RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम्
RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम्
Rajasthan Board RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम्
RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम् अभ्यास – प्रश्नाः
RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम् वस्तुनिष्ठप्रश्नाः
1. मण्डूकराजस्य नामासीत्
(अ) गङ्गदत्तः
(आ) भुजङ्गदत्त
(इ) मण्डूकराजः
(ई) प्रियदर्शनः
2. मण्डूकराजः कैः उद्वेजित:
(अ) सर्वैः
(आ) खगैः
(इ) दायादैः
(ई) पुत्रैः
3. “अहं तावत् परिणतवयाः कदाचित् कथञ्चिन्मूषकमेकं प्राप्नोमि” इति कः अचिन्तयत्
(अ) मूषकः
(आ) मण्डूकः
(इ) चित्रग्रीवः
(ई) सर्पः
4. “यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम्” इति पाठः संकलितोऽस्ति
(अ) हितोपदेशात्
(आ) जातकमालातः
(इ) मित्रभेदात्
(ई) लब्धप्रणाशात्
उत्तरम्:
1. (अ)
2. (इ)
3. (आ)
4. (ई)
RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम् लघूत्तरात्मक – प्रश्नाः
प्रश्न 1.
प्रियदर्शनः कः आसीत्? (प्रियदर्शन कौन था?)
उत्तरम्:
प्रियदर्शन: सर्पः आसीत्। (प्रियदर्शन सर्प था)।
प्रश्न 2.
गङ्गदत्तस्य परिभवः कैः कृतः? (गंगदत्त का अपमान किन्होंने किया?)
उत्तरम्:
गंगदत्तस्य परिभवः दायादैः कृतः। (गंगदत्त का अपमान कुटुम्बियों ने किया)।
प्रश्न 3.
कूपे सर्पः कुत्र स्थितः? (कुए में सर्प कहाँ बैठा?)
उत्तरम्:
कूपे सर्पः कोटरे स्थितः। (कुएँ में सर्प एक खोखले में बैठा)।
प्रश्न 4.
गङ्गदत्तस्य आश्रयः क्व आसीत्? (गंगदत्त का आश्रय कहाँ था?)
उत्तरम्:
गंगदत्तस्य आश्रयः पाषाणचयनिबद्धे कूपे आसीत्। (गंगदत्त को आश्रय पत्थरों से चुनकर बनाये गये कुए में था)।
प्रश्न 5.
सर्पः केन मार्गेण गङ्गदत्तस्यालयं गतः? (सर्प किस मार्ग से गंगदत्त के घर गया?)
उत्तरम्:
सर्पः अरघट्टघट्टिकामार्गेण गंगदत्तस्यालयं गतः। (सर्प रहट के घड़ों वाले मार्ग से गंगदत्त के घर गया।)
RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम् निबन्धात्मक-प्रश्नाः
प्रश्न 1.
दायादानां प्रत्यपकाराय गङ्गदत्तः किं कृतवान्?
(कुटुम्बियों से बदला लेने के लिए गंगदत्त ने क्या किया?)
उत्तरम्:
सः कूपात् निष्क्रम्य प्रियदर्शनस्य सर्पस्य सकाशमगच्छत्। तं अरघट्घटीमार्गेण कूपम् आनीय कोटरे संस्थाप्य दायादान् अदर्शयत्, अकथयत् च-“त्वया मद्दर्शिताः एन भक्षणीया; मम परिजनाः च रक्षणीयाः।” सर्पोऽपि तथा कर्तुम्। तत्परोऽभवत्।
(वह कुएँ से निकलकर प्रियदर्शन सर्प के पास पहुँचा, उसे रहट के मार्ग से कुएँ में लाया, खोखले में बैठाया और कहा-“मैंने जो दिखाये हैं उन्हें ही खाना है तथा मेरे परिजनों की रक्षा करनी है।” सर्प ऐसा ही करने को तैयार हो गया।)
प्रश्न 2.
बिलद्वारं प्राप्तं गङ्गदत्तं सर्पः किम् उक्तवान्?
(बिलद्वार पर आकर गंगदत्त से सर्प ने क्या कहा?)
उत्तरम्:
यः एषः मम् आह्वयति, न सः स्वजातीयः। यतो नैषां सर्पवाणी। तदत्रैव दुर्गे स्थितः तावत् वेद्यि-‘कोऽयमिति’ आह च -‘को भवान्?’
(जो यह मुझे बुला रहा है, वह अपनी जाति का नहीं है, क्योंकि यह सर्प की वाणी नहीं है। तो यहीं बिलरूपी किले में रहकर जानता हूँ कि यह कौन है। और कहा-‘अरे आप कौन हो?’)
प्रश्न 3.
कुपे नीयमानं सर्प गङ्गदत्तः किम् उक्तवान्?
(कुएँ में ले जा रहे सर्प से गंगदत्त ने क्या कहा?)
उत्तरम्:
“सः आह-” भोः प्रियदर्शन ! अहं त्वां सुखोपायेन तत्र नेष्यामि स्थानं च दर्शयिष्यामि परं त्वयां अस्मत् परिजनो रक्षणीयः केवलं यानहं तव दर्शयिष्यामि त एव भक्षणीयाः।
(उसने कहा-“अरे प्रियदर्शन मैं तुमको आसान उपाय से ले जाऊँगा और स्थान भी दिखा देंगा परन्तु तुम्हें हमारे परिजनों की रक्षा करनी चाहिए। केवल जिनको मैं तुम्हें दिखाऊँ तुम्हें उन्हें ही खाना चाहिए।”)
प्रश्न 4.
मण्डूकाभावे गङ्गदत्ताय सर्गेण किम् अभिहितम्?
(मेंढ़कों के अभाव में गंगदत्त से सर्प ने क्या कहा?)
उत्तरम्:
मण्डूकाभावे सर्पेण अभिहितम्-‘भद्र, नि:शेषिताः’ ते रिपवः तत् प्रयच्छ अन्यत् मे किञ्चित् भोजनम् यतोऽहं, त्वयानीतः।
(मेंढ़कों के अभाव में सर्प ने गंगदत्त से कहा-“मित्र, तुम्हारे शत्रु समाप्त हो गये तो मुझे और कुछ खाने के लिए। दीजिये क्योंकि मुझे तुम लाये हो।”)
RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम् व्याकरणात्मक – प्रश्नाः
प्रश्न 1.
अधोलिखितेषु धातु-लकार-पुरुष-वचनानां निर्देशं कुरुत-
(निम्नलिखित में धातु, लकार, पुरुष और वचनों का निर्देश कीजिए।)
उत्तरम्:
प्रश्न 2.
अधोलिखितपदेषु शब्द-विभक्ति-वचनानां निर्देशं कुरुत-
(निम्न पदों में शब्द, विभक्ति और वचन बताइये-)
उत्तरम्:
प्रश्न 3.
अधोलिखित पदेषु सन्धि-विच्छेदं प्रदर्शयत्-
(अधोलिखित पदों में सन्धि-विच्छेद दिखाओ-)
उत्तरम्:
प्रश्न 4.
अधोलिखित-पदानाश्रित्य वाक्य-निर्माणं कुरुत-
(निम्न पदों के आधार पर वाक्य बनाइए-)
उत्तरम्:
प्रश्न 5.
अधोलिखितेषु समस्तपदेषु नामनिर्देशसहितं समासविग्रहो विधेय-
(निम्नलिखित समस्त पदों में नाम बताते हुए समास विग्रह कीजिए-)
उत्तरम्:
प्रश्न 6.
निम्नलिखित पदेषु प्रकृति-प्रत्ययं प्रदर्शयत्-
(निम्न पदों में प्रकृति प्रत्यय दर्शाइये-)
उत्तरम्:
प्रश्न 7.
अधोलिखितान् वाक्यान् अधीत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत- (निम्नलिखित वाक्यों को पढ़कर प्रश्न-निर्माण कीजिए-)
उदाहरण:
वाक्यम्-गङ्गदत्तः कूपे प्रतिवसति स्म।
उत्तरम्:
प्रश्नः – गङ्गदत्तः कुत्र प्रतिवसति स्म?
वाक्यम् – सः कदाचिद् दायादैः उद्वेजितः।
प्रश्नः – सः कदाचिद् कैः उद्वेजित:?
वाक्यम् – सः बिले प्रविशन्तं प्रियदर्शनाभिधं कृष्णसर्पमपश्यत्।
प्रश्नः – स: बिले प्रविशन्तं कम् अपश्यत्?
वाक्यम् – सर्पोऽचिन्तयम्-“अहं तावत् परिणतवयाः”।
प्रश्नः – सर्पः किमचिन्तयत्?
वाक्यम् – गङ्गदत्त: प्रियदर्शनमाह-“केवलं यानहं दर्शयिष्यामि, त एव भक्षणीयाः।”
प्रश्नः – गङ्गदत्तः प्रियदर्शनं किमाह?
RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 14 यो यद्वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम् अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तराणि
अधोलिखित प्रश्नान् संस्कृतभाषया पूर्णवाक्येन उत्तरत् – (निम्न प्रश्नों के संस्कृत भाषा में पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए-)
प्रश्न 1.
पञ्चतन्त्रं कस्य संग्रहोऽस्ति?
(पंचतंत्र किसका संग्रह है?)
उत्तरम्:
पञ्चतंत्र कथानां संग्रहोऽस्ति।
(पंचतंत्र कहानियों का संग्रह है।)
प्रश्न 2.
पञ्चतन्त्र केन रचितम्?
(पंचतन्त्र की रचना किसने की?)
उत्तरम्:
पञ्चतन्त्र पं. विष्णु शर्मणा रचितम्।
(पंचतंत्र की रचना विष्णु शर्मा ने की)।
प्रश्न 3.
पञ्चतन्त्रं केन प्रयोजनेन लिखितम्?
(पंचतंत्र किस प्रयोजन से लिखा गया?)
उत्तरम्:
पञ्चतन्त्र नीतिज्ञान प्रदानाय लिखितम्।
(पंचतंत्र नीति ज्ञान देने के लिए लिखा गया था।)
प्रश्न 4.
पञ्चतन्त्रस्य कति तन्त्राणि, तेषां नामानि लिखत?
(पंचतंत्र के कितने तन्त्र हैं? उनके नाम लिखिए।)
उत्तरम्:
पञ्चतन्त्रस्य पञ्चतन्त्राणि सन्ति, तेषां नामानि-
- मित्रभेद
- मित्र सम्प्राप्ति:
- काकोलूकीयम्
- लब्धप्रणाशः
- अपरीक्षितकारकम् च इति।
पंचतन्त्र में पाँच तन्त्र हैं, उनके नाम हैं-
- मित्रभेद
- मित्र सम्प्राप्ति
- काकोलूकीय
- लब्धप्रणाश
- अपरीक्षित कारकम्
प्रश्न 5.
गङ्गदत्तः कैः उद्वेजितः अरघट्टघटीमारुह्य निष्क्रान्तः?
(गङ्गदत्त किनके द्वारा परेशान हुआ रहट के घड़ों पर चढ़कर निकल गया?)
उत्तरम्:
गङ्गदत्तः दायादैः उद्वेजितः अरघट्टघटीमारुह्य निष्क्रान्तः।
(गङ्गदत्त कुटुम्बियों द्वारा परेशान हुआ रहट पर चढ़कर बाहर निकला।)
प्रश्न 6.
गङ्गदत्तः केन प्रयोजनेन प्रियदर्शनं नाम सर्पम् आह्वयति स्म?
(गङ्गदत्त ने किस प्रयोजन से प्रियदर्शन नाम के सर्प को बुलाया था?)
उत्तरम्:
गङ्गदत्तः प्रतिशोध भावनयो दायदानाम् अपकाराय आह्वयति स्म।
(गङ्गदत्त ने बदले की भावना से कुटुम्बियों का बुरा करने के लिए बुलाया था।)
प्रश्न 7.
प्रियदर्शनं दृष्ट्वा गंगदत्तः किमचिन्तयत्?
(प्रियदर्शन को देखकर गंगदत्त ने क्या सोचा?)
उत्तरम्:
एनम् तत्र कूपे नीत्वा सकलदायादानम् उच्छेदं करोमि। इति चिन्तितम्।
(इसे वहाँ कुएँ पर ले जाकर सारे कुटुम्बियों का नाश करता हूँ। ऐसा सोचा!)
प्रश्न 8.
दायादानाम् उच्छेदं विचिन्त्यं गंगदत्तः कुत्र गतः?
(कुटुम्बियों का नाश सोचकर गंगदत्त कहाँ गया?)
उत्तरम्:
दायादानम् उच्छेदं विचिन्त्यं गंगदत्तः प्रियदर्शनस्य बिलद्वारं गतः।
(कुटुम्बियों के विनाश को सोचकर गंगदत्त प्रियदर्शन के बिल के द्वार पर गया।)
प्रश्न 9.
बिलस्य द्वारे गङ्गदत्तस्य आह्वानं श्रुत्वा सर्पः किमचिन्तयत्?
(बिल के द्वार पर गङ्गदत्त के आह्वान को सुनकर सर्प ने क्यों सोचा?)
उत्तरम्:
सर्पोऽचिन्तयत्-‘य एष माम् आह्वयति न सः स्वजातीयः’। यतो नैषा सर्पवाणी! तदत्रैव दुर्गे स्थितस्तावत् वेभि-‘कोऽयमिति?’
(सर्प ने सोची-जो यह मुझे बुला रहा है, वह अपनी जाति का नहीं क्योंकि यह सर्प की आवाज नहीं है। तो यहाँ ही बिल में ठहरकर जानता हूँ कि यह कौन है?)
प्रश्न 10.
गङ्गदत्तेन सर्पाय कथं परिचयः प्रदत्त?
(गंगदत्त ने सर्प के लिए कैसे परिचय दिया?)
उत्तरम्:
सोऽकथयत्-‘गङ्गदत्तो नाम मण्डूकाधिपतिः त्वत्सकाशे मैञ्यर्थमागतः।
(वह बोला-गंगदत्त नाम का मंडूकराज दोस्ती करने आपके पास आया हूँ।)
प्रश्न 11.
गंगदत्तस्य कथने कि अश्रद्धेयम् आसीत्?
(गंगदत्त के कथन में क्या अविश्वसनीय था?)
उत्तरम्:
सर्पस्य मण्डूकेन सह वासः तृणानां वह्निना सहवासः इव आसीत्।
(सर्प का मेंढ़क के साथ वास घास के साथ आग के वास के समान था।)
प्रश्न 12.
गङ्गदत्तः सर्पस्य सकाशम् कस्मात् अगच्छत्?
(गंगदत्त सर्प के पास किसलिए गया?)
उत्तरम्:
गङ्गदत्तः परपरिभवात् सर्पस्य सकाशम् अगच्छत्।
(गङ्गदत्त शत्रु के अपमान के कारण सर्प के पास गया)।
प्रश्न 13.
गङ्गदत्तस्य कस्मात् परिभवः आसीत्?
(गङ्गदत्त का अपमान किससे था?)
उत्तरम्:
गङ्गदत्तस्य परिभवः दायादेभ्यः आसीत्।
(गङ्गदत्त का अपमान कुटुम्बियों से था।)
प्रश्न 14.
कयोः संगमः अश्रद्धेयः?
(किनका सम्बन्ध अविश्वसनीय है?)
उत्तरम्:
तृणानां बह्निना सह संगमः अश्रद्धेयः।
(घास को आग के साथ मिलन असम्भव है।)
प्रश्न 15.
कूपः केन निबद्धः आसीत्?
(कुआँ किससे बना था?)
उत्तरम्:
कूपः पाषाणचयनिबद्धः आसीत्।
(कुआँ पत्थरों से चुनकर बना हुआ था।)
प्रश्न 16.
अपदाः केः भवन्ति?
(बिना पैर के कौन होते हैं?)
उत्तरम्:
सर्पादयः सृसर्पा: अपदाः भवन्ति।
(सर्प आदि (सृसर्प) रेंगने वाले जीव बिना पैर के होते हैं।)
प्रश्न 17.
गंगदत्तस्य प्रस्तावं श्रुत्वा प्रियदर्शनः किं व्यचिन्तयत्?
(गंगदत्त के प्रस्ताव को सुनकर प्रियदर्शन ने क्या सोचा?)
उत्तरम्:
प्रियदर्शनोऽचिन्तयत्-अहम् तावत् वृद्धः कदाचिद् कथञ्चित् मूषकमेकं प्राप्नोमि।
(प्रियदर्शन ने सोचा-मैं तो बुड्ढा हुआ कभी-कभी जैसे-तैसे एकाध चूहा मिलता है। इसने आसान जीवन का उपाय बता दिया है।)
प्रश्न 18.
स्वीकृते प्रस्तावे गङ्गदत्तः सर्प किम् अकथयत्?
(प्रस्ताव स्वीकार कर लेने पर गंगदत्त ने सर्प से क्या कहा?)
उत्तरम्:
अहं त्वां सुखोपायेन नेष्यामि, स्थानमपि दर्शयिष्यामि। परं त्वयां अस्मद् परिजनः रक्षणीयः।
(मैं तुम्हें आसान उपाय से ले जाऊँगा, स्थान भी बता दूंगा, परन्तु तुम्हें मेरे परिजनों की रक्षा करनी है।)
प्रश्न 19.
विलात् निष्क्रम्यः आश्वस्तः प्रियदर्शनः प्रथमं किं करोति?
(बिल से निकलकर आश्वस्त हुआ प्रियदर्शन सबसे पहले क्या करता है?)
उत्तरम्:
विलात् निष्क्रम्य आश्वस्तः प्रियदर्शन: गङ्गदत्तमालिङ्गय, तेनेव सह गच्छति।
(बिल से निकलकर आश्वस्त प्रियदर्शन गंगदत्त को गले लगाता है और उसी के साथ चला जाता है।)
प्रश्न 20.
कूपे गङ्गदत्तस्य गृहेप्राप्ते गङ्गदत्तेन किं कृतम्?
(कुएँ में गंगदत्त के घर पहुँचने पर गंगदत्त ने क्या किया?)
उत्तरम्:
कूपे प्राप्ते गङ्गदत्तेन कृष्णसर्पः कोटरे धृत्वा दर्शितास्ते दायादाः।
(कुएँ में पहुँचने पर गंगदत्त ने काले साँप को खोखले में बैठा दिया और सभी कुटुम्बीजन दिखा दिए।)
प्रश्न 21.
कार्य सम्पन्ने प्रियदर्शनः गङ्गदत्तं किमकथयत्?
(काम पूरा होने पर प्रियदर्शन ने गंगदत्त से क्या कहा?)
उत्तरम्:
सोऽवदत् भद्र नि:शेषिताः ते रिपवः तत्प्रयच्छान्यन्मे यतोऽहंत्वयात्रानीतः।
(वह बोला-मित्र, तेरे शत्रु तो समाप्त हो गये! अब मुझे और दो।)
प्रश्न 22.
गङ्गदत्तः किं श्रुत्वा व्याकुलोऽभवत्?
(गंगदत्त क्या सुनकर व्याकुल हो गया?)
उत्तरम्:
मण्डूकमेकैक मे स्ववर्गीयं प्रयच्छ नोचेत् सर्वान् अपि भक्षयिष्यामि।
(एक-एक मेंढ़क मुझे अपने वर्ग में से दो नहीं तो सबको खा जाऊँगा।)
स्थूलाक्षरपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत – (मोटे अक्षर वाले पदों के आधार पर प्रश्ननिर्माण कीजिए-)
प्रश्न 1.
सर्पेण शनैः शनैः मण्डूककुलं कवलितम्। (सर्प द्वारा धीरे-धीरे मेढ़कों का कुल खा लिया।)।
उत्तरम्:
सर्पेण शनैः शनैः किं कवलितम्? (सर्प ने धीरे-धीरे क्या खा लिया?)
प्रश्न 2.
गङ्गदत्तो व्याकुलमनाव्यचिन्तयत्। (गंगदत्त व्याकुल मन से सोचने लगा।)
उत्तरम्:
क: व्याकुलमनाव्यचिन्तयत्? (कौन व्याकुल मन से सोचने लगा?)
प्रश्न 3.
कोटरे धृत्वा दर्शिताः दायादाः। (कोटर में रखकर कुटुम्बी दिखा दिए)।
उत्तरम्:
कोटरे धृत्वा के दर्शिता? (कोटर में रखकर कौन दिखा दिए?)
प्रश्न 4.
मदीयं बिलमन्येन रुद्धं भविष्यतिं। (मेरा बिल दूसरे ने रोक लिया होगा)।
उत्तरम्:
मदीयं बिलं केन रुद्ध भविष्यति? (मेरा बिल किसने रोक लिया होगा?)
प्रश्न 5.
गङ्गदत्तः कृष्ण सर्प कोटरे धृतवान्। (गङ्गदत्त ने काले साँप को खोखले में रख दिया)।
उत्तरम्:
गङ्गदत्त: कम् कोटरे धृतवान्? (गङ्गदत्त ने किसको कोटर में रख दिया?)
प्रश्न 6.
सदुपदेशात्मिकानां कथानां संग्रहोऽस्ति। (अच्छे उपदेश वाली कथाओं का संग्रह है।)
उत्तरम्:
कीदृशां कथानां संग्रहोऽस्ति? (कैसी कथाओं का संग्रह है?)
प्रश्न 7.
स्वादभुत-भाषा-शैल्याः अयं ग्रन्थः जगति प्रसिद्धोऽस्ति। (अपनी अद्भुत भाषा शैली के कारण यह ग्रन्थ जगत में प्रसिद्ध है।)
उत्तरम्:
कस्मात् अयं ग्रन्थः जगति प्रसिद्धः? (किस कारण से यह ग्रन्थ संसार में प्रसिद्ध है?)
प्रश्न 8.
कस्मिंश्चित् कूपे गङ्गदत्तो नाम मण्डूकः प्रतिवसति स्म। (किसी कुएँ में गंगदत्त नाम का मेंढक रहता था)
उत्तरम्:
गङ्गदतो नाम मण्डूकः कुत्र प्रतिवसति स्म? (गंगदत्त नाम का मेंढ़क कहाँ रहता था?)
प्रश्न 9.
अरबट्ट्घटीम् आरुह्य निष्क्रान्तः। (रहट पर चढ़कर निकल गया।)
उत्तरम्:
काम् आरूह्य निष्क्रान्तः? (किस पर चढ़कर निकल गया?)
प्रश्न 10.
दायादानां मया प्रत्यपकार; कर्त्तव्यः। (कुटुम्बियों का मुझे बदले में अहित करना चाहिए।)
उत्तरम्:
केषां मया प्रत्यपकारः कर्तव्यः। (मुझे किसका अहित करना है?)
प्रश्न 11.
प्रियदर्शनं दृष्ट्वा भूयोऽप्यचिन्तयत्। (प्रियदर्शन को देखकर फिर सोचने लगा)।
उत्तरम्:
कम् दृष्ट्वा भूयोऽप्यचिन्तयत्। (किसको देखकर फिर से सोचने लगा?)
प्रश्न 12.
विलद्वारं गत्वा तम् आहूतवान्? (बिल के द्वार पर पहुँच उसको बुलाया।)
उत्तरम्:
कुत्र गत्वा तम् आहूतवान्। (कहाँ जाकर उसको बुलाया?)
प्रश्न 13.
तदत्रैव दुर्गे स्थित: वेभि। (तो यहीं किले में ठहर कर जानता हूँ।)
उत्तरम्:
कुत्र स्थित: वेभि? (कहाँ रहकर जानता हूँ?)
प्रश्न 14.
स: आह-“दायोदभ्यः।” (उसने कहा कुटुम्बियों से।)
उत्तरम्:
स: किम् आह? (उसने क्या कहा?)
प्रश्न 15.
अपदाः वयम् अतः नास्ति तत्र प्रवेशः। (हम बिना पैर वाले हैं अतः वहाँ प्रवेश नहीं है।)
उत्तरम्:
कथं नास्ति तत्र प्रवेशः? (वहाँ प्रवेश कैसे नहीं है?)
पाठ-परिचयः
पंचतन्त्र नीतियुक्त सरल, सरस और सद्उपदेशात्मक कथाओं का संग्रह है। पञ्चतन्त्र की रचना पं. विष्णु शर्मा द्वारा सरल उपाय से नीति का ज्ञान देने के लिए की गई थी। अपनी अद्भुत भाषा और शैली का यह ग्रन्थ सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। संसार की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्राप्त होता है।
पञ्चतन्त्र नाम के इस ग्रन्थ में पाँच तन्त्र हैं-
- मित्रभेद,
- मित्र-सम्प्राप्ति
- काकोलूकीय
- लब्ध प्रणाश तथा
- अपरीक्षितकारक।
प्रस्तुत पाठ पंचतन्त्र के चौथे तन्त्र लब्धप्रणाश की पहली कथा का सार है। इस पाठ में गंगदत्त नामक मेंढक कभी अपने (परिजनों) कुटुम्बियों से अपमानित हुआ बदले की भावना से उनका बदले में बुरी करने के लिए प्रियदर्शन नाम के सर्प को बुलाता है। सर्प सम्पूर्ण बन्धु वर्ग को खा जाता है। इसके बाद सभी बन्धुगणों के समाप्त हो जाने पर वह सर्प गङ्गदत्त के बच्चों को खा जाता है। कथा सन्देश देती है-जिस दुष्टता से गंगदत्त ने अपने बन्धुओं को मारा उसी से उसके बेटे भी काल के गाल में चले गये। कहा भी गया है-जो जैसा बीज बोता है वह वैसा ही फल प्राप्त करता है।
मूलपाठ, शब्दार्थ तथा हिन्दी-अनुवाद
1. कस्मिंश्चिद् कूपे गङ्गदत्तो नाम मण्डूकः प्रतिवसति स्म। स कदाचिद् दायादैः उद्वेजितः अरघट्टघटीम् आरुह्य निष्क्रान्तः। अथ तेन चिन्तितं यत् कथं तेषां दायादानां मया प्रत्यपकारः कर्तव्यः?” एवं चिन्तयन् बिले प्रविशन्तं प्रियदर्शनाभिधं कृष्णसर्पमपश्यत्। तं दृष्ट्वा भूयोऽप्यचिन्तयत् यत् ‘‘एनं तत्र कूपे नीत्वा सकलदायादानाम् उच्छेदं करोमि।”
एवं विभाव्य बिलद्वारं गत्वा तम् आहूतवान्-एहि, एहि प्रियदर्शन, एहि! तच्छुत्वा सर्पोऽचिन्तयत्-‘य एषः माम्। आह्वयति, न सः स्वजातीयः। यतो नैषा सर्पवाणी। तदत्रैव दुर्गे स्थितस्तावद् वेद्मि-कोऽयमिति?” आह च-भोः को भवान्?’ स आह-भोः “गङ्गदत्तो नाम मण्डूकाधिपतिः त्वत्सकाशे मैत्र्यर्थमभ्यागतः। तच्छुत्वा सर्प आह-भोः अश्रद्धेयमेतत् यत् तृणानां वह्निना सह संगमः।”
शब्दार्थाः-दायादैः = स्ववंशीयजनैः (अपने कुटुम्बियों के द्वारा)। उद्वेजितः = क्षुब्धः (तंग किया गया)। उच्छेदं = विनाशक (नष्ट)। अरघट्टघटीम् = अरहर डोलिकाम् (रहट की डोली)। प्रत्यपकारः = अपकारस्य प्रतिकारः (अपकार का बदला)। विभाव्य = विचार्य (विचार करके)। बलिना = अग्निना (आग से (के) साथ। तच्छ्रुत्वा = यह सुनकर। अश्रद्धेय = अविश्वसनीय (विश्वास न करने योग्य)। कस्मिंश्चित् = किसी में प्रविशति = प्रवेशं करोति (घुस जाता है)। दायादैः = कौटुम्भिकैः (कुटुम्बी लोगों द्वारा)। कर्त्तव्यः = करणीयः (करना चाहिए)। अभिधम् = नामकम् (नाम वाले)। भूयः = फिर। आहूतवान् = बुलाया। एहि = आइये। स्वजातीयः = अपनी जाति की। सकाशे = समीपे (पास)।
हिन्दी-अनुवादः-किसी कुएँ में गंगद त नाम का मेंढक रहता था। वह कभी अपने कुटुम्बियों द्वारा तंग (परेशान) किया गया रहट के घड़ों (डोला) पर चढ़कर निकल गया। इसके बाद उसने सोचा कि-उन कुटुम्बियों का मेरे द्वारा अपकार का बदला लिया जाये। ऐसा सोचते हुए उसने बिल में प्रवेश होते प्रियदर्शन नाम के काले साँप को देखा। उसको देखकर फिर सोचने लगा कि “इसको वहाँ कुएँ में ले जाकरे सारे कुटुम्बियों को नष्ट कर देता हूँ।”
इस प्रकार विचार करके बिल के दरवाजे पर जाकर उसको बुलाया- आओ, आओ प्रियदर्शन आओ।” यह सुनकर सर्प ने सोचा ‘‘जो यह मुझे बुला रहा है, वह अपनी जाति का नहीं है। क्योंकि यह साँप की वाणी नहीं है तो यहाँ ही (बिलरूपी) किले में रहकर तब तक जानता हूँ कि यह कौन है?” और कहा-‘अरे आप कौन हैं? उसने कहा-”अरे गंगदत्त नाम का मेंढ़कों का राजा आपके साथ दोस्ती के लिए आया हुआ हूँ।” यह सुनकर सर्प ने कहा-”यह तो अविश्वसनीय है कि घास का आग के साथ संगम।”
व्याकरणिक-बिन्दवः-कस्मिंश्चिद् = कस्मिन् + चित् (हल्) निष्क्रान्तः = निस् + क्रम् + क्त। नीत्वा = नी + त्वा। उच्छेदं = उद् + धञ् श्रुत्वा (हको सन्धि)। विभाव्य = वि+ भाव् + ल्यप्। तच्छुत्वा = तत् + श्रुत्वा (हल् सन्धि)। चिन्तयन = चिन्त् + यत्।
2. गङ्गदत्त आह-” भोः सत्यमेतत्। स्वभाववैरी त्वमस्माकं, परं परपरिभवात् प्राप्तोऽहं ते सकाशम्।” सर्प आह-‘कथय, कस्मात्ते परिभवः?” स आह-“दायादेभ्यः”। सोऽप्याह-”क्व ते आश्रयः, कूपे, तडागे, हृदे वा? तत् कथय स्वाश्रयम्।” तेनोक्तम्-‘पाषाणचयनिबद्धे कूपे”। सर्प आह-”अपदा वयम्। तन्नास्ति मे तत्र प्रवेशः। प्रविष्टस्य च स्थानं नास्ति, यत्र स्थितस्तव दायादान् व्यापादयामि। तद् गम्यताम्।”
गङ्गदत्त आह-भोः समागच्छ त्वम्। अहं सुखोपायेन तत्र तव प्रवेशं कारयिष्यामि। तथा तस्य मध्ये जलोपान्ते रम्यतरं कोटरमस्ति तत्र स्थितस्त्वं लीलया दायादान्-व्यापादयिष्यसि।”
तच्छुत्वा सर्पो व्यचिन्तयत्-”अहं तावत् परिणतवयः कदाचित् कथञ्चिन्मूषकमेकं प्राप्नोमि। तत् सुखावहो जीवनोपायोऽयमनेन कुलाङ्गण में दर्शितः। तद् गत्वा तान् मूषकान् भक्षयामि” इति।।
शब्दार्थाः-सकाशम् = निकटम् (पास)। परपरिवात् = परैः कृतम् अपमानात् (दूसरों द्वारा किए गये अपमान से)। वाप्याम् = बावड़ी में! कूपे = कुएँ में। तडागे = तालाब में। हृदे = गहरे जलाशय में। पाषाणचयनिबद्धे = पाषाणखण्डैः निर्मित: कूपः (पत्थरों के समूह से बना हुआ कुआ)। अपदाः = पदविहीना (बिना पैर या पैर रहित)। व्यापादयामि = घातयामि (मार देता हूँ)। जलोपान्ते = जलस्य निकटे (जल के पास)। कोटरम् = निष्कुहः (खोखला)। परिणतवयः = वृद्धाः (बुजुर्ग)। सुखावहः = सुखकरः (सुखकारी)। जीवनोपायं = जीविकायाः उपायम् (आजीविका का उपाय)। कुलाङ्गारेण = कुलनाशकेन (कुल के लिए अंगारे के समान)।।
हिन्दी-अनुवाद-गंगदत्त बोला- अरे यह सत्य है।” हमारे स्वाभाविक बैरी तो हो लेकिन दूसरे द्वारा किए गये अपमान के कारण तुम्हारे पास आया हुआ हूँ। सर्प ने कहा-“कहो, किसने अपमान किया है?” उसने कहा-‘कुटुम्बियों ने’। उसने भी कहा-”तेरा आश्रय कहाँ है, कुएँ में, तालाब में या झील में तो अपना आश्रय कहिए।” उसने कहा-पत्थरों से चुने हुए कुएँ में।’ सर्प ने कहा-”हम बिना पैर के हैं। तो मेरा वहाँ प्रवेश (संम्भव) नहीं है। प्रवेश करने पर भी स्थान नहीं है। जहाँ बैठकर तुम्हारे कुटुम्बियों को मारूं। तो जाओ।” गंगदत्त ने कहा-‘अरे तुम आ जाओ, मैं आसान उपाय से वहाँ तुम्हारा प्रवेश करा दूंगा और उस जल के ऊपर (पासे में) सुन्दर खोखला है वहाँ पर स्थित तुम खेल ही खेल में कुटुम्बियों को मार देंगे। यह सुनकर सर्प ने सोचा-मैं यहाँ बुड्ढा हो गया, कभी-कभार एकाध चूहा प्राप्त होता है। वहाँ सुख के जीवन-यापन का आसान उपाय इस कुलांगार (कुल का विनाशक) ने दिखा दिया। वहाँ जाकर उन मूषकों को खाऊँगा। इस प्रकार।
व्याकरणिक-बिन्दवः-स्वभाव वैरी = स्वभावेन वैरी। प्राप्तोऽहं = प्राप्त:+अहम् (विसर्ग पूर्वरूप) प्राप्तः = प्र+आप् + क्त। सोऽप्याह = सः + अपिः आह। (विसर्ग पूर्वरूप, यण सन्धि।)
3. एवं विचिन्त्य तमाह-”भो गङ्गदत्त! यद्येवं तदङ्ग्रे भव? येन तत्र गच्छावः।” गङ्गदत्त आह-भोः प्रियदर्शन! अहं त्वां सुखोपायेन तत्र नेष्यामि, स्थानं च दर्शयिष्यामि। परं त्वयाऽस्मत्परिजननो रक्षणीयः। केवलं यानहं तव दर्शयिष्यामि, त एव भक्षणीयाः” इति। सर्प आह-‘साम्प्रतं त्वं मे मित्रं जातम्। तन्न भेतव्यम्। तव वचनेन भक्षणीयास्ते दायादाः।” एवमुक्त्वा बिलान्निष्क्रम्य तमालिङ्गय च, तेनैव सह प्रस्थितः।।
शब्दार्थाः-विचिन्त्य = विचार्य (सोचकर)। सुखोपायेन = आसान उपाय से। नेष्यामि = ले जाऊँगा। साम्प्रतं = इदानीम् (अब) भेतव्यम् = डरना चाहिए। परिजनः = परिवार के लोग। तमाह = उससे कहा। यद्येवं = यदि ऐसा है तो। तदग्रेभव = तो आगे हो।
हिन्दी-अनुवादः-ऐसा सोचकर उससे कहा-“अरे गंगदत्त यदि ऐसी बात है तो आगे हो, जिससे वहाँ जायें।” गंगदत्त ने कहा- अरे प्रियदर्शन मैं तुम्हें आसान उपाय से वहाँ ले जाऊँगा और स्थान भी दिखा दूंगा। लेकिन तुम्हें हमारे परिजनों की रक्षा करनी चाहिए। केवल जिनको मैं तुझे दिखाऊँगा वही खाने हैं। सर्प ने कहा-‘अब तुम मेरे मित्र हो गये हो तो डरना नहीं चाहिए। तेरे कहने के अनुसार वे कुटुम्बी ही खाने योग्य हैं।” ऐसा कहकर बिल से निकलकर और उसको गले लगाकर उसके ही साथ प्रस्थान कर गया।
व्याकरणिक-बिन्दवः-विचिन्त्य = वि+चिन्त्+ल्यप्। यद्येवं = यदि+एवम् (यण सन्धि) सुखोपायेन = सुख + उपायेन (गुणसन्धि) रक्षणीयः = रक्ष् + अनीयर्। सर्प आहः = सर्पः + आह (विसर्ग लोप) जातम् = जन् + क्त। तन्न = तत् + न (हल् संधि) भेतव्यम् = भी+तव्यत्। उक्त्वा = वच् (ब्) + त्वा। बिलान्निष्क्रम्य = विलात् + निष्क्रम्य (हल् संधि) निस् + ल्यप् = निष्क्रम्य। तेनैव = तेन + एवं (वृद्धि संधि)।
4. अथ कूपम् आसाद्य अरघट्टघटिकामार्गेण सर्पस्तेन सह तस्यालयं गतः। ततश्च गङ्गदत्तेन कृष्णसर्पः कोटरे धृत्वा दर्शितास्ते दायादाः। ते च तेन शनैः शनैर्भक्षिताः। अथ मण्डूकाभावे सर्पणाभिहितम्-”भद्र, निःशेषितास्ते रिपवः। तत् प्रयच्छान्यन्मे किञ्चित् भोजनं यातोऽहं त्वयात्रानीतः।” गङ्गदत्त आह-‘भद्र, कृतं त्वया मित्रकृत्यं, तत्साम्प्रतमनेनैव घटिकायन्त्रमार्गेण गम्यताम्’ इति। सर्प आह-‘भो गङ्गदत्त, न सम्यगभिहितं त्वया। कथमहं तत्र गच्छामि? मदीयं बिलदुर्गमन्येन रुद्धं भविष्यति। तस्मादत्रस्थस्य में मडूकमेकैकं स्ववर्गीयं प्रयच्छ। नो चेत् सर्वानपि भक्षयिष्यामि” इति।।
तच्छुत्वा गङ्गदत्तो व्याकुलमना व्यचिन्तयम्-”अहो, किमेतन्मया कृतं सर्पमानयता? तद् यदि निषेधयिष्यामि तत् सर्वानपि भक्षयिष्यति।”
एवं चिन्तयतस्तस्य तेन सर्येण शनैः शनैः सकलमपि मण्डूककुलं यथाकालं कवलितम्। साध्विदमुच्यते-यो यद्। वपति बीजं हि लभते तादृशं फलम्।
शब्दार्थाः-अभिहितम् = कथितम् (कहा)। निःशेषिताः = समाप्ताः (समाप्त कर दिये)। रिपवः = शत्रवः (शत्रु)। स्ववर्गीयम् = स्वपरिजनम् (कुटुम्बीजन को)। व्याकुलमना = व्यग्रमना (व्याकुल मन वाला)। कवलितम् = भक्षितम् (खा लिया)। आसाद्य = प्राप्त (पहुँचकर)। अरघट्टघटिकामार्गेण = रहट के घड़ों पर होकर)। कोटरे = खोखले में।
हिन्दी- अनुवादः-इसके बाद कुएँ पर पहुँचकर रहट के घड़ों के मार्ग से सर्प उसके साथ उसके घर पहुँच गया। तब गंगदत्त ने काले सर्प को कोटर में रखकर सारे कुटुम्बी दिखा दिए। वे उसने धीरे-धीरे खा लिए। इसके बाद मेंढ़कों के अभाव में सर्प ने कहा- भलेमानुष! तेरे सारे शत्रु स्पष्ट समाप्त हो गये हैं। तो मुझे दूसरा कोई भोजन और दो। क्योंकि आप के द्वारा मैं यहाँ लाया गया हैं। गंगदत्त ने कहा- भद्र! तुमने मित्र का काम कर दिया तो अब उसी रहट के मार्ग से चले जाओ। (सर्प बोला-अरे गंगदत्त, तुमने ठीक नहीं कहा। मैं वहाँ कैसे जाऊँ? मेरा बिलरूपी किला तो किसी और ने रोक (घेर) लिया होगा। इसलिए यहाँ रहते हुए मुझको एक-एक मेंढ़क अपने परिजनों में से दो। नहीं तो सभी को खा जाऊँगा।
यह सुनकर गंगदत्त व्याकुल मन से सोचने लगा-अरे सर्प को लाकर यह मैंने क्या किया? तो यदि मना करता हूँ तो सभी को खा जायेगा। ऐसा सोचते हुए उस गंगदत्त के सर्प द्वारा धीरे-धीरे सारा मेंढ़क कुल यथासमय ग्रसित कर लिया (खा लिया)। यह ठीक ही कहा गया है-जो जैसा बोता है वह वैसा ही फल प्राप्त करता है।
व्याकरण-बिन्दवः-सर्पस्तेन = सर्पः + तेन (विसर्ग सन्धि)। धृत्वा = धृ + क्त्वा। ततश्च = ततः + च (विसर्ग संधि) मित्रकृत्यं = मित्रेण कृत्यम्। (तत्पुरुष) रुद्धं = रुध् + त्वं। अभिहितम् = अभि+धा+क्त। एकेकम् = एक + एकम् (वृद्धि सन्धि)।