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Haryana Board 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 9 सिकतासेतुः

Haryana Board 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 9 सिकतासेतुः

HBSE 9th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 9 सिकतासेतुः

HBSE 9th Class Sanskrit सिकतासेतुः Textbook Questions and Answer

सिकतासेतुः (रेत का पुल)पाठ-परिचय 

प्रस्तुत नाट्यांश सोमदेव विरचित ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक (अध्याय) पर आधारित है। सोमदेव भट्ट कश्मीर के निवासी थे। ये कश्मीर के राजा श्री अनन्तदेव के सभापण्डित थे। इन्होंने राजा अनन्तदेव की रानी सूर्यमती के मनोविनोद के लिए ‘कथासरित्सागर’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ की मूल कथा महाकवि गुणाढ्य की बृहत्कथा (प्राकृत-ग्रन्थ) पर आधारित है।

इस पाठ में तपोबल से विद्या पाने के लिए प्रयत्नशील तपोदत्त नामक एक बालक की कथा का वर्णन है। उसके समुचित मार्गदर्शन के लिए वेष बदलकर देवराज इन्द्र उसके पास आते हैं और पास ही गंगा में बालू से सेतु निर्माण के कार्य में लग जाते हैं। उन्हें वैसा करते देखकर बालक तपोदत्त उनका उपहास करते हुए कहता है-‘अरे! किसलिए गंगा के जल में व्यर्थ ही बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहे हो?’ इन्द्र तपोदत्त को उत्तर देते हैं यदि पढ़ने, सुनने और अक्षरों की लिपि के अभ्यास के बिना तुम विद्या पा सकते हो तो बालू से पुल बनाना भी सम्भव है। इन्द्र के अभिप्राय को जानकर तपोदत्त तपस्या करना छोड़कर गुरुजनों के मार्गदर्शन में विद्या का ठीक-ठीक अभ्यास करने के लिए गुरुकुल चला जाता है।

HBSE 9th Class Sanskrit सिकतासेतुः Textbook Questions and Answer

I. अधोलिखितानां सूक्तिानां भावं हिन्दी भाषायां लिखत
(निम्नलिखित सूक्तियों के भाव हिन्दी भाषा में लिखिए)
(क) नास्त्यभावो जगति मूर्खाणाम्।
(ख) यासि त्वमतिरामताम्।
(ग) साधु साधु! आञ्जनेयमप्यतिक्रामसि!
(घ) पुरुषार्थैः एव लक्ष्यं प्राप्यते।
(ङ) उन्मीलितं मे नयनयुगलम्।
उत्तराणि:
(क) भावार्थ-प्रस्तुत सूक्ति सोमदेव विरचित ‘कथासरित्सागर’ नामक ‘कथाग्रन्थ’ से संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। तपस्या के द्वारा विद्या की प्राप्ति के लिए प्रयासरत तपोदत्त बालू से पुल का निर्माण करने वाले पुरुष को देखकर कहता है कि इस संसार में मूों की कमी नहीं है। इस संसार में असंख्य मूर्ख हैं। यह मूर्ख व्यक्ति तेज जल की धारा वाली इस नदी में रेत से पुल बना रहा है। जल की धाराओं से इसके द्वारा बनाया गया रेतीला पुल स्थिर नहीं रह सकता। अतः इसके द्वारा किया गया यह कार्य मूर्खतापूर्ण है। मूर्ख व्यक्ति के द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य अस्थिर होता है।

(ख) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति सोमदेव विरचित ‘कथासरित्सागर’ नामक ‘कथाग्रन्थ’ से संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। विप्र-रूपधारी इन्द्र को सिकता-कणों से सेतु बनाते देख तपोदत्त उनका उपहास करते हुए कहता है कि तुम राम से आगे बढ़ जाना चाहते हो क्योंकि राम ने तो शिलाओं से समुद्र में सेतु निर्माण का कार्य किया था। परन्तु तुम तो रेत से सेतु निर्माण का कार्य कर रहे हो। इस कारण तुम्हारी स्थिति राम से भी आगे बढ़ जाने वाली है।

(ग) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति सोमदेव विरचित ‘कथासरित्सागर’ नामक ‘कथाग्रन्थ’ से संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। बालू से ही पुल बनाने के लिए वचनबद्ध इन्द्र के इस कथन पर कि मैं सीढ़ी से जाने में विश्वास नहीं करता हूँ, अपितु उछलकर ही जाने,में समर्थ हूँ। तब तपोदत्त पुनः उपहास करते हुए कहता है कि पहले आपने पुल के निर्माण में राम को लाँघ दिया और अब उछलने में हनुमान को भी लाँघने की इच्छा कर रहे हो क्योंकि हनुमान उछलकर कहीं भी जाने में समर्थ थे। अञ्जना का पुत्र होने के कारण हनुमान को ‘आञ्जनेय’ कहा जाता है।

(घ) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति सोमदेव विरचित ‘कथासरित्सागर’ नामक ‘कथाग्रन्थ’ से संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। इन्द्र के द्वारा लज्जित होने पर तपोदत्त कहता है कि “पुरुषार्थ के द्वारा ही लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।” मैंने बिना परिश्रम किए तपस्या के द्वारा विद्याप्राप्ति का प्रयास किया। जबकि लिपि एवं अक्षर के ज्ञान के बिना विद्या की प्राप्ति नहीं परिश्रम करना पड़ता है। अतः परिश्रम से ही मनुष्य अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है।

(ङ) भावार्थ प्रस्तुत सूक्ति सोमदेव विरचित ‘कथासरित्सागर’ नामक ‘कथाग्रन्थ’ से संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। तपोदत्त ने बचपन में पिता के द्वारा प्रेरित किए जाने पर भी विद्या नहीं पढ़ी। अपने पारिवारिक सदस्यों, मित्रों तथा सम्बन्धियों से अपमानित होने पर तपस्या के द्वारा विद्या प्राप्ति का निश्चय करता है। उसके इस निश्चय पर इन्द्रदेव असहमत होते हैं और समझाने के लिए रेत से पुल बनाते हैं। उनके इस कार्य को देखकर तपोदत्त समझ जाता है कि इन्द्रदेव मुझे रास्ते पर लाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। तभी वह कहता है कि आपने मेरे नेत्र खोल दिए हैं। अब मैं अक्षर ज्ञान के माध्यम से विद्या की प्राप्ति करूँगा।

II. अधोलिखितान् गद्यांशान् पठित्वा प्रदत्त प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतपूर्णवाक्येन लिखत
(निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर संस्कृत के पूर्ण वाक्यों में लिखिए)
1. भवतु, किम् एतेन? दिवसे मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां यावद् यदि गृहमुपैति तदपि वरम्। नाऽसौ भ्रान्तो मन्यते। अतोऽहम् इदानीं तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्मि। (जलोच्छलनध्वनिः श्रूयते) अये कुतोऽयं कल्लोलोच्छलनध्वनिः? महामत्स्यो मकरो वा भवेत् । पश्यामि तावत् । (पुरुषमेकं सिकताभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं कुर्वाणं दृष्ट्वा सहासम्)
(क) इदानीं कया विद्याम् अवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्मि?
(ख) किम् वरम् ?
(ग) अत्र ‘रात्रौ’ इति पदस्य किं विलोमपदं प्रयुक्तम् ?
(घ) पुरुषः काभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं करोति? ।
(ङ) एष इदानीं कस्यां प्रवृत्तोऽस्ति?
उत्तराणि:
(क) इदानीं तपश्चर्यया विद्याम् अवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्मि।
(ख) दिवसे मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां यावद् यदि गृहम् उपैति तद् वरम्।
(ग) अत्र ‘रात्रौ’ इति पदस्य ‘दिवसे’ विलोमपदं प्रयुक्तम्।
(घ) पुरुषः सिकताभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं करोति।।
(ङ) एष इदानीं तपश्चर्यया विद्याम् अवाप्तुं प्रवृत्त अस्ति।

2. अये! मामेवोद्दिश्य भद्रपुरुषोऽयम् अधिक्षिपति! नूनं सत्यमत्र पश्यामि। अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषामि! तदियं भगवत्याः शारदाया अवमानना। गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीयः। पुरुषाथैरेव लक्ष्यं प्राप्यते।
(क) भद्रपुरुषः माम् एव उद्दिश्य किं करोति?
(ख) अहं किम् अभिलषामि?
(ग) अत्र ‘उद्देश्य’ इति पदस्य किं पर्यायपदं प्रयुक्तम्?
(घ) मया किं करणीयः?
(ङ) तद् इयं कस्याः अवमानना?
उत्तराणि:
(क) भद्रपुरुषः माम् एव उद्दिश्य अधिक्षिपति।
(ख) अहं अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषामि।
(ग) अत्र ‘उद्देश्य’ इति पदस्य ‘लक्ष्य’ पर्यायपदं प्रयुक्तम्।
(घ) मया गुरुगृहं गत्वा एव विद्याभ्यासः करणीयः ।
(ङ) तद् इयं भगवत्याः शारदायाः अवमानना।

3. भो नरोत्तम् । नाऽहं जाने यत् कोऽस्ति भवान्। परन्तु भवद्भिः उन्मीलितं मे नयनयुगलम् । तपोमात्रेण विद्यामवाप्तुं प्रयतमानः अहमपि सिकताभिरेव सेतुनिर्माणप्रयासं करोमि। तदिदानीं विद्याध्ययनाय गुरुकुलमेव गच्छामि। (सप्रणाम गच्छति)
(क) भवद्भिः किं कृतम्?
(ख) अहं किं न जाने?
(ग) अत्र ‘अधुना’ इति पदस्य किं पर्यायपदं प्रयुक्तम् ?
(घ) तद् इदानीं अहं कुत्र गच्छामि?
(ङ) अहम् अपि सिकताभिः एव किं करोमि?
उत्तराणि:
(क) भवद्भिः मे नयनयुगलम् उन्मीलितम्।
(ख) अहं न जाने यत् कोऽस्ति भवान्।
(ग) अत्र ‘अधुना’ इति पदस्य ‘इदानीं’ पर्यायपदं प्रयुक्तम् ।
(घ) तद् इदानीम् अहं विद्याध्ययनाय गुरुकुलं गच्छामि।
(ङ) अहम् अपि सिकताभिः एव सेतुनिर्माणप्रयासं करोमि।

III. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(स्थूलपदों के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए)
(क) तपोदत्तः कुटुम्बिभिः गर्हितोऽभवत्।
(ख) सः तपश्चर्यया विद्यां प्राप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्।
(ग) इयं भगवत्याः शारदाया अवमानना।
(घ) पुरुषार्थैः एव लक्ष्यं प्राप्यते।
(ङ) अहं विद्याध्ययनाय गुरुकुलं गच्छामि।
उत्तराणि:
(क) तपोदत्तः कैः गर्हितोऽभवत्?
(ख) कः तपश्चर्यया विद्यां प्राप्तुं प्रवृत्तोऽभवत् ?
(ग) इयं कस्याः अवमानना?
(घ) कैः एव लक्ष्यं प्राप्यते?
(ङ) अहं विद्याध्ययनाय कुत्र गच्छामि?

IV. अधोलिखितानां अव्ययानां सहायता रिक्तस्थानानि पूरयत
(निम्नलिखित अव्ययों की सहायता से रिक्त स्थान की पूर्ति कीजिए)
अलम्, एव, अपि, नूनं, विना
(क) साधु साधु! आञ्जनेयम् …………….. अतिक्रामसि।
(ख) पुरुषार्थः …………….. लक्ष्यं प्राप्यते।
(ग) अलम् …………….. तव श्रमेण।
(घ) अक्षरज्ञानं ……………. एव विद्याभ्यासः मया करणीयः।
(ङ) …………….. सत्यमत्र पश्यामि।
उत्तराणि:
(क) साधु साधु! आञ्जनेयम् अपि अतिक्रामसि।
(ख) पुरुषार्थैः एव लक्ष्यं प्राप्यते।
(ग) अलम् अलं तव श्रमेण।
(घ) अक्षरज्ञानं विना एव विद्याभ्यासः मया करणीयः।
(ङ) नूनं सत्यमत्र पश्यामि।

V. अधोलिखित प्रश्नानाम् चतुषु वैकल्पिक-उत्तरेषु उचितमुत्तरं चित्वा लिखत
(निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए चार विकल्पों में से उचित को चुनकर लिखिए)
1. अनधीतः कः ज्ञातिजनैः गर्हितोऽभवत् ?
(i) धर्मदत्तः
(ii) इन्द्रदत्तः
(iii) तपोदत्तः
(iv) शक्रदत्तः
उत्तरम्:
(iii) तपोदत्तः

2. पुरुषः काभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते?
(i) जलेभिः
(ii) मृत्तिकाभि
(iii) सिकताभिः
(iv) वारिधिभिः
उत्तरम्:
(iii) सिकताभिः

3. तपोदत्तः विद्याध्ययनाय कुत्र गच्छति?
(i) देवालयं
(ii) विद्यालयं
(iii) गुरुकुलं
(iv) आश्रम्
उत्तरम्:
(iii) गुरुकुलं

4. तपोदत्तः तपश्चर्यया काम् अवाप्तुं प्रवृत्तः?
(i) सिद्धिं
(ii) ज्ञानम्
(iii) धनम्
(iv) विद्यां
उत्तरम्:
(iv) विद्यां

5. तपोदत्तस्य नयनयुगलं केन उन्मीलितम्?
(i) तपोदत्तेन
(ii) पुरुषेण
(iii) गुरुणा
(iv) शारदया
उत्तरम्:
(i) पुरुषेण

6. ‘नास्ति + अभावो’ अत्र सन्धियुक्तपदम् अस्ति
(i) नास्त्यभावो
(ii) नास्तिअभावो
(iii) नास्तिऽभावो
(iv) नास्यात्भावो
उत्तरम्:
(i) नास्त्यभावो

7. ‘अलमलं’ इति पदस्य सन्धिविच्छेदः अस्ति
(i) अ + लमलं
(ii) अलम् + अलं
(iii) अल + मलं
(iv) अलम + लं
उत्तरम्:
(ii) अलम् + अलं

8. ‘गन्तुम्’ इति पदे कः प्रत्ययः अस्ति?
(i) शतृ
(ii) तुमुन्
(iii) क्त
(iv) ठक्
उत्तरम्:
(ii) तुमुन्

9. ‘समीरः’ इति पदस्य किं पर्यायपदम् अस्ति?
(i) पवनः
(ii) पावनः
(iii) पावकः
(iv) पवनम्
उत्तरम्:
(i) पवनः

10. ‘पुरुषार्थैः एव लक्ष्यं प्राप्यते।’ इति वाक्ये अव्ययपदम् अस्ति
(i) एव
(ii) लक्ष्यं
(iii) पुरुषार्थः
(iv) प्राप्यते
उत्तरम्:
(i) एव

योग्यताविस्तारः
यह नाट्यांश सोमदेवरचित कथासरित्सागर के सप्तम लम्बक (अध्याय) पर आधारित है। यहाँ तपोबल से विद्या पाने के लिए प्रयत्नशील तपोदत्त नामक एक बालक की कथा का वर्णन है। उसके समुचित मार्गदर्शन के लिए वेष बदलकर इंद्र उसके पास आते हैं और पास ही गंगा में बालू से सेतुनिर्माण के कार्य में लग जाते हैं। उन्हें वैसा करते देख तपोदत्त उनका उपहास करता हुआ कहता है-‘अरे! किसलिए गंगा के जल में व्यर्थ ही बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहे हो?’ इंद्र उन्हें उत्तर देते हैं यदि पढ़ने, सुनने और अक्षरों की लिपि के अभ्यास के बिना तुम विद्या पा सकते हो तो बालू से पुल बनाना भी संभव है।

(क) कवि परिचय कथासरित्सागर के रचयिता कश्मीर निवासी श्री सोमदेव भट्ट हैं। ये कश्मीर के राजा श्री अनन्तदेव के सभापण्डित थे। कवि ने रानी सूर्यमती के मनो-विनोद के लिए कथासरित्सागर नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ का मूल, महाकवि गुणाढ्य की बृहत्कथा (प्राकृत भाषा का ग्रन्थ) है।

(ख) ग्रन्थ परिचय-कथासरित्सागर अनेक कथाओं का महासमुद्र है। इस ग्रन्थ में अठारह लम्बक हैं। मूलकथा की पुष्टि के लिए अनेक उपकथाएँ वर्णित की गई हैं। प्रस्तुत कथा रत्नप्रभा नामक लम्बक से सङ्कलित की गई है। ज्ञान-प्राप्ति केवल तपस्या से नहीं, बल्कि गुरु के समीप जाकर अध्ययनादि कार्यों के करने से होती है। यही इस कथा का सार है।

(ग) पर्यायवाचिनः शब्दाः
इदानीम् अधुना, साम्प्रतम्, सम्प्रति। जलम्-वारि, उदकम्, सलिलम्।
नदी-सरित, तटिनी, तरङ्गिणी। पुरुषार्थः-उद्योगः, उद्यमः, परिश्रमः।

(घ) विलोमशब्दाः
दुर्बुद्धिः – सुबुद्धिः
गर्हितः – प्रशंसितः
प्रवृत्तः – निवृत्तः
अभ्यासः – अनभ्यासः
सस्थम् – असत्यम्

(ङ) आत्मगतम्-नाटकों में प्रयुक्त यह एक पारिभाषिक शब्द है। जब नट या अभिनेता रंगमञ्च पर अपने कथन को दूसरों को सुनाना नहीं चाहता, मन में ही सोचता है तब उसके कथन को ‘आत्मगतम्’ कहा जाता है।

(च) प्रकाशम् जब नट या अभिनेता के संवाद रंगमञ्च पर दर्शकों के सामने प्रकट किए जाते हैं, तब उन संवादों को ‘प्रकाशम्’ शब्द से सूचित किया जाता है।

(छ) अतिरामता राम से आगे बढ़ जाने की स्थिति को ‘अतिरामता’ कहा गया है-रामम् अतिक्रान्तः = अतिरामः, तस्य भावः = अतिरामता। राम ने शिलाओं से समुद्र में सेतु का निर्माण किया था। विप्र-रूपधारी इन्द्र को सिकता-कणों से सेतु बनाते देख तपोदत्त उनका उपहास करते हुए कहता है कि तुम राम से आगे बढ़ जाना चाहते हो।

निम्नलिखित कहावतों को पाठ में आए हुए संस्कृत वाक्यांश में पहचानिए
(i) सुबह का भूला शाम को घर लौट आए, तो भूला नहीं कहलाता है।
(ii) मेरी आँखें खुल गईं।

(ज) आञ्जनेयम्-अञ्जना के पुत्र होने के कारण हनुमान को आञ्जनेय कहा जाता है। हनुमान उछलकर कहीं भी जाने में समर्थ थे। इसलिए इन्द्र के यह कहने पर कि मैं सीढ़ी से जाने में विश्वास नहीं करता हूँ अपितु उछलकर ही जाने में समर्थ हूँ, तपोदत्त फिर से उपहास करते हुए कहता है कि पहले आपने पुल निर्माण में राम को लाँघ लिया और अब उछलने में हनुमान को भी लाँघने की इच्छा कर रहे हो।

(झ) अक्षरज्ञानस्य माहात्म्यम्
(i) विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ।
(ii) किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या।
(iii) यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पण्डितानुपाश्रयते। तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनीदलमिव विकास्यते बुद्धिः ॥

HBSE 9th Class Sanskrit सिकतासेतुः Important Questions and Answers

सिकतासेतुः नाट्यांशों के सप्रसंग हिन्दी सरलार्थ एवं भावार्थ

1. (ततः प्रविशति तपस्यारतः तपोदत्तः)
तपोदत्तः – अहमस्मि तपोदत्तः। बाल्ये पितृचरणैः क्लेश्यमानोऽपि विद्यां नाऽधीतवानस्मि।
तस्मात् सर्वैः कुटुम्बिभिः मित्रैः ज्ञातिजनैश्च गर्हितोऽभवम्।
(ऊर्ध्वं निःश्वस्य)
हा विधे! किम् इदं मया कृतम्? कीदृशी दुर्बुद्धि आसीत् तदा! एतदपि न चिन्तितं यत्
परिधानैरलङ्कारैर्भूषितोऽपि न शोभते।
नरो निर्मणिभोगीव सभायां यदि वा गृहे ॥1॥
(किञ्चिद् विमृश्य)
भवतु, किम् एतेन? दिवसे मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां यावद् यदि गृहमुपैति तदपि वरम् ।
नाऽसौ भ्रान्तो मन्यते। अतोऽहम् इदानी तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्मि।
(जलोच्छलनध्वनिः श्रूयते)
अये कुतोऽयं कल्लोलोच्छलनध्वनिः? महामत्स्यो मकरो वा भवेत्। पश्यामि तावत् ।
(पुरुषमेकं सिकताभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं कुर्वाणं दृष्ट्वा सहासम्)
हन्त! नास्त्यभावो जगति मूर्खाणा: तीव्रप्रवाहायां नद्यां मूढोऽयं सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते!

अन्वय-परिधानैः अलंकारैः भूषितः अपि नरः सभायां गहे वा निर्मणिभोगी इव न शोभते।

शब्दार्थ-बाल्ये = बचपन में। पितृचरणैः = पिता के द्वारा । क्लेश्यमानोऽपि (क्लेश्यमानः + अपि) = व्याकुल किया जाता हुआ। अधीतवान् = पढ़ा। कुटुम्बिभिः = परिवार के सदस्यों के द्वारा। ज्ञातिजनैः = जाति वाले लोगों के द्वारा। गर्हितोऽभवम् = अपमानित किया गया। ऊर्ध्वं निःश्वस्य = ऊपर की ओर साँस लेकर । हा विधे! = हाय विधाता। दुर्बुद्धि = दुष्ट बुद्धि। चिन्तितं यत् = सोचा गया। परिधानैः = वस्त्रों से। भूषितः = सजा हुआ। निर्मणिभोगीव = मणिहीन साँप की तरह। शोभते = सुशोभित होता है। विमृश्य = सोचकर। मार्गभ्रान्तः = उचित मार्ग से दूर। सन्ध्यां यावद् = शाम तक। गृहमुपैति (गृहम् + उपैति) = घर के पास जाता है। वरम् = अच्छा है। भ्रान्तो = भ्रमयुक्त। तपश्चर्यया = तपस्या से। जलोच्छलनध्वनिः = पानी के उछलने की आवाज। श्रूयते = सुनी जा रही है। कल्लोलोच्छलनध्वनिः = तरंगों के उछलने की आवाज। महामत्स्यो = बड़ी मछली। मकरो = मगरमच्छ। सिकताभिः = बालू से रेत से। सेतुः = पुल । कुर्वाणं = करते हुए। सहासम् = हँसते हुए। अभावः = कमी। मूढः = मूर्ख । निर्मातुं = बनाने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। इस पाठ का संकलन सोमदेव द्वारा रचित ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से किया गया है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में बताया गया है कि तपोदत्त तपस्या के द्वारा विद्या प्राप्त करने का निश्चय करता है। वह कहता है कि

सरलार्थ-(तब तपस्या में लीन तपोदत्त प्रवेश करता है)
तपोदत्त मैं तपोदत्त हूँ। बचपन में पूज्य पिता जी के द्वारा (पढ़ाई के लिए) व्याकुल किए जाने पर भी मैंने विद्या नहीं पढ़ी। इसलिए मैं परिवार के सभी सदस्यों, मित्रों और सम्बन्धियों के द्वारा अपमानित किया गया।
(ऊपर की ओर देखते हुए साँस छोड़कर) हे प्रभो! यह मैंने क्या किया? मेरी कैसी दुष्ट बुद्धि हो गई थी उस समय। मैंने यह भी नहीं सोचा कि
वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित परन्तु विद्या से हीन मनुष्य घर पर अथवा सभा में मणि से रहित साँप की भाँति कभी भी सुशोभित नहीं होता।

भावार्थ-भाव यह है कि मनुष्य की शोभा वस्त्र अथवा आभूषण से नहीं होती। उसकी शोभा तो केवल विद्या के द्वारा ही होती है।

(कुछ सोचकर) अच्छा, इससे क्या दिन में पथभ्रष्ट हुआ मनुष्य यदि शाम तक घर आ जाए तो भी ठीक है। वह भ्रमयुक्त नहीं माना जाता। अब मैं तपस्या के द्वारा विद्या-प्राप्ति में लग जाता हूँ।

(पानी के उछलने की आवाज सुनाई पड़ रही है) अरे! यह लहरों के उछलने की ध्वनि कहाँ से आ रही है? शायद बड़ी मछली अथवा मगरमच्छ हो। चलो मैं देखता हूँ। (एक पुरुष को बालू से पुल बनाने का प्रयास करते हुए देखकर हँसते हुए)। अरे! इस संसार में मूों की कमी नहीं है। तेज प्रवाह वाली नदी में यह मूर्ख बालू से पुल बनाने का प्रयास कर रहा है।

भावार्थ भाव यह है कि समय के अनुसार उचित माध्यम से किया गया कार्य ही मनुष्य के लिए कल्याणकारी होता है। यदि तपोदत्त बाल्यावस्था में ही पिता जी की बात मान लेता तो उसे दुःखी नहीं होना पड़ता। इसके साथ ही उसने विद्या की प्राप्ति के लिए उचित तरीका नहीं अपनाया। विद्या की प्राप्ति तो गुरु की कृपा एवं उनके मार्गदर्शन से होती है, तपस्या करने से नहीं।

2. (साट्टहासं पार्श्वमुपेत्य)
भो महाशय! किमिदं विधीयते! अलमलं तव श्रमेण। पश्य,
रामो बबन्ध यं सेतुं शिलाभिर्मकरालये।
विदधद् बालुकाभिस्तं यासि त्वमतिरामताम् ॥2॥
चिन्तय तावत्। सिकताभिः क्वचित्सेतुः कर्तुं युज्यते?
पुरुषः – भोस्तपस्विन्! कथं माम् अवरोधं करोषि। प्रयत्नेन किं न सिद्धं भवति? कावश्यकता शिलानाम् ?
सिकताभिरेव सेतुं करिष्यामि स्वसंकल्पदृढतया।।
तपोदत्तः – आश्चर्यम् किम् सिकताभिरेव सेतुं करिष्यसि? सिकता जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम् ? भवता चिन्तितं न वा?
पुरुषः – (सोत्यासम्) चिन्तितं चिन्तितम्। सम्यक् चिन्तितम्। नाहं सोपानसहायतया अधि रोटुं विश्वसिमि। समुत्प्लुत्यैव गन्तुं क्षमोऽस्मि।
तपोदत्तः – (सव्यङ्ग्यम्)
साधु साधु! आञ्जनेयमप्यतिक्रामसि!

अन्वय-रामः मकरालये यं सेतुं शिलाभिः बबन्ध तं बालुकाभिः विदधत् त्वम् अतिराम् यासि।

शब्दार्थ-बबन्ध = बँधा था। शिलाभि = बड़े पत्थरों से। मकरालये = समुद्र पर। विदधद् = बनाते हुए। बालुकाभिस्तं = बालू के द्वारा। अतिरामतां = अतिक्रमण। यासि = कर रहे हो। स्थास्यन्ति = टिक सकेगा। स्वसंकल्पदृढतया = अपने संकल्प को दृढ़ता से। सोत्प्रासम् = मजाक उड़ाते हुए। अधि रोटुं = चढ़ने के लिए। विश्वसिमि = मैं विश्वास करता हूँ। समुत्प्लुत्यैव (सम् + उत्प्लुत्य + एव) = छलांग मारकर ही। सव्यङ्ग्यम् = व्यंग्यपूर्वक। आञ्जनेय = अञ्जनि-पुत्र हनुमान को। अतिक्रामसि = तुम अतिक्रमण कर रहे हो।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। इस पाठ का संकलन सोमदेव द्वारा रचित ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से किया गया है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में इन्द्रवेषधारी पुरुष तथा तपोदत्त के आपसी वार्तालाप का वर्णन किया गया है।

सरलार्थ (जोर-जोर से हँसते हुए पास जाकर) हे महाशय! यह क्या कर रहे हैं? बस-बस श्रम न करें। देखिए। श्रीराम ने समुद्र पर जिस पुल का शिलाओं से निर्माण किया था, उस पुल को (इस प्रकार से) बालू से बनाते हुए तुम उनके पुरुषार्थ का अतिक्रमण कर रहे हो।

भाव-भाव यह है कि श्रीराम ने समुद्र पर शिलाओं के द्वारा पुल का निर्माण करके महान् कार्य किया था। अब तुम बालू से पुल बनाकर राम से भी महान कार्य करने जा रहे हो। इसलिए जरा सोचो (क्या) कहीं रेत द्वारा भी पुल बनाया जा सकता है?

पुरुष हे तपस्विन्! तुम मुझे क्यों रोकते हो? प्रयास करने से क्या सिद्ध नहीं होता? शिलाओं की क्या आवश्यकता? मैं बालू से ही पुल बनाने के लिए संकल्प से बद्ध हूँ।
तपोदत्त-आश्चर्य! बालू से ही पुल बनाओगे? क्या तुमने यह नहीं सोचा है कि बालू जल प्रवाह पर किस प्रकार ठहरेगा?
पुरुष-(उसकी बात का खण्डन करते हुए) सोचा है, सोचा है। अच्छी प्रकार सोचा है। मैं सीढ़ियों के मार्ग से (परंपरागत तरीके से) अटारी पर चढ़ने में विश्वास नहीं करता। मुझमें छलांग मारकर जाने की क्षमता है।

तपोदत्त-(व्यंग्यपूर्वक) शाबाश! शाबाश! तुम तो अञ्जनि-पुत्र हनुमान का भी अतिक्रमण कर रहे हो।

भावार्थ भाव यह है कि विद्वान् प्रत्येक कार्य करने के लिए समुचित तरीका अपनाता है। जैसे छत पर चढ़ने के लिए सीढ़ियों का ही प्रयोग किया जाता है। जो छलांग लगाकर या उछलकर चढ़ने का प्रयास करते हैं, उन्हें प्रायः असफलता ही मिलती है। वस्तुतः इन्द्रदेव ने तपोदत्त को समझाने के लिए ही छलांग लगाकर अटारी पर चढ़ने की बात कही है।

3. पुरुषः – (सविमर्शम)
कोऽत्र सन्देहः? किञ्च,
विना लिप्यक्षरज्ञानं तपोभिरेव केवलम् ।
यदि विद्या वशे स्युस्ते, सेतुरेष तथा मम ॥3॥
तपोदत्तः – (सवैलक्ष्यम् आत्मगतम्)
अये! मामेवोद्दिश्य भद्रपुरुषोऽयम् अधिक्षिपति! नूनं सत्यमत्र पश्यामि। अक्षरज्ञानं
विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषामि! तदियं भगवत्याः शारदाया अवमानना।
गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीयः। पुरुषाथैरेव लक्ष्यं प्राप्यते।
(प्रकाशम)
भो नरोत्तम् । नाऽहं जाने यत् कोऽस्ति भवान् । परन्तु भवद्भिः उन्मीलितं मे नयनयुगलम्।
तपोमात्रेण विद्यामवाप्तुं प्रयतमानः अहमपि सिकताभिरेव सेतुनिर्माणप्रयासं करोमि।
तदिदानी विद्याध्ययनाय गुरुकुलमेव गच्छामि।
(सप्रणामं गच्छति)

अन्वय-यदि लिपि-अक्षर-ज्ञानं विना केवलं तपोभिः एव विद्या ते वशे स्युः, तथा मम एष सेतुः।

शब्दार्थ-सविमर्शम् = सोच-विचारकर। किञ्च = इसके अतिरिक्त। लिप्यक्षरज्ञानं (लिपि + अक्षरज्ञान) = लिपि और अक्षर ज्ञान। तपोभिरेव (तपोभिः + एव) = तपस्या द्वारा ही। वशे = वश में। स्युस्ते (स्युः + ते) = तुम्हारी हो जाएगी। सेतुरेष (सेतुः + एष) = यह पुल । सवैलक्ष्यम् = लज्जापूर्वक। आत्मगतम् = मन में ही सोचना। अधिक्षिपति = निन्दा करता है। अवमानना = अपमान। शारदा = सरस्वती। लक्ष्यं = लक्ष्य, उद्देश्य। पुरुषार्थैरेव = प्रयत्नों से। प्रकाशम् = प्रकट रूप में। भो नरोत्तम! = हे महापुरुष। उन्मीलितं = खोल दिए हैं। प्रयतमानः = प्रयत्न करता हुआ। सेतुनिर्माणप्रयासं = पुल बनाने का प्रयत्न। तदिदानी (तद् + इदानीम्) = तो अब।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी प्रथमो भागः’ में संकलित पाठ ‘सिकतासेतुः’ में से उद्धृत है। इस पाठ का संकलन सोमदेव द्वारा रचित ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से किया गया है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में बताया गया है कि तपोदत्त ने अपनी गलती मानते हुए गुरुकुल जाने का निश्चय किया। सरलार्थ-पुरुष (सोच-विचारकर)
और क्या? इसमें क्या सन्देह है?

यदि लिपि अथवा अक्षर ज्ञान के बिना केवल तपस्या से विद्या तुम्हारे वश में हो जाएगी, उसी प्रकार यह पुल भी (केवल बालू से बन जाएगा)

भावार्थ-भाव यह है कि जिस प्रकार लिपि एवं अक्षरों के ज्ञान के बिना विद्या की प्राप्ति असम्भव है, उसी प्रकार बालू से पुल का निर्माण भी असम्भव है।

तपोदत्त-(लज्जापूर्वक अपने मन में)
अरे! यह सज्जन पुरुष मुझे ही लक्ष्य करके आक्षेप लगा रहा है! यहाँ निश्चय ही सच्चाई देख रहा हूँ। मैं अक्षरज्ञान के बिना ही विद्वत्ता प्राप्त करने की इच्छा कर रहा हूँ। यह तो देवी सरस्वती का अपमान है। मुझे गुरुकुल जाकर ही विद्या का अध्ययन करना चाहिए। पुरुषार्थ से ही लक्ष्य प्राप्त होता है। (प्रकट रूप से) .
हे श्रेष्ठ पुरुष! मैं नहीं जानता कि आप कौन हैं? परन्तु आपने मेरे नेत्र खोल दिए। तपस्या मात्र से ही विद्या को प्राप्त करने का प्रयास करता हुआ मैं बालू से ही पुल बनाने का प्रयास कर रहा था। तो अब मैं विद्या प्राप्त करने के लिए गुरुकुल जा रहा हूँ।

(प्रणाम करके चला जाता है)
भावार्थ भाव यह है कि विद्या की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम गुरुकुल जाना पड़ता है। गुरुकुल में गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान से ही मनुष्य विद्वान् बन सकता है। इसके विपरीत साधनों से जो विद्या-प्राप्ति का प्रयास करता है, वह सरस्वती का अपमान करता है। उसके द्वारा किया गया प्रयास बालू से पुल बनाने के समान है।

अभ्यासः

1. एकपदेन उत्तरं लिखत
(एक पद में उत्तर लिखिए)
(क) कः बाल्ये विद्यां न अधीतवान् ?
(ख) तपोदत्तः कया विद्याम् अवाप्तुं प्रवृत्तः अस्ति?
(ग) मकरालये कः शिलाभिः सेतुं बबन्ध?
(घ) मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां कुत्र उपैति?
(ङ) पुरुषः सिकताभिः किं करोति?
उत्तराणि:
(क) तपोदत्तः,
(ख) तपश्चर्यया,
(ग) रामः,
(घ) गृहम्,
(ङ) सेतु-निर्माण प्रयासं।

2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए)
(क) अनधीतः तपोदत्तः कैः गर्हितोऽभवत्?
(ख) तपोदत्तः केन प्रकारेण विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्?
(ग) तपोदत्तः पुरुषस्य कां चेष्टां दृष्ट्वा अहसत्?
(घ) तपोमात्रेण विद्यां प्राप्तुं तस्य प्रयासः कीदृशः कथितः?
(ङ) अन्ते तपोदत्तः विद्याग्रहणाय कुत्र गतः?
उत्तराणि:
(क) अनधीतः तपोदत्तः सर्वैः कुटुम्बिभिः मित्रैः ज्ञातिजनैः च गर्हितोऽभवत्।
(ख) तपोदत्तः तपश्चर्यया विद्यां प्राप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्।
(ग) पुरुषमेकं सिकताभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं कुर्वाणं दृष्ट्वा अहसत्।
(घ) तपोमात्रेण विद्यां प्राप्तुं तस्य प्रयासः सिकताभिरेव सेतुनिर्माणप्रयासमिव कथितः।
(ङ) अन्ते तपोदत्तः विद्याग्रहणाय गुरुकुलं गतः।

3. भिन्नवर्गीयं पदं चिनुत
(भिन्न वर्ग के शब्द चुनिए)
यथा-अधिरोढुम्, गन्तुम्, सेतुम्, निर्मातुम्।
(क) निःश्वस्य, चिन्तय, विमृश्य, उपेत्य।
(ख) विश्वसिमि, पश्यामि, करिष्यामि, अभिलषामि।
(ग) तपोभिः, दुर्बुद्धिः, सिकताभिः, कुटुम्बिभिः।
उत्तराणि:
(क) चिन्तय,
(ख) करिष्यामि,
(ग) दुर्बुद्धिः ।

4. (क) रेखाङ्कितानि सर्वनामपदानि कस्मै प्रयुक्तानि?
रिखांकित सर्वनाम पद किसके लिए प्रयुक्त हुए हैं)
(i) अलमलं तव श्रमेण।
(ii) न अहं सोपानमागैरट्टमधिरोद्धं विश्वसिमि।
(iii) चिन्तितं भवता न वा।
(iv) गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीयः।
(v) भवद्भिः उन्मीलितं मे नयनयुगलम्।
उत्तराणि:
(i) पुरुषाय,
(ii) पुरुषाय,
(iii) पुरुषाय,
(iv) तपोदत्ताय,
(v) तपोदत्ताय।

(ख) अधोलिखितानि कथनानि कः कं प्रति कथयति?
(निम्नलिखित वचनों को कौन किसे कहता है)
कथनानि – कः – कम्
(1) हा विधे! किमिदं मया कृतम्? ………………….., …………………………
(ii) भो महाशय! किमिदं विधीयते। ………………….., …………………………
(ii) भोस्तपस्विन् ! कथं माम् उपरुणत्सि। ………………….., …………………………
(iv) सिकताः जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम्? ………………….., …………………………
(v) नाहं जाने कोऽस्ति भवान् ? ………………….., …………………………
उत्तराणि-
कथनानि कः – कम्
(i) हा विधे! किमिदं मया कृतम् ? तपोदत्तः – विधिम्
(ii) भो महाशय! किमिदं विधीयते। तपोदत्तः – पुरुषम्
(iii) भोस्तपस्विन्! कथं माम् उपरुणत्सि। पुरुषः – तपोदत्तम्
(iv) सिकताः जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम् ? तपोदत्तः – पुरुषम्
(v) नाहं जाने कोऽस्ति भवान् ? तपोदत्तः – पुरुषम्

5. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(स्थूल शब्दों के अनुसार प्रश्न निर्माण कीजिए)
(क) तपोदत्तः तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्ति।
(ख) तपोदत्तः कुटुम्बिभिः मित्रः गर्हितः अभवत् ।
(ग) पुरुषः नद्यां सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते।
(घ). तपोदत्तः अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषति।
(ङ) तपोदत्तः विद्याध्ययनाय गुरुकुलम् अगच्छत् ।
(च) गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासः करणीयः।
उत्तराणि:
(क) तपोदत्तः केन विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्ति?
(ख) कः कुटुम्बिभिः मित्रः गर्हितः अभवत्?
(ग) पुरुषः कुत्र सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते?
(घ) तपोदत्तः कम् विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषति?
(ङ) तपोदत्तः किमर्थं गुरुकुलम् अगच्छत्?
(च) कुत्र गत्वैव विद्याभ्यासः करणीयः?

6. उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितविग्रहपदानां समस्तपदानि लिखत
(उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित विग्रह पदों के समस्तपद लिखिए)
विग्रहपदानि समस्तपदानि
यथा- संकल्पस्य सातत्येन संकल्पसातत्येन
(क) अक्षराणां ज्ञानम् ………………….
(ख) सिकतायाः सेतुः ………………….
(ग) पितुः चरणैः …………..
(घ) गुरोः गृहम् ………………….
(ङ). विद्यायाः अभ्यासः ………………….
उत्तराणि:
(क) अक्षराणां ज्ञानम् अक्षरज्ञानम्
(ख) सिकतायाः सेतुः सिकतासेतुः
(ग) पितुः चरणैः पितृचरणैः
(घ) गुरोः गृहम् गुरुगृहम्
(ङ) विद्यायाः अभ्यासः विद्याभ्यासः

(अ) उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं कुरुत
(उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित समस्तपदों के विग्रह कीजिए)
समस्तपदानि विग्रहः
यथा- नयनयुगलम् नयनयोः युगलम्
(क) जलप्रवाहे ………………
(ख) तपश्चर्यया ………………
(ग) जलोच्छलनध्वनिः ………………
(घ) सेतुनिर्माणप्रयासः ………………
उत्तराणि:
(क) जलप्रवाहे – जलस्य प्रवाहे
(ख) तपश्चर्यया – तपसः चर्यया
(ग) जलोच्छलनध्वनिः – जलस्य उच्छलनस्य ध्वनिः
(घ) सेतुनिर्माणप्रयासः – सेतोः निर्माणस्य प्रयासः

7. उदाहरणमनुसृत्य कोष्ठकात् पदम् आदाय नूतनं वाक्यद्वयं रचयत
(उदाहरण के अनुसार कोष्ठक से पद लेकर. दो नए वाक्य बनाइए)
(क) यथा- अलं – चिन्तया। (‘अलम्’ योगे तृतीया)
(i) …………., …………. (भय)
(ii) …………., …………. (कोलाहल)
उत्तराणि:
(क) यथा- अलं चिन्तया। (‘अलम्’ योगे तृतीया)
(i) अलं – भयेन। (भय)
(ii) अलं – कोलाहलेन। (कोलाहल)

(ख) यथा-माम् अनु स गच्छति । (‘अनु’ योगे द्वितीया)
(i) …………., …………., …………. (गृह)
(ii) …………., …………., …………. (पर्वत)
उत्तराणि:
(ख) यथा-माम् अनु स गच्छति।
(i) गृहम् अनु मम विद्यालयः अस्ति। (गृह)
(ii) पर्वतम् अनु नदी वहति। (पर्वत)

(ग) यथा-अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यं प्राप्तुमभिलषसि। (‘विना’ योगे द्वितीया)
(i) …………., …………., …………. (परिश्रम)
(ii) …………., …………., …………. (अभ्यास)
उत्तराणि:
(ग) यथा-अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यं प्राप्तुमभिलषसि। (‘विना’ योगे द्वितीया)
(i) परिश्रमं विना एव त्वं प्रथमस्थानं प्राप्तुम् अभिलषसि। (परिश्रम)
(ii) अभ्यासं विना एव विद्यां प्राप्तुम् अभिलषसि। (अभ्यास)

(घ) यथा-सन्ध्यां यावत् गृहमुपैति। (‘यावत्’ योगे द्वितीया)
(i) …………., …………., …………. (मास)
(ii) …………., …………., …………. (वर्ष)
उत्तराणि:
(घ) यथा-सन्ध्यां यावत् गृहमुपैति। (‘यावत्’ योगे द्वितीया)
(i) मासं यावत् अभ्यासं करोषि। (मास)
(ii) वर्षम् यावत् तपः आचरिष्यसि। (वष)

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