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RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि

RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि

Rajasthan Board RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि अभ्यास – प्रश्नाः

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि वस्तुनिष्ठ – प्रश्नाः

1. पृथिव्यां त्रिषु रत्नेषु एतत् न गण्यते-
(अ) जलम्
(आ) अन्नम्
(इ) धनम्
(ई) सुभाषितम्

2. ‘पन्नग’-शब्दस्य अर्थोऽस्ति
(अ) पत्रम्
(आ) नग: पर्वत: वा
(इ) गरुडः
(ई) सर्पः

3. कस्य धनं मदाय भवति
(अ) खलस्य
(आ) सज्जनस्य
(इ) धनिकस्य
(ई) सर्वस्व

4. अहिंसा अस्ति
(अ) परमो धर्मः
(आ) परं तपः
(इ) परमं सत्यम्
(ई) उपर्युक्तं सर्वमपि

5. ‘खलः परच्छिद्राणि पश्यति’ इत्यत्र ‘छिद्रम्’ इत्यस्य अर्थोऽस्ति
(अ) विवरम्
(आ) दोषः
(इ) गुणः
(ई) बिलम्

6. पुरतः यदि कश्चित् आततायी आयाति तर्हि सः
(अ) बहिष्करणीयः, उत्सारणीयः
(आ) ससम्भ्रमम् अभिनन्दनीयः
(इ) सत्वरं हन्तव्यः
(ई) सर्वथा उपेक्षणीयः

7. प्रीतिविस्रम्भभाजनम् कः भवति
(अ) मित्रम्
(आ) अमित्रम्
(इ) तटस्थः
(ई) एते सर्वेऽपि

8. दानं करणीयम्
(अ) भाग्ये अनुकूल सति
(आ) भाग्ये प्रतिकूले सति
(इ) सदैव
(ई) कदापि नैव

9. अधोलिखितेषु असत्यं कथनमस्ति
(अ) शुश्रूषुः विद्याम् अधिगच्छति
(आ) साधो: विद्या विवादाय भवति
(इ) आततायि-वधे दोषः न भवति
(ई) महापुरुषाः सङ्घशीलाः भवन्ति

उत्तराणि:

1. (इ)
2. (ई)
3. (अ)
4. (ई)
5. (आ)
6. (इ)
7. (अ)
8. (इ)
9. (आ)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि लघूत्तरात्मक – प्रश्नाः

प्रश्न 1.
अधोलिखित-प्रश्नानाम् उत्तराणि दीयन्ताम्-
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-)
उत्तरम्:
(क) “सुभाषितम्” इति पदस्य कोऽर्थः?
(सुभाषित पद का क्या अर्थ है?)
उत्तरम्:
तद् वाक्यं वाक्यांशो वा सुभाषितमिति उच्यते यत् श्रुत्वा मनस्तोषः सुखानुभूतिः च जायते, यत् अन्येषां मनः क्लेषाय च भवेत् यस्य प्रयोग: अपरेषाम् अनादराय न स्यात्, यत् सत्य पूतं हितावहं च भवेत् यत्र नैतिकता-बुद्धिमत्ता-विवेकशीलता च स्यात्।

(वह वाक्य या वाक्यांश सुभाषित कहलाता है जिसको सुनकर मन को तुष्टि हो, सुख की अनुभूति होती हो, जो दूसरों के मन को कष्ट पहुँचाने वाला नहीं होता है। जिसका प्रयोग दूसरों के अनादर के लिए न हो, जो सत्य से पवित्र, हितकर होना चाहिए। जहाँ नैतिकता, बुद्धिमत्ता और विवेकशीलता हो।)

(ख) पृथिव्यां कियन्ति रलानि? कानि च तानि?
(पृथ्वी पर कितने रत्न हैं? और वे क्या हैं?)
उत्तरम्:
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि सन्ति-

  1. जलम्
  2. अन्नम्
  3. सुभाषितं च।

पृथ्वी पर तीन रत्न हैं-

  1. जल
  2. अन्न
  3. सुभाषित

(ग) मूढः कुत्र रत्नसंज्ञा विधीयते?
(मूर्खा द्वारा रत्न की संज्ञा कहाँ दी जाती है?)
उत्तरम्:
मूढ़ः पाषाण-खण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।
(मूळू द्वारा पत्थरों के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा दी जाती है।)

(घ) पात्रापात्रविवेकः केन तुल्यं भवति?
(पात्र-अपात्र विवेक किसके समान होता है?)
उत्तरम्:
पात्रापात्र विवेको धेनु-पन्नगयोः इव भवति।
(पात्र-अपात्र का विवेक गाय और साँप की तरह होता है।)

(ङ) अजरामरवत् किं चिन्तयेत् प्राज्ञः?
(अजर-अमर की तरह विद्वान को क्या सोचना चाहिए?)
उत्तरम्:
अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।
(अजर-अमर की तरह मनुष्य को विद्या और धन के बारे में सोचना चाहिए।)

(च) कुत्र लज्जा त्यक्तव्या सुखार्थिना?
(सुख चाहने वाले को कहाँ लज्जा त्याग देनी चाहिए?)
उत्तरम्:
धन-धान्य प्रयोगेषु, विद्याया संग्रहेषु, आहारे व्यवहारे च सुखार्थिना लज्जा त्यक्तव्या।
(धन-धान्य के प्रयोग में, विद्यार्जन में, आहार और व्यवहार में सुखार्थी को लज्जा त्याग देनी चाहिए।)

(छ) ‘मित्रम्’ इति पदं द्वयक्षरं वा सार्द्धद्वयक्षरं वा?
(मित्रम् शब्द में दो अक्षर हैं या ढाई?)
उत्तरम्:
सार्द्धद्वयम् (ढाई)।

(ज) धनस्य पूरयितां हर्ता च कोऽस्ति?
(धन को पूरा करने वाला और हरने वाला कौन है ?)
उत्तरम्:
हरिः (विष्णु भगवान)।

प्रश्न 2.
‘क’ खण्डं ‘ख’ खण्डेन सह यथोचितं योजयतु-
(क खण्ड को ख खण्ड के साथ यथोचित योग कीजिए (जोड़िए))
उत्तरम्:

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प्रश्न 3.
अधोलिखितपदानां पर्यायपदानि पाठात् आकृष्य लिखन्तु-
(निम्नलिखित पदों के पर्याय पाठ में से चुनकर लिखिए-)
उत्तरम्:
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प्रश्न 4.
निम्नलिखित पदानां विलोमपदानि पाठात् चित्वा लिखन्तु-
(निम्नलिखित पदों के विलोम पद पाठ से चुनकर लिखिए-)
उत्तरम्:
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प्रश्न 5.
स्थूलाक्षरपदमाश्रित्य (उदाहरणम् अनुसृत्य च) संस्कृतेन प्रश्नवाक्य-निर्माणं क्रियताम्-
(मोटे अक्षर वाले पदों को आश्रय लेकर (उदाहरण का अनुसरण करते हुए) संस्कृत में प्रश्न-वाक्य बनाइये-)
उत्तरम्:
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प्रश्न 6.
अधोलिखित-पदानि आधृत्य (उदाहरणं च अनुसृत्य) संस्कृतेन वाक्य-निर्माण क्रियताम्-
(निम्नलिखित पदों को आधार मानकर (उदाहरण का अनुसरण कर) संस्कृत में वाक्य निर्माण कीजिए-)
उत्तरम्:
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RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि निबन्धात्मक – प्रश्नाः

प्रश्न 1.
‘पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि ……….. संज्ञा विधीयते’-अस्य सुभाषितस्य हिन्द्यर्थः लिख्यताम्।
(‘पृथिव्यां …… विधीयते’ सुभाषित का हिन्दी अर्थ लिखिए-)
उत्तरम्:
सुभाषित सं. 1 का हिन्दी अनुवाद देखें।

प्रश्न 2.
‘विद्या विवादाय ……….. रक्षणाय।’ अस्य श्लोकस्य संस्कृत-व्याख्या क्रियताम्।
(‘विद्या …… रक्षणाय।’ इस श्लोक की संस्कृत व्याख्या कीजिए।)
उत्तरम्:
सुभाषित सं. 4 की सप्रसंग संस्कृत व्याख्या देखिए।

प्रश्न 3.
अस्मिन् पाठे सन्मित्रस्य कुमित्रस्य च विषये किं प्रतिपादितम् अस्ति? लिख्यताम्।
(इस पाठ में अच्छे और बुरे मित्र , के विषय में क्या प्रतिपादित किया है? लिखिए।)
उत्तरम्:
यः शोकाराति परित्राणं प्रीति-विश्वास पात्रं च भवति सः सन्मित्रम्। परञ्च यः परोक्षे कार्यहन्तार प्रत्यक्ष प्रियवादी भवति सः कुमित्रम् भवति।
(जो शोकरूपी शत्रु से रक्षा वाला है, प्रेम और विश्वास का पात्र होता है वह अच्छा मित्र होता. है तथा जो पीछे से कार्य बिगाड़ने वाला और मुँह पर मीठी बातें करता है वह कुमित्र होता है।)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि व्याकरण – प्रश्नाः

प्रश्न 1.
सन्धिविच्छेद / सन्धिं कुर्वन्तु। – (सन्धि विच्छेद / संधि करिए।) पदम्
उत्तरम्:
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प्रश्न 2.
अधस्तन पदेषु प्रकृति-प्रत्यय-विभागं कुर्वन्तु – (निम्न पदों में प्रकृति-प्रत्यय विभाजन कीजिए-)
उत्तरम्:
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प्रश्न 3.
समासः / समास-विग्रहः करणीय – (समास / समास विग्रह कीजिए-)
उत्तरम्:
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RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 10 सुभाषित-रत्नानि अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तराणि

अधोलिखित प्रश्नान् संस्कृतभाषायाः पूर्णवाक्येन उत्तरत् – (निम्न प्रश्नों का संस्कृत भाषा में पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए-)

प्रश्न 1.
संसार कटुवृक्षस्य कति फलानि सन्ति? (संसाररूपी कड़वे वृक्ष के कितने फल हैं?)
उत्तरम्:
संसार-कटुवृक्षस्य द्वे फले स्तः। (संसाररूपी कड़वे वृक्ष के दो फल हैं।)

प्रश्न 2.
संसार-कटुवृक्षस्य के द्वे फलेः? (संसाररूपी कड़वे वृक्ष के कौन-से दो फल हैं?)
उत्तरम्:
सुभाषित रसास्वादः सङ्गति सुजने सह। (सुभाषितों का रसास्वादन और सत्संगति।)

प्रश्न 3.
मूर्खाः रत्नानि कुत्र अन्विष्यन्ति? (मूर्ख रत्नों को कहाँ ढूँढ़ते हैं?)
उत्तरम्:
मूर्खा: रत्नानि प्रस्तर-खण्डेषु अन्विष्यन्ति। (मूर्ख रत्नों को पत्थरों में ढूँढ़ते हैं।)

प्रश्न 4.
प्रियवाक्य प्रदानस्य किं फलम्? (प्रिय वाणी बोलने का क्या फल है?)
उत्तरम्:
प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे जन्तवः तुष्यन्ति। (मधुरवाणी बोलने से सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं।)

प्रश्न 5.
गौरवं कुतः आयाति? (गौरव कहाँ से आता है?)
उत्तरम्:
गौरवं गुणैः आयाति। (गौरव गुणों से आता है।)

प्रश्न 6.
धेनुः कथं पात्रम्? (गाय कैसे पात्र है?)
उत्तरम्:
यतः धेनु: घासं खादित्वा अपि दुग्धं ददाति। (क्योंकि गाय घास खाकर भी दूध देती है।)

प्रश्न 7.
पन्नगः कथम् अपात्रम्? (साँप कैसे अपात्र है?)
उत्तरम्:
पन्नगः दुग्धं पीत्वा अपि विषम् एव ददाति। (साँप दूध पीकर भी जहर देता है।)

प्रश्न 8.
मनुष्यः वारि कथं प्राप्नोति? (मनुष्य जल कैसे प्राप्त करता है?)
उत्तरम्;
मनुष्य: खनित्रेण खनन् एव वारि अधिगच्छति (प्राप्नोति)। (मनुष्य फावड़े से खोदते हुए पानी प्राप्त कर लेता है।)

प्रश्न 9.
शिष्यः गुरुगतां विद्यां कथं प्राप्नोति? (शिष्य गुरु में स्थित विद्या को कैसे प्राप्त कर लेता है?)
उत्तरम्:
शिष्यः शुश्रुषया गुरुगतां विद्याम् अधिगच्छति। (शिष्य सेवा से गुरु में स्थित विद्या को प्राप्त कर लेता है।)

प्रश्न 10.
मानवः विद्यार्थम् कथं चिन्तयेत्? (मनुष्य विद्या और धन के बारे में कैसे सोचे?)
उत्तरम्:
मानवः (प्राज्ञः) अजरामरवत् विद्यार्थम् चिन्तयेत्। (बुद्धिमान मनुष्य को अजर-अमर समझते हुए विद्या एवं धन के बारे में सोचना चाहिए।)

प्रश्न 11.
कि मत्वा प्राज्ञः धर्ममाचरेत्? (क्या मानकर विद्वान धर्म का आचरण करे?)
उत्तरम्:
मृत्युः समीपमेव इति मत्वा प्राज्ञः धर्ममाचरेत्। (मृत्यु समीप है, ऐसा मानकर विद्वान को धर्म का आचरण करना चाहिए।)

प्रश्न 12.
कस्य संग्रहणे त्यक्त लज्जः भवेत्? (किसका संग्रह करने में लज्जा त्यागनी चाहिए?)
उत्तरम्:
विद्यायाः संग्रहेषु त्यक्त लज्जः भवेत्। (विद्यार्जन के लिए त्यागनी लज्जा होनी चाहिए।)

प्रश्न 13.
धनधान्य प्रयोगेषु कीदृशो भवेत्? (धन-धान्य के प्रयोग में कैसा होना चाहिए?)
उत्तरम्:
धन-धान्य प्रयोगेषु त्यक्त लज्ज: भवेत्। (धन-धान्य के प्रयोग में त्यक्त लज्जा होना चाहिए।)

प्रश्न 14.
आहारे-व्यवहारे कः सुखी भवति? (आहार-व्यवहार में कौन सुखी होता है?)
उत्तरम्:
आहारे-व्यवहारे च त्यक्त लज्जः सुखी भवति। (आहार और व्यवहार में लज्जा त्यागा हुआ व्यक्ति सुखी होता है।)

प्रश्न 15.
दुर्जनानां विद्या कस्मै भवति? (दुर्जनों की विद्या किसके लिए होती है?)
उत्तरम्:
दुर्जनानां विद्या विवादाय भवति। (दुर्जनों की विद्या विवाद के लिए होती है।)

प्रश्न 16.
विद्या ज्ञानाय कस्य भवति? (विद्या ज्ञान के लिए किसकी होती है?)
उत्तरम्:
सज्जनानां विद्या ज्ञानाय भवति। (सज्जनों की विद्या ज्ञान के लिए होती है।)

प्रश्न 17.
दुर्जनानां शक्तिः कस्मै भवति? (दुर्जनों की शक्ति किसके लिए होती है?)
उत्तरम्:
दुर्जनानां शक्तिः परेषां पीडनाय भवति। (दुर्जनों की शक्ति दूसरों को पीड़ित करने के लिए होती है।)

प्रश्न 18.
दानाय कस्य धनं भवति? (दान के लिए किसका धन होता है?)
उत्तरम्:
साधो: धनं दानाय भवति। (सज्जन को धन दान के लिए होता है।)

प्रश्न 19.
साधोः शक्तिः कस्मै भवति? (सज्जन की शक्ति किसके लिए होती है?)
उत्तरम्:
साधोः शक्ति परेषां रक्षणाय भवति। (सज्जन की शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।)

प्रश्न 20.
कस्य धनं मदाय भवति? (किसका धन मद के लिए होता है?)
उत्तरम्:
खलस्य धनं मदाय भवति। (दुष्ट का धन मद के लिए होता है।)

प्रश्न 21.
परदोषान् कः पश्यति? (दूसरों के दोषों को कौन देखता है?)
उत्तरम्:
खेल: अल्पान् अपि परदोषान् पश्यति। (दुष्ट दूसरे के छोटे दोषों को भी देखता है।)

प्रश्न 22.
आत्मानः बिल्वफलमात्र दोषान् अपि कः न पश्यति? (अपने बिल्व फल के समान दोषों को भी कौन नहीं देखता?)
उत्तरम्:
दुर्जनः आत्मन: बिल्वफलसदृशान् अपि दोषान् न पश्यति। (दुष्ट अपने बिल्व फल के बराबर दोषों को भी नहीं देखता।)

प्रश्न 23.
शोकाराति परित्राणं कः करोति? (शोक-शत्रु से रक्षा कौन करता है?)
उत्तरम्:
शोकाराति परित्राणं मित्रम् करोति। (शोक-शत्रु से रक्षा मित्र करता है।)

प्रश्न 24.
अक्षर द्वयं रत्नं किम् उक्तम्? (दो अक्षर का रत्न किसे कहा गया है?)
उत्तरम्:
मित्रम् इति अक्षरद्वयं रत्नम् उच्चते। (मित्र दो वाणी का रत्न कहा गया है।)

प्रश्न 25.
कुमित्रम् परोक्षे किं करोति? (बुरा मित्र परोक्ष में क्या करता है?)
उत्तरम्:
कुमित्रं परोक्षे कार्यं हन्ति। (बुरा मित्र परोक्ष में कार्य नष्ट (बिगाड़ता) करता है।)

स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्न-निर्माणं कुरुतः – (मोटे अक्षर वाले पदों के आधार पर प्रश्नों का निर्माण कीजिए-)

प्रश्न 1.
महात्मानो हि साङ्घिकाः। (महापुरुष संघप्रिय होते हैं।)
उत्तरम्:
महात्मानः कीदृशाः? (महापुरुष कैसे होते हैं?)

प्रश्न 2.
कृष्णः गोपाल साङ्घिकाः। (कृष्ण ग्वालों का साङ्घिक है।)
उत्तरम्:
के: गोपाल साङ्घिक:? (ग्वालों का सांघिक कौन है?)

प्रश्न 3.
रामः वानरः साङ्किः। (राम वानरों के संघ से सम्बद्ध है।)
उत्तरम्:
राम: केषां साङ्घिकः? (राम किनके संघ से सम्बद्ध है?)

प्रश्न 4.
विषकुंभं पयोमुखं मित्रं वर्जयेत्। (जहर भरे दुग्ध मुख वाले घड़े के समान मित्र को त्यागना चाहिए।)
उत्तरम्:
कीदृशं मित्रं वर्जयेत्। (कैसे मित्र को त्यागना चाहिए?

प्रश्न 5.
आततायिनम् आयान्तं हन्यात्। (आते हुए आततायी को मार देना चाहिए।)
उत्तरम्:
कम् आयान्तं हन्यात्? (किसको आते हुए को मार देना चाहिए?)

प्रश्न 6.
नाततायि वधे दोषः। (आततायी के वध में कोई दोष नहीं।)
उत्तरम्:
कस्य वधे दोष नास्ति? (किसके मारने में दोष नहीं है?)

प्रश्न 7.
अहिंसायाः धर्म: प्रवर्तते। (अहिंसा से धर्म होता है।)
उत्तरम्:
कुतः धर्मः प्रवर्तते? (धर्म कहाँ से प्रवृत्त होता है?)

प्रश्न 8.
अहिंसा परमो धर्मः। (अहिंसा परम धर्म है।)
उत्तरम्:
अहिंसा कीदृशः धर्मः? (अहिंसा कैसा धर्म है?)

प्रश्न 9.
अनुकूल विधौ देयं पूरयिता हरिः। (भाग्य के अनुकूल होने पर ईश्वर देय को पूरा करने वाला होता है।)
उत्तरम्:
कस्मिन् अनुकूले देयं पूरयिता हरि:? (किसके अनुकूल होने पर ईश्वर देय को पूरा करने वाला होता है?)

प्रश्न 10.
खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति। (दुष्ट सरसों की मात्रा वाले दूसरों के दोषों को देखता है।)
उत्तरम्:
खलः कीदृशानि परच्छिद्राणि पश्यति। (दुर्जन कैसे परदोषों को देखता है?)

प्रश्न 11.
खलः आत्मनो बिल्बमात्राणि छिद्राणि न पश्यति? (दुष्ट अपने बिल्व फल के समान दोषों को नहीं देखता है।)
उत्तरम्:
क: आत्मनो बिल्बमात्राणि छिद्राणि न पश्यति? (कौन अपने बिल्व फले के समान दोषों को नहीं देखता है?)

प्रश्न 12.
खलस्य साधोः विपरीतमेतत्। (दुष्ट के ये साधु से विपरीत होते हैं।)
उत्तरम्:
खलस्य कस्मात् विपरीतमेतत्? (दुष्ट के ये किसमें विपरीत हैं?)

प्रश्न 13.
व्यवहारे त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्। (व्यवहार में लज्जा त्यागने वाला सुखी होता है।)
उत्तरम्:
कस्मिन् त्यक्त लज्जः सुखी भवेत्। (किसमें लज्जा त्यागा मनुष्य सुखी होता है?)

प्रश्न 14.
अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यार्थं चिन्तयेत्। (अजर-अमर की तरह विद्वान को विद्या और धन के विषय में सोचना चाहिए।)
उत्तरम्:
किंवत् प्राज्ञः विद्यार्थं चिन्तयेत्? (किसकी तरह विद्वान को विद्या और धन के बारे में सोचना चाहिए?)

प्रश्न 15.
प्राज्ञः विद्यार्थं चिन्तयेत्। (विद्वान को विद्या धन के बारे में सोचना चाहिए।)
उत्तरम्:
कः विद्यार्थं चिन्तयेत्? (किसे विद्या और अर्थ के बारे में सोचना चाहिए?)

प्रश्न 16.
गुरुगतां विद्यां शुश्रुषुः अधिगच्छति। (गुरु की विद्या को सेवा करने वाला प्राप्त कर लेता है।)
उत्तरम्:
गुरुगतां विद्यां कः अधिगच्छति? (गुरु की विद्या को कौन प्राप्त कर लेता है?)

प्रश्न 17.
खनित्रेण खनन् मनुष्यः वार्यधिगच्छति। (फावड़े से खोदता हुआ मनुष्य पानी को प्राप्त कर लेता है।)
उत्तरम्:
केन खनन् मनुयः वार्यधिगच्छति? (किससे खोदता हुआ मनुष्य पानी को प्राप्त कर लेता है?)

प्रश्न 18.
पात्रापात्र-विवेकः धेनुपन्नगयोः इवे अस्ति। (पात्रापात्र विवेक गाय और साँप की तरह होता है।)
उत्तरम्:
पात्रापात्र विवेकः कयो: इव अस्ति? (पात्रापात्र विवेक किसकी तरह होता है?)

प्रश्न 19.
गुणैः गौरवमायाति। (गुणों से गौरव को पाता है।)
उत्तरम्:
के: गौरवमायाति? (किनसे गौरव को प्राप्त हो पाता है?)

प्रश्न 20.
प्रासादशिखरस्थोऽपि काको न गरुडायते। (महल के शिखर पर बैठकर कौआ गरुड़ नहीं बन जाता है।)
उत्तरम्:
प्रासादशिखरस्थोऽपि कः न गरुडायते? (महल के शिखर पर बैठा हुआ कौन गरुड़ नहीं बन जाता है?)

पाठ-परिचयः

‘सुभाषित’ इस पद से आप सभी परिचित ही होंगे। सुभाषित, अमृतवचन, नीतिवाक्य, सूक्ति इत्यादि सभी पर्यायवाची शब्द हैं। वह वाक्य (या वाक्यांश भी) सुभाषित कहलाता है, जिन वाक्यों को सुनकर मन को सन्तोष और सुखानुभूति होती. है। जो दूसरों के मन को कष्ट देने के लिए नहीं होना चाहिए। जिसका प्रयोग दूसरों के अनादर के लिए न हो, जो सत्य से पवित्र और हितकर होना चाहिए। जहाँ नैतिकता, बुद्धिमत्ता और विवेकशीलता होनी चाहिए। सुभाषित का लक्षण कहीं इस प्रकार भी किया गया है-”जो वचन सारभूत होता है, वह सुभाषित कहलाता है।”

हमारे जीवन में सुभाषितों का कितना महत्व है, इस विषय में कुछ सुभाषित इस प्रकार मिलते हैं-

  1. संसाररूपी कड़वे वृक्ष के अमृत के समान दो फल हैं-सुभाषितों का रसास्वादन और सज्जनों के साथ संगति अर्थात् सत्संगति।
  2. सुभाषितों का रसास्वादन, सज्जनों के साथ सङ्गति और विवेकी राजा की सेवा-ये तीनों दुःखों को निर्मूल करते हैं। अर्थात् जड़ खोद देते हैं।
  3. सुभाषित गीतों से और बच्चों की क्रीडाओं से जिसका मन नहीं बिंधता (प्रभावित नहीं होता) या तो वह विरक्त। अर्थात् संसार से मुक्त है या पशु है।
  4. गंदगी से भी सोना और बालक से भी सुभाषित (ग्रहण कर) लेने चाहिए।

सुभाषित की प्रशंसा करने वाले इन चार पद्यों का यही सारांश है कि-

  1. इस असार संसार में सुभाषित रसास्वादन निश्चित ही अमृत के स्वाद के समान है।
  2. सुभाषितों का स्वादन करना दुःख निवारण करना है।
  3. सुभाषित मन के द्रवित होने के भाव का कारण है।
  4. सुभाषित यदि स्वीकार करने योग्य है तो बालक से भी ग्रहण कर लेना चाहिए।

अत: इस पाठ में आपके रसास्वादन के लिए, ज्ञान अर्जित करने के लिए और गुणों का अर्जन करने के लिए कुछ प्रसिद्ध ज्ञात सन्दर्भ और अज्ञात सन्दर्भ सुभाषित इधर-उधर से चुनकर (ग्रहण कर) लिखे जा रहे हैं। वाणी की मधुरता, अच्छे गुणों की महिमा, पात्र-अपात्र-विवेक खल-सज्जन-विवेक, विद्या, धन और धर्म अर्जन के प्रकार, मित्रता, दानशीलता, अहिंसावृत्ति आततायियों के प्रति नीति, संघ-वृत्ति-इस प्रकार विविध विषयों से सम्बद्ध सुभाषित यहाँ चुने गये हैं।

मूल पाठ, अन्वय, शब्दार्थ, हिन्दी-अनुवाद एवं सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या

1. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढ़: पाषाण खण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते॥

अन्वयः-पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि (सन्ति)-जलम् अन्नम् सुभाषितम् (च)/मूढ़ेः पाषाण-खण्डेषु रत्न संज्ञा विधीयते। शब्दार्थाः-पृथिव्याम् = वसुन्धरायाम् (धरती पर)। पाषाण-खण्डेषु = प्रस्तर-खण्डेषु (पत्थर के टुकड़ों में)। रत्न संज्ञा विधीयते = रत्नम् इति नाम प्रदीयते (रत्न का नाम दिया जाता है।) मूढ़ेः = मूर्ख, अविवेकिभिः (मूर्तों द्वारा)। सुभाषितम् = सुभाषितम् ( अच्छे कहे हुए)।

हिन्दी-अनुवादः-धरती पर (प्रमुख) तीन रत्न हैं-पानी, अन्न और सुभाषित। मूर्ख लोगों द्वारा (हीरा आदि) पत्थर के टुकड़ों को रत्न का नाम दिया जाता है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् सुभाषितानां महत्वं प्रदर्शितम्।

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पन्दना’ से लिया गया है। इस श्लोक में सुभाषितों का महत्व दर्शाया गया है।)

व्याख्याः-वसुन्धरायां (प्रमुखानि) त्रीणि रत्नानि सन्ति। तानि जल-अन्न-सुभाषितानि सन्ति। ते जना मूर्खाः सन्ति यैः हीरकादिषु प्रस्तर खण्डेषु रत्नम् इति नाम क्रियते।

(धरती पर (खासतौर से) तीन रत्न हैं। वे हैं-जल, अन्न और अच्छी उक्तियाँ (कथन)। लोग मूर्ख हैं जो हीरा आदि पत्थर के टुकड़ों को ‘रत्न’ ऐसा नाम रखते हैं।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-त्रीणिरत्नानि = त्रिरत्नम् (रत्नत्रयम्) द्विगुसमास। पाषाणखण्डेषु = पाषाणस्य खण्डेषु (षष्ठी तत्पुरुष)। जलमन्नम् = जलम् च अन्नम् च (द्वन्द्व समास)।

2. प्रियवाक्य-प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता॥2॥

अन्वयः-प्रियवाक्य-प्रदानेन सर्वे जन्तवः तुष्यन्ति। तस्मात् तदेव (प्रियवाक्यमेव) वक्तव्यम्। वचने का दरिद्रता?

शब्दार्थाः-प्रियवाक्य-प्रदानेन = मृदु वाक्य प्रयोगेन, मधुरभाषणेन (मीठे वचनों से)। सर्वे जन्तवः = सर्वेऽपिप्राणिनः (सभी जीव)। तुष्यन्ति = सन्तोषं प्राप्नुवन्ति (सन्तोष पाते हैं)। वचने = भाषणे (बोलने में)। दरिद्रता = कृपणता (कंजूसी)। तस्मात् = किसलिए।

हिन्दी-अनुवादः-मधुर या मृदुवाणी बोलने से सभी प्राणी सन्तुष्ट होते हैं। इसलिए वह (प्रिय वाणी ही) बोलनी चाहिए। बोलने में क्या कंजूसी।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् मृदु-वाक्यस्य (वाण्याः) महत्वं दर्शितम्- (यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पन्दना’ के सुभाषित-रत्नानि से लिया गया है। इस श्लोक में मधुरवाणी का महत्व बताया गया है।) व्याख्याः -मधुर भाषणेन तु सर्वेऽपि प्राणिनः सन्तोषम् आप्नुवन्ति। अतः सदैव मधुरमेव भाषणं कुर्यात्। मृदुवचने किमपि 7 व्ययते अत: मधुरभाषणे किम् दारिद्र्यम् ? अतः मधुरं भाषणम् एव भाषितव्यम्। मधुरभाषणे किम् क्षीयते।

(मधुर भाषण से सभी प्राणी सन्तुष्ट होते हैं। अतः मधुर वचन ही बोलना चाहिए। अतः मीठा बोलने में क्या दरिद्रता ? अतः मीठा बोलना ही चाहिए। प्रिय बोलने में क्या हानि है?)।

व्याकरणिक-बिन्दवः-प्रियवाक्य = प्रिय: च असौ वाक्य: (कर्मधारय) वक्तव्यम् = वच् + तव्यत्। सुभाषितम् = सु +। भाष् + क्त।

3. गुणैः गौरवमायाति नोच्चैः आसनमास्थितः।।
प्रासादशिखरस्थोऽपि क्काको न गरुडायते ॥3॥

अन्वयः-(मनुष्य) गुणै: गौरवम् आयाति न (तु) उच्चैः आसनम् आस्थितः (जन:)। काकः प्रासाद-शिखरस्थ: अपि (सन्) न गरुडायते।

शब्दार्थः-गौरवम् = गुरुताम् (बड़प्पन)। आयाति = भवति प्राप्नोति (प्राप्त होता है)। प्रासाद शिखरस्थः = भवनस्य शीर्षे स्थितः (भवन की चोटी पर बैठा)। गरुडायते = गरुडवत् (गरुड़ की तरह/गरुड़ बन जाता।) काकः = वायसः (कौआ)।

हिन्दी-अनुवादः-मनुष्य गुणों से ही बड़प्पन को प्राप्त होता है। अर्थात् बड़ा बनता है न कि ऊँचे आसन पर बैठा हुआ। कौआ महल (मदान) की चोटी पर बैठा हुआ भी गरुड़ नहीं बनता।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः गुणानां महत्वं वर्णयति-

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि ने गुणों का महत्व वर्णन किया है।)

व्याख्याः-मनुष्यः सद्गुणैः एव गौरवं प्राप्नोति न तु उच्चासनं पदं वा प्राप्य उन्नतिं प्राप्नोति। यतः भवनस्य उच्चतमं शीर्षे अपि स्थित्वा (गुणहीनः) काकः गरुडस्य (वैनतेयस्य) गुणान् प्राप्तुं शक्नोति।

(मनुष्य सद्गुणों से ही गौरव को प्राप्त करता है, उच्चासन अर्थात् ऊँचे पद पर बैठकर उन्नति नहीं प्राप्त करता। क्योंकि महल के सबसे ऊँचे शिखर पर बैठा हुआ भी कौआ (गरुड़ के) गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-नोच्चैः = न + उच्चैः (गुण सन्धि)। आसनमास्थितः = आस् + ल्युट् = आसनम्, आस्थितः = आ + स्था + क्त। शिखरस्थः = शिखरेस्थितः (सप्तमी तत्पुरुष)।

4. पात्रापात्र- विवेकोऽस्ति धेनुपन्नगयोः इव।
तृणात् सञ्जायते क्षीरं क्षीरात् सञ्जायते विषम्॥4॥

अन्वयः-पात्र-अपात्र-विवेकः धेनु-पन्नगयोः इव अस्ति। तृणात् क्षीरं सजायते, क्षीरात् च विषम् सञ्जायते।।

शब्दार्थाः-पात्रापात्रविवेकः = सुपात्रस्य कुपात्रस्य च भेद-ज्ञानम् (सुपात्र और कुपात्र के भेद का ज्ञान) धेनुपन्नगयोः। इव = गोसर्पयोः तुल्यम् (गाय व सर्प के समान) तृणात् क्षीरम् = घासात् दुग्धम् (घास से दूध) क्षीरात् विषम् = दुग्धात् गरलम् (दूध से जहर) सञ्जायते = उत्पद्यते (उत्पन्न होता है।)

हिन्दी-अनुवादः-सुपात्र और कुपात्र के भेद को समझना गाय और साँप के भेद को समझने के समान है। (गाय द्वारा खाये, हुए) घास से दूध पैदा होता है। (अर्थात् गाय घास खाती है और दूध देती है। परन्तु (साँप के पिये हुए) दूध से जहर उत्पन्न होता है। (इससे स्पष्ट है कि गाय के सुपात्र और सर्प के कुपात्र होने के कारण ऐसा ही होता है।)

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।

प्रसंगः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः पात्रस्य अपात्रस्य वा भेदज्ञानं प्रति कथयति-

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ स य या है। इस श्लोक में कवि पात्र और अपात्र के भेद ज्ञान के विषय में कहता है-)

व्याख्याः-सुपात्रस्य कुपात्रस्य च भेद-ज्ञानं गोः सर्पयोः भेद ज्ञानम् इव भवति। यतः गावः (धेनवः) घास खादित्वा अपि दुग्धं ददाति परञ्च सर्पस्तु दुग्धम् अपि पीत्वा विषं ददाति।

(सुपात्र और कुपात्र का भेद-ज्ञान गाय और सर्प के भेद-ज्ञान की तरह होता है। क्योंकि गाय घास खाकर भी दूध देती है। परन्तु साँप तो दूध पीकर भी जहर देता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-पात्रापात्र-विवेकः = पात्रस्य अपात्रस्य च तयोः विवेकः (द्वन्द्व षष्ठी तत्पुरुष समास)।

5. यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति॥६॥

अन्वयः-यथा नरः खनित्रेण खनन् वारि अधिगच्छति, तथा (एव) शुश्रूषुः गुरुगतां विद्याम् अधिगच्छति।

शब्दार्थाः-खनित्रेण = खनन साधनेन (फावड़े या कुदाल से)। वारि = जलम् (पानी को)। अधिगच्छति = प्राप्नोति (प्राप्त कर लेता है)। गुरुगतां = गुरौ विद्यमानाम् (गुरु में विद्यमान)। शुश्रुषुः = श्रोतुं ज्ञातुम् इच्छुक (सुनने और जानने का इच्छुक, जिज्ञासु, सेवापरायण)।

हिन्दी-अनुवादः-जैसे मनुष्य खोदने के साधन अर्थात् फावड़े या कुदाली से खोदता हुआ पानी को प्राप्त कर लेता है। वैसे ही जिज्ञासु एवं सेवा में परायण शिष्य गुरु में विद्यमान (स्थित) विद्या को प्राप्त कर लेता है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्ग-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः निरन्तर-परिश्रमस्य महत्वं दर्शयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया। गया है। इस श्लोक में कवि लगातार परिश्रम के महत्व को दर्शाता है।)

व्याख्याः-यथा खनन-साधनेन मनुष्यः खनित्वा जलं प्राप्नोति तथैव जिज्ञासुः सेवापरायणश्च छात्रोऽपि गुरौः तद्विद्यमानाम् ज्ञानं प्राप्नोति अर्थात् सतत् परिश्रमेण एव लक्ष्य प्राप्तुं शक्यते।

(जैसे खोदने के साधन-फावड़ा, कुदाली आदि से खोदकर मनुष्य पानी को प्राप्त कर लेता है, वैसे ही जानने का इच्छुक तथा सेवापरायण शिष्य गुरु से उसमें स्थित ज्ञान को ग्रहण (प्राप्त कर लेता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-खनन् = खन् + शतृ। खनित्रम् = खन् + त्र। गुरुगताम् = गुरुम् गतम् (द्वि.-तत्पुरुष) शुश्रूषुः = श्रु + सन् + उ। विद्याम् = विद् + क्यप् + टाप्।

6. अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।
गृहीत् इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥6॥

अन्वयः-प्राज्ञ: अजर-अमरवत् विद्याम् अर्थम् च चिन्तयेत्, मृत्युना केशेषु गृहीतः इव (च) धर्मम् आचरेत्।

शब्दार्थाः-प्राज्ञः = विद्वान् (बुद्धिमान्) अजरामरवत् = अहम् अजर: अमर: च इति ज्ञाता (स्वयं को अजर-अमर मानते। हुए)। धर्मम् आचरेत् = धर्माचरणं कुर्यात् (धर्म का आचरण करना चाहिए)। अजरः = जरा रहितः (बुढ़ापे से रहित)। अमर = मरणरहित (मृत्यु से रहित)। चिन्तयेत् = विचारयेत् (विचारना चाहिए)। मृत्युना = यमराजेन (मृत्यु के द्वारा)। केशेषुगृहीत्। इव = मरणासन्न इव। (मृत्यु ने केश पकड़ रखे हैं ऐसा मानकर)।

हिन्दी-अनुवादः-विद्वान् मनुष्य को स्वयं को अंजर (मैं बुड्ढा नहीं हूँगा) अमर (मैं नहीं मरूंगा) मानकर विद्या और धन के विषय में सोचना चाहिए। मौत ने बाल पकड़ रखे हैं अर्थात् मौत दरवाजे पर खड़ी है। ऐसा सोचकर धर्म का आचरण करना चाहिए।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः कथयति यद् मानवेन स्वं अमरं मत्वा विद्याध्ययनं कुर्यात् मरणासन्नं च ज्ञात्वा धर्ममाचरेत्।

(यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि कहता है कि मनुष्य को अमर समझ कर विद्यार्जन तथा मरणासन्न समझकर धर्माचरण करना चाहिए।)

व्याख्याः -मनुष्यः आत्मानं अजरम् अमरम् च मत्वा विद्याम् अर्थम् च अर्जयेत्। परञ्च यमेन अहं केशेषुगृहीतः अर्थात् मरणासन्नोऽस्महम् इति मत्वा धर्मस्य आचरणं कुर्यात्। अर्थात् जीवनपर्यन्तं ज्ञानं गृहणीयात् धर्मस्याचरणं शीघ्रमेव कुर्यात् यतः मृत्यु कदापि आगन्तुं शक्नोति।

(मनुष्य को स्वयं को अजर-अमर मानकर विद्या तथा धन का अर्जन करना चाहिए परन्तु यमराज ने मेरे बाल पकड़ रखे हैं अर्थात् मरणासन्न हूँ, ऐसा मानकर धर्म का आचरण करना चाहिए क्योंकि मृत्यु कभी भी आ। सकती है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-प्राज्ञः = प्रकृष्टं जानाति येन सः (बहुव्रीहि समास) अजरामर = अजर+अमर (दीर्घ सन्धि)।

7. धन- धान्य- प्रयोगेषु विद्यायाः संग्रहेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्॥7॥

अन्वयः– धन-धान्य-प्रयोगेषु विद्यायाः संग्रहेषु च, आहारे व्यवहारे च, त्यक्तलज्ज: (जनः) सुखी भवेत्।

शब्दार्था:-त्यक्तलज्जः = त्यक्त्वा लज्जा येन सः (लज्जारहित) संग्रहेषु = प्राप्तुम् (संग्रह करने के लिए)। धन-धान्य-प्रयोगेषु = वितीय-अन्नादि व्यवहारेषु (धन-धान्य के व्यवहार में) आहारे = भोजने (खाने-पीने में)। व्यवहारे = परस्पर आचरणे (परस्पर व्यवहार में)।

हिन्दी-अनुवादः- धन-धान्य के (लेन-देन के) व्यवहार में, (गुरु से) विद्या ग्रहण करने में, भोजन तथा परस्पर व्यवहार में लज्जा त्यागने पर अर्थात् स्पष्ट कह देने पर व्यक्ति सुखी होता है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कवि: निर्दिशति यत् व्यवहारे स्पष्टवादिताया: अतिमहत्वं वर्तते। (यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि निर्दिष्ट करता है कि व्यवहार में स्पष्टता का बहुत महत्व है।) व्याख्याः- धनस्य अन्नस्य च प्रयोगेषु ज्ञानस्य प्राप्तिकाले, भोजनस्य समये परस्पर व्यवहारे च यः मनुष्यः लज्जा परित्यज्य स्पष्टं कथयति सः सदैव सुखं लभते। (धन और अन्न के प्रयोग में, ज्ञान की प्राप्ति के समय, भोजन के समय या भोजन के विषय में और आपसी व्यवहार में जो मनुष्य लज्जा को त्यागकर स्पष्ट कहती है वह सदैव सुख पाता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः- धन-धान्य-प्रयोगेषु = धनस्य धान्यस्य प्रयोगेषु (षष्ठी तत्पुरुष)। त्यक्तलज्जः = त्यक्वी लज्जा येन सः पुरुषः (बहुव्रीहि) सुखी – सुख + इनि। प्रयोग — प्र + युज् + घञ्।

8. विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोविपरीतमेतत्, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥8॥

अन्वयः-खलस्य विद्या विवादाय, धनं मदाय, शक्तिः (च) परेषां परिपीडनाय ( भवति)। किन्तु साधोः एतत् (सर्व) विपरीतं- (विद्या) ज्ञानाय, (धनं) दानाय, (शक्ति:) च रक्षणाय ( भवति)।

शब्दार्थाः-परेषाम् = अन्येषाम् (दूसरों को)। परिपीडनाय = दु:खं दातुम् (दु:ख देने के लिए)। खलस्य = दुर्जनस्य (दुष्ट का) मदाय = दर्पाय (मतवालापन)। शक्तिः = बलम् (ताकत)। परेषाम् = अन्येषाम् (दूसरे के)।

हिन्दी-अनुवादः-दुर्जनों की विद्या (ज्ञान) विवाद के लिए होती है, धन मिलने पर घमंड करते हैं तथा वे अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों को पीड़ा देने में करते हैं परन्तु सज्जन की ये सभी बातें विपरीत होती हैं। सज्जनों की विद्या ज्ञान के लिए, धन दान के लिए तथा शक्ति दूसरों की रक्षा करने के लिए होती है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्ग-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः कथयति यद् दुर्जनः सदैव विद्यादीनां दुरुपयोगं करोति परञ्च सज्जनस्य इदं सर्वं विपरीतं भवति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि कहता है कि दुर्जन सदैव विद्या आदि गुणों का दुरुपयोग करता है, जबकि सज्जन यह सब विपरीत (सदुपयोग के लिए) होता है।)

व्याख्याः –दुर्जनानां विद्या अन्यैः सह विवादाय भवति, तेषां धनं दर्पाय बलम् अन्येषां पीडनाय भवति। परञ्च सज्जनस्य तु येते सर्वे विरुद्धम् अन्यत् एव भवन्ति। सज्जनानां विद्या ज्ञानाय भवति। धनं दानाय भवति बलं च अन्येषां रक्षणाय भवति। एवं दुर्जना: गुणानामपि दुरुपयोगं कुर्वन्ति सज्जनाः च सदुपयोग एव गुणान् धारयन्ति।

(दुर्जनों की विद्या दूसरों के साथ विवाद, के लिए होती है। उनका धन गर्व के लिए होता है। बल या शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है। परन्तु सज्जनों की तो ये सभी विरुद्ध (विपरीत) होती हैं। सज्जनों की विद्या ज्ञान के लिए होती है। धन दान के लिए होता है और बल दूसरों की रक्षा के लिए होता है। इस प्रकार दुर्जन गुणों का भी दुरुपयोग करते हैं और सज्जन सदुपयोग के लिए ही गुणों को धारण करते हैं।)

व्याकरणिक-बिन्दचः-शक्तिः = शक् + क्तिन्। दान = दा + ल्युट्। ज्ञान = ज्ञा + ल्युट्।।

9. खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति॥५॥

अन्वयः-खल: सर्षपमात्राणि (अपि) परच्छिद्राणि पश्यति, (परन्तु) आत्मन: बिल्वमात्राणि (छिद्राणि अपि) पश्यन् अपि न पश्यति।।

शब्दार्थाः-सर्षपमात्राणि = सर्षपबीज सदृशानि, अतिलघूनि (सरसों के समान छोटे)। परच्छिद्राणि = परेषाम् दोषान् (दूसरों के दोषों को)। आत्मनः = स्वस्य (अपने) बिल्वमात्राणि = बिल्वफल सदृशानि स्थूलानि (बिल्व के फल के समान बड़े)। पश्यन्नपि न पश्यति = दृष्ट्वा अपि उपेक्षते (देखा-अनदेखा कर देता है)।

हिन्दी-अनुवादः-दुर्जन व्यक्ति दूसरों की सरसों के दाने के बराबर अर्थात् छोटी-सी कमी (दोष) को देख लेता है परन्तु अपनी बिल्व फल के बराबर मोटी गलती भी नजर नहीं आती।।
कहावत-(दूसरे की आँख की तो छर ही दिख जाती है परन्तु अपना टेंटा भी नजर नहीं आता।)

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः कथयति यत् मनुष्यः परकीयान् दोषान् एव पश्यति न तु स्वकीयान्।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस पाठ में कवि कहता है कि मनुष्य दूसरों के दोषों को ही देखता है, अपने दोषों को नहीं देखता।)

व्याख्याः-दुर्जनः अन्येषाम् सर्षपबीज इव अल्पदोषान् अपि पश्यति परञ्च स्वस्य बिल्वफलसदृशान् गुरुदोषान् अपि दृष्ट्वा अपि न पश्यति अपितु उपेक्षते।

(दुर्जन दूसरों के सरसों के बीज के समान छोटे-छोटे दोषों को देख लेता है परन्तु अपने बिल्व फल के समान बड़े दोष भी नहीं देखता है अपितु उपेक्षा करता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-परच्छिद्राणि = पर+छिद्राणि (हल् सन्धि)। पश्यन्नपि = पश्यन् + अपि (हल् सन्धि)। पश्यन् = दृश् + शतृ।।

10. शोकाराति-परित्राणं प्रीतिविसम्भभाजनम्।
केन रत्नमिदं सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम्॥10॥

अन्वयः-शोकाराति-परित्राणं प्रीतिविस्रम्भभाजनं मित्रम् इति इदम् अक्षरद्वयं रत्नं केन सृष्टम् ?

शब्दार्थाः-शोकाराति परित्राणम् = शोकः एव अराति: शत्रुः तस्मात् परित्रणाम् रक्षणम् (शोकरूपी शत्रु से बचाने वाला)। प्रीतिविस्रम्भभाजनम् = प्रीते: प्रेम्णः विस्रम्भस्य विश्वासस्य च भाजनम् पात्रम्। (प्रेम और विश्वास का पात्र) अक्षर द्वयम् = ‘मित्र’ इति अक्षर द्वयात्मकम् (मि+त्र इन दो अक्षरों वाला)। रत्नम् = मणि। सृष्टम् = निर्मितम् (बनाया)। हिन्दी-अनुवादः-शोक या दुखरूपी शत्रु से रक्षा करने वाला प्रेम एवं विश्वास का पात्र यह दो वर्षों वाला मित्र शब्द किसने बनाया?

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। अस्मिन् श्लोके कविः मित्रस्यगुणान् वर्णयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि मित्र के गुणों का वर्णन करता है।)

व्याख्याः-यः शोकात् शत्रोः च रक्षां करोति, यः प्रेम्णः विश्वासस्य च पात्रम् अस्ति एवम् इदम् ‘मित्ररत्नं’ द्विवर्णात्मक पदं केन निर्मितम्। मित्रस्य संसारे विलक्षण: सम्बन्धः भवति।
(जो शोक से और शत्रु से रक्षा करता है, जो प्रेम और विश्वास को पात्र है, ऐसा यह ‘मित्र’ रत्न शब्द किसने बनाया है। मित्र का संसार में एक विलक्षण संबंध होता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-सृष्टम् = सृज+क्त। शोक = शुच् + घञ्। प्रीतिः = प्री + त्मिकन्।

11. परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्॥11॥

अन्वयः-परोक्षे कार्य-हन्तारं प्रत्यक्ष प्रियवादिनं, तादृशं पयोमुखं विषकुम्भं मित्रं वर्जयेत्।

शब्दार्थाः-परोक्षे = अप्रत्यक्षम्, अनुपस्थितै, (पीठ पीछे) कार्यहन्तारम् = कार्य-विघातकम्, कार्यविनाशकम् (काम बिगाड़ने वाले को)। प्रत्यक्षे = सम्मुखे, पुरतः (प्रकट में, सामने)। प्रियवादिनम् = मधुरभाषिणम् (मीठा बोलने वाला) पयोमुखम् = पयः दुग्धं मुखो यस्य तत् तादृशम् (जिसके मुख भाग पर यानी ऊपर-ऊपर दूध हो ऐसे को)। विषकुम्भकम् = विषपूरितम् कलशं (जहर भरे घड़े को)। वर्जयेत् = त्यजेत् (त्यागना चाहिए)।।

हिन्दी-अंनुवादः-पीछे से अर्थात् अनुपस्थिति में तो कार्य बिगाड़ने वाला होता है तथा प्रत्यक्ष में आँखों देखते मधुरवाणी बोलता है। ऐसे दुग्ध मुख वाले जहरे भरे घड़े के समान मित्र को त्याग देना चाहिए। (अर्थात् जो मित्र मुँह सामने तो मीठीमीठी बातें करे और पीठ पीछे छुरा भौंकने का काम करे, ऐसे धोखेबाज मित्र को त्याग देना चाहिए।)

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः वञ्चक मित्रं त्यक्तुं निर्दिशति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि कपटी मित्र को त्यागने का निर्देश देता है।)

व्याख्याः-यः सुहृद अनुपस्थितौ कार्य विनाशकः भवति सम्मुखे च मधुरभाषणम् करोति एवं दुग्धमुखं गरलघट इव मित्रं परित्यजेत्। यतः ईदृक् मित्रं किं मित्रम् भवति। सः वञ्चकः भवति।

(जो मित्र अनुपस्थिति में काम बिगाड़ने वाला होता है। और सामने मीठा बोलता है, ऐसे दुग्धमुख विषपूर्ण घड़े की तरह (धोखेबाज मित्र का) परित्याग कर देना चाहिए क्योंकि ऐसा मित्र कुमित्र होता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-हन्तम् = हन्+तृच् (द्वि.ए.व.) विषकुम्भम् = विषस्य कुम्भम्। पयोमुखम् = पयः मुखे यस्य तत् घटम् (बहुव्रीहि समास)।

12. अनुकूले विधौ देयं यतः पूरयिता हरिः।
प्रतिकूले विधौ देयं यतः सर्वं हरिष्यति।॥12॥

अन्वयः-विधौ अनुकूले (सति) देयं यतः पूरयिता हरिः (अस्ति); विधौ प्रतिकूले (सत्यपि) देयं यतः (सः हरिः) सर्वं हरिष्यति।

शब्दार्थाः-विधौ = भाग्ये (भाग्य या विधाता के)। अनुकूले = अभिमते (मनोवांछित होने पर अनुकूल होने पर)। पूरयिता = दाता (देने वाला)। हरिः = परमेश्वरः (परमेश्वर)। हरिष्यति = अपहरिष्यति (छीन लेगा)। देयम् = प्रदानीयम्। अपेक्षितम् (देने योग्य) यतः = यस्मात् (जो)। प्रतिकूले = विरुद्धे (विरुद्ध होने पर)।

हिन्दी-अनुवादः-जब भाग्य-विधाता या चन्द्रमा अनुकूल होता है तो ईश्वर जो भी देने योग्य है उसे पूरा करता है, परन्तु जब भाग्य-विधाता या चन्द्रमा प्रतिकूल (विरुद्ध) होता है तो जो भी देय होता है भगवान उसे भी छीन लेता है।

♦ संप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः कथयति यत् भाग्ये अनुकूले सर्वमेव अनुकूलमेव भवति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि कहता है कि भाग्य के अनुकूल होने पर सब अनुकूल होता है।)

व्याख्याः-यदा भाग्यः विधिः चन्द्रः वा अनुकूलः भवति तदा यत् देयं भवति तम् ईश्वरः पूरयति परन्तु यदा दैवः प्रतिकूलः भवति तदा ईश्वरः देयमपि सम्पदाम् अपहरति। अर्थात् दैवे अनुकूले सर्वं सिध्यति प्रतिकूले च विनष्यति।

(जब भाग्य या विधाता या चन्द्रमा अनुकूल होता है तब जो देय होता है उसे ईश्वर पूरा करता है, परन्तु जब दैव प्रतिकूल होता है तब ईश्वर देने योग्य सम्पदा को भी छीन लेता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-विधौ = विधि (विधाता) अथवा विधु (चन्द्रमा) का सप्तमी विभक्ति एकवचन रूप। देयम् = दा + यत्।।

13. अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते॥13॥

अन्वयः-अहिंसा परमः धर्मः (अस्ति) तथा अहिंसा परं तपः (तथा च) अहिंसा परमं सत्यं (विद्यते) यतः धर्मः प्रवर्तते।

शब्दार्थाः-यतः = यस्मात् (क्योंकि) प्रवर्तते = आरभते (आरम्भ होता है, चलता है)। अहिंसा = प्राणि-वधस्य अभावः (मन-वचन-कर्म से प्राणियों को पीड़ा न देना)। परमः = चरमः (सर्वोच्च)। आयान्तम् = आगच्छन्तम् (आते हुए को)।

हिन्दी-अनुवादः-अहिंसा सर्वोच्च धर्म है और अहिंसा महान् तपस्या है। अहिंसा परम् सत्य है। क्योंकि धर्म वहीं (अहिंसा) से ही आरम्भ (प्रवृत्त) होता है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्यो।
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः अहिंसा धर्मस्योत्कृष्टमं वर्णयति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि अहिंसा धर्म की उत्कृष्टता का वर्णन करता है।)

व्याख्याः-प्राणिवधस्याभावः मनसा, वचसा, कर्मणा च अपीड़नं सर्वोच्चः धर्मः भवति। अहिंसा महत्तमः एषा अहिंसा एव सर्वोच्चं सत्यम् अस्ति। यतः अहिंसा भावतः एव धर्मस्य प्रवृत्ति जायते।

(प्राणियों का वध न करना, मन, वचन, कर्म से किसी को पीड़ा न पहुँचाना परम धर्म होता है। अहिंसा महान तप है। यह अहिंसा ही सर्वोच्च सत्य है क्योंकि अहिंसा भाव से ही धर्म प्रवृत्त होता है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-धर्मस्तथा = धर्म: + तथा (विसर्ग सन्धि)। परमो धर्मः = परमः + धर्मः।

14. आततायिनम् आयान्तं हन्यादेवाविचारयन्।
नाततायि-वधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन॥14॥

अन्वयः-आयान्तं आततायिनं अविचारयन् हन्यात् एव। आततायि-वधे हन्तुः कश्चन दोषः न भवति। शब्दार्थाः-आततायिनम् = आतंकिनम् (आततायी/अनाचारी को) अविचारयन् = अविचार्यम् (बिना विचारे) हन्तुः = घातकस्य (मारने वाले का)। दोषः = अपराधः (अपराध)। आयान्तम् = आगच्छन्तम् (आते हुए को)। हन्यात् = वधं कुर्यात्। कश्चन = किञ्चिद् (कोई)।

हिन्दी-अनुवादः-आततायी अर्थात् आतंक फैलाने वाले को तो आते हुए को बिना विचारे ही मार देना चाहिए क्योंकि आततायी का वध करने पर मारने वाले को कोई अपराध (दोष या पाप) नहीं लगता।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन्। कविः कथयति यत् न दोषः आततायिनां हनने।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि’ पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि कहता है कि आततायी को मारने में कोई दोष नहीं।)

व्याख्याः -आयान्तम् आतंकिनम् अविचिन्त्य एव मारयेत् एव। यतः आतंकिन: अनाचारिणः च वधे घातकस्य अपराधः न मन्यते। दुष्टस्य तु विनाशनमेवोचितम्।

(आते हुए आततायी को बिना विचारे ही मार देना चाहिए क्योंकि आतंकी या अनाचारी के मारने को, उसके घात को कोई अपराध नहीं माना जाता है। दुष्ट का तो विनाश करना ही उचित है।)

व्याकरणिक-बिन्दवः-आयान्तम् = आ+या+शतृ। दोष = दुष्+घञ्। हन्तुः – हन्+तृज् (ष. वि.) कश्चन = कः + चन्।

15. गोपालसाङ्किः कृष्णः रामो वानरसाङ्किः।
सद्भिक्षुसाङ्घिको बुद्धः महात्मानो हि साङ्घिकाः॥15॥

अन्वयः-कृष्णः गोपाल-साङ्घिकः, रामः वानर-साङ्किः , बुद्धः (च) सद्भिक्षु-साङ्घिकः (आसीत्) हि महात्मानः साङ्किाः (भवन्ति)।।

शब्दार्थाः-गोपालसाङधिकः = गोपालानां संघटनेन सम्बद्धः (ग्वालों के समूह से सम्बद्ध) वानर-साङ्किः = वानरानां संघेन सम्बद्धः (वानरों के समूह से सम्बद्ध) सभिक्षुसांधकः = सभिक्षुणां संघेन सम्बद्धः (अच्छे भिक्षुओं के संघ से सम्बद्ध)। महात्मानः = महापुरुषाः (महान पुरुष) सांघिकाः = संघप्रिया, साहचर्यशीलाः, (सहयोग प्रेमी होते हैं।)

हिन्दी-अनुवादः-भगवान कृष्ण ग्वालों के संघ से सम्बद्ध हैं, राम वानरों के संघ से सम्बद्ध हैं, बुद्ध भिक्षुओं के संघ से सम्बद्ध हैं। क्योंकि महापुरुष या महान आत्मा वाले लोग सदैव संघप्रिय या साहचर्य भाव रखने वाले होते हैं।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः-श्लोकोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य-पुस्तकस्य ‘सुभाषित-रत्नानि’ इति पाठात् उद्धृतः। श्लोकेऽस्मिन् कविः कथयति यत् महापुरुषाः सदैव संघप्रियाः भवन्ति।

(यह श्लोक हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य-पुस्तक के ‘सुभाषित-रत्नानि पाठ से लिया गया है। इस श्लोक में कवि कहता है कि महापुरुष संघ प्रिय होते हैं अर्थात् वे साहचर्यशील होते हैं।)

व्याख्या:-वासुदेव: गोप संघेन सम्बद्धः अस्ति, राम: अपि मर्कटानां समूहेन सम्बद्धः अस्ति, बुद्धः अपि भिक्षुकाणां संघेन सम्बद्धः। महापुरुषाः संघप्रिया साहचर्यशीलाः च भवन्ति। (वासुदेव कृष्ण ग्वालों के समूह से सम्बद्ध हैं, राम बन्दरों के संघ से सम्बद्ध हैं, बुद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के संघ से सम्बन्धित हैं। महापुरुष संघ प्रिय होते हैं अर्थात् वे साहचर्यशील होते हैं।)

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