HR 10 Sanskrit

Haryana Board 10th Class Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

Haryana Board 10th Class Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

व्याकरणम् कारक प्रकरणम् HBSE 10th Class

कारक-वाक्य में जिस शब्द का क्रिया शब्द के साथ साक्षात् सम्बन्ध हो वह कारक कहलाता है। वाक्य में क्रिया के साथ संज्ञा या सर्वनाम शब्द का सम्बन्ध कहीं कर्ता के रूप में, कहीं कर्म के रूप में तथा कहीं करण आदि कारक के रूप में होता है।
कारक छ: हैं। इनके लिए निम्नलिखित छ: विभक्तियाँ प्रयुक्त की जाती हैं
कारक – विभक्ति
1. कर्ता – प्रथमा विभक्ति
2. कर्म – द्वितीया विभक्ति
3. करण – तृतीया विभक्ति
4. सम्प्रदान – चतुर्थी विभक्ति
5. अपादान – पञ्चमी विभक्ति
6. अधिकरण – सप्तमी विभक्ति

HBSE 10th Class व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

सम्बन्ध को कारक नहीं माना जाता, क्योंकि वाक्य में सम्बन्धवाची शब्द का क्रिया पद के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता
1. कर्ता
जो स्वयम् ही क्रिया करने में प्रधान हो उसे कर्ता कहते हैं।
कर्तृवाच्य में कर्ता और कर्मवाच्य में कर्म प्रथमा विभक्ति में प्रयुक्त होता है, जैसे
(i) रामो गच्छति।
(ii) घटः क्रियते।

2. कर्म
वह वस्तु या मनुष्य जिस पर क्रिया के व्यापार का फल पड़ता है, कर्म कहलाता है। कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे
(i) रामः ग्रामं गच्छति।
(ii) सः पुस्तकं पठति।
उपर्युक्त वाक्यों में (गच्छति) और (पठति) क्रियाओं में व्यापार का प्रभाव ‘ग्राम’ तथा ‘पुस्तक’ पर पड़ता है। अतः इन वाक्यों में कर्म है तथा द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुआ है।
(i) सब सकर्मक धातुओं के साथ कर्म प्रयुक्त होता है, जैसे
(क) अहं ग्रामं गच्छामि।
(ख) रामः मृगं पश्यति।

(ii) अकर्मक धातुओं के साथ भी कर्म प्रयुक्त होता है। यदि कर्म व्यवधान रहित काल या मार्ग का बोधक हो, जैसे
(क) क्रोशं कुटिला नदी। (नदी एक कोस तक टेढ़ी है।)
(ख) मेघो द्वादशवर्षाणि न ववर्ष। (मेघ बारह वर्ष तक नहीं बरसा।)

(iii) गत्यर्थक धातुओं के साथ स्थानबोधक शब्दों में विकल्प से द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे
(क) सः ग्रामं गच्छति।
(ख) नृपः नगरं गच्छति।

(iv) अधि+शी (सोना, लेटना), अधि + स्था (बैठना, रहना) तथा अधि + आस् (बैठना) धातुओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे
(क) हरिः वैकुण्ठम् अधितिष्ठति। (हरि वैकुण्ठ में रहता है)
(ख) नृपः आसनम् अध्यास्ते। (राजा आसन पर बैठता है।)
उपपद
विभक्ति जब किसी पद विशेष के योग से कोई विभक्ति होती है तो उसे उपपदविभक्ति कहते हैं।
उभयतः, सर्वतः, धिक्, अभितः, परितः, प्रति, अन्तरा, अन्तरेण, अनु, विना, हा–इन शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे
(क) उभयतः (दोनों ओर)-उभयतः कृष्णं गोपाः । (कृष्ण के दोनों ओर गोपियाँ हैं।)
(ख) सर्वतः (सब ओर)-ग्रामं सर्वतः जलं वर्तते।। (गाँव के सब ओर जल है।)
(ग) धिक् (धिक्कार)-धिक् तं देशद्रोहिणम् (उस देशद्रोही को धिक्कार है!)
(घ) अभितः (दोनों ओर)-विद्यालम् अभित: उद्यानानि सन्ति। (विद्यालय के दोनों ओर बाग हैं।)
(ङ) परितः (चारों ओर)-ग्रामं परितः वृक्षाः सन्ति। (गाँव के चारों ओर वृक्ष हैं।)
(च) प्रति (की ओर, पर)-मोहन: ग्राम प्रति गच्छति। (मोहन गाँव की ओर जाता है।)
दीनं प्रति दयां कुरु। (निर्धन पर दया करो।)
(छ) अन्तरा (बीच में)-रामं लक्ष्मणं च अन्तरा सीता विराजते। (राम और लक्ष्मण के बीच सीता विराजमान है।)
(ज) अन्तरेण (बिना, विषय में)-परिश्रमम् अन्तरेण विद्या न लभ्यते। (परिश्रम के बिना विद्या प्राप्त नहीं होती।)
(झ) अनु (पीछे)-यज्ञम् अनु देवः प्रावर्षत्। (यज्ञ के पश्चात् वर्षा हुई।)
(ञ) विना (बगैर)-मां विना तत्र कः गच्छेत् ? (मेरे बिना वहाँ कौन जा सकता है ?)
(ट) हा ! (शोक, अफसोस)-हा ! वेदनिन्दकम् ! (वेद निन्दक के लिए अफसोस है।)

3. करण
(i) क्रिया की सिद्धि में जो मुख्य साधन हो उसे करण कहते हैं। अन्य शब्दों से जिसकी सहायता के कार्यनिष्पन्न होता है वह करण कहलाता है तथा उसमें तृतीया विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) सः खड्गेन कृन्तति। (वह तलवार से काटता है।)
(ख) रामः बाणेन बालिं हतवान्। (राम ने बाण से बालि को मारा।)

(ii) यदि शरीर के किसी अंग में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हो तो विकारवाले अंगसूचक शब्द में तृतीया विभक्ति प्रयुक्त की जाती है, जैसे
(क) बाल: अक्ष्णा काणोऽस्ति। (बालक आँख से काना है।)
(ख) सेवकः कर्णाभ्याम् बधिरः अस्ति। (सेवक कानों से बहरा है।)

(iii) प्रकृति, जाति, स्वभाव आदि शब्दों में तृतीया विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) देवः प्रकृत्या मधुरः अस्ति। (देव प्रकृति से मधुर है।)
(ख) सः स्वभावेन कटुः अस्ति। (वह स्वभाव से कटु है।)

(iv) अर्थः, लाभः, किं, किं कार्यम्, किं प्रयोजनम्-इस प्रकार के शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है, जैसे
(क) मूर्खेण पुत्रेण क: लाभः ? (मूर्खपुत्र से क्या लाभ ?)
(ख) तव धनेन किं प्रयोजनम्? (तुम्हें धन से क्या प्रयोजन है ?)

(v) लक्षणवाची शब्द (किसी मनुष्य या वस्तु आदि का कोई चिह्न प्रकट करने वाले शब्द) में तृतीया विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) त्वं पुस्तकैः छात्रः लक्ष्यसे। (तुम पुस्तकों से छात्र मालूम होते हो।)
(ख) सः जटाभिः तापसः लक्ष्यते। (वह जटाओं से तपस्वी मालूम होता है।)

(vi) किसी वस्तु के मूल्यवाचक शब्द में तृतीया विभक्ति होती है, जैसे
(क) रूप्यकेण क्रीतं पुस्तकम्। (एक रुपए में खरीदी हुई पुस्तक।)
(ख) शतेन क्रीतं धेनुम्। (सौ रुपए में खरीदी हुई गाय।)

(vii) समतावाचक शब्दों जैसे समान, सदृश, तुल्य, सम आदि के योग में तृतीया विभक्ति प्रयुक्त की जाती है, जैसे
स: पित्रा सम: (समानः, सदृशः, तुल्य: ) वर्तते। (वह पिता के समान है।)

(viii) सहवाचक शब्दों, जैसे-सह, समम्, सार्धम्, साकम् आदि के योग में तृतीया विभक्ति प्रयुक्त की जाती है, जैसे
सः पित्रा सह (समम्, सार्धम्, साकम्) भ्रमितुम् अगच्छत् । (वह पिता के साथ घूमने गया।)

(ix) हीनतासूचक शब्दों, जैसे-हीन, ऊन, न्यून आदि शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है, जैसे
(क) धर्मेण हीनः पुरुषः म शोभते। (धर्म से रहित मनुष्य शोभा नहीं पाता।)
(ख) इदं सुवर्णम् माषेण न्यूनमस्ति। (यह सोना एक मासा कम है।)

(x) अलम और कृतम् के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे
(क) अलं परिश्रमेण । (परिश्रम मत करो।)
(ख) कृतम् रोदनेन। (रोओ मत।)

4. सम्प्रदान
(i) कर्ता जिसके लिए किसी वस्तु को देता है या जिसके लिए कोई क्रिया करता है उसे सम्प्रदानकारक कहते हैं उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है, जैसे
नृपः विप्राय धनं ददाति। (राजा ब्राह्मण को धन देता है।)

(ii) रुच्यर्थक धातुओं के योग में चाहने वाले को अथवा जिसको कोई वस्तु अच्छी लगती है उसमें चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) रामाय दुग्धम् रोचते। (राम को दूध अच्छा लगता है।)
(ख) हरये भक्तिः रोचते। (हरि को भक्ति अच्छी लगती है।)

(iii) दा धातु और दानार्थक धातुओं के योग में जिसे वस्तु दी जाए, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है, जैसे
नृपः निर्धनाय धनं ददाति। (राजा निर्धन को धन देता है।)

(iv) क्रुध, द्रुह्, कुप, ईर्घ्य धातुओं के और इनके समानार्थक धातुओं के योग में जिसके प्रति क्रोध, द्रोह तथा ईर्ष्या आदि प्रकट किए जाएँ, उसमें चतुर्थी विभक्ति लगाई जाती है, जैसे
(क) पिता पुत्राय कुप्यति। (पिता पुत्र पर क्रोध करता है।)
(ख) सः मह्यं द्रुह्यति। (वह मुझसे द्रोह करता है।)
(ग) त्वं मह्यम् ईय॑सि। (तुम मुझ से ईर्ष्या करते हो।)

(v) स्पृह् धातु के योग में जिस वस्तु की इच्छा की जाए, उसमें चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) बालः फलेभ्यः स्पृहयति। (बच्चा फलों को चाहता है।)
(ख) सः धनाय स्पृहयति। (वह धन की इच्छा करता है।)

(vi) बलि, हित, सुख, रक्षित-इन शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) ब्राह्मणाय हितम्। (ब्राह्मण का हितकारी।)
(ख) भूतेभ्यः बलिः। (भूतों के लिए बलि।)

(vii) नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् (समर्थ), वषट्-इन शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) नमो ब्रह्मणे। (ब्राह्मण को नमस्कार।)
(ख) नृपाय स्वस्ति। (राजा का भला हो।)
(ग) अग्नये स्वाहा। (अग्नि के लिए आहुति।)
(घ) पितृभ्य: स्वधा। (पितरों के लिए अन्न।)
(ङ) रामः रावणाय अलम् आसीत्। (राम रावण के लिए पर्याप्त था।)
(च) इन्द्राय वषट्। (इन्द्र के लिए भाग।)

(viii) कुशलम्, स्वागतम् शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
स्वागतं देव्यै। (देवी का स्वागत है।)

5. अपादान
(i) जिससे किसी वस्तु का वियोग (जुदाई) होना पाया जाए उसे अपादान कारक कहते हैं। इसमें पञ्चमी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) सः ग्रामादागच्छति। (वह गाँव से आता है।)
(ख) वृक्षात् पत्राणि पतन्ति। (वृक्ष से पत्ते गिरते हैं।)

(ii) भय और रक्षार्थक धातुओं के योग में जिससे भय हो या जिससे रक्षा की जाए उसमें पञ्चमी विभक्ति आती है, जैसे
(क) सः सिंहाद् बिभेति। (वह सिंह से डरता है।)
(ख) कुक्कुर: मां चौरेभ्यः रक्षति। (कुत्ता मेरी चोरों से रक्षा करता है।)

(iii) जिससे पढ़ा जाए उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है, जैसे
सः गुरोः अधीते। (वह गुरु से पढ़ता है।)

(iv) रोकना अथवा हटाना अर्थवाली धातुओं के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है, जैसे
कृषक: यवेभ्य: गां वारयति। (किसान यवों से गाय को हटाता है।)

(v) किसी वस्तु के उत्पत्तिस्थान में पञ्चमी विभक्ति आती है। जैसे
हिमालयाद् गंगा प्रभवति। (हिमालय से गंगा की उत्पत्ति होती है।)

(vi) तुलनाबोधक शब्दों के योग में अर्थात् जिसकी अपेक्षा किसी अन्य वस्तु में न्यूनता या उत्कृष्टता बताई जाए उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है, जैसे
(क) सः देवात् बुद्धिमत्तरः। (वह देव से अधिक बुद्धिमान् है।)
(ख) मोहनः सोहनात् मूर्खतरः । (मोहन सोहन से अधिक मूर्ख है।)
(ग) स: रामात् निपुण: अस्ति। (वह राम से निपुण है।)

(vii) घृणा, लजा, विराम, प्रमाद-इन अर्थों वाली धातुओं के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है, जैसे
(क) दुष्टः न पापात् जुगुप्सते। (दुष्ट पाप से घृणा नहीं करता है।)
(ख) वयम् धर्मात् प्रमदामः। (हम धर्म से प्रमाद करते हैं।)

(viii) अन्य (दूसरा), इतर (दूसरा), ऋते (विना), भिन्न तथा रिक्त शब्दों के योग में पञ्चमी विभक्ति आती है, जैसे
(क) देवादन्यः कः इदं कर्तुं शक्ष्यति ? (देव से अन्य इस कार्य को कौन कर सकेगा ?)
(ख) रामादितर: कः तत्र गच्छेत् ? (राम से दूसरा कौन वहाँ जाएगा ?)
(ग) ज्ञानात् ऋते क्व यशः ? (ज्ञान के बिना यश कहाँ ?)

(ix) बहिः (बाहर), प्रभृति (से लेकर), आरभ्य (से लेकर) अनन्तरम् (बाद में)-इन शब्दों के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है, जैसे
(क) नगराद् बहिः एकः सरः अस्ति। (नगर के बाहर एक सरोवर है।)
(ख) बाल्यात् प्रभृति अहम् तत्रैव वसामि। (बचपन से लेकर मैं वहीं रहता हूँ।)
(ग) ततः आरभ्य अहम् असत्यम् न अवदम्। (तब से मैंने झूठ नहीं बोला।)
(घ) अहम् कार्यात् अनन्तरम् द्रक्ष्यामि।। (मैं काम के बाद देखुंगा।)

(x) विना के योग में विकल्प से पञ्चमी, तृतीया और द्वितीया विभक्तियाँ होती हैं, जैसे
परिश्रमात् (परिश्रमं, परिश्रमेण) विना कुतः सफलता ? (परिश्रम के बिना सफलता कहाँ ?)

(xi) दूर और अन्तिके (समीप) शब्दों तथा इनके समानार्थक शब्दों के योग में पञ्चमी तृतीया और द्वितीया विभक्तियाँ होती हैं, जैसे
नगरस्य दूरात् (दूरं, दूरेण) वा उद्यानमस्ति। (नगर से दूर बगीचा है।)

6. सम्बन्ध
(i) सम्बन्ध को बताने के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, जैसे
(क) वृक्षस्य शाखा। (वृक्ष की शाखा।) ।
(ख) राज्ञः पुरुषः । (राजा का पुरुष।)

(ii) वाक्य में हेतु शब्द का प्रयोग होने पर और हेतु अर्थ की प्रतीति होने पर षष्ठी विभक्ति होती है, जैसे
स: अन्नस्य हेतोः, वसति। (वह अन्न के हेतु रहता है।)

(iii) पुरः (सामने), पुरस्तात् ( सामने), अग्रतः (आगे), दक्षिणतः (दक्षिण की ओर), अधः, उपरि आदि शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति आती है, जैसे
(क) गृहस्य पुरः (पुरस्तात्) विद्यालयः अस्ति। (घर के सामने स्कूल है।)
(ख) रामः तस्याग्रतोऽचलत्। (राम उसके आगे चला।)
(ग) ग्रामस्य दक्षिणतः औषधालयः विद्यते। (गाँव के दक्षिण की ओर अस्पताल है।)

(iv) दूर तथा अन्तिक (समीप) शब्दों के योग में और इनके समानार्थक शब्दों के योग में पञ्चमी तथा षष्ठी विभक्ति होती है, जैसे
(क) औषधालयस्य (औषधालयात्) दूरम्। (अस्पताल से दूर।)
(ख) औषधालयस्य (औषधालयात्) निकटम्। (अस्पताल के निकट।)

(v) दो वस्तुओं में भेद बताने के लिए षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त की जाती है, जैसे
तव मम च इयानेव भेदः। (तुम में और मुझ में इतना ही भेद है।)

(vi) तुल्य तथा तुल्यार्थक सम, सदृश आदि शब्दों के योग में षष्ठी तथा तृतीया विभक्ति होती है, जैसे
(क) रामः देवस्य देवेन वा तुल्यः। (राम देव के समान है।)
(ख) लता मातुः (मात्रा) सदृशः अस्ति।) (लता माता के सदृश है।)

(vii) तव्य अनीय तथा य आदि कृत्प्रत्ययान्त शब्दों के योग में षष्ठी और तृतीया विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
मया (मम) सेव्यो हरिः। (मुझे भगवान् की पूजा करनी चाहिए।)

7. अधिकरण
(i) किसी वस्तु या क्रिया के आधार को अधिकरण कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जिसमें जिस पर कोई अन्य वस्तु रखी जाए उसे आधार कहते हैं और आधार ही अधिकरण-कारक होता है। इसमें सप्तमी विभक्ति होती है, जैसे
तिलेषु तैलम्। (तिलों में तेल है।)
धर्मे तिष्ठति। (धर्म में ठहरता है)

(ii) जब किसी वस्तु के विषय में इच्छा होती है तब वह इच्छा का विषय होने के कारण आधार माना जाता है। अतः उसमें सप्तमी विभक्ति होती है, जैसे
वृद्धस्य मोक्षे इच्छा अस्ति। (बूढ़े की मोक्ष में इच्छा है।)

(iii) साधु और असाधु शब्दों के योग में, जिसके साथ अच्छा अथवा बुरा व्यवहार हो, उसमें सप्तमी विभक्ति आती है, जैसे
(क) साधुः रामः मातरि। (राम माता से साधुता का व्यवहार करता है।)
(ख) असाधुः सः अध्यापके। (वह अध्यापक से अच्छा व्यवहार नहीं करता।)

(iv) किसी क्रिया के निर्दिष्ट समय को बताने के लिए भी सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, जैसे
सः अद्य प्रातःकाले गतः । (वह आज प्रातःकाल गया।)

(v) अतिशयवाचक शब्दों अर्थात् जब बहुत वस्तुओं में से किसी एक का निर्धारण करना (अच्छा, बुरा आदि बताना) हो, तब समूहवाची शब्द में षष्ठी या सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त की जाती है, जैसे
नदीषु (नदीनाम्) गङ्गा श्रेष्ठतमा वर्तते। (नदियों में गङ्गा सबसे श्रेष्ठ है।)

(vi) स्निह् ( स्नेह करना), अनु + रङ्ग् ( अनुराग करना), अभि + लष् ( अभिलाषा करना) रम् (मन लगना)इन धातुओं के योग में सप्तमी विभक्ति होती है, जैसे
(क) माता पुत्रे स्निह्यति। (माता पुत्र से स्नेह कस्ती है।)
(ख) अध्यापक: रामे अनुरञ्जयति। (अध्यापक राम से अनुराग करता है।)
(ग) सः वदने अभिलषति। (वह बोलने की अभिलाषा करता है।)
(घ) तस्य मनोऽस्मिन् कार्ये न रमते। (उसका मन इस कार्य में नहीं रमता है।)

(vii) तत्पर, आसक्त (लगा हुआ), निपुण, प्रवीण, पटु, चतुर, धूर्त, शौण्ड आदि शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है, जैसे
(क) सः अध्ययने तत्परः अस्ति। (वह अध्ययन में लगा हुआ है।)
(ख) सः पठने निपुणः (प्रवीणः, चतुरः) अस्ति। (वह पढ़ने में निपुण है।)

(viii) क्षिप्, मुच, अस्, वृत्, व्यव + ह-इनके योग में सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) रामः रावणे बाणान् क्षिपति। (राम रावण पर बाण फेंकता है।)
(ख) सः मयि बाणान् मुञ्चति।. (वह मुझ पर बाण छोड़ता है।)

(ix) वि + श्वस, प्र + हृ, बन्ध्, लग, श्लिष, सज्ज, ग्रह-इन धातुओं के योग में और इनकी समानार्थक धातुओं के योग में सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे
(क) अध्यापक: मयि विश्वसिति। (अध्यापक मुझ पर विश्वास करता है।)
(ख) अर्जुनः कर्णे भृशं प्राहरत्। (अर्जुन ने कर्ण पर खूब प्रहार किया।)

परीक्षा में प्रष्टव्य कारक-विषयक प्रश्न

1. कोष्ठकगतेषु पदेषु द्वितीया-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) अध्यापकः ………. पाठयति। (छात्र)
(ख) ……… अभितः उद्यानानि सन्ति। (विद्यालय)
(ग) मोहनः …….. प्रति गच्छति। (ग्राम)
(घ) पुत्रः ……… ,अनुगच्छति। (पितृ)
(ङ) ………. परितः वृक्षाः सन्ति। (देवालय)
उत्तराणि:
(क) अध्यापक: छात्रान् पाठयति।
(ख) विद्यालयम् अभितः उद्यानानि सन्ति।
(ग) मोहनः ग्राम प्रति गच्छति।
(घ) पुत्रः पितरम् अनुगच्छति।
(ङ) देवालयं परितः वृक्षाः सन्ति।

2. कोष्ठकगतेषु पदेषु तृतीया-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) रामः ……. बालिं हतवान्। (बाण)
(ख) सेवकः ……… बधिरः अस्ति। (कर्ण)
(ग) सः …….. सह भ्रमितुम् अगच्छत्। (पितृ)
(घ) ……… हीनः पुरुषः न शोभते। (धर्म)
(ङ) अलं ……….। (परिश्रम)
उत्तराणि:
(क) रामः बाणेन बालिं हतवान् ।
(ख) सेवक: कर्णाभ्यां बधिरः अस्ति।
(ग) सः पित्रा सह भ्रमितुम् अगच्छत्।
(घ) धर्मेण हीनः पुरुषः न शोभते।
(ङ) अलं परिश्रमेण।

3. कोष्ठकगतेषु पदेषु चतुर्थी-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) राजा …….. धनं ददाति। (विप्र)
(ख) ……… दुग्धम् रोचते। (बालक)
(ग) नमः ……….। (शिव)
(घ) पिता ………. कुप्यति। (पुत्र)
(ङ) ………. स्वाहा। (अग्नि )
उत्तराणि:
(क) राजा विप्राय धनं ददाति।
(ख) बालकाय दुग्धम् रोचते।
(ग) नमः शिवाय।
(घ) पिता पुत्राय कुप्यति।
(ङ) अग्नये स्वाहा।

4. कोष्ठकगतेषु पदेषु पञ्चमी-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) …….. पत्राणि पतन्ति। (वृक्ष)
(ख) सः ……… बिभेति। (सिंह)
(ग) ………. गंगा प्रभवति । (हिमालय)
(घ) ………. बहिः एकः सरः अस्ति। (नगर)
(ङ) दीपाली ………. अधीते। (गुरु)
उत्तराणि:
(क) वृक्षात् पत्राणि पतन्ति।
(ख) सः सिंहाद’बिभेति।
(ग) हिमालयाद गंगा प्रभवति।
(घ) नगराद् बहिः एकः सरः अस्ति।
(ङ) दीपाली गुरोः अधीते।

5. कोष्ठकगतेषु पदेषु षष्ठी-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) ………..शाखायां खगाः तिष्ठन्ति। (वृक्ष)
(ख) ………… पुरः (पुरस्तात्) विद्यालयः अस्ति। (गृह)
(ग) ………. दक्षिणतः औषधालयः विद्यते। (धर्मशाला)
(घ) ………. हस्ते किं पुस्तकं वर्तते ? (युष्मद्)
(ङ) हरीशः …….. हेतोः हिसार-नगरे वसति। (अध्ययन)
उत्तराणि:
(क) वृक्षस्य शाखायां खगाः तिष्ठन्ति।
(ख) गृहस्य पुरः (पुरस्तात्) विद्यालयः अस्ति।
(ग) धर्मशालायाः दक्षिणतः औषधालयः विद्यते।
(घ) तव हस्ते किं पुस्तकं वर्तते ?
(ङ) हरीश: अध्ययनस्य हेतोः हिसार-नगरे वसति।

6. कोष्ठकगतेषु पदेषु सप्तमी-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) अध्यापकः ……… विश्वसिति। (अस्मद्)
(ख) सः …… निपुणः अस्ति। (पठन)
(ग) माता ………. स्निह्यति। (पुत्र)
(घ) ………. गङ्गा श्रेष्ठतमा वर्तते। (नदी)
(ङ) सः …….. तत्परः अस्ति। (अध्ययन)
उत्तराणि:
(क) अध्यापक: मयि विश्वसिति।
(ख) सः पठने निपुणः अस्ति।
(ग) माता पुत्रे स्नियति।
(घ) नदीषु गङ्गा श्रेष्ठतमा वर्तते।
(ङ) सः अध्ययने तत्परः अस्ति।

पाठ्यपुस्तक से विभक्ति-विषयक प्रश्न

1. कोष्ठकगतेषु पदेषु उचित-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) ……… विभीषिका महाविनाशं जनयति। (भूकम्प)
(ख) राजा ……. प्रश्नत्रयम् अपृच्छत्। (मुनि)
(ग) मुनिः …….. संलग्नः आसीत्।। (स्वकार्य)
(घ) तस्य मृतशरीरं …….. निकषा वर्तते। (राजमार्ग)
(ङ) कीदृशः तृणानाम् ……… सह विरोध: ? (अग्नि)
(च) कः इदं दुष्करं कुर्याद् इदानीं ………. विना? (शिवि)
(छ) ……… परितः पतङ्गाः आपेदिरे। (अम्बरपथ)
(ज) ………. वसति चातकः । (वन)
(झ) ………. कालिदासः श्रेष्ठः । (कवि)
(अ) अलम् ……….। (आशङ्का )
(ट) पिपासितः चातकः ………. याचते। (पुरन्दर)
(ठ) अम्भोदाः ………. वसुधाम् आर्द्रयन्ति। (वृष्टि )
(ड) पुत्रः ……… संलग्नः अभवत्। (अध्ययन)
(ढ) करुणापर: गृही ………. आश्रयं प्रायच्छत् । (तद्)
(ण) जीवनं ……….. विना अतिदारुणं भवति। (विभव)
उत्तराणि:
(क) भूकम्पस्य विभीषिका महाविनाशं जनयति।
(ख) राजा मुनिं प्रश्नत्रयम् अपृच्छत्।
(ग) मुनिः स्वकार्ये संलग्नः आसीत्।
(घ) तस्य मृतशरीरं राजमार्ग निकषा वर्तते।
(ङ) कीदृशः तृणानाम् अग्निना सह विरोधः ?
(च) कः इदं दुष्करं कुर्याद् इदानीं शिविना विना?
(छ) अम्बरपथं परित: पतङ्गाः आपेदिरे।
(ज) वने वसति चातकः।
(झ) कविषु कालिदासः श्रेष्ठः।
(ञ) अलम् आशङ्कया।
(ट) पिपासितः चातक: पुरन्दरं याचते।
(ठ) अम्भोदाः वृष्टिभिः वसुधाम् आर्द्रयन्ति।
(ड) पुत्रः अध्ययने संलग्नः अभवत्।
(ढ) करुणापरः गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत्।
(ण) जीवनं विभवं विना अतिदारुणं भवति।

अभ्यासार्थ प्रश्न

1. कोष्ठकगतेषु पदेषु रेखाङ्कितपदानुसारम् उचित-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) पुत्री ……… सह देवालयं गच्छति। (जनक)
(ख) शिशुः …….. बिभेति। (मूषक)
(ग) …….. दुग्धम् रोचते। (अस्मद्)
(घ) …….. कालिदासः श्रेष्ठः। (कवि)
(ङ) पुत्रः ……… स्मरति। (पितृ)
(च) हरिः ……… अधितिष्ठति। (वैकुण्ठ)
(छ) ……… नदी निर्गच्छति। (पर्वत)
(ज) ………. नमः। (गुरु)
(झ) ……….. प्रति दयां कुरु। (दीन)
(ब) अलम् ……….। (कलह)
(ट) राजा ……..धनं यच्छति। (निर्धन)
(ठ) ………. ऋते न जीवनम्। (ज्ञान)
(ड) पिता ……… कुप्यति। (पुत्र)
(ढ) ………. अभितः उद्यानानि सन्ति । (शिवालय)
(ण) आकृत्या सः ………. समः वर्तते। (पितृ)
उत्तराणि:
(क) जनकेन,
(ख) मूषकात्,
(ग) मह्यम्,
(घ)कविषु,
(ङ) पितुः,
(च) वैकुण्ठम्,
(छ) पर्वतात्,
(ज) गुरवे,
(झ) दीनं,
(ब) कलहेन,
(ट) निर्धनाय,
(ठ) ज्ञानात्,
(ड) पुत्राय,
(ढ) शिवालयम्,
(ण) पित्रा।
2. कर्म-कारकस्य अथवा सम्प्रदान-कारकस्य परिभाषां सोदाहरणं हिन्दीभाषायां लिखत।
3. करण-कारकस्य अथवा अपादान-कारकस्य परिभाषां सोदाहरणं हिन्दीभाषायां लिखत।
4. अधिकरण-कारकस्य अथवा सम्बन्ध-कारकस्य परिभाषां सोदाहरणं हिन्दीभाषायां लिखत।
5. ‘प्रति’-योगे का विभक्तिः प्रयुज्यते ?
6. ‘नमः’-योगे का विभक्तिः प्रयुज्यते ?
7. अपादान-कारके का विभक्तिः प्रयुज्यते ?
8. कर्म-कारके का विभक्तिः प्रयुज्यते ?

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