F-3

F-3 | प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा

F-3 | प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा

प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. प्रारंभिक बाल्यावस्था से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रमुख विशेषताओं
का वर्णन करें।
उत्तर― “The little human being is frequently a finished product in his
fourth or fifth year.”                                                      ―Freud
      प्रारंभिक बाल्यावस्था बालक का निर्माण काल है। यह अवस्था जन्म से पाँच या छह
वर्ष तक मानी जाती है। न्यूमैन (J. Newman) के शब्दों में, “पाँच वर्ष तक की अवस्था
शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील होती है।”
          फ्रायड के शब्दों में, “मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है, वह चार-पाँच वर्षों में
बन जाता है।”
         बालक के जन्मोपरान्त यह अवस्था शुरू होती है तथा पाँच या छह वर्ष तक मानी जाती
है। नवजात शिशुओं का आकार 19.5″ (इंच) तथा भार 7.5 पौंड होता है। प्रारंभिक बाल्यावस्था
के अन्त तक बच्चों की ऊँचाई 46.6 इंच और वजन लगभग 22 किग्रा हो जाता है। नवजात
शिशु माँ के दूध पर निर्भर रहता हैं धीरे-धीरे वह आँखें खोलता है। उसका सिर धड़ से जुड़ा
रहता है। बाल मुलायम और मांसपेशियाँ छोटी एवं कोमल होती है। जन्म के 15 दिन बाद
त्वचा का रंग स्थाई होने लगता है।
      नवजात शिशु रोता है। इससे फेफड़ों में हवा भर जाती है और उसकी श्वसन क्रिया आरम्भ
हो जाती है। स्तन पान के कारण उसमें चूसने की क्रिया सहज रूप से प्रकट होती है। वह
भूख के समय रोता है। वह 15-20 घण्टे सोता है। धीरे-धीरे उसमें ये परिवर्तन स्थाई होने
लगते हैं।
         बीसवीं शताब्दी को ‘बालक की शताब्दी’ कहे जाने के कारण यह है कि इस शताब्दी
में मनोवैज्ञानिक ने बालक और उसके विकास की अवस्थाओं के सम्बन्ध में अनेक गम्भीर
और विस्तृत अध्ययन किये इनके फलस्वरूप वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सब अवस्थाओं
में प्रारम्भिक बाल्यावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि यह अवस्था ही
वह आधार है जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था
में उसका जितना ही अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है, उतना ही अधिक उत्तम
उसका विकास और जीवन होता है। क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, “The twntieth Century
has come to be designated as the Centruy of the child.”
                 ऐडलर ने कहा है, “बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा
सकता है कि जीवन में उसका क्या स्थान है।”
            स्टैंग (Strang) लिखते हैं कि “जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भावी जीवन
का शिलान्यास करता है। यद्यपि किसी भी आयु में उसमें परिवर्तन हो सकता है, पर प्रारम्भिक
प्रवृत्तियाँ और प्रतिमान सदैव बने रहते हैं।”
       गुउएनफ (Goodenough) के अनुसार, “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता
है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।”
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताएँ :
1.शारीरिक विकास में तीव्रता : प्रारम्भिक बाल्यावस्था के प्रथम तीन वर्षों में शिशु
का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। उसके भार एवं लम्बाई में वृद्धि होती है।
तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इन्द्रियों, कमैन्द्रियों, आन्तरिक
अंगों, मांसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है।
2.मानसिक क्रियाओं की तीव्रता (Rapidity in Mental Activities) : शिशु की
मानसिक क्रियाओं यथा ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण (Sensation and
Perception) आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की
लगभग सब मानसिक शक्तियाँ कार्य करने लगती हैं।
3.सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता (Rapidity in Learning Process) : प्रक्रिया में बहुत
अधिक तीव्रता होता है और वह अनेक आवश्यक बातों को सीख लेता है। गेसल (Gasell)
का कथन है-“बालक प्रथम 6 वर्षों में बाद के 12 वर्षों से दूना सीख लेता है।”
4. कल्पना की सजीवता (Live Imagination)’: कुप्पूस्वामी (Kuppu swamy) के
शब्दों में, “चार वर्ष के बालक के सम्बन्ध में एक अति महत्वपूर्ण बात है– उसकी कल्पना
की सजीवता। वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं कर पाता है। फलस्वरूप, वह असत्यभाषी
जान पड़ता है।”
5. दूसरों पर निर्भरता (Dependence on Others) : जन्म के बाद कुछ समय तक
शिशु बहुत असहाय स्थिति में रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के
अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। वह मुख्यतः
अपने माता-पिता और विशेष रूप से अपनी माता पर निर्भर रहता है।
6.आत्मप्रेम की भावना (Self Love): शिशु में आत्म-प्रेम की भावना अत्यधिक प्रबल
होती है, वह अपने माता-पिता एवं भाई-बहन आदि अभिभावकों से प्रेम प्राप्त करना चाहता
है। वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा और किसी को न मिलें। दूसरे बच्चों को
भी इसके समान प्यार मिलता है तो वह ईर्ष्या करता है।
7. नैतिकता का अभाव (Lack of Morality) : शिशु में अच्छी और बुरी, उचित और
अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द
आता है, भले ही वे अवांछनीय हो। इस प्रकार, ठसमें अनैतिकता का पूर्ण अभाव होता है।
8. मूलप्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार (In stinct Based Behaviour) : शिशु के
अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूलप्रवृत्तियाँ होती हैं। यदि उसको किसी बात पर क्रोध
आ जाता है तो वह उसको अपनी वाणी या क्रिया द्वारा व्यक्त करता है। यदि उसे भूख लगती
है तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुख में रख लेता है।
9. सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feelings) : इस
अवस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। वैलेनटीन
का मत है-“चार या पाँच वर्ष के बालक में अपने छोटे भाइयों, बहिनों या साथियों की रक्षा
करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 5 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है।
वह अपनी वस्तुओं में दूसरों को साझीदार बनाता है। वह दूसरे बच्चों के अधिकारों की रक्षा
करता है और दुःख में उनको सांत्वना देने का प्रयास करता है।
10. दूसरे बालकों में रुचि या अरुचि (Interest on Disinterestin Others): शिशु
में दूसरे बालकों के प्रति रुचि या अरुचि उत्पन्न हो जाती है। इस सम्बन्ध में स्किनर (Skinner)
ने लिखा है-“बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रुचि व्यक्त करने लगता
है। आरम्भ में, इस रुचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, पर शीघ्र ही यह अधिक निश्चित
रूप धारण कर लेती है और रुचि एवं अरुचि के रूप में प्रकट होने लगती है।
11. संवेगों का प्रदर्शन : शिशु में जन्म के समय ‘उत्तेजना’ के अलावा और कोई संवेग
नहीं होता है। ब्रिजेज (Bridges) ने 1932 ई. में अपने अध्ययनों के आधार पर घोषित किया
कि दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संगों का विकास हो जाता है।
बाल-मनोवैज्ञानिकों ने शिशु में मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं-भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा।
12. काम-प्रवृत्ति : बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शिशु में काम-प्रवृत्ति बहुत प्रबल
होती है। परन्तु, वयस्कों के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान
करना और यौनांगों पर हाथ रखना बालक की काम-प्रवृत्ति के सूचक है।
13. दोहराने की प्रवृत्ति : शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसके शब्दों
और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है। ऐसा करने में वह विशेष
आनन्द का अनुभव करता है।
14. जिज्ञासा की प्रवृत्ति (Curiosily Tendency) : शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति का
बाहुल्य होता है। वह अपने खिलौने का विभिन्न प्रकार से प्रयोग करता है। वह उसको फर्श
पर फेंक सकता है। वह उसके भागों को अलग-अलग कर सकता है। वह बहुधा अपने खिलौनों
को विभिन्न विधियों से रखने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार की क्रियाओं द्वारा वह अपनी
जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने की चेष्टा करता है। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न बातों और वस्तुओं
के बारे में ‘क्यों’ और ‘कैसे’ के प्रश्न पूछता है।
15. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति (Learning by Imitation) : शिशु में अनुकरण
द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता भाई-बहन आदि के कार्यों और व्यवहार
का अनुकरण करता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता है तो रोकर या चिल्लाकर अपनी असमर्थता
प्रकट करता है। अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति उसे अपना विकास करने में सहायता देती
है।
16.अकेले व साथ खेलने की प्रवृत्ति (Loneliness and Gregariousness): शिशु
में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति में होनेवाले
परिवर्तन का वर्णन करते हुए क्रो एण्ड क्रो (Crow & Crow) ने लिखा है―”बहुत ही छोटा
शिशु अकेला खेलता है। धीरे-धीरे वह दूसरे बालकों के समीप खेलने की अवस्था में से
गुजरता है। अन्त में, वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में महान् आनन्द का
अनुभव करता है।”
प्रश्न 2. पूर्व बाल्यावस्था के शिक्षण पद्धति (Methoclogy of ECCE) पर प्रकाश
डालें।
अथवा, ECCE पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर–ECCE का मतलब Early Childhoos Care and Education है अर्थात्
प्रारम्भिक बाल्यावस्था के देखभाल एवं शिक्षा। पूर्व प्राथमिक शिक्षा के बारे में अनेक
शिक्षाशास्त्रियों के अनेक शोध किए और अपना मत दिया कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा (3Rs-
Reading Writing & Arithmetic) द्वारा न देकर उस (Head, Hand and Heart) द्वारा दी
जानी चाहिए। पूर्व प्राथमिक शिक्षा के बारे में अनेक शिक्षाशास्त्रियों यथा महात्मा गाँधी, रवीन्द्र
नाथ टैगोर, मारिया मांटेसरी, फ्रोबेल, जॉन ड्यूबी ने एक ही शिक्षण पद्धति-क्रियात्मक एवं खेल
विधि को ही उपयुक्त विधि माना एवं निम्नलिखित क्रियाओं का शिक्षा का उचित साधन माना है :
1. पर्यावरण द्वारा शिक्षा।
2. खेल-खेल में शिक्षा।
3. शिक्षा प्रकृति की गोद में।
4. भ्रमण आयोजित करना।
5. आउटडोर खेल क्रियाएँ जो वैयक्तिक एवं सामूहिक हो सकती है।
6. स्वास्थ्यवर्धक-जीवन व्यतीत करने की व्यावहारिक क्रियाएँ जैसे-खाने से पहले हाथ
धोना इत्यादि।
7. कागज मोड़ना।
8. मिट्टी का काम।
9. फाड़ना, काटना और चिपकाना, कोलाज निर्माण।
10. चित्रकला छापना।
11. कठपुतली नाचा
12. नाट्य रूपान्तरण।
13. कहानी सुनाना।
14. मुक्त वार्तालाप।
महात्मा गाँधी के अनुसार 3H (Head, Hand and Heart) अवश्य सम्मिलित होना
चाहिए। यदि इस द्वारा शिक्षा दी जायेगी तो 3R(Reading, Writing and Arithmetic) स्वयं
ही आ जायेंगे। बाल्यावस्था में मस्तिष्क का विकास तीव्र गति से होता है। इसलिए इस अवस्था
की शिक्षा विधि ऐसी होनी चाहिए जो बालक को स्वयं करके सीखने को अभिप्रेरित करें
एवं शिक्षा के प्रति उनकी रुचि जागृत कर सकें।
             पूर्व प्राथमिक शिक्षा का प्राथमिक शिक्षा से सीधा सम्बन्ध हैं। प्राथमिक स्तर पर बच्चे
की सीखने की क्षमता उसके पूर्व के अनुभवों से प्रभावित होती है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक
शिक्षा को सुदृढ़ एवं आकर्षक बनाने का आधार हैं पूर्व प्राथमिक शिक्षा बच्चे में प्राथमिक
शिक्षा को ग्रहण करने के लिए मानसिक तत्परता (Readiness to Learm) पैदा करती है। इसलिए
यह जरूरी है कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा बच्चे के लिए आनन्ददायक है जिससे कि उसमें अधिगम
के लिए या याद करने की इच्छा उत्पन्न हो। यह तभी सफल हो सकेगा जबकि बच्चे के
लिए सीखना एक ऐसा अनुभव हो जो कि बालक बार-बार अनुभव करना चाहें। यह सीखने
की इच्छा बच्चे में तभी विकसित होगी जब उसकी मूल प्रवृत्तियों को दबाया न जाये और
खोज की प्रवृत्ति को विकसित किया जाये। यदि बच्चों के पूर्व विद्यालय में वातावरण अच्छा
एवं प्रेरणादायक हो तो वह प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश के लिए प्रेरित होंगे।
         पूर्व विद्यालय शिक्षा लड़कियों के लिए उन क्षेत्रों में विशेषकर लाभप्रद है जहाँ पर कि
लड़कियों को पढ़ने के लिए अवसर नहीं दिये जाते और उन्हें घर पर छोटे भाई-बहनों की
देखभाल के लिए रोक लिया जाता है। ऐसे में आँगनबाड़ियों की स्थापना लड़कियों को इस
काम से मुक्त करके पूर्व विद्यालय शिक्षा को ग्रहीण करने में सहायता करती है। इस प्रकार
से यह हमारे शिक्षा से वंचित वर्ग विशेषकर लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने में सहायता
करती है। शिक्षा के द्वारा हमें न केवल अपने अधिकारों का ज्ञान होता है अपितु करना भी
सिखाती है। इस प्रकार से लड़कियों की शिक्षा प्राथमिक स्तर पर भी जारी रहती है।
         पूर्व द्यिालयी शिक्षा इस प्रकार से बालक के लिए आधार शिक्षा है जो कि उनमें मानसिक
तत्परता, विकासात्मक योग्यता, अभाव की पूर्ति व सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा को ग्रहण
करने के अवसर प्रदान करती है। प्राथमिक विद्यालय में भी बालक को “बाल केन्द्रित उपागम’
दिये जाने पर बल है। इस प्रकार से पूर्व विद्यालय एवं प्राथमिक विद्यालय में समानता होने
पर बालक में सीखने में रुचि ज्यादा रहती है। हमारे देश के अधिकांश ई.सी.ई. कार्यक्रमों
में शिक्षा का घटक या तो बहुत निमन कोटि का होता है या औपचारिक शिक्षा प्रदान की
जाती है और शिक्षा प्रदान का मूल उद्देश्य- पढ़ना, लिखना और अंकगणित सिखाने (Reading,
Writing & Arithmetic) पर केन्द्रित रहता है। परिवार के सदस्यों व प्रारम्भिक बाल्यावस्था
कार्यकर्ताओं को छोटे बच्चों के लिए खेल का महत्त्व और शिक्षा प्रदान करने के लिए ज्यादा
प्रयास करने की आवश्यकता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा अवश्य ही खेल के माध्यम
से (Play Way) व क्रिया आधारित (Activity Contered) होनी चाहिए।
शिक्षण पद्धति:
1. पाठ्यक्रम शिल्पकला एवं गतिविधि पर आधारित हो।
2. अनुकूल वातावरण का निर्माण।
3. छात्रों को मुक्त गतिविधियाँ कहानियाँ एवं कविताओं को सुनने के अवसर दें।
4. अध्यापक मार्गदर्शन की भाँति हो।
5. शिक्षण ‘सरल से कठिन’ के सिद्धान्त पर आधारित।
6. शक्षा का माध्यम खेल।
7. व्यक्तित्व गुणों का विकास
8. बाल केन्द्रित उपागम।
प्रश्न 3. ईसीसीई की आवश्यकता एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डालें।
उत्तर―ईसीसीई (ECCE-Eary Childhood Care and Education) योजना पूर्व
प्राथमिक बाल्यावस्था के विद्यार्थियों के देखभाल एवं शिक्षा को सुनिश्चित करती है। सितम्बर,
2016 पूर्व प्राथमिक बाल्यावस्था के बच्चे इस ECCE Scheme के तहत उनका शिक्षण होता
है जिनका उम्र 3 वर्ष से ज्यादा एवं 52 वर्ष से कम हों। पूर्व प्राथमिक बाल्यावस्था शिक्षा,
शिक्षा सिद्धान्तों का एक भाग है जिसमें 6 वर्ष तक के बच्चों का औपचारिक एवं अनौपचारिक
रूप से शिक्षण होता है।
                        (Needs of ECCE) ईसीसीई की आवश्यकता
1. समकालीन अनुसंधान यह स्थापित करता है कि बच्चे का मस्तिष्क में प्रथम छह वर्षों
में अद्भूत सीखने की गति होती है जो पूरे जीवन के आधार का काम करता है। बच्चे अपने
परिवेश से ज्यादा-से-ज्यादा सीखते हैं और इस क्रम में मस्तिष्क एवं शरीर की वृद्धि
आश्चर्यजनक ढंग से होती है। उसकी महत्ता को समझते हुए Centre for Early Childhood
Education and Development, अम्बेडकर विश्वविद्यालय, नई दिल्ली तथा विश्व बैंक में
“The South Asian Regional Contern Leon Early childhood late & Education―
Policies and, Practices : Towards 2015 and Beyond.
     दिल्ली राजधानी में एक कॉनफ्रेंस को आयोजित किया गया जिसमें ECCE को शिक्षा
के मुख्य केन्द्र पर लाने का नीतिगत चर्चा की तथा सरकार को इस पर आवश्यक कार्यक्रम
तैयार करने का सुझाव दिया गया। इस कॉफ्रेंस में निदेशक प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा तथा
विकास, अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली (AUD) ने बताया कि हमारी अगली पीढ़ी में
प्रत्याशित विकास ECCE पर देने आश्चर्यजनक ढंग से होगी।
2. बाल केन्द्रित उपागमों, गतिविधि आधारित शिक्षण विधियों, खेल-खेल में शिक्षा तथा
आनन्दमय शिक्षा के परिप्रेक्ष में प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा को मजबूत करने की
जरूरत है।
3. ECCE का वैश्विक क्षेत्र है तथा यह मानवीय समाज का एकीकृत कार्य है जिसका
विकास कर आगे आनेवाली पीढ़ी को समृद्ध किया जा सकता है।
4. जनसंख्या विस्फोट ने घरों में महिलाओं के कार्य को काफी बढ़ा दिया है। कामकाजी
महिलाएँ प्रारम्भिक बाल्यावस्था के बच्चों पर समय नहीं दे पाती है तथा इस दिशा
में उन्हें विशेष तरह का प्रशिक्षण नहीं होता है। अतः प्रारम्भिक बाल्यावस्था के
विद्यार्थियों के देखभाल एवं शिक्षा (ECCE) को बेहद आवश्यकता है।
5. ईसीसीई कार्यक्रम बच्चों के मजबूत नींव एवं विकास के लिए अत्यावश्यक है।
प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के हिसाब से भी ECCE आवश्यक है।
6. यह बच्चों के स्वास्थ्य एवं भोजन के पोषणीय आवश्यकता पर जोर देता है।
7. प्रत्येक बच्चा अद्वितीय हैं तथा उसमें वैयक्तिक विभाजन है। अतः ECCE
आवश्यक है।
(Aims & Objectives of ECCE) ईसीसीई के उद्देश्य:
1. पूर्व प्राथमिक बाल्यावस्था के विद्यार्थियों का शारीरिक एवं मानसिक विकास करना
तथा उनमें स्वास्थ्य एवं आरोग्यता सम्बन्धी आदतों का विकास करना यथा–
(a) सलीके से पोशाक पहनना,
(b) शौचालय सम्बन्धी आदतें (Toilet habits)
(c) समय पर नियमित रूप से भोजन करना।
(d) साफ एवं स्वच्छ रहना।
2. सीखी हुई बातों के अनुभव को माता-पिता, अभिभावक, मित्रों, शिक्षकों तथा समूह
के बीच शेयर करना।
3. सामाजिक तरीके, ढंग, आदतें तथा धारणाओं को सीखाना।
4. आत्म-अभिव्यक्ति को सीखाना एवं प्रोत्साहित करना। बच्चों के उत्सुकता को जाग्रत
करना तथा सन्तुष्टि प्रदान करना तथा उन्हें भावों में बहने से रोकना, नियंत्रित करना।
5. संख्याओं से सम्बन्धित व्यावहारिक संकल्पनाओं को प्रभावशाली ढंग से खेल-खेल
में बताना।
6. बच्चों के ज्ञान के स्तर का विकास करना ताकि वे अपने समस्याओं का समाधान
कर सके।
7. उनमें शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक प्रक्रियाओं की विभिन्न माध्यमों एवं गतिविधियों
द्वारा समझ विकसित करना।
8. नये-नये शब्दों एवं प्रत्ययों से परिचित करना।
9. सही एवं गलत के समझ को विकसित करना।
10. वातावरण के सुखद प्रत्ययों का एहसास कराना यथा फूल, चिड़ियाँ, तितलियाँ, चित्र,
संगीत, नृत्य, दृश्य आदि।
11. विद्यालय के प्रति तत्परता का भाव विकसित करना।
12. सृजनशीलता एवं आत्मनिर्भरता की ओर बच्चों को बढ़ाना।
13. वाद-विवाद एवं वार्तालाप सम्बन्धी गतिविधियों की ओर बच्चों को जाग्रत करना।
14. बच्चों में स्वास्थ्य सम्बन्धी अच्छी आदतें एवं आवश्यक कौशलों का विकास करना
यथा―
(a) पूरा पोशाक सलीके से पहनना,
(b) अपना भोजन संयमित ढंग से करना,
(c) स्वच्छता एवं सफाई के प्रति सचेतता का विकास।
15. बच्चों में अच्छे सामाजिक दृष्टिकोण का विकास करना ताकि वे खेल तथा दूसरे
सामाजिक गतिविधियों में मन से भाग ले सकें।
16. सौन्दर्य सम्बन्धी भावों को जाग्रत करना।
17. स्वअभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करना ताकि वह अपना विचार एवं अनुभवों को
सटीकता एवं सफाई से प्रस्तुत कर सकें।
18. स्वास्थ्य सम्बन्धी वाह्य शत्तों को पूरा करना यथा पर्याप्त रोशनी, सूर्य का प्रकाश,
खेलने-कूदने के लिए पर्याप्त जगह तथा ताजी हवाएँ।
19. हरेक बच्चों को मदद करना ताकि वे अच्छी आदतों का स्वागत कर सकें।
20. बच्चों के विकास के हिसाब से कल्पना का सृजन कराना, कौशलों से परिचित
कराना।
प्रश्न 4. किंडरगार्टन के प्रत्यय, उद्देश्य, मुख्य तत्व इसके गुण दोषों पर प्रकाश
डालें।
    अथवा, प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा से सम्बन्धित किंडरगार्टन
अथवा शिशु विहार प्रणाली की अवधारणा पर प्रकाश डालें।
उत्तर―फ्रेडरिक विहेक आगस्त फ्रोबेल (1782-1852) ने बचपन के महत्व को
महसूस किया और जर्मनी के ब्लैकनबरन नामक स्थान पर 1839 ई० में 4 से 6 वर्ष तक
के बच्चों के लिए प्रथम ‘शिशु-विहार’ शिक्षा केन्द्र (किंडरगार्टन) खोला। जर्मन में शिशु-विहार
केन्द्र का नाम किंडरगार्टन है जिसका अर्थ है- “शिशुओं का बाग’। फ्रोबेल ने स्कूल को
बाग को शिक्षक को माली की तथा बच्चों को पौधों की संज्ञा दी। एक माली की भाँति अध्यापक
का कार्य है-नन्हें पौधों की देखभाल करना तथा उन्हें सुन्दर तथा पूर्ण बनाने के लिए जल
से सींचना। फ्रोबेल ने बच्चों को फूलों की उपमा दी। उनका विश्वास था कि विकास और
उनति के क्रम में बच्चे एवं फूल एक समान हैं। पौधों का विकास उसके भीतरी बीज के
अनुसार होता है। उसी प्रकार बच्चे का विकास भी उसके भीतर से ही होता है। वह अपनी
प्रवृत्तियों और भावनाओं को अपने अन्तर्मन से ही जाग्रत करता है।
किंडरगार्टन (शिशु-विहार प्रणाली) के उद्देश्य :
1. बच्चों को उनके स्वाभानुसार कार्य देना।
2. बच्चों के शरीर को शक्ति प्रदान करना।
3. बच्चों की ज्ञानेन्द्रियों को व्यवहार में लाना।
4. उनके मस्तिष्क को जागृति प्रदान करना।
5. बच्चों का प्रकृति और अन्य प्राणियों से उनका तादात्म्य स्थापित करना।
6. यह पद्धति विशेष कर हृदय और उनके स्नेह को उभार करके उनको सम्पूर्ण सृष्टि के
मौलिक उद्भव-स्थल की ओर ले जाती है जहाँ पर सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं।
किंडरगार्टन के मुख्य तत्व :
1. आत्म क्रियाशीलता : फ्रोबेल का विश्वास था कि बच्चे का विकास उसकी आन्तरिक
शक्ति द्वारा होता है। शिक्षा स्वतंत्र आत्मक्रियाशीलता तथा आत्मनिर्णय का आयोजन करें।
आत्मक्रियाशीलता एक ऐसा क्रम है जिससे व्यक्ति अपने स्वभाव की जानकार करता है और
उस पर अपने संसार का निर्माण करके तब दोनों तत्वों अर्थात् अपने स्वभाव और सृष्टि में
ताल-मेल पैदा करता है। क्रियाशीलता के सम्बन्ध में अनेक बातें आवश्यक हैं―
(i) यह संदिग्ध अथवा अनिश्चित न हो।
(ii) यह नियंत्रित अथवा शोधित किया हो।
(iii) सार्थक क्रियाओं के लिए सामाजिक वातावरण आवश्यक है।
(iv) आत्मक्रियाशीलता ही कार्य अथवा खेल का रूप ग्रहण करें।
2. खेल : प्रोबेल के अनुसार, “इस अवस्था में खेल-कूद पवित्रतम तथा पूर्ण आध्यात्मिक
क्रिया है। अत: यह आनन्द, स्वतंत्रता, संतुष्टि, शारीरिक और हार्दिक विश्राम प्रदान करता है
और संसार में शान्ति स्थापित करता है। संसार में जो कुछ भी अच्छा है, यह (खेल) उसी
का उद्गम स्रोत है।”
        फ्रोबेल चाहते थे कि खेल-कूद को निश्चित साधनों द्वारा संगठित एवं नियंत्रित किया
जाये ताकि वह खेल केवल उद्देश्य रहित नकारात्मक क्रिया ही बनकर न रह जाये अपितु
यह उद्देश्य को प्राप्त करें जिसके लिए उसकी उद्भावना की गई हैं। इस कार्य के लिए तर्कयुक्त
तथा चैतन्यपूर्ण मार्गदर्शन किया जाये। इसी के फलस्वरूप फ्रोबेल ने बच्चों को खेलने के
लिए सात उपहार दिए हैं।
3. गीत, हाव-भाव तथा रचना : फ्रोबेल ने गीतों हाव-भावों तथा रचनात्मक कार्यों
में पूर्ण सम्बन्ध देखा उसने देखा कि बच्चा इन तीनों पारस्परिक सहयोगी रूपों द्वारा अभिव्यंजना
करता है। बच्चा जो कुछ सीखता है, पहले गीत द्वारा अभिव्यक्त करता है तब इन्हें हाव-भावों
के प्रदर्शन से अभिनीत करता है और अन्त में कागज और मिट्टी की रचनात्मक चीजों से
उसे प्रदर्शित करता है। इस प्रका मस्तिष्क, अंगों तथा हस्त तीनों का संतुलित विकास होता
है। तीनों क्रियाएँ ज्ञानेन्द्रियों, अंगां तथा माँसपेशियों को पर्याप्त अभ्यास करवाती हैं।
4.गीतों का चयन : फ्रोबेल ने गीतों की एक पुस्तक लिखी, “Mother and Nursery
Song.” इस पुस्तक में 50 गीत हैं। गीतों के साथ खेला भी जाता है। गीतों के पीछे यह
भावना है कि बच्चे अपने अंगों और अपनी विभिन्न इन्द्रियों का उपयोग कर सकें। आस-पास
के वातावरण से परिचय के साथ न कोई क्रीड़ा जुड़ी हुई होती है, जैसे-आँख-मिचौली (Hide
and seek), गीतों का चयन अध्यापक बच्चों के विकास के अनुरूप करता है। प्रत्येक गीत
के तीन भाग हैं―
(क) माता या अध्यापक के लिए मार्गदर्शक वाक्य
(ख) लय-तालबद्ध कविता।
(ग) गीतों को समझाने के लिए तस्वीर।
शारीरिक अभ्यास के लिए गीत निम्नलिखित हैं―
                 आज करें हम व्यायाम
                 आओ मिलकर पंक्ति बनायें
                 एक दो, एक दो बढ़ते जाए
                 जो सर्वोत्तम कदम मिलाए
                 नेता बनकर राह दिखाए
                 बढ़ते जाएँ आठों धाम।
5. उपहार और कार्य : खेल और क्रियाशीलता की महत्ता पर पहले ही बल दिया जा
चुका है। क्रियाशीलता की सुविधा के लिए फ्रोबेल ने जिन उचित चीजों का आयोजन किया
है, उन्हें उपहार कहते हैं। उपहार जिन क्रियाओं को सुविधा प्रदान करते हैं, उन्हें कार्य करते
हैं। उन उपहारों को सावधानी से श्रेणीबद्ध किया जाता है। उनमें खेलनेवाली चीजों की सब
नवीनताएँ सम्मिलित रहती हैं। उपहारों का क्रम ऐसा है कि बच्चा स्वयं ही एक विचार में
दूसरे विचार और एक खेल से दूसरे की ओर मुड़ जाता है।
        प्रथम उपहार : यह प्रथम उपहार गेंदों का उपहार है। एक डिब्बे में 6 रंग-बिरंगे गेंद
डाल दिये जाते हैं। बच्चा उन्हें उछाल-उछाल कर खेलता है। उनका उछालना ही कार्य है।
इन गेंदों का उद्देश्य बच्चों को रंगों, पदार्थों, गंति तथा दिशा आदि का ज्ञान करवाना है। गेंदों
को उछालते हुए बच्चे यह गीत गाते हैं―
                    अहा! जी देखो सुन्दर गेंद
                    नन्हा, मुलायम गोल-गोल गेंद।
                    गोल गोल गेंद, आह! जाता है हर ओर
                    खेले इससे बच्चे खुश हो नाचे जैसे मोर।
       दूसरा उपहार : इसमें तीन चीजे हैं। एक गोलाकार, दूसरी त्रिकोण, तीसरी एक बेलन।
इनको भी एक डिब्बे में रखा गया है। बच्चा उनसे खेलता है और दोनों की भिन्नता पर गौर
करता है। वह देखता है कि गोलाकार चीज घूमती है और त्रिकोण खड़ी रहती है। बेलन में
दोनों गुण रहता है-वह खड़ा भी रहता है और घूमता भी है, वह यह अनुभव करता है कि
बेलन दोनों के गुणों का मिलान करता है।
        तीसरा उपहार : यह लकड़ी का एक घनफल है जिसे छोटे-छोटे घनफलों में बाँटा गया
है, बच्चा इनके द्वारा जोड़ और घटाना सीख सकता है।
ये उपहार शिक्षा के प्रभावशाली आधार है।
          6. अध्यापक का स्थान : बच्चों को उपहार दिये जाते हैं तो शिक्षक उन उपहारों के
कार्य बताते हैं। अध्यापकहा भी बच्चों का कभी-कभी निर्देशन भी करें।
वह स्वयं भी गाता है जिससे कि बच्चे गीत के विषय में जान सकें।
7. अनुशासन : अध्यापक को बच्चों में बहुत से गुण उत्पन्न करने होते हैं जैसे
सहानुभूति, नम्रता, सहयोग तथा बड़ों के प्रति आज्ञाकारिता उन्हें बाह्य दबावों तथा शारीरिक
दण्ड से परे रहना होता है। बच्चों को यह अनुभव कराना होता है कि अनुशासन का
अर्थ है नियमितता को ध्यान में रखना, सद्भावों को रखना तथा पारस्परिक व्यवहारों को
उचित रूप से रखना।
8. पाठ्यचर्या : पाठ्यचर्या इस प्रकार है:
(i) शिल्पकार्य या दस्तकारी।
(ii) धर्म तथा धार्मिक शिक्षा।
(iii) प्रकृति विज्ञान तथा गणित।
(iv) भाषाएँ।
(v) कला तथा कलाओं के तत्व।
किंडरगार्टन (शिशु-विहार प्रणाली) के गुण :
1. उपहारों एवं विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से शिशु-शिक्षा पर बल।
2. प्रारंभिक शिक्षा में खेल पर बल।
3. इस संकल्पना ने स्कूल का एक अनिवार्य सामाजिक अभिकरण के रूप में महत्व
बढ़ा दिया। फ्रोबेल ने शिक्षालय को छोटे समाज का रूप दिया जहाँ बच्चे जीवन
के महत्वपूर्ण अंगों के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करते हों। वे सहयोग, सहानुभूति, सहकारिता
और उत्तरदायित्व जैसे गुणों को सीखते हैं।
4. बच्चों के स्वभाव, भावनाओं और प्रवृत्तियों के अध्ययन पर बल दिया गया।
5. शिशु-बिहार के कार्यों और उपहारों ने एक नवीन अध्यापन पद्धति को जन्म दिया।
6. शिशु-विहार में क्रियाशीलता के लिए पर्याप्त स्थान है।
7. विभिन्न उपहारों से ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण होता है।
8. पाठ्चर्या प्रकृति अध्ययन होने के कारण बच्चों के मस्तिष्क में प्रकृति तथा विश्व
के लिए प्यार की भावना जाग्रत होती है।
किंडरगार्टन (शिशु-विहार प्रणाणी) के दोष :
1. फ्रोबेल ने बच्चों से बहुत अधिक आशा की है। बच्चे उपहारों द्वारा खेलते हुए एकता
के अमूर्त भाव को नहीं समझ सकते।
2. किंडरगार्टन में बच्चों के आन्तरिक विकास पर बहुत अधिक बल दिया है। वातावरण
के महत्व पर बहुत कम ध्यान दिया गया है।
3. उसके द्वारा उचित गीत असामयिक है। प्रत्येक स्कूल में इनका प्रयोग नहीं सकता।
4. फ्रोबेल के उपहार साधारण है। वे ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण में इतने सहायक नहीं है।
5. यह पद्धति व्यक्तिगत अध्यापन की ओर ध्यान नहीं देता।
6. विभिन्न विषयों के अध्यापन में समवाय की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है।
7. यह भी संभव नहीं कि खेल-कूद को शिक्षा में इतना महत्व दिया जाए क्योंकि गंभीर
अध्ययन के लिए यह उपयोगी नहीं।
       किंडरगार्टन पद्धति (शिशु-विहार पद्धति) की आधारभूत दार्शनिक विचारधारा से माताएँ
तथा अध्यापक भले ही अनभिज्ञा हो परन्तु वे शिक्षा के क्षेत्र में खेलकूद के उस महान आविष्कार
के फ्रेबेल की सूझबूझ तथा कल्पना-युक्ति की सराहना किए बिना नहीं रह सकते। फ्रोबेल
ने बच्चों ने बच्चों से प्यार करने तथा उनके लिए जीवित रहने का संदेश दिया। छोटे बच्चों
के लिए स्कूल जेलों के समान नहीं रहें और न ही बच्चे निष्क्रिय श्रोता-गण ही रहे हैं। इसमें
कोई संदेह नहीं कि प्रचलित आधुनिक सभी शिक्षा पद्धतियों के मूल में फ्रोबेल की विचारधारा
काम करती है-उसने समाज को छोटे बच्चों की शिक्षा के लिए जागरूक किया।
प्रश्न 5. मांटेसरी पद्धति के आधारभूत सिद्धान्तों, इस पद्धति की विशेषताओं तथा
सीमाओं या दोषों पर प्रकाश डालें।
उत्तर―मारिया मांटेसरी (Maria Montessori 1870-1952) इटली की रहनेवाली थीं
जो एक लेडी डॉक्टर थी। तत्पश्चात वे संसार की शिक्षा-शास्त्री हुई। उन्होंने ही मांटेसरी पद्धति
को जन्म दिया।
मांटेसरी पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त :
1. नैसर्गिक विकास : यदि कोई भी शैक्षणिक कार्य प्रभावशाली हो सकता है तो केवल
वहीं जो बच्चे के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में सहायक हो। क्योंकि बच्चे का शरीर बढ़ता
है, आत्मा विकसित होती है। ये दोनों शारीरिक और मानसिक स्वरूप एक ही शाश्वत जीवन
के दो रूप हैं। उनका विचार था कि शिक्षा बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तिगत जीवन में सहायता करें।
उपयुक्त वातावरण जुटाया जाना चाहिए जिससे बच्चे अपनी सभी आन्तरिक क्षमताओं में वृद्धि कर
सकें। अध्यापक कभी पढ़ाता नहीं, वह बालक के निहित गुणों के विकास को सहज दिशा देता है।
2. स्वतंत्रता का सिद्धान्त : मारिया मांटेसरी का विश्वास है कि बच्चे की अभिवृद्धि
या विकास में किसी प्रकार की बाधा या रूकावट नहीं होनी चाहिए। स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों
का जन्मसिद्ध अधिकार है और पूर्ण स्वतन्त्रता से स्वतः विकास होता है, वह इस बात का
समर्थन नहीं करती कि बच्चे पर नियंत्रण रखा जाये क्योंकि इनका विचार है कि इससे उसकी
आन्तरिक शक्तियाँ या तो नष्ट हो जाती हैं या कुंठित हो जाती है।
3. नकद पुरस्कार तथा शारीरिक दंड न देने का सिद्धान्त : मांटेसरी के अनुसार,
दण्ड तथा पुरस्कार अप्राकृतिक अथवा हठात् प्रयत्न को प्रोत्साहन करते हैं। इनसे जो विकास
होता है, वह अस्वाभाविक होता है। वह खिलाती है कि घुड़सवार अपने घोड़े को थोड़ी-सी
खांड इसलिए दे देते हैं कि वे उनके इशारे पर काम करें। परन्तु, फिर भी ये मैदानी स्वतंत्र
घोड़े के समान तेज नहीं दौड़ सकते।
4. व्यक्तिगत विकास का सिद्धान्त : जॉन एम्स के शब्दों में डॉ॰ मांटेसरी ने श्रेणी
शिक्षण का अन्त किया। उनका विश्वास है कि प्रत्येक बच्चा अपनी गति के अनुसार प्रगति
करता है तथा सामूहिक पद्धति उसके व्यक्तिगत विकास को अवरुद्ध करती है। वह प्रत्येक
बच्चे को एक व्यक्ति समझती है और परामर्श देती है कि उसकी सहायता और देखभाल इस
प्रकार होनी चाहिए जो उसकी वृद्धि और विकास में सहायक हो सकें। शिक्षक का सम्बन्ध
उसके मानसिक और मनोवैज्ञानिक विकास से है।
5. स्वशिक्षा का सिद्धान्त : मांटेसरी ने स्वशिक्षा पर बल दिया। वह विश्वास करती है
कि स्वशिक्षा ही सच्ची शिक्षा है। उसका कथन है कि बच्चों के कार्य में हम बाधा न पहुँचायें।
उन्होंने शिक्षा सम्बन्धी प्रबोधक यंत्रों का आविष्कार किया जो बच्चों का ध्यान आकर्षित करते
थे, इन्हें उनकी इच्छानुकूल व्यस्त रखते थे, उन्हें पढ़ाई-लिखाई और गणित की महत्ता का
ज्ञान करवाते थे।
6. बौद्धिक प्रशिक्षण का सिद्धान्त : मांटेसरी ने यह स्वीकार किया कि हमारी इन्द्रियाँ
ज्ञान के प्रवेश-द्वार हैं, इसलिए इनके प्रशिक्षण और विकास पर ही समस्त जीवन में ज्ञान-प्राप्ति
निर्भर है। उन्होंने बताया कि तीन से सात वर्ष की आयु तक ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक क्रियाशील
होती है और इस काल में बहुत अधिक शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। उनहोंने कहा कि ज्ञानेन्द्रियाँ
प्रशिक्षण बौद्धिक विकास की कुंजी है।
7. माँसपेशियों तथा अंगों का प्रशिक्षण : मारिया मांटेसरी ने मांसपेशियों के प्रशिक्षण
को भी बच्चों के प्रारम्भिक शिक्षक के रूप में वर्णित किया है। उनका विश्वास है
कि माँसपेशियों का प्रशिक्षण अन्य क्रियाअं जैसे लिखना, चित्रकारी, बोलना आदि में सुविधा
प्रदान करता है।
8. शिक्षक संचालक अथवा निर्देशक के रूप में : मांटेसरी ने शिक्षक शब्द को हटाकर
उसके स्थान पर संचालक शब्द का प्रयोग किया क्योंकि उसके विचार में शिक्षक का कार्य
संचालन करना है न कि पढ़ाना। उसका उद्देश्य वृद्धि के लिए “मैं गौण हो जाऊँ” होना
चाहिए।
9. परियों की कहानी के लिए स्थान न रहना : मांटेसरी परियों की काल्पनिक कहानियों
को छोटे बच्चों के पाठ्यक्रम से हटा देना चाहती हैं क्योंकि ये बच्चों को भ्रम में डालती
हैं और वास्तविक संसार के कार्य में अपने आपको व्यवस्थित करने में बाधा पहुँचाती हैं।
10. प्रबोधक यंत्र : मैडम मांटेसरी का मत है कि कौशल बच्चों में बहुत आसानी से
विकसित किया जा सकता है। लेखन-शिक्षण, पठन-शिक्षण से पूर्व हो। उनके अनुसार लेखन
पूर्णत: यांत्रिक क्रिया है और पठन-अंशतः बौद्धिका लेखन में अक्षरों की आकृति के प्रत्युत्पादन
में सहायक गति, लेखन चातुर्य तथा भाषा-लेखन के समय शब्दों का स्वर विश्लेषण आवश्यक
तत्व है। वर्णमाला में अक्षरों को बालू वाले का राजों (Sand Papers) पर काटकर कार्डबोर्ड
पर चिपका दिया जाता है, विद्यार्थियों को उन पर अपनी अंगुलियाँ फेरने को कहा जाता है।
विद्यार्थी अक्षर-पहचान सीखते हैं, उसी समय शब्दोच्चारण भी मेल, पहचान और स्मरण इन
तीन अवस्थाओं में सिखाया जाता है। कुछ अभ्यास हैं जिनके द्वारा विद्यार्थी लेखन-कला पर
अधिकार पाना सीखते हैं।
           मांटेसरी वाक्यों के जोर से पढ़े जाने के पक्ष में नहीं है। बच्चों के हाथ में एक कार्ड
दिया जाता है जिसमें मुख्य वस्तु का नाम लिखकर चिपकाया गया होता है।
11. एन्द्रिय-शिक्षण : रूसो, पेस्ट्रालाजी और फ्रोबेल की भाँति मांटेसरी ने भी जोर दिया
है कि इन्द्रियाँ ज्ञान की प्रवेश-द्वार हैं। तर्क और विचार से भी अधिक महत्व एन्द्रिय-प्रशिक्षण
को दिया है। एन्द्रिय-प्रशिक्षण विकसित करने के लिए विभिन्न वस्तुओं का प्रयोग किया जाता
है। निम्नलिखित बातें एन्द्रिय-प्रशिक्षणं पर प्रकाश डालेंगी―
कार्य                                                     सामग्री
1. आकृति के ज्ञान के लिए            1. लकड़ी की, नली जो ऊँचाई, व्यास और दोनों परिमापों
                                                     से भिन्न हों। लकड़ी जो आकृति में नियमित रूप से
                                                     भिन्न और छड़ियाँ जो लम्बाई में नियमित रूप से भिन्न
                                                     हो।
2.रंग के ज्ञान के लिए                   2. हल्के लाल रंग के घन (Cubes)
बच्चों के प्रति मैडम मांटेसरी के अत्यधिक प्रेम और स्नेह, कोमल हृदयता, कलाकारों
जैसी कल्पना-शक्ति और असाधारण सहानुभूति ने शिक्षा-पद्धति के सिद्धान्तों को एक नवीन
दृष्टिकोण दिया है। वास्तविकता तो यह है कि उसने शिक्षा-क्षेत्र में क्रान्ति जगाई है।
मांटेसरी प्रणाली के गुण :
1. मांटेसरी प्रणाली ने छोटे बच्चों के लिए सम्मान की भावना को जाग्रत किया। उनके
लिए “बच्चा ही ईश्वर है, उसका शिक्षालय ही मंदिर है तथा बच्चे की स्वत्वशक्ति
ही मंदिर की अधिष्ठात्री देवी है।” मांटेसरी के सिद्धान्त ने बच्चे के महत्व को और
भी बढ़ा दिया है।
2. यह सिद्धान्त वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित है, वे एक वैज्ञानिक थी। उन्होंने अनुभव
और निरीक्षण के आधार पर वैज्ञानिक सिद्धान्तों को अपनाया। उन्होंने अविचारपूर्ण
निर्णय नहीं लिया और न किसी प्रकार का पक्षपात ही किया।
3. यह सिद्धान्त व्यक्तिवाद को आश्रय देती है। इनका यह सिद्धान्त सामूहिक शिक्षा के
विरोध में एक क्रान्ति है।
4. यह प्रणाली बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्रता के वातावरण में शिक्षा देना चाहता है। सिद्धान्त
में अनुशासन का अर्थ है-आत्म-नियंत्रण तथा अतिप्रेरित क्रियाशीलता।
5. मांटेसरी सिद्धान्त का उद्देश्य है-बच्चों की ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण द्वारा पढ़ाना। इसका
सूत्र है कि “मूर्त से अमूर्त की ओर बढ़ो, सामान्य से विशेष की ओर बढ़ो।”
6. इस पद्धति में लिखने व सीखने का विशेष महत्व दिया गया है। लिखते हुए बच्चे
की स्नायु सम्बन्धी स्थिति का विशेष ध्यान रखा जाता है। लिखने और पढ़ने के
अभ्यासों को उचित रूप से समन्वित तथा श्रृंखलाबद्ध किया जाता है।
7. मैडम मांटेसरी ने अपने स्कूल में ऐसी व्यवस्था की कि बच्चों में नियमितता तथा
स्वच्छता की अच्छी आदत पड़ें।
8. यद्यपि मांटेसरी मूलतः व्यक्तिवादी हैं तथापि यह सामाजिक मूल्यों से भरपूर हैं। मेज
पर इकट्ठे खाना लगाना, मिलकर खाना, बर्तनों को धोना, साफ करना तथा दूसरे
सहयोगात्मक कार्य करना आदि अनेक क्रियाओं का सामाजिक महत्व है।
मांटेसरी पद्धति की सीमाएँ तथा दोष :
1. इस सिद्धान्त में कृत्रिम तथा यांत्रिक प्रबोधक साधनों (Didactic Apparatus) का
बहुत अधिक महत्व दिया गया है। आलोचकों का तर्क है कि ये साधन अध्यापक
तथा बच्चों के लिए बंधन है। बच्चे को प्रबोधक यंत्र की सहायता से विभिन्न अभ्यास
करने पड़ते हैं, अध्यापक भी उन्हीं की सहायता से ही बच्चों को कार्य कराने के
लिए अपेक्षित है। इस प्रकार छात्र की मौलिक और स्वतंत्र अभिव्यंजना नहीं हो पाती।
प्रबोधक साधन अवास्तविक तथा अप्राकृतिक है।
2. इस पद्धति में शारीरिक पहलू पर मनोवैज्ञानिक पहलू की अपेक्षा अधिक बल दिया
गया। अध्यापक प्रत्येक बच्चे की ऊँचाई, वजन, दृष्टि इत्यादि का वृत्त तैयार करता
है। वह स्वभावगत तथा भावनागत लक्षणों की ओर कम ध्यान देता है।
3. ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण का विचार मांटेसरी प्रणाली का प्रथम सिद्धान्त है जोकि पुराना
है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि विशिष्ट शक्ति की विशिष्ट ज्ञानेन्द्रिय के प्रशिक्षण
से यह संभव हो सकेगा कि उस प्रशिक्षण से दूसरी शक्ति द्वारा काम लिया जा सकें।
आधुनिक मनोवैज्ञानिक इस बात पर सहमत नहीं है।
4. मांटेसरी पद्धति में परियों की कहानियों का कोई स्थान नहीं है। परियों की कहानियों
का कल्पना-शक्ति के विकास की दृष्टि से गहरा महत्व है। साहित्यिक दृष्टि से भी
परियों की कहानियाँ महत्पूर्ण है।
5. इस प्रणाली की सफलता ऐसे अध्यापकों पर निर्भर है जिन्हें बच्चों के मनोविज्ञान
का गम्भीर अध्ययन हो तथा जो प्रयोगशाला कार्य में निपुण हों। ऐसे अध्यापकों का
पर्याप्त मात्रा में मिलना अत्यन्त कठिन है।
6. आधुनिक शिक्षण क्रम प्रयोजन द्वारा सभी विषयों के अध्यापन का समर्थन करता
है। क्रिया द्वारा शिक्षा-प्राप्ति आधुनिक शिक्षा पद्धति का रहस्य है। परन्तु, मांटेसरी
पद्धति में बच्चों को प्रबोधक यंत्रों तक ही सीमित रखा जाता है।
7. डॉ. मांटेसरी ने जिस प्रकार शिक्षा संस्थाओं का समर्थन किया है, उन्हें बनाने के
लिए बहुत अधिक धन की आवश्यकता है।
8. यह शिक्षा केवल 6 वर्ष तक के बच्चों के लिए है। आगे की शिक्षा की कोई योजना
नहीं है।
मांटेसरी द्वारा प्रतिपादित पद्धति से विशेषतया प्रयोगात्मक क्रियाओं तथा अभ्यासों के स्थाई
तत्व विद्यमान हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें बालकों के निजी व्यक्तित्व को पृथक्-पृथक्
रूप से उभारा जाता है।
प्रश्न 6. प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा (ECCE) के पाठ्यचर्या से
क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताओं को रेखांकित करें।
उत्तर―पाठ्यक्रम शिक्षा का आधार है। पाठ्यक्रम द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति होती
है। यह एक जैसा साधन हैं जो छात्र तथा अध्यापक को जोड़ता है। अध्यापक पाठ्यक्रम के
माध्यम से छात्रों के मानसिक, शारीरिक, नैतिक सांस्कृतिक, संवेगात्मक, आध्यात्मिक तथा
सामाजिक विकास के लिए प्रयास करता है। पाठ्यक्रम द्वारा छात्रों को ‘जीवन कला’ (Art
of Living) में प्रशिक्षण के अवसर मिलते हैं। अध्यापकों को दिशा-निर्देश प्राप्त होता है। छात्रों
के लिए लक्ष्य निर्धारित होने से उनमें एकाग्रता आती है। वे नियमित रहकर कार्य करते हैं।
पाठ्यक्रम एक प्रकार से अध्यापक के बाद छात्रों के लिए दूसरा पथ-प्रदर्शक है। पाठ्यक्रम
में पाठ्यक्रम विषयों के साथ-साथ स्कूल के सारे कार्यक्रम आते हैं। पाठ्यक्रम की सबसे
लोकप्रिय परिभाषा कनिंघम (Cunningham) द्वारा दी गई मानी जाती है। इसके
अनुसार-“पाठयक्रम अध्यापक रूपी कलाकार के हाथ में वह साधन है जिसके माध्यम से
वह अपने पदार्थ रूपी छात्र को अपने कलागृह रूपी स्कूल (Studio) में अपने उद्देश्य के
अनुसार विकसित अथवा रूप (Mould) प्रदान करता है।” इसमें कोई सन्देह नहीं कि कलाकार
को अपने पदार्थ को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने की बहुत स्वतन्त्रता है क्योंकि कलाकार
का पदार्थ निर्जीव है। परन्तु, स्कूल में अध्यापक का पदार्थ अर्थात् छात्र सजीव है। पुराने समय
में, जबकि आवश्यकताएँ सीमित थीं, साधन सीमित थे, अध्यापक को अपने पदार्थ यानि कि
छात्र को नया रूप देने में पूरी स्वतन्त्रता थीं। परन्तु, अब बदली हुई परिस्थिति में अध्यापक
की यह महत्ता घट गई है। फिर भी, निश्चय ही अध्यापक के हाथ में पाठ्यक्रम बहुत ही
महत्वपूर्ण साधन है।
      कैसवेल (Casvel) के अनुसार, “बालकों एवं उनके माता-पिता तथा शिक्षकों के जीवन
में आनेवाली समस्त क्रियाओं को पाठ्यक्रम कहा जाता है। शिक्षार्थी के कार्य करने के समय
जो कुछ भी कार्य होता है उस सबसे पाठ्यक्रम का निर्माण होता है। वस्तुतः पाठ्यक्रम को
गति युक्त वातावरण कहा गया है।”
          ड्यूवी (Dewey) के अनुसार, “पाठ्यक्रम केवल अध्ययन की योजना या विषय सूची
ही नहीं बल्कि कार्य तथा अनुभव की सम्पूर्ण श्रृंखला है। पाठ्यक्रम समाज में कलात्मक ढंग
से परस्पर रहने के लिए बच्चों के प्रशिक्षण का शिक्षकों के पास एक साधन है।”
          संक्षेप में, पाठ्यक्रम सुनिश्चित जीवन का दर्पण है जो विद्यालय में प्रस्तुत किया जाता
है। पाठ्यक्रम केवल पाठ्य-विवरण ही नहीं, अपितु बच्चे के बहुमुखी व्यक्तित्व का शिक्षा
के पूर्ण निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक सीखने-सिखाने की परिस्थितियों
का नियोजन करता है, इसलिए सामान्य रूप से इस नियोजित कार्यक्रम को पाठ्यक्रम कहते
हैं। रस्क (Rusk) महोदय ने कहा है, “पाठ्यक्रम का संगठन जितना दर्शन पर आधारित होता
है, उतना शिक्षा का कोई अन्य पहलू नहीं है। शिक्षा सम्बन्धी मुख्य तीनों दर्शन-प्रकृतिवाद,
आदर्शवाद तथा प्रयोजनवाद इस विचार पर सहमत हैं कि बच्चों को अपेक्षित अनुभवों के
साधन जुटाये जाने चाहिए। परन्तु, तीनों विचारधाराएँ इस पर सहमत नहीं है कि बच्चों को
किस प्रकार का अनुभव कराया जाए और किस प्रकार से।”
            नन (Nunn) ने स्कूल में ऐसे कार्यक्रमों को रखने का समर्थन किया है जो अत्यधिक
महत्वपूर्ण तथा स्थायी हैं और संसार में मानव आत्माओं की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति हैं। अब प्रश्न
यह है कि महानतम महत्व के कार्यक्रम कौन-कौन से हैं। इनका वर्गीकरण दो प्रकार से किया
जा सकता है―
            (क) ऐसे कार्यक्रम जो सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन के स्तर को बनाये रखने के
लिए अनिवार्य हैं जैसे कि स्वास्थ्य-रक्षा, शिष्टाचार, धर्म, सामाजिक संगठन आदि।
(ख) ऐसे कार्यक्रम जो कि सभ्यता का प्रतिनिधित्व करें जैसे कि साहित्य, विज्ञान, गणित,
भूगोल, इतिहास तथा कला इत्यादि। रॉस के अनुसार पाठ्यक्रम में क्रियाओं के अनुसार पाठ्यक्रम का स्वरूप इस प्रकार होना चाहिए―
                         मानव की क्रियाएँ व उनसे सम्बन्धित विषय
                  (Human Activities and Related Subjects)
______________↓_________________________↓_________
        शारीरिक क्रियाएँ                                  आध्यात्मिक क्रियाएँ
(Physical Activities)                          (Spiritual Activities)
                   स्वास्थ्य विज्ञान, शारीरिक कुशलताएँ व व्यायाम
            (Care of Body, Bodies Skills and Gymnastics)
_______________↓______________↓__________________↓______
मानसिक क्रियाएँ                      सौन्दर्यात्मक क्रियाएँ             नैतिक व धार्मिक क्रियाएँ
(Intellectual Activities)  (Aesthetic Activityes)  (Moral and Religion
                                                                                                     Activities)
_______________________________↓____________________|_________↓
साहित्य, भाषा, विज्ञान,                   ललितकलाएँ                          धर्म व आचारशास्त्र
गणित, इतिहास व भूगोल               (Fine Arts)                        (Religion and Ethics)
                            (Important Feature of Cirreculum)
                                       पाठ्यक्रम की मुख्य विशेषताएँ
पाठ्यक्रम केवल पाठ्य-विवरण ही नहीं है, अपितु व्यक्तित्व को विकसित करने का
एक माध्यम है, इसका उद्देश्य व्यक्तित्व के सभी पहलुओं-बौद्धिक, शारीरिक, सामाजिक,
भावनात्मक, नैतिक और आध्यात्मिकता का विकास करना है। इसलिए उसमें निम्न विशेषताएँ
होनी चाहिए―
1. विद्यार्थी के चरित्र निर्माण पर बल।
2. सबको समान शैक्षिक अवसर।
3. श्रम से सम्बन्ध और उद्यमशीलता।
4. विविध स्तरों पर पढ़नेवाले विद्यार्थियों के लिए न्यूनतम राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा।
5. शिक्षा के स्तर को निरन्तर सुधारने के लिए सहायक तकनीकी व्यवस्था।
6. शैक्षिक कार्यक्रमों द्वारा एकता को प्रोत्साहन।
7. विविध ज्ञानार्जन की विधियों से आगे के प्रशिक्षण और शिक्षण में प्रगति के लिए
विद्यार्थियों की गतिशीलता।
प्रश्न 7. ईसीसीई पाठ्यचर्या के उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर―वैश्विक अनुसंधान ने यह सिद्ध किया है कि मानवीय मस्तिष्क का विकास प्रथम
छह वर्ष तक चरमोत्कर्ष पर होती है। ईसीसीई पाठ्यचर्या का मुख्य उद्देश्य है कि बच्चों को
उनके क्षमता के अनुसार उनका सर्वांगीण विकास हो। बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास
पाठ्यचर्या के केन्द्र बिन्दु है।
Objectives of ECCE (ईसीसीई पाठ्यचर्या के उद्देश्य)
1. बच्चों के समग्र विकास का उन्नयन करना।
2. बच्चों को औपचारिक स्कूल के लिए तैयार करना।
3. प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण के लिए योगदान देना।
4. प्राथमिक शिक्षा के अवरोधों को कम करना।
5. ECCE के विभिन्न डिग्रियों पर जोर देना जिससे ज्यादा-से-ज्यादा लोग लाभान्वित
हो सकें। इसके लिए ICDS (Integrated child Development Service) को
शक्ति प्रदान करने की जरूरत है।
6. विभिन्न विकल्पों के साथ Pre schooling पर जोर देना।
7. संविधान के अनुच्छेद 45 के अन्तर्गत भारत के विभिन्न राज्यों को ECCE के लिए
व्यापक प्रयास करने के लिए जोर देना।
8. सरकार को बाह्य करना कि पूर्व प्राथमिक बाल्यावस्था के बच्चों को भी अनिवार्य
एवं मुफ्त शिक्षा उपलब्ध हो अर्थात् ECCE को भी शिक्षा के अधिकार, 2009
के साथ समाहित करवाया जाये।
9. सर्वशिक्षा अभियान (SSA) के तहत चल रहे 73860ECCE केन्द्रों का उन्नयन करना।
10. छह वर्ष तक के बच्चों के पूरक पोषण की व्यवस्था।
11. समय-समय पर बच्चों के स्वास्थ्य परीक्षण।
12. इन बच्चों के टीकाकरण की सुविधा।
13. Pre school एवं primary school को जोड़ने का काम करना।
14. विभिन्न तरह के शैक्षिक गतिविधियों के कार्यान्वयन पर जोर यथा कहानी कहना
एवं सुनना, कविता पाठ, गाना गान, रंग एवं आकारों का बोध, समूह का नाम,
अच्छी आदतों का निर्माण (हाथ धोना, साझेदारी करना इत्यादि।)
15. Pre school Education kit का निर्माण कराना एवं इन Kits का बच्चों में उपयोग
सुनिश्चित करना।
16. ICDS (Integrated Child Development Services) को और भी प्रभावी बनाना
तथा पीने योग्य पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य के देखभाल को सुनिश्चित कराना।
17. प्री-प्राइमरी टीचर्स के लिए प्रशिक्षण एवं समय-समय पर वर्क शॉप की व्यवस्था
करना।
18. Child cane and Education पर व्यावसायिक कोर्स की व्यवस्था करना।
19. Pre Primary Education, Child care एवं Education पर विभिन्न
विश्वविद्यालयों द्वारा डिप्लोमा/सर्टिफिकेट कोर्स कराना।
20. ICDS का सर्वव्यापीकरण करना।
21. Pre School kit के लिए प्रत्येक आंगनबाड़ी केन्द्रों को आर्थिक सहायता देना।
22. Mother-child Protection card प्रस्तुत करना।
23. गैर सरकारी संगठनों एवं कारपोरेट घरानों को पूर्व प्राथमिक बाल्यावस्था के बच्चों
के सर्वांगीण विकास हेतु लाना एवं सरकार के साथ समन्वय स्थापित कराना।
24. शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों आज के माँग एवं मापदण्डों के हिसाब से Uptodate
करना।
25. बच्चों के विभिन्न रोगों के रोकथाम तथा स्वस्थ, सुन्दर तथा नियमित जीवन को
व्यवस्था करना।
26. कल्पना-शक्ति, कला तथा अन्य रुचियों के विकास के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान
करना।
27. सामाजिक जीवन का एक छोटा-सा ऐसा रूप प्रदान करना जिसमें विभिन्न आयु
वाले बोलक परस्पर काम करते हैं और खेलते हैं।
28. वास्तविक जीवन का घर से समन्वय स्थापित करना। प्रतिद्वन्द्विता की अपेक्षा सहयोग
को बल देना है।
29. स्वत: प्रवर्तित क्रियाओं से भावात्मक विकास होता है, इससे बच्चों के मन में कार्य
के प्रति आदर और प्रेमभाव बनता है। इससे बच्चे कार्य को खेलकर समझता है
तथा खेल में कार्य करता है। नर्सरी तथा नर्सरी स्कूल देश के भावी नागरिकों के
लिए उत्तम स्थान है, जहाँ वे सामाजिक वातावरण में खपने का सही ढंग सीख
लेते हैं।
शिक्षा आयोग 1964-66 के अनुसार पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य :
शिक्षा आयोग, 1964-66 के विचार में पूर्व―प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित है―
1. स्वस्थ आदतें डालना-बच्चे में अच्छी स्वस्थ आदतें डालना और व्यक्तिगत अनुकूलन
के लिए जरूरी बुनियादी योग्यता पैदा करना जैसे-पोशाक, नहाने-धोने की आदतें,
कंघी करना, दाँत साफ करना, हाथ धोकर खाना, सफाई इत्यादि।
2. वांछनीय सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास―वांछनीय सामाजिक अभिवृत्तियाँ और
शिष्टाचार विकसित करना तथा स्वस्थ सामूहिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना जिससे
बच्चा दूसरों के अधिकारों और विशेषाधिकारों के प्रति सजग रह सकें।
3. अनुभूतियों और संवेगों के विकास के लिए मार्ग दर्शन―बच्चे की अपनी अनुभूतियों
और संवेगों को अभिव्यक्त करने, समझने, मारने और नियंत्रित करने में मार्गदर्शन
देकर संवेगों के मामले में क्षमता को विकसित करना।
4. सौन्दर्य-बोध–सौन्दर्य बोध को जगाना।
5. आपस की दुनिया समझने में मदद करना-परिवेश के बारे में बौद्धिक जिज्ञासा
की शुरुआत को प्रेरित करना और आसपास की उसकी दुनिया को समझने में उसकी
मदद करना खोज पड़ताल तथा प्रयोग के अवसरों के जरिये नई अभिरुचियाँ पल्लवित
करना।
6. आत्म अभिव्यक्ति को प्रोत्साहन-बच्चे को आत्मभिव्यक्ति के काफी अवसर देकर
स्वतंत्रता और सृजनशीलता के लिए प्रोत्साहित करना।
7. भाषा का विकास-बच्चे में अपने विचार और भावनाओं को धारावाहिक, शुद्ध और
स्पष्ट भाषा में व्यक्त करने की योग्यता को विकसित करना।
8. शारीरिक विकास तथा निपुणता-बच्चे में अच्छा शरीर गठन करना, पर्याप्त माँसपेशी
समन्वय एवं बुनियादी अंग चलाने में निपुणता विकसित करना।
स्कूली हवा में शिक्षा प्राप्त करके छात्र शारीरिक दृष्टि से लाभ उठाते हैं। इससे स्वस्थ
आदतों का निर्माण होता है। आनन्ददायक गतिविधियों, लोकनत्यों और स्वच्छंद क्रियाकलापों
द्वारा बच्चों का तीव्र गति से विकास होता है। बालकों को उत्साहवर्द्धक वातावरण प्राप्त
होता है। बालकों को रचनात्मक गतिविधियों में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है।
आत्मविश्वास और स्वतंत्रता की आदतों का विकास होता है। बालक माता पर अनावश्यक
निर्भरता से मुक्त होते हैं। बालकों को सहयोग तथा मिलजुल कर रहने का प्रशिक्षण प्राप्त
होता है। बालक सामाजिक जीवन के आदान-प्रदान की आदत को सीखाता है। मनोवैज्ञानिक
दृष्टि से बालकों की अपनी रचनात्मक और विध्वंसात्मक आवश्यकताओं को संतुष्टि करने
के अवसर प्राप्त होते हैं।
प्रश्न 8. प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा (ई०सी०सीई०) के विभिन्न
प्रकार की गतिविधियों का वर्णन करें।
उत्तर―नर्सरी कक्षा के बालक को शिक्षा देने की उत्तम विधि वह मानी जाती है जहाँ
बालक क्रिया द्वारा सीखे (Learning by doing) तथा आनन्दमयी शिक्षा (Joyful Learning)
को प्राप्ति हो सकें। इसलिए कार्यक्रम नियोजन में वाह्य एवं आन्तरिक क्रियाओं को सम्मिाल
किया जाना चाहिए जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सकें। क्रियाएँ विभिन्न प्रकार की
होती हैं-आन्तरिक एवं वाह्य, सामूहिक एवं वैयक्तिक, चंचल एवं शान्त क्रियाएँ। पर्यटन क्षेत्रीय
भ्रमण खेल क्रियाओं से जहां बच्चों का मनोरंजन होता है वहीं वह इनसे बहुत कुछ सीखते भी हैं।
                      आउटडोर खेल क्रियाएँ-बाह्य क्रियाएँ बाह्य क्रियाएँ
                      ↓_________________|_________________↓
                   वैयक्तिक                                                   सामूहिक
वैयक्तिक खेल क्रियाएँ―इन खेल क्रियाओं के अन्तर्गत बच्चा स्वतंत्र रूप से खेलता
है जिसे वैयक्तिक या एकांकी खेल कहते हैं। जैसे-Skipping, Throwing,Running इत्यादि।
बालक जब पहली बार स्कूल जाता है तो वह सामान्यतः अकेला खेलना चाहता है, उस समय
उसे एकांकी खेल खेलने देना चाहिए। धीरे-धीरे वह और बालकों के साथ घुलने-मिलने लगता
है, बालकों के साथ दोस्ती कर लेता है तो उसे धीरे-धीरे सामूहिक क्रियाओं में भी आनन्द
की अनुभूति होने लगती है।
सामूहिक क्रियाएँ―जब दो या दो से अधिक बच्चे मिलकर किसी खेल को खेलते हैं
तो उसे सामूहिक खेल कहते हैं। जैसे-रेस करना, कैरम बोर्ड, लूडो इत्यादि।
स्वतंत्र क्रियाएँ―खेल एक स्वाभाविक क्रिया है। यदि वह स्वतंत्र वातावरण में बिना किसी
नियम और उद्देश्य से की जाये तो भी उस खेल द्वारा बालक सीखता है इन क्रियाओं में बच्चों
को पूरी आजादी मिलता है और वे आजादी का पूरा आनन्द लेते हैं। उनमें रचनात्मकता का
विकास होता है तथा वे खेलने की सामग्री का चयन वह स्वयं करते हैं। उन्हें कुछ नया कर
दिखाने का अवसर मिलता है। यदि हम उनके कामों की प्रशंसा करते हैं तथा Motivate
करते हैं तो उनमें आश्चर्यजनक ढंग से विकास संभव है।
निर्देशित क्रियाएँ―निर्देशित क्रियाएँ वह होती हैं जिनमें शिक्षक के मन में निश्चित शिक्षण
उद्देश्य होते हैं। इसी क्रम में वह बच्चे की क्रियाओं को निर्देशित करती है। जैसे―कमरे के
अन्दर एवं बाहर। बड़े समूह व छोटे समूह। इन क्रियाओं में बच्चों पर शिक्षक का नियंत्रण
रहता है। निर्देशित क्रियाओं में शिक्षक किसी उद्देश्य के साथ ही क्रियाओं का चुनाव करता
है। इन क्रियाओं को करवाने के लिए सामग्री का पूर्व चयन कर लिया जाता है। जैसे कि
हिपी-हिपी-टेप खेल खेलना।
चंचल एवं शान्त क्रियाएँ―चंचल क्रियाओं में बच्चे सक्रिय रहते हैं और वह खूब शोर
मचाते हुए क्रियाओं का आनन्द उठाते हैं। ऐसी क्रियाएँ घर में ही नहीं अपितु बाहर भी खेली
जाती है, जैसे-भागना, दौड़ना, झूला झूलना, आँख मिचौली।
           चंचल क्रियाओं में बच्चे थक जाते हैं। लेकिन उनके शारीरिक एवं मानसिक श्रम से
उनका विकास होता है। इसके अतिरिक्त अध्यापकों को कुछ शान्त क्रियाएँ भी करवानी चाहिए
जैसे चित्र बनाना, रंग भरना इत्यादि। ऐसी क्रियाएँ अधिकांशतः घर की चारदीवारी में ही खेली
जाती है। इनके लिए आपेक्षिक रूप से कम जगह की आवश्यकता होती है एवं इन क्रियाओं
में सहायक उपकरणों की आवश्यकता होती है।
क्षेत्रीय भ्रमण―शिक्षण कक्षा तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। बालकों को समय-समय
पर भ्रमण पर ले जाकर वास्तविक ज्ञान देना आवश्यक है। भ्रमण से बालकों को वस्तुओं
का स्वाभाविक ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे-डाकघर का ज्ञान यदि उन्हें डाकघर ले जाकर
दिया जाये तो उन्हें ज्ञान भी अधिक प्राप्त होगा एवं उससे बच्चों का मनोरंजन भी होगा।
भ्रमण से बालकों का सामाजिक विकास होता है और वे मिलजुल कर कार्य करना सीखते
हैं। भ्रमण का उद्देश्य मनोरंजन के साथ शिक्षा देना है। इसलिए स्थान का चुनाव बालक
के पाठ्यक्रम के हिसाब से होना चाहिए। बालकों को सुरक्षा, विश्राम, खाने एवं स्वास्थ्य
का विशेष ध्यान रखना चाहिए। भ्रमण के उपरान्त उन्हें भ्रमण से प्राप्त ज्ञान की अभिव्यक्ति
का अवसर अवश्य देना चाहिए।
    प्रकृति भ्रमण (Nature walk)―भ्रमण का एक भाग प्रकृति भ्रमण है जिसमें विद्यार्थियों
को प्रकृति से सम्पर्क करवाया जाता है। आधुनिक युग मशीनों का युग है जिसमें बालक
टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाईल इत्यादि तो नित्यप्रति उपयोग करना है। परन्तु, वृक्षों,
पेड-पौधों के जानने के बारे में तथा उनके सान्निध्य में रहना बालकों के लिए दुलर्भ होता
है। इसलिए विद्यालय द्वारा प्रकृति भ्रमण का आयोजन अवश्य करना चाहिए। प्रकृति की
उपयोगिता उसके रख-रखाव का महत्व बालक तभी समझ पायेंगे जब उन्हें प्रकृति का सान्निध्य
प्राप्त होगा। प्रकृति भ्रमण जाने से पहले अध्यापक को बालकों की सुरक्षा का अवश्य ध्यान
रखना चाहिए तथा बालकों के अभिभावकों से सहमति लेना भी अनिवार्य होता है।
प्रश्न 9.समावेशी क्या है ? समावेशी शिक्षा की आवश्यकताओं पर प्रकाश डालें।
अथवा, कुछ लोगों का मानना है कि समावेशी शिक्षा के नाम पर विशेष
आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य विद्यालय में नामांकित करने के उनके सर्वांगीण
विकास को रोका जा रहा है। आप इस विचार से सहमत हैं कि नहीं, तर्क सहित उत्तर दें।
उत्तर―समावेशी शिक्षा, शिक्षा के क्षेत्र में एक नई पहल है जिससे विशेष आवश्यकता
वाले बच्चों में शिक्षा के प्रति एक नई उम्मीद जगी है। समावेशी शिक्षा’ से आशय वैसे विद्यालय
एवं शैक्षिक व्यवस्था से है जहाँ सभी बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं। यहाँ विशेष आवश्यकता वाले
विद्यार्थियों को बदलने के लिए नहीं कहा जाता बल्कि विद्यालय के सम्पूर्ण परिवेश में उनकी
आवश्यकतानुसार कुछ बदलाव किए जाते हैं।
      समावेशी शिक्षा के व्यापक लक्ष्य है कि सामान्य बच्चों और विशिष्ट आवश्यकताओं वाले
बच्चों में कोई भेदभाव नहीं हो तथा दोनों विद्यार्थी-एक दूसरे को ठीक ढंग से समझते हुए
आपसी सहयोग से पठन-पाठन के कार्य को कर सकें। इस शिक्षा का व्यापक लक्ष्य यह भी
प्रतीत होता है कि एक साथ शिक्षित होने पर भविष्य में समाज के अन्दर विशिष्ट आवश्यकताओं
वाले व्यक्तियों के सरोकारों को आमलोग बेहतर ढंग से समझ सके तथा उनमें उनके प्रति
अपेक्षित संवेदनशीलता का विकास हो सके।
        मूलतः समावेशी शिक्षा भेदभाव से रहित वातावरण में सामान्य बच्चों के साथ निःशुल्क
तबकों के बच्चों की सामान्य ढंग से पढ़ाई को सुनिश्चित कराने का प्रयास है। यद्यपि निःशक्त
व्यक्तियों की देखभाल करना भारतीय संस्कृति परम्परा का एक अंग रहा है।
समावेशी शिक्षा की आवश्यकता :
1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ मुख्यधारा में लाने का
प्रयास 1970 के दशक में प्रारम्भ हुआ। जब कोठारी आयोग (1964-66) ने एकीकृत
शिक्षा की व्यवस्था की। एकीकृत शिक्षा व्यवस्था के साथ इन विशेष आवश्यकता
वाले बच्चों को पूरी तरह से समाज ने स्वीकार नहीं किया और ये मुख्यधारा से
जुड़कर भी समाज से कट गए। इन सब कमियों को देखते हुए समावेशी शिक्षा की
आवश्यकता पर बल दिया गया।
2. आज समावेशी शिक्षा के दायरे में सिर्फ विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ही नहीं अपितु
वंचित वर्ग के बच्चे भी आने लगे हैं और समावेशी शिक्षा का दायरा बढ़ गया है।
3. समावेशी शिक्षा व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से एक अनिवार्य
आवश्यकता बन गई है जिससे समाज में व्याप्त भेदभावों तथा असमानताओं को दूर
किया जा सकता है।
4. शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाये जाने के बाद केन्द्र तथा राज्य सरकारों
का यह दायित्व है कि वे 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को शिक्षा प्रदान करें। यह
दायित्व तभी पूरा हो सकता है जब विशेष आवश्यकता वाले बच्चे तथा वंचित वर्ग
के बच्चे भी शिक्षा के दायरे में शामिल हों।
5. देश की खुशहाली के लिए विकास एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। देश का स्थायी विकास
तभी हो सकता है जब उसमें देश के सभी नागरिकों की समुचित सहभागिता हो। समावेशी
शिक्षा सभी नागरिकों की क्षमता एवं संभावनाओं को आगे बढ़ाने का प्रयास करती हुई
प्रतीत होती है जिससे कि सम्पूर्ण देश का विकास सुनिश्चित किया जा सके।
6. समावेशी शिक्षा की आवश्यकता सबसे अधिक बच्चों के व्यक्तिगत विकास तथा
उनमें अपनी क्षमताओं के बारे में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए हैं। यह बच्चों
के व्यक्तिगत गुणों को पहचानकर उन्हें इन गुणों को पूरी तरह से विकसित करने
के अवसर देने में विश्वास रखती है।
7. समावेशी शिक्षा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को शिक्षित करने एवं संवेदनशील
बनाने में सबसे अनिवार्य है। ऐसे बच्चों के जन्म लेने के साथ ही उनके परिवारों
में घोर निराशा घर कर जाती है। प्रायः ऐसे परिवार प्रारम्भ से ही इन विशेष आवश्यकता
वाले बच्चों को हीनदृष्टि से देखने लगते हैं। विद्यालयों में सामान्य बच्चों के साथ
अपने बच्चों को शिक्षित होते हुए देखकर ऐसे परिवार के लोगों को सांत्वना तथा
आत्म विश्वास प्राप्त होता है। उन्हें लगता है कि उनके बच्चे भी भविष्य में आत्मनिर्भर
बनकर प्रगति कर सकते हैं।
प्रश्न 10. शिक्षा के अधिकार के प्रावधानों की वजह से विद्यालय व्यवस्था में
बदलाव की आवश्यकता महसूस होती है ?
अथवा, समावेशी शिक्षा के कारण विद्यालय में होनेवाले परिवर्तनों का उल्लेख करें।
उत्तर―आज समावेशी शिक्षा के दायरे में सिर्फ विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ही नहीं
अपितु वंचित बच्चे भी आने लगे हैं और समावेशी शिक्षा का दायरा बढ़ गया है। इसलिए
समुचित विद्यालय प्रबंधन के बिना इन सबको समावेशी शिक्षा प्रदान करना संभव नहीं है।
विद्यालय प्रबंधन अपनी सामाजिक हैसियत की वजह से समावेशी शिक्षा के लिए कई तरह
के कार्य कर सकता है।
      विद्यालय प्रबंधन समाज के विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण
विकसित कर सकता है ताकि लोग ऐसे बच्चों को साकारात्मक दृष्टि से देखे। प्रबंधन अपने
क्षेत्र के लोगों में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का विद्यालयों में दाखिल करवाने के सम्बन्ध
में जागरूकता पैदा कर सकता है।
              समावेशी शिक्षा के लिए विद्यालय भवन की संरचना में परिवर्तन, आवश्यक सहायक
उपकरण की व्यवस्था, शिक्षक एवं विद्यालय प्रबंधन को आवश्यक प्रशिक्षण एवं निर्देशन प्रदान
करने नई विद्यालयी व्यवस्था के निर्माण की बात होनी चाहिए जिसके अन्तर्गत निम्न मुख्य
बातों पर बल दिया जाना चाहिए:
1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के मन से उनकी हीनभावना को समाप्त किया जाना
चाहिए।
2. सामान्य बच्चों के साथ परस्पर अन्तःक्रिया और मेल मिलाप।
3. बच्चों के लिए विशेष शैक्षिक तकनीकों का सहारा लेना जो सामान्य बच्चों के लिए
रोचक है।
विद्यालय में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कई
तरह के ढाँचागत बदलावों की आवश्यकता होती है। जैसे-रैंकों का निर्माण, व्हील चेयरों की
व्यवस्था, समुचित स्थानों पर शौचालय एवं पीने के पानी का प्रबंध, कक्षाओं के बड़े दरवाजे
वाले कमरें, अल्पदृष्टिवाले बच्चों को बच्चों के अनुकूल श्यामपट्ट इत्यादि, उक्त सारी व्यवस्थाएँ
करवाने में विद्यालय प्रबंधन सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
       विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए जिन तकनीकी उपकरणों यथा कैलिपरस, कृत्रिम
जूते, Hear Aids, आदि एकत्रित करने में विद्यालय प्रबंधन इससे जुड़ी संस्थाओं से सहयोग
ले सकता है।
        विद्यालय प्रबंधन सामान्य बच्चों को विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति साकारात्मक
दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता कर सकता है। समावेशी शिक्षा प्रदान करने के लिए
विद्यालय की भौतिक संरचना तथा विद्यालय में होने वाली शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में व्याप्त
बदलावों की आवश्यकता है।
          शिक्षकों को भी अपने देखरेख में इन विशेष आवश्यकता वाले बच्चों तथा सामान्य बच्चों
से अन्त:क्रिया करवानी चाहिए ताकि इनके मन से भेदभाव की भावना निकल सके।
          समावेशी कक्षा में शिक्षण अधिगम संचालन हेतु तकनीकी का अधिक-से-अधिक उपयोग
किया जाना चाहिए। आजकल कम्प्यूटर आधारित अथवा कम्प्यूटर उपलब्ध है जिससे विशेष
आवश्यकता वाले बच्चे बहुत से कार्य सामान्य ढंग से कर सकते हैं। शिक्षण अधिगम प्रणाली
में इन विशेष आवश्यकता वाले बचचों की आवश्यकतानुसार बदलाव ही उन्हें समस्त सामान्य
बच्चों के साथ समान रूप से भागीदार बना सकता है―
1. दृश्य श्रव्य सामग्री का उपयोग
2. खेल विधि का अधिकतम संचालन
3. समूह चर्चा
4. आगमन विधि पर बल।
5. स्वयं करके सीखने के लिए प्रेरित करना।
6. प्रोत्साहित करना इत्यादि कार्य किए जा सकते हैं।
प्रश्न 11. एक विद्यालय को सृजनशील बनाने के लिए कौन-कौन से प्रयास किए
जाने चाहिए?
उत्तर―सृजनशीलता का अर्थ है–विचार और ज्ञान को नए ढंग से बनाना या विकसित
करना या रचनात्मक ढंग से सोचना। लेकिन, ये विचार साकारात्मक होने चाहिए। एक विद्यालय
को सृजनशील बनाने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए जाने चाहिए :
1. बच्चे अपने दैनिक जीवन के समय का बड़ा हिस्सा विद्यालय में ही व्यतीत करते
हैं। इसलिए विद्यालय भवन को सिर्फ एक कंक्रीट की इमारत न होकर गन्चों की
सृजनशीलता का स्थान होना चाहिए।
2. विद्यालय भवन की बनावट ऐसी होनी चाहिए जिसके अन्तर्गत बच्चों की
कल्पनाशीलता को बिस्तर मिल सके और वे नए मौलिक विचार, वस्तु का निर्माण
कर सके।
3. एक सृजनशील शिक्षक भवन का सृजनात्मक प्रयोग करते हुए विभिन्न पेड़-पौधों एवं
फलों के विषय में जानकारी दे सकते हैं। और बच्चों की सृजनशीलता को बढ़ा सकते
हैं जिससे पढ़ना बोझ न रहकर बच्चों की सृजनाशीलता का पर्याय बन जाता है।
4. विद्यालय का भवन उसकी सबसे महँगी भौतिक सम्पत्ति होती है। इसीलिए उसमें
सर्वाधिक शैक्षिक मूल्य निकाला जाना चाहिए। इस प्रकार विद्यालय का भवन इस
प्रकार बनाना चाहिए जो सृजनात्मकता को बढ़ावा दे।
5. यह बात सिद्ध हो चुकी है कि बच्चे learning by doing अर्थात् करके सीखने
हैं अथवा व्यावहारिक तौर पर समझाने पर सीखते हैं। वह उनके लिए अधिक बोधगम्य
और सरल होता है। इसके लिए आवश्यक है कि विद्यालय भवन को बनावट में
ही सृजनात्मक को समाहित किया जाए। उदाहरणार्थ-पंख की विभिन्न पत्तियों को
अलग-अलग रंगों में रंगकर रंग के बदलते चक्र को आसानी से समझाया जा सकता है।
6. विभिन्न ज्यामीतिय आकृतियों को खिड़की, दीवार, दरवाजों, आदि पर उकेरा जा सकता
है। भूगोल के शिक्षण के लिए विद्यालय के खेल के मैदान में बालू के टीले बनाकर
पहाड़, पठार, मैदान, मरूस्थल आदि बालू में ही नदी जैसी संरचना देकर शिक्षण
को सृजनात्मक रूप प्रदान किया जा सकता है।
7. विद्यालय भवन में जल-संरक्षण के लिए एक टैंक का निर्माण करवाना चाहिए जिसमें
बारिश का जल विद्यालय के छत से होता हुआ उस टैंक में पाइप के द्वारा जमा
हो सके। ताकि बच्चे जल-संरक्षण के महत्व को समझ सकें।
8. पुराने टायरों का उपयोग करके एक रोमांचक खेल का मैदान तैयार किया जा सकता
है। पूरे परिसर का निर्माण इस तरह होना चाहिए कि बस, ट्रेन, पोस्ट-ऑफिस जैसी
संरचना की समझ विकसित हो सके।
9. कक्षा की दीवारें लगभग 4 फुट तक काले रंग से पोताई की जानी चाहिए जिसका
उपयोग श्यामपट्ट के रूप में किया जा सके।
10. रेखागणित की आकृतियाँ फर्श पर बनी हो, कमरे का एक कोना पढ़ने की सामग्री,
कहानी की किताबें, पहेली .कार्ड और अन्य शिक्षण सामग्री रखने के लिए किया
जा सता है। इसका उपयोग उन बच्चों के लिए करना चाहिए जो अपना कक्षा-कार्य
जल्द खत्म कर लेते हैं। उन्हें उस कोने में जाने एवं अपने पसंद की सामग्री चुनने
की छूट होनी चाहिए। कक्षा की दीवारों पर तरह-तरह के चार्ट पेपर लगाए जाने
चाहिए जिनसे बच्चे समय-समय पर अलग-अलग चीजें सीख सकें।
11. विद्यालय भवन के निर्माण में यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि विद्यालय में एक
कॉफ्रेन्स हॉल, समुदाय भवन, पुस्तकालय, विभिन्न विषयों से सम्बन्धित प्रयोगशालाएँ
जैसे विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान प्रयोगशालाएँ, स्टॉफरूम आदि का समुचित
प्रबन्ध हो ताकि समय-समय पर शिक्षक एवं विद्यार्थी प्रयोग, संगोष्ठी, विचार विमर्श
कर सके जो शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो। विद्यालय भवन में सूचना
एवं तकनीकी कक्ष भी होने चाहिए ताकि इन उपकरणों का शिक्षण-अधिगम की
प्रक्रिया में सही ढंग से उपयोग किया जा सके।
12. कक्षा का वातावरण ऐसा होना चाहिए जो विद्यार्थी एवं शिक्षक दोनों को सीखने में
मददगार हो। शिक्षकों को छात्रों के सृजनात्मक शिक्षण हेतु विद्यालय में समूह-चर्चा,
अन्तःक्रिया करवाते रहना चाहिए और इन सबके लिए कक्षा में पर्याप्त जगह होनी
चाहिए।
प्रश्न 12. प्रोजेक्ट विधि से क्या समझते हैं ? प्रोजेक्ट के चयन, प्रोजेक्ट पद्धति
के गुण एवं दोषों को रेखांकित करें।
उत्तर–प्रोजेक्ट विधि (Project Method)―प्रोजेक्ट-पद्धति में बालक अपने जीवन
की विभिन्न समस्याओं को स्वाभाविक परिस्थितियों में व्यावहारिक दृष्टि से सुलझाते हुए नाना
प्रकार के अनुभव प्राप्त करते हैं, इसलिए इस पद्धति में केवल करके सीखने (Learning
by Doing) पर ही नहीं अपितु रहते हुए सीखने (Learning by Living) पर भी बल दिया
जाता है। सी-डब्ल्यू स्टोन (C.W. Stone) महोदय ने पार्सल भेजने के एक बहुमुखी प्रोजेक्ट
(Complex Project) का उल्लेख करते हुए इस पद्धति के सिद्धांतों तथा कार्य प्रणाली को
समझाने का प्रयास किया है। इस उदाहरण से पाठकों की समझ में आसानी से आ जाएगा
कि प्रोजेक्ट-पद्धति में बालक ज्ञान को किस प्रकार प्राप्त करते हैं। इस प्रोजेक्ट के अनुसार
चौथी कक्षा के बालक अपने दूरवर्ती मित्रों को एक पार्सल डाक द्वारा भेजते हुए विभिन्न विषयों
का ज्ञान निम्नलिखित ढंग से प्राप्त करते हैं―
1. वर्तालाप (Discussion)―सर्वप्रथम बालक अपने दूरवर्ती मित्रों को एक पार्सल भेजने
का निश्चय करते हैं तत्पश्चात् वे आपस में वार्तालाप करते हैं कि पार्सल किस अमुक स्थान
पर किस प्रकार से भेजा जाए। इससे उनमें तर्क-वितर्क होता है जिसके परिणामस्वरूप उनका
उच्चारण शुद्ध हो जाता है। साथ ही उनकी चिन्तन, मनन तथा तर्क एवं निर्णय करने आदि
की मानसिक शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं।
2. इतिहास (History)―जब इतिहास का घंटा लगता है तो सभी बालक इस बात पर
विचार करते हैं कि डाकखाने की स्थापना कब और कैसे हुई ? जब डाकखाने नहीं थे तो
लोगों को डाक भेजने में किन-किन कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था? डाकखाने स्थापित
होने के पश्चात् टिकट की व्यवस्था कैसे हुई ? तथा पार्सल पर कितने मूल्य के टिकट लगाए
जाते हैं ? आदि। उक्त सभी बातों पर विचार करने से बालकों को टिकटों तथा विभिन्न देशों
के निवासियों का ज्ञान सरलतापूर्वक हो जाता है।
3. हाथ का कार्य (Hand Work)―इस्तकार्य के घंटे में बालक लिफाफा बनाते हैं। इससे
वे कागज मोड़ना, काटना तथा चिपकाना सीख जाते हैं यही नहीं, उन्हें वार्तालाप द्वारा इस
बात का ज्ञान भी हो जाता है कि कागज किस प्रकार बनाया जाता है? कागज कहाँ बनाया
जाता है? कागज कितने प्रकार का होता है? तथा पार्सल किस प्रकार के कागज का बनाया
जाता है?
4. भाषा (Language)―भाषा के घंटे में पार्सल पर प्राप्त करने वालो का पता लिखा
जाता है। इससे बालक अपने मित्रों को पता लिखना सीख जाते हैं।
5. भूगोल (Geography)―भूगोल के घंटे में बालक मानचित्र को देखते हैं जहाँ पर
पार्सल पहुंचना है। इससे उन्हें इस बात का ज्ञान हो जाता है कि पार्सल किस साधन से भेजा
जाएगा तथा रास्ते में कौन-कौन से स्थान आएंगे। संक्षेप में, भूगोल के अध्ययन से बालकों
को विभिन्न साधनों, स्थानों तथा उनकी दूरियों का ज्ञान हो जाता है।
6.अंकगणित (Arthmetic)-अंकगणित के घंटे में बालक अपने-अपने पार्सलों के वजन
लेते हैं और वजन के हिसाब से टिकट लगाते हैं। इससे वे जोड़, बाकी, गुणा तथा भाग आदि
के साथ-साथ खर्च का हिसाब रखना भी सीख जाते हैं।
7. प्रमण (Excursion)-पार्सल तैयार होने के पश्चात् बालक डाकखाने जाते हैं। वहाँ
उनको लाईन में खड़ा होना, पार्सल बाबू से पार्सल तुलवाना तथा उसके प्राप्त होने की रसीद
लेना आदि बातों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
      उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रोजेक्ट विधि द्वारा बालक वास्तविक जीवन की समस्याओं
को सुलझाते हुए विभिन्न विषयों का ज्ञान व्यावहारिक रूप से प्राप्त करते हैं।
प्रोजेक्ट का चयन (Selection of a Project)―प्रोजेक्ट का चयन करते समय
निम्नलिखित बातों का ध्यान में रखना चाहिए―
1. प्रोजेक्ट का शैक्षिक मूल्य होना चाहिए।
2. प्रोजेक्ट को क्रियान्वित करने से पहले आवश्यक सामग्री का प्रबंध कर लेना चाहिए।
3. प्रोजेक्ट में प्रयोग की जाने वाली वस्तुएँ समस्ती होनी चाहिए।
4. प्रोजेक्ट को पूकारने में केवल उतना ही समय लगाना नाहिए कि वह पाठ्यक्रम के
पूर्ण होने में बाधा न बन जाएँ।
प्रोजेक्ट-पद्धति के गुण (Merits of Project Method) :
प्रोजेक्ट पद्धति के गुण निम्नलिखित हैं―
1. सीखने के नियमों के अनुसार (According to the Laws of Learning)―
प्रोजेक्ट-पद्धति थार्नडाइक (Thorndike) महोदय द्वारा प्रतिपादित सीखने के सभी नियमों पर
आधारित है। स्मरण रहे कि सीखने के तीन नियम हैं-10 तत्परता का नियम (Law or
Readiness), 2० अभ्यास का नियम (Law of Exercise), तथा 3० प्रभाव का नियम (Law
of Effect) । तत्परता के नियमानुसार प्रोजेक्ट-पद्धति में बालकों को पाठ आरंभ करने से पहले
तैयार कर लिया जाता है। प्रोजेक्ट के दूसरे पद पर इस नियम का विशेष रूप से प्रयोग किया
जाता है। अभ्यास के नियमानुसार बालकों को सीखे हुए ज्ञान का अभ्यास करने के लिए
परिस्थितियों का निर्माण किया जाता है। अंत में, प्रभाव के नियमानुसार जब बालक प्रोजेक्ट
को पूरा कर लेते हैं तो वे संतोष एवं प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। इसके उनके ऊपर अच्छा
प्रभाव पड़ता है। संक्षिप्त रूप से प्रोजेक्ट-पद्धति में समस्या का प्रस्ताव, चुनाव तथा कार्यक्रम
की रूपरेखा तैयार करना आदि संपूर्ण प्रोग्राम बालक स्वयं ही तैयार करते हैं। शिक्षक उनके
ऊपर ज्ञान को बाहर से नहीं थोपता पितु उनके पास आवश्यक साधन इकट्ठा करके ऐसी
परिस्थितियों का निर्माण करता है कि वे खेलते ही खेलते अनेक प्रकार की समस्याओं को
सहज ही में सुलझाकर अपने ज्ञान में वृद्धि करते रहते हैं।
2. मनोवैज्ञानिक (Psychological)―प्रोजेक्ट-पद्धति के अंतर्गत-1. शैक्षिक क्रियाओं को
अर्थपूर्ण बनाया जाता है। इससे शिक्षा प्रभावपूर्ण हो जाती है, 2. शैक्षिक क्रियाएँ उद्देश्यपूर्ण
होती हैं इससे सीखने में उत्सुकता बढ़ती है, 3. सीखने के नियमों का उचित प्रयोग होता
है। इससे बालक प्रसन्न रहते हैं, 4. बालकों की जिज्ञासा (Curiosity) रचना (Construction)
तथा आत्म-प्रकाशन (Self-Assertion) आदि अनेक मूल प्रवृत्तियों का प्रयोग होता है, तथा
5. बालकों के अचेतन मन में पड़ी हुई हीनता की ग्रंथियाँ (Inferiority Complexes) दूर
हो जाती है। अत: यह पद्धति मनोवैज्ञानिक है।
3. वास्तविक जीवन से संबंधित (Related With Real Life)―प्रोजेक्टक-पद्धति द्वारा
स्कूल का वास्तविक जीवन से संबंध स्थापित हो जाता है। इससे शिक्षा अर्थपूर्ण (Meaningful)
तथा उद्देश्यपूर्ण (Purposeful) बन जाती है। सभी बालक वास्तविक जीवन की समस्याओं
को व्यावहारिक रूप में सुलझाते हैं। इससे उन्हें जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से नवीनतम
ज्ञान प्राप्त होता है। उस नवीनतम ज्ञान को बालक भावी जीवन की नवीन परिस्थितियों में
प्रयोग करते हैं और सफल सामाजिक एवं आनंदमय जीवन व्यतीत करते हैं।
4. जीवन तथा कार्य से संबंध (Connection with Life and Work)―प्रोजेक्ट-पद्धति
के अंतर्गत वास्तविक परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से कार्य करते हुए बालकों के जीवन
का कार्य से संबंध स्थापित हो जाता है। अतः सभी बालक अपने-अपने कार्य को रुचिपूर्ण
करते हैं। इससे उन्हें जहाँ एक ओर खेलते ही खेलते अनेक विषयों का ज्ञान हो जाता है,
वहाँ दूसरी ओर वे जीवन के प्रत्येक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को करने में भी दक्ष हो जाते हैं।
5. मितव्ययता (Economical)-प्रोजेक्ट-पद्धति द्वारा बालक केवल उसी ज्ञान को प्राप्त
करते हैं जिसकी उन्हें वर्तमान तथा भावी जीवन के लिए आवश्यकता है। ऐसे ज्ञान को वे
थोड़े ही समय में प्राप्त कर लेते हैं। इस दृष्टि से इस पद्धति में मितव्ययीता का गुण भी निहित
है।
6. समय का सद्उपयोग (Correct Use of Time)-प्रोजेक्ट-पद्धति का चुनाव तथा
उसकी रूप-रेखा तैयार करना आदि बालक स्वयं करते हैं। वे यह बात भली-भाँति समझते
हैं कि प्रोजेक्ट उन्हीं का अपना निजी है। अतः वे इसे पूरा करने के लिए बड़े परिश्रम के
साथ लग्नपूर्वक कार्य करते हैं इससे वे समय का सद्उपयोग करना सीख जाते हैं।
7. जनतांत्रिक ढंग से रहने का प्रशिक्षण (Training for Democratic Way of
Living)―प्रोजेक्ट-पद्धति सीखने का एक जनतांत्रिक ढंग है। इसके प्रयोग द्वारा कक्षा के सभी
बालक प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए सामूहिक ढंग से चिंतन करते हैं, मनन करते हैं तथा
कार्य करते हैं। इससे उनमें जहाँ एक ओर सहयोग, नम्रता, सहानुभूति, सहनशीलता तथा समाज
सेवा आदि अनेक सामाजिक गुण विकसित हो जाते हैं वहाँ दूसरी ओर उन्हें अपने-अपने
अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान भी सरलतापूर्वक हो जाता है। संक्षेप में, प्रोजेक्ट-पद्धति बालकों
को जनतांत्रिक ढंग से रहने के लिए तैयार करती है।
8. चरित्र निर्माण में सहायक (Helpful in Character Building)―प्रोजेक्ट-पद्धति
द्वारा बालकों का सर्वांगीण विकास होता है। इसके प्रयोग से बालकों में आत्म-निर्भरता तथा
आत्म-विश्वास आदि अनेक गुण विकसित होते हैं। साथ ही, चूँकि सभी बालकों की प्रोजेक्ट
को पूकारने की सामूहिक जिम्मेदारी होती है, इसलिए वे साधनपूर्ण (Resourceful) बन जाते
हैं तथा उचित निर्णय (Decision) लेने में निपुण एवं दक्ष हो जाते हैं।
9. श्रम की महानता का आदर (Respect for Dignity Labour)―प्रोजेक्ट-पद्धति
बालकों में श्रम की महानता के प्रति आदर-भाव विकसित करती है। इसका कारण यह है
कि इस पद्धति में सभी बालकों को मानसिक कार्य के साथ शारीरिक कार्य भी करना पड़ता
है। इससे वे हाथ से कार्य करने अथवा विभिन्न वस्तुओं को स्वयं ही बनाने में अपमान नहीं
समझते। इससे सभी बालक हाथ से कार्य करने का महत्व समझ जाते हैं और अपने दैनिक
जीवन में श्रमिकों के साथ आदर भाव से मिलते रहते हैं।
10. पिछड़े हुए बालकों के लिए पूर्ण आनंद का साधन (A Source of Bliss for
the Retarded)―प्रोजेक्ट-पद्धति पिछड़े हुए बालकों के लिए पूर्ण आनंद का साधन है।
मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है कि कुछ बालक बौद्धिक उपलब्धि की दृष्टि
से अथवा अन्य कारणों से कक्षा के कार्यों में पिछड़ जाते हैं। ऐसे पिछड़े हुए बालक या तो
समस्यात्मक बालक (Problem Children) बन जाते हैं अथवा उनके अचेतन मन में हीनता
की ग्रंथियाँ बन जाती हैं। चूँकि प्रोजेक्ट-पद्धति द्वारा सभी बालकों को सामूहिक रूप से कार्य
करने के अवसर मिलते हैं, इसलिए यह पद्धति पिछड़े हुए बालकों के लिए परम शांति एवं
चरम सुख का साधन है।
11. समन्वय की सुविधा (Facility for Correlation)―प्रोजेक्ट-पद्धति में शिक्षक की
अपेक्षा बालक को अधिक महत्व दिया जाता है। साथ ही बालकों को पाठ्यक्रम के सभी
विषय अलग-अलग भी नहीं पढ़ने पड़ते। चूँकि, इस विधि में सभी विषयों का प्रोजेक्ट के
साथ क्रिया द्वारा समन्वय स्थापित किया जाता है, इसलिए प्रत्येक विषय का एक-दूसरे से
स्वाभाविक समन्वय स्थापित हो जाता है। संक्षेप में, प्रोजेक्ट-पद्धति द्वारा पाठ की एकता (Unity)
में वृद्धि होती है तथा सभी बालक ज्ञान को क्रिया द्वारा एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में प्राप्त
करते हैं।
प्रोजेक्ट-पद्धति के दोष (Demerits of Project Method) :
प्रोजेक्ट-पद्धति के दोष निम्नलिखित हैं―
1. शिक्षण अपूर्ण तथा विशृंखल (Teaching Haphazard and Discontinuous)―
प्रोजेक्ट-पद्धति में प्रोजेक्ट द्वारा बालकों को पाठ्यक्रम के सभी विषयों का ज्ञान नहीं दिया
जा सकता। वस्तुस्थिति यह है कि शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है।
स्कूल में प्रयोग किए जाने वाले थोड़े से ही सीमित क्षेत्र वाले प्रोजेक्टों द्वारा इस महान् उद्देश्य
को प्राप्त नहीं किया जा सकता। स्मरण रहे कि ऐसा कोई भी प्रोजेक्ट नहीं है जिसके द्वारा
बालकों को सभी विषयों का ज्ञान दिया जा सके। यही नहीं, कुछ ऐसे भी प्रकरण (Topic)
हैं जिन्हें किसी भी प्रोजेक्ट द्वारा नहीं बढ़ाया जा सकता। अतः प्रोजेक्ट-पद्धति में शिक्षण अपूर्ण
तथा विशृंखल हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्रोजेक्ट-पद्धति का प्रयोग करने के साथ-साथ
सभी विषयों की शृंखलाबद्ध पढ़ाई का प्रबंध भी होना चाहिए।
2. सभी बालकों की संतुलित शिक्षा संभव नहीं (Balanced Learning of An
Pupils Not Possible)―प्रोजेक्ट-पद्धति में प्रायः चालाक बालक शेष बालकों का नेतृत्व करते
हुए प्रोजेक्ट संबंधी कार्य करते हैं। इससे पिछड़े हुए (Retarded) बालक निष्क्रिय रहते हुए
उनका अनुसरण करते हैं। यही नहीं, इस पद्धति में विशेष कार्य मुख्य-मुख्य बालकों को ही
दिए जाते हैं इससे कक्षा के समस्त वालक प्रोजेक्ट को पूरा करने में रुचि नहीं लेते। परिणामस्वरूप
प्रत्येक बालक की शिक्षा संतुलित नहीं पाती। अत: शिक्षक को चाहिए कि वह सभी बालकों
को वार्तालाप में भाग लेने के लिए उत्साहित करे तथा प्रत्येक बालक को उसकी योग्यता के
अनुसार कार्य करने की प्रेरणा दे।
3. हाथ का कार्य अधिक तथा साहित्यिक पक्ष की अवहेलना (More Hand Work
and Literary Aspect-Neglacted)―कुछ लोगों के अनुसार प्रोजेक्ट-पद्धति का यह बहुत
बड़ा दोष है कि इसके प्रयोग से साहित्यिक पक्ष की अवहेलना हो जाती है। अतः उनके अनुसार
स्कूल में साहित्यिक शिक्षा का अलग से प्रबंध होना चाहिए। उन लोगों का यह विचार उचित
नहीं है इसका कारण यह है कि प्रोजेक्ट-पद्धति का उद्देश्य हाथ से अधिक कार्य करना नहीं
है अपितु व्यावहारिक अनुभवों द्वारा समस्याओं की उद्देश्यपूर्ण बौद्धिक समझदारी है।
4.उचित प्रोजेक्ट का चुनाव कठिन (Selection of Suitable Project Difficult)―
कुछ विद्वानों का मत है कि छोटे-छोटे बालकों को उचित प्रोजेक्ट का चुनाव करना असंभव
नहीं तो कठिन अवश्य है। इसका कारण यह है कि जिन विचारों को बालक शिक्षक के सामने
रखते हैं वे सब एक से नहीं होते। अतः प्रायः ऐसे अवांछनीय प्रोजेक्ट चुन लिए जाते हैं जिनका
कोई शैक्षिक मूल्य नहीं होता। मेरी राय में यह दोष प्रोजेक्ट पद्धति का नहीं अपितु शिक्षक
का है। शिक्षक को चाहिए कि वह प्रोजेक्ट के प्रत्येक पद (Step) पर धैर्य, सहनशीलता तथा
समझदारी के साथ बालकों का आवश्यक पथ-प्रदर्शन करे।
5.व्यय साध्य पद्धति (Costly Method)―कुछ लोगों के अनुसार प्रोजेक्ट-पद्धति का
सबसे बड़ा दोष यह है कि यह व्यय व्यय पद्धति हैं इसके लिए पुस्तकें, यन्त्र तथा विभिन्न
प्रकार की व्यय साध्य सामग्री चाहिए। अत: इस पद्धति का प्रयोग निर्धन देशों अथवा सामान्य
स्कूलों में नहीं किया जा सकता। वे लोग शायद यह भूल जाते हैं कि प्रोजेक्ट केवल स्वाभाविक
वातावरण में ही पूरा किया जाना चाहिए। अत: इसके लिए केवल स्थानीय सामग्री की ही
आवश्यकता है यदि हम बालकों को उत्पादक प्रोजेक्ट (Productive Projects) द्वारा शिक्षा
की व्यवस्था करें तो प्रोजेक्ट-पद्धति स्वावलम्बी (Self Supporting) ही नहीं अपितु लाभप्रद
(Profitable) भी हो सकती है, जो इस पद्धति का उद्देश्य नहीं है।
6. पाठ्य-पुस्तकों की कठिनाई (Difficulty of Text Books)―प्रोजेक्ट-पद्धति का यह
भी दोष बताया जाता है कि इस पद्धति का प्रयोग करने के लिए विशेष प्रकार की पाठ्य-पुस्तकें
चाहिए।
प्रश्न 13. प्राथमिक विद्यालयों में प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा के
विस्तार का अर्थ एवं आधार पर प्रकाश डालें।
उत्तर―एक ऐसा समय जब संसार ताजगी भर लगता है और हर घटना रोचक लगती
है। फर्श पर रेंगती चीटियाँ, दीवार से कुदती बिल्ली यह सब कुछ एक छोटे बच्चे के लिए
बड़ा मनोहारी होता है। बच्चे निर्भय होते हैं और अपने इर्द-गिर्द की चीजों और लोगों में व्यापक
रुचि लिए हुए पैदा होते हैं। यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि परिवार बच्चों को परिपोषण
सावधानीपूर्वक करें, ताकि वे माता पिता और अन्य लोगों के साथ मजबूत भावनात्मक सम्बन्ध
स्थापित कर सकें और शारीरिक, मानसिक व सामाजिक रूप से एक स्वस्थ प्राणी बन जाए।
          पिछले आठ दशकों में समूचे विश्व में बाल विकास के क्षेत्र में बड़ी मात्रा में वैज्ञानिक
अनुसंधान हुए हैं। विभिन्न अध्ययनों से निकले निष्कर्षों से एक स्पष्ट तथ्य उभरकर सामने
आया है कि बाल्यावस्था के प्रारंभिक वर्षों में बच्चों के यौद्धिक स्तर (Intellingence),
व्यक्तित्व (Social-Behaviour) में तेजी से विकास होता है। जीवन के आरंभिक छह वर्ष
विकास की निर्णायक अवधि है। चूंकि विकास तीव्र गति से हो रहा होता है। अत: पर्याप्त
भोजन स्वास्थ्य देखभाल आदि अनुकूल स्थितियाँ विकास को प्रोत्साहित करती है एवं प्रतिकूल
अनुभव विकास में बाधा डालते हैं। बच्चे को विकास भ्रूण अवस्था से ही आरम्भ हो जाता
है। भ्रूण अवस्था में वृद्धि तीव्र गति से होती है। जन्म से लेकर छह वर्ष तक की अवस्था
में वृद्धि की गति तीव्र होती है। पूर्व स्कूल शिक्षा को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है―
1. गर्भावस्था से जन्म तक की शिक्षा
2. जन्म से ढाई वर्ष तक की शिक्षा
3. ढाई वर्ष से चार वर्ष की शिक्षा
4. चार वर्ष से छ: वर्ष की शिक्षा।
पहली दो अवस्थाएँ―इसमें माता और बालक दोनों के लिए महत्वपूर्ण शिक्षा काल है।
अतः माता और बच्चे के स्वास्थ्य और स्वच्छता पर बल दिया जाता है।
दूसरी दो अवस्थाएँ― दूसरी दो अवस्थाओं के दौरान पूर्व स्कूल का कार्य बच्चों को दैनिक
और साधारण घटना की गतिविधियों में लगाये रखना है जिससे कि उनका समूचित विकास
हो सके।
         राष्ट्रीय नीति 1986 ने नवजात बालक 0-6 वर्ष के सम्पूर्ण विकास पर मुख्य रूप से
बल दिया है। इस पूर्व बाल्यकाल देखभाल एवं शिक्षा की भूमिका निम्न संदर्भ में भी देखी
गई है–
1. बालकों को प्राथमिक शिक्षा के लिए तैयार करना।
2. शिक्षा के सार्वजनिक रूप में लड़कियों के लिए सहायक सेवा के रूप में कार्य करना।
3. निम्न वर्ग में कामकाजी महिलाओं के लिए सहायक सेवा के रूप में कार्य
करना।
          पूर्व बाल्यकाल देखभाल एवं शिक्षा की समन्वयक पद्धति होने के कारण यह बच्चे के
सम्पूर्ण विकास पर बल देती है। इसके मुख्य तत्व स्वास्थ्य देखभाल एवं पोषण के साथ-साथ
खेल-पद्धति खेल उपरण एवं ऐसे अधिगम अनुभवों को बढ़ावा देती है जो कि बालक के
शारीरिक गत्यात्मक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा सौन्दर्यानुभूति के विकास को बढ़ाती है। इसका
सम्पूर्ण प्रयास बालक को एक प्राकृतिक आनन्ददायक एवं मनोरंजक पर्यावरण प्रदान करना
है जोकि बच्चे के वृद्धि एवं विकास में सहायक है।
              पूर्व-प्राथमिक स्कूल―यह ऐसा स्कूल है जिसमें 6 वर्ष से कम आयु के बच्चे शिक्षा
पाते हैं। प्रायः इस संस्था में प्रवेश की आयु 25 से 3 होती है। इसका मुख्य उद्देश्य है–शिशु
की स्वास्थ्य, सुसंगत तथा परिष्कृत वातावरण में रखकर उनका शारीरिक विकास, सामाजिक
भावना और अभिव्यक्ति प्रक्रिया को उन्नत करना है। पढ़ना-पढ़ाना इसका मुख्य लक्ष्य नहीं
है। इसके कार्यक्रम में खेल, विश्राम, स्वच्छ आदतें डालना, सामूहिक रूप से रहने की प्रधानता
रहती है।
           नर्सरी स्कूल एक प्रकार से ‘बच्चे का संसार’ है जहाँ वह अपनी रचनात्मक प्रवृत्तियों
की अभिव्यक्ति के लिए विशेष रूप से बनाया गया वातावरण प्राप्त करता है। पूर्व प्राथमिक
स्कूलों को भारत में निम्नलिखित नामों से पुकारा जाता है–
1. नर्सरी                           2. किंडरगार्टन
3. पूर्व-बेसिक                    4. पूर्व-प्राथमिक
5. बालोद्योग                      6. बाल सेवावदन
7. बाल विद्यापीठ                8. आंगनबाड़ी
9. बालकुंज                      10. गार्टन स्कूल
11. किशोर दल                 12. बाल लीला मंदिर
13. बाल मंदिर                  14. शिशु शिक्षा सदन
15. बाल विहार                 16. अभिनव बालशाला
17. शिशु मंदिर                  18. शिशु निकेतन
19. शिशु केन्द्र
बालवाड़ी (फूलवाड़ी)―इसकी संज्ञा किंडरगार्टन से भी दी जाती है। यह पूर्व प्राथमिक
शिक्षा की संस्था है। इसमें बालक को खेलने-कूदने की व्यवस्था की जाती है। शहरी क्षेत्र
में किंडरगार्टन तथा मोनटेसरी स्कूल होते हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में इन्हें बालवाड़ी कहते हैं। केन्द्रीय
समान कल्याण बोर्ड और सामूहिक विकास परिषद् ने लगभग 20 हजार बालवाड़ियाँ खोली
हैं जिनमें 12 लाख बच्चे शिक्षा पाते हैं।
        क्रच (Creche) शिशु सदन, शिशु गृह–क्रच फ्रेंच शब्द है जिसका अर्थ पालना
(क्रेडिल) है। एक से तीन वर्ष के शिशुओं के पालन-पोषण की यहाँ व्यवस्था की जाती है।
          1964-66 के शिक्षा आयोग ने पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए
बताया कि पूर्व-प्राथमिक शिक्षा विशेषकर ऐसे बच्चों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक
विकास के लिए बहुत आवश्यक है, जिनके घर का वातावरण संतोषजनक नहीं है। 1961
की मैसूर राज्य की पूर्व-प्राथमिक शिक्षा समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि हमारा निश्चित
विचार है कि हमें अपने वर्तमान विकास के लिए शीघ्र ही पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के विकास
का आयोजन करना चाहिए। इस विकास की आवश्यकता निम्न प्रकार बतायी गई है―
1. अधिकांश घरों में शिक्षा के वातावरण का अभाव
2.बालक के शारीरिक विकास की आवश्यकता
3. पूर्व-प्राथमिक शिक्षा का प्राथमिक शिक्षा पर अच्छा प्रभाव
4. बालक की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की देखभाल
5. संयुक्त परिवार प्रथा के अभाव की पूर्ति
6. वर्तमान की शिक्षा में अवहेलना
7. वर्तमान अर्थव्यवस्था तथा स्त्रियों का काम पर जाना।
          इस शिक्षा का उद्देश्य बच्चे की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ऐसा समाज बनाना
है जिसमें वह अपना शारीरिक और मानसिक विकास कर सें। प्रतिद्वन्द्विता की अपेक्षा सहयोग
को बल देना है। स्वतः प्रवर्तित क्रियाओं से भावात्मक विकास होता है। इससे बच्चे के मन
में कार्य के प्रति आदर और प्रेमभाव बनता है। इससे वह कार्य को खेल कर समझता है और
खेल में कार्य करता है। नर्सरी और नर्सरी स्कूल देश के भावी नागरिकों के लिए उत्तम स्थान
है, जहाँ वे सामाजिक वातावरण में खपने का सही दंश सीख लेते हैं।
            पूर्व प्राथमिक शिक्षा कोई नई संकल्पना नहीं है अपितु अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने अनेक
शोध किए और इसके बारे में एक ही मत दिया कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा 3Rs द्वारा न होकर
3H (Head, Hand and Heart) द्वारा दी जानी चाहिए। पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रवर्तक चाहे
भारतीय हो जैसे महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर या पश्चिम के मारिया मांटेसरी, फ्रोबेल या
जॉन ड्यूबी हो सबने एक ही शिक्षण पद्धति-क्रियात्मक एवं खेल विधि को ही उपयुक्त विधि
माना एवं निम्नलिखित क्रियाओं का शिक्षा का उचित साधन माना―
1. पर्यावरण द्वारा शिक्षा                                       2. खेल विधि द्वारा शिक्षा
3. शिक्षा प्रकृति की गोद में                                    4. मुक्त वार्तालाप
5. कहानी सुनाना                                                 6. नाट्य रूपान्तरण
7. कठपुतली नाच                                                8. चित्रकला, छापना
9. फाड़ना, काटना और चिपकाना, कोलाज निर्माण   10. मिट्टी का काम
11. कागज मोड़ना
12. स्वास्थ्यवर्धक-जीवन व्यतीत करने की व्यावहारिक क्रियायें जैसे-खाने से पहले हाथ
धोना इत्यादि।
13. आऊटडोर खेल क्रियाएँ जो वैयक्तिक एवं सामूहिक हो सकती है।
14. भ्रमण आयोजित करना इत्यादि।
गाँधीजी के अनुसार शिक्षा में 3H(Head, Hand and Heart) अवश्य सम्मिलित होना
चाहिए। यदि 3H द्वारा शिक्षा दी जायेगी तो 3R (Reading, Writing and Arithematic)
स्वयं ही आ जायेंगे। बाल्यावस्था में मस्तिष्क का विकास तीव्र गति से होता है, इसलिए इस
अवस्था की शिक्षा विधि ऐसी होनी चाहिए जो बालक को स्वयं करके सीखने को अभिप्रेरित
करें एवं शिक्षा के प्रति उनकी रूचि जागृत कर सकें।
प्रश्न 14. विकास से क्या समझते हैं ? विकास में होनेवाले परिवर्तनों के प्रकार,
विकास की गति को प्रभावित करनेवाले कारकों तथा विकास की विशेषताओं का
संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर―विकास―विकास परिपक्वता और पोषण से उत्पन्न परिवर्तन की एक प्रक्रिया
है। यह प्रक्रिया बालक के जीवन में प्रारम्भ से अन्त तक चलती रहती है। हरलॉक ने इसलिए
इस प्रक्रिया को शृंखलाबद्ध कहा है, क्योंकि मानव के व्यक्तित्व के समंजन हेतु यह शृंखलाबद्धता
अनिवार्य है। विकास का मतलब परिवर्तन की उस प्रगतिशील शृंखला से है जो कि परिपक्वता
के निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है। अर्थात् विकास उन प्रगतिशील परिवर्तनों को कहते
है, जिनका प्रारंभ नियमित एवं क्रमिक होता है तथा संगत परिवर्तन के उतरोत्तर क्रम को हर
अवस्था और इसके बाद वाली अवस्था में एक निश्चित प्रकार का संबंध है। विकास ऐसे
प्रकार के परिवर्तन हैं जिनके द्वारा बच्चों में नई विशेषताओं एवं योग्यताओं का समावेश हो
जाता है। जीवन की प्रारंभिक अवस्था में उसके जीवन की उपेक्षा अधिक तेजी से परिवर्तन
होता है। परन्तु सबसे अधिक तेजी से परिवर्तन जन्म के पूर्व के अवस्था में होता है। इस
अवस्था में होनेवाले परिवर्तन विकास के उन्हीं नियमों का अनुसरण करते हैं, जिनका अनुसरण
जन्म के बाद होने वाले विकास करते हैं।
          हरलॉक ने कहा है―”विकास अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है। इसके बजाय इसमें
प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के
परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती है।”
        विकास में होनेवाले परिवर्तनों के प्रकार-विकास-सम्बंधी परिवर्तन मुख्य रूप से चार
प्रकार के होते हैं:
(i) आकार में परिवर्तन
(ii) परिमाप में परिवर्तन
(iii) पुरानी आकृतियों का लुप्त होना
(iv) नई आकृतियों की प्राप्ति।
1. परिवर्तनों का महत्व―उपयुक्त चारों प्रकार के परिवर्तनों पर दृष्टिपात करने से यह
स्पष्ट है कि बच्चा बड़ों का एक छोटा रूप नहीं है, वरन उनमें विशिष्ट गुण है, जिनके कारण
वह बड़ों से बिल्कुल भिन्न हैं। धीरे-धीरे वह विकास की विभिन्न जटिल अवस्थाओं को पार
कर व्यस्क का रूप धारण कर लेता है, परन्तु उसके विकास में परिवर्तन धीरे-धीरे निश्चित
और स्वाभाविक नियमों के अनुसार ही होता है। उसमें शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार
के परिवर्तन होते हैं, जिसके फलस्वरूप वह अपने भावी जीवन के समर्थ हो पाता है।
2. विकास की गति के नियम–बच्चों में विकास एकाएक नहीं हो जाता है। विकास
की गति क्रमिक, विधिवत तथा धीरे-धीरे होती है। बच्चों का विकास परिपक्वता, शिक्षा,
वातावरण, पौष्टिक भोजन तथा वातावरण के द्वारा होता है। अगर बच्चों को ये चीजें समुचित
रूप से नहीं मिली तो उनका आयु के अनुसार शारीरिक वर्द्धन तो होगा किन्तु उचित रूप
से विकास नहीं हो सकेगा, अर्थात् उनके विकास में बाधा उत्पन्न हो जाएगी।
          विकास की गति को प्रभावित करनेवाले कारक-बच्चों के विकास को प्रभावित
करनेवाले मुख्य रूप से दो कारक हैं―
1. परिपक्वता
2. सीखना
1. परिपक्वता―परिपक्वता का अर्थ है मनुष्य के अन्दर मौजूद उन गुणों का विकास होना
जो वे अपने माता-पिता एवं अन्य पूर्वजों से ग्रहण करते हैं। परिपक्वता के कारण जिन गुणों
का आर्विभाव होता है वे एकाएक आते हैं जैसे-ज्यों ही बच्चे युवावस्था को प्राप्त करते हैं
उनके चेहरे पर एकाएक बाल उग जाते हैं और उनकी बोली भी भारी हो जाती है। शारीरिक
परिवर्तन के साथ-साथ उनकी मनोवृत्ति में भी परिवर्तन हो जाता है, विशेषकर विषमलिंगियों
के प्रति उनकी मनोवृत्ति में काफी परिवर्तन हो जाता है। यही कारण है कि इस उम्र में लड़के
लड़कियों को और लड़कियाँ लड़कों की ओर आकर्षित होने लगते हैं।
2.सीखना―बच्चों के विकास को प्रभावित करनेवाला दूसरा कारण है-सीखना। बच्चों
की अपनी ही क्रियाओं द्वारा उनमें होनेवाले विकास प्रभावित होते हैं। अभ्यास के कारण बच्चों
की शारीरिक बनावट एवं उनके व्यवहारों में परिवर्तन होते हैं। बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक
विकास उसके जीव-कोष की बनावट पर निर्भर करता है। जैसा जीव-कोष होगा, बच्चे का
विकास भी वैसा ही होगा। फिर भी बच्चों की क्रियाएँ भोजन, अभ्यास, शिक्षा इत्यादि का
भी विकास गति पर काफी प्रभाव पड़ता है।
      विकास की विशेषताएँ―मानव-विकास की अनेक विशेषताएं हैं जो निम्नांकित हैं―
1. विकास एक विशिष्ट प्रणाली का अनुसरण करता है। विकास दो क्रमों का अनुसरण
करता है।
(i) मस्तकाधोमुखी क्रम
(ii) निकट दूरी का विकास-क्रम
2. सामान्य से विशिष्ट क्रिया की ओर विकास होता है।
3. अविराम गति से विकास होता है।
4. विकास की गति में होनेवाली वैयक्तिक विभिन्नताएं स्थायी ढंग की होती है।
5. शरीरों के विभिन्न अंगों का विकास भिन्न गति से होता है।
6. अधिकांश गुणों का विकास भिन्न गति से होता है।
7. विकास के सम्बंध में भविष्यवाणी करना संभव है।
8. प्रत्येक विकासात्मक अवस्था का अपना-अपना गुण होता है।
9. बहुत प्रकार के व्यवहार जिन्हें अनुचित समझा जाता है, जिस अवस्था-विशेष में पाये
जाते हैं, उस अवस्था के लिए सामान्य व्यवहार है।
10. प्रत्येक व्यक्ति सामान्यतः विकास को हर प्रमुख अवस्था से गुजरता है।
विकास को प्रभावित करने वाले बिन्दु―विकास को प्रणाली एवं इसको गति को प्रभावित
करने वाले अंग शरीर के अन्दर और बाहर भी पाये जाते हैं। शारीरिक विकास को प्रभावित
करने वाले मुख्य अंग हैं–भोजन, सामान्य स्वास्थ्य की स्थिति, सूर्य की रोशनी, स्वच्छ हवा
और जलवायु।
          शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास को प्रभावित करनेवाले अन्य कारण
निम्नांकित हैं―
(i) बुद्धि
(ii) यौन
(iii) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ
(iv) पोषाहार
(v) रोग तथा आघात
(vi) संस्कृति
(vii) परिवार में स्थान, आदि।

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