हड़प्पा संस्कृति : सिन्धु घाटी में काँस्य युगीन शहरीकरण
हड़प्पा संस्कृति : सिन्धु घाटी में काँस्य युगीन शहरीकरण
हड़प्पा संस्कृति : सिन्धु घाटी में काँस्य युगीन शहरीकरण
परिचय
पाकिस्तान इलाके वाले पंजाब के हड़प्पा में कांस्य युग की शहरी संस्कृति एक अग्रणी खोज थी । सन 1853 में एक महान उत्खननकर्ता और खोजी ब्रिटिश इंजीनियर ए. कनिंघम का ध्यान एक हड़प्पा मुहर पर गई। हालाँकि मुहर पर एक बैल
और छह अक्षर अंकित थे लेकिन वह इसके महत्व से अनभिज्ञ रहा। हड़प्पा स्थलों की
क्षमता की पहचान बहुत बाद में सन् 1921 में की गई, जब भारतीय पुरातत्वविद् दया राम
साहनी ने इसकी खुदाई शुरू की। उसी समय एक इतिहासकार आर.डी. बनर्जी ने सिन्ध
में मुहनजो-दड़ो स्थल की खुदाई की। दोनों ने मिलकर एक विकसित सभ्यता का सूचक
माने जाने वाले मिट्टी के बर्तनों और अन्य प्राचीन वस्तुओं की खोज को सम्भव बनाया। सन्
1931 में मार्शल के सामान्य पर्यवेक्षण में बड़े पैमाने पर मुहनजो-दड़ो की खुदाई की गई।
सन् 1938 में मेके ने उसी जगह की खुदाई की। सन् 1940 में वत्स ने हड़प्पा में खुदाई
की। सन् 1946 में मोर्तिमेर व्हीलर ने हड़प्पा में खुदाई की। स्वतन्त्रता पूर्व और विभाजन
पूर्व काल में की गई खुदाई ने हड़प्पा संस्कृति के विभिन्न स्थलों की प्राचीन वस्तुओं को
प्रकाश में लाया जहाँ काँसे का इस्तेमाल किया गया था।
स्वातन्त्र्योत्तर काल में भारत और पाकिस्तान के पुरातत्वविदों ने हड़प्पा और इससे
जुड़े स्थलों की खुदाई की। सूरज भान, एम.के. धावलीकर, जे.पी. जोशी, बी.बी. लाल
एस.आर. राव, बी.के. थापर, आर.एस. बिष्ट और अन्य ने गुजरात, हरियाणा और
राजस्थान में काम किया।
हकरा और पूर्व हकरा संस्कृतियों की तरफ एम.आर. मुगल ने काफी ध्यान दिया।
पाकिस्तान में एफ.ए. खान ने मध्य सिन्धु घाटी में कोट दिजी की खुदाई की और
ए.एच. दानी ने पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती प्रान्त में गान्धार की कब्रों की
स्थानों पर काम किया।
अब हमारे पास हड़प्पा पर्याप्त समृद्ध सामग्री है हालाँकि उत्खनन और खोज अभी भी
प्रगति पर है। सभी विद्वान हड़प्पा संस्कृति के शहरीकरण के रूप में विकसित होने पर
एकमत हैं, लेकिन हकरा-घग्घर नदी के साथ पहचानी गई सरस्वती की भूमिका और इस
संस्कृति के निर्माण करने वाले लोगों के बारे में अलग-अलग राय है। इस अध्याय मैं इस
पर आगे चलकर विचार किया जाएगा।
सिन्धु या हड़प्पा संस्कृति ताम्र-पाषाण संस्कृतियों से पुरानी है। जिसका अवलोकन पहले
ही हो चुका है लेकिन काँस्य का उपयोग करने वाली संस्कृति के रूप में यह बाद की तुलना
में कहीं अधिक विकसित था। यह भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग में विकसित
हुआ। इसे हड़प्पा कहा जाता है, क्योंकि यह सभ्यता पहली बार सन् 1921 में पाकिस्तान
के पंजाब प्रान्त में स्थित आधुनिक स्थल हड़प्पा में खोजी गई थी। सिन्ध के कई क्षेत्र पूर्व-
हड़प्पा संस्कृति के मुख्य क्षेत्र बने। यह संस्कृति शहरी सभ्यता में विकसित और परिपक्व
हुई, जिसका विकास सिन्ध और पंजाब में हुआ। इस परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का मुख्य
क्षेत्र सिन्ध और पंजाब में मुख्यत: सिन्धु घाटी में था। वहाँ से यह दक्षिण और पूर्व की ओर
फैली। इस तरह हड़प्पा संस्कृति पंजाब, हरियाणा, सिन्ध, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान
और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किनारे थी। यह उत्तर में शिवालिक से दक्षिण में अरब समुद्र
तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरन तट से उत्तर-पूर्व में मेरठ तक फैला था। समुद्री
किनारों ने एक त्रिभुज जैसे स्थान का गठन किया जो लगभग 12.966 लाख वर्ग किलोमीटर
में फैला हुआ था। जो कि पाकिस्तान की तुलना में बड़ा क्षेत्र है और प्राचीन मिस्र और
मेसोपोटामिया की तुलना में तो निश्चय ही बड़ा है। ई.पू. तीसरी और दूसरी सहस्राब्दि में
दुनिया भर में कोई अन्य संस्कृति क्षेत्र हड़प्पा जितना व्यापक नहीं था।
पूरे उपमहाद्वीप में अभी तक लगभग 2800 हड़प्पा स्थलों की पहचान की गई है। वे
हड़प्पा संस्कृति के शुरुआती चरण, विकसित अवस्था और अन्तिम चरणों से सम्बन्धित
हैं। विकसित चरण के स्थलों में दो सबसे महत्वपूर्ण शहर थे। पंजाब में हड़प्पा और सिन्ध
में मुहनजो-दड़ो (जिसका शाब्दिक अर्थ है मुर्दो का टीला) दोनों पाकिस्तानी हिस्से में है।
वे 483 किलोमीटर दूर स्थित सिन्धु से जुड़े हुए थे। सिन्ध में मुहनजो-दड़ो से लगभग 130
किलोमीटर दूर एक तीसरा शहर चान्हु-दरो में और खम्भात की खाड़ी के सिरहाने गुजरात
के लोथल में चौथा शहर है। पाँचवाँ शहर उत्तरी राजस्थान में कालीबंगा में है, जिसका
मतलब है काली चूड़ियाँ। छठा शहर बनावली, हरियाणा के हिसार जिले में स्थित है। यहाँ
कालीबंगा की तरह दो सांस्कृतिक चरण मिलते हैं, पूर्व-हड़प्पा और हड़प्पा। ये हड़प्पा
काल की मिट्टी की ईंटों से बने चबूतरे, सड़कों और नालियों के अवशेषों से सम्बन्धित
स्वरूप को दर्शाते हैं। हड़प्पा संस्कृति का विकसित और समृद्ध स्तर इन सभी छह स्थलों
पर देखने को मिलता है। सुतकजेण्डर (suckagendor) और सुरकोतड़ा (surkotada) के
तटीय शहरों में भी इसके प्रमाण दिखते हैं। इन शहरों की पहचान गढ़ से होती है। बाद में
हड़प्पा काल के संकेत गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप के रंगपुर और रोजड़ी में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त गुजरात के कच्छ इलाके में बसे धौलावीरा में हड़प्पा दुर्ग और हड़प्पा
संस्कृति के सभी तीन चरण दिखते हैं। ये चरण राखीगढ़ी में भी मिलते हैं जो हरियाणा के
घग्घर में स्थित है और धौलावीरा से बहुत बड़ा है।
तुलनात्मक तौर पर धौलावीरा 50 हेक्टेयर में फैला है जबकि हड़प्पा 150 हेक्टेयर और
राखीगढ़ी 250 हेक्टेयर में है। हालाँकि, सबसे बड़ा स्थल मुहनजो-दड़ो 500 हेक्टेयर में
फैला है। प्राचीन समय में बाढ़ से इस शहर का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह नष्ट हो गया था।
शहर योजना और संरचनाएँ
हड़प्पा संस्कृति की पहचान शहर योजना व्यवस्था से की जाती है। हड़प्पा और मुहनजो-
दड़ो दोनों की मुख्य पहचान गढ़ या टीले के रूप में थी। सम्भवत: यह शासक वर्ग के
सदस्यों द्वारा कब्जा कर लिया गया था। प्रत्येक शहर में गढ़ के नीचे ईंट के घरों वाला एक
निचले शहर हैं जो आम लोगों द्वारा बसाए गए थे। शहरों के इन आवासीय व्यवस्थाओं की
विशेषता यह है कि वे एक खास संरचनात्मक प्रणाली का पालन करते हुए बनाए गए थे,
जिसमें सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं। ढाँचे के मामले में मुहनजो-दड़ो,
हड़प्पा से ज्यादा विकसित था। शहरों के स्मारक, शासक-वर्ग द्वारा जुटाए गए संगठित
श्रमिकों और कर-संचय सम्बन्धी क्षमता के प्रतीक हैं। ईंटों की विशाल निर्मिति आम लोगों
पर शासकों की प्रतिष्ठा और प्रभाव स्थापित करने का एक साधन थी।
मुहनजो-दड़ो का सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थान महान स्नानागार है। जिसमें तालाब
शामिल हैं जो गढ़ों के टीलों में स्थित हैं। यह ईंटों की खूबसूरत निर्मिति का बेहतरीन
उदाहरण है। इसकी माप 11.88 x 7.01 मीटर और गहराई 2.43 मीटर है। तालाब की
दोनों ओर से सतह पर चढ़ने की व्यवस्था थी और कपड़े बदलने के लिए किनारे में कमरे
थे। स्नानागार की फर्श पकी ईंटों की बनी थी। बगल के कमरे में विशाल कुएँ से पानी
खींचा जाता था और स्नानगार के कोने से नाली निकलती थी। ऐसा मानना है कि स्नानागार
मुख्य रूप से धार्मिक स्नान के लिए था। जो भारत में किसी भी धार्मिक समारोह के लिए
बहुत महत्वपूर्ण है। धौलावीरा में पाए जाने वाले बड़े तालाब की तुलना बड़े स्नानागार से
की जा सकती है। धौलावीरा तालाब का इस्तेमाल शायद उसी उद्देश्य के लिए किया गया
था। जिसके लिए मुहनजो-दड़ो के स्नानागार का उपयोग किया जाता था।
मुहनजो-दड़ो में सबसे बड़ा भवन 45.71 मीटर लम्बा और 15.23 मीटर चौड़ा एक
अन्न-भण्डार है। हालाँकि हड़प्पा के गढ़ में हम छह भण्डार पाते हैं। ईंटों के चबूतरे
की एक श्रृंखला ने दो पंक्तियों में छह भण्डारों का आधार बनाया। प्रत्येक भण्डार
15.23 x 6.09 मीटर का था और नदी के पास ही था। बारह इकाइयों की संयुक्त फर्श
लगभग 838 वर्ग मीटर की थी। यह लगभग उतने ही क्षेत्र में थी, जितने में मुहनजो-दड़ो का
विशालकाय अन्नागार है। हड़प्पा में अन्नागारों के दक्षिण में ईंटों के कामचलाऊ वृत्ताकार चबूतरों की श्रृंखला थी। यह स्पष्टतः अनाज तैयार करने के लिए थे क्योंकि गेहूँ और जौ
फर्श की दरारों में पाए गए थे। हड़प्पा में दो कमरों की छावनी भी थीं, जिसमें सम्भवतः
मजदूर रहते थे।
कालीबंगा के दक्षिणी हिस्से में भी ईंटों के चबूतरे हैं, जिसका इस्तेमाल अन्नागार के
लिए हुआ होगा। अत: ऐसा लगता है कि हड़प्पा के शहरों में अन्नागारों ने एक महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई।
हड़प्पा शहरों में पकी ईंटों का इस्तेमाल बेजोड़ है। क्योंकि मिस्र की समकालीन इमारतों
में मुख्यतः सूखी ईंटों का इस्तेमाल किया जाता था। हम समकालीन मेसोपोटामिया में
पकी ईंटों का उपयोग पाते हैं लेकिन हड़प्पा के शहरों में इनका इस्तेमाल उससे कहीं
अधिक हुआ।
मुहनजो-दड़ो की जलनिकासी प्रणाली बहुत प्रभावशाली थी। लगभग सभी शहरों में
हर घर चाहे वे बड़े हों या छोटे सब में अपना आँगन और स्नानागार होता था। कालीबंगा
में कई घरों में अपने कुएँ थे। नाली से घरों का पानी सड़कों पर निकलता था। कभी-कभी
इन नालियों को पत्थर के पाटों या ईंटों से ढक दिया जाता था। बनावली में भी सड़कों और
नालियों के अवशेष पाए गए हैं। कुल मिलाकर घरेलू स्नानागार और नालियों की गुणवत्ता
उल्लेखनीय है और हड़प्पा की जलनिकासी व्यवस्था अनूठी है। शायद ही किसी अन्य
काँस्ययुगीन सभ्यता ने स्वास्थ्य और स्वच्छता पर इतना ध्यान दिया, जितना कि हड़प्पा
के लोगों ने दिया।
कृषि
तुलनात्मक रूप से बहुत कम वर्षा वाला सिन्धु प्रदेश आज बहुत उपजाऊ नहीं है लेकिन
अतीत के समृद्ध गाँव और कस्बों से यह प्रमाणित होता है कि यह प्राचीन समय में उपजाऊ
था। आज वर्षा लगभग 15 सेंटीमीटर है लेकिन ई.पू. चौथी शताब्दी में एलेक्जेण्डर
के इतिहासकारों में से एक की सूचनानुसार सिन्धु भारत का एक उपजाऊ हिस्सा था।
पहले के समय में सिन्धु क्षेत्र में अधिक प्राकृतिक वनस्पति थी, जो बारिस कराने में
भूमिका अदा करती थी। इससे ईंटें पकाने एवं उसे कठोर बनाने के लिए लकड़ी की
आपूर्ति होती थी। कृषि के विस्तार और बड़े पैमाने पर चरागाह और ईंधन की आपूर्ति
से समय के साथ प्राकृतिक वनस्पति नष्ट हो गई। क्षेत्र की उर्वरता का इससे भी अधिक
महत्वपूर्ण कारण सिन्धु नदी का वार्षिक जलमग्न होना था जो कि हिमालय की सबसे
लम्बी नदी है। सुरक्षा के लिए ईंटों से बनी दीवारों से संकेत मिलता है कि बाढ़ एक
वार्षिक घटना थी। जैसे नील ने मिस्र का निर्माण कर वहाँ के लोगों की सहायता की,
उसी तरह सिन्धु नदी ने भी सिन्ध का निर्माण किया और सिन्धुवासियों को समृद्ध किया।
नवम्बर में सिन्धु के लोग बाढ़ के मैदानों में बीज बोते और अगली बाढ़ से पहले अप्रैल में अपनी फसल गेहूँ और जौ काट लेते थे। वहाँ कोई कुदाल या हल नहीं पाया गया
है, लेकिन कालीबंगा में पूर्व-हड़प्पा काल में मिले नालों से पता चलता है कि
काल के दौरान राजस्थान में खेतों की जुताई होती थी। हड़प्पा के लोगों ने शायद बैल
द्वारा खींचने वाले लकड़ी के हल का इस्तेमाल खेती में किया और इसके लिए ऊँटों
का भी इस्तेमाल हुआ होगा। फसलों की कटाई के लिए पत्थर की हँसिया का इस्तेमाल
किया गया होगा। जल-संग्रह के लिए बान्धों से घिरे गबरबन्द या नाला बलूचिस्तान और
अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों की एक विशेषता थी, लेकिन धारा या नहर का इस्तेमाल
सम्भवत: सिंचाई के लिए नहीं किया जाता था। हड़प्पा गाँव, जो ज्यादातर बाढ़ के मैदानी
के पास स्थित थे, केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि कस्बे के लोगों के लिए भी पर्याप्त
अनाज का उत्पादन करते थे। उन्होंने अपनी आवश्यकताओं के साथ-साथ कारीगरों,
व्यापारियों और शहर में रहने वाले अन्य लोगों के लिए निश्चय ही कठोर श्रम किया
होगा। तथ्यत: वे खाद्य उत्पादन गतिविधियों के बारे में बहुत परेशान नहीं थे।
सिन्धु सभयता के लोगों ने गेहूँ, जौ, राई, मटर … जैसे खाद्य पदार्थों का उत्पादन किया।
तब तक दो प्रकार के गेहूँ और जौ उग चुके थे। बनावली में जौ की पर्याप्त मात्रा की खोज
की गई। इसके अलावा, तिल और सरसों उपजाए जाते थे। हालाँकि, लोथल में हड़प्पा-
लोगों की स्थिति भिन्न मालूम होती है। ऐसा लगता है कि ई.पू. 1800 के पहले, लोथल
के लोग धान उपजाते थे, जिसके अवशेष पाए गए हैं। मुहनजो-दड़ो और हड़प्पा और
सम्भवत: कालीबंगा में भी, बड़े-बड़े अन्नागारों में अनाज संग्रह किया जाता था। सम्भवतः
किसानों से कर के रूप में अनाज प्राप्त किया जाता था। साथ ही आपात स्थिति पड़ने पर
या इसे मजदूरी के भुगतान के लिए संग्रह किया जाता था। यह सादृश्यानुमान मेसोपोटामिया
के शहरों से लगाया जा सकता है; जहाँ मजदूरी के रूप में जौ दिया जाता था। सिन्धु के
लोग कपास का उत्पादन करने वाले सबसे पहले लोग थे और इस वजह से यूनानियों ने
इस क्षेत्र को सिन्धन नाम दिया जो सिन्ध से लिया गया है।
पशुपालन
हालाँकि हड़प्पा के लोगों ने खेती भी की और बड़े पैमाने पर पशुपालन भी किया। बैल,
भैंस, बकरियाँ, भेड़ और सूअरों का पालन किया गया। कूबर वाले ऊँट और बैलों को
हड़प्पा के लोगों ने पसन्द किया। शुरू से ही कुत्ते और बिल्लियों के प्रमाण मिलते हैं। गधे
एवं ऊँट भी पाले गए थे निश्चय ही इनका उपयोग बोझ उठाने और ऊँट को खेतों में जुताई
के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था। सतही तौर पर घोड़े का सबूत मुहनजो-दड़ो और
लोथल के एक सन्दिग्ध टेराकोटा मूर्ति से मिलता है। एक घोड़े के अवशेष, पश्चिम गुजरात
में स्थित सुरकोतडा से मिला है जो ई.पू. 2000 के आस-पास का है। लेकिन इसकी पहचान
सन्दिग्ध है। किसी भी हाल में हड़प्पा संस्कृति घोड़ों पर केन्द्रित नहीं थी। प्रारम्भिक और विकसित हड़प्पा संस्कृतियों में न तो घोड़े की हड्डियाँ पाई गई न ही इसके कोई अस्तित्व
पाए गए। हड़प्पा के लोग हाथी से अच्छी तरह परिचित थे, वे गैण्डे से भी परिचित थे।
मेसोपोटामिया के समकालीन सुमेरियाई शहरों ने हड़प्पा के लोगों की तरह ही वस्तुत: समान
रूप से अनाज का उत्पादन और जानवरों का पालन किया। लेकिन गुजरात के हड़प्पा के
लोगों ने धान की खेती की और हाथी पाला, मेसोपोटामिया में ऐसा नहीं था।
कारीगरी और शिल्प
सिन्धु क्षेत्र में कस्बों का उदय कृषि संचय, काँस्य के औजारों के निर्माण के अलावा अन्य
शिल्प तथा व्यापक तौर पर व्यापार एवं वाणिज्य पर आधारित था। इसे भारत में प्रथम
शहरीकरण के रूप में जाना जाता है। हड़प्पा की शहरी संस्कृति काँस्य युग से सम्बन्धित है।
हड़प्पा के लोग पत्थरों के कई औजारों का इस्तेमाल करते थे, लेकिन वे काँस्य के निर्माण
और उपयोग से भी परिचित थे। आम तौर पर ताम्बे के साथ टिन के मिश्रण से काँस्य बनाया
जाता था, लेकिन इस उद्देश्य के लिए वे कभी-कभी ताम्बे के साथ आर्सेनिक भी मिलाते
थे। चूँकि हड़प्पा में आसानी से न तो टिन उपलब्ध थे, न ताम्बे; इसलिए इस क्षेत्र में कांस्य
के औजारों का विस्तार नहीं हुआ। अयस्कों की अशुद्धता दर्शाती है कि ताम्बे को राजस्थान
के खेतड़ी ताम्बा खानों से प्राप्त किया गया था। हालाँकि इसे बलूचिस्तान से भी लाया जा
सकता है। सम्भवत: टिन को अफगानिस्तान से कठिनाई के साथ लाया गया था, भले ही
इसके पुराने कार्य हजारीबाग और बस्तर में पाए गए हैं। हड़प्पा स्थलों से बरामद हुए काँस्य
उपकरण और हथियारों में कुछ प्रतिशत टिन के भी पाए गए हैं। हालाँकि, काँसे के सामानों
को बनाने में उपयोग आने वाले जितने सामान हड़प्पा ने छोड़े, उससे यह पता चलता है
कि हड़प्पा समाज में काँस्य कारीगरों का महत्वपूर्ण समूह था। उन्होंने न केवल मूर्तियों और
बर्तनों का उत्पादन किया, बल्कि कुल्हाड़ी, आरी, चाकू और भाले जैसे विभिन्न उपकरण
और हथियारों का भी उत्पादन किया।
हड़प्पा कस्बों में कई अन्य महत्वपूर्ण हस्तशिल्प विकसित हुए। बुने हुए कपास का
एक टुकड़ा मुहनजो-दड़ो से मिला है और कई वस्तुओं पर कपड़ों के निशान पाए गए हैं।
धुनाई यन्त्र का उपयोग कताई के लिए किया गया था। बुनकर ऊन और कपास का कपड़ा
बुनते थे। ईंटों की विशाल संरचना, ईंट-निर्माण-शिल्प के महत्वपूर्ण होने का प्रमाण है और
यह राजमिस्त्री वर्ग के अस्तित्व का भी प्रमाण है। हड़प्पा के लोग नाव भी बनाते थे, आगे
इस बात का वर्णन है। मुहर निर्माण और टेराकोटा निर्माण भी महत्वपूर्ण शिल्प थे। सोनार,
सोने, चाँदी और बहुमूल्य पत्थरों के गहने बनाते थे। पहली दो सामग्रियाँ अफगानिस्तान से
प्राप्त होती थीं और अन्तिम दक्षिण भारत से। हड़प्पा के लोग मटका निर्माण के विशेषज्ञ थे।
कुम्हार के पहिये का काफी उपयोग किया गया था। हड़प्पा ने चमकदार, चमचमाते मिट्टी
के बर्तनों का उत्पादन किया जो उनकी विशेषता थी।
व्यापार एवं वाणिज्य
सिन्धु लोगों के जीवन में व्यापार के महत्व की जानकारी न केवल हड़प्पा, मुहनजो-दड़ो
और लोथल में पाए जाने वाले भण्डारों से मिलती है बल्कि कई मुहरों, एक जैसी लिपि
और एक व्यापक क्षेत्र में फैले नियमित वजन और माप से भी मिलती है। सिन्धु संस्कृति
के अन्तर्गत, हड़प्पा समूह ने पत्थर, धातु, खाल आदि का काफी व्यापार किया। हालाँकि
उनके शहरों में उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के लिए आवश्यक कच्चा माल नहीं था। वे
धातु के पैसे का उपयोग नहीं करते थे और वस्तु-विनिमय प्रणाली द्वारा आदान-प्रदान करते
थे। तैयार माल और सम्भावित अनाज के बदले वे नाव (अरब समुद्र के तट पर रास्ता ढूँढते
हुए) और बैलगाड़ी के साथ पड़ोसी क्षेत्रों से धातु खरीदते थे। वे पहियों का उपयोग जानते
थे। हड़प्पा में ठोस पहियों वाली गाड़ियाँ उपयोग में थीं। प्रतीत होता है कि हड़प्पा ने बिना
स्पोक वाले पहिये के आधुनिक एक्के के स्वरूप का इस्तेमाल किया।
हड़प्पा का व्यावसायिक सम्बन्ध राजस्थान, अफगानिस्तान और ईरान के साथ था।
उन्होंने उत्तरी अफगानिस्तान में एक व्यापार कॉलोनी की स्थापना की, जिससे मध्य एशिया
के साथ व्यापार करने में मदद मिली। उनके इस शहर में टाइगरिस नदी और यूफ्रेट्स
महानद घाटी के लोगों के साथ व्यावसायिक सम्बन्ध थे। मेसोपोटामिया में कई हड़प्पा मुहर
की खोज की गई है और प्रतीत होता है कि हड़प्पा ने मेसोपोटामिया के शहरी लोगों द्वारा
उपयोग किए जाने वाले कुछ सौन्दर्य प्रसाधनों की नकल भी की।
हड़प्पा ने लापीस लजुली क्षेत्र में दूर-दूर तक व्यापार किया। लापीस की बनी वस्तुओं
ने शासक वर्ग की सामाजिक प्रतिष्ठा में योगदान दिया। मेसोपोटामिया दस्तावेज के अनुसार
ई.पू. 2350 के आस-पास से मेलुहा (सिन्धु क्षेत्र का प्राचीन नाम) के साथ व्यापार सम्बन्धों
के संकेत मिलते हैं। मेसोपोटामिया ग्रन्थों में दिलमुन और मकन नामक दो मध्यवर्ती
व्यापारिक स्टेशन का उल्लेख है, जो मेसोपोटामिया और मेलुहा के बीच हैं। दिलमुन
सम्भवतया फ़ारसी खाड़ी पर बहरीन के रूप में पहचाना जा सकता है। उस बन्दरगाह वाले
शहर में हजारों कब्रों के उत्खनन की आवश्यकता है।
सामाजिक संगठन
खुदाई से शहरी आवास के पदानुक्रम का पता चलता है। हालाँकि हड़प्पा शहर के सिर्फ
दो ही इलाके को शहर की मान्यता मिली जबकि इसकी स्थानीय संरचना तीन इलाकों में
शहरीकरण का प्रमाण देती है। जिसमें बाद में कालीबंगा और धौलावीरा को भी शामिल
किया गया। गढ़ या पहला इलाका वह था जहाँ शासक वर्ग रहते थे और सबसे निचले स्थान
पर आम लोग रहते थे। बीच का आवास नौकरशाहों और मध्यवर्गीय व्यापारियों के लिए
होता था। हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि बस्तियों में पदानुक्रम काम के आधार पर था या सामाजिक-आर्थिक भेदभाव के आधार से जुड़ा हुआ था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि
एक ही शहर में विभिन्न आवास समूहों के घर थे, जो समान आकार के नहीं थे। विभिन्न
आवासीय संरचनाओं से सामाजिक भेदभाव के संकेत मिलते हैं, जिसमें एक से बारह तक
कमरों की संख्या होती थी। हड़प्पा शहर में जो दो कमरे वाले घर थे, वे सम्भवत: कारीगरों
और मजदूरों के लिए होते थे।
राजनीति
हड़प्पा संस्कृति एक बड़े क्षेत्र में कमोवेश समान दिखती है। स्पष्टत: यह किसी सत्तासीन
शक्ति द्वारा संचालित होती रही होगी। हम सिन्धु घाटी में राज्य के कुछ महत्वपूर्ण तत्वों
की पहचान कर सकते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सम्प्रभुता, मन्त्रिगण, आबादी युक्त
क्षेत्र, किला, राजकोष, शक्ति और बन्धुत्व को राज्य का अभिन्न अंग माना गया है। हड़प्पा
संस्कृति में गढ़ सम्भवत: प्रभुत्व-सम्पन्न सत्ता का केन्द्र होता था। उस क्षेत्र के मध्य शहर
में नौकरशाहों या सरकारी मुलाजिमों की गद्दी होती थी और मुहनजो-दड़ो का विशाल
अन्नागार ही खजाना या राजकोष होता था। ऐसा लगता है कि कर के रूप में अनाज एकत्र
किया जाता था। पूरा हड़प्पा क्षेत्र एक अच्छी आबादी वाला क्षेत्र था। किलाबन्दी कई शहरों
की विशेषताएँ होती थीं। धौलावीरा में विशेषकर, किलों के अन्दर किले होते थे। यद्यपि
किसी संगठित बल या स्थाई सेना का कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है, लेकिन बिखरे हुए पत्थरों
के ढेर लगाने से और सुरकोतड़ा के बर्तनों में सैनिक के चित्रण से स्थाई सेना का अनुमान
लगता है। हर हाल में हड़प्पा के दौर में व्यवस्थित राज्य स्थापित हो चुका था।
मिस्र और मेसोपोटामिया के विपरीत किसी भी हड़प्पा स्थल पर कोई मन्दिर नहीं मिला
है। महान स्नानागार के अलावा किसी भी प्रकार के धार्मिक ढाँचे की खुदाई नहीं हुई है, यह
स्नानागार सम्भवत: धार्मिक स्नान के लिए प्रयोग किया जाता रहा हो। इसलिए, यह कहना
गलत होगा कि पुजारियों ने हड़प्पा में शासन किया जैसे वे मेसोपोटामिया के निचले शहरों
में करते थे। हड़प्पा के शासक किसी पर विजय पाने के मुकाबले वाणिज्य के लिए ज्यादा
चिन्तित थे और हड़प्पा सम्भवत: व्यापारियों के एक वर्ग द्वारा शासित था। हालाँकि, हड़प्पा
में कोई हथियार नहीं था, जिसका मतलब यह हो सकता है कि हो न हो उन दिनों प्रभावी
योद्धा वर्ग की कमी रही हो।
धार्मिक परम्पराएँ
हड़प्पा में महिलाओं की कई टेराकोटा मूर्तियाँ मिली हैं। एक मूर्ति में एक महिला के भ्रूण
से
एक पौधे को उगते हुए दिखाया गया है। सम्भवत: यह छवि भूमि की देवी का संकेत देती
है। जिससे पौधों की उत्पत्ति और विकास का सम्बन्ध जुड़ा है। हड़प्पा ने धरती को प्रजनन की देवी के रूप में देखा और उसी तरह उसकी पूजा की। जैसे मिस्र ने नील देवी आइसिस
की पूजा की थी। हम नहीं जानते कि हड़प्पा के लोग मिस्र के लोगों की तरह मातृप्रधान हैं
या नहीं। मिस्र में बेटी सिंहासन या सम्पत्ति की उत्तराधिकारी बनती थी लेकिन हम हड़प्पा
समाज के विरासत व साशन की प्रकृति के बारे में नहीं जानते।
कुछ वैदिक ग्रन्थों में भूमि की देवी के लिए एक श्रद्धाभाव का संकेत मिलता है। हालांकि
उसे कोई प्रमुख स्थान नहीं दिया गया है। हिन्दू धर्म में बड़े पैमाने पर सर्वश्रेष्ठ देवी की पूजा
के विकास में बहुत समय लगा। पुराणों और तन्त्र साहित्य में वर्णित दुर्गा, अम्बा, काली
और चण्डी जैसी विभिन्न देवी माता के संकेत छठी शताब्दी से मिलते हैं। उस दौरान हर
गाँव की अपनी अलग देवी थी।
सिन्धु घाटी में पुरुष देवता
नर देवता मुहरों पर अंकित हैं। इस देवता के तीन सींग वाले सिर हैं, जिसमें वह योगी की
मुद्रा में एक पैर दूसरे पैर पर चढ़ाकर बैठा है। इस देवता के पास एक हाथी, एक शेर, एक
गैण्डा और सिंहासन के नीचे एक भैंस है। इसके पैर के नीचे दो हिरण हैं। चित्रित देवता
को पशुपति महादेव के रूप में पहचाना जाता है। लेकिन यह पहचान सन्दिग्ध है, क्योंकि
यहाँ बैल को चित्रित नहीं किया गया है और सींग वाले देवता अन्य प्राचीन सभ्यताओं में
भी दिखाई पड़ते हैं। हमें पुरुष लिंग की पूजा भी देखने को मिलती है, जो बाद के समय में
शिव के साथ जोड़कर देखी जाने लगी। हड़प्पा में पत्थरों से बने पुष्प और स्त्री गुप्तांगों के
कई प्रतीक पाए गए हैं। सम्भवतः ये पूजा के लिए थे। ऋग्वेद में आर्येतर लोगों द्वारा पुरुष
लिंग की पूजा का उल्लेख है। इस प्रकार हड़प्पा काल में पुरुष लिंग की पूजा शुरू हुई जिसे
बाद में हिन्दू समाज में एक सम्मानजनक रूप में देखा गया।
वृक्ष और पशु पूजा
सिन्धु क्षेत्र के लोग पेड़ों की भी पूजा करते थे। एक मुहर पर पीपल की शाखाओं के बीच
एक देवता का चित्र मिलता है। आज भी इस पेड़ की पूजा होती है। हड़प्पा काल में भी
जानवरों की पूजा होती थी और उनमें से कई के चित्र मुहरों पर अंकित हैं। उनमें सबसे
महत्वपूर्ण एक सींग वाला जानवर है जिसकी पहचान गैण्डे के रूप में की गई है। उसके
बाद कूबड़ वाला बैल है। आज भी जब ऐसा बैल सड़कों से गुजरता है, तो धार्मिक हिन्दू
रास्ता दे देते हैं। इसी प्रकार ‘पशुपति महादेव’ के आस-पास के जानवरों से संकेत मिलता
है कि इनकी पूजा होती थी। जाहिर है कि सिन्धु क्षेत्र के निवासियों ने पेड़ों, जानवरों और
मनुष्यों के रूप में देवताओं की पूजा की, लेकिन देवताओं को मन्दिरों में नहीं रखा गया। यह
मन्दिरों वाली प्रथा प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में आम थी। हड़प्पा के धार्मिक विश्वासों के बारे में उनकी लिपि को पढ़े बिना कुछ भी कहना मुनासिब नहीं है। ताबीज बड़ी संख्या
में पाए गए हैं। सामान्यतः हड़प्पा के लोग भूत और बुरी ताकतों पर विश्वास करते थे और
इसलिए उन्होंने उनसे बचने के लिए ताबीज का इस्तेमाल किया। अनार्यों की परम्परा से
सम्बद्ध अथर्ववेद में कई जादुई मन्त्र शामिल हैं, जिनमें रोगों और बुरी ताकतों से बचाव के
लिए ताबीज के इस्तेमाल की सलाह है।
हड़प्पा लिपि
हड़प्पा के लोगों ने प्राचीन मेसोपोटामिया के लोगों की तरह लेखन की कला का आविष्कार
किया। यद्यपि हड़प्पा लिपि की खोज सन् 1853 में हुई और सम्पूर्ण लिपि की खोज सन्
1923 में पूरी हुई, हालाँकि अभी तक इसकी व्याख्या नहीं हुई है। कुछ विद्वानों ने इसे
प्रोटो-द्रविड़ भाषा या द्रविड़ियन के साथ जोड़ा, कुछ ने संस्कृत के साथ और अन्य विद्वानों
ने सुमेरियाई भाषा के साथ जोड़ने का प्रयास किया। लेकिन इनमें से कोई भी अध्ययन
सन्तोषजनक नहीं है। चूंकि लिपि की व्याख्या नहीं हो पाई है, इसलिए हम न तो साहित्य
में हड़प्पा के योगदान का मूल्यांकन कर सकते हैं, न ही उनके विचारों और विश्वासों के
बारे में कुछ कह सकते हैं।
पत्थर की मुहरों और अन्य वस्तुओं पर हड़प्पा लेखन के लगभग 4000 नमूने हैं। मिस्र
और मेसोपोटामिया के विपरीत, हड़प्पा ने लम्बे समय तक शिलालेख नहीं लिखा था।
अधिकांश अभिलेख मुहर पर दर्ज थे और उनमें कुछ ही शब्द होते थे। इन मुहरों का उपयोग
धनाढ्य-वर्ग अपनी सम्पत्ति को चिह्नित करने के लिए करते थे। कुल मिलाकर हमारे पास
लगभग 250 से 400 चित्रलेख हैं और एक तस्वीर के रूप में इसके प्रत्येक अक्षर से कुछ
ध्वनि, विचार या वस्तु का अर्थ स्पष्ट होता है। हड़प्पा लिपि वर्णमाला के अनुसार नहीं
है, यह एक चित्रकारी के रूप में है। मेसोपोटामिया और मिस्र की समकालीन लिपियों के
साथ इसकी तुलना करने के प्रयास हुए हैं, लेकिन यह सिन्धु क्षेत्र में निर्मित होने के कारण
पश्चिमी एशिया की लिपियों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं दर्शाते हैं।
माप-तौल
निजी सम्पत्ति के अभिलेखीकरण और बही खातों के लेखा-जोखा में निश्चय ही लिपि ज्ञान
मददगार साबित हुआ होगा। सिन्धु क्षेत्र के शहरी लोगों को भी व्यापार और अन्य लेन-देन
के लिए वजन और मापन की आवश्यकता थी। वजन के रूप में कई अभिलेख पाए
गए हैं, तदनुसार मापन हेतु मोटे तौर पर 16 या उसके गुणकों का उपयोग किया गया
था-उदाहरणार्थ 16, 64, 160, 320 और 640 आदि। दिलचस्प है कि 16 की परम्परा
भारत में आधुनिक समय तक जारी रही और 16 आने का मतलब एक रुपया होता था। हड़प्पा के लोग भी माप की कला को जानते थे। माप के निशान के साथ अंकित छड़ पाए
गए हैं और इनमें से एक काँस्य का बना है।
हड़प्पा बर्तन
हड़प्पा के कुम्हारों को पहिये के उपयोग की विशेषज्ञता हासिल थी। खोजे गए सभी नमूने
लाल हैं, इसमें डिश-ऑन-स्टैण्ड (नीचे से आधारयुक्त तस्तरी) भी शामिल हैं। विभिन्न
प्रकार के बर्तनों को अलग-अलग डिजाइन से पेंट भी किया गया है। सामन्यतया हड़प्पा के
बर्तनों पर पेड़ों और वृत्तों के चित्र होते थे, कुछ बर्तनों पर पुरुषों की छवि भी चित्रित है।
मुहर और मुद्रण
हड़प्पा संस्कृति की सबसे बड़ी कलात्मक रचनाएँ मुहर हैं। लगभग 2000 मुहरें मिली
हैं, इनमें से अधिकांश पर एक सिंगी पशु, भैंस, बाघ, गैण्डे, बकरियाँ, हाथी, हिरण और
मगरमच्छ की छोटी-छोटी तस्वीरें अंकित हैं। मुहरें शैलखटी या चमकदार बेलबूटेदार पदार्थ
की बनी होती थी और शक्ति या अथार्टी के प्रतीक के रूप में काम करती थी। इसलिए उन्हें
मुद्रांकन के लिए इस्तेमाल किया गया था। हालांकि इसके विपरीत मिस्र और मेसोपोटामिया
में कुछ मुद्रांकित वस्तुएँ थीं, जिन्हें सीलिंग कहा जाता था। मुहरों को ताबीज के रूप में भी
इस्तेमाल किया जाता था।
मूर्तियाँ
हड़प्पा के कारीगरों ने धातुओं की खूबसूरत छवियाँ बनाईं। काँस्य-निर्मित एक महिला नर्तक
इसका सबसे अच्छा नमूना है और वह एक हार पहनने के अलावा, नग्न है। हड़प्पा काल
के पत्थर की मूर्ति के कुछ टुकड़े पाए गए हैं। शैलखटी की मूर्तियों को दाहिनी बाँह के नीचे
से बाएँ कन्धे पर ओढ़ने वाला एक सजा हुआ वस्त्र पहनाया गया है जो साल की तरह है
और सिर के पीछे बुने हुए बालों का जूड़ा बना हुआ है।
टेराकोटा मूर्तियाँ
मिट्टी की कई मूर्तियाँ आग में पकाई जाती थीं। जिन्हें आम तौर पर टेराकोटा कहा जाता है।
इन्हें खिलौने या पूजा की वस्तुओं के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। वे पक्षियों, कुत्ते,
भेड़, मवेशी और बन्दरों के संकेतक हैं। इन टेराकोटा की वस्तुओं में पुरुषों और महिलाओं
को भी बहुतायत में देखा जा सकता है जिनमें औरतों की मूर्तियां ज्यादा हैं। मुहरों और
छवियों का निर्माण बड़े कौशल से किया जाता था, लेकिन टेराकोटा के टुकड़े अनौपचारिक कलात्मकता के प्रतीक हैं। इनके बीच के अन्तर से उन वर्गों के बीच की खाई का पता
चलता है जो उनको इस्तेमाल करते थे। पहला ऊपरी वर्ग के सदस्यों द्वारा इस्तेमाल किया
जाता होगा और दूसरा आम लोगों द्वारा।
पत्थर का काम
हड़प्पा और मुहनजो-दड़ो में पत्थर का काम अधिक नहीं मिलता। क्योंकि इन दो महान
शहरों में पत्थर नहीं प्राप्त हो सके। हालाँकि, धौलावीरा और कच्छ में स्थिति अलग थी।
धौलावीरा का गढ़ पत्थर का बना है, यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य था और हड़प्पा के गढ़ों में
अब तक की सबसे प्रभावशाली खोज है। धौलावीरा में राजमिस्त्री के कामों में ईंटों के साथ
काटे गए पत्थर का उपयोग उल्लेखनीय है। धौलावीरा में लाश दफनाने में तीन प्रकार के
पत्थर की पट्टियों का उपयोग किया गया और इनमें से एक कब्र पर पत्थरों का घेरा बनाया
गया और उस पर मेगालिथिक पत्थरों का एक और घेरा बनाया गया है।
सिन्धु संस्कृति का अन्त
विकसित हड़प्पा संस्कृति आम तौर पर ई.पू. 2500 से 1900 के बीच मौजूद थी। प्रतीत
होता है कि उस पूरे अन्तराल की सम्पूर्ण जीवन शैली में समान उपकरण, औजार और घर
मौजूद थे। पूरी जीवन शैली एक समान थी : एक तरह की शहर योजना, एक जैसी मुहरें,
एक तरह के टेराकोटा और समान चमकीली लम्बी ब्लेड। हालाँकि यह एकरूपता वाले
दृष्टिकोण बहुत दूर तक नहीं जा सकते। मुहनजो-दड़ो काल में कुछ समय बाद बर्तनों में
परिवर्तन दिखते हैं। ई.पू. उन्नीसवीं सदी तक हड़प्पा संस्कृति के दो महत्वपूर्ण शहर हड़प्पा
और मुहनजो-दड़ो गायब हो गए। लेकिन अन्य स्थलों पर हड़प्पा संस्कृति धीरे-धीरे खत्म
हुई। गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहरी क्षेत्रों में ई.पू. 1500 तक
यह खत्म होते-होते जारी रही।
इस सांस्कृतिक पतन का कोई एक कारण ढूढ़ना मुश्किल है। पर्यावरण इसका महत्वपूर्ण
कारक हो सकता है। हड़प्पा क्षेत्र में यमुना और सतलज दोनों ई.पू. 1700 के आस-पास
सरस्वती या हकरा से दूर चली गई। अर्थात् जलापूर्ति में कमी हुई। इसी तरह उस दौरान वर्षा
कम हो गई। मुहनजो-दड़ो में बाढ़ के मद्देनजर, कुछ लोग सिन्धु में बाँध निर्माण की बात
करते हैं। ये कारक प्रतिकूल साबित हुए होंगे, लेकिन मानवीय गतिविधियों में असफलता
की अनदेखी नहीं की जा सकती।
ऐसा प्रतीत होता है कि मेसोपोटामिया के ज्यादा दूर होने के कारण समुद्री व्यापार
के अचानक अन्त से शिल्प की कला का व्यापार और वाणिज्य खत्म हो गया। लापीस
लाजुली, मोती इत्यादि राजशाही वस्तुओं का व्यापार मुख्य रूप से एलाम से होता था, जो मेसोपोटामिया की पूर्वी सीमा पर स्थित था और ईरान के एक महत्वपूर्ण हिस्से में फैला था।
ई.पू. 2000 के आस-पास एलाम के एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरने से हड़प्पन
सामग्री का मेसोपोटामिया में आयात-निर्यात बाधित हुआ। साथ ही हड़प्पन बस्तियों में
मेसोपोटामिया से टिन सहित अन्य वस्तुओं का भी आयात-निर्यात बाधित हो गया।
हड़प्पा क्षेत्र में कठोर पदार्थों, खासकर पत्थर के मोती, बनाए गए और बाहर भेजे गए।
मेसोपोटामिया के निर्यात में गिरावट से उनके कारीगरों की आजीविका में समस्या आई।
इसी तरह, सिन्धु घाटी में टिन की आपूर्ति बाधित होने से काँस्य बनाने वाले निपुण कारीगरों
को भी बड़ा झटका लगा।
मिट्टी के क्षरण से अनाज का उत्पादन कम हुआ और शहरी लोग भूख के शिकार हुए।
शिल्प और खेती पर नियन्त्रण स्थापित करने में शहरी अभिजात वर्ग की विफलता के कारण
हड़प्पा संस्कृति का ह्रास हुआ।
परिपक्वता
लगभग 2800 हड़प्पा स्थलों की पहचान हुई है। इनमें से प्राचीन और शहरी हड़प्पा के पूर्व
के सांस्कृतिक स्थलों की कुल संख्या आधे से अधिक है। विकसित हड़प्पा बस्तियों की
संख्या 1022 है; उनमें से 406 पाकिस्तान में स्थित हैं और 616 भारत में। यद्यपि विकसित
हड़प्पा स्थल, उनके कुल शहरी प्रकृति के कारण, प्राचीन और शहरी हड़प्पा पूर्व के स्थलों
से अधिक हैं। विकसित हड़प्पा स्थलों का कुल क्षेत्रफल प्राचीन और शहरी पूर्व स्थल की
तुलना में बड़ा है।
हड़प्पा शहर सुनियोजित विकास के प्रतीक हैं जबकि उसके समकक्ष मेसोपोटामिया एक
अनियोजित विकास को दर्शाता है। हड़प्पा शहरों में ईंटों से बने स्नानागारों, कुओं के साथ
सीढ़ियों वाले आयताकार घर पाए गए हैं लेकिन पश्चिमी एशिया के शहरों में ऐसा नगर
नियोजन स्पष्ट नहीं है। नोस में क्रेट के अलावा पुरातन काल में शायद ही कोई ऐसी उत्कृष्ट
जल निकास प्रणाली का निर्माण हुआ। पश्चिमी एशिया के लोग भी हड़प्पा के लोगों की
तरह पकी ईंटों के उपयोग में ऐसे कौशल नहीं दिखा पाए। हड़प्पा ने विशेष प्रकार की मिट्टी
के जरिए अपने खुद के बर्तनों और मुहरों का निर्माण किया और इससे भी आगे बढ़कर
उन्होंने अपनी लिपि का आविष्कार किया। जो न तो मिस्र से था, न ही मेसोपोटामिया
में। हड़प्पा की भाँति यहाँ इतने व्यापक क्षेत्र में कोई भी समकालीन संस्कृति नहीं पनपी।
उत्तर-शहरीकरण का काल
ई.पू. 1900 तक हड़प्पा संस्कृति विकसित हुई। इसके बाद इसकी व्यवस्थित नगरीय
योजना, ईंट के व्यापक उपयोग, लेखन की कला, मानक वजन और माप, गढ़ों एवं
तराई शहरों के बीच के अन्तर, काँसे के औजारों के उपयोग तथा काले रंग में चित्रित लाल-बर्तन इत्यादि का जो शहरीकरण दौर था उसकी शैलीगत एकरूपता लगभग गायब
हो गई। उत्तर-हड़प्पा में शहरी संस्कृति के पश्चात के कुछ लक्षण पाकिस्तान और मध्य
एवं पश्चिमी भारत के पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं। ऐसा ई.पू. 1900 से 1200 तक के काल में हुआ। हड़प्पा
संस्कृति के उत्तर-शहरी काल को उप-सिन्धु संस्कृति के रूप में भी जाना जाता है और इसे
उत्तर-हड़प्पा के रूप में माना जाता था लेकिन अब इसे उत्तर-शहरी हड़प्पा संस्कृति के
रूप में जाना जाता है।
उत्तर-शहरी हड़प्पा संस्कृतियाँ मुख्यत: पाषाणयुगीन थीं। जिसमें पत्थर और ताम्बे के
औजारों का इस्तेमाल किया गया था। उनके पास जटिल ढलाई से बनने वाली कोई धातु
की बनी जटिल वस्तुएँ नहीं थीं। हालाँकि उनके पास कुल्हाड़ी, छेनी, चाकू, चूड़ियाँ, टेढ़े
उस्तरे, मछली फँसाने की बन्सी और भाले थे। पाषाणयुगीन लोग उत्तर-शहरी चरण के
बाद गाँवों में रहते थे। वे कृषि, भण्डारण, शिकार और मछली पर निर्भर थे। सम्भवत:
ग्रामीण क्षेत्रों में धातु के कामों की कारीगरी के प्रसार ने कृषि और बस्तियों का प्रसार किया।
गुजरात के प्रभास पाटन (सोमनाथ) और रंगपुर जैसे कुछ स्थान हड़प्पा संस्कृति के प्रत्यक्ष
उदाहरण को दर्शाते हैं। हालाँकि, उदयपुर के पास अहर में कुछ हड़प्पा स्थल पाए गए
हैं।
। अहर संस्कृति के स्थानीय केन्द्र गिलुन्द में ई.पू. 2000 और 1500 के बीच ईंट की
संरचनाओं का उल्लेख मिलता है। शायद हरियाणा में भगवानपुर के अलावा उत्तर-हड़प्पा
चरण में अन्यत्र कहीं पकी ईंट नहीं मिली। हालाँकि, भगवानपुर में ईंट से सम्बन्धित डेटिंग
अनिश्चित है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुलन्दशहर जिले के लाल किला के ओसीपी स्थल पर
बिखरे हुए कुछ ईंट के टुकड़े मिलते हैं। हालाँकि, हमे इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि
अनुमानत: (किर्का/सी.) 1700 वर्षों से ई.पू. 1200 तक मालवा की ताम्र-पाषाण संस्कृति
में कुछ हड़प्पा कालीन तत्व पाए जाते हैं, जिसका सबसे बड़ा रहवास नवदोतोली में था।
तापी, गोदावरी और भीमा की घाटियों में पाए जाने वाले कई जोरवे स्थलों के बारे में भी
यही बात सच है। जोरवे का सबसे बड़ा निवास दैमाबाद है, जिसमें 4000 की सम्भावित
आबादी वाले 22 हेक्टेयर में फैला हुआ रहवास था। जिसे प्रोटो-शहरी माना जा सकता है।
हालाँकि, जोरवे की बस्तियों की एक बड़ी आबादी गाँवों में रहती थी।
पाकिस्तान के स्वात घाटी में कुछ उत्तर-शहरी हड़प्पा बस्तियां खोजी गई हैं। यहाँ के
लोग खेती और पशुपालन के विकसित स्वरूप का अभ्यास करते थे। वे धीमी गति की
चाक पर बने काले-भूरे रंग के पके हुए बर्तन का इस्तेमाल करते थे। ऐसे बर्तन उत्तरी
ईरानी पठार के ई.पू. तीसरी सहस्राब्दि और उसके बाद से मेल खाते हैं। स्वात घाटी के
लोगों ने लाल पर काले रंग से चित्रित बर्तन चाक पर बनाए, जो प्राचीन उत्तर-शहरी काल
के सिन्धुई मिट्टी के बर्तनों से मेल खाते थे। ये हड़प्पा की उत्तर-शहरी संस्कृति से मेल
खाते थे। इसलिए स्वात घाटी क हड़प्पा संस्कृति के बाद, उत्तरार्द्ध में एक केन्द्र के तौर
पर माना जा सकता है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और जम्मू के भारतीय क्षेत्रों में कई उत्तर-शहरी हड़प्पा
स्थलों की खुदाई की गई है। जिसके तहत जम्मू में मण्ड, पंजाब में चण्डीगढ़ एवं संगहोल,
हरियाणा में दौलतपुर एवं मिथ्थल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर एवं हुलस का
उल्लेख किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि हरियाणा के दौलतपुर और उत्तर प्रदेश के
सहारनपुर जिले के हुलस में हड़प्पा ने चावल के खेती को अपनाया। उत्तर भारत में किसी
भी हड़प्पा स्थल पर रागी या बाजरा के उगाए जाने के प्रमाण अब तक नहीं मिलते हैं।
आलमगीरपुर में हड़प्पा संस्कृति के बाद के लोग शायद कपास का उत्पादन करते थे, जैसा
कि हड़प्पा बर्तनों पर कपड़ानुमा शैली से अनुमान लगाया जा सकता है।
उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों में उत्तर-शहरी या उसके बाद के हड़प्पा स्थानों में पाए जाने वाले
चित्रित हड़प्पा बर्तनों पर कम जटिल डिजाइन मिलते हैं, हालाँकि कुछ नए बर्तन के स्वरूप
भी मिलते हैं। भगवानपुर के चित्रित भूरे बर्तन कुछ विकसित हड़प्पा के बर्तनों के रूपों से
मिलते हैं लेकिन इस समय तक हड़प्पा संस्कृति अपने पूरी तरह से खत्म होने की स्थिति
में पहुंच चुकी थी।
उत्तर-शहरी हड़प्पा चरण में लम्बाई को मापने की वस्तु नहीं मिली है। गुजरात में
बाद की अवधि में घनाकार पत्थर के जरिए वजन मापन की विधि और टेराकोटा केक
अनुपस्थित थे। साधारणतः सभी उत्तर-शहरी हड़प्पा स्थलों पर मानवीय मूर्तियों और
विशिष्ट चित्रण शैली का अभाव है। हालाँकि चीनी मिट्टी गुजरात में उपयोग नहीं हुई पर
उत्तर भारत में इसका खूब इस्तेमाल हुआ।
नए लोगों का आगमन
हड़प्पा संस्कृति के अन्तिम चरण के दौरान कुछ विशिष्ट उपकरणों और बर्तनों से सिन्धु
घाटी में नए लोगों के प्रवेश का संकेत मिलता है। मुहनजो-दड़ो के अन्तिम चरण में असुरक्षा
और हिंसा के कुछ लक्षण दिखाई पड़ते हैं। जगह-जगह गहनों के ढेर दफनाए गए, एक
ही स्थान पर मानव खोपड़ी को रखा गया। मुहनजो-दड़ो के ऊपरी स्तरों पर नए प्रकार की
कुल्हाड़ियाँ, खंजर, मूठ वाला चाकू और सपाट कटारी मिलते हैं। यह किसी बाहरी घुसपैठ
व हमले को दर्शाती है। नए लोगों के निशान बाद के हड़प्पा से सम्बन्धित एक कब्रिस्तान
में पाए गए हैं। जहाँ नए प्रकार के बर्तनों को हाल के स्तरों में देखा गया। बलूचिस्तान में
कुछ हड़प्पा स्थलों पर नए प्रकार के मिट्टी के बर्तन भी मिले हैं। बलूचिस्तान इंगित करता
है कि ई.पू. 1700 में घोड़े और बैक्ट्रियन ऊँट वहाँ मौजूद थे। नए लोग ईरान और दक्षिण
मध्य एशिया से आए होंगे लेकिन वे इतनी संख्या में नहीं आए, जिससे पंजाब और सिन्ध में
हड़प्पा की पूरी बसावट पर फैल जाएँ। यद्यपि ऋग्वैदिक लोग बड़े पैमाने पर सात नदियों के
क्षेत्र में बस गए थे, जहाँ कभी हड़प्पा संस्कृति विकसित हुई। हमारे पास विकसित हड़प्पा
और इण्डो-आर्यों के बीच बड़े पैमाने पर किसी भी टकराव का पुरातात्त्विक सबूत नहीं है।
सम्भवतः वैदिक लोगों का एक समूह सफलता पूर्वक इस उप-महाद्वीप में उस दौर में प्रवेश
किया जिसे उत्तर-शहरी हड़प्पा चरण कहा जाता है जो ई.पू. 1500 से 1200 तक था।
उत्पत्ति और समस्या
ई.पू. 4000 के आस-पास पाकिस्तान में चोलिस्तानी रेगिस्तान के हकरा क्षेत्र में कई पूर्व-
हड़प्पा कृषि बस्तियों का विकास हुआ। हालाँकि, ई.पू. 7000 के आस-पास कृषि बस्तियाँ
पहले बलूचिस्तान के पूर्वी किनारे पर सिन्धु मैदानों की सीमा पर नवपाषाण-युग में चीनी मिट्टी
के दौर से पहले बसी। तब से लोग बकरियाँ, भेड़ और अन्य पशु पालते थे। उन्होंने जौ
और गेहूँ का भी उत्पादन किया। धनार्जन के इन तरीकों का विस्तार ई.पू. पाँचवीं सहस्राब्दि
में हुआ, जब भण्डारण की स्थापना हुई। ई.पू. पाँचवीं और चौथी सहस्राब्दि में मिट्टी की
ईंटों का उपयोग शुरू हो गया था। चित्रित मिट्टी के बर्तन और टेराकोटा की महिला मूर्तियाँ
भी बनने लगीं। बलूचिस्तान के उत्तरी भाग में शुरुआती शहर के रूप में सुनियोजित सड़क
और व्यवस्थित घरों के साथ रहमान धेरी नामक जगह विकसित की गई। यह स्थल पश्चिम
में हड़प्पा के लगभग समानान्तर स्थित था। यह स्पष्ट है कि बलूचिस्तान की बस्तियों से ही
शुरुआती हड़प्पा और विकसित हड़प्पा संस्कृतियाँ विकसित हुईं।
कभी-कभी हड़प्पा संस्कृति की उत्पति का श्रेय मुख्य रूप से प्राकृतिक पर्यावरण को
दिया जाता है। शिल्प और खेती के लिए हड़प्पा क्षेत्र का वर्तमान वातावरण अनुकूल नहीं
है, लेकिन ई.पू. तीसरी सहस्राब्दि में वहाँ शुष्क और अर्ध-रेगिस्तानी स्थितियाँ प्रभावकारी
नहीं थीं। ई.पू. 3000-2000 में भारी बारिश और सिन्धु एवं इसकी सहायक नदी सरस्वती
(जो सिन्ध की सूखी नदी हकरा के लगभग समान है) में सघन जल का प्रवाह इसके
प्रमाण है। कभी-कभी सिन्धु संस्कृति को सरस्वती संस्कृति कहा जाता है, लेकिन हड़प्पन
नदी हकरा में पानी के प्रवाह का आना यमुना और सतलुज के बदौलत था। हिमालय में
विवर्तनिक (टेक्टोनिक) विकास के कारण ये दोनों नदियाँ कुछ सदियों बाद सरस्वती में
शामिल हुईं। इसलिए, हड़प्पा संस्कृति को मदद करने का श्रेय वास्तव में सिन्धु के साथ
इन दोनों नदियों को मिलना चाहिए, अकेले सरस्वती को नहीं। इसके अलावा, सिन्धु क्षेत्र
में भारी बारिश के सबूतों को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है।
क्या हड़प्पा संस्कृति वैदिक थी?
कभी-कभी हड़प्पा संस्कृति को ऋग्वैदिक कहा जाता है, लेकिन इसकी प्रमुख विशेषताएँ
ऋग्वेद में नहीं हैं। नियोजित कस्बों, शिल्प, वाणिज्य और बड़ी ईंटों के बने बड़े ढाँचे
हड़प्पा काल की विशेषताएँ हैं। ऋग्वेद में इनका उल्लेख नहीं मिलता। आगे इसका उल्लेख
होगा कि प्रारम्भिक वैदिक लोग कृषि के साथ पशुपालन पर निर्भर थे और ईंटों का उपयोग नहीं करते थे। शुरुआती वैदिक लोगों ने लगभग पूरे हड़या क्षेत्र पर कब्जा कर लिया लेकिन
वे अफगानिस्तान में भी रहते थे।
विकसित शहरी चरण ई.पू. 2500 से 1900 तक चला लेकिन प्राग्वेद है.५, 1000 के
आस-पास स्थित है। इसके अलावा, हहणा और वैदिक लोग पौधा और जानवरी से बिल्कुल
ही अनभिज्ञ थे। प्राग्वेद में केवल जी का उल्लेख है लेकिन हड़या के लोग हैं, सायम
और मटर से परिचित थे। आरम्भिक वैदिक लोग गैण्डों से अपरिचित थे जबकि हड़यन
लोग गैण्डों से परिचित थे। बाप के सन्दर्भ में भी ऐसा ही था। वैदिक प्रमुख अश्वाग्रही होत
थे, यही वजह है कि प्राग्वेद में 215 बार इस पशु का उल्लेख किया गया है, लेकिन शहरी
हड़प्पन लोग शायद ही घोड़े से परिचित थे। हड़यन टेराकोटा में हाथी के संकेत है, किन्तु
घोड़े की तरह प्राचीनतम वेद में यह महत्वपूर्ण नहीं है।
हड़प्पन लेखन, जिसे सिन्धु लिपि कहा जाता है, अब तक नहीं पढ़ी जा सकी है लेकिन
वैदिक समय का कोई भी इण्डो-आर्यन अभिलेख भारत में नहीं मिला है। हड़ण्या की
भाषाओं के बारे में हमारा कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है, हालांकि वैदिक लोगों द्वारा बोली
जाने वाली इण्डो-आर्यन भाषा के विभिन्न रूप दक्षिण एशिया में हैं।
निरन्तरता की समस्या
कुछ विद्वान हड़प्पा संस्कृति की निरन्तरता के बारे में बात करते हैं। जबकि अन्य विद्वान
शहरीकरण से लेकर अशहरीकरण के परिवर्तनों के बारे में। चूंकि शहरीकरण हड़प्पा
संस्कृति की बुनियादी विशेषता थी, इसके पतन के साथ हम सांस्कृतिक निरन्तरता के बारे
में नहीं सोच सकते। इसी तरह हड़प्पा शहर का अशहरीकरण महज एक परिवर्तन नहीं है,
बल्कि इसका अर्थ लगभग 1500 वर्षों तक कस्बों, लिपियों और पकी ईंटों का लापता होना
है। उत्तर भारत में ये तत्व कुषाण कस्बों के अन्त तक गायब नहीं। थे।
ऐसा कहा जाता है कि ई.पू, 1900 में गंगा के समतल मैदानी इलाकों और उत्तर भारत में
हड़प्पा संस्कृति जारी रही। हालाँकि ई.पू.पहली सहस्राब्दी के पूर्वाई में चित्रित भूरे बर्तन की
संस्कृति में कोई महत्वपूर्ण हड़प्पा विशेषता नहीं दिखाई देती। चित्रित भूरे बर्तन (PGW)
की संस्कृति, बड़ी इमारतों, पकी ईंटों, काँस्य, लेखन से शहरीकरण का सबूत नहीं मिलता।
किन्तु इस अवधि के बर्तनों का अपना वैशिष्ट्य है। यद्यपि पकी ईंटों के दो एक उदाहरण
ई.पू. 1500 के आस-पास मिलते हैं। लेकिन उत्तर भारत में पकी ईट का प्रवेश वस्तुत: ई.पू.
300 में उत्तरी काली पॉलिश वाले वर्तन (NBPW) संस्कृति के चरण में हुआ। इसी तरह,
हड़प्पा संस्कृति समाप्त हो जाने के बाद, अल्मी लिपि के रूप में लेखन एनबीपीडब्ल्यू
(NBPV) चरण के दौरान मुद्राओं में आया। हालांकि, यह बाएँ से दाएँ लिखा गया था
जबकि हड़या की लिपि को दाएँ से बाएँ लिखा गया था। इसी तरह एनबीपी (NBP)
मिट्टी के बर्तन हड़प्पा के बर्तनों से सम्बन्धित नहीं है। एनबीपीडब्ल्यू (NBPW) काल में लोहे के प्रभावी उपयोग ने ई.पू. पाँचवीं शताब्दी में मध्य गंगा के समतल मैदानों में एक
नई सामाजिक-आर्थिक संरचना को जन्म दिया। हालाँकि, सिन्धु संस्कृति की विशेषता के
रूप में न तो लोहा चिह्नित था, न सिक्का। जबकि ये दोनों एनबीपीडब्ल्यू चरण के पहचान
और संकेत थे। सिन्धु संस्कृति के कुछ छिट-पुट मोती गंगा के मैदानों तक पहुँच तो गए
थे, किन्तु उन्हें सिन्धु की महत्वपूर्ण विशेषता नहीं मानी जा सकती। इसी तरह ई.पू. 2000
के बाद भी चीनी मिट्टी की कुछ हड़प्पन वस्तुओं और टेराकोटा का निर्माण हो रहा था।
किन्तु ये अकेले विकसित हड़प्पा संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं। हालाँकि, सिन्धु
संस्कृति के बिखरे तत्व राजस्थान, मालवा, गुजरात और ऊपरी डेक्कन की ताम्र-पाषाण
संस्कृतियों में जारी रहे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ई.पू. 1900 में शहरी हड़प्पा संस्कृति
के अन्त के बाद, इण्डो-आर्यन और मौजूदा संस्कृतियों के बीच कुछ आदान-प्रदान हुआ।
हड़प्पा से जुड़ी मुण्डा और प्रोटो-द्रविड़ियन भाषाएँ इस्तेमाल होती रही हैं। बातचीत के
माध्यम से, आर्य और आर्यपूर्व दोनों भाषाएँ समृद्ध हुईं। हम संस्कृत में मिट्टी के बर्तनों और
कृषि के लिए आर्यपूर्व शब्द पाते हैं, लेकिन पलड़ा इण्डो-आर्यों के पक्ष में भारी रहा जिनकी
भाषा भारतीय उप-महाद्वीप के प्रमुख भागों में फैले हुई थी।