मौर्य काल | Mauryan period
मौर्य काल | Mauryan period
मौर्य काल
चन्द्रगुप्त मौर्य
मौर्य वंश की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी, जो एक साधारण कुल और परिवार के थे। ब्राह्मणवादी परम्परा के अनुसार, वे नन्दों के रनवास में रहने वाली एक शुद्र महिला, मुरा की कोख से पैदा हुए थे। हालाँकि, प्राचीन बौद्ध परम्परा से पता चलता है
कि मौर्य, नेपाली तराई के पास गोरखपुर क्षेत्र के पीपहलिवन के छोटे गणराज्य के अत्रिय वंश या शासक वंश के थे। यह सम्भव है कि चन्द्रगुप्त भी इसी कबीले से रहे हों। उन्होंने नन्द शासन के अन्तिम दिनों का लाभ उठाया। चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य भी कहा जाता है, उनकी मदद से चन्द्रगुप्त ने नन्दों का प्रभुत्व मिटाकर मौर्य वंश के शासन की स्थापना की। नौवीं शताब्दी में विशाखदत्त रचित नाटक मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त के शत्रुओं के विरुद्ध चाणक्य द्वारा रची गई कूटनीतियों का वर्णन है। इस विषय पर आधुनिक समय के कई नाटक लिखे गए हैं।
यूनानी लेखक, जस्टिन कहते हैं कि 6,00,000 सेना के साथ चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत को जीत लिया था। यह बात सच हो या न हो, लेकिन इतना सच है कि चन्द्रगुप्त ने सिन्धु के पश्चिमी क्षेत्रों पर शासन कर रहे सेल्यूकस के शिकंजे से उत्तर-पश्चिमी
भारत को मुक्त कराया। यूनानी वायसराय के साथ युद्ध में, चन्द्रगुप्त विजयी साबित हुए। आखिरकार, दोनों के बीच शान्ति समझौता हुआ; 500 हाथी के बदले में सेल्यूकस ने उन्हें न केवल अपनी बेटी, बल्कि पूर्वी अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिन्धु का पश्चिमी इलाका भी दे दिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने विशाल साम्राज्य कायम किया, जिसमें बिहार, उड़ीसा और बंगाल ही नहीं, पश्चिमी..और उत्तर-पश्चिमी भारत और दक्कन भी शामिल थे। केरल, तमिलनाडु और उत्तर-पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों के अलावा, मौर्य ने लगभग पूरे उपमहाद्वीप पर शासन किया। उत्तर-पश्चिम में, उन्होंने उन खास क्षेत्रों पर भी दबदबा बनाया, जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्य भी अपना हिस्सा नहीं बना पाया। मौर्य ने गणराज्यों या संघों को भी जीत लिया, जिसे कौटिल्य, साम्राज्य विस्तार में बाधक मानते थे।
साम्राज्य का गठन
मौर्यों ने प्रशासन की एक विस्तृत व्यवस्था और तंत्र स्थापित किया। इसका उल्लेख मेगस्थनीज के लेखन और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। मेगस्थनीज एक यूनानी राजदूत थे, जो सेल्यूकस द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजे गए थे। वे मौर्य सम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में रहते थे; यहाँ रहकर उन्होंने पाटलिपुत्र नगर के प्रशासन के साथ-साथ पूरे मौर्य साम्राज्य के बारे में लिखा। मेगस्थनीज का लेखन पूर्णत: उपलब्ध नहीं है, लेकिन कई यूनानी लेखकों के लेखन में मेगस्थनीज द्वारा उल्लिखित उद्धरण मिलते हैं।
इन उद्धरणों को संगृहीत कर इण्डिका शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित हुई, जो मौर्य काल के प्रशासन, समाज और अर्थव्यवस्था पर यथोचित प्रकाश डालती है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र को मेगस्थनीज के लेखन का पूरक माना जा सकता है। समग्र रूप से अर्थशास्त्र का संकलन मौर्य काल के कुछेक शताब्दी बाद भले ही किया गया हो, लेकिन इसके कुछ अध्यायों में, मौर्ययुगीन प्रशासन और अर्थव्यवस्था के बारे में वास्तविक सूचना और सामग्री मिलती है। इन दोनों स्रोतों से हमें चन्द्रगुप्त मौर्य की प्रशासनिक व्यवस्था को समझने में मदद मिलती है।
चन्द्रगुप्त मौर्य स्पष्ट रूप से पूर्ण शासक थे, उन्होंने सारी शक्ति अपने अधीन कर ली थी। अर्थशास्त्र की मानें, तो उल्लेख है कि इस राजा ने उच्च आदर्श स्थापित किए थे। उन्होंने कहा कि प्रजा की खुशी में उनकी खुशी है; और प्रजा की परेशानियाँ उनकी अपनी परेशानियाँ हैं। हालाँकि इस बात की सूचना नहीं है कि राजा ने, इन आदर्शों का अनुपालन कितना किया। मेगस्थनीज के अनुसार, राजा की मदद करने के लिए एक बौद्धिक परिषद से सहायता मिलती थी। वैसे इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता कि राजा उनकी सलाहों को मानने के लिए बाध्य होते थे, हालाँकि उच्च अधिकारियों का चुनाव इन्हीं परिषद के सदस्यों में से होता था। पूरा साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित किया गया था और इनमें से प्रत्येक को एक राजकुमार के अधीन रखा गया था, जो शाही राजवंश के वंशज थे। प्रान्तों को छोटी इकाइयों में विभाजित किया गया था। ग्रामीण एवं शहरी, दोनो क्षेत्रों के लिए प्रशासनिक व्यवस्था की गई थी। खुदाई से पता चलता है कि मौर्य काल के नगरों की काफी बड़ी संख्या है। पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, उज्जैन और तक्षशिला उनमे सबसे महत्त्वपूर्ण नगर थे। मेगस्थनीज के अनुसार भारत में कई नगर मौजूद थे, लेकिन उन्होंने पाटलिपुत्र को सबसे महत्त्वपूर्ण माना। वे इसे पलिबोथरा कहते हैं। इस यूनानी शब्द का अर्थ है द्वार वाला नगर। उसके अनुसार पाटलिपुत्र एक गहरी खाई और 570 टावर सहित लकड़ी की दीवार से घिरा हुआ था और 64 दरवाजे थे। खाई, लकड़ी के घेरे और लकड़ी के मकान उत्खनन में पाए गए हैं।
मेगस्थनीज के अनुसार, पाटलिपुत्र 9.33 मील लम्बा और 1,75 मील चौड़ा था। यह आकार आज के पटना से मिलता है, क्योंकि आज भी पटना की लम्बाई अधिक और चौड़ाई कम है। इस लिहाज से इस साक्ष्य को देखते हुए, मेगस्थनीज पर विश्वास करना सम्भव लगता है। यूनानी राजदूत ने मौर्यों की राजधानी, पाटलीपुत्र के प्रशासन का भी उल्लेख किया है। इस नगर के प्रशासन के लिए छह समितियाँ थीं, जिनमें से प्रत्येक में पाँच सदस्य थे। इन समितियों को स्वच्छता, विदेशियों की देखभाल, जन्म और मृत्यु के पंजीकरण, वजन और मापन के विनियमन और इसी तरह के अन्य कार्य दिए गए थे। बिहार के कई स्थानों में
मौर्य काल से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के तौल पाए गए हैं।
कौटिल्य के अनुसार, केन्द्रीय शासन ने राज्य के लगभग दो दर्जन विभाग बनाए, जो कम से कम राजधानी के निकटवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों को देखता था। चन्द्रगुप्त के प्रशासन की सबसे बड़ी विशेषता, विशाल सेना का रख-रखाव था। यूनानी लेखक प्लीनी लिखते हैं कि चन्द्रगुप्त के पास 6,00,000 पैदल सैनिक, 30,000 घुड़सवार सैनिक और 9000 हाथी थे। एक अन्य सूत्र से पता चलता है कि मौर्य के पास 8000 रथ थे।
इसके अतिरिक्त, ऐसा प्रतीत होता है कि मौर्य ने एक नौसेना भी बनाई। मेगस्थनीज के अनुसार सशस्त्र बलों का प्रशासन तीस अधिकारियों के एक बोर्ड, जो छह समितियों में विभाजित था, जिसमें प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य शामिल थे, उनके द्वारा संचालित होता था। ऐसा लगता है कि सशस्त्र बलों के छह अंगों-सेना, घुड़सवार, हाथी, रथ, नौसेना और परिवहन, अलग-अलग समितियों के जिम्मे सौंपा गया था। मौर्य साम्राज्य की ताकत नन्दों के लगभग तिगुना थी। पर्याप्त आय और साम्राज्य के विस्तार के कारण ही यह सब सम्भव हुआ होगा। चन्द्रगुप्त मौर्य ने इतनी बड़ी सेना का खर्च कैसे वहन किया? कौटिल्य के अर्थशास्त्र की मानें, तो प्रतीत होता है कि लगभग सभी आर्थिक गतिविधियों को राज्य नियन्त्रित करता था।
राज्य ने किसानों और मजदूरों की सहायता से नई जमीनों को कृषि के लिए उपयुक्त बनाया। खेती के लिए उपयुक्त नई जमीन पर बसाए गए नए किसानों से राजस्व के रूप में अच्छा कर मिला। ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों से एकत्र किए गए कर उनके उत्पादन के चौथाई से छठा हिस्से तक होते थे। जिन लोगों को राज्य द्वारा सिंचाई की सुविधा प्रदान की गई थी, उन्हें इसके लिए भुगतान करना पड़ता था। इसके अलावा, आपातकाल के समय, किसानों को अधिक फसल उगाने के लिए मजबूर किया जाता था। बिक्री के लिए नगर में लाई गई वस्तुओं पर कर लगाए जाते थे और नगरों के प्रवेश द्वार पर भी वसूली की जाती थी। इसके अलावा, राज्य को खनन, शराब की बिक्री, हथियारों के निर्माण आदि में एकाधिकार प्राप्त था। स्वाभाविक रूप से इससे शाही खजाने को विशाल संसाधन प्राप्त हुआ और वह समृद्ध हुआ। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने एक सुसंगठित प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की और इसे एक ठोस वित्तीय आधार दिया।
अशोक (ई.पू. 273-32)
चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद बिन्दुसार ने शासन किया, जिनका शासनकाल यूनानी राजकुमारों के साथ सम्बन्धों के लिए महत्त्वपूर्ण है। उनके पुत्र अशोक, मौर्य शासकों में सबसे महान थे। बौद्ध परम्परा के अनुसार, वे अपने शुरुआती जीवन में इतने क्रूर थे कि उन्होंने अपने 99 भाइयों को सिंहासन के लिए मार डाला। हालाँकि, यह कथन एक किंवदन्ती पर आधारित है, यह मिथ भी हो सकता है। अशोक की जीवनी, बौद्ध लेखकों द्वारा लिखी कल्पना से भरी है, इसीलिए इसे गम्भीरता से नहीं लिया जा सकता है।
अशोक के अभिलेख
अशोक का इतिहास उनके अभिलेखों के आधार पर पुनर्निर्मित है, जिसकी संख्या उनचालीस है, जो वृहत् शिलालेख, लघु शिलालेख, विशिष्ट शिलालेख वृहत् स्तम्भ शिलालेख और लघु स्तम्भ शिलालेख के रूप में पांच तरह से वर्गीकृत किए गए हैं। अशोक का नाम उन लघु शिलालेख की प्रतियों में आता है, जो कर्नाटक में तीन स्थानों पर और मध्य प्रदेश में एक स्थान पर पाई गई हैं। इस तरह से कुल मिलाकर, अशोक का नाम चार बार आता है। यह महत्त्वपूर्ण है कि अशोक का नाम उत्तर या उत्तर-पश्चिम भारत के किसी भी अभिलेख में नहीं आता है। जिन अभिलेखों में उनका नाम नहीं मिलता, उनमें केवल देवानाम्पिया पियादासी का उल्लेख है, अर्थात् देवताओं के प्रिय और इस कारण अशोक का नाम छोड़ दिया गया। अशोक द्वारा अपनाया गया खिताब, देवानम्पिया या ‘भगवान का प्रिय’ अनोखा नहीं था, बल्कि यह उनके पूर्वजों द्वारा भी अपनाया गया था। हालाँकि, पियादासी या ‘प्रियदर्शी’ उसके लिए अनूठा शीर्षक है। अशोक के अभिलेख भारत, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पाए गए हैं। कुल मिलाकर, वे सैंतालीस स्थानों पर पाए गए हैं और इनकी कुल संख्या 182 है, जिनमें दो एडिक्ट्स (अध्यादेश) शामिल हैं, जिन्हें नकली माना जाता है। यह महत्त्वपूर्ण है कि अशोक के अभिलेख, जो आम तौर पर प्राचीन राजमार्गों पर स्थित थे, अफगानिस्तान में छह स्थानों पर पाए गए हैं। उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में वे प्राकृत में रचित हैं और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे। हालाँकि, उपमहाद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग में वे आर्मेइक भाषा और खरोष्ठी लिपि में मिलते हैं और अफगानिस्तान में वे आर्मेइक और यूनानी दोनों भाषाओं और लिपियों में लिखे गए हैं। वे पहले भारतीय राजा थे, जिन्होंने अपने अभिलेखों के माध्यम से सीधे लोगों से बात की, जिसमें शाही आदेश होते थे। अभिलेखों में अशोक के जीवन, उनकी बाहरी और घरेलू नीतियों और उसके साम्राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है।
कलिंग युद्ध का प्रभाव
अशोक की आंतरिक और बाहरी नीतियां बौद्ध धर्म के विचारों से प्रेरित और प्रभावित थी। सिंहासन पर विराजमान होने के बाद, अशोक ने केवल एक विशाल युद्ध किया, जिसे कलिंग युद्ध कहा जाता है। उसके अनुसार, इस दौरान 1,00,000 लोग मारे गए, लाखों तबाह हो गए और 1,50,000 को कैदी बना लिया गया। इतनी संख्या अतिशयोक्ति प्रतीत होती है, क्योंकि अशोक के अभिलेखों में सतसहम (एक सौ हजार) का इस्तेमाल किया गया है जो एक कहावत के तौर पर किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा इस युद्ध में नरसंहार को देखकर अत्यधिक आहत हो गया। युज ने बामण पुजारियों और बौद भिक्षुओं को बहुत कष्ट पहुँचाया और इसके लिए अशोक को बहुत दुख और पश्चाताप हुआ। इसलिए, अशोक ने साम्राज्य के विजय की नीति त्याग कर, सांस्कृतिक विजय की नीति अपनाई। दूसरे शब्द में, भेरिघोष का स्थान धामणोष ने ले लिया। हम तेरहवें वृहत
शिलालेख से अशोक के शब्दों को उद्धत कर रहे हैं :
‘राजा बनने के आठ वर्ष बाद भगवान का प्रिय, राजा पियादासी या प्रियदर्शी ने कलिंग पर विजय प्राप्त की थी। इस युद्ध में डेढ़ लाख लोगों को बंदी बनाया गया, एक लाख लोग मारे गए और ऐसे कितने लोग तबाह हो गए। बाद में, जब कलिंग को कब्जा कर लिया गया, भगवान के प्रिय ने बड़ी निष्ठा के साथ धाम को अपनाया, धाम की कामना की और धम्म के उपदेश दिए। कलिंग को जीतने पर भगवान के प्रिय पश्चाताप में डूब गए, क्योंकि जब एक देश पर विजय मिलती है तो हत्या, मौत और पलायन होता है यह सब भगवान के प्रिय के लिए बहुत दुःखद है और उनके मन पर भारी बोझ की तरह है।
भगवान के प्रिय के लिए इससे अधिक दुःखद यह है कि जो लोग वहाँ रहते हैं, चाहे वे ब्राह्मण, श्रमण, या अन्य सम्प्रदायों के लोग हों, या शिक्षकों के आज्ञाकारी अनुयायी और अपने मित्रों, परिचितों, साथियों, सम्बन्धियों के प्रति समर्पित, रिश्तेदारों, दास और नौकर के साथ अच्छी तरह से व्यवहार करने वाले… सभी अपने प्रियजनों की हिंसा, हत्या और अलगाव को झेलते हैं…। कलिंग विजय के दौरान जो मारे गए या मर गए अगर उनका सौवाँ या हजारवाँ हिस्सा भी लोगों को भुगतना पड़ता है तो देवों के प्रिय के लिए यह आहत और दुःखी करने वाला होगा यह उन पर बहुत भारी बोझ होगा देवों के प्रिय, धम्म की जीत को सबसे बड़ी जीत मानते हैं…।
अशोक ने कबीलाई लोगों और सीमावर्ती राज्यों को विचारधारात्मक रूप से प्रभावित किया। कलिंग के राज्यों की प्रजा को कहा गया कि वह राजा को पिता के समान माने और उन पर भरोसा करे। अशोक द्वारा नियुक्त अधिकारियों को अपनी प्रजा के सभी वर्गों के बीच इस विचार का प्रचार करने के निर्देश दिए गए। साथ ही कबीलाई लोगों को भी धम्म (धर्म) के सिद्धान्तों का पालन करने के लिए कहा गया।
अशोक बाहरी राज्यों को सैन्य विजय के लिए उचित नहीं मानते थे। बाहरी राज्यों के लोगों और जानवरों के कल्याण के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण कदम उठाया, जो उस समय की स्थितियों के मद्देनजर एक नई चीज थी। उन्होंने पश्चिम एशिया और यूनान यूनानी साम्राज्यों में शान्ति दूतों को भेजा। यह सब अशोक के अभिलेखों पर आधारित है। यदि हम बौद्ध परम्परा की मानें, तो यह पता चलेगा कि उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका और मध्य एशिया में धम्मप्रचारकों को भेजा गया। श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक की पहल का समर्थन करता अभिलेखकीय साक्ष्य मौजूद है। एक प्रबुद्ध शासक के रूप में, अशोक ने प्रचार के माध्यम से अपने प्रभाव क्षेत्र को विस्तृत करने की कोशिश की।
यह सोचना गलत होगा कि कलिंग युद्ध ने अशोक को अत्यन्त शान्तिवादी बना दिया। शान्ति के लिए शान्ति की नीति उन्होंने हर परिस्थिति में नहीं अपनाई, बल्कि अपने साम्राज्य को मजबूत करने की व्यवहारिक नीति भी अपनाई। उन्होंने विजय के बाद कलिंग को अपने पास रखा और इसे अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में बनी बड़ी सेना को भंग कर दिया हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता। यद्यपि उन्होंने जनजातीय लोगों को धर्म की नीति का पालन करने के लिए कहा, उन्होंने सामाजिक व्यवस्था और धर्म के स्थापित नियमों का उल्लंघन करने वालों को प्रतिकूल परिणामों की चेतावनी दी।
साम्राज्य के भीतर उन्होंने अधिकारियों का एक वर्ग नियुक्त किया, जिन्हें राजुका नाम से जाना जाता था, जिन्हें यह अधिकार दिया गया था कि वे न केवल लोगों को इनाम, बल्कि जब भी आवश्यक हो सजा भी दें। इस तरह से साम्राज्य को मजबूत करने की अशोक की नीति सफल रही। कन्धार के अभिलेख में शिकारी और मछुआरों के साथ उनकी सफल नीति का उल्लेख है, जिन्होंने पशु हत्या त्याग कर सम्भवत: स्थाई रूप से कृषि जीवन अपना लिया।
आन्तरिक नीति और बौद्ध धर्म
कलिंग युद्ध के परिणामस्वरूप अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया था। परम्परानुसार, वे एक भिक्षु बन गए, बौद्धों को बड़ा उपहार दिया और बौद्ध धर्मस्थलों की तीर्थ यात्राएँ कीं। उनके अभिलेखों में वर्णित धम्म यात्राओं में उनके द्वारा किए गए बौद्ध मन्दिर यात्राओं का भी उल्लेख मिलता है।
परम्परानुसार, अशोक ने तीसरे बौद्ध परिषद (संगीति) का आयोजन किया और न केवल दक्षिण भारत, बल्कि श्रीलंका, म्यांमार (बर्मा) और अन्य देशों में लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने के लिए अपने प्रचारक भेजे। ई.पू. दूसरी और पहली शताब्दी के ब्राह्मी लिपि के अभिलेख श्रीलंका में पाए गए हैं। अशोक ने खुद के लिए बहुत ही उच्च आदर्श स्थापित किए और यह पितृ राजशाही का आदर्श था। उन्होंने बार-बार अपने अधिकारियों से अपनी प्रजा को बताने के लिए कहा कि राजा उन्हें अपनी सन्तान समझते हैं। राजा के प्रतिनिधि के रूप में, अधिकारियों को भी लोगों की देखभाल करने के लिए कहा गया। अशोक ने धम्ममहामात्रों को महिला सहित विभिन्न सामाजिक समूहों में धर्म प्रचार के लिए नियुक्त किया और अपने साम्राज्य में न्याय
लागू करने के लिए राजुका नियुक्त किए।
अशोक अनुष्ठानों को नहीं मानते थे, विशेष रूप से महिलाओं द्वारा मनाए जाने वाले। उन्होंने कुछ खास तरह के पशु-पक्षियों की हत्या पर रोक लगा दी, शाही रसोई में पशु वध निषेध कर दिया गया और पशु बलि को भी मना कर दिया। उन्होंने ऐसे सामाजिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया, जिसमें लोग अति-आनन्दोन्माद में लिप्त रहते थे। हालांकि, अशोक का धर्म संकीर्ण नहीं था; इसे साम्प्रदायवादी नहीं माना जा सकता है। उनके कन्धार यूनान अभिलेखों ने सम्प्रदायों के बीच मैत्री का प्रचार किया। अशोक के अभिलेख को धम्मलिपि कहा जाता है, जिसमें न केवल धर्म और नैतिकता को, बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक मामलों को भी शामिल किया गया है। इसकी तुलना ब्राह्मणवादी प्रभाव के अन्तर्गत संस्कृत में लिखे धर्मशास्त्रों और विधान-संहिता से की जा सकती है। भले ही, धम्मलिपि बौद्ध प्रभाव में प्राकृत में लिखी गई थी, लेकिन यह धर्मशास्त्रों की तरह सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखती है। अशोक के आदेशों की तुलना ब्राह्मणवादी राजाओं द्वारा संस्कृत में जारी किए वाले शासनों या शाही आदेशों से की जा सकती है। सामाजिक व्यवस्था को संरक्षित रखना इसका व्यापक उद्देश्य था। उनका
उपदेश था कि लोगों को अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए, ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं का सम्मान करना चाहिए और दासों एवं नौकरों पर दया करनी चाहिए।
कुल मिलाकर, धम्मलिपि ने लोगों से दृढ भक्ति या राजा के प्रति निष्ठा रखने को कहा। ये निर्देश बौद्ध और ब्राह्मण दोनों धर्मों में पाए जाते हैं। अशोक ने लोगों को जिओ और जीने दो की शिक्षा दी। उन्होंने पशुओं के प्रति करुणा और सगे-सम्बन्धियों के प्रति उचित व्यवहार पर बल दिया। उनकी शिक्षा का उद्देश्य परिवार और मौजूदा सामाजिक वर्गीय संस्था को सुदृढ़ करना था। वे मानते थे कि अगर लोग अच्छा व्यवहार करें तो उन्हें स्वर्ग मिलेगा, लेकिन कभी नहीं कहा कि वे निर्वाण को प्राप्त करेंगे,
जो बौद्ध शिक्षाओं का लक्ष्य था। इस प्रकार अशोक की शिक्षा सहिष्णुता के आधार पर मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने की थी। उन्होंने किसी भी तरह के साम्प्रदायिक या कट्टर मत का प्रचार नहीं किया।
इतिहास में अशोक का स्थान
कहा जाता है कि अशोक की शान्ति नीति ने मौर्य साम्राज्य को नष्ट कर दिया, लेकिन यह सच नहीं है। इसके विपरीत, अशोक ने कई उपलब्धियाँ हासिल की। वे निश्चय ही प्राचीन दुनिया के इतिहास में एक महान मिशनरी शासक थे। अपने मिशन के लिए उन्होंने पूरे उत्साह एवं लगन से काम किया; देश और विदेश में महान उपलब्धि हासिल की।
अशोक ने देश का राजनीतिक एकीकरण किया। उन्होंने आगे चलकर इसे एक धर्म, एक भाषा और लगभग एक लिपि, ब्राह्मी, से जोड़ दिया; जिसका उपयोग उनके अधिकांश अभिलखों में किया गया। देश को एकजुट करने में उन्होंने खरोष्ठी, आर्मेइक और यूनानी जैसी भारत के बाहर की लिपियों का सम्मान भी किया। उनके अभिलेख विभिन्न भाषाओं की तरह केवल प्राकृत में नहीं, बल्कि यूनानी और विशेषकर आर्मेइक में भी है, जो प्राचीन सीरिया की एक सेमेटिक भाषा थी। उनके बहुलिपि और बहुभाषी अभिलेखों ने उन्हें साक्षर लोगों से सम्पर्क साधने में सक्षम बनाया। अशोक ने एक सहिष्णु धार्मिक नीति का पालन
किया, अपनी प्रजा पर अपने बौद्ध मत को जबरदस्ती थोपने का प्रयास नहीं किया; इसके विपरीत, उन्होंने गैर-बौद्ध और बौद्ध विरोधी सम्प्रदायों को भी भेंट-उपहार दिए। अशोक को धर्म प्रचार के काम में बेहद रुचि थी और वे उत्साह से भरे हुए थे। उन्होंने साम्राज्य के दूर-दराज के हिस्सों में अधिकारी नियुक्त किया। उन्होंने विकसित गंगा घाटी और सुदूर पिछड़े प्रान्तों के बीच सांस्कृतिक सम्पर्क को बढ़ावा दिया। फलस्वरूप जो मध्यवर्ती इलाकों की विशिष्टता थी वह कलिंग, निचले डेक्कन और उत्तरी बंगाल तक फैल गई।
आखिरकार, अशोक को शान्ति, आक्रमण न करने वाले और सांस्कृतिक विजय की नीति के लिए इतिहास में जाना जाता हैं। भारतीय इतिहास में उनके पहले शान्ति के लिए ऐसी नीति का कोई उदाहरण नहीं था; ऐसा उदाहरण अन्यत्र भी कहीं नहीं था; सिवाय मिस्र के, जहाँ ई.पू. चौदहवीं शताब्दी में अजातून ने शान्त नीति का पालन किया था। लेकिन अशोक अपने मिस्र के पूर्ववर्ती से अवगत नहीं थे। यद्यपि कौटिल्य ने राजा को पूरी तरह से भौतिक विजय की सलाह दी है, किन्तु अशोक ने उसके ठीक विपरीत नीति का अनुसरण किया। अशोक ने अपने उत्तराधिकारियों को आक्रमण और विजय की नीति त्यागने को
कहा जिसे मगध के राजा कलिंग युद्ध तक अपनाते रहे थे। अशोक ने उन्हें शान्ति की नीति अपनाने की सलाह दी जो दो शताब्दियों से लगातार चल रहे आक्रामक युद्धों के बाद जरूरी था। उन्होंने लगातार अपनी नीति का पालन किया और उस पर अडिग रहे। हालाँकि उनके पास पर्याप्त संसाधन थे; अपनी विशाल सेना को बनाए रखा, किन्तु उन्होंने कलिंग विजय के बाद कोई युद्ध नहीं किया। इस अर्थ में, अशोक अपने काल और पीढ़ी से निश्चय ही बहुत आगे के शासक थे।
हालाँकि, अशोक की नीति का उनके उपराजाओं और जागीरदारों पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा, जिन्होंने ई.पू. 232 में अशोक की सेवानिवृत्ति के बाद, अपने सम्बन्धित क्षेत्रों में, खुद को स्वतन्त्र घोषित कर लिया। इस तरह अशोक की नीति उनके पड़ोसियों को ही परिवर्तित करने में सफल नहीं हुई, ई.पू. 232 में अशोक के सत्ता छोड़ने के तीस साल के पड़ोसी राजाओं ने उनके उत्तरी-पश्चिमी सीमा से अलग हो गए।