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RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम्

RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम्

Rajasthan Board RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम्

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् अभ्यास – प्रश्नाः

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् वस्तुनिष्ठ – प्रश्नाः

1. महाराणा प्रतापः राजा आसीतु
(क) मारवाड़राज्यस्य
(ख) मेवाड़राज्यस्य
(ग) भरतपुरराज्यस्य
(घ) अलवरराज्यस्य

2. महाराणा प्रतापः कष्टं स्वीकरोति
(क) धनसंग्रहणाय
(ख) राज्यसुखाय
(ग) देशस्य स्वाधीनतायै
(घ) भोजनाय

3. किं महत्पापं वर्तते
(क) आत्मधनम्
(ख) आत्मेच्छा
(ग) आत्महेननम्
(घ) आत्मप्रशंसा

4. किं कल्याणप्रदं उच्यते
(क) वीरगत्या मरणम्
(ख) आत्महननम्
(ग) परनिन्दा
(घ) आत्मप्रशंसा

5. महाराणाप्रतापः कथं स्वदेशं रक्षितुम् इच्छति
(क) धनैः
(ख) प्राणैः
(ग) विचारैः
(घ) उद्घोषैः

उत्तरम्:

1. (ख)
2. (ग)
3. (ग)
4. (क)
5. (ख)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् लघूत्तरात्मक – प्रश्नाः

प्रश्न 1.
महाराणा प्रतापः कुत्र उपविष्टः आसीत्?
(महराणा प्रताप कहाँ बैठे थे?)
उत्तरम्:
महाराणा प्रतापः एकस्यां शिलायाम् उपविष्टः आसीत्।
(महाराणा प्रताप एक शिला पर बैठे थे।)

प्रश्न 2.
भामाशाहः कः आसीत्?
(भामाशाह कौन था?)
उत्तरम्:
भामाशाहः मेवाड़स्य मन्त्री आसीत्।
(भामाशाह मेवाड़ का मन्त्री था।)

प्रश्न 3.
भामाशाहः किं आदाय प्रतापस्य समीपम् आगच्छति?
(भामाशाह क्या लेकर प्रताप के पास आता है?)
उत्तरम्:
भामाशाहः धनराशिग्रन्थिम् आदाय प्रतापस्य समीपम् आगच्छति।
(भामाशाह धनराशि की पोटली लेकर प्रताप के पास आता है।)

प्रश्न 4.
प्रतापः कस्य अभावे किमपि कर्तुम् असमर्थः?
(प्रताप किसके अभाव में कुछ करने में असमर्थ था?)
उत्तरम्:
प्रतापः साधनाभावे धनाभावे किमति कर्तुम् असमर्थः।
(प्रताप साधनों (धन) के अभाव में कुछ भी करने में असमर्थ था।)

प्रश्न 5.
भिल्लाः किं कर्तुम् उद्यताः भवन्ति?
(भील क्या करने के लिए तैयार होते हैं?)
उत्तरम्:
भिल्लाः आत्मबलिदानं कर्तुम् उद्यताः आसन्।
(भील आत्मबलिदान के लिए तैयार थे।)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् निबन्धात्मक – प्रश्नाः

प्रश्न 1.
प्रतापः अरण्ये उपविष्टः किमर्थं खिन्नः भवति?
(प्रताप वन में बैठा हुआ किसलिए दु:खी होता है?)
उत्तरम्:
प्रतापः साधनानाम् अभावे मातृभूमेः रक्षणाय किमपि कर्तुम् असमर्थः आसीत् अतः सः चिन्तितवान् यत किमत्र वासेन मे प्रयोजनम्।
(प्रताप साधनों के अभाव में मातृभूमि की रक्षा के लिए कुछ भी करने में असमर्थ था। अत: उसने सोचा कि यहाँ रहने से भी मुझे क्या प्रयोजन।)

प्रश्न 2.
आत्महननं किमर्थं महत्पापम् अस्ति?
(आत्महत्या किसलिए महान पाप है?)
उत्तरम्:
आत्महननं महत्पापं वर्तते। कष्टानि सोद्वा वीरगत्या मरणं कल्याणकरं भवति। इत्थं आत्महननं तु नपुंसकानां कर्म।
(आत्महत्या महान पाप है। कष्ट सहन करके वीरगति से मरना कल्याणकारी होता है। इस प्रकार आत्महत्या तो नपुंसक लोग करते हैं।)

प्रश्न 3.
भामाशाहः किं निमित्तं स्वकीयं धनं प्रतापाय अर्पयति?
(भामाशाह किस प्रयोजन से अपना धन प्रताप को सौंपता है?)
उत्तरम्:
भामाशाहः देशधर्मयोः रक्षणार्थ, स्वदेशस्य पारतन्त्र्य श्रृंखला त्रोटयितुम् सैन्यदलं व्यवस्थापयितुम् तान् प्रशिक्षणाय च धनम् प्रतापाय अर्पयति।
(भामाशाह ने देश-धर्म की रक्षा के लिए अपने देश की परतन्त्रता की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए सैन्यदल व्यवस्थित करने के लिए तथा उन्हें प्रशिक्षण देने के लिए धन दिया था।)

प्रश्न 4.
भामाशाहः किंयत् धनं प्रतापाय ददाति?
(भामाशाह कितना धन प्रताप के लिए देता है?)
उत्तरम्:
भामाशाह इयतीं धनराशिं ददाति यया द्वादश वर्षाणि यावत् पञ्चविंशति सहस्र सैनिकाः सहर्ष योद्धं शक्नुवन्ति स्म।
(भामाशाह इतनी धन-राशि देता है जिससे बारह वर्ष तक पच्चीस हजार सैनिक सहर्ष युद्ध कर सकते हैं।)

प्रश्न 5.
धनं प्राप्य महाराणाप्रतापः किं उद्घोषयति?
(धन प्राप्त कर महाराणा क्या उद्घोषणा करते हैं?)
उत्तरम्:
धनं प्राप्य महाराणा उद्घोषयति-अद्य अस्माद् एव क्षणात् राणा स्वदेशस्य पारतन्त्र्य श्रृंखला: त्रोटयितुं शत्रून्। संहारयितुम् धर्मं रक्षितुम् च योत्स्यते योत्स्यते अवश्यमेव योत्स्यते।

(धन प्राप्त करके महाराणा घोषणा करते हैं- आज से इसी क्षण से राणा अपने देश की परतन्त्रता की जंजीर तोड़ने के लिए, शत्रुओं का संहार करने के लिए और धर्म की रक्षा करने के लिए युद्ध करेगा, युद्ध करेगा, अवश्य ही करेगा।)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् व्याकरणा-प्रश्नाः

प्रश्न 1.
निम्नलिखितानां समासयुक्तानां पदानां समास-नामोल्लेख-सहितं विग्रहं कुरुत-
(निम्नलिखित समास युक्त पदों के समास के नाम का उल्लेख सहित विग्रह कीजिए-)
उत्तरम्:

RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् image 1

प्रश्न 2.
निम्नलिखितानां पदानां सन्धिविच्छेदं कुरुत-
(निम्नलिखित पदों का सन्धिविच्छेद कीजिए-)
उत्तरम्:
RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् image 2

प्रश्न 3.
कोष्ठकगत-संकेतानुसारं रिक्तस्थानानां पूर्तिं कुरुत-
(कोष्ठक में दिए संकेत के अनुसार रिक्त स्थानों की पूर्ति करिए)
उत्तरम्:
(क) आवां विद्यालयं गच्छावः। (गम्)
(ख) यदा श्याम: पचति तदा मोहन: खादति। (पच्, खाद्)
(ग) सुधीर: नरेन्द्रेण सह विद्यालये पठति। (पठ्)
(घ) युवां अत्र किं कुरुथः? (कृ)

प्रश्न 4.
निम्नलिखितानि वाक्यानि संशोधयत-
(निम्नलिखित वाक्यों को संशोधित कीजिए-)
(क) पुत्रं सह पिता आगच्छति।
उत्तरम्:
पुत्रेण सह पिता आगच्छति।

(ख) उदयपुरस्य परितः जलम् अस्ति।
उत्तरम्:
उदयपुरं परितः जलमस्ति।

(ग) हरि नमः
उत्तरम्:
हरये नमः।

(घ) धर्माय विना न सुखम्।
उत्तरम्:
धर्म / धर्मेण / धर्मात् विना न सुखम्।

प्रश्न 5.
स्थूलाक्षरपदानि आधारीकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
(मोटे अक्षर वाले पदों को आधार बनाकर प्रश्न-निर्माण कीजिए-) .
उत्तरम्:
(क) आत्महननं महत्पापम् अस्ति। (आत्महत्या महान पाप है।)
उत्तरम्:
किम् महत्पापम्? (क्या महान पाप है?)

(ख) अनेन द्वादशवर्षाणि यावत् पञ्चविंशतिसहस्रं सैनिका: सहर्ष योद्धं शक्नुवन्ति।
(इससे बारह वर्ष तक पच्चीस हजार सैनिक सहर्ष युद्ध कर सकते हैं।)
उत्तरम्:
अनेन द्वादशवर्षाणि यावत् कति सैनिका: सहर्ष योद्धं शक्नुवन्ति?
(इससे बारह वर्ष तक कितने सैनिक सहर्ष युद्ध कर सकते हैं?)

(ग) महाराणा प्रताप: अरण्ये एकस्यां शिलायाम् उपविष्टः वर्तते।
(महाराणा प्रताप जंगल में एक शिला पर बैठे हुए हैं।)
उत्तरम्:
महाराणा प्रतापः कुत्र उपविष्टः वर्तते:?
(महाराणा प्रताप कहाँ बैठे हुए हैं?)

(घ) विजयतां महाराजः।
(महाराज की जय हो।)
उत्तरम्:
कः विजयताम्?
(कौन की जय हो?)

(ङ) भवतां वीरता धीरता च देशरक्षायै महान्तं सहयोगं कृतवती।
(आपकी वीरता और धैर्य ने देश की रक्षा के लिए सहयोग किया।)
उत्तरम्:
भवतां वीरता धीरता च कस्मै महान्तं सहयोगं कृतवती?
(आपकी वीरता और धैर्य ने किसके लिए सहयोग किया?)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 11 स्वदेशं कथं रक्षेयम् अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तराणि

अधोलिखित प्रश्नान् संस्कृतभाषया पूर्णवाक्येन उत्तरत् – (निम्नलिखित प्रश्नों का संस्कृत में पूर्णवाक्य में उत्तर दीजिए-)

प्रश्न 1.
‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इत्येकाङ्कः केन लिखतः?
(‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ यह एकांकी किसने लिखा है?)
उत्तरम्:
‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इत्येकाङ्कः डॉ. नारायण शास्त्री कांकरेण लिखितः।
(‘स्वदेश कथं रक्षेयम्’ एकांकी डॉ. नारायण शास्त्री ने लिखा है।)

प्रश्न 2.
‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इति एकाङ्कम् कुतः संकलितम्?
(‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ एकांकी कहाँ से संकलित है?)
उत्तरम्:
‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इति एकाङ्क डॉ. नारायण शास्त्री कांकरस्य ‘एकांकी संस्कृत नवरत्न सुषमा’ इति ग्रन्थात् संकलितः।
(‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ एकांकी डॉ. नारायण शास्त्री कांकर के ‘एकांकी संस्कृत नवरत्न सुषमा’ नाम के ग्रन्थ से संकलित है।)

प्रश्न 3.
शिलायाम् उपविष्टः महाराणा प्रतापः किं चिन्तयति स्म?
(शिला पर बैठे महाराणा प्रताप क्या सोच रहे थे?)
उत्तरम्:
यदि अहं मातृभूमिं रक्षितुं न शक्नोमि, किम् अत्र वासेन मे प्रयोजनम्।
(यदि मैं मातृभूमि की रक्षा नहीं कर सकता तो यहाँ रहने से क्या प्रयोजन?)

प्रश्न 4.
‘विजयतां महाराजः’ सर्वदारे इति कथिते प्रतापः किम् अकथयत्?
(महाराज की विजय हो, ऐसा सरदार के कहने पर प्रताप ने क्या कहा?)
उत्तरम्;
‘विजयध्वनिं कृत्वा किं त्वमपि मां लज्जसे’ इति प्रताप: अकथयत्।
(विजयध्वनि करके क्या तुम भी मुझे लज्जित कर रहे हो। प्रताप ने कहा।)

प्रश्न 5.
सर्वदारः प्रतापं प्रति कं शुभकामनाम् अकरोत्?
(सरदार ने प्रताप के प्रति क्या शुभकामना की?)
उत्तरम्:
सर्वदारः अवदत् यत् भवत्ः सदा विजयः एव भविष्यति।
(सरदार ने कहा कि आपकी सदा जीत ही होगी।)।

प्रश्न 6.
प्रतापः कस्मै उद्यतः आसीत्?
(प्रताप किसके लिए उद्यत था?)
उत्तरम्:
प्रतापः स्वदेशं परित्यक्तुं समुद्यतोऽभवत्।
(प्रताप स्वदेश त्यागने के लिए तैयार था।)

प्रश्न 7.
प्रतापे स्वदेशं परित्यक्तुम् उद्यते द्वितीयः सर्वदारः किम् अकथयत्?
(प्रताप के स्वदेश त्यागने के लिए तैयार होने पर दूसरे सरदार ने क्या कहा?)
उत्तरम्:
प्रतापे स्वदेशं परित्यक्तुम् उद्यते द्वितीयः सर्वदारः अकथयत् यद् यत्र-यत्र भवान् गमिष्यति, तत्र-यत्र एंव वयम् अपि गमिष्यामः।
(प्रताप के स्वदेश त्यागने के लिए उद्यत होने पर दूसरे सरदार ने कहा कि जहाँ-जहाँ आप जाएँगे वहाँ-वहाँ हम भी जाएँगे।)

प्रश्न 8.
‘भवन्तः अत्र स्थित्वा एव मातृभूमेः सेवां कुर्वन्तु’ इति केने उक्तम्?
(‘आप यहाँ ठहरकर ही मातृभूमि की सेवा करें।’ यह किसने कहा?)
उत्तरम्:
‘भवन्त: अत्र स्थित्वा एव मातृभूमिः सेवां कुर्वन्तु’ इति प्रतापेन सर्वदारम् प्रति उक्तम्?
(‘आप यहाँ रहकर ही मातृभूमि की सेवा करें।’ यह प्रताप ने सरदार से कहा।)

प्रश्न 9.
सर्वदाराः कुतः निवसितुम् इच्छन्ति स्म?
(सरदार किसके साथ रहना चाहते थे?)
उत्तरम्:
सर्वदारा: प्रतापेन सह निवसितुम् इच्छन्ति स्म।
(सरदार प्रताप के साथ रहना चाहते थे।)

प्रश्न 10.
‘यद रोचते भवदम्य कुर्वन्तु’ इति केन केभ्यः उक्तम्?
(‘जैसा आपको अच्छा लगे करो’ यह किसने किनसे कहा?)
उत्तरम्:
वाक्योऽयं प्रतापेन सर्वदारेभ्यः उक्तम्।
(यह वाक्य प्रताप ने सरदारों से कहा।)

प्रश्न 11.
भिल्लानाम् आवासस्य मध्यतः के गच्छन्ति?
(भीलों के आवास में होकर कौन जाते हैं?)
उत्तरम्:
भिल्लानाम् आवासस्य मध्यतः महाराणा प्रतापेन सह सर्वे: अनुचराः गच्छन्ति।
(भीलों के आवास के बीच होकर महाराणा प्रताप के साथ सभी साथी जाते हैं।)

प्रश्न 12.
प्रतापमवलोक्य भिल्लः किमकथयत्?
(प्रताप को देखकर भील ने क्या कहा?)
उत्तरम्:
सोऽवदत् -हा भगवन् ! अद्य कीदृशः समयः आगतः? प्रतापः अपि स्वदेशं परित्यज्यं अन्यत्र प्रस्थितः अस्ति।
(वह बोला- हे भगवान् ! आज कैसा समय आ गया है? प्रताप भी स्वदेश त्यागकर अन्यत्र जा रहे हैं।)

प्रश्न 13.
कस्य समीपे जीवन सामग्री नासीत्?
(किसके पास जीवन-सामग्री नहीं थी?)
उत्तरम्:
प्रतापस्य समीपे जीवन सामग्री नासीत्।
(प्रताप के पास जीवन-सामग्री नहीं थी।)

प्रश्न 14.
‘मातृभूमेः दुर्दशां स्व चक्षुषी कथं द्रक्ष्याम:?’ इति कस्य वाक्यः?
(मातृभूमि की दुर्दशा को अपनी आँखों से कैसे देखूगा? यह किसका वाक्य है?)
उत्तरम्:
‘मातृभूमेः दुर्दशा स्वचक्षुषा कथं द्रक्ष्यामः’ इति वाक्यः तृतीय भिल्लस्य अस्ति।
(मातृभूमि की दुर्दशा अपनी आँखों से कैसे देखेंगे।’ यह वाक्य तीसरे भील का है।)

प्रश्न 15.
असिं निःसार्य सहचरः किं कथयति?
(तलवार निकालकर सहचर क्या कहता है?)
उत्तरम्:
‘सः कथयति-‘ भवान् अनेन असिना मम बलिं ददातु।
(‘वह कहता है-आप इस तलवार से मेरी बलि दे दो।’)

प्रश्न 16.
देशरक्षायै असमर्थाः भिल्लाः किमचिन्तयन्?
(देशरक्षा में असमर्थ भीलों ने क्या सोचा था?)
उत्तरम्:
तेऽचिन्तयन् यदि वयं देशरक्षायै न किमपि कर्तुम् समर्थाः तदा मरणमेव अस्माकं श्रेयस्करम्।
(वे सोचने लगे यदि देश रक्षा के लिए कुछ करने में समर्थ नहीं हैं तो हमारा मरना ही श्रेयस्कर है।)

प्रश्न 17.
कीदृशं मरणम् एव कल्याणकरम् कथ्यते?
(कैसा मरना कल्याणकारी कहलाता है?)
उत्तरम्:
कष्टानि सोढ्वा वीरगत्या मरणं कल्याणकरं कथ्यते।
(कष्टों को सहकर वीरगति के साथ मरना कल्याणकारी कहलाता है।)

प्रश्न 18.
आत्महननं केषां कर्म?
(आत्महत्या किनका काम है?)
उत्तरम्:
आत्महननं नपुंसकानां कर्म।
(आत्महत्या नपुंसकों का काम है।)

प्रश्न 19.
पृष्ठतः ‘स्थीयतां स्थीयताम्’ इति कः शब्दायते?
(पीछे से ‘ठहरिए, ठहरिए’ ऐसी कौन आवाज लगाता है?)
उत्तरम्:
पृष्ठतः भामाशाहः ‘स्थीयतां स्थीयताम्’ इति शब्दायते?
(पीछे से भामाशाह ‘ठहरो, ठहरो’ ऐसी आवाज लगाता है।)

प्रश्न 20.
मेवाड़मन्त्री कैः आसीत्?
(मेवाड़ का मन्त्री कौन था?)
उत्तरम्:
मेवाड़स्य मन्त्री भामाशाहः आसीत्।
(मेवाड़ का मन्त्री भामाशाह था।)

प्रश्न 21.
भामाशाहः किमादाय आयाति स्म?
(भामाशाह क्या लेकर आया था?)
उत्तरम्:
भामाशाहः धनराशिग्रन्थिम् आदाय आयाति स्म।
(भामाशाह धनराशि की पोटली लेकर आ रहा था।)

प्रश्न 22.
भामाशाह महाराणां प्रणम्य किम् अपृच्छत्?
(भामाशाह ने महाराणा को प्रणाम कर क्या पूछा?)
उत्तरम:
सोऽपृच्छत्-‘अन्नदातः !’ सेवक संत्यज्य क्व प्रस्थीयते श्रीमता?
(वह बोला-‘अन्नदाता ! सेवक को त्यागकर श्रीमान जी कहाँ प्रस्थान कर रहे हैं?)

प्रश्न 23.
महाराणा प्रतापस्य मनः कस्मात् दोलायितमासीत्?
(महाराणा प्रताप का मन किसलिए दोलायमान था?)
उत्तरम्:
‘पाश्र्वे धनं नैव, न च सेना एव। अहं स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इति अस्मात् एव प्रतापस्य मनः दोलायितः आसीत्।
(पास में धन नहीं न ही सेना है। मैं स्वदेश की रक्षा कैसे करू। इसी कारण से उनका मन दोलायमान था।)

प्रश्न 24.
किं श्रुत्वां भामाशाहस्य हृदयं भग्नमभवत्?
(क्या सुनकर भामाशाह का हृदय टूट गया?)
उत्तरम्:
‘प्रतापः स्वदेशं परित्यज्य अन्यत्र गच्छति’ इति समाचारं श्रुत्वा भामाशाहस्य हृदयं भग्नम् अभवत्।
(प्रताप स्वदेश छोड़कर जा रहे हैं। यह समाचार सुनकर भामाशाह का हृदय टूट गया।)

प्रश्न 25.
प्रतापः भामाशाहस्य धनं किमुक्त्वा अस्वीकृतम्?
(प्रताप ने भामाशाह का धन क्या कहकर लौटा दिया?)
उत्तरम्:
‘अहं दत्तां सम्पत्तिं पुनः न आददामि’ इत्युक्त्वा अस्वीकृतम्।
(मैं दी हुई सम्पत्ति वापिस नहीं लेता’ यह कहकर अस्वीकार कर दी।)।

स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्न निर्माणं कुरुत – (मोटे अक्षर वाले पदों के आधार पर प्रश्नों का निर्माण कीजिए-)

प्रश्न 1.
उभौ अपि प्रेम्णा परस्परम् आलिङ्गतः। (दोनों भी प्रेम से आपस में गले लगते हैं।)
उत्तरम्:
उभौ अपि प्रेम्णा परस्परम् किं कुरुतः? (दोनों प्रेम से क्या करते हैं?)

प्रश्न 2.
प्रताप-भामाशाहयोः मेलनं विलोक्य सहचराः हर्षिताः भवन्ति? (प्रताप और भामाशाह के मिलन को देखकर सहचर प्रसन्न होते हैं।)
उत्तरम्:
कयो: मेलनं विलोक्य सहचराः हर्षिताः भवन्ति? (किसके मिलन को देखकर साथी प्रसन्न होते हैं?)

प्रश्न 3.
धनस्य ग्रन्थिकां चरणयोः अर्पयति। (धन की पोटली चरणों में अर्पित कर देता है।)
उत्तरम्:
काम् चरणयोः अर्पयति? (क्या चरणों में अर्पित कर देता है?)

प्रश्न 4.
देश-धर्मयोः रक्षा विधीयताम्। (देश और धर्म की रक्षा की जानी चाहिए।)
उत्तरम्:
कस्य रक्षां विधीयताम्? (किसकी रक्षा की जानी चाहिए?)

प्रश्न 5.
स्वतन्त्रः क्रियतां देशः। (देश को स्वतन्त्र किया जाये)
उत्तरम्:
कः स्वतन्त्रः क्रियताम्? (क्या स्वतन्त्र किया जाये?)

प्रश्न 6.
प्रतापः स्वदेशं परित्यज्य अन्यत्र प्रस्थितः। (प्रताप स्वदेश त्यागकर अन्यत्र जा रहा है।)
उत्तरम्:
कः स्वदेशं परित्यज्य अन्यत्र प्रस्थितः। (कौन स्वदेश को त्यागकर अन्यत्र जा रहा है?)

प्रश्न 7.
परमेश्वरोऽपि निष्ठुरो जातः। (परमेश्वर भी निष्ठुर हो गया है।)
उत्तरम्:
परमेश्वरोऽपि कीदृशो जातः? (परमेश्वर भी कैसा हो गया है?)

प्रश्न 8.
प्रतापस्य समीपे युद्ध सामग्री न विद्यते। (प्रताप के पास युद्ध सामग्री नहीं है।)
उत्तरम्:
प्रतापस्य समीपे किं न विद्यते? (प्रताप के पास क्या नहीं है?)

प्रश्न 9.
भिल्लानां प्रलापं श्रुत्वा। (भीलों का प्रलाप सुनकर।)
उत्तरम्:
केषां प्रलापं श्रुत्वा? (किनका प्रलाप सुनकर?)

प्रश्न 10.
एते भिल्ला सत्यमेव वदन्ति। (ये भील सत्य ही बोलते हैं।)
उत्तरम्:
के सत्यमेवं वदन्ति ? (कौन सत्य ही बोलते हैं?)

प्रश्न 11.
असिं नि:सार्य प्रतापाय ददाति। (तलवार निकालकर प्रताप को देता है?)
उत्तरम्:
असिं नि:सार्य कस्मै ददाति? (तलवार निकालकर किसे देता है?)

प्रश्न 12.
मेवाड़भूमेः दुर्दशां कथं दृष्टं शक्यते। (मेवाड़भूमि की दुर्दशा कैसे देखी जा सकती है।)
उत्तरम्:
कस्याः दुर्दशां कथं द्रष्टुं शक्यते? (किसकी दुर्दशा कैसे देखी जा सकती है?)

प्रश्न 13.
साम्प्रतं जीवनं नरकायते। (अब जीवन नरक बन रहा है।)
उत्तरम्:
साम्प्रतं किं नरकायते? (अब क्या नरक बन रहा है?)

प्रश्न 14.
आत्महननं महत्पापम्। (आत्महत्या महान पाप है।)
उत्तरम्:
किं महत्पापम्? (क्या महान पाप है?)

प्रश्न 15.
वीरगत्या मरणं कल्याणकरं। (वीरगति से मरना कल्याणकारी होता है।)
उत्तरम्:
कया मरणं कल्याणकरं? (किंससे मरना कल्याणकारी होता है?)

प्रश्न 16.
वृक्षम् आरुह्य पश्यति। (पेड़ पर चढ़कर देखता है।)
उत्तरम्:
कम् आरुह्य पश्यति? (किस पर चढ़कर देखता है?)

प्रश्न 17.
पृष्ठतः ध्वनिः भवति। (पीछे से ध्वनि होती है।)
उत्तरम्:
कुतः ध्वनिः भवति? (ध्वनि कहाँ से होती है?)

प्रश्न 18.
एकस्यां शिलायाम् उपविष्टः वर्तते। (एक शिला पर बैठा हुआ है।)
उत्तरम्:
कुत्र उपविष्टः वर्तते? (किस पर बैठा है?)

प्रश्न 19.
मातृभूमिं रक्षितुं न शक्नोति? (मातृभूमि की रक्षा नहीं कर सकता हूँ।)
उत्तरम्:
कां रक्षितुं न शक्नोति? (किसकी रक्षा नहीं कर सकता।)

प्रश्न 20.
स्वाधीनतायै सर्वं सोढम्। (स्वाधीनता के लिए सब कुछ सहन किया गया।)
उत्तरम्:
कस्मै सर्वं सोढम्? (किसके लिए सब कुछ सहन किया?)

पाठ–परिचयः
यह एकांकी डॉ. नारायणशास्त्री कांकर द्वारा रचित है। इन महोदय को जन्म जयपुर नगर में हुआ। इनके द्वारा संस्कृत भाषा में अनेक एकांकी लिखे गए। उनका सङ्कलन ‘एकांकी संस्कृत नवरत्न सुषमा’ नामक इनके द्वारा ही लिखे गये ग्रन्थ में है। अबकर के साथ युद्ध करते हुए धन के अभाव में, सैन्य शक्ति के अभाव में खिन्न (दु:खी) महाराणा प्रताप स्वदेश त्यागने के लिए तैयार होते हैं। उस अवसर पर मेवाड़ के मन्त्री भामाशाह आकर अपनी विपुल धनराशि देश की स्वतन्त्रता के लिए प्रताप को समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार इस एकांकी रूपक में महाराणा प्रताप की कर्तव्य–बुद्धि, अपने राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए। दृढ़ इच्छाशक्ति, स्वाभिमान, भामाशाह की उदारता और देशरक्षा के लिए अपनी सम्पत्ति का समर्पण आदि इस प्रकार के गुण वर्णित हैं।

मूलपाठ, शब्दार्थ, हिन्दी–अनुवाद तथा सप्रसंग संस्कृत व्याख्यो।

1. (मेवाड़ाधिपतिः महाराणाप्रतापः अरण्ये स्वसहचरेण सह एकस्यां शिलायाम् उपविष्टः वर्तते। असौ प्राणैः अपि स्वदेशं रक्षितुम् इच्छति। साधनाभावात् किमपि कर्तुम् असमर्थः स मनसि किञ्चित् विचारयन्नस्ति)।

प्रताप : – अरे धिक् माम्। यदि अहं मातृभूमिं रक्षितुं न शक्नोमि, किम् अत्र वासेन मे प्रयोजनम्। (दीर्घ नि:श्वसिति) (ततः प्रविशति कश्चन राजपुत्र–सर्वदारः)
सरदार : – (राजोचितं प्रणम्य) विजयतां विजयतां महाराजः। प्रताप : (दीर्घ नि:श्वस्य मुखम् उन्नमय्य च) हा धिक्। विजयध्वनिं कृत्वा त्वम् अपि किम् एवं मां लज्जयसे भ्रातः! सर्वदार : – प्राणाधार ! किम् इदं भवान् वदति? स्वधर्माय भवता सर्वं किम् अपि कृतम्। स्वाधीनतायै सर्वं किम्। अपि सोढम्। भवतः सदा विजयः एव भविष्यति।
प्रतापः – कीदृशस्तावद् विजयः? स्वदेशं परित्यक्तुं तु समुद्यतः अस्मि!।
द्वितीयसर्वदारः – (उत्थाय साञ्जलिः) नहि–नहि महाराज ! यत्र–यत्र भवान् गमिष्यति, तत्र–तत्र वयम् अपि अनुगमिष्यामः।
प्रतापः – एवं न वाच्यम्। भवन्तः अत्र स्थित्वा एव मातृभूमेः सेवां कुर्वन्तु।
तृतीयसर्वदारः – नहि भगवन् ! अस्माकं सेवाः भवता सह सन्ति। वयं तु भवता सह एव निवत्स्यामः।
प्रताप : – यद् रोचते भवद्भयः, कुर्वन्तु। न अहं भवत: विवशान् करोमि। (महाराणा प्रतापेन सह सर्वे अपि अनुचराः ततः उत्थाय भिल्लानाम् आवासस्य मध्यत: नि:सरन्ति।)

शब्दार्था:–
अधिपतिः = नृपः (राजा)। अरण्ये = वन में। सहचरेण = सहयोगी से। शिलायाम् = पर्वतखण्डे (शिला पर)। उपविष्टः = स्थितः (बैठा हुआ)। साधनाभावात् = साधनों के अभाव के कारण। कश्चन = कश्चित् (कोई)। राजोचितम् = राजानुरूपम् (राजा के अनुरूप)। उन्नमय = उत्थाप्य (उठाकर)। स्वाधीनतायै = स्वतन्त्रता के लिए। सोढम् = सहन किया। समुद्यतः = सन्नद्ध (तैयार)। साञ्जलिः = हाथ जोड़कर। अनुगमिष्यामः = अनुगमन करेंगे। पीछे–पीछे चलेंगे। निःसरन्ति = निकल जाते हैं। परित्यक्तुं = परित्यागाय (परित्याग करने के लिए)।

हिन्दी–अनुवादः–
(मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप जंगल में अपने साथियों के साथ एक शिला पर बैठे हुए हैं। वे प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने देश की रक्षा करना चाहते हैं। साधनों के अभाव में कुछ भी करने में असमर्थ वे मन में कुछ विचार कर रहे हैं।)
प्रताप – अरे मुझे धिक्कार है। यदि मैं मातृभूमि की रक्षा नहीं कर सकता हूँ तो यहाँ रहने से क्या प्रयोजन। (लम्बी साँस लेता है।)) (तब कोई राजपूत सरदार प्रवेश करता है।)
सरदार – (राजा के अनुरूप प्रणाम करके) महाराज की जय हो, महाराज की जय हो।
प्रताप – (लम्बी साँस लेकर और मुख को ऊपर उठाकर) अरे धिक्कार है। विजय ध्वनि (जय–जयकार)
करके तुम भी क्या इस प्रकार मुझे लज्जित कर रहे हो भाई।
सरदार – प्राणों के आधार ! आप यह क्या कह रहे हैं? अपने धर्म के लिए आपने सब कुछ तो किया। स्वतन्त्रता के लिए सब कुछ भी सहन किया। आपकी सदा विजय ही होगी।
प्रताप – तो विजय कैसी? स्वदेश को त्यागने के लिए तैयार हूँ। दूसरा
सरदार – (उठकर हाथ जोड़कर) नहीं नहीं महाराज ! जहाँ–जहाँ आप जायेंगे वहाँ–वहाँ हम भी आपके पीछे–पीछे जायेंगे। प्रताप
प्रताप – ऐसा मत कहो! आप यहाँ ठहरकर ही मातृ–भूमि की सेवा करें।
तीसरी सरदार – नहीं भगवन् ! हमारी सेवाएँ आपके साथ हैं। हम तो आपके साथ ही रहेंगे।
प्रताप – आपको जो अच्छा लगे, करो! मैं आपको विवश नहीं करता हूँ। (महाराणा प्रताप के साथ सभी सेवक वहाँ से उठकर भीलों की बस्ती के बीच होकर निकलते हैं।)

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः–नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य–पुस्तकस्य ‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयं मूलतः डॉ. नारायण शास्त्री कांकरेण विरचितात् ‘एकाङ्की संस्कृत नवरत्न सुषमा’ इति संग्रहात् संकलितः। नाट्यांशेऽस्मिन् महाराणा प्रतापस्य नैराश्यात् स्वदेश रक्षणे असमर्थस्य वेदना वर्णिता। आर्थिक संकटात् निराश: प्रतापः देशं विहाय अन्यत्र गन्तु संकल्पितः

(यह नाट्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य–पुस्तक के ‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ पाठ से उधृत है। यह पाठ मूलतः डॉ. नारायण शास्त्री कांकर–विरचित ‘एकाङ्की संस्कृत नवरत्न सुषमा’ एकांकी संग्रह से संकलित है। इस नाट्यांश में प्रताप सिंह की निराशा के कारण स्वदेश रक्षा की असमर्थता की वेदना वर्णित है। आर्थिक संकट के कारण निराश प्रताप देश को छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए सङ्कल्पित है–)

व्याख्याः–
(मेदपाट राज्यस्याधिपतिः महाराणा प्रताप सिंहः कानने स्वसहयोगिभिः सार्धम् एकस्मिन् शिलापट्टे आसीन: अस्ति। सः वीर: प्राणपणेनपि स्वकीयं देशं रक्षितुं कामयते। परञ्च युद्ध–साधनानांम् वित्तादीनाम् च अभावात् असौ किमपि कर्तुं न शक्नोति। सः स्व मनसि किञ्चित् चिन्तयन् अस्ति।)
प्रतापः–अरे धिक् मां प्रतापम्। यदि अहं जन्मधरां रक्षितुम् असमर्थः अस्मि तदा अत्र मेवाड़राज्ये निवासेन किं प्रयोजनम्? (दीर्घ नि:श्वसिति)। (तदैव कोऽपि राजन्यः सामन्तः प्रवेशं करोति।)
सर्वदारः–(नृपोचितम् अभिवादनं कृत्वा) विजयतु विजयतु महाराज:।
प्रतापः–(दीर्घ नि:श्वसं त्यजन् आननं च उत्थाप्य) हा धिक् माम् ! बन्धो किं त्वमपि ‘विजयतां विजयताम्’ इति विजयोद्घोषं विधाय माम् लज्जयितु इच्छसि?
सर्वदारः–हे अस्माकं प्राणानाम् आश्रयभूतः अपि एव श्रीमान् प्रतापः कथयति? न हि एवं तु असम्भवमेव। आत्मनः
धर्म–निर्वहनाय श्रीमता सर्वमेव तु कृतम्। स्वातन्त्र्याय असह्यानि कष्टानि अपि भवता सोढानि! भवतां तु सर्वदा एव जयः एव संभविष्यति।
प्रतापः–तर्हि कीदृशः जय: स्यात्? नास्ति सम्भावना। स्वराज्यं मेदपाटं परित्यज्य कुत्रचित् अन्यत्र गमिष्यामि। एवं कर्तुम् अहं दृढ़ संकल्पितोऽस्मि।
द्वितीय सर्वदारः–(उत्थाय साञ्जलि प्रणमति) नहि महाराणा ! यत्र श्रीमान् यास्यति तत्र एव वयम् अपि अनुयास्यामः।
प्रतापः–एवं न कथनीयम्। श्रीमन्तः तु अत्र मेदपाटे एव निवासं कृत्वा स्वस्थ जनधरा सेवन्ताम्।
तृतीय सर्वदारः–नहि देव! वयम् अपि भवभिः सार्धम् स्थित्वा भवतां देशस्य च सेवां रक्षां च करिष्यामः। वयम्। मेदपाटवासिनः तु भवभि सार्धमेव निवत्स्यामः।
प्रतापः–भवन्तः यथा इच्छन्ति तथा कुर्वन्तु। अहं युष्मान् अत्रे निवसितुम् पलायतुम् वा वाध्यान् न करिष्यामि। (महाराणा प्रतापेन सार्धमेव सर्वे सहयोगिनः, सहचरा: सेवकाः च ततः उत्थाय आदिवासिनाम् आवासं प्रति गच्छन्ति ततश्च निर्गच्छन्ति।)

हिन्दी–अनुवाद–
(मेवाड़ राज्य के अधिपति महाराणा प्रताप सिंह, वन में अपने सहयोगियों के साथ एक शिलापट्ट पर बैठे हुए हैं। वह वीर प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने देश की रक्षा करना चाहते हैं। परन्तु युद्ध के साधनों और धन के अभाव के कारण वह कुछ भी नहीं कर सकता है। वह अपने मन में कुछ सोच रहा है।)

प्रताप–अरे मुझ प्रताप को धिक्कार है। यदि मैं जन्मभूमि की रक्षा करने में असमर्थ हूँ तो यहाँ मेवाड़ राज्य में निवास करने का क्या प्रयोजन। (लम्बी साँस लेता है।) (तभी कोई राजपूत सरदार प्रवेश करता है।)
सरदार–(राजा के अनुरूप अभिवादन करके) महाराज की विजय हो, महाराज की जय हो।
प्रताप–(लम्बी साँस छोड़ते हुए और मुख को उठाकर) अरे मुझे धिक्कार है। मित्र! क्या तुम भी ‘जय हो जय हो’ कहकर विजयघोष करके मुझे लज्जित (शर्मिन्दा) करना चाहते हो?
सरदार–हे हमारे प्राणों के सहारे ! क्या ऐसा श्रीमान् प्रताप सिंह कह रहे हैं? नहीं ऐसा तो सम्भव ही नहीं है। अपने धर्म का निर्वाह करने के लिए श्रीमान् जी ने सब कुछ तो किया। स्वतन्त्रता के लिए असह्य कष्टों को भी आपने सहन किया। आपकी तो सदैव विजय सम्भव होगी। प्रताप–तो कैसी विजय होगी? सम्भावना नहीं है। अपने राज्य मेवाड़ को छोड़कर कहीं और जगह चला जाऊँगा। ऐसा करने के लिए मैं दृढ़ संकल्पित हूँ।
दूसरा सरदार–(उठकर हाथ जोड़कर प्रणाम करता है) नहीं महाराज ! जहाँ आप श्रीमान् जायेंगे वहाँ ही हम भी पीछे–पीछे जायेंगे।
प्रताप–ऐसा नहीं कहना चाहिए। श्रीमान् तो यहाँ मेवाड़ में ही निवास करके अपनी जन्मभूमि की सेवा करें।
दूसरा सरदार–नहीं महाराज ! हम भी आपके साथ ठहरकर आपकी और देश की सेवा और रक्षा करेंगे। हम मेवाड़ वासी तो आपके साथ ही निवास करेंगे। प्रताप–आप जैसा चाहें वैसा करें, मैं तुम्हें यहाँ रहने के लिए या भागने (पलायन करने) के लिए बाध्य नहीं करूंगा।

(महाराणा प्रताप के साथ ही सभी सहयोगी, सहचर और सेवक, वहाँ से उठकर भीलों की बस्ती की ओर जाते हैं और वहाँ से निकल जाते हैं।)।

व्याकरणिक–बिन्दवः–रक्षितुम् = रक्ष् + तुमुन्। कर्तुम् = कृ + तुमुन्। कृत्वा = कृ + क्त्वा। सह् + क्त = सोढम्। परित्यक्तुम् = परि + त्यज् + तुमुन्। स्थित्वा = स्था + क्त्वा। उत्थाय = उद् + स्था + ल्यप्।

2.
प्रथमः भिल्लः – हा भगवन्! अद्य कीदृशः समयः आगतः? प्रतापः अपि स्वदेशं परित्यज्य अन्यत्र प्रस्थितः अस्ति।
द्वितीयः भिल्लः – न जाने अस्य मेवाड़देशस्य भाग्ये किं लिखितम् अस्ति। हे दीनदयालो ! परमेश्वर !! त्वम् अपि अद्य इयान् निष्ठुरः कथं जातः!
तृतीयः भिल्लः – हा धिक् ! वराकस्य समीपे न जीवनसामग्री न च युद्धसामग्री एवं विद्यते। मातृभूमेः दुर्दशा स्वचक्षुषा कथं द्रक्ष्याम:? (रोदिति) (भिल्लानां प्रतापं श्रुत्वा)
एकः सहचरः – हा धिक् ! एते भिल्ला: सत्यम् एव वदन्ति। अयं समय: देशाय धर्माय च न शोभनः। परं किं क्रियते? (असिं नि:सार्य प्रतापाय ददत्) प्रभो! बलिं ददातु मम भवान् अनेन। न। आत्मचक्षुषा मेवाड़भूमेः दुर्दशा द्रष्टुं शक्यते।
द्वितीयः सहचरः – सत्यम् एव साम्प्रतं जीवनं नरकायते।
भिल्लाः – हा! अस्माकम् अपि जीवनेन को लाभ:? यदि वयं देशरक्षायै न किम् अपि कर्तुं समर्थाः, तदा मरणम् एव अस्माकं श्रेयस्करम्।
प्रतापः – हा धिक्! भवन्तः सर्वे इदं किं कुर्वन्ति? आत्महननं महत्पापं वर्तते। स्थीयतां स्थीयताम्। कष्टानि सोढ्वा वीरगत्या मरणं कल्याणकरं कथ्यते। इत्थम् आत्महननं तु नपुंसकानां कर्म। किञ्चिद् धैर्येण विचारयन्तु।

शब्दार्थाः–
परित्यज्य = त्यक्त्वा (त्याग कर)। इयान् = इतना। निष्ठुरः = निठुर, कठोर। वराकस्य = बेचारे का। असिम् = तलवार को। निःसार्य = निकालकर। साम्प्रतम् = अधुना (अब)। नरकायते = नरक की तरह होता है। श्रेयस्करम् = उचित। आत्महननम् = आत्महत्या। महत्पापम् = महान पाप। स्थीयताम् = ठहरो। सोढ्वा = भुक्त्वा (भोगकर, सहन करके)। कल्याणकरम् = कल्याणकरम् (भला करने वाला)। प्रस्थितः = प्रस्थान किया।

हिन्दी–अनुवादः
पहला भील – ‘ हे भगवान् आज कैसा समय आ गया? प्रताप भी अपने देश को त्यागकर अन्यत्र प्रस्थान कर गये हैं।
दूसरा भील – न जाने इस मेवाड़ देश के भाग्य में क्या लिखा है? हे दीनदयालु ! परमेश्वर! तुम भी आज इतने निष्ठुर कैसे हो गये?
तीसरा भील – हाय धिक्कार है। बेचारे के पास न जीवनयापन की सामग्री है न युद्ध (करने की) सामग्री ही है। मातृभूमि की दुर्दशा अपनी आँखों से कैसे देखेंगे। (रोता है) (भीलों के प्रलाप को सुनकर)
एक साथी – अरे धिक्कार है! ये भील सच ही कह रहे हैं। यह समय देश और धर्म के लिए अच्छा नहीं है। लेकिन क्या किया जाय? (तलवार को निकालकर प्रताप को देता हुआ) स्वामी ! इस तलवार से मेरी बलि चढ़ा दो, अपनी आँखों से मेवाड़ भूमि की दुर्दशा नहीं देखी जा सकती है।
दूसरा साथी – सचमुच ही अब जीवन नरक होता जा रहा है।
भील – हाय ! हमारे भी जीने से क्या लाभ? यदि हम देश–रक्षा के लिए कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं तो हमारा मरना ही बेहतर है।
प्रताप – अरे धिक्कार है! आप सभी लोग यह क्या कर रहे हैं। आत्महत्या महान् पाप है। ठहरिये, ठहरिये कष्टों को सहन करके वीरगति से मरना कल्याणकारी कहलाता है। इस प्रकार की आत्महत्या तो नपुंसकों का काम है। कुछ धैर्य के साथ विचार कीजिए।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः–नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य–पुस्तकस्य ‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयं। डॉ. नारायणशास्त्री काङ्कर महाभागेन विरचितात् ‘एकाङ्की संस्कृत नवरत्न सुषमा’ इति एकाङ्कि–संग्रहात् सङ्कलितः अस्ति। अत्र अस्मिन् नाट्यांशे मेवाड़स्य भिल्लानां आत्माभिव्यक्ति: देश रक्षायै च दृढ़सङ्कल्पता वर्णिता। सर्वे प्राणपणेन प्रतापस्य सहाय्यं कर्तुं वद्धपरिकराः सन्ति।

(यह नाट्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ डॉ. नारायण शास्त्री कांकर रचित ‘एकाङ्की संस्कृत नवरत्न सुषमा’ एकांकी संग्रह से संकलित है। यहाँ इस नाट्यांश में मेवाड़ के भीलों की आत्माभिव्यक्ति और देश–रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पता वर्णित है। सभी प्राणों की बाजी लगाकर प्रताप की सहायता करने के लिए कटिबद्ध हैं।)

व्याख्या:–
प्रथमः भिल्ल–हा देव ! अद्य कीदृक् कालः समायातः। स्वदेशरक्षणाय स्वातन्त्र्य सम्पादनाय च यः महाराणा प्रतापः दृढ़ संकल्पित आसीत् अद्य सोऽपि स्वकीयां मातृभूमिं विहाय अन्यत्र प्रस्थातुम् उद्धतः अस्ति।
द्वितीय भिल्लः–अहं न जानामि यत् अस्य मेवाड़ राज्यस्य का नियतिः अस्य भाग्ये किम् अङ्कितम् अस्ति। कि भविष्यति। हे ईश्वर ! भवान् अपि अद्य निर्दयः निष्ठुरः कस्मात् जातः।
तृतीय भिल्लः–हा धिक् अस्मान् ! अनाश्रितस्य साधन विहीनस्य महाराणा प्रतापस्य समीपे न तु जीवनयापनाय साधनानि सन्ति न सङ्ग्राम सञ्चालनाय वित्तादि साधनानि सन्ति। सः जन्मधरायाः दयनीयां देशाम् अपि स्वकीयाभ्याम् नेत्राभ्याम् अपि अवलोकयितुम् असमर्थ: अस्ति, सः किं करोतु। वयम् अपि देशस्य दयनीयां दशां कस्यं द्रक्ष्यामः इत्यादि दुष्करम्। (इत्युक्तवा रोदिति)। (भिल्लानां जल्पनां क्रन्दनं वा निशम्य)।
एकः सहचरः–हा धिक् अस्मान्। इमे आदिवासिनः उचितम् कथयन्ति। एवः कालः न तु धर्मा न च राष्ट्राय हितवहः। परञ्च किं कुर्यात्। (खड्गं निष्कास्य महाराणा प्रतापसिंहाय समर्पयन्) स्वामिन् ! श्रीमान् एतेन खड्गेन में राष्ट्र–वेद्यां बलि समर्पयतु। येन वयं मेदपाटस्य दीन दशां न पश्यम्।
द्वितीयः सहचरः–निश्चितमेव अधुना जीवितं नरक प्रति गच्छति। नरके पतनमेव प्रतिभाति।
भिल्लाः–हा! अस्मञ्जीवितं नापि कि प्रयोजनम्। यदि वयं स्वदेशं रक्षणाय किञ्चिदपि विधातुम् असमर्थाः स्मः, किमपि न कर्तुं शक्नुमः तत् च मरणम् एक वरम्।
प्रतापः–हा धिक् माम् यूयं सर्वे इतः किं सम्पादयन्ति? आत्मनः हननं अर्थात् आत्महत्या तु महत्पापम् अस्ति। अत्रैव तिष्ठ। क्लेशान् सहमान एवं वीरवत् प्राणत्यागं एव हितकरं स्वस्ति करं वा भवति। एवं आत्महत्या तु कापुरुषाणां कार्यम्। किचन धैर्यपूर्वकं विचिन्तयन्तु अर्थात् सम्यक् विचार्य एवं कार्यं कुर्वन्तु भवन्तः।

हिन्दी–अनुवादः
पहला भील–आज कैसा समय आ गया है, स्वदेश रक्षा के लिये और स्वतन्त्रता सम्पादन के लिए जो महाराणा प्रताप दृढ़ संकल्पित थे आज वे भी अपनी मातृभूमि को त्यागकर अन्यत्र प्रस्थान करने के लिए तत्पर हैं।
दूसरा भील–मैं नहीं जानता हूँ कि इस मेवाड़ राज्य की नियति क्या है। इसके भाग्य में क्या लिखा है? क्या होगा? हे। ईश्वर ! आज आप भी निर्दय और निष्ठुर किसलिए हो गये।
तीसरा भील–अरे हमें धिक्कार है। आश्रयविहीन और साधंन विहीन महाराणा प्रताप के पास न तो जीवनयापन के लिए साधन है और न संग्राम संचालन के लिए वित्तादि साधन है। वे जन्मभूमि की दयनीय दशा को अपनी आँखों से देखने में असमर्थ हैं। वे क्या करें। हम भी देश की दयनीय दशा को कैसे देखेंगे? यह भी कठिन है। (ऐसा कहकर रोता है।)
(भीलों के प्रलाप व क्रन्दन को सुनकर)
एक साथी–अरे हमें धिक्कार है। ये भील लोग उचित ही कह रहे हैं। यह समय न तो धर्म के लिए न देश के लिये हितकर है। परन्तु क्या करें। (तलवार निकालकर महाराणा प्रताप को समर्पित करते हुए।) स्वामी आप श्रीमान् इस तलवार से राष्ट्रवेदी पर मेरी बलि दे दो। जिससे कि हम मेवाड़ की दीन दशा को न देखें।
दूसरा साथी–निश्चित ही अब जीवन नरक हो रहा है। नरक में पतन होना–सा लगता है।
भील–अरे, हमारे जीवन से भी क्या प्रयोजन? यदि हम स्वदेश की रक्षा के लिए कुछ भी करने में असमर्थ हैं, कुछ भी नहीं कर सकते हैं तब तो मरना ही श्रेष्ठ है। प्रताप–अरे मुझे धिक्कार है। तुम सब लोग यहाँ क्या कर रहे हैं। अपना हनन अर्थात् आत्महत्या तो महान् पाप है। यहीं रुको। कष्टों को सहन करते हुए वीर की तरह प्राणों को त्यागना हितकर या कल्याणकारक होता है। इस प्रकार आत्महत्या तो कायरों का काम है। कुछ धैर्यपूर्वक विचार करें अर्थात् भली–भाँति विचार करके ही आप कार्य करें।

व्याकरणिक–बिन्दवः–परित्यज्य = परि + त्यज् + ल्यप्। प्रस्थितः = प्र + स्था + क्त। युद्धसामग्री = युद्धस्य सामग्री (षष्ठी तत्पुरुष)। शोभनः = शुभ् + ल्युट्। ददत् = दा + शतृ। आत्मचक्षुषां = आत्मनः + चक्षुषा (ष. त.) सोढ्वा = सह् + क्त्वा।

3. (पृष्ठतः ध्वनिः भवति–स्थीयतां स्थीयतां प्रभो! स्थीयतां स्थीयताम् !!)
प्रतापः – (परिचित–ध्वनिमिव आकर्त्य सोत्साहम्) अरे सर्वदार ! वृक्षम् आरुह्य दृश्यतां तु तावद् कः अयं शब्दायते?
सर्वदारः – (तथा निपुणं निरीक्षमाणः) महाराज! मेवाड़मन्त्री भामाशाहः इव कश्चन आगच्छन् प्रतीयते।
प्रतापः – हुँ, किम् ! उक्तम् भामाशाहः? तस्य कथम् इदं ज्ञातम् अभूत? अस्तु तावत् प्रतीक्षामहे तम्। (भामाशाहः धनराशिग्रन्थिम् आदाय आयाति)।
भामाशाहः – (प्रणम्य) अन्नदात:! सेवक सन्त्यज्य क्व प्रस्थीयते श्रीमता?
प्रताप : – (दीर्घ नि:श्वस्य) न क्व अपि बन्धो ! गन्तुं शक्यम् अपि तु न। पाश्र्वे धनं नैव, न च सेना एव। अहं स्वदेशं कथ रक्षेयम्? अस्माद् एव मन: दोलायितम् अस्ति। भामाशाहः – महाराज ! यदा इमान् समाचारान् अशृण्वम् तदा हृदयं मे भग्नम् इव अभवत् (धनग्रन्थि निर्दिश्य) इयं पुनः सम्पत्ति: कस्मै प्रयोजनाय? यदि ईदृशे एंव अवसरे न इयम् उपयुज्येत !
प्रतापः – भवान् सत्यं वदति।
भामाशाहः – यदि एवं, गृह्यतां भवदीया सम्पत्तिः श्रीमता एव। त्रोट्यतां पारतन्त्र्य–श्रृंखला एभिः लोहमय–बाहुभिः! स्वतन्त्रः क्रियतां स्वदेशः!! सुरक्ष्यतां धर्म:! (धनस्य ग्रन्थिकां चरणयोः अर्पयति सप्रणामम्)

शब्दार्थः–आकण्र्य = सुनकर। सोत्साहम् = उत्साहवर्धक। सर्वदारः = सरदार। आरुह्य = चढ़कर। निपुणम् = ध्यानपूर्वक। निरीक्षमाणः = निरीक्षण करता हुआ। प्रतीयते = आभासते (प्रतीत होता है)। उक्तम् = कथितम् (कहा गया है)। अभूत् = अभवत् (हुआ)। प्रतीक्षामहे = प्रतीक्षा करते हैं। धनराशिग्रन्थिम् = धन की पोटली। आदाय = लेकर। आयाति = आगच्छति (आता है)। प्रणम्य = नमस्कार करके। अन्नदाता = भरण–पोषण करने वाला। क्व = कुत्र (कहाँ)। पार्वे = पास में। दोलायितम् = कम्पन्नयुक्त। उपयुज्येत् = उपयोग करना चाहिए। त्रोट्यताम् = तोड़ दो। पारतन्त्र्य श्रृंखलाम् = पराधीनता की बेड़ियाँ। भवदीया = आपकी।

हिन्दी–अनुवादः–
(पीछे से ध्वनि होती है–ठहरो–ठहरो स्वामी! ठहरिए ठहरिए!)
प्रताप – (परिचित्र आवाज–सी सुनकर उत्साह के साथ) अरे सरदार ! पेड़ पर चढ़कर देखो तो यह कौन आवाज लगा रहा है?
सरदार – (ठीक है, भलीभाँति देखता हुआ) महाराज ! मेवाड़ के मन्त्री भामाशाह जैसे कोई आते हुए प्रतीत होते
प्रताप – हुँ क्या कहा? भामाशाह? उसको यह कैसे मालूम हो गया? तो खैर तब तक प्रतीक्षा करते हैं? (भामाशाह धनराशि की पोटली लेकर आ रहे हैं।)
भामाशाह – (प्रणाम करके) अन्नदाता ! सेवक को त्यागकर श्रीमान् जी द्वारा कहाँ प्रस्थान किया जा रहा है?
प्रताप – (लम्बी साँस लेकर) न कहीं नहीं बन्धु ! जा भी तो नहीं सकता। पास में धन नहीं है और न सेना ही है। मैं अपने देश की कैसे रक्षा करूं? इसीलिए ही मन डगमगा रहा है। भामाशाह – महाराज! जब इन समाचारों को सुना तब मेरा हृदय टूट–सा गया। (धन की पोटली की ओर निर्देश कर) फिर यह सम्पत्ति किस प्रयोजन के लिए? यदि ऐसे अवसर पर इसका प्रयोग नहीं किया जाता है तो।
प्रताप – आप सच कहते हैं।
भामाशाह – यदि ऐसी बात है तो आपकी यह सम्पत्ति श्रीमान् ही स्वीकार करें। तोड़ दो परतन्त्रता की बेड़ियों को इन फौलादी भुजाओं से। स्वदेश को स्वतन्त्र कर दीजिए। धर्म को सुरक्षित कीजिये। (धन की पोटली को प्रणाम सहित चरणों में अर्पित कर देता है।)

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्गः–नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्यपुस्तकस्य ‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयं डॉ. नारायणशास्त्री काङ्कर महाभागेन विरचितात् ‘एकाङ्की संस्कृत नवरत्न सुषमा’ इति एकाङ्कि–संग्रहात् सङ्कलितः। अस्मिन्। नाट्यांशे भामाशाहः प्रतापस्य बाध्यतां निराशां च ज्ञात्वा धनराशि सविधं नीत्वा सहाय्यार्थम् आगच्छति।

(यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘स्वदेशं कथं रक्षयेत्’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ नारायण शास्त्री कांकर द्वारा रचित ‘एकाङ्की संस्कृत नवरत्न सुषमा’ एकांकी संग्रह से संकलित है। इस नाट्यांश में भामाशाह प्रताप की बाध्यता एवं निराशा को जानकर धनराशि अपने साथ लेकर सहायता के लिए आता है।

व्याख्याः–(पश्चात् तः स्वरः प्रस्फुटति–तिष्ठतु तिष्ठतु स्वामिन्, तिष्ठतु तिष्ठतु।)
प्रतापः–(पूर्व ज्ञातां स्वरय आकर्त्य अभिज्ञाय च उत्साहेन सह) अरे सामन्त ! वृक्षस्य उपरि आरोहत् पश्च च यद् असौ कः आकारयति।
सर्वदार:–(बाढम्, इति सम्यग् रूपेण अवलोकयन्) महाराज ! मेदपाटस्य महामात्यः भामाशाहः इव कोऽपि इतः एव आगच्छन् प्रतिभाति।
प्रतापः–हूँ कि कथितवान्। अपि भामाशाहः आयाति। तेन कथं ज्ञाता एषा स्थिति:? भवतु, तावत् भामाशाहस्य आगनम् प्रतिपालयानि। (भामाशाहः वित्तराशिः एकां पुट्टलिकाम् नीत्वा आगच्छति)।
भामाशाहः–(अभिवादनं कृत्वा) स्वामिनः परिचारक विहाय भवान् कुत्र प्रस्थानं करोषि।
प्रतापः–(दीर्घ नि:श्वासं गृहीत्वा) मित्र ! न अहं कस्मिंश्चित् स्थानेयातुं शक्नोमि। यतः मम सविधे धन वित्तं वा नास्ति। सैनिकाः आयुधानि अपि न सन्ति। अस्यां स्थित्याम् अहं देशं कथं रक्षितुं शक्नोमि अनेन कारणेन मे मनः अस्थिरः विचलितः च अस्ति।
भामाशाहः–महाराज! यदा एषा वार्ता मया श्रुत्वा तदा मे हृदयं विदीर्णम् इव। (धनस्य पोट्टलिकां प्रति सङ्केतं कृत्वा।) महाराज ! अस्य धनस्य का उपयोगिता भविष्यति। किम् अनेन वित्तेन यदि आपत्काले अस्य उपयोग न भवति।
प्रतापः–त्वम् सत्यमेव कथयति।
भामाशाहः–यदि न कथनं सत्यं मन्यसे तदा स्वीकरोतु श्रीमान् एता सम्पदान्। भवतां एतैः अयसोपमैः भुजदण्डैः पारतन्त्रयस्य पाशं त्रोट्य। स्वदेशं स्वतन्त्र विदधेहि। धर्मस्य रक्षां कुरु। एवम् उक्त्वा सः वित्तस्य पोट्टलिका श्रीमतां चरणयोः प्रणम्य, अर्पयति। ”

हिन्दी अनुवाद–
(पीछे से स्वर प्रस्फुटित होता है।) ठहरो–ठहरो स्वामी, ठहरो–ठहरो। प्रताप–पूर्व परिचित स्वर को सुनकर और पहचान कर उत्साह के साथ) अरे सरदारो! वृक्ष के ऊपर चढ़ो और देखो कि वह कौन बुला रहा है?
सरदार–(बहुत अच्छा इस प्रकार भलीभाँति अवलोकन करते हुए) महाराज ! मेवाड़ के महामन्त्री भामाशाह जैसे कोई इधर ही आते से लगते हैं।
प्रताप–हूँ, क्या कहा? क्या भामाशाह आ रहे हैं? तो उनको इस स्थिति का पता कैसे चला? खैर भामाशाह के आगमन की प्रतीक्षा करता हूँ। (भामाशाह वित्तराशि की एक गाँठ (पोटली) लेकर आता है।)
भामाशाह–(अभिवादन करके) स्वामी, सेवक को छोड़कर कहाँ जाओगे (कहाँ प्रस्थान करते हो)?
प्रताप–(लम्बी साँस लेकर) मित्र! मैं किसी स्थान पर (कहीं) नहीं जा सकता हूँ। क्योंकि मेरे पास धन नहीं है। सैनिक और हथियार भी नहीं हैं। ऐसी स्थिति में मैं देश की रक्षा कैसे कर सकता हूँ। इस कारण से मेरा मन अस्थिर और विचलित
भामाशाह–महाराज ! जब यह बात (समाचार) मैंने सुना तब मेरा हृदय फट–सा गया। (धन की गाँठ की ओर संकेत करते हुए) महाराज! इस धन की क्या उपयोगिता होगी। यदि आपत्तिकाल में इसका उपयोग नहीं होता है तो इस धन से क्या प्रयोजन।
प्रताप–तुम सच कहते हो।
भामाशाह–यदि आप मेरे कथन को सत्य मानते हैं, तो श्रीमान यह सम्पत्ति स्वीकार करें। आपकी इन लौह सदृश भुजदण्डों से परतन्त्रता के फंदे को तोड़कर अपने देश को स्वतन्त्र करें। धर्म की रक्षा करो।

(इस प्रकार कहकर उसने धन की पोटली श्रीमान् जी के चरणों में प्रणाम करके अर्पित कर देता है।)।

व्याकरणिक–बिन्दवः –पृष्ठतः = पृष्ठ + तसिल्। सोत्साहम् = उत्साहेन सहितम् अव्ययीभाव। आरुह्य = आ + रुह् + ल्यप्। निरीक्षमाणः = निर् + ईक्ष् + शानच्। उक्तम् = वच् + क्त। ज्ञातम् = ज्ञा + क्त। आदाय = आ + दा+ ल्यप्।

4.
प्रतापः – (साश्चर्यम्) किम् इदं भवान् करोति? भवदीया सम्पत्तिः कथं मदीया? किम् एतेन न मे अपमानः? न अहं दत्ता सम्पत्तिं पुनराददामि।
भामाशाहः – (सविनयम्) महाराज ! न अहम् अपमानं करोमि। को तुच्छ–सेवके शक्ति: यया असौ तथा दु:साहस कुर्यात्। गृह्यतां महाराज ! गृह्यताम् !! देश–धर्मयोः रक्षा विधीयताम् प्रतापः – (सहर्षम् आदाय) धन्यः असि मन्त्रिवर्य! धन्यः। त्वदीया जननी धन्या। कथ्यतां तु अभिन्नहृदय! अस्यां कियती सम्पत्ति:?
भामाशाहः – (प्रसन्नमुखः प्रणम्य) महाराज ! इयती एव स्वल्पतमा यद् अनया द्वादशवर्षाणि यावत् पञ्चविंशतिसहस्रसैनिकाः सहर्ष योद्धं शक्नुवन्ति।
प्रतापः – अहो ! तदा तु किं कथनीयम्? महत्कार्यं सेत्स्यति अनया। (सर्वान् सम्बोध्य) अद्य अस्मात् एव क्षणात् राणा स्वदेशस्य पारतन्त्र्य–शृंखला: त्रोटयितुं शत्रून् संहारयितुं धर्म रक्षितुं च योत्स्यते, योत्स्यते अवश्यं योत्स्यते ! (भामाशाहम् अभिलक्ष्य) धन्योऽसि मित्र! धन्यः। एहि त्वां गाढम् आलिङ्गितुम् अभिलषामि।
भामाशाहः – (प्रतापं ससंकोचम् उपसृत्य) अनुगृहीत: अस्मि स्वामिन् ! अनुगृहीतः। (ततः उभौ अपि प्रेम्णा परस्परम् आलिङ्गतः, द्वयोः मेलनं विलोक्य सर्वे सहचरा: सहर्षम्)

धन्योऽस्ति राणा, पुनरस्ति मन्त्री, धन्यं द्वयोर्मेलनमस्ति धन्यम्।
धन्यां वयं स्मः समयश्च धन्यः, धन्यं पुनर्दर्शनमस्ति पुण्यम्।

स्वदेशः विजयताम् ! महाराणा विजयताम् ! भामाशाह: विजयताम् ! (पटाक्षेप:)

शब्दार्थाः–मदीया = मम (मेरी)। आददामि = स्वीकरोमि (लेता हैं)। विधीयताम् = किया जाना चाहिए। मन्त्रिवर्य = मन्त्री श्रेष्ठ (मन्त्री जी)। इयती = इतनी। शक्नुवन्ति = समर्थाः भवन्ति (सकते हैं)। सेत्स्यति = सिद्धं भविष्यति (सिद्ध होगा)। योत्स्यते = युद्ध करोगे। गाम = अत्यधिकम् (बहुत अधिक)। अभिलषामि = इच्छामि (चाहता हूँ)। ससंकोचम् = संकोचपूर्वक। उपसृत्य = पास जाकर। अनुग्रहीतः = धन्य हुआ।

हिन्दी–अनुवाद
प्रताप – (आश्चर्य के साथ) आप यह क्या कर रहे हैं? यह सम्पत्ति आपकी है, मेरी कैसे है? क्या इससे मेरा अपमान नहीं है? मैं दी हुई सम्पत्ति को वापिस नहीं लेता हूँ।
भामाशाह – (विनयपूर्वक) महाराज मैं अपमान नहीं कर रहा हूँ। इस तुच्छ सेवक की क्या ताकत कि वह ऐसा दु:साहस करे। ले लो महाराज ले लो। देश और धर्म की रक्षा करो।
प्रताप – (सहर्ष लेकर) धन्य हो मन्त्री जी। धन्य हो! तुम्हारी माँ धन्य है। कहो मित्र (अभिन्न हृदय) इसमें कितनी सम्पत्ति है?
भामाशाह – (प्रसन्न मुख प्रणाम करके) महाराज! इतनी थोड़ी कि इससे बारह वर्ष तक पच्चीस हजार सैनिक सहर्ष युद्ध कर सकते हैं।
प्रताप – अहो ! तब तो क्या कहना है? बड़ा कार्य इससे संपन्न होगा। (सभी को संबोधित करते हैं) आज अभी इसी क्षण से राणा अपने देश की परतंत्रता की जंजीरों को तोड़ने के लिए शत्रुओं का संहार करने के लिए, धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करेगा, अवश्य ही युद्ध करेगा। (भामाशाह को लक्षित करके) धन्य हो मित्र! धन्य! मैं आपका यहाँ प्रगाढ़ रूप से आलिंगन करना चाहता हूँ।
भामाशाह – (प्रताप से, संकोच के साथ पास जाकर) स्वामी मैं धन्य (अनुग्रहीत) हुआ! अनुग्रहीत हुआ। (तब दोनों प्रेम से आपस में आलिङ्गन करते हैं, दोनों का मिलना देखकर सभी साथी प्रसन्नता के साथ) “महाराणा प्रतापसिंह धन्य हैं, मन्त्री (भामाशाह) भी धन्य हैं, दोनों का मिलन भी धन्य है, हम सब धन्य हैं, यह समय धन्य है–प्रिय पावन दर्शन भी धन्य है।” स्वदेश की जय हो ! महाराणा की जय हो ! भामाशाह की जय हो ! (पर्दा गिरता है।)

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्गः–नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य–पुस्तकस्य ‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ इति पाठात् उद्धृत। पाठोऽयं डॉ. नारायणशास्त्री काङ्कर महाभाग–विरचितात् ‘एकाङ्की संस्कृत नवरत्न सुषमा’ इति एकाङ्की संग्रहात् सङ्कलितः। नाट्यांशे अस्मिन् महाराणाप्रतापस्य भामाशाहेन सह संवादः प्रवर्तते। अत्र प्रतापः भामाशाह प्रदत्तं धनराशि स्वीकृत्य पुनः योद्धं तत्परः भवति

(यह नाट्यांश हमारी पाठ्य–पुस्तक ‘स्पन्दना’ के ‘स्वदेशं कथं रक्षेयम्’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ डॉ. नारायण शास्त्री कांकर रचित ‘एकांकी संस्कृत नवरत्न सुषमा’ एकांकी संग्रह से संकलित है। इस नाट्यांश में महाराणा प्रताप का भामाशाह के साथ संवाद चल रहा है। यहाँ प्रताप भामाशाह द्वारा दिए हुए धन को स्वीकार कर युद्ध के लिए तैयार हो जाता है–)

व्याख्याः–
(आश्चर्येण सहितम्) श्रीमन्तः अधुना कि कुर्वन्नमस्ति? किम् एतद् धनं गृहीत्वा अहम् अपमानितो न भविष्यामि? जना कथयिष्यन्ति यत् ‘प्रतापः स्वेन प्रदत्तं धनं भामाशाहात् प्रति गृहीतवान्’ इति। अतः अहम् दानरूपेण प्रदत्त सम्पत्तिं पुनः न प्रतिग्रहीष्यामि।

भामाशाहः–(विनीतः सन्) महाराज! अहं भवताम् अवमानना नेच्छामि। मम अधमस्य सेवकस्य किं सामर्थ्य यत् सः एव दु:साहसं कुर्यात्। स्वीकरोतु महाराज ! स्वीकरोतु। इदं धनं च गृहीत्वा अनेन देशस्य धर्मस्य च रक्षा करोतु भवान्।
प्रतापः–(हर्षेण सह धनं गृहीत्वा) मन्त्रिवर्यं त्वं धन्यवादोर्हऽसि। धन्योऽसि। भवत: माता धन्या। कथयतु मे अभिन्नहृदयः सुहृदं अस्यां पोट्टलिकायां किंमत् धनम् अस्ति?
भामाशाहः–(प्रसन्नमुखः सन् प्रणत्य) इयदेव स्वल्पतरं धनं यत् अनेन धनेन द्वादश वर्षपर्यन्तं पंचविंशति सहस्र सैनिकाः सहर्ष योद्धं कर्तुं शक्नुवन्ति।
प्रतापः–अहो ! तददातु किं वदितव्यम्? अत्यधिकं कार्यम् अनेन सम्भविष्यति। (सर्वान् जनान् प्रति सम्बोधनं कृत्वा) अद्य इदानीम् एव महाराणा प्रतापः स्वमातृभूमेः पराधीनाया श्रृंखला नष्टुं अरीणाम् संहारं कर्तुं धर्मस्य रक्षणार्थं युद्धं करिष्यति, नि:सन्दिग्धं युद्धं करिष्यति। (भामाशाहं प्रति सङ्केत्य) धन्यवादाहोऽसि, सुहृद्। आगच्छ अह भवन्तं प्रगाढ़रूपेण आलिङ्गनं कर्तुमीहे।
भामाशाहः–(संकोचेन सह प्रतापस्य समीपं गत्वा) स्वामिन् ! भवताम् अनुग्रहेण अहं कृतज्ञोऽस्मि (ततः प्रताप: भामाशाहश्च अन्योऽनस्य आलिङ्गनं करोति। तयोः मेलनं आलिंगनं चावलोक्य सर्वे सहयोगिनः हर्षेण सहितम्-
महाराणा प्रताप सिंह! त्वं धन्यवादाऽसि पुन: मेवाडस्य अमात्य भामाशाहोऽपि धन्यवादार्हः। एतायोः उभयो: मेलनम्। अपि धन्यवादार्हः। वयम् अपि सर्वे धन्यवादस्य पात्राणि। अयं कालः अपि धन्य एव पुनश्च एतयोः एवं विधयोः दर्शनमपि धन्यवादार्हः अस्ति।

जयतु मातृभूमिः। जयतु महाराणा। जयतु भामाशाहः। जवनिकापात:।

हिन्दी–अनुवादः–(आश्चर्य के साथ) श्रीमान् अब आप क्या कर रहे हैं? क्या इस धन को लेकर मैं अपमानित (बदनाम) नहीं हूँगा। लोग कहेंगे–‘कि प्रतापसिंह ने अपने दिये हुए धन को भामाशाह से वापिस ले लिया।’ इसलिए मैं दान रूप में दी हुई सम्पत्ति वापिस ग्रहण नहीं करूंगा।

भामाशाह–(विनम्र होकर) महाराज मैं आपकी अवमानना नहीं करना चाहता। मुझ अधम सेवक की क्या हिम्मत (सामर्थ्य) कि वह ऐसा दु:साहस कर सके। महाराज स्वीकार करें, स्वीकार करें, इस धन को लेकर इससे देश और धर्म की आप रक्षा करें।
प्रताप–(सहर्ष धन को लेकर) मन्त्री जी तुम धन्यवाद के योग्य हो। आप धन्य हो। आपकी माता धन्य है। बोलो मेरे अभिन्न मित्र, इस पोटली में कितना धन है।
भामाशाह–(प्रसन्न मुख हुआ, प्रणाम करके) इतना ही थोड़ा सा धन है कि इस धन से बारह वर्ष तक पच्चीस हजार सैनिक सहर्ष युद्ध कर सकते हैं।
प्रताप–अहो ! दे दो। तब तो क्या कहना है? बहुत अधिक काम इससे सम्भव हो सकेगा। (सभी लोगों को सम्बोधित करके)–आज अभी (इसी क्षण) महाराणा प्रताप अपनी मातृभूमि की परतन्त्रता की श्रृंखला (जंजीर) को नष्ट करने के लिए और शत्रुओं का संहार करने के लिए, धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करेंगे और अवश्य करेंगे अर्थात् निस्सन्देह युद्ध करेंगे। (भामाशाह की ओर संकेत करके) मित्र! तुम धन्यवाद के योग्य हो। आओ मैं यहाँ आपको प्रगाढ़ रूप से गले लगाना चाहता हूँ।
भामाशाह–(संकोच के साथ प्रताप के पास जाकर) स्वामी, आपके अनुग्रह से मैं कृतज्ञ हूँ। (तब प्रताप और भामाशाह एक–दूसरे (परस्पर) को आलिंगन करते हैं।) उन दोनों के मिलने और गले लगने को देखकर सभी सहयोगी हर्ष के साथ कह उठते हैं)

“महाराणा प्रताप सिंह, तुम धन्यवाद के योग्य हो या धन्य हो। फिर मेवाड़ के महामात्य भामाशाह भी धन्यवाद के पात्र हैं, इन दोनों को मिलन भी धन्य है, हम भी सभी धन्यवाद के पात्र हैं। यह समय भी धन्य ही है और फिर इन दोनों का इस स्थिति में दर्शन भी धन्य है।

भारतभूमि की जय। महाराणा की जय। भामाशाह की जय। (पर्दा गिरता है।)

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