्चों के दोस्तों की संख्या में भी कमी आ जाती है इसलिए
भी खेल-क्रियाएँ कम होने लगती हैं।
7. बालकों के खेल में भिन्नता (Variation in Play)―यह आम तौर पर देखा जाता
है कि सभी बच्चों के खेल खेलने में अन्तर रहता है। ये अन्तर खेल खेलने के तरीकों में
अन्तर होने के कारण होता है।
8. यौन-उपयुक्तता (Sex Appropriateness)―बाल्यकाल में सभी बच्चे (लड़के तथा
लड़कियाँ) लगभग एक-समान खेलते हैं। लेकिन 3-4 वर्ष की आयु से उनके खेलों में भी
अन्तर आने लगता है। स्कूल जाने की अवस्था तक तो यह अन्तर और भी अधिक हो जाता है।
9.खेल में अनौपचारिक से औपचारिक परिवर्तन (Play Changes from Informal
to Formal)―प्रारम्भिक अवस्था में बालकों के खेल में किसी प्रकार की औपचारिकता नहीं
होती। उनका खेल स्वाभाविक होता है। बालक कहीं पर भी, किसी के साथ भी तथा कितनी
भी देर तक खेलता रहता है। इस दौरान उन्हें किसी भी पाबन्दी का ध्यान नहीं रहता। लेकिन
आयु तथा समझ बढ़ने के साथ-साथ उन्हें खेलों के औपचारिक नियमों का ज्ञान होने लगता
है तथा वे खेल की औपचारिक ड्रेस पहनकर खेलना चाहते हैं। इस प्रकार उनमें खेल से जुड़ी
औपचारिकताएँ आने लगती हैं। बारह-तेरह वर्ष की आयु तक वे नियमानुसार खेलने लगते हैं।
10. शारीरिक क्रियाओं से जुड़े खेलों में कमी (Decrease in Plays involving
Physical Activities)―आयु बढ़ने के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं से जुड़े खेलों में कमी
आने लगती है। जैसे-जैसे उनकी मानसिक योग्यताओं का विकास होता रहता है, वैसे-वैसे
बच्चे मानसिक खेलों में अधिक रुचि लेने लगते हैं। जैसे-रेडियो सुनना, टीवी देखना, खेल
खेलना, शतरंज, कैरम खेलना, ताश खेलना इत्यादि।
11.खेल की क्रियाओं में विशिष्टता का आना (Specificity in Plan Activities)―
प्रारम्भिक अवस्थाओं में खेल की क्रियाओं में विशिष्टता का अभाव रहता है क्योंकि उनके
ध्यान का विस्तार सीमित होता है। उनकी मानसिक और शारीरिक योग्यताएँ भी सीमित होती
हैं, लेकिन आयु बढ़ने के साथ-साथ उनमें परिपक्वता आने लगती है तथा बौद्धिक योग्यताओं
का भी विकास हो जाता है। परिणामस्वरूप उनकी खेल-क्रियाओं में विशिष्टता आने लगती
है।
12.खेल के समय में कमी (Decrease in Play Time)―आयु बढ़ने के साथ-साथ
बच्चे अन्य कार्यों एवं अपनी पढ़ाई में व्यक्त हो जाते हैं। उनपर पढ़ाई का बोझ लगता है।
परिणामस्वरूप उनके खेलने के समय में निरन्तर कमी आती रहती है। स्कूल का काम इतना
अधिक हो जाता है कि वे खेलों के लिए बहुत ही कम समय निकाल पाते हैं या बिल्कुल
नहीं निकाल पाते। शारीरिक क्रियाओं वाले खेल तो बिल्कुल ही नहीं खेल पाते।
प्रश्न 18. बाल-विकास के निम्न पक्षों में खेलकूद की भूमिका स्पष्ट करें―
(i) शारीरिक एवं पेशीय गति विकास
(ii) भाषा विकास
(iii) संज्ञानात्मक विकास
(iv) सृजनात्मक एवं कल्पनात्मक शक्ति का विकास।
उत्तर―(i) शारीरिक एवं पेशीय गति विकास (Physical and Motor
Development)―बच्चे के शारीरिक विकास के लिए शारीरिक खेल आवश्यक है। इस प्रकार
के खेलों से बच्चे की मांसपेशियाँ विकसित एवं मजबूत होती हैं। साथ ही शरीर के सभी
अंगों का व्यायाम भी हो जाता है। खेलने से खूब भूख लगती है और अच्छी नींद आती है।
खेलकूद में भाग लेने से बच्चा अपनी विभिन्न शारीरिक क्रियाओं जैसे-दौड़ना, ऊँची कूद,
लम्बी, कूद, साइकिल चलाना, पेड़ पर चढ़ना आदि पर नियंत्रण रखना सीख जाता है अर्थात्
इस प्रकार के खेल पेशीय कौशलों (Motor Skills) के विकास में सहायक होते हैं।
           खेल सूक्ष्म पेशीय कौशलों (Final Motor Skills) के विकास में भी सहायता करते
हैं। प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते समय बच्चे साइकिल चलाना, स्टापू, गेंद खेलना, गिल्ली डंडा,
रस्सी कूदना और खेल-क्रियाओं द्वारा चुस्ती-फुर्ती, संतुलन बनाना, निशाना लगाना जैसे
कौशल सीखते हैं।
(ii) भाषा विकास (Language Development)―बच्चे के भाषा विकास में खेल की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। खेलते समय बच्चे एक-दूसरे से बातचीत भी करते हैं जिससे भाषा
विकास में सहायता मिलती है। खेल के दौरान उन्हें इस प्रकार अपनी बात कहनी होती है
कि दूसरे उसे समझ सकें और इसी तरह दूसरे उनसे क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं उसे
समझाना भी उन्हें सीखना होता है। स्पष्ट है कि खेल बच्चे को भाव अभिव्यक्ति करने, अपनी
बात स्पष्ट करने, व्याख्या करने, दूसरों की बाते समझने तथा प्रश्न करने और जानकारी प्राप्त
करने सम्बन्धी योग्यताओं के विकास में योगदान देते हैं शब्द पहेली, काव्य पहेली, प्रश्न पहेली
आदि से शब्द भंडार को बढ़ाने में सहायता मिलती है।
(ii) संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development)―पुस्तक, टेलीविजन, खेलकूद,
पर्यावरण के साथ अन्त:क्रिया आदि के माध्यम से क्रीड़ाएं (खेल) बहुत-सी बातें सीखने के
अवसर प्रदान करती हैं, जैसे–
1. वर्गीकरण तथा श्रेणीबद्ध करना (Classification and Categorisation)―खेल
के दौरान बच्चे अनेक प्रकार की वस्तुओं को वर्गीकृत करना, श्रेणी बद्ध करना और विभिन्न
वस्तुओं के बीच सम्बन्ध स्थापित करना सीखते हैं। रेत-मिट्टी या गारे के साथ खेलने से
बच्चों को यह सीखने समझने का अवसर मिलता है कि किस प्रकार थोड़े से हेरफेर से ही
इनसे अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाई जा सकती हैं। उदाहरणार्थ-प्राथमिक विद्यालय का विद्यार्थी
गीली मिट्टी से संभवतः सिर्फ गेंद और टिकियाँ बनायेंगी। जैसे-जैसे वह बड़ा होगा, वह क्रमशः
सुरंगें, रेत के घर (घरौंदे), सड़कें और यहाँ तक कि बड़े-बड़े किले आदि बनाना शुरू कर
देगा। इन सभी क्रियाओं में क्रमशः अधिकाधिक उच्च स्तर की संज्ञानात्मक सक्रियता
(Cognitive alertness) की आवश्यकता होती है।
2.स्मृति का विकास और विश्लेषण की योग्यता (Ability to develop memory
and analysis)―खेलकूद स्मृति के विकास और विश्लेषण कर सकने की योग्यता, तर्क शक्ति
तथा विभिन्न विकल्पों पर सोच सकने की योग्यता के विकास में भी सहायता करता है। ‘लंगड़ी
टांग’ एक सीधा-सादा खेल है जिसमें बच्चे को सोचना पड़ता है, कि अपने साथी को पकड़ने
के लिए उसे किस दिशा में जाना है। उसे ऐसी कौन-सी दिशा में जाना चाहिए ताकि वह
अपने साथी या उससे बचा सके। इसी तरह खो-खो, कबड्डी, गेंद मारा-मारी जैसे दूसरे खेलों
में भी बच्चों को जटिल चिन्तन प्रक्रियाओं का प्रयोग करना होता है।
3.ध्यान केंद्रित करने की योग्यता (Ability to Concentrate)―खेलों के माध्यम से
बच्चा ऐसी योग्यताएँ भी विकसित कर लेता है जिनसे वह उस समय के लिए हुए कार्य पर
ध्यान केंद्रित करता है। पहेलियाँ हल करना, किताबें पढ़ना, सामूहिक खेलकूद जैसे क्रियाकलापों
में बच्चों को एक निश्चित समय के लिए क्रिया-विशेषण के लिए एकाग्रचित होना पड़ता
है, जिससे उसके अवधान और एकाग्रचित्रता में सुधार होता है।
(iv) सृजनात्मक एवं कल्पनात्मक शक्ति का विकास (Development of Creative
and ImaginativePower)― खेलकूद के दौरान बच्चों को कल्पना और सृजनशीलता विकसित
करने के अनेक अवसर मिलते हैं। काल्पनिक या नाटकीय खेलों में बच्चे अपनी कल्पनाशक्ति
का भरपूर प्रयोग करते हैं। पुलिस और चोर, डाक्टर-मरीज, शिक्षक-छात्र आदि खेल खेलते
हैं। एक पल के लिए बच्चा डाक्टर बनता है तो दूसरे पल वह मरीज का अभिनय कर रहा
होता है।
         काल्पनिक अभिनय के माध्यम से बच्चा विभिन्न चरित्रों का अभिनय करता है जिससे
उसकी मौलिक अभिव्यक्ति (Original Expression) में सुधार होता है। वह व्यक्तियों और
वस्तुओं के बीच नये सम्बन्धों के बारे में सीखता है। खेलते समय बच्चा अपने आसपास उपलब्ध
वस्तुओं को उलट-पुलट कर देखता है। अपनी इच्छानुसार उन्हें तोड़ने-मोड़ने, बदलने,
जलाने-फिराने की कोशिश करता है और इन सबसे नई वस्तुओं का सृजन (Creation) कर
डालता है। यह सब उसकी सृजनात्मकता के विकास में सहायक होता है। वह मिट्टी, रद्दी
सामान और कागज वगैरह से नई चीजें बनाना सीखता रहता है।
प्रश्न 19. प्रारंभिक वर्षों में विकास के विभिन्न आयामों एवं अधिगम को
रेखांकित करें।
उत्तर―अगर वृद्धि और विकास को हम समान अर्थों में प्रयुक्त करें तो बच्चों के व्यक्तित्व
का सर्वांगीण विकास हमें विकास के विभिन्न आयामों में गति करता हुआ दिखलाई पड़ता है―
(A) शारीरिक विकास (Physical Development)-व्यक्ति के शारीरिक विकास में
उसके शरीर के वाह्य एवं आन्तरिक अवयवों का विकास शामिल होता है। शारीरिक वृद्धि
से तात्पर्य केवल लम्बाई होना और विशाल होना नहीं है। बल्कि यह शरीर के अक्षर, अनुपात
और गठन में परिवर्तनों की एक श्रृंखला है। अत: शारीरिक विकास को जैविक एवं पर्यावरण
सम्बन्धी काम दोनों नियंत्रित करते हैं।
1. वृद्धि लम्ब (Growth System)―शरीर के विभिन्न अंग विभिन्न गति से वृद्धि से गति
करते हैं। कभी वे तेजी से गति करते हैं और कभी धीमे। जीवन के प्रथम वर्ष में जब बच्चों
का भार तेजी से बढ़ता है और कद भी तेजी से बढ़ता है। कुल मिलाकर शरीर का ऊपरी हिस्सा
पहले विकसित होता है और निचला हिस्सा बाद में। जीवन के प्रथम 6 महीने में शरीर में आनुपातिक
परिवर्तन दिखाई नहीं देते परन्तु प्रथम वर्ष के अन्त तक तीव्र गति से परिवर्तन होते हैं। वृद्धिकाल
के दौरान शरीर के सभी अंगो की प्रत्येक क्षण वृद्धि होती रहती है।
2. शरीर के आकार में परिवर्तन (Change in Body Size)―शरीर के आकार में
परिवर्तन मुख्यत: शरीर में कद और भार के परिवर्तन के कारण होते हैं। शैशवकाल में शारीरिक
परिवर्तन बड़ी तेजी से होते हैं। एक वर्ष के बालक का कद उसके जन्मकाल से 50% अधिक
हो जाता है और दो वर्ष तक 75% अधिक हो जाता है। इस तरह भार पाँच माह तक दोगुना
एक वर्ष तक तिगुना और दो वर्ष तक चौगुना हो जाता है। आरंभिक व मध्य बाल्यकाल में
वृद्धि कम हो जाती है।
3. शरीर में आनुपातिक परिवर्तन―जन्म की पूर्व अवधि में भी सिर पहले विकसित
होता है तत्पश्चात् शरीर का निचला भाग निर्मित होता है। शैशवकाल में भी सिर और छाती
तेजी से बढ़ते हैं और क्रमशः धड़ एवं पाँव की गति पकड़ लेते हैं। चौड़ाई में सिर की वृद्धि
तीन वर्ष तक पूरी हो जाती है। यद्यपि शैशव एवं बाल्यावस्था में लड़के एवं लड़कियों का
शारीरिक अनुपात समान होता है।
4.शारीरिक गठन में परिवर्तन―शरीर में वसा जन्म से कुछ सप्ताह पहले बढ़ने लगता
है और जन्म के बाद भी बढ़ती रहती है। शिशुओं में यह वसा उनका शारीरिक तापमान स्थिर
रखता है। 9 माह की आयु में यह अधिकतम होता है। जीवन के दूसरे वर्ष की शुरूआत से ही
बच्चों का वसा कम होने लगता है। जन्म के समय लड़कियों में लड़कों से अधिक वसा होती है।
5. कंकाल तंत्र का विकास-जन्म के समय बच्चे में 270 अस्थियाँ होती हैं। यह संख्या
यौवन आरम्भ तक धीरे-धीरे बढ़कर 350 तक पहुंच जाती है। वयस्कों की तुलना में बच्चों
की अस्थियों में द्रव्य कम और जल अधिक पाया जाता है। छोटे बच्चों की अस्थियां परस्पर
भलीभाँति जुड़ी नहीं होती।
6. दांतों का विकास (दंतोभेद)―बालक का पहला दाँत 6वें तथा 9वें माह के बीच
में निकलता है। आमतौर पर माह तक एक बालक के सामने के चार दाँत आ जाते हैं
तथा दूसरा वर्ष पूरा होने पर दूध के दाँत पूरी तरह आ जाते हैं। लड़कों की अपेक्षा तड़कियों
के दाँत जल्दी निकलते हैं। स्थाई दाँत छह वर्ष की आयु से दिखने लगते हैं तथा अन्तिम
(अकल दाड़) 17 से 25 वर्ष के बीच या बाद में भी निकलते हैं।
7. मस्तिष्क का विकास―नाड़ी संस्थान का विकास गर्भकालीन अवस्था से ही तीव्र गति
से चलता है। जन्म के 3-4 बाद तक इसका विकास इसी गति से चलता रहता है। लगभग
2 वर्ष की अवस्था तक मस्तिष्क में जो विकास होता है उसमें अधिकांशतः बालक के गत्यात्मक
विकास का नियंत्रण होता है।
8. परिपाटी संस्थान―जन्म के समय हृदय और रक्त नलिकायें छोटी एवं संकरी होती
हैं। छह वर्ष की अवस्था तक हृदय का विकास तीव्र गति से होता है। 12 वर्ष की अवस्था
तक हृदय का भार 12 गुना हो जाता है। शैशववस्था में रक्तचाप बहुत कम होता है।
9. पाचन तंत्र―जन्म के समय बालक के पेट की क्षमता 1 ओस होती है तथा 2 सप्ताह
के बालक के पेट की क्षमता 27 होती है। 1 महीने में यह क्षमता 3 ओंस हो जाती है। बालक
के जीवन के प्रारंभिक काल में बच्चों के पेट की क्षमता का विकास अति तीव्र गति से होता
है। लगभग 3 वर्ष की अवस्था तक इस क्षमता का विकास तीव्र गति से होता है।
(B) संवेगात्मक विकास (Emotional Development)―बालकों के जीवन में संवेगों
का महत्वपूर्ण स्थान है। संवेगों के कारण कभी-कभी व्यक्ति इतना प्रेरित हो जाता है कि वह
जाति, धर्म, देश और मानवता के लिए बड़े-बड़े कार्य करने के लिए तत्पर हो जाता है और
ऐसे कार्यों को सम्पन्न कर जाता है। नवजात शिशुओं की संवेगात्मक अनुक्रिया उनके सम्पूर्ण
शरीर की क्रियाओं द्वारा व्यक्त होती है। नवजात शिशु के सम्पूर्ण शरीर का आरंभ में होना
ही उनके शरीर के सुख को प्रदर्शित करता है। आयु बढ़ने पर उसके मुस्कुराहट और हँसी
से उसके सुख की अनुभूति होती है। इस प्रकार संवेगों का विकास बालक में धीरे-धीरे आता
जाता है। जब बालक लगभग 1 वर्ष का हो जाता है तब उसकी संवेगात्मक अभिवृद्धियाँ लगभग
उसी प्रकार की हो जाती हैं जैसे वयस्क व्यक्तियों की होती हैं। बच्चों की जैसे-जैसे आयु
बढ़ती है उनमें भय, क्रोध, प्रेम, प्रसन्नता, ईर्ष्या, जिज्ञासा आदि संवेगों का विकास होता है।
बालक छोटा होता है तब उसकी संवेगात्मक अभिव्यक्ति से शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता
होती है। परन्तु, धीरे-धीरे उसको आयु बढ़ती है, उसमें भाषा विकास होता जाता है। वंशानुक्रम
के अतिरिक्त वातावरण सम्बन्धी कारक, प्रतिमान के विकास को महत्वपूर्ण ढंग से
प्रभावित करते हैं।
(C) संज्ञानात्मक अथवा मानसिक विकास (Cognitive or Mental
Development)―बालक के मानसिक अथवा संज्ञानात्मक के अन्तर्गत उसकी समस्त मानसिक
योग्यताएँ और शक्तियाँ सम्मिलित होती हैं। इन योग्यताओं अथवा शक्तियों का विकास बच्चे
में धीरे-धीरे ही होता है। यद्यपि मानसिक शक्तियों और योग्यताओं के क्षेत्र में बच्चा समान
रूप से आगे रहता है परन्तु किसी आयु अथवा अवस्था विशेष में इन योग्याताओं और शक्तियों
में विकास की गति कम अथवा अधिक होती रहती है।
      बच्चा जब अपनी ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करना शुरू कर देता है तो उसकी अपनी चारों
ओर के वातावरण के विषय में अधिक-से-अधिक जानने की जिज्ञासा भी बहुत बढ़ जाती
है। वह प्रत्येक घटना या वस्तु को क्यों, क्या, और कौन जैसे प्रश्नों में जोड़कर अनगिनत
प्रश्नों को पूछने का प्रयास करता है। प्रारंभ में, बच्चों में समय, स्थान, आकार, गति और
दूरी से सम्बन्धित प्रत्यक्षीकरण विकसित नहीं होते।
           जब बच्चा कुछ और बड़ा हो जाता है तो उसमें स्थूल तथा प्रत्यक्ष अनुभवों के द्वारा
भी सम्प्रत्ययों का निर्माण होने लगता है। अब वह किसी वस्तु या किसी व्यक्ति या प्रक्रिया
के बारे में पुस्तकों से पढ़कर या अपने अध्यापक द्वारा सुनकर या चित्र या फोटोग्राप में देखकर
ही निश्चित धारणा बनाना प्रारंभ कर देता है। बाद के वर्षों में, बालकों में न केवल नए-नए
संप्रत्ययों को भी नवीन रूप मिलता रहता है। नवीन अनुभवों का कसौटी पर खरा न उतरने
के कारण त्याग भी करना पड़ता है।
जन्म के समय बच्चों में स्मरण शक्ति कितनी मात्रा में होती है, इसके बारे में निश्चित
रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। शुरू के छह महीने के बच्चे जो बातें उनपर गहरा प्रभाव
छोड़ती हैं, केवल उन्हीं को स्मरण रखते हैं, परन्तु साल के अन्त तक उनमें वास्तविक
स्मरण-शक्ति विकसित होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। प्रथम वर्ष में तो वे प्रत्यक्ष वस्तुओं
के सम्पर्क में आने पर उनसे सम्बन्धित बातों को याद रख सकते हैं। बोलना आ जाने के
बाद, प्राय: दो वर्ष के बाद वे विचारों के रूप में भी बहुत कुछ स्मरण रख सकते हैं। 3
से लेकर 6 वर्ष तक बच्चे की स्मरण-शक्ति में परिस्थितियों और घटनाओं का स्थान बहुत
बढ़ जाता है।
        सोचने-विचारने और तर्क करने की शक्ति 2 और 3 वर्ष की आयु से ही विकसित होनी
प्रारंभ हो जाती है। परन्तु, इस आयु में बच्चे की विचार-शक्ति अधिक सूक्ष्म नहीं होती। वह
अमूर्त विचारों (Abstract Ideas) का चिन्तन करने में प्रायः असमर्थ होता है। धीरे-धीरे आयु
बढ़ने के साथ-साथ उसमें अमूर्त विचारों का चिन्तन करने तथा सूक्ष्म के साथ सम्बन्ध बनाने
की योग्यता आने लगती है। वह मौलिक तथा अमूर्त विचारों, काल्पनिक चित्रों, सूत्रों तथा
संकेतों की सहायता से विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में समर्थ बन जाता है।
      (D) सामाजिक विकास (Social Development)―जन्म के समय शिशु का व्यवहार
सामाजिकता से काफी दूर होता है। वह अत्यधिक स्वार्थी होता है। उसे केवल अपनी शारीरिक
आवश्यकता की पूर्ति की लौ लगी रहती है और दूसरों के हित-चिंतन की वह कुछ भी परवाह
नहीं करता। वह इस आयु में गुड्डे-गुड़ियों, खिलौनों, मूर्तियों आदि निर्जीव पदार्थों तथा
पशु-पक्षी, मनुष्य आदि सजीव प्राणियों में कोई अन्तर नहीं समझ पाता। बच्चों में सामाजिक
व्यवहार के प्रथम लक्षण उस समय प्रकट होते हैं जब वह वस्तुओं और व्यक्तियों में अन्तर
करने लगता है। इस अवस्था में वह अपनी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रौढ़ व्यक्तियों
के साथ ही जुड़ता है। लगभग 13 वें माह से लेकर 18वें माह के बीच शिशु का ध्यान खोलने
वाले साथियों की ओर उन्मुख हो जाता है। अब खिलौनों के लिए लड़ना कम हो जाता है
और मिलजुल कर खेलने की भावना जोर पकने लगती है। 3 वर्ष का बच्चा अपने पास जो
कुछ है उसमें से दूसरे को बाँटना, मिलजुल कर खेलना, खाना इत्यादि सीख लेता है। अब
वह सामूहिक और संगठित खेलों में रुचि लेने लगता है। 6 वर्ष की आयु तक बालक और
बालिकाएं बिना किसी लैंगिक भेदभाव के एक-दूसरे के साथ हिलमिल कर खेलते रहते हैं।
प्रथम दो वर्ष में अनुकरण, दब्बूपन, शर्मीलापन, ईर्ष्या प्रतिद्वन्द्विता और संचय संबंधी लालच
ये सभी प्रवृत्तियाँ हावी रहती हैं। धीरे-धीरे सकारात्मक सामाजिक गुण अपना प्रभाव स्थापित
करने का प्रयास करते हैं तथा 2 और 6 वर्ष के बीच सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही
प्रकार के सामाजिक गुणों का प्रभाव बच्चों में अच्छी तरह देखा जा सकता है।
           (E) भाषागत विकास (Language Development)―पहले बालक में मौखिक
अभिव्यक्ति के रूप में भाषा का विकास होता है। वह शब्दों, वाक्यों तथा इनसे बनी भाषा
को बोलना तथा समझना सीखते हैं, उसके मौखिक शब्द भण्डार में वृद्धि होती है तथा उसमें
अभिव्यक्ति के विभिन्न साधनों पर अधिकार जमाने की योग्यताओं और कुशलताओं में वृद्धि
होती रहती है। विद्यालय में प्रवेश करने तथा लिखित भाषा की शिक्षा ग्रहण करने के फलस्वरूप
उसमें पढ़ने-लिखने सम्बन्धी कुशलताओं का विकास भी प्रारम्भ हो जाता है। इस तरह भाषा
के मौखिक एवं लिखित रूपों से सम्बन्धित विभिन्न कौशलों के अर्जन तथा विकास में धीरे-धीरे
उसके कदम बढ़ते जाते हैं। 4 से 5 वर्ष में घटना को विस्तार से बताने का प्रयास किया
जाता है और वे अपना परिचय स्वयं देने का प्रयत्न करते हैं। 5-6 वर्ष में बच्चों के शब्द-भण्डार
में वृद्धि होती है। वे छोटी-छोटी कहानी सुनाने का प्रयास करते हैं तथा प्रश्नों के उत्तर देने
सक्षम होने लगते हैं।
प्रश्न 20. छात्रों की उपलब्धियों का मूल्यांकन किस प्रकार किया जाता है ? स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर―छात्रों की उपलब्धियों के मूल्यांकन में मूल्यांकन को कई प्रविधियों का प्रयोग किया
जाता है। ये प्रविधियाँ मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं:
1. परिमाणात्मक परीक्षण
2. गुणात्मक परीक्षण
1. परिमाणात्मक परीक्षण―इसके अन्तर्गत तीन प्रकार की परीक्षाएँ आती हैं:
(i) मौखिक परीक्षाएँ― मौखिक परीक्षाएँ वे परीक्षाएँ हैं जिनका स्वरूप पूर्णतः मौखिक
होता है। इसमें मौखिक प्रश्न, वाद-विवाद, प्रतियोगिता, क्विज, नाटक आदि का
प्रयोग किया जाता है।
(ii) लिखित परीक्षाएँ―इन परीक्षाओं का स्वरूप लिखित होता है। प्रश्न लिखित रूप
में पूछे जाते हैं और उनके उत्तर लिखित रूप में देने होते हैं। लिखित परीक्षाएँ
दो प्रकार की होती हैं–(क) निबन्धात्मक परीक्षण तथा (ख) वस्तुनिष्ठ परीक्षण।
(i) प्रयोगात्मक परीक्षा―प्रयोगात्मक परीक्षा का उपयोग विशिष्ट कौशलों तथा कार्य
क्षमताओं के मूल्यांकन के लिए किया जाता है। विज्ञान, भूगोल, गृह विज्ञान, कला,
क्राफ्ट आदि विषयों में प्रयोगात्मक परीक्षा का प्रयोग किया जाता है।
2. गुणात्मक परीक्षण-विद्यालय में इन परीक्षाओं का उपयोग आन्तरिक मूल्यांकन के
लिए किया जाता है। यह परीक्षाएं छह प्रकार की होती हैं―
(i) निरीक्षण
(ii) साक्षात्कार
(iii) प्रश्नावली
(iv) जाँच सूची
(v) रेटिंग स्केल
(vi) संचयी अभिलेख।
(i) निरीक्षण―इसका प्रयोग विशेष रूप से छोटे बालकों के मूल्यांकन के लिए किया
जाता है। इससे उनके वास्तविक व्यवहार का पता चलता है। निरीक्षण के द्वारा
बालकों के सामाजिक, संवेगात्मक, बौद्धिक, नैतिक विकास के बारे में पता लगाया
जाता है। यदि निरीक्षण सावधानी में किया जाय तो छात्रों के वास्तविक व्यवहार
का सरलतापूर्वक पता लगाया जा सकता है।
(ii) साक्षात्कार―साक्षात्कार का प्रयोग बड़े बच्चों का मूल्यांकन करने के लिए किया
जाता है। इससे उनकी भाषा-शैली, मनोवृत्ति, रुचि, विश्लेषण शक्ति, तर्क शक्ति
व मनोबल का पता चलता है।
(iii) प्रश्नावली―प्रश्नावली का उपयोग छात्रों से अनेक प्रकार की सूचनाएं प्राप्त करने
के लिए किया जाता है। छात्र प्रश्नों की श्रृंखला के प्रति अपनी रुचि एवं योग्यता
के अनुसार अनुक्रिया व्यक्त करते हैं।
(iv) जाँच सूची―प्रश्नावली की तरह ही यह भी संक्षिप्त प्रश्नावली होती है। इसमें कुछ
कथन छात्रों को दिए जाते हैं। इसमें दिए गए सभी प्रश्न जाँच प्रवृत्ति के होते हैं।
इन प्रश्नों के सम्बन्ध में छात्रों को हाँ अथवा नहीं में उत्तर अंकित करना पड़ता
है। इस प्रकार के प्रश्न तैयार करने के लिए उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए। चेकलिस्ट
का प्रयोग छात्रों की अभिवृत्तियों, अभिरुचियों एवं भावात्मक पक्ष के मापन के
लिए किया जाता है।
(v) रेटिंग स्केल―रेटिंग स्केल में कुछ कथन दिए जाते हैं, उनका तीन, पाँच, सात
बिन्दुओं तक सापेक्ष निर्णय करना होता है। रेटिंग स्कूल के कथन स्पष्ट तथा विशिष्ट
व्यवहारों से सम्बन्धित होने चाहिए। इसका प्रयोग उच्च कक्षाओं के छात्रों के लिए
ही किया जा सकता है। क्योंकि निर्णय लेने की शक्ति आयु के छात्रों में नहीं होती
है।
(vi) संचयी अभिलेख―संचयी अभिलेख भी मूल्यांकन की महत्वपूर्ण विधि माने जाते
हैं। विद्यालयों में प्रत्येक छात्र के सम्बन्ध में सूचनाओं को क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित
किया जाता है। इसमें शैक्षिक प्रगति, मासिक परीक्षाफल, उपस्थिति तथा विद्यालय
की अन्य क्रियाओं में भाग लेने आदि का आलेख प्रस्तुत किया जाता है। बच्चों
की डायरियों से उनकी रुचि, मनोवृत्ति, व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं का
पता चलता है। घटनाक्रम विवरण में अध्यापक छात्रों के महत्वपूर्ण व्यवहार एवं
जटिल परिस्थितियों का वर्णन करता है। पुस्तकालय के अभिलेख से छात्रों के पढ़ने
की रुचि का पता चलता है।
प्रश्न 21. प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा में बच्चों के विकास के विभिन्न आयामों
की अन्तः निर्भरता एवं परिवार तथा शिक्षकों की भूमिका पर प्रकाश डालें।
अथवा, विकास के विभिन्न आयामों की अंतःनिर्भरता एवं परिवार तथा शिक्षकों
की भूमिका।
उत्तर–बालक की विकास यात्रा माँ के गर्भ से ही प्रारंभ हो जाती है तथा फिर शिशुकाल,
बाल्यकाल तथा किशोरावस्था से गुजरती हुई अपनी विकास की ऊँचाइयों को छूती हुई बालक
को एक परिपक्व व्यक्ति (mature Adult) की संज्ञा दिलाने का प्रयत्न करती है। बालक का
यह विकास उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों तथा आयामों में अलग-अलग रूप से होता
है। इसी दृष्टि से के अध्यायों में शारीरिक विकास, गामक विकास, संज्ञानात्मक
विकास, भाषा विकास, संवेगात्मक विकास तथा सामाजिक विकास के रूप में इतना विस्तार
से अलग-अलग रूप में ही अध्ययन किया है। परंतु ध्यान से अवलोकन किया जाए तो विकास
के इस विभिन्न आयामों तथा पक्षों में अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार वृद्धि एवं विकास का
एक निश्चित स्वरूप और प्रतिमान होते हुए आपस में बहुत ज्यादा संबंध देखने को मिलता
है। किसी एक आयाम अथवा पक्ष में होने वाले विकास का दूसरे सभी पक्षों से गहरा संबंध
रहता है। एक-दूसरे को इनका यह आपसी पारस्परिक संबंध इतना अधिक प्रभावित करता
है कि बहुधा एक पक्ष के विकास का सामान्य रूप से न होना दूसरे पक्ष के विकास में काफी
बाधक बन जाता है और फिर इस तरह की खड़ी हुई यह बाधा अन्य पक्षों के विकास को
भी प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करती चली जाती है। दूसरी ओर एक पक्ष में होने वाले समुचित
विकास का अन्य पक्षों के विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है और यही बात समन्वित
होकर बालक के व्यक्तित्व को संपूर्ण रूप से एक सर्वांगीण तथा संतुलित रूप से विकसित
व्यक्तित्व का रूप देने में सहायता करती है। आइए, देखें बालक के विकास के विभिन्न आयामों
में किस प्रकार की अंत:निर्भरता पाई जाती है।
A. शारीरिक विकास तथा अन्य आयामों के विकास की अंत:निर्भरता
(Interdependecne of Physical Development & Other Aspects)―बालक के
शारीरिक विकास तथा अन्य आयामों के विकास में पाई जाने वाली अंत:निर्भरता को निम्न
प्रकार समझा जा सकता है:
1. जिस बालक का गामक विकास (Motor Development)―समुचित ढंग से हो
रहा होता है उसमें गामक क्रियाओं के संपादन की क्षमता और योग्यताएँ अच्छी तरह से विकसित
रहती हैं। चलना, भागना, कूदना, फाँदना, चढ़ना, उतरना आदि पैरों के कौशल तथा पकड़ना,
फेंकना, संभालना आदि हाथ की सभी क्रियाओं को वह बालक अपनी आयु के अनुसार करने
में समर्थ बनता जाता है। इस प्रकार की क्रियाएँ उसके शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान
देती हैं।
            दूसरी ओर बालक का शारीरिक विकास भी उसके गामक विकास को अनुकूल एवं
प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करने की क्षमता रखता है। जो बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ, सबल
एवं नीरोग रहते हैं उनमें गामक क्रियाओं और गतिविधियों की मात्रा भी सामान्य व उचित
पाई जाती है। वे सभी प्रकार के गामक कौशलों (Motor Skills) के अर्जन में भी आगे पाए
जाते हैं। इसके विपरीत जो बालक कमजोर, बीमार तथा शारीरिक विकास की दृष्टि से पिछड़े
रहते हैं उनके गामक विकास का मार्ग भी अवरुद्ध सा रहता है। खड़े होने, चलने, भागने,
दौड़ने, पकड़ने, संभालने, हाथ तथा पैर से कोई भी गति का कार्य करने की सभी क्षमताओं
तथा योग्यताओं के विकास में वे प्रायः पिछड़े हुए ही दिखाई देते हैं।
2. मानसिक तथा संज्ञानात्मक विकास (Mental Development) का भी शारीरिक
विकास से गहरा संबंध देखने को मिलता है। जो बालक मानसिक दृष्टि से आगे बढ़े हुए
होते हैं, उनमें इतनी समझ विकसित हो जाती है कि वे इसका उपयोग शारीरिक स्वास्थ्य को
बनाए रखने तथा शारीरिक दृष्टि से अच्छी तरह विकसित होने के प्रयलों में कर सके। मानसिक
विकास से उन्हें अपने तथा अपने वातावरण के साथ समायोजित होने में भी शारीरिक विकास
में बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकती है। दूसरी ओर जिन बालकों का मानसिक विकास सामान्य
से कम होता है, वे शारीरिक विकास, शारीरिक शक्तियों और क्षमताओं के उचित एवं सही
उपयोग तथा शारीरिक स्वास्थ्य के उचित संरक्षण आदि सभी क्षेत्रों में काफी पिछड़ जाते हैं।
अंतःनिर्भरता के रूप में बालक का शारीरिक विकास भी उसके मानसिक विकास को
अनेक दृष्टि से प्रभावित करता हुआ देखा जा सकता है। यह कहावत है कि “स्वस्थ शरीर
में स्वस्थ मन तथा मस्तिष्क का निवास होता है”, बालक के शारीरिक विकास के उसके
मानसिक विकास पर पड़ने वाले प्रभाव की ओर ही स्पष्ट रूप से संकेत करती है। होता भी
ऐसा ही है, स्वस्थ शरीर एवं समुचित शारीरिक विकास के मालिक बालकों में ही एक स्वस्थ
एवं सक्षम मानसिक संयंत्र कार्य कर रहा होता है। उनका स्नायु संस्थान, नाड़ी संस्थान तथा
मस्तिष्क काफी विकसित, समन्वित एवं सजग पाया जाता है तथा उनकी मानसिक क्षमाएँ एवं
योग्यताएँ भी इसी कारण अपेक्षाकृत अच्छे रूप में बढ़ी हुई पाई जाती है।
3. बालक के सामाजिक विकास तथा शारीरिक विकास में भी काफी गहरा संबंध देखने
को मिलता है। जो बच्चे किन्हीं अन्य बालकों के साथ सामाजिक संबंध बनाने, उनके
खेलने-कूदने, मित्रता करने आदि बातों में पीछे रह जाते हैं तथा जो एकाकी तथा अलग-थलग
जीवन जीने के आदी हो जाते हैं उनके शारीरिक विकास पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता
है। खेलकूद तथा अन्य सामाजिक गतिविधियों में भाग न लेने से उन्हें अपनी शारीरिक क्षमताओं
तथा शक्तियों के विकास हेतु उपयुक्त अवसर नहीं प्राप्त होते। मनोरंजन तथा अपनी शक्तियों
के उचित प्रकाशन के अवसर भी उन्हें कम मिलते हैं और इस दृष्टि से उनके मानसिक एवं
शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है और उनका शारीरिक विकास इसी अनुपात
में प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता जाता है।
        दूसरी ओर बालकों का उचित सामाजिक विकास उन्हें शारीरिक रूप से विकसित होने
के पर्याप्त अवसर तथा सुविधाएँ प्रदान करने की क्षमता रखता है। परिणामस्वरूप ऐसे बच्चे
खेलकूद, मनोरंजन तथा सभी स्वास्थ्यवर्धक बातों में आगे बढ़े हुए दिखाई देते हैं।
      अत:निर्भरता के दूसरे पक्ष में बालकों के शारीरिक विकास का उनकी सामाजिकता के
विकास में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गहरा योगदान रहता है शारीरिक रूप से विकसित
स्वस्थ एवं सबल बालकों से सभी बालक मित्रता बनाना चाहते हैं। इन बालकों को खेलकूद,
शारीरिक क्रियाओं, सामाजिक क्रियाओं तथा कार्य अनुभव क्रियाओं में काफी अच्छा योगदान
रहता है। इस दृष्टि से इन्हें सामाजिक समायोजन तथा सामाजिक विकास के अवसर अन्य
शारीरिक रूप से अविकसित बालकों की अपेक्षा सदैव ही अधिक मिलते हैं और अपने समूह
में अच्छी सामाजिक प्रतिष्ठा तथा सम्मान प्राप्त होता रहता है। परिणामस्वरूप उनका सामाजिक
विकास उनके शारीरिक विकास से सदैव ही अनुकूल ढंग से प्रभावित होता रहता है।
4. बालकों के शारीरिक विकास तथा संवेगात्मक विकास के पारस्परिक संबंधों को भी
अच्छी तरह जाना और समझा जा सकता है। जहाँ बालकों का उचित शारीरिक विकास उनके
उपयुक्त संवेगात्मक विकास में सहायक होता है जहाँ बालक के उपयुक्त संवेगात्मक विकास
का उसके शारीरिक विकास पर भी उपयुक्त प्रभाव पड़ता है।
        व्यवहारिक जीवन में हम देखते हैं कि जो बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ, सबल, सक्षम
तथा नीरोग रहते हैं और जिनका शारीरिक विकास उनकी अपनी आयु की दृष्टि से ठीक प्रकार
चलता रहता है उनमें संवेगों का विकास तथा संवेगात्मक व्यवहार की अभिव्यक्ति भी उपयुक्त
ढंग से होती है।
       दूसरी ओर जो बालक संवेगात्मक रूप से ठीक प्रकार आगे बढ़ रहे होते हैं उनके शारीरिक
विकास को भी उनके इस प्रकार के विकास तथा व्यवहार से उपयुक्त आधार तथा अनुकूल
परिस्थितियाँ प्राप्त होती रहती हैं। जो बालक नकारात्मक संवेगों जैसे क्रोध, ईष्या, घृणा, वैमनस्य,
भय, चिंता आदि से जरूरत से ज्यादा प्रभावित नहीं होते तथा जिनमें सकारात्मक संवेगों तथा
व्यवहार जैसे प्रेम, दया, हास-परिहास, विनोदप्रियता आदि की उचित मात्रा में उपर्युक्त
अभिव्यक्ति देखने को मिलती है, वे शारीरिक विकास तथा अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्ति
की दिशा में उपयुक्त ढंग से आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। इसके विपरीत जो बालक चिंतित
रहते हैं, जिनमें आशंका तथा भय की मात्रा अधिक होती है, जो बात-बात पर क्रोधित होते
रहते हैं या ईर्ष्या तथा वैमनस्य की आग में झुलसते रहते हैं उनके स्वास्थ्य तथा शारीरिक
विकास पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है।
5. भाषा-विकास तथा शारीरिक विकास में भी काफी गहरा पारस्परिक संबंध देखने को
मिल सकता है।
         शारीरिक विकास की दिशा तथा मात्रा में ठीक अनुपात में रहने से बालक को अपनी
आयु के हिसाब से भाषा विकास का रास्ता तय करने में आसानी होती है। अत: बालक को
अपने भाषा विकास में अच्छा स्वास्थ्य भी जरूरी होता है। वाक् तंत्र, गले, फेफड़े, स्नायु संस्थान
आदि का उचित विकास बालक को उच्चारण संबंधी कुशलता प्राप्त करने में मदद करता
है। उसकी सुनने की शक्ति का विकास उसे भाषा को ठीक प्रकार सुनकर सही अनुसरण
करने की क्षमता प्रदान करता है। देखने, चलने, स्पर्श करने आदि इंद्रिय क्षमताओं का विकास,
उसे ठीक प्रकार ज्ञान प्राप्त करके, उसे भाषा को सही रूप में अभिव्यक्त करने की क्षमता
देता है। अपने शारीरिक सामर्थ्य के अनुसार ही कोई अच्छा और अधिक देरी तक संभाषण
देने की क्षमता अर्जित करता है। लेखन संबंधी योग्यता भी बालक को शारीरिक क्षमता के
विकास में मदद करता है। इस तरह भाषा संबंधी सभी प्रकार का विकास बालक के शारीरिक
विकास से अनुकूल तथा प्रतिकूल ढंग से प्रभावित होता रहता है।
           दूसरी ओर बालक को अपने भाषा विकास से शारीरिक स्वास्थ्य अर्जित करने में मदद
मिल सकती है। भाषा का उचित विकास उसे अपनी बात कहने तथा दूसरों की बात सुनने-समझने
में पूरी मदद करता है। शारीरिक विकास तथा. शारीरिक स्वास्थ्य जो भी बातें बालक को मौखिक
या लिखित रूप से भाषा के माध्यम से समझाई जाती हैं वह उसे भाषा के उचित विकास के
सहारे ही अच्छी तरह ग्रहण करने में समर्थ हो सकता है। भाषा विकास उसे दूसरे बालकों के
साथ संबंध बनाने, खेल, कूद तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं में ठीक प्रकार से भाग लेने में भी
समर्थ बनाता है। इसके अभाव में वह अलग-थलग पड़कर उन क्रियाओं में सामूहिक रूप से
भाग नहीं ले पाता जिनके माध्यम शाशक विकास की अधिक संभावनाएँ रहती हैं।
प्रश्न 22. बच्चों की प्रगति में स्कूल की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर–स्कूल शिक्षा का महत्वपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सक्रिय साधन है। बालक के व्यक्तित्व
के विकास में स्कूल की महत्वपूर्ण भूमिका है। पाँच वर्ष की आयु तक बालक की समस्त
सामाजिक अन्तःक्रियाएँ माता-पिता तथा अन्य परिवारजनों के साथ संबंधित होती है। पाँच-छ:
वर्ष की आयु में जब बच्चा स्कूल में प्रवेश करता है तब उसकी अन्तःक्रियाओं का दायरा
बढ़ जाता है। स्कूल के मित्रों और अध्यापकों के साथ उसकी अन्त:क्रियाएँ प्रारम्भ हो जाती
हैं। लगभग सात वर्ष की अवस्था में बालक की अन्त:क्रियाएँ अधिक बढ़ने लग जाती है।
ग्यारह-बारह वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उसकी स्कूल से संबंधित अंतःक्रियाएँ परिवार
की अपेक्षा अधिक हो जाती है। स्कूल बच्चे के विकास पर निम्नलिखित ढंगों से
प्रभाव डालता है―
1. स्वस्थ आदतों का निर्माण―विद्यालय में एक छात्र का ‘सीखना’ और ‘उपलब्धि’
किस प्रकार की होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर है कि अध्यापक और विद्यार्थियों
के संबंध किस प्रकार के हैं। एक छोटे बच्चे के लिए अध्यापक माँ का प्रतिस्थापित रूप
है। कुछ और बड़े बच्चों के लिए शिक्षक वह वयस्क व्यक्ति है जो आदरणीय और प्रशंसा
पाने वाला है तथा जिसके व्यवहार का अनुकरण करना चाहिए। अतः यह आवश्यक है कि
अध्यापकों में प्रभावशाली, आदर्श एवं अनुकरणीय गुण और विशेषताएँ होनी चाहिए। प्रायः
यह देखा गया है कि अध्यापक की अभिवृत्तियों के प्रति विद्यार्थी अधिक संवेदनशील होते
हैं तथा उनका अनुकरण करते हैं। इसीलिए अध्यापक की अच्छी आदतों का व्यक्तित्व के
विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि अध्यापक स्वभाव से नम्र, बोलने में विनीत तथा व्यवहार
में अच्छा है तो बच्चा भी वही आदतें सीखता है। लेकिन अगर अध्यापक का स्वभाव बोलने
में कठोर तथा व्यवहार में अकुशल है तो बच्चा भी उन्हीं आदतों का अनुकरण करता है।
2. स्कूल तथा अनुशासन―बालक मुख्यतः अनुशासन अपने संरक्षकों व अध्यापकों से
सीखता है। अनुशासन के द्वारा समाज में मान्य नैतिक व्यवहार को सिखाया जाता है। विद्यालय
का अनुशासन बालक के व्यवहार और अभिवृत्तियों को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।
यदि अध्यापक कक्षा में डरा-धमका कर या मार-पीट कर अनुशासन कायम रखता है, तो
कक्षा के विद्यार्थी भी कठोर स्वभाव वाले हो जाते हैं। इसे बाहरी अनुशासन कहते हैं। लेकिन
आजकल बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा देनी चाहिए कि ये स्वयं अनुशासन में रहना सीखें।
इसे आंतरिक अनुशासन कहते हैं। इस प्रकार के अनुशासन से बालकों में अनेक व्यक्तिगत
विशेषताएँ उत्पन्न हो जाती हैं जैसे प्रसन्नता, सहयोग, आत्म-महत्व और विश्वास की योग्यता
आदि।
3. स्कूल तथा व्यक्तित्व―संरक्षकों के बाद, बालक के व्यक्तित्व विकास पर स्कूल का
बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। स्कूल में बच्चा केवल अपने सहपाठियों तथा शिक्षकों आदि के
व्यवहार से ही प्रभावित नहीं होता है बल्कि स्कूल का सामान्य वातावरण भी बच्चे के व्यवहार
को प्रभावित करता है। उसे विभिन्न सामाजिक व आर्थिक स्तर के बच्चों के साथ मिलने
का अवसर मिलता है। वह इन सभी प्रकार के बच्चों की आदतों, विचारों और चरित्र आदि
से प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त कक्षा का वातावरण, अध्यापक का व्यक्तित्व व व्यवहार,
अनुशासन, स्कूल में पक्षपात, शैक्षिक उपलब्धि, सामाजिक उपलब्धि आदि कारक बच्चे के
व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करते हैं।
4. स्कूल तथा चरित्र निर्माण―परिवार के बाद स्कूल का बच्चे के नैतिक और चारित्रिक
विकास पर महत्वपूर्ण ढंग से प्रभाव पड़ता है। स्कूल के शिक्षक, सहपाठी तथा वातावरण
आदि सभी बालक के नैतिक विकास में योगदान देते हैं। स्कूल में बालक के पाठ्यक्रम और
अनुशासन का भी उसके नैतिक मूल्यों के विकास पर महत्वपूर्ण ढंग से प्रभाव पड़ता है। जिस
स्कूल का सामान्य अनुशासन और व्यवस्था ठीक-ठीक होती है वहाँ पढ़ने वाले बालकों के
चारित्रिक विकास के लिए सुन्दर वातावरण मिलता है। स्कूलों में बालकों के नैतिक विकास
पर उसके साथी समूह का भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए यदि बच्चे
के साथी दुराचारी हैं तो निश्चय ही बालक में भी इसी प्रकार के व्यवहार प्रतिमान विकसित
होंगे। ठीक इसके विपरीत अच्छे व्यवहार, आचार व विचारों वाले साथी बच्चे के उच्च चरित्र
निर्माण में सहायक सिद्ध होते हैं।
5. स्कूल तथा सामाजिक विकास―स्कूल में शिक्षक और बालक के मित्र भी बालक
के सामाजिक विकास में योगदान देते हैं। स्कूल में बालक को अपनी आयु के अनेक बालकों
के साथ बैठने तथा सीखने का अवसर ही नहीं मिलता है बल्कि उसे बड़े बच्चों के सामाजिक
अनुभव सुनने और सामाजिक व्यवहार देखने का अवसर भी मिलता है। इन अवसरों से उसकी
सामाजिक सूझ और सामाजिक प्रत्यक्षीकरण बढ़ता है। फलस्वरूप वह समाज के विभिन्न मूल्यों
से संबंधित व्यवहार को सीखता है। स्कूल के अनेक कार्यक्रमों में भाग लेकर वह अपने
सामाजिक व्यवहार प्रतिमानों को सीखता है। स्कूल में वह सहयोग, मित्रता और आत्मनिर्भरता
आदि गुणों को भी सीखता है।
प्रश्न 23. पूर्व प्राथमिक अथवा प्रारंभिक बाल्यावस्था में देखभाल एवं शिक्षा संबंधी
कार्यक्रम पर प्रकाश डालें।
उत्तर―इस समय इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण परियोजना है ‘समेकित बाल विकास सेवाएँ’
(Integrated Child Development Services) । इन सेवाओं में बाल विकास संबंधी
निम्नलिखित सेवाएँ हैं―
1. प्रसव-पूर्व देखभाल।
2. नवजात शिशु की देखभाल।
3. दूध पिलाने के दौरान देखभाल।
4. बच्चे को सही बालाहार देने की सही प्रक्रिया।
5. रोग प्रतिरोधना
6. बाल देखभाल में माता-पिता की शिक्षा।
7. स्कूल-पूर्व शिक्षा के माध्यम से प्रारंभिक बाल्यावस्था का विकास।
8. स्वास्थ्य और पोषाहार सहायता।
इस समय से सेवाएँ 0-6 वर्ष के कुल बच्चों के 10 प्रतिशत को ही प्राप्त है प्रयास
किए जाएंगे कि 2000 ई. तक ये सेवाएँ 70% बच्चों को प्राप्त हों।
              साधनों को ध्यान में रखते हुए आवश्यकता के अनुसार कोई भी मौड्यूल
अपनाया जा सकता है।
700 से 1000 तक की जनसंख्या के लिए एक आंगनवाड़ी (बिखरे हुए जनसंख्या के
क्षेत्र में 300 की आबादी), एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और एक सहायक आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं
के लिए 3 महीने की प्रारंभिक, समेकित प्रशिक्षण, दो वर्ष में एक बार आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं
का पुनाचार्य प्रशिक्षण। सहायक (हैल्पर) के लिए अल्पकालीन अनुस्थान, मोडैस्ट, इंप्रोवाइज्ड,
प्रतिदिन लगभग 4 घंटे कार्यों आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और हैल्पर द्वारा अवैतनिक कार्य (कार्य
के घंटों के अनुरूप पारिश्रमिक होगा। 15-20 आंगनबाड़ियों के लिए एक सुपरवाईजर
(जनसंख्या पर निर्भर करते हुए); पूरक पोषाहार की समेकित सेवाएँ, स्वास्थ्य निरीक्षण, रोग
प्रशिक्षण, मेडिकल संबंधी समुचित चिकित्सा/स्वास्थ्य केंद्र। बाल सुरक्षा में पूर्व स्कूल शिक्षा
माताओं की शिक्षा आंगनबाडी स्तर पर माताओं और बच्चों को प्रारंभिक स्वास्थ्य सेवा,
अवस्थापना सेवाएँ उपलब्ध की जाएगी। स्वास्थ्य निरीक्षण रोग प्रशिक्षण, आयरन और फोलिक
एसिड विटामिन ए, बधियाकरण डिलीवरी किटें सप्लाई करना, स्वास्थ्य शिक्षा और परिवार
नियोजन सलाह प्रसवोत्तर और प्रसवोपूर्व सुरक्षा, आम बिमारी के इलाज का उपचार, जोखिमनुमा
मामलों को प्रारंभिक स्वास्थ्य केंद्र को भेजना।
प्रश्न 24. बिहार में प्राथमिक शिक्षा की मुख्य समस्याएँ क्या है ? उनके निराकरण
के लिए व्यवहारिक सुझाव दीजिए।
          अथवा, भारत में निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की उन्नति के मार्ग में मुख्य
कठिनाइयाँ क्या है ? कोठारी आयोग ने उनको सुलझाने के लिए क्या प्रस्ताव दिए हैं?
        अथवा, हमारे देश में चौदह वर्ष तक आयु के सब बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा
को निःशुल्क और अनिवार्य बनाने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए हैं ? विवेचन
कीजिए।
उत्तर–प्राथमिक शिक्षा 6 वर्ष से शुरू होकर 14 वर्षों तक चलती है, जिनमें से 6 वर्ष
से 11 वर्ष की आयु वाले कक्षा एक से पाँच तक निम्न प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते हैं तथा
11 से 14 वर्ष की आयु वाले कक्षा छः से आठ तक उच्च प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते हैं।
हमारे संविधान में 6 से 14 वर्ष के बालक एवं बालिकाओं के लिए निःशुल्क और अनिवार्य
शिक्षा देने की व्यवस्था की गई है।
शिक्षा की समस्या :
1. सार्वभौमिकरण की समस्या।
2. अपव्यय की समस्या।
3. अवरोधन की समस्या।
1. सार्वभौमिकरण की समस्या-इसके अंतर्गत हैं―
(i) प्राथमिक विद्यालयों की सुविधाओं का सार्वभौमिकरण।
(ii) प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन का सार्वभौमिकरण।
(iii) प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों के स्थायित्व का सार्वभौमिकरण।
2. अपव्यय की समस्या―हर्टांग समिति (1921) के अनुसार “बालक या छात्र अपने
शिक्षा के स्तर किए बिना ही बीच में पढ़ाई छोड़ देता है, अपव्यय कहलाता है।”
       वेद प्रकाश (1964) के अनुसार, “छात्र अपने उद्देश्य को पूर्ण किए बिना ही पढ़ाई
छोड़ देता है, अपव्यय कहलाता है।”
अपव्यय के कारण :
1. आर्थिक कारण―इसके अंतर्गत, अभिभावकों को निर्धनता, अशिक्षा आदि आता है।
2. सामाजिक करण―गाडगिल और मांडेकर के अनुसार सामाजिक-स्तर का अपव्यय
निम्न वर्ग के लोगों में अधिक होता है। इसके अंतर्गत बाल विवाह, पर्दा-प्रथा, दहेज प्रथा,
बालक-बालिकाओं में अंतर आदि आता है।
3.शैक्षिक कारण―नायक एवं वेद प्रकाश के अनुसार 30 प्रतिशत अपव्यय शैक्षिक कारणों
से होता है जैसे―
(क) विद्यालय से अनाकर्षण होना (उपयुक्त वातावरण न होना)
(ख) पाठ्य सहगामी क्रियाओं का अभाव।
(ग) बोझिल पाठ्यक्रम।
(घ) सहायक सामग्री का प्रयोग न किया जाना।
(ङ) अध्यापकों की कमी।
(च) शिक्षण-विधियों का उपर्युक्त न होना।
(छ) पाठ्य-पुस्तकों का सुलभ न होना।
3.अवरोधन की समस्या―”बालक एक निश्चित अवधि की शिक्षा-स्तर को पूर्ण किए
बिना वह अधिक समय में पूर्ण करता है, अवरोधन कहलाता है।”
इसके लिए कामत् एवं देशमुख ने गोखले संस्थान पूना में अवरोधन सम्बन्धी शोध किया।
बोझिल पाठ्यक्रम को दूर करने के लिए प्रो. यशपाल समिति का गठन 1989 ई. में
किया गया। उन्होंने कहा कि गृह-कार्य प्राथमिक स्तर पर नहीं दिया जाये। अंग्रेजी माध्यम
का पाठ्यक्रम जो दोहरी नीति के द्वारा हुआ है, उसको समाप्त किया जाये। इसके द्वारा भी
ड्राप आउट कम होगा।
अपव्यय/अवरोधन के स्थिति में सुधार के लिए किये गये प्रयत्न :
1. घर के नजदीक विद्यालय का होना।
2. प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम।
3. सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन।
4. दूरदर्शन द्वारा सीखना।
5. सौखों कमाओ योजना।
6. नवोदय विद्यालय की स्थापना।
7. अध्यापकों की सुविधा में वृद्धि।
8. दोपहर का भोजन।
9. नियंत्रित मूल्य पर पाठ्य पुस्तक एवं कॉपियों का विवरण।
10. आपरेशन ब्लैक-बोर्ड आदि।
इसके अलावा और कुछ अन्य सुझाव दिए गए हैं―
1. विद्यालय में विज्ञान की सामग्री, शिक्षा का सामग्री, पीने का पानी तथा प्रतिदिन की
आवश्यकता वाली सामग्री की व्यवस्था होनी चाहिए।
2. सेवा शत्तों में सुधार किया जाये ताकि अधिकाधिक लोग इसमें आने का प्रयत्न करें।
3. छात्रों की समस्याओं को देखते हुए जितने अध्यापक की जरूरत हो, नियुक्त कर
देना चाहिए।
4. उपनिरीक्षक को प्राथमिक विद्यालय के उन्नति के लिए, प्रशिक्षण कार्यक्रम, अभिनव
कार्यक्रम, सेमिनार, प्रयोगशाला का प्रबन्ध करना चाहिए।
5. नामांकन पर अध्यापक एवं निरीक्षक को ध्यान देना चाहिए। गलत आँकड़ा देने वाले
पर अनुशासनात्मक कारवाई करनी चाहिए।
6. सामान्य परिस्थितियों में एक दिन में 50 प्रतिशत शिक्षकों को एक साथ अवकाश
नहीं देना चाहिए।
7. प्राथमिक विद्यालयों में एक से पाँच तक छात्रों को फेल नहीं करना चाहिए तथा
कक्षा 5 से 8 में जनपद स्तर पर परीक्षा ली जाये, जिससे उन्हें निम्न शैक्षिक स्तर
की जानकारी प्राप्त हो जाये।
8. प्रवेश के लिए बहुबिन्दु अपनाई जाये।
9. कक्षा 5 के विद्यालयों को कक्षा 8 तक किया जाये।
10. अध्यापक को हमेशा प्रत्येक छात्र पर ध्यान रखना चाहिए। अगर छात्र एक दिन विद्यालय
नहीं आता है, तो दूसरे दिन उससे पूछताछ करनी चाहिए।
11. शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बालक का मौलिक अधिकार है। अभिभावक को छात्रों
को विद्यालय भेजना चाहिए। अगर नहीं भेजता है तो अभिभावक को भी दण्डित
करना चाहिए। अगर आर्थिक कारणों के चलते नहीं भेजता है तो 6 से 14 साल
तक के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था है।
12. समाज की आवश्यकता की दृष्टि से उत्पादन कार्य योजना, अर्थात् सीखों कमाओं
योजना के अंतर्गत शिक्षा दिया जाये ताकि छात्र अपना जीविकोपार्जन भी कर सकें।
13. कटाई-बोआई के समय छात्रों को अवकाश दे देनी चाहिए, ताकि वह अपने अभिभावक
की मदद कर सकें।
प्राथमिक शिक्षा की समस्याएँ:
1. शिक्षा की दोषपूर्ण नीति―महात्मा गाँधी की बंसिक शिक्षा को राष्ट्रीय शिक्षा नीति
का नाम दिया गया तथा प्रथम पंचवर्षीय योजना में शिक्षा पर 56 प्रतिशत, द्वितीय पंचवर्षीय
योजना में 35 प्रतिशत, तीसरे में 34 प्रतिशत, चौथी में 30 प्रतिशत, पाँचवीं में 32 प्रतिशत
तथा छठी में 36 प्रतिशत व्यय किया गया है। अतः व्यय का प्रतिशत कम होना दोषपूर्ण
नीति का संकेत है।
2. दोषपूर्ण प्रशासन―प्रशासन सही नहीं होने के कारण प्राथमिक विद्यालयों के प्रति लोक
अपना झुकाव उतना नहीं रखते, बल्कि कोचिंग तथा प्राइवेट स्कूलों की तरफ अपने वच्चों
को शिक्षा के लिए भेजना पसन्द करते हैं।
3. विद्यालय भवन की जर्जर दशा―विद्यालय भवन की अत्यन्त जर्जर दशा होने के
कारण ही ऑपरेशन यलैक बोर्ड शुरू किया गया। इसके अंतर्गत पीने का पानी, शिक्षक की
व्यवस्था, जैसे एक पुरुष तथा एक महिला शिक्षक की व्यवस्था आदि।
4. अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम के प्रति अनुपयुक्त अभिवृत्तियाँ―इसके अंतर्गत
औपचारिक शिक्षा की अपेक्षा पाठ्यक्रम में विभिन्नता पाई जाती है। अनौपचारिक शिक्षा के
द्वारा यह प्रयास किया गया कि 1990 ई. तक निम्न प्राथमिक स्तर तक 90 प्रतिशत तथा उच्च
प्राथमिक स्तर तक 10 प्रतिशत लोगों को शिक्षित करना। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
5. प्राकृतिक कठिनाई―विद्यालय को घर से दूर होने के कारण, धूप के कारण, बाढ़
के कारण, यह कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं।
6. शिक्षा की माँग का उत्पन्न न होना―प्रायः माँग तो हो रही है कि अनिवार्य एवं
निःशुल्क शिक्षा हो, लेकिन, निर्धनता के कारण अभिभावक अपने लड़के को शिक्षा के लिए
विद्यालय न भेजकर, बल्कि, जीविकोपार्जन में लगा देते हैं।
7. सामाजिक कुरीतियाँ―बालिकाओं के प्रति शिक्षा का ध्यान न देना, पर्दा-प्रथा,
वाल-विवाह इनके प्रमुख उदाहरण हैं।
8. अभिभावकों की अशिक्षा―अतः इसको दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा चलाया गया।
अनौपचारिक शिक्षा भी चलाया गया।
9. राजनीतिक कठिनाइयाँ― राजनीतिक के चलते सरकार का ध्यान शिक्षा को छोड़कर
किसी दूसरे क्षेत्र में चला जाता है। जैसे-खाद्यान्न की समस्या, बेरोजगारी की समस्या आदि।
अतः राजनीतिक कठिनाइयों के चलते भी प्राथमिक शिक्षा का विकास पूरा नहीं हो पा रहा
है।
10. प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य की अस्पष्टता―उद्देश्य जो निर्धारित हैं, उसके प्रति ध्यान
नहीं दिया जा रहा है। इसलिए ऊवाऊ या उदासीनता की भावना जागृत होती है। अतः इसी
को दूर करने के लिए Joyful learnin (आनन्दमयी शिक्षा) खेल के द्वारा सीखना, करके
सीखना, चित्र आदि के द्वारा सीखना आदि योजनाएँ चलाई गई।
11. पाठ्यक्रम की अनुपयुक्तता― डीयरडेन ने अपनी पुस्तक Problems of Primary
Education में बताया है कि पाठ्यक्रम को इतस तरह से रखा जाना चाहिए―
1. भविष्य में इसकी उपयोगिता है कि नहीं, यह ध्यान रखा जाये।
2. यह जीवन के लिए उपयोगी है कि नहीं, अर्थात् निम्न प्राथमिक पाठ्यक्रम, उच्च
प्राथमिक-पाठ्यक्रम से सम्बन्धित हो।
3. अभिवृत्ति को बढ़ावा मिले, अर्थात् सीखने के प्रति वालक जागृत हो।
4. विद्यालय का पाठ्यक्रम समाज के लिए उपयोगी हो।
5. पाठ्यक्रम प्रयोगात्मक हो।
12. शिक्षण प्रक्रिया की अनुपयुक्त -NCERT और UNICEF ने प्राथमिक शिक्षा
के लिए पाठ्य-सामग्री तथा शिक्षण-प्रक्रिया के लिए विधियों का खोज किया है। सेवाकालीन
अध्यापक को बीच-बीच में प्रशिक्षण के लिए बुलाने के समय दिया जाना चाहिए क्योंकि
वह आपस में देखा जाता है कि पाठ्यक्रम में क्या परिवर्तन होना चाहिए तथा आप किस
वह पढ़ाएँगे, यह सब बताया जाता है। पढ़ाने की नवीन विधियाँ भी अध्यापक समझकर छात्रों
को समझाएँ, नहीं तो छात्र नहीं समझ पाएँगें।
13. भाषा की समस्या―एक ही क्षेत्र में कई भाषा को बोलने वाले लोग रहते हैं। अतः
सभी के बोलियों के लिए अलग-अलग विद्यालय की स्थापना करना मुश्किल है। अतः यह
भी एक समस्या है।
       उपरोक्त समस्याएँ निःसंदेह प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनिक सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया
में बाधक हैं। इसका निदान संभव है। इसके लिए शिक्षा प्रशासक, शिक्षक, अभिभावक को
आगे आना होगा। अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करना होगा। शासन स्तर पर अवहेलना की
प्रवृत्ति में सुधार करना होगा। चूँकि प्राथमिक शिक्षा औपचारिक शिक्षा की आरंभिक कड़ी व
आधारशिला है। यह शिक्षा नागरिक के व्यक्तित्व में निखार लाती है, उसे विकसित करती
है ताकि वह अधिक उत्पादन, आर्थिक विकास या समाज के सभी क्षेत्रों की उन्नति में पूरा-पूरा
सहयोग दे सके।
प्रश्न 25. बिहार में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों पर प्रकाश डालें।
अथवा, निम्नांकित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए :
(a) एन.सी.टी.ई., (b) डायट।
उत्तर―(a) राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्―राष्ट्रीय अध्यापक, शिक्षा परिषद् शिक्षा
मंत्रालय, भारत सरकार के फैसले के अनुसार 1973 ई. में स्थापित की गई। इनकी स्थापना
का उद्देश्य यह था कि यह संस्था अध्यापन शिक्षा के विषय में केन्द्रीय सरकार को परामर्श
देता रहे। उस समय से यह पाठ्यक्रम निर्माण, शैक्षिक तकनीकी, मूल्यांकन और प्राथमिक
एवं माध्यमिक शिक्षण प्रशिक्षण संबंधित स्तर मापदंड निर्धारित करने का कार्य कर रही है।
राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् अधिनियम 1993 ई. के तहत 1 जुलाई, 1995 ई. से
Automous body, के रूप में कार्य कर रही है।
(i) राज्यों के सभी प्रशिक्षण विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के प्रशिक्षण कार्यों की
देख-भाल करना। इसके लिए परिषद् ने 1995-96 ई. में सभी राज्यों को अध्यापक
शिक्षा का कार्य करने हेतु एक योजना तैयार किया है।
(ii) अध्यापक शिक्षा के संबंध में केन्द्र सरकार, राज्य सरकार विश्वविद्यालय और यू.
जी.सी. को परामर्श देना।
(iii) शिक्षक-शिक्षा के कार्यक्रम में समन्वय एवं मूल्यांकन।
(iv) शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग एवं शोध कार्य करना।
(v) स्कूली शिक्षकों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का निर्धारण करना।
(vi) शिक्षक शिक्षा संस्थानों में नामांकन हेतु आवेदकों का न्यूनतम शैक्षिक योग्यता
निर्धारित करना।
(vii) शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में दिए जाने वाले विभिन्न शुल्कों की दर निर्धारित करना।
(viii) नए शिक्षक के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम निर्माण के लिए मार्गदर्शिका तैयार करना।
परिषद् के चार क्षेत्रीय समिति हैं। पूर्वी क्षेत्र के लिए राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा समिति,
भुवनेश्वर में स्थापित किया गया है।
(b) जिला शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान―शैक्षिक गुणवत्ता को सुनिश्चित करने वाले कारकों
में शिक्षक की गुणवत्ता, दक्षता, प्रतिबद्धता, अभिरुचि एवं चरित्र निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण
है। किन्तु, शिक्षकों में उपर्युक्त गुणों का स्फूरण मुख्य रूप से उनके प्रशिक्षण की गुणवत्ता
तथा संसाधनिक सहयोग, समर्थन संस्मरण पर आधारित है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में इस
तथ्य पर विशेष ध्यान दिया गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में 1987 में केन्द्र प्रायोजित अध्यापक शिक्षा
योजना नाम से पाँच सूत्री कार्यक्रम का सूत्रपात हुआ है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निर्देश है कि
सभी शिक्षकों को पाँच वर्ष के अन्तराल पर एक वार सेवाकालीन प्रशिक्षण प्राप्त करना है।
अतः इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सभी जिला में एक जिला शिक्षा एवं प्रशिखण संस्थान
खोला जा रहा है।
संस्थान के निम्नलिखित कार्यकलाप हैं―
1. प्राथमिक शिक्षक को सेवा पूर्व एवं सेवाकालीन प्रशिक्षण देना; अनौपचारिक प्रौढ़
शिक्षा के कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देना।
2. अध्ययन अध्यापक सामग्री एवं सहायक शिक्षा सामग्री विकसित करना।
3. मूल्यांकन आदि।
4. डायट जिला शिक्षा बोर्ड के शैक्षिक एवं तकनीकी परामर्शदाता का कार्य करेगा जिसके
निम्नांकित विभाग है―
(i) पूर्व सेवा शिक्षक प्रशिक्षण
(ii) सेवाकालीन कार्यक्रम, फाल्ड इन्टरऐक्शन और नवाचार
(iii) जिला साधन केन्द्र
(iv) कार्यानुभव
(v) पाठ्यक्रम सामग्री विकास और मूल्यांकन
(vi) शैक्षिक प्रौद्योगिकी
(vii) योजना एवं प्रबंधन।
इस संस्था संबंध राष्ट्रीय स्तर पर एन.सी.ई.आर.टी., एन.आई.ई.पी.ए. आदि संस्थाओं से है।
अभी तक बिहार में निम्नांकित डायटों की स्थापना हो चुकी है।
     1991-1992 में डायट विक्रम (पटना), पंचायती अखाड़ा (गया), सोनपुर (सारण),
पूरबसराय, मुंगेर, श्रीनगर (पूर्णिया), नरान (मधुबनी)
      1992-92 में डायट-पीरोटा (भोजपुर), रामबाग (मुजफ्फरपुर), पूसा (समस्तीपुर),
मधेपुरा (मधेपुरा), डुमरा (सीतामढ़ी), भागलपुर, कुमारगा (प. चम्पारण), सीवान (सीवान),
सासाराम (रोहतास) नवादा (नवादा), दीगही, वैशाली, शाहपुर (बेगूसराय)
        1993-94 तरार-दाउदनगर (औरंगाबाद), थावे (गोपालगंज), डेनबी हाउस (दरभंगा),
नूरसराय (नालन्दा) मोतिहारी (पूर्वी चम्पारण) तथा टीकापट्टी (कटिहार)।
प्रश्न 26. बिहार में शिक्षा की असमानता को दूर करने के लिए किए जाने वाले
प्रयासों का वर्णन करें।
उत्तर―बिहार में शिक्षा की असमानता को दूर करने के लिए किए जाने वाले प्रयास―
बिहार में सामाजिक पिछड़ापन तथा आर्थिक विषमता के कारण शिक्षा-अवसर में असमानता
व्याप्त है। जब हम हरिजन जातियों की सूची देखते हैं तो पाते हैं कि ऐसी बहुत-सी जातियाँ,
जैसे-उत्तर बिहार में तनाव एवं नीतियाँ हैं, जिसमें 95 प्रतिशत केवल मजदूर वर्ग के हैं, जिनको
वह सुविधा प्राप्त नहीं है जो सुविधा हरिजन के बच्चों को है। सामान्य कोटि की तरह इनके
बच्चों को भी अन्य आर्थिक दृष्टि से सम्बद्ध पिछड़ी जातियों के बच्चों के साथ प्रतियोगिता
है। कल्याण से मिलने वाली छात्रवृत्तियों की संख्या इन लोगों के लिए नगण्य-सी है।
        पिछड़ी जातियों में भी प्रतिशत में उन लोगों को बाहुल्य है जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े
हुए हैं। उनके लिए भी शिक्षा-सुविधा सुलभ नहीं हो पाती है। क्योंकि, औपचारिक
शिक्षा-व्यवस्था में विद्यालय के समय में बच्च परिवार की सहायता करते हैं। पिछड़ी जातियों
के अतिरिक्त ऊँची जाति में बहुत ऐसे परिवार हैं जिनके बच्चे या तो विद्यालय जा नहीं पाते
हैं या जाते हैं तो शीघ्र ही स्थगन एवं छीजन के शिकार हो जाते हैं। उनके बच्चे भी खेती
और मवेशी-पालन में इनकी सहायता शुरू कर देते हैं और धीरे-धीरे इनका पढ़ना छूट जाता है।
           अवसर की समानता प्रदान करने के लिए बिहार में किए प्रयास―शिक्षा में अवसर
को समानता प्रदान करने के लिए राज्य सरकार ने काफी प्रयास किया है, जो निम्न हैं―
1. माध्यमिक शिक्षा स्तर तक विद्यालय शुल्क माफ कर दिया गया है।
2. विद्यालय के सुविधा-वंचित बच्चों के लिए अनौपचारिक शिक्षा की व्यवस्था
की जा रही है।
3. यूनिसेफ सहायता प्राप्त परियोजना तथा उनके द्वारा सामुदायिक केन्द्र चलाए जा रहे
हैं।
4. समन्वित बाल विकास परियोजना के द्वारा सुविधा-चित बच्चों के लिए स्वास्थ्य,
पोषाहार तथा शैक्षिक सुविधाएँ उपलब्ध करायी जा रही है।
5. हरिजन तथा आदिवासी बच्चों के लिए विशेष प्रकार के विद्यालय तथा आवासीय
विद्यालय खोले जा रहे हैं।
6. हरिजन तथा आदिवासी बच्चों के लिए छात्रवृत्ति दूनी कर दी गई है।
7. सामान्य कोटि के निर्धन व्यक्तियों के बच्चों के लिए सरकार की ओर से छात्रवृत्तियों
की व्यवस्था की जा रही है।
8. छठी पंचवर्षीय योजना में स्थगन तथा छीजन रोकने के लिए अनेक प्रकार के प्रबन्ध
किए गये। जनसंख्या वृद्धि के कारण शिक्षा में समानता-सम्बन्धी कार्य सम्यक् रूप
से नहीं हो रहा है। इसके लिए सरकार ही नहीं, व्यापक जन सहयोग की आवश्यकता
है।
9. यद्यपि स्त्री-शिक्षा के प्रसार के क्षेत्र में अनेक प्रकार की बाधाएँ हैं, यथा-सामाजिक
पिछड़ेपन की समस्या, स्त्री-शिक्षा के उद्देश्यों की समस्या, शिक्षा पाठ्यक्रम तथा
शिक्षा-पद्धति को समस्या, सह-शिक्षा की समस्या, आर्थिक समस्या, अध्यापकों की
समस्या एवं व्यावसायिक शिक्षा की समस्या। किन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद तीनों
पंचवर्षीय योजनाओं में अनिवार्य शिक्षा के कारण स्त्रियों की शिक्षा को बल मिला।
1958-59 ई. में स्त्री-शिक्षा व्यवस्था के कार्यरत हैं। यह शैक्षिक अवसर की समानता
का परिणाम है।
प्रश्न 27. मानव संसाधन विकास विभाग, बिहार द्वारा नए पाठ्यक्रम में क्या
नवीनताएँ एवं विशेषताएँ उल्लेखित की गई हैं ?
उत्तर―मानव संसाधन विकास विभाग, बिहार द्वारा राज्य की स्कूली शिक्षा के विभिन्न
स्तरों पर नवीन पाठ्यक्रम लागू किया गया है। निर्देशानुसार, पाठ्यक्रम विकास का कार्य राज्य
शिक्षा शोध एवं प्रशिक्षण परिषद् द्वारा किया गया। ज्ञातव्य है कि बिहार राज्य में पहली बार
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के आलोक में बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2008
को विकास परिषद् द्वारा किया गया। इस पाठ्यचर्या के आधार पर कक्षा I से XII तक का
पाठ्यक्रम नवीन शिक्षाशास्त्रीय मान्यताओं के आलोक में विकसित किया गया।
         हमारे प्रदेश की पाठ्यचर्या की रूपरेखा एवं नवीन पाठ्यक्रम में कई नवीनताएँ एवं कई
विशेषताएँ हैं, यथा:
पहले हम मानते थे                               आज हमारा मानना है
1. शिक्षार्थियों को क्या पढ़ाएँगे?             बच्चे/किशोर क्या सीखेंगे?
2. रटने पर बल                                   अधिगम पर बल
3. शिक्षक केन्द्रित                                शिक्षार्थी केन्द्रित
4. ज्ञान ठूसने की प्रवृत्ति                        ज्ञान की स्वतंत्र रचना
5. विद्यालय ज्ञान की दुकान               ज्ञान : हमारे चारों ओर
6. आंचलिकता की उपेक्षा                 आंचलिकता : प्रमुख संसाधन
7. भाषागत रूढ़ियाँ                         बहुभाषिकता का संसाधन के रूप में प्रयोग
उक्त मान्यताओं के आधार पर यह माना जा सकता है कि पुरानी अवधारणा जहाँ हम
यह तय करते थे कि बच्चा खाली प्लेट की तरह होता है, उसपर शिक्षक जो चाहें दर्ज कर
लें। बच्चा या किशोर किशोरी स्कूल आने के पूर्व अपने जीवन के विविध अनुभवों से लैस
होकर आते हैं, जिन अनुभवों का शिक्षण अधिगम में भरपूर उपयोग किया जाना चाहिए। लिहाजा
यह नया पाठ्यक्रम स्कूली बच्चों को सीखाने का एक माहौल प्रदान करने का पक्षधर है,
जिसमें हर बच्चे को प्रश्न पूछे और ज्ञान सृजन को पूरी छूट होगी। शिक्षकों से यह अपेक्षा
है कि वे नई दृष्टि के साथ इस पाठ्यक्रम को आत्मसात करेंगे एवं सार्थक तथा प्रभावी ढंग
से कक्षा में इसे रूपान्तरित करेंगे।
        पाठ्यक्रम विकास की प्रक्रिया एक साझी समझ पर आधारित रही है। परिषद् की यह
कोशिश थी कि अधिकाधिक स्कूल शिक्षकों के सहयोग से इसका विकास किया जाए और
एसा हुआ भी। कई पाठशालाओं में शिक्षकों ने अपनी लगातार उपस्थिति दर्ज कर इस पाठ्यक्रम
को यह स्वरूप प्रदान किया है। अतः परिषद् उन सभी सम्मानित विषय विशेषज्ञों, विद्यालय
एवं उच्च शिक्षा से जुड़े शिक्षकों, परिषद् के संकाय सदस्यों के प्रति आभार प्रकट करता है।
राज्य की स्कूली शिक्षा को सार्थक और सशक्त बनाने का निर्णय शासन ने लिया है और
उसका प्रतिफल है, राज्य की नई पाठ्यचर्या, नवीन पाठ्यक्रम और इसपर आधारित नई
पाठ्यपुस्तकें।
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