B.ED | नागरिकशास्त्र शिक्षण | Pedagogy of Civics Notes
B.ED | नागरिकशास्त्र शिक्षण | Pedagogy of Civics Notes
(Discuss the importance and ulility of civics as a secondary school subject.)
Ans. नागरिकशास्त्र एक अनिवार्य विषय के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क – यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब यह शास्त्र भारत के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है तो इसका अध्ययन सभी छात्रों के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए या नहीं। कुछ लोगों का मत है कि यदि नागरिकशास्त्र को विद्यालय पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाता है तो इसको समस्त छात्रों के लिए अनिवार्य नहीं बनाया जाना चाहिए वरन् जो छात्र इसके अध्ययन में रुचि रखते हैं उन्हें इसको एक वैकल्पिक विषय के रूप में चुनने की सुविधा प्रदान की जाये । यदि इसको सभी के लिए अनिवार्य बताया गया तो इसका अर्थ होगा कि यह पहले से ही अतिभारित पाठ्यक्रम पर एक अतिरिक्त भार होगा। उनका कहना है कि इस प्रकार से बालकों पर इसका भार डालकर नवीन शिक्षा के मूलभूत सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य किया जायेगा, क्योंकि ऐसा करना उनकी नैसर्गिक रुचियों के विरुद्ध है। परन्तु इस तर्क का सबसे मुख्य दोष यह है कि इसके समर्थक यह मानकर चलते हैं कि एक नवीन एवं अनिवार्य विषय के रूप में नागरिकशास्त्र का प्रस्तावना इस बात की अपेक्षा करता है कि छात्र एक अतिरिक्त पुस्तक को रटें जिससे वे अपने को लिखित परीक्षा देने के लिए तैयार कर सकें। यदि हम यह मानकर चलें कि इसको अनिवार्य विषय बनाने से बालकों पर अतिरिक्त भार पड़ जाएगा और उनको कुछ पुस्तकें पढ़नी पड़ेंगी तथा वे इसको अस्वाभाविक भार समझेंगे। परन्तु यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि आधुनिक समाज को समझने के लिए उसके विभिन्न अंगों, समुदायों, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों का प्रारम्भिक ज्ञान प्रौद जीवन की तैयारी के लिए परम आवश्यक है तो इसके अध्ययन से छात्र जिस अतिरिक्त भार का अनुभव करेंगे वह नहीं के बराबर ही है। इसके अतिरिक्त आज का समाज दो महायुद्धों के बावजूद अशान्तिपूर्ण है, उसको समझना तथा उसमें
अपने को व्यवस्थित करना एक बहुत ही परिश्रमयुक्त कार्य है जो छात्रों को आधुनिक समाज मैं उत्तम, पूर्ण एवं उपयोगी लंग से रहने की कला के महत्त्वपूर्ण ज्ञान से अनभिज्ञ रखना चाहते हैं, वस्तुतः वे उनको पृथ्वी पर आत्मरक्षा करने की कला को सिखाना नहीं चाहते हैं। यदि आधुनिक समाज में सुखद एवं शांत जीवन व्यतीत करने की कला को महत्त्वपूर्ण माना जाता है तो इस शास्त्र के अध्ययन को अतिरिक्त भार नहीं माना जाना चाहिए।
यह माना जाता है कि नागरिकशास्त्र के अध्ययन से छात्र ऊब जाएंगे। इस धारणा का मुख्य कारण यह है कि वे लोग इस विषय के प्रस्तावना को परम्परागत दृष्टिकोण से देखते हैं उनके अनुसार इसका प्रस्तावना परीक्षाओं, गृह-कार्य, नोट्स का रटना आदि कार्यों तक सीमित है। परन्तु प्राकृतिक अध्ययन की भाँति नागरिकशास्त्र को भी क्षेत्रीय विषय माना जाना चाहिए जिससे यात्राओं, व्यावहारिक कार्य, निरीक्षण, असेम्बली, खोज, वाद-विवाद आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाए और पाठ्य-पुस्तकों तथा परीक्षाओं को इनकी अपेक्षा कम स्थान दिया जाए। शिक्षण विधि ही यह निर्धारित करेगी कि छात्र इसको अतिरिक्त भार समझते हैं या नहीं। जो लोग इस विषय के विपक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं, वे केवल यह मानकर चलते हैं
कि इस शास्त्र का शिक्षण परम्परागत ढंग से किया जाएगा। परन्तु इस तथ्य में कोई सार नहीं दिखायी देता। क्योंकि यदि सामाजिक जीवन एवं सम्बन्धों का बालकों को सैद्धान्तिक ज्ञान देकर उन्हें स्वाभाविक वातावरण में इसे समझने के लिए अवसर प्रदान किये गये तो बालक उनका रोचक ढंग से अध्ययन करेंगे और उकताने की स्थिति का अनुभव नहीं कर पाएँगे। इस
प्रकार के अध्ययन से वे वास्तविक जीवन की विभिन्न स्थितियों से अवगत हो जाएंगे।
अंत में, हम कह सकते हैं कि नागरिकशास्त्र नागरिकता का प्रशिक्षण है, परन्तु नागरिकता वैकल्पिक नहीं है। अतः हमारे प्रत्येक छात्र को जाति, रंग, धर्म, विश्वास, व्यवसाय आदि के भेद-भाव के बिना भावी समाज का नागरिक होना है और आधुनिक
मनुष्य अतीत की प्राकृतिक अवस्था में रहना पसन्द नहीं करेगा। अत: यह आवश्यक है कि छात्रों को विद्यालय में, जहाँ तक सम्भव हो, सभ्य समाज के जीवन के ढंगों तथा जीवन की सभ्य कलाओं के विषय में प्रशिक्षित किया जाये और प्रत्येक बालक को नागरिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
नागरिकशास्त्र एक व्यावहारिक विषय है जो कि मानव के दिन-प्रतिदिन के जीवन से सम्बन्धित है। अत: इस जीवन से अवगत होने के लिए उसे व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करना है। अत: नागरिकशास्त्र की विषय-वस्तु को व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित किया जाना चाहिए और उसको जानने के लिए छात्रों को दिन-प्रतिदिन के क्रिया-कलापों के माध्यम से नागरिकता का प्रशिक्षण दिया जाये।
भारतीय विद्यालयों में नागरिकशास्त्र की वास्तविक स्थिति — स्वतन्त्र भारत में नागरिकशास्त्र को पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने ‘सामाजिक अध्ययन’ नामक नवीन विषय के प्रतिपादन की सिफारिश की। इसमें इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र तथा नागरिकशास्त्र से सम्बन्धित सामग्री को स्थान प्रदान किया। इस विषय का मुख्य उद्देश्य छात्रों को उनके समाजिक पर्यावरण से समायोजित करना निर्धारित किया गया। माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर कमीशन) ने कहा ‘छात्रों को सामुदायिक जीवन, सम्पन्न एवं नागरिक निपुणता के लिए न केवल इसका (सामाजिक अध्ययन का) आवश्यक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये बल्कि तद्नुकूल अभिवृत्तियों तथा मूल्यों का विकास भी करना चाहिये। इसके द्वारा छात्रों में देश-प्रेम की भावना तथा राष्ट्रीय विरासत की सराहना का भाव भी विकसित किया जाना चाहिए। साथ ही इसके द्वारा छात्रों में विश्व एकता तथा विश्व नागरिकता की भावना का भी विकास किया जाना चाहिए।
शिक्षा-आयोग (1964-66) (कोठारी कमीशन) ने नागरिकशास्त्र की व्यापक अवधारणा को स्वीकार करते हुए उसे पाठ्यक्रम में अनिवार्य तत्त्व माना है। आयोग ने नागरिकशास्त्र को सामाजिक अध्ययन के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। इसने लोअर प्राथमिक स्तर पर नागरिकशास्त्र को पर्यावरण के अध्ययन के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। साथ ही अपर प्राथमिक स्तर पर सामाजिक अध्ययन में इतिहास, भूगोल के साथ नागरिकशास्त्र को स्थान प्रदान किया है। आयोग के शब्दों में, “सामाजिक अध्ययन का प्रभावी कार्यक्रम भारत में उत्तम नागरिकता तथा भावनात्मक एकीकरण के विकास के लिये अनिवार्य है।” माध्यमिक स्तर पर ये विषय (इतिहास, भूगोल नागरिकशास्त्र) पृथक्-पृथक् विधाओं के रूप में पढ़ाये जाएँगे और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर ये विषय विशेषीकृत अध्ययन के आधार बनेंगे।
10+2+3 शिक्षा योजना में दस वर्षीय सामान्य विद्यालय शिक्षा में नागरिकशास्त्र का शिक्षण अनिवार्य कर दिया गया है। माध्यमिक कक्षाओं में उसे सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान के साथ पढ़ाया जाता है और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर इसका अध्यापन एक वैकल्पिक विषय के रूप में किया जाता है।
लोकतन्त्रीय भारत में नागरिकशास्त्र का महत्त्व
सदियों की गुलामी के बाद देश को स्वतन्त्रता मिली। 15 अगस्त पुण्य राष्ट्र पर्व बन गया। साथ ही नयी-नयी समस्याओं और उत्तरदायित्वों को भी साथ लाया। उस दिन हमने सोचा मानो हम युगों की प्रगाढ़ निद्रा से जागकर अब कर्त्तव्यरत होने जा रहे हैं। अधिकार मिले, सभी नागरिक अधिकार-मौलिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक और हमने स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारे का पाठ पढ़ा। किन्तु इन अधिकारों के साथ हमें नागरिक के महान् कर्तव्यों का भी निर्वाह करना है, उन गम्भीर दायित्वों का भी सफलतापूर्वक निर्वाह करना है जो हमारी स्वाधीनता ने हमें दिये।
इन अधिकारों के सच्चे उपभोग तथा दायित्वों के निर्वाह के लिए हमें नागरिकशास्त्र का अध्ययन करना परमावश्यक है क्योंकि नागरिकशास्त्र हमें यह सिखाता है कि अधिकार एवं कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं जिनको पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता है। यदि हम अपने अधिकारों का सच्चा उपयोग करना चाहते हैं तो हमको अपने दायित्वों का सत्यनिष्ठा के साथ निर्वाह भी करना होगा। अत: नागरिकशास्त्र का इस दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व है। सदियों को गुलामी के कारण हममें ऐसे गुणों का अभाव हो गया जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए परमावश्यक है। हममें आत्म-सम्मान एवं आत्म-गौरव नाम की कोई वस्तु न रहो। हम अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने लगे। हम अपने दायित्वों को केवल दण्ड के भय से निर्वाह करने के लिए आदी हो गये और स्वतन्त्रता के बाद हमने केवल अधिकारों को ही मांग की। जब कानून या किसी शक्ति ने हमें अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए बाध्य किया तभी हमने अपने दायित्वों को निभाने के लिए अलसाते हुए कदम उठाए जबकि हमें स्वेच्छा एवं समझदारी के साथ इनको निभाने के लिए तत्पर होना चाहिए
उक्त परिस्थितियों ने भारत में नागरिकशास्त्र के महत्त्व को और भी अधिक बढ़ा दिया । नागरिकशास्त्र द्वारा हम नागरिकों में नागरिक कुशलता, राष्ट्रीय समस्याओं को समझने एवं उनका समाधान करने की क्षमता, अनुशासन, सहिष्णुता, आत्म-सम्मान, स्वेच्छा से आज्ञा-पालन करने की भावना आदि गुणों का विकास करके उनको योग्य एवं कुशल नागरिक बनाने में समर्थ हो सकते हैं। साथ ही उक्त परिस्थितियों को दूर करके एक आदर्श समाज के निर्माण में सहयोग दे सकते हैं।
आज हम चारों ओर अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अत्याचार, अराजकता एवं अव्यवस्था के बारे में सुनते एवं देखते हैं। साथ ही भाषा, जाति, सम्प्रदाय, धर्म, क्षेत्र आदि के नाम पर लोगों को लड़ते-झगड़ते देखते हैं। इन झगड़ों एवं संघर्षों के परिणामस्वरूप हम अपनी राष्ट्रीय एकता को विशृंखलित होते देख रहे हैं जिसके फलस्वरूप चारों ओर से यह मांग की जा रही है कि शिक्षा
राष्ट्रीय एकता के लिए होनी चाहिए। शिक्षा द्वारा इन विघटनकारी प्रवृत्तियों को दूर करके सहिष्णुता सामंजस्य, सौहार्द्र आदि की भावनाओं का विकास किया जाये।
शिक्षा आयोग के शब्दों में, “नागरिक और राष्ट्रीय एकीकरण एक ऐसी समस्या है जिससे कई मोर्चों पर जूझना पड़ेगा जिनमें से एक शिक्षा भी है। हमारी राय में शिक्षा में निम्नलिखित को स्थान देकर कार्य में सफलता प्राप्त की जा सकती है।”
1. लोक शिक्षा को एक समान स्कूल प्रणाली शुरू की जाये।
2. शिक्षा के सभी स्तरों पर सामाजिक तथा राष्ट्रीय सेवा को शिक्षा का एक अभिन्न अंग बनाया जाये।
3. राष्ट्रीय चेतना को प्रोत्साहन दिया जाये।
उक्त समस्याओं के समाधन में नागरिकशास्त्र का अध्ययन बहुत सहायक है। नागरिकशास्त्र हमें सिखाता है कि ‘रहो और रहने दो’ यह सिद्धान्त मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम, सहयोग एवं सद्भावना उत्पन्न करता है। आज की परिस्थितियों में सद्भावना का विकास करना अनिवार्य है। साथ ही नागरिकशास्त्र राष्ट्रीय चरित्र एवं राष्ट्रीय दृष्टिकोण के निर्माण में भी सहायक है जिसके अभाव की आज हम अपने देश में अनुभूति कर रहे हैं। नागरिकशास्त्र उन सामाजिक गुणों के विकास में भी सहायता करता है जो एक सफल एवं सुखद सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य है।
26 जनवरी, 1950 को भारत का नवीन संविधान लागू किया गया। इस संविधान ने भारत को धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया। आज देश धर्म-निरपेक्षता तथा लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों पर अग्रसर हो रहा है। लोकतन्त्र में सभी वर्गों एवं सम्प्रदायों तथा धमा को उचित स्थान प्रदान करने के लिए नागरिकशास्त्र का बहुत महत्त्व है। इसके अध्ययन से व्यक्ति यह जानने में समर्थ हो सकता है कि उनको किस प्रकार से उचित स्थान प्रदान किया जाये। साथ ही यह उनको लोकतन्त्रीय जीवन के ढंग को सिखला सकता है। ऐसा यह लोगों को स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृत्व का महत्व बतलाकर और उनमें सहयोग, परोपकारिता, ‘रहो और रहने दो’ की भावना आदि का विकास करके कर सकता है
छात्रों के दृष्टिकोण से भारत में नागरिकशास्त्र का महत्व बहुत अधिक है, क्योंकि आज देश के छात्रों में अशान्ति, नैराशय एवं उच्छृखलता का बोलबाला है। इसके अतिरिक्त वे ही आने वाले कल के भावी नागरिक हैं। उन्हीं को इस देश के सभी क्षेत्रों के कार्यों का भार अपने कन्धों पर उठाना है। अत: नागरिकशास्त्र उनको इस अवस्था से निकलने में सहायता प्रदान करेगा। साथ ही उनको अपने दायित्वों एवं अधिकारों से अवगत कराकर योग्य नागरिक बनने में सहायता प्रदान कर सकता है।
नागरिकशास्त्र की उपयोगिता
(Utility of Civics)
नागरिकशास्त्र का अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में ही उसका जीवन सम्भव है और समाज में ही रहकर वह सुख एवं शांति प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार समाज के प्रति मनुष्य के क्या कर्त्तव्य हैं और वह किस प्रकार अपने समाज का एक आदर्श नागरिक तथा उपयोगी सदस्य बन सकता है। मनुष्य इन समस्त बातों का ज्ञान नागरिकशास्त्र के अध्ययन से प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त यह मनुष्य को अपने कुटुम्ब, पड़ोसियों, नगर, प्रदेश, देश तथा विश्व के प्रति अपने कर्तव्यों का ज्ञान कराता है इस शास्त्र का अध्ययन निम्नलिखित बातों के लिए
उपयोगी है-
1. स्वस्थ सामाजिक जीवन का विकास नागरिकशास्त्र का अध्ययन स्वस्थ सामाजिक जीवन के विकास के लिए उपयोगी है । नागरिकशास्त्र व्यक्ति में स्नेह, सहानुभूति, समाज-सेवा, सहयोग, कर्त्तव्यपालन आदि गुणों का विकास करता है। ये गुण स्वस्थ सामाजिक जीवन के विकास के लिए परमावश्यक हैं। इस कारण यह शास्त्र सफल एवं स्वस्थ सामाजिक जीवन के निर्माण के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसके अलावा यह शास्त्र हमें जीवित रहने की कला का भी ज्ञान प्रदान करता है। यह इस बात पर बल देता है कि ‘रहो और रहने दो’। यह सिद्धान्त स्वस्थ, सामाजिक जीवन का आधार है । नागरिकशास्त्र कलह, द्वेष, वैमनस्य आदि को दूर करने में भी सहायक है। यह हमें सामाजिक समस्याओं को सुलझाने की कला से भी परिचित कराता है। इस प्रकार नागरिकशास्त्र सफल एवं स्वस्थ सामाजिक जीवन के निर्माण में सहायता प्रदान करता है।
2. जनसाधारण के लिए उपयोगी नागरिकशास्त्र का अध्ययन जनसाधारण के लिए निम्नलिखित दृष्टिकोण से उपयोगी है-
(अ) व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान कराने के लिए- नागरिकशास्त्र व्यक्ति को यह बताता है कि उसका अस्तित्व एवं उसकी उन्नति समाज में ही सम्भव है। समाज में रहकर ही वह अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। समाज ही उसकी उन्नति के लिए अवसर प्रदान करता है। इस कारण से समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिये । नागरिकशास्त्र यह भी बताता है कि समाज की उन्नति के लिए उसे अपने निजी स्वार्थ को त्यागने के लिए तत्पर रहना चाहिये । यह शास्त्र इस बात का भी ज्ञान देता है कि व्यक्तियों से ही समाज का निर्माण होता है। अत: व्यक्ति एवं समाज दोनों को एक-दूसरे की उन्नति के लिए परस्पर सहयोग से कार्य करना चाहिये।
(ब) सामाजिक चेतना के विकास के लिए-नागरिकशास्त्र का अध्ययन व्यक्तियों में सामाजिक भावना के विकास के लिए बहुत उपयोगी है। यह शास्त्र व्यक्तियों को यह बताता है कि समाज के विभिन्न समुदायों का गठन व्यक्तियों के विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति एवं उनके जीवन को सफल, सुखी-समृद्ध बनाने के लिए किया जाता है। यदि व्यक्ति इन समुदायों में परस्पर सहयोग से कार्य नहीं करेगा तो उनका जीवन दूभर हो जायेगा। इसके अतिरिक्त नागरिकशास्त्र व्यक्ति में प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सहकारिता, परोपकारिता, सेवा आदि गुणों का विकास करके उनको सामाजिक रूप से सजग बनाता है जिससे वे समाज में स्वयं को व्यवस्थित करने में सफल हो सकें तथा उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर कर सकें।
(स) राजनैतिक चेतना के विकास के लिए नागरिकशास्त्र जनसाधारण में नैतिक चेतना के विकास के लिए बहुत उपयोगी है। यह शास्त्र व्यक्ति को देश की शासन व्यवस्था का ज्ञान प्रदान करता है तथा यह भी बताता है कि उस जन-व्यवस्था में उसका क्या स्थान है। उसे उसके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन सतर्कता के साथ करना चाहिये। नागरिकशास्त्र इस बात का ज्ञान देता है कि इसके पालन पर ही उसकी तथा देश, दोनों की उन्नति निर्भर है। इस प्रकार यह व्यक्तियों को राजनैतिक रूप से जागरूक बनाता है
(द) अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान प्रदान करने के लिए नागरिकशास्त्र समाज में रहने वाले व्यक्तियों के अधिकार एवं कर्तव्यों का शास्त्र है। जनसाधारण को यह बताता है कि व्यक्ति के कौन-कौन से अधिकार हैं? उसे इनका किस प्रकार उपयोग करना चाहिये? यह शास्त्र यह भी कहता है कि यदि कोई उसके अधिकारों का हनन करें तो उस स्थिति में उसे क्या करना चाहिये । नागरिकशास्त्र व्यक्ति को केवल अधिकारों का ही ज्ञान नहीं देता वरन् यह भी बताता है कि उसके अपने प्रति, माता-पिता के प्रति, ग्राम या नगर के प्रति, जिले के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण मानव समाज के प्रति कर्त्तव्य हैं ? उसे इन कर्तव्यों का पालन किस प्रकार करना चाहिये? यह शास्त्र भी बताता है कि यदि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन नहीं करेगा। वह अपने अधिकारों का उपयोग भी नहीं कर पायेगा। इस प्रकार यह शास्त्र व्यक्ति का अधिकार एवं कर्तव्य का पारस्परिक सम्बन्ध बताकर उसको एक सुयोग्य नागरिक बनने में सहायता देता है।
(ढ) राज्य एवं सरकार का ज्ञान देने के लिए नागरिकशास्त्र जनसाधारण को राज्य तथा व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों का ज्ञान कराकर उसे राजनैतिक रूप से सजग बनाता है। राज्य तथा उसके कार्यों का ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति अपने को सजग नागरिक बनाने में सफल हो सकता है। देश में शासन का क्या रूप है ? शासन-सत्ता किन व्यक्तियों के हाथों में है ?
शासनाधिकारी सत्ता का प्रयोग जनहित में करते हैं या स्वहित में आदि का ज्ञान नागरिकशास्त्र के अध्ययन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस शाख के आधार पर व्यक्ति भावी सरकार की कल्पना कर सकता है और उसको साकार रूप प्रदान करने के लिए साधन जुटाने के लिए प्रयासरत हो सकता है।
3. लोकतन्त्र की सफलता के लिए लोकतन्त्र की सफलता के लिए एक स्थायी सेना की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी कि शिक्षित नागरिकों की। लोकतन्त्र योग्य नागरिकों के ऊपर निर्भर है। माध्यमिक शिक्षा आयोग के शब्दों में, “लोकतन्त्र में नागरिकता एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है जिसके लिए प्रत्येक नागरिक को सतर्कतापूर्वक प्रशिक्षित किया जाना परमावश्यक
है।” लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए लोकतान्त्रिक नागरिकता का विकास करना आवश्यक है। इसके लिए नागरिकशास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। नागरिकशास्त्र द्वारा नागरिकों में नैतिक, सामाजिक तथा बौद्धिक गुणों के विकास में सहायता प्रदान की जाती है। इस कारण लोकतान्त्रिक देश अपने विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में समाज विज्ञान या नागरिकशास्त्र को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं।
4. सजग जनमत के निर्माण में सहायक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में लोकमत का बहुत महत्त्व है। नागरिकशास्त्र देश की प्रमुख समस्याओं एवं नागरिक जीवन के सिद्धान्तों का ज्ञान, राजनैतिक दलों का ज्ञान, राजनैतिक जागरूकता आदि के माध्यम सजग एवं स्वस्थ जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
5. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का ज्ञान-विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास ने विश्व को एक इकाई के रूप में परिवर्तित कर दिया है। इस स्थिति में प्रत्येक नागरिक के लिए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का ज्ञान आवश्यक है और नागरिकशास्त्र इस प्रकार का ज्ञान प्रदान करने में सहायक है । नागरिकशास्त्र साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, पूँजीवाद तथा राष्ट्र संघ एवं संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं के सम्बन्ध में ज्ञान प्रदान करके अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं तथा सम्बन्धों का ज्ञान प्रदान करता है।
6. नेतृत्व के विकास के लिए लोकतन्त्र तब तक सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता जब तक कि उसके सभी सदस्य या जनता के अधिकांश भाग को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाये। जनता अपने दायित्वों का निर्वाह तभी कर सकती है जब उसे अनुशासन एवं नेतृत्व करने की कला में प्रशिक्षित कर दिया जायेगा। नागरिकशास्त्र का अध्ययन अनुशासन के महत्त्व को स्पष्ट करता है तथा यह बताता है कि हमें समाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक क्षेत्रों में अपने दायित्वों को जानना चाहिए और उनके निर्वाह के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये । दायित्वों को समझने एवं उन्हें पूर्ण करने की तत्परता आदर्श नेतृत्व के लिये आवश्यक है। यह शास्त्र उक्त गुणों के अतिरिक्त आदर्श नेतृत्व के लिए नि:स्वार्थता, लगन, सहयोग, आज्ञापालन, सेवा भावना आदि गुणों के विकास में भी सहायक है।
7. वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के विकास में सहायक–नागरिकशास्त्र का अध्ययन केवल देश-प्रेम एवं राष्ट्रीयता की भावना के विकास में ही सहायक नहीं है वरन् यह अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के अंग के रूप में कार्य करके वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के विकास में भी सहायता प्रदान करता है। यह उन अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा उनके कार्यों के विषय में ज्ञान प्रदान करके, जो जनहित के लिए कार्य कर रहे हैं, वसुधैव कुटुम्बकम् के बारे में सजग बनाता हैं
8. छात्रों के लिए उपयोगी-मागरिकशास्त्र का अध्ययन छात्रों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आज के छात्र कल के राष्ट्र निर्माता, समाज-सुधारक, अर्थशास्त्री, शासक एवं राजनतिज्ञ होते हैं पर कोई भी व्यक्ति तब तक अपने को आदर्श शासक या राष्ट्र-निर्माता सिड नहीं कर सकता जब तक कि वह एक आदर्श नागरिक न हो। अत: आज के छात्रों को नागरिकशास्त्र का अध्ययन आज की परिस्थितियों में और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज देश के छात्रों में अशान्ति, नैराश्य एवं उच्खलता का बोलबाला है। इसके अतिरिक्त वे ही आने वाले कल के भावो नागरिक हैं। उन्हीं को देश के सभी क्षेत्रों के कार्यों का भार अपने कन्यों पर उठाना है। अतः नागरिकशास्त्र उनको इस अवस्था से निकालने में सहायता प्रदान करें। साथ ही उनको अपने दायित्वों एवं अधिकारों से अवगत कराकर योग्य नागरिक बनने में सहायता प्रदान करें।
9. मानवीय दृष्टिकोण को उदार बनाना-वैज्ञानिक प्रगति तथा प्रौद्योगिकी के विकास के कारण आज संसार एक इकाई के रूप में हो गया है। नागरिकशास्त्र हमें मानव जीवन की इसी आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाता है। नागरिकशास्त्र हमें परिवार, ग्राम तथा नगर के सीमित दायरे से बाहर निकालकर राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करने की क्षमता प्रदान करता है। यह मानव को विश्व सरकार के निर्माण की ओर प्रेरित करता है। इस प्रकार यह शास्त्र मानव के दृष्टिकोण को उदार बनाने में सहायता प्रदान करता है।