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RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये

RBSE Solutions for Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये

Rajasthan Board RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये अभ्यास-प्रश्नाः

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये वस्तुनिष्ठ – प्रश्नाः

1. बालकः सिंहशिशोः किं गणयितुम् इच्छति
(क) केशान्
(ख) नखान्
(ग) दन्तान्
(घ) पादान्

2. बालकस्य किं नाम आसीत्?
(क) रिपुदमनः
(ख) दुष्टदमनः
(ग) अरिदमनः
(घ) सर्वदमनः

3. तापसी कस्य क्रीडनकम् आनेतुं गच्छति
(क) मारीचस्य
(ख) सर्वदमनस्य
(ग) मार्कण्डेयस्य
(घ) दुष्यन्तस्य

4. जातकर्मसमये केः बालकाय अपराजिता-नामौषधिं ददाति?
(क) दुष्यन्तः
(ख) मारीचः
(ग) शकुन्तला
(घ) मार्कण्डेय:

5. तापसी केन पदार्थेन निर्मितं मयूरम् आनयति?
(क) स्वर्णनिर्मितम्
(ख) ताम्रनिर्मितम्
(ग) काष्ठनिर्मितम्
(घ) मृत्तिकानिर्मितम्

उत्तराणि:

1. (ग)
2. (घ)
3. (ग)
4. (ख)
5. (घ)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये लघूत्तरात्मक-प्रश्नाः

प्रश्न 1.
बालकः कस्य वंशस्य आसीत्? (बालक किस वंश का था?)
उत्तरम्:
बालकः पुरुवंशस्य आसीत्। (बालक पुरुवंश को था।)।

प्रश्न 2.
सर्वदमनस्य मणिबन्धे किम् आबद्धम् आसीत्? (सर्वदमन की कलाई में क्या बँधा था?)
उत्तरम्:
सर्वदमनस्य मणिबन्धे रक्षाकरण्डकम् आबद्धमासीत्। (सर्वदमन की कलाई में रक्षा का गण्डा बँधा था।)

प्रश्न 3.
बालकस्य पितुः किं नाम आसीत्? (बालक के पिता का क्या नाम था?)
उत्तरम्:
बालकस्य पितुः नाम दुष्यन्तः आसीत्। (बालक के पिता का नाम दुष्यन्त था।)

प्रश्न 4.
बालकः सर्वदमनः कस्य सकाशं गन्तुम् इच्छति? (बालक सर्वदमन किसके पास (साथ) जाना चाहता है?)
उत्तरम्:
बालकः सर्वदमनः मातुः सकाशं गन्तुम् इच्छति। (बालक सर्वदमन माँ के साथ जाना चाहता है।)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये निबन्धात्मक – प्रश्नाः

प्रश्न 1.
‘अनार्यः परदारव्यवहारः’ इति सूक्तिं स्पष्टीकुरुत। (‘अनार्यः परदारव्यवहारः’ सूक्ति को स्पष्ट कीजिए।)
उत्तरम्:
भारतीय संस्कृतौ नारी सदैव सम्माननीया अतः तस्याः समादरः कुर्यात्। परकलत्रं तु अतितरम् आदरणीयम् भवति। परदारस्त्वुमातृवत् मन्यते। अतः तस्य विषये अनावश्यकः पृच्छ्या अनेका शंका: जायन्ते। न तां प्रति कापि शंका कुर्यात्।

(भारतीय संस्कृति में नारी सदैव सम्मान के योग्य रही है अतः उसका सम्यक् आदर करना चाहिए। पराई स्त्री तो और अधिक आदरणीय होती है। पराई स्त्री को माता के समान माना जाता है। अतः उसके विषय में अनावश्यक पूछताछ अनेक शंकाओं को जन्म देती है। उसके प्रति कोई शंका नहीं करनी चाहिए।)

प्रश्न 2.
बालकस्य सर्वदमनस्य रक्षाकरण्डकस्य कीदृशी विशेषता आसीत्? (बालक सर्वदमन के रक्षा के गण्डा की क्या विशेषता थी ?)
उत्तरम्:
सर्वदमनस्य मणिबन्धे यत् रक्षाकरण्डकम् आबद्धम् आसीत् तत् बालकस्य अशुभात् रक्षायाः कृते भगवता मारीचेन अपराजिता नाम औषधेन युक्तम् आबद्धमासीत्। एतां औषधिं मातापितरावात्मानं च वर्जयित्वा अपरो भूमिपतितां न गृह्णाति। यदि कोऽपि गृह्णाति ततः इदं तं सर्पो भूत्वा दशति।

(सर्वदमन की कलाई में जो रक्षा का गण्डा बाँधा था वह उस बालक की अशुभ से रक्षा करने के लिए भगवान मारीच ने अपराजिता नाम की औषधि से युक्त बाँधा था। इस औषधि को माता-पिता और अपने अलावा दूसरा धरती पर गिरी हुई को नहीं उठा सकता। यदि कोई ग्रहण करता है तो यह उसको सर्प बनकर डस लेता है।)

RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये व्याकरणात्मक प्रश्नाः

प्रश्न 1.
निम्नलिखितानां पदानां सन्धिं कुरुत – (निम्न पदों की संधि कीजिए-)
(क) खलु + अयम्
(ख) कः + अस्य
(ग) एक + अन्वयः
(घ) मृग + इन्द्रम्
(ङ) सह + एव
उत्तराणि:
(क) खल्वयम् (यण् सन्धि)
(ख) कोऽस्य (विसर्ग, पूर्वरूप सन्धि)
(ग) एकान्वयः (दीर्घ सन्धि)
(ग) मृगेन्द्रम् (गुण सन्धि)
(ङ) सहैव (वृद्धि सन्धि)

प्रश्न 2.
निम्नलिखितानां पदानां प्रकृति-प्रत्ययं निर्दिशत – (निम्नलिखित पदों के प्रकृति-प्रत्यय बताइये।)
पदम्
(क) रम्यत्वम्
(ख) केसरिणी
(ग) जनता
(घ) अपराजिता
उत्तराणि:
प्रकृतिः + प्रत्ययः
रम् + यत् + त्व
केसर + इनि + ङीप्
जन् + तल्
परा + जि + क्त + टाप्

प्रश्न 3.
निम्नलिखितानां पदानां वाक्ये प्रयोगं कुरुत – (निम्नलिखित पदों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए-)
उत्तराणि:

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प्रश्न 4.
निम्नलिखितानां पदानां समासः विधेय – (निम्नलिखित पदों का समास करना है-) विग्रह
उत्तराणि:
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RBSE Class 10 Sanskrit स्पन्दन Chapter 4 जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तराणि

अधोलिखित प्रश्नान् संस्कृतभाषया पूर्णवाक्येन उत्तरत – (निम्नलिखित प्रश्नों के संस्कृत भाषा में पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए-)

प्रश्न 1.
अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाम नाटकं केन रचितम्?
(अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक किसने लिखा?)
उत्तरम्:
अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाम नाटकं महाकविकालिदासेन रचितम्।
(अभिज्ञान शाकुन्तलम् नामक नाटक महाकवि कालिदास ने लिखा।)

प्रश्न 2.
काव्येषु किं रम्यम्?
(काव्यों में क्या रमणीय है?)
उत्तरम्:
काव्येषु नाटकं रम्यम्।
(काव्यों में नाटक रम्य होता है।)

प्रश्न 3.
नाटकेषु किन्नाम नाटकं रम्यम्?
(नाटकों में कौन-सा नाटक रम्य है?)
उत्तरम्:
नाटकेषु महाकविकालिदासस्य अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाम नाटकं रम्यम्।
(नाटकों में महाकवि कालिदास का अभिज्ञानशाकुन्तलम् रम्य है।)

प्रश्न 4.
‘जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ इतिपाठः कस्मात् ग्रन्थात् संकलितः?
उत्तरम्:
जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये इति पाठः अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाम नाटकात् संकलितः।
(जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ यह पाठ अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाम के नाटक से संकलित है।)

प्रश्न 5.
‘जुम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ इति वाक्यं केनोक्तम्?
(‘जुम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ वाक्य किसने कहा?)
उत्तरम्:
‘जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ इति वाक्यं सर्वदमनेनोक्तम्।
(‘जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ यह वाक्य सर्वदमन ने कहा।)

प्रश्न 6.
सर्वदमनः केन निषिध्यते स्म?
(सर्वदमन किसके द्वारा रोका जा रहा था?)
उत्तरम्:
सर्वदमन: तापसीभ्यां निषिध्यते स्म।
(सर्वदमन तापसियों द्वारा रोका जा रहा था।)

प्रश्न 7.
अबालसत्वो बालकः कस्मै प्रयुक्तम्?
(अबालसत्व बालक किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?)
उत्तरम्:
अबालसत्वः बालकः सर्वदमनाय प्रयुक्तम्।
(अबालसत्व बालक सर्वदमन के लिए प्रयोग किया गया है।)

प्रश्न 8.
सर्वदमनः सिंहशावकं कस्मै कर्षति?
(सर्वदमन सिंह शावक को किसलिए खींचता है?)
उत्तरम्:
सर्वदमनः सिंह शावक क्रीडितुम् कर्षति।
(सर्वदमन सिंह शावक को खेलने के लिए खींचता है।)

प्रश्न 9.
सिंहशावकस्य दन्तान् कः गणयितुम् इच्छति?
(सिंह के बच्चे के दाँत कौन गिनना चाहता है?)
उत्तरम्:
सिंह शावकस्य दन्तान् सर्वदमनः गणयितुम् इच्छति।
(सिंह के बच्चे के दाँत सर्वदमन गिनना चाहता है।)

प्रश्न 10.
सर्वदमनः तापसीभ्यां किमुक्त्वा भीयते?
(सर्वदमन को तापसियों द्वारा क्या कहकर डराया जाता है?)
उत्तरम:
‘एषा खलु केसरिणी त्वां लङ्घयिष्यति यदि तस्याः पुत्रकं न मुञ्चसि’ इति तापसीभ्यां भीयते।
(‘यह शेरनी तुम पर आक्रमण कर देगी यदि उसके बच्चे को नहीं छोड़ते हो तो यह कहकर तापसियों द्वारा डराया जाता है।)

प्रश्न 11.
तापसीभ्यां भीतः बालकः किं कथयति?
(तापंसियों द्वारा डराया हुआ बालक क्या कहता है?)
उत्तरम्:
सर्वदमनः भीत-वाक्यं श्रुत्वा कथयति-अहो बलीय खलु भीतोऽस्मि इति उक्त्वा अधरं दर्शयति।
(सर्वदमन डर के वाक्य को सुनकर कहता है-‘अरे मैं तो बहुत डर गया, ऐसा कहकर ओष्ठ दिखाता है।)

प्रश्न 12.
द्वितीया तापसी प्रथम किमादिशति?
(दूसरी तापसी पहली को क्या आदेश देती है?)
उत्तरम्:
गच्छत्वं मदीये उटजे मार्कण्डेयस्य ऋषिकुमारस्य वर्णचित्रितो मृत्तिकामयूर: तिष्ठति, तमस्योपहर। इति आदिशति।
(जा तू मेरी कुटिया में मार्कण्डेय ऋषिकुमार का रंगों से रँगा हुआ मिट्टी का मोर रखा है, उसे इसके लिए दे दो। यह आदेश दिया।)

प्रश्न 13.
क्रीडनकः केन निर्मित:?
(खिलौना किसने बनाया?)
उत्तरम्:
क्रीडनक: मार्कण्डेय ऋषिकुमारेण निर्मितः।
(खिलौना मार्कण्डेय ऋषिकुमार ने बनाया था।)

प्रश्न 14.
सर्वदमनः कां न गणयति?
(सर्वदमन किसे नहीं गिनता?)
उत्तरम्:
सर्वदमनः तापस न गणयति।
(सर्वदमन तापसी को नहीं गिनता।)

प्रश्न 15.
शकुन्तला पुत्रं कुत्र प्रसूतवती?
(शकुन्तला ने पुत्र को कहाँ जन्म दिया?)
उत्तरम्:
शकुन्तला पुत्रं महर्षि मारीचेः आश्रमे प्रसूतवती।
(शकुन्तला ने महर्षि मारीच के आश्रम पर पुत्र को जन्म दिया।)

प्रश्न 16.
शकुन्तलावण्यं प्रेक्षस्व इति श्रुत्वा सर्वदमनः कस्मात् आश्चर्यचकितोऽजायत?
(शकुन्तलावण्यं प्रेक्षस्व वाक्य को सुनकर सर्वदमन आश्चर्य से क्यों चौंक गया?)
उत्तरम्:
पदसाम्यात् सः स्व मातुः नाम मनुते स्म।
(पदसाम्य के कारण उसने अपनी माता का नाम माना।)

प्रश्न 17.
यदि अपराजिताम् औषधिं मातापितरावात्मानं च वर्जयित्वा गृह्णाति तदा किं भवति?
(यदि अपराजिता औषधि को माता-पिता और स्वयं के अलावा कोई उठा लेता है तो क्या होता है?)
उत्तरम्:
ततः सी तां सर्प भूत्वा दशति।
(तब वह उसे सर्प बनकर डस लेती है।)

प्रश्न 18.
रक्षाकरण्डके का औषधिरासीत्?
(रक्षा के गण्डे में क्या औषधि थी?)
उत्तरम्:
रक्षाकरण्डके अपराजिता नाम औषधिः आसीत्।
(रक्षा के गण्डा में अपराजिता नाम की औषधि थी।)

प्रश्न 19.
बालकः स्वपितुः नाम किं निवेदयति?
(बालक अपने पिता का नाम क्या बताता है?)
उत्तरम्:
बालकः निवेदयति मम खलु तातो दुष्यन्तः।
(बालक निवेदन करता है-“मेरे पिताजी तो निश्चित ही दुष्यन्त” हैं।)

प्रश्न 20.
दुष्यन्तः यदा बालकं परिष्वजते स्म तदा बालः किमवदत्?
(दुष्यन्त ने जब बालक को आलिंगन किया तब बालक ने क्या कहा?)
उत्तरम्:
बालको अवदत् अहं तु मातुः सकाशं गमिष्यामि।
(बालक बोला- मैं तो माँ के पास जाऊँगा।)

प्रश्न 21.
सर्वदमनस्य मातुः नाम किम् आसीत्?
(सर्वदमन की माँ का नाम क्या था?)
उत्तरम्:
सर्वदमनस्य मातुः नाम शकुन्तला आसीत्।
(सर्वदमन की माँ का नाम शकुन्तला था।)

प्रश्न 22.
सर्वदमनेन ‘शकुन्तलावण्य’ पदस्य किमर्थं गृहीतम्?
(सर्वदमन ने ‘शकुन्तलावण्य’ पद को किस अर्थ में ग्रहण किया?)
उत्तरम्:
‘शकुन्तलायाः’ लावण्यं इति अर्थं गृहीतवान्।
(शकुन्तला का सौन्दर्य ऐसा अर्थ ग्रहण किया।)

प्रश्न 23.
सर्यो भूत्वा कः दशति?
(सर्प होकर कौन खाता है?)
उत्तरम्:
सर्पो भूत्वा अपराजिता औषधि: दशति।
(सर्प बनकर अपराजिता औषधि डस लेती है।)

प्रश्न 24.
तापसी कथं ज्ञातवती यदसौ महाराज दुष्यन्तः एव अस्ति?
(तापसी ने कैसे जाना कि वह महाराज दुष्यन्त है?)
उत्तरम्:
यतः असौ अपराजितां गृह्णाति या बालकः तस्य पितरौ एव गृहीतुं शक्नुवन्ति।
(क्योंकि वह अपराजिता को उठा लेता है जिसे बालक तथा उसके माता-पिता ही उठा सकते हैं।)

प्रश्न 25.
राजा बालकस्य मातुः नाम कस्मात् न पृच्छति?
(राजा बालक की माता का नाम क्यों नहीं पूछता है?)
उत्तरम्:
सः जानाति यत्-‘अनार्यः परदारव्यवहारः।’
(वह जानता है कि दूसरे की स्त्री के विषय में यह व्यवहार उचित नहीं।)

प्रश्न 26.
‘सर्वदमनः’ इत्यभिधानं ऋषिजनैः कथमुचितं कृतम्?
(सर्वदमन ऐसा नाम ऋषियों ने कैसे उचित रखा है?)
उत्तरम्:
यः सर्वान् दाम्यति अथवा यः सर्वेषां दमनं करोति सः सर्वदमनः। एषः बालकौऽस्येवमेव करोति अतः उचितमेव अभिधानम्।
(जो सभी का दमन करता है वह सर्वदमन है। यह बालक भी ऐसा ही करता है अतः उचित ही नाम है।)

रेखांकित पदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत – (रेखांकित पद के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए-)

प्रश्न 1.
अभूमिः इयम् अविनयस्य। (यह अविनय का उचित स्थान नहीं है।)
उत्तरम्:
इयं कस्य अभूमिः? (यह किसका उचित स्थान नहीं है?)

प्रश्न 2.
प्रक्रीडितुं सिंहशिशु बलात्कारेण कर्षति। (खेलने के लिए सिंह शावक को बलपूर्वक खींचता है।)
उत्तरम्:
प्रक्रीडितुं कम् बलात्कारेण कर्षति? (खेलने के लिए किसको बलपूर्वक खींचता है?)

प्रश्न 3.
ततः प्रविशति तपस्विनीभ्यां सह बालः। (तब दो तापसियों के साथ बालक प्रवेश करता है।)
उत्तरम्:
ततः काभ्यां सह बालः प्रविशति? (तब किनके साथ बालक प्रवेश करता है?)

प्रश्न 4.
केसरिणी लद्दयिष्यति। (शेरनी आक्रमण करेगी।)
उत्तरम्:
का लङघयिष्यति? (कौन आक्रमण करेगी?)

प्रश्न 5.
बालकः हस्तं प्रसारयति। (बालके हाथ फैला देता है।)
उत्तरम्:
बालकः के प्रसारयति? (बालक क्या फैला देता है?)

प्रश्न 6.
उटजे मृत्तिकामयूरः तिष्ठति। (कुटिया में मिट्टी का मोर रखी है।)
उत्तरम्:
उटजे किम् तिष्ठति? (कुटिया में क्या रखा है?)

प्रश्न 7.
तापसीं विलोक्य हसति। (तापसी को देखकर हँसता है।)
उत्तरम्:
कां विलोक्य हसति? (किसको देखकर हँसता है?)

प्रश्न 8.
अस्य जनन्यत्र देवगुरोस्तपोवने प्रसूता। (इसकी माँ ने यहाँ देवगुरु के आश्रम में जन्म दिया।)
उत्तरम्:
अस्य जनन्यत्र कुत्रे प्रसूता? (इसकी माँ ने कहाँ जन्म दिया?)

प्रश्न 9.
अनार्यः परदारव्यवहारः। (पराई स्त्री के साथ इस प्रकार का व्यवहार अनुचित है।)
उत्तरम्:
कीदृशः परदारव्यवहार:? (पराई स्त्री के साथ ऐसा व्यवहार कैसा होता है?)

प्रश्न 10.
रक्षाकरण्डकमस्य मणिबन्धे न दृश्यते। (रक्षा का गण्डा इसकी कलाई में नजर नहीं आता।)
उत्तरम्:
किम् अस्य मणिबन्धे न दृश्यते ? (इसकी कलाई में क्या नहीं दिखाई पड़ता?)

प्रश्न 11.
नाम सादृश्येन वंचितः। (नाम की समानता से धोखा खा गया।)
उत्तरम्:
केन वंचितः? (किससे छला गया?)

प्रश्न 12.
विस्मयात् परस्परमवलोकयतः। (आश्चर्य से आपस में देखती हैं।)
उत्तरम्:
कस्मात् परस्परमवलोकयतः। (किससे आपस में देखती हैं?)

प्रश्न 13.
जातकर्मसमये भगवता मारीचेन दत्ता। (जातकर्म के समय भगवान मारीच ने दी थी।)
उत्तरम्:
जातकर्मसमये केन दत्ता? (जातकर्म के समय किसने दी?)

प्रश्न 14.
भूमिपतितां औषधिं न कोऽपि गृह्णाति। (धरती पर गिरी औषधि को कोई ग्रहण नहीं करता।)
उत्तरम्:
कीदृश औषधिं न कोऽपि गृह्णाति। (कैसी औषधि को कोई नहीं ग्रहण करता?)

प्रश्न 15.
काव्येषु नाटकं रम्यम्। (काव्यों में नाटक रम्य है।)
उत्तरम्:
काव्येषु किं रम्यम्? (काव्यों में क्या रम्य है?)

प्रश्न 16.
तत्र रम्यां शकुन्तला। (वहाँ शकुन्तला रम्य है।)
उत्तरम्:
तत्र का रम्या? (वहाँ कौन रम्य है?)

प्रश्न 17.
महर्षि मारीचस्य आश्रमे विश्रामं करोति। (महर्षि मारीच के आश्रम में विश्राम करता है।)
उत्तरम्:
कस्य आश्रमे विश्रामं करोति? (किसके आश्रम में विश्राम करता है?)

प्रश्न 18.
चंचलतां दृष्ट्वा आकर्षणं भवति। (चंचलता को देखकर आकर्षण होता है।)
उत्तरम्:
काम् दृष्ट्वा आकर्षणं भवति। (किसको देखकर आकर्षण होता है?)

प्रश्न 19.
सर्वदमनः दुष्यन्तस्य पुत्रः आसीत्। (सर्वदमन दुष्यन्त का पुत्र था।)
उत्तरम्:
सर्वदमनः कस्य पुत्रः आसीत्? (सर्वदमन किसका पुत्र था?)

प्रश्न 20.
शकुन्तला-दुष्यन्तयोः पुत्रः सर्वदमनः आसीत्। (शकुन्तला और दुष्यन्त का पुत्र सर्वदमन था।)
उत्तरम्:
शकुन्तला-दुष्यन्तयोः पुत्रः कः आसीत् ? (शकुन्तला और दुष्यन्त का पुत्र कौन था?)

पाठ – परिचयः

‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ न केवल महाकवि कालिदास की ही अपितु संस्कृत साहित्य की भी सर्वश्रेष्ठ रचना है। जैसा कि किसी कवि ने कहा है – ‘काव्यों में नाटक रम्य होता है वहाँ (नाटकों में) भी शकुन्तला रम्य है।’

प्रस्तुत नाट्यांश शाकुन्तल के सातवें अंक से लिया गया है। दानवों के साथ हुए युद्ध में इन्द्र की विजय के बाद इन्द्रपुरी – अमरावती से वापस लौटते हुए राजा दुष्यन्त मार्ग में महर्षि मारीच के आश्रम में विश्राम करते हैं। वहाँ बालक सर्वदमन की सिंह के बच्चे के साथ क्रीड़ा और व्यवहार तथा चंचलता को देखकर उसके मन में बालक के प्रति स्वाभाविक आकर्षण उत्पन्न होता है। धीरे – धीरे बातचीत के प्रसंग से उसको विश्वास होता है कि सर्वदमन उसका पुत्र ही है। इस प्रकार कवि ने इस दृश्य में बालक की चंचलता और दुष्यन्त का वात्सल्य अत्यन्त मनमोहकता के साथ वर्णित किया है।

मूलपाठ, शब्दार्थ, हिन्दी – अनुवाद एवं सप्रसंग संस्कृत व्याख्या

1. (नेपथ्ये)
मा – खलु चापलं कुरु। कथं गत एवात्मनः प्रकृतिम्?
राजा – (कर्णं दत्वा) अभूमि: इयम् अविनयस्य। को नु खल्वेष: निषिध्यते? (शब्दानुसारेण अवलोक्य) (सविस्मयम्) अये, को नु खलु अयम् अनुबध्यमानः तपस्विनीभ्याम् अबालसत्वो बालः? अर्धपीतस्तनं मातुरामर्दक्लिष्टकेसरम्। प्रक्रीडितुं सिंहशिशु बलात्कारेण कर्षति।। (ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टकर्मा तपस्विनीभ्यां सह बाल:)
बालः – जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये।
प्रथमा – अविनीत, किं नोऽपत्यनिर्विशेषाणि सत्वानि विप्रकरोषि? हन्त, वर्धते ते संरम्भः। स्थाने खलु ऋषिजनेन। सर्वदमन इति कृतनामधेयोऽसि।
द्वितीया – एषा खलु केसरिणी त्वां लङ्घयिष्यति यदि तस्याः पुत्रकं न मुञ्चसि।
बालः – (सस्मितम्) अहो, बलीयः खलु भीतोऽस्मि। (इत्यधरं दर्शयति)
प्रथमा – वत्स, एनं बालमृगेन्द्र मुञ्च। अपरं ते क्रीडनकं दास्यामि।
बालः – कुत्र? देह्येतत्। (इति हस्तं प्रसारयति)
अन्वयः – (येन) मातुः अर्द्धस्तनं पीतम् आमर्द क्लिष्टकेसरम् सिंह शिशु बलात्कारेण प्रक्रीडितुम् आकर्षति।

शब्दार्थाः
नेपथ्ये = प्रेक्षागृहे (पर्दे के पीछे से)। चापलम् = चंचलताम् (चंचलता)। प्रकृतिं = स्वभावम् (स्वभाव)। अभूमिः = अनुचितं स्थानम् (अनुचित स्थान)। अविनयस्य = चंचलतायाः (विनयहीनता का)। निषिध्यते = निवार्यते (रोका जा रहा है)। अवलोक्य = दृष्ट्वा (देखकर)। सविस्मयम् = आश्चर्येण सहितम् (अचम्भे के साथ)। अनुबध्यमानः = अनुसरणं कृत्वां अवरुध्यमानः (अनुसरण करके रोका जाता हुआ)। अबालसत्वः = असाधारण शक्तिसम्पन्न: (असामान्य शक्ति से सम्पन्न)। अर्धपीतस्तनम् = येन स्वमातुः अर्द्धमेव दुग्धं पीतम् (जिसने माँ का आधा ही दूध पिया है)। आमर्दक्लिष्टकेसरम् = आकर्षणेन अस्तव्यस्त केशम् (खींचने से जिसके केश अस्त – व्यस्त हो गये हैं)। बलात्कारेणं = बलपूर्वकम् (जबरदस्ती)। यथानिर्दिष्टकर्मा = पूर्वोक्त कार्ये संलग्नः (पूर्व में बताये हुए काम में लगा हुआ)। नः = अस्माकम् (हमारा)। अपत्यनिर्विशेषाणि = सन्तान तुल्यानि (सन्तान की तरह)। सत्वानि = प्राणिनः (प्राणी)। विप्रकरोषि = तुदसि (परेशान कर रहे हो)। हन्त = ओह खेदम् (अफसोस है)। संरम्भः = क्रोधः (गुस्सा)। स्थाने = उचितम्। कृतनामधेयः = जिसका नामकरण कर दिया गया है। केसरिणी – सिंही। लङघयिष्यति = आक्रमणं करिष्यति (आक्रमण करेगा)। मुञ्चसि = त्यजसि (त्यागता है)। बलीयः = अत्यधिक (बहुत)। अधरम् = ओष्ठम् (होंठ)। बालमृगेन्द्रम् = सिंह शावक।

हिन्दी अनुवाद –
(पर्दे के पीछे) चंचलता मत करो। क्या अपने स्वभाव पर आ रहे हो (क्या अपनी पर आ रहे हो?)

राजा – (कान देकर) यह विनयहीनता का तो उचित स्थान ही नहीं है। यह कौन रोका जा रहा है? (शब्द के अनुसार देखकर, आश्चर्य के साथ) अरे, यह कौन वास्तव में पीछे दौड़कर बेचारी तापसियों द्वारा रोका जाता हुआ असाधारण शक्ति सम्पन्न बालक़ है।

जिसने माँ का आधा स्तनपान कर लिया है, जिसके गर्दन के बालों का मर्दन किया गया है अर्थात् खींचा गया है, ऐसे सिंह शावक को (वह) खेलने के लिए बलपूर्वक खींच रहा है। (तब जैसा ऊपर बताया गया है वैसा ही करता हुआ दो तापसियों के साथ बालक प्रवेश करता है।)

बालः – अरे सिंह! मुँह खोलो, तेरे दाँत गिनँगा।
पहली – विनयहीन, क्यों हमारी सन्तान के समान प्राणियों को कष्ट दे रहे हो? खेद है, तेरा क्रोध (नटखटता) बढ़ता ही जा रहा है। ऋषिजनों ने तुम्हारा सर्वदमन (सबका दमन करने वाला) नामकरण उचित ही किया है अर्थात् तुम यथा नाम तथा गुण हो।
दूसरी – यह शेरनी निश्चित ही तेरे ऊपर आक्रमण करेगी यदि तुम उसके पुत्र को नहीं छोड़ते हो तो।
बालक – (मुस्कराते हुए) ओहो, मैं तो वास्तव में बहुत अधिक डर गया हूँ। (ऐसा कहकर अपना नीचे का ओष्ठ दिखाता (बिचकाता) है।
पहली – बेटा, इस सिंह शावक को छोड़ दे। तुझे दूसरा खिलौना दे देंगी।
बालक – कहाँ है? इसे दे दो। (ऐसा कहकर हाथ पसारता है।)

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्गः – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पंदना’ इति पाठ्यपुस्तकस्य ‘जुम्मस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ इति पाठात्। उद्धृतः। अयं पाठः महाकवि कालिदास विरचितात् ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ इति विश्व – विश्रुत नाटकात् सङ्कलितः। नाट्यांशेऽस्मिन् नृपदुष्यन्तेन सह वीरबालकस्य सर्वदमनस्य (भरतस्य) संवादः प्रवर्तते। अत्र वीरबालकस्य चञ्चलता, स्फूर्ति, वीरता एवं साहसं च प्रदर्शितम् अस्ति। (यह जाट्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के “जुम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ महाकवि कालिदास विरचित ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ विश्व – प्रसिद्ध नाटक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में राजा दुष्यन्त के साथ सर्वदमन भरत वीर बालक के साथ संवाद हो रहा है। यहाँ वीर बालक की चंचलता, फुर्ती, वीरता एवं साहस प्रदर्शित किया गया है।)

व्याख्याः – (प्रेक्षागृहतः वचनं संवाद वा श्रूयते) अलं चञ्चलतया। त्वम् तु स्वस्वभावमनुसरेत्?
नृपः – (ध्यानेन निशम्य) अत्रतु चञ्चलतायाः औचित्यम् एव न वर्तते। निश्चितमेव अयं कः निवार्यते?
(स्वरानुरूपम् दृष्ट्वा) (आश्चर्येण सह) रे एषः कः निश्चितमेव अनुसरणं कृत्वा अवरुष्ट यमानः अस्ति तापसीभ्याम् असाधारण शक्तिसम्पन्न: अयं बालकः?
येन जन्याः अर्धस्तनस्य दुग्ध – पानं कृतम्, यस्य ग्रीवाया: केशपाशं निर्दयतया कृष्यते एवं विधं सिंहशावकं क्रीडनाय बलात् एव कः कर्षति नयति वा।” (तत्पश्चात् यथोपरि श्लोके वर्णितं
तथैव विधाय तापसीभ्याम् सार्धम् एकः बालकः मंच उपस्थितं भवति।)
बालकः – हे सिंह शावक! मुखम् उद्घाटयात्मानम्। अहं ते दशनानां गणनां करिष्यामि।
प्रथमा तापसी – रे दयाहीन ! किं त्वम् अस्माकं सन्तति सदृशान् सर्वा प्राणिनः तुदसि? ओह तव क्रोधस्तु वृद्धिमेव आयाति। तव अभिधाननं यत् ऋषिभिः सर्वदमनम् इति कृतं तत् उचितमेव यतः त्वं सर्वान् दमयतुम् इच्छति।
द्वितीया तापसी – वत्सः यदि त्वम् अस्या आत्मजं न त्यजति उन्मोचयति तदा इय सिंही त्वाम् आक्रामिष्यति आक्रमणं वा करिष्यति।

बालकः – ‘साश्चर्यम्’ अहो अहं तु महद् भयभीत: जातोऽस्मि। (एवमुक्त्वा) स्वकीयम् अधरोष्ठं दर्शयति।
प्रथमातापसी – पुत्र, इमं सिंह शावक त्यज (मोचय) तुभ्यम् अहम् किमपि अन्य क्रीडनीयकं वितरिष्यामि।
बालकः – कुत्र अस्ति अन्यत् क्रीडनकम्? यच्छ तत् मह्यम्। (इति उक्त्वा स्वहस्तं प्रसारयति (विस्तारयति)।
हिन्दी अनुवाद – (प्रेक्षागृह से संवाद सुना जा रहा है। अरे, चञ्चलता मत करो, तुम तो अपने स्वभाव पर ही आगये।
राजा – (ध्यान से सुनकर) यहाँ तो चंचलता का कोई औचित्य ही नहीं है। सचमुच ही यह कौन रोका जा रहा है? (जिधर से आवाज आ रही है उधर देखकर) (आश्चर्य के साथ) अरे वास्तव में यह कौन पीछा करके दो तापसियों द्वारा रोका जा रहा है? यह बालक असाधारण शक्तिसंपन्न है, जिसने अपनी माँ के आधे स्तन का पान कर लिया है, जिसकी गर्दन के बाल निर्दयतापूर्वक खींचे जा रहे हैं, इस प्रकार के इस सिंह के बच्चे को खेलने के लिए कौन बलपूर्वक खींच रहा है (ले जा रहा है)। इसे प्रकार जैसा कि ऊपर श्लोक में वर्णित है, उसी प्रकार का एक बालक दो तापसियों के साथ मंच पर उपस्थित होता है।)
बालक – अरे सिंह के बच्चे ! अपना मुँह फाड़ (खोल) मैं तेरे दाँतों की गिनती करूंगा।
पहली तापसी – अरे निर्दयी ! क्या तू हमारी सन्तान के समान सभी प्राणियों को कष्ट दे रहा है? अरे तेरा तो क्रोध बढ़ता ही जा रहा है। तेरा नाम जो ऋषि लोगों ने ‘सर्वदमन’ रखा है वह उचित ही है, क्योंकि तू सबका दमन करना चाहता है।
दूसरी तापसी – बेटा, यदि तू इसके बेटे को नहीं छोड़ता है तो यह शेरनी तेरे ऊपर आक्रमण कर देगी।
बालक – (अचम्भे के साथ) ओहो, मैं तो बहुत भयभीत हो गया हूँ। ऐसा कहकर अपने नीचे के होंठ (अधर) को दिखाता (विचकाता) है। दूसरी तापसी – बेटा, इस सिंह के बच्चे को छोड़ दे। तुम्हें मैं कोई अन्य खिलौना देंगी।
बालक – कहाँ है दूसरा खिलौना। वह मुझे दे दो। (ऐसा कहकर अपने हाथ को पसार देता है। (फैलादेता है।)

व्याकरणिक बिन्दवः
एवात्मनः – एव + आत्मनः (दीर्घ सन्धि:)। खल्वेष: – खलु + एषः (यण सन्धि)। अवलोक्यअव + लोक् + ल्यप्। सविस्मयम् – विस्मयेन सहितम् (अव्ययीभाव समास)। अर्धपोतस्तनम् – अर्धम् स्तनं पीतम् येन सः तं च (ब.व्री. समास)। बालमृगेन्द्रः – बालः च असौ मृगेन्द्र (क.धा. समास)। मृगाणाम् इन्द्रः (षष्ठी तत्पुरुष समास)। मृग + इन्द्र (गुण संधि)।

2. द्वितीया –
सुव्रते ! न शक्य एष वाचामात्रेण विरमयितुम्। गच्छ त्वम् मदीये उटजे मार्कण्डेयस्य ऋषिकुमारस्यवर्णचित्रितो मृत्तिकामयूरस्तिष्ठति, तमस्योपहर।
प्रथमा – तथा। (इति निष्क्रान्ता)
बालः – अनेनैव तावत् क्रीडयिष्यामि। (इति तापस विलोक्य हसति।) तापसी भवतु, न मामयं गणयति। (पाश्र्वमवलोक्य) कोऽत्र ऋषिकुमाराणाम्? (राजानमवलोक्य)
भद्रमुख, एहि तावत् ! मोचयानेन डिम्भलीलया बाध्यमानं बालमृगेन्द्रम्। राजा उपगम्यं (सस्मितम्) अयि भो महर्षिपुत्र!
तापसी – भद्रमुख ! न खल्वयमृषिकुमारः।
राजा : आकारसदृशं चेष्टितमेवास्य कथयति।
स्थान – प्रत्ययात्तु वयमेवंतर्किण: (इति यथाभ्यर्थित मनुतिष्ठति) (बालकमुपलालंयन्) न चेन्मुनिकुमारोऽयम्, अथ कोऽस्य व्यपदेश:?
तापसी – पुरुवंशः।
राजा – (आत्मगतम्) कथमेकान्वयो मम? (प्रकाशम्) न पुनरात्मगत्या मानुषाणामेष विषयः।
तापसी – यथा भद्रमुखो भणति। अप्सरः सम्बन्धेनास्य जनन्यत्र देवगुरोस्तपोवने प्रसूता।
राजा – (अपवार्य) हन्त, द्वितीयमिदमाशाजननम्। (प्रकाशम्) अथ सा तत्रभवती किमाख्यस्य राजर्षेः पली?

शब्दार्थाः –
विरमयितुं = रुक नहीं सकता। वर्णचित्रितो = रंगों से रँगा हुआ। तमस्योपहर = उसे इसके लिए भेंट कर दे या लेआ। शक्य = समर्थ (सकता)। वाचामात्रेण = वाणी मात्रेण (कहने मात्र से)। मदीये = मेरे। उटजे = कुटीरे (कुटिया में)। उपहर = आनय (ले आ)। पाश्र्वम् = निकटम् (पास में)। एहि = आगच्छ (आओ)। डिम्भलीलया = बालक्रीडया (खेल ही खेल में)। बाध्यमानम् = पीड्यमानम् (पीड़ित किए जाते हुए को)। खिल्वयं ऋषि कुमारः = निःसन्देह यह ऋषि कुमार नहीं है। चेष्टितम् = क्रियाकलापम्। स्थानप्रत्ययात् = स्थानस्य विश्वासात् (स्थान के विश्वास के कारण)। तर्किणः = चिन्तयन्तः (सोचते हुए)। यथाभ्यर्थितम् = यथा इच्छितम् (जैसी प्रार्थना की गई थी, जैसा चाहते थे)। अनुतिष्ठति = करोति (करता है)। चेत = यदि। व्यपदेशः = वंशः (कुल)। अन्वयः = वंश (कुल)। आत्मगत्या = स्वेच्छया (अपनी इच्छा से)। विषयः = देशः (स्थान)। अपवार्य = मुखमपसार्य (मुँह हटाकर)। आशाजननम् = आशाप्रदम् (आशा बँधाने वाला)। किमाख्यस्य = कि नाम्नः (किस नाम के)। प्रसूता = अजनमत् (पैदा किया)। अप्सरः = देवांगना (अप्सरा)।

हिन्दी अनुवादः
दूसरी – अरी सुव्रता, यह कहने मात्र से नहीं रुक सकता। तुम मेरी कुटिया में जाओ (वहाँ) मार्कण्डेय ऋषिकुमार का रंगों से रँगा हुआ मिट्टी का मोर रखा हुआ है, तू उसे ले आ।
पहली – ठीक है। (ऐसा कहकर निकल गई।)
बालक – तब तक इसी से खेलूंगा। (ऐसा कहकर तापसी की ओर देखकर हँसता है।)
तापसी – रहने दो, (खैर) मुझे तो यह गिनती में ही नहीं लाता। (बगल में देखकर) यहाँ ऋषि कुमारों में से कोई है? (राजा को देखकर) भलेमानुष, तो इधर आइए। खेल ही खेल में पीड़ित किए जाते हुए इस सिंह शावक को इससे मुक्त करा दीजिए।
राजा – (पास जाकर मुस्कराते हुए) अरे ओ ऋषिकुमार ! तापसी भद्रपुरुष! यह वास्तव में ऋषिकुमार नहीं है।
राजा – आकार की समानता और चेष्टाएँ भी ऐसा कहती हैं। स्थान के विश्वास के कारण ऐसा हमने सोचा था। (ऐसा कहकर, जैसी उससे प्रार्थना की थी वैसा करता है।) (बालक पर लाड़ करते हुए) यदि यह मुनि कुमार नहीं है तो इसका वंश कौन – सा है?
तापसी – पुरुवंश।
राजा – (स्वयं से, मन में) क्या मेरे ही एक वंश का है? (खुले में) स्वेच्छा से मनुष्यों के लिए यह स्थान नहीं है।
तापसी – जैसा भद्रपुरुष कहते हैं (वही सही है) अप्सरा के सम्बन्ध से इसकी माँ ने इसे देवगुरु मरीच के आश्रम में इसे जन्म दिया है।
राजा – (मुँह हटाकर) आश्चर्य है, यह दूसरी आशा बँधाने वाला है। (खुले में) तो वह श्रीमती किस नाम के राजा की धर्म पत्नी है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य – पुस्तकस्य’ जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयं महाकवि कालिदास – विरचितात् अभिज्ञान शाकुन्तलात्’ सङ्कलितः अस्ति। अस्मिन् नाट्यांशे नृप दुष्यन्तस्य तापसीभ्याम् बालकेन सर्वदमनेन च सार्धम् संवादं प्रवर्तते। अत्र बालकस्य चापल्यं साहसं किञ्चित् परिचयमपि प्रस्तुतम्
(यह नाट्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य – पुस्तक के ‘जृम्भस्व सिंह। दन्तांस्ते गणयिष्ये’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ मूलतः महाकवि कालिदास – रचित अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक से संकलित है। इसमें बालक सर्वदमन और दो तापसियों के साथ राजा दुष्यन्त का संवाद चलता है। यहाँ बालक की चपलता, साहस और कुछ परिचय प्रस्तुत किया गया है – )

व्याख्याः
द्वितीय तापसी – सुव्रते! एषः मात्र कथनेन न अवरुद्धं शक्नोति। त्वम् इतः याहि मम, कुटीरे मृकण्ड – सुतस्य ऋषिकुमार मार्कण्डयेन निर्मितः विविध वर्णचित्रित: मृत्तिकाया: मयूरः स्थितः अस्ति। तमत्र आनय अस्मै कुमाराय च उपाय उपहरक्रीडनाय।
प्रथमा तापसी – अस्तु इत्युक्त्वा बहिर्गच्छति।
बालकः – तावत् अनेन एव सिंहशावकेन क्रीडिष्यामि। (इत्युक्त्वा तपस्विनीम् अवलोक्य विहसति)।
तापसी – अस्तु न एषः माम् गणयति अर्थात् एषः माम् तु उपेक्षते। (समीपे दृष्ट्वा) अपि कश्चित् अत्र ऋषिकुमारेषु उपस्थितोऽस्ति। (नृपं दृष्ट्वा) महाशय तर्हि आगच्छ! एनं सिंहशावकं क्रीडायामेव परिगृहीतम् क्लिश्यमानये अस्य सर्वदमनस्य पाशात् मोचय।
नृपः – समीपं प्राप्य (गत्वा) (स्मित्या सहितम्) अरे, रे महर्षिपुत्र!
तापसी – महाशयः नासौ कस्यापि ऋर्षेः सुतः निश्चप्रचम्।
नृपः – अस्य शारीरिक सौन्दर्यं शारीरिक चेष्टाः गठनं चापि एवम् एव अवबोधयति यत् असौ न ऋषि कुमारः। परञ्च अत्र आश्रम वासेन वयं एवम् अचिन्तयाम। आश्रमस्थले निवासतात् वयम् एवम् अनुमितम्। (एवमुक्त्वा यथा असौ प्रार्थितः तेनैवानुरूपेण कार्य सम्पादयति।)।
नृपः – (बालकं सस्नेहम् लालयित्वा) यदि अयं ऋषिकुमारः नास्ति तदा अस्य कः वंशः अर्थात् असौ कस्मिन् कुले जातः?
तापसी – असौ पुरुवंशे जातः।
नृपः – (आत्मानमेव) किम् आवयोः उभयोः एक एव वंशः। (स्पष्टम्) परन्तु अत्र वने राजन्यः स्वेच्छया तु नैवागच्छति पुनः कथम् एषः पुरुवंशीयः सञ्जातः?
तापसी – यथा भद्रपुरुष कथयतु सत्यमेव। अप्सर: सम्बन्धेनास्य जनन्यत्र देवगुरोस्तपोवने प्रसूता।
नृपः – (मुखं परिवृत्य अन्यम् न श्रावयित्वा) ओह, एतत् तु अन्यत् (अपरं) आशाकरम् प्रमाणम् (स्पष्टम्) तर्हि सा देवी कस्य नृपतेः धर्मदार:? इति ज्ञातव्यम्।

हिन्दी अनुवाद
दूसरी तापसी – अरी सुवृता ! यह कहने मात्र से मानने वाला नहीं है। तू यहाँ से जा, मेरी कुटिया (झोंपड़ी) में। मृकण्ड के पुत्र ऋषि कुमार मार्कण्डेय का बनाया हुआ, विविध रंगों से चित्रित मिट्टी का मोर रखा हुआ है। उसे यहाँ लाकर इसे कुमार को खेलने के लिए उपहारस्वरूप भेंट कर दो।
पहली – तापसी – ठीक है, ऐसा कहकर बाहर निकल जाती है।
बालक – तो तब तक इससे ही खेल लेता हूँ। ऐसा कहकर तपस्विनी को देखकर हंस जाता है।
तापसी – खैर ये मुझे तो गिनती में ही नहीं लाता। यह तो मेरी उपेक्षा करता है। (पास में देखकर) क्या कोई ऋषि कुमार यहाँ उपस्थित है? (राजा को देखकर) महाशय ! तो आइये। इस सिंह के बच्चे को खेल ही खेल में पकड़े हुए को कष्ट दिये जाते हुए को इस सर्वदमन के पाश से मुक्त कराओ।
राजा – (समीप पहुँचकर मुस्कराहट के साथ) अरे ओ महर्षिपुत्र!
तापसी – महाशय! यह निश्चय ही किसी महर्षि का पुत्र नहीं है।
रोजा – इसके शरीर को सौन्दर्य, शरीर की चेष्टाएँ और गठन भी ऐसे ही समझाता है कि यह कोई ऋषि कुमार नहीं है। परन्तु यहाँ आश्रम में रहने से हमने ऐसा सोचा था। आश्रम स्थल में निवास होने के कारण हमने ऐसा अनुमान लगाया था। (ऐसा कहकर जैसे उससे प्रार्थना की गई थी उसी के अनुरूप कार्य सम्पन्न करता है। राजा
राजा – (बालक को स्नेहपूर्वक लाड़ करके) यदि यह ऋषिकुमार नहीं है तो इसका कौन सा वंश है।
अर्थात् यह किस कुल में पैदा हुआ है?
तापसी: – वह पुरुवंश में पैदा हुआ है।
राजा – (अपने आपसे) क्या हम दोनों एक ही वंश के हैं? (खुले में) परन्तु यहाँ वन में क्षत्रीय स्वेच्छा से तो आता नहीं फिर यह कैसे पुरुवंशीय हो गया। तापसी जैसा आप सज्जन पुरुष कहते हैं, सत्य ही है। अप्सरा के संबंध में इसकी माँ ने इसे देवगुरु मरीच के आश्रम में जन्म दिया है।
राजा – (मुँह फेरकर, अन्य को न सुनाकर) अरे यह तो और दूसरी आशा किरण है कि आशा पूरी करने वाला प्रमाण है। तो यह देवी किस राजा की धर्मपत्नी है? यह जानना चाहिए।)

व्याकरणिक बिन्दवः –
मोचयानेन – मोचय + अनेन (दीर्घ संधि)। कोऽस्य – कः + अस्य। जनन्यत्र – जननी + अत्र (यण सन्धि)। देवगुरोस्तपोवने – देवगुरोः + तपोवने (विसर्ग सत्व)। देवानां गुरु:/देवेषु गुरुः (ष.स. तत्पुरुष)। तपः + वने – तपोवने।

3. तापसी –
कस्तस्य धर्मदारपरित्यागिनो नाम संकीर्तयितुं चिन्तयिष्यति?
राजा – (स्वगतम्) इयं खलु कथा मामेव लक्ष्यीकरोति। यदि तावदस्य शिशोर्मातरं नामतः पृच्छामि? अथवा अनार्यः परदारव्यवहारः। (प्रविश्य मृण्मयूरहस्ता)
तापसी – सर्वदमन, शकुन्तलावण्यं प्रेक्षस्व।
बालेः – (सदृष्टिक्षेपम्) कुत्र वा मम माता?
उभे – नाम सादृश्येन वंचितो मातृवत्सलः।
द्वितीया – वत्स, अस्य मृत्तिकामयूरस्य रम्यत्वं पश्येति भणितोऽसि।
राजा – (आत्मगतम्) किं वा शकुन्तलेत्यस्य मातुराख्या। सन्ति पुनर्नामधेयसादृश्यानि।
बालः – मातः। रोचते मे एष भद्रमयूरः। (इति क्रीडनकमादत्ते)
प्रथमा – (विलोक्य, सोद्वेगम्) अहो, रक्षाकरण्डकमस्य मणिबन्धे न दृश्यते।
राजा। – अलमावेगेन। नन्विदमस्य सिंहशावकविमर्दात् परिभ्रष्टम्। (इत्यादातुमिच्छति)
उभे – मा खल्वेतदवलम्ब्य! कथं? गृहीतमनेन? (इति विस्मयाद परस्परमवलोकयतः।)
राजी – किमर्थं प्रतिषिद्धाः स्म:?

शब्दार्थाः –
धर्मदारपरित्यागिनः = धर्मपत्न्याः परित्यागिन: (धर्मपत्नी को त्यागने वाले का)। शकुन्तलावण्यं = पक्षिणः सौन्दर्यम् (पक्षी की सुन्दरता को)। रम्यत्वम् = सौन्दर्यम् (सुन्दरता को)। मातुराख्या = मातु:/जनन्याः नाम/अभिधानम्। मधेयसादृश्यानि = नाम्नः समानताः (नाम की समानता)। आदत्ते = गृह्णाति (ले लेता है)। रक्षाकरण्डकम् – रक्षार्थम्। भभिमन्त्रितम् औषधि – सूत्रम् (रक्षा के लिए गण्डा)। परिभ्रष्टम् = पतितम् (गिर गया)। आदातुम् = उत्थापयितुं गृहीतुम् लेना उठाना)।

हिन्दी अनुवाद
तापसी – धर्मपत्नी का परित्याग करने वाले उसका नाम बोलने की बात कौन सोचेगा?
राजा – (मन में) यह कहानी तो मेरी ओर ही संकेत कर रही है। यदि (ऐसी बात है) तो इस बालक की माँ का नाम पूछता हूँ। अथवा पराई स्त्री के साथ (नाम आदि पूछने का) व्यवहार आर्योचित नहीं है। (मिट्टी का मोर हाथ में लिए प्रवेश करके)
तापसी – सर्वद्रमन! पक्षी के सौन्दर्य (शकुन्तलावण्य) को देखो।
बालक – (निगाह फेंकते हुए) कहाँ है मेरी माता?
दोनों – नाम की समानता के कारण बालक धोखा खा गया।
दूसरी – बेटा, इस मिट्टी के मोर की सुन्दरता देख, ऐसा कहा गया है।
राजा – (मन ही मन) अथवा क्या इसकी माँ का नाम शकुन्तला है। फिर नाम का सादृश्य (समानता) तो बहुत मिलती है।
बालक : – माँ! यह सुन्दर मोर मुझे अच्छा लगता है। (ऐसा कहकर खिलौना ले लेता है।)
पहली – (देखकर, उद्विग्न) अरे रक्षा का गण्डा तो इसकी कलाई में दिखाई ही नहीं देता।
राजा – घबराओ मते। अरे यहं इसके सिंह के बच्चे से संघर्ष करने के कारण गिर गया था। (ऐसा कहकर उठाना चाहता है।)
दोनों – इसे उठाओ मत। क्या? इसने तो उठा लिया? (इस प्रकार आश्चर्य से आपस में देखते हैं।)
राजा – हमें किसलिए रोका गया था?

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या
प्रसङ्गः – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य – पुस्तकस्य ‘जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयं महाकवि कालिदास – विरचितात् अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाम नाटकात् सङ्कलितः। नाट्यांशेऽस्मिन् तापसीभ्यां सह नृपस्य सर्वदमन विषये संवादः प्रवर्तते। सिंह शावकं मोचयितुम् तापसी मृणमयूरं नेतुं गच्छति। तदैव बालकस्य रक्षा करण्डकः पतित, नृपः तत् करण्डके उत्थापयितुम् इच्छति।

(यह नाट्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्य – पुस्तक के ‘जुम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ महाकवि कालिदास – विरचित अभिज्ञान शाकुन्तलं’ नाम के नाटक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में दो तापसियों के साथ राजा का सर्वदमन के विषय में संवाद चल रहा है। सिंह शावक को छुड़ाने के लिए तापसी मिट्टी का मोर लेने जाती है तभी बालक का रक्षा का गण्डा गिर जाता है। राजा उस गण्डे को उठाना चाहता है।)

व्याख्याः –
तापसी नृपं दुष्यन्तं कथयति – अमुष्य स्वस्य धर्मपत्न्याः परित्यागं कर्तुः अभिधानं नामस्य विषये कः चिन्तयिष्यति। यतः तस्य अभिधानं यदि मुखेन कथयिष्यते तर्हि पापम् एव भविष्यति। एवं तस्य नाम अशुभम् एव।
राजा – अयं सन्दर्भ: तु मां प्रति सङ्केतयति। यदि एवं तर्हि अस्य बालकस्य मातुः नाम ज्ञातुं इच्छामि। अथवा परेषां स्त्रीणां नामादि पृच्छा अधमा भवति। अत: अस्याः नामादीनां विषये अन्वेषणं अपि अनुचितम्। (तदैव तापसी मृत्तिकाया मयूरं हस्ते नीत्वा प्रविशति।)
तापसी – सर्वदमन, वत्स! शकुन्तलावण्यं पश्य अर्थात् खगस्य (मयूरस्य) सौन्दर्य अवलोकय।
बालकः – (अवलोक्य) में माता कुत्र वर्तते। अत्र बालकः तपस्विन्या: वाक्यं श्रुत्वा भ्रान्तः जायते यतोऽसौ ‘शकुन्तलावण्यं’ अर्थात् शकुन्तायाः लावण्यं पश्य’ इति अर्थं गृह्णाति।
उभे – अभिधान समानतया मातृ – स्निग्ध: बालकः भ्रान्तः जातः अतः एव कथयति।
द्वितीया – पुत्र, एतस्य मृत्तिकया निर्मितस्य शिखिनः रमणीयताम् अवलोकय इति अहं वदामि।
राजा – (मनसि) अपि अस्य जनन्याः अभिधानं शकुन्तला अस्ति? नाम सादृश्यं तु सर्वस्य भवति।
बालः – मातः! अयं रम्यः शिखी मह्यं रोचते। (एवम् उक्त्वा क्रीडनकं गृह्णाति।)।
प्रथमा – (अवलोक्य उत्तेजितः सन्) अरे आश्चर्यम्! रक्षासूत्रम् तु एतस्य प्रकोष्ठे दृष्टिगतं न भवति।
राजा – उत्तेजना या आवश्यकता ने वर्तते। इदं करण्डक तु सिंह – शिशुना सह संघर्षात् अध: पतितम् आसीत्। (इत्युक्वा। करण्डकं ग्रहीतुम् इच्छति।) उभेन एतत् ग्रहीतव्यम्। किम्, इदन्तु एतेन गृहीतम् (इति आश्चर्यचकित: सति। अन्योऽन्यं पश्यतः।)
राजा – कस्मात् – अस्मान् करण्डक गृह्णात् वारयति स्म?

हिन्दी अनुवाद –
(तापसी राजा दुष्यन्त से कहती है – इस धर्मपत्नी का परित्याग करने वाले का नाम लेने की बात कौन सोचेगा। क्योंकि उसका नाम कोई अपने मुख से कहेगा तो पाप ही होगा। इस प्रकार इसका नाम अशुभ ही है।
राजा – यह प्रसंग तो मेरी ओर ही संकेत कर रहा है। यदि ऐसी बात है तो इस बालक की माँ का नाम जानना चाहता हूँ। अथवा दूसरों की स्त्रियों के नामादि के बारे में पूछना अधम कार्य है। अतः इसके नाम आदि के विषय में पूछना (खोज करना) अनुचित ही है। (तभी तापसी हाथ में मिट्टी का मोर लेकर प्रवेश करती है।)
तापसी – सर्वदमन, बेटा ! शकुन्त (पक्षी) के लावण्य (सौन्दर्य) को देख।
बालक – (देखकर) कहाँ है मेरी माता? यहाँ बालक तापसी के वाक्य को सुनकर भ्रमित हो जाता है। क्योंकि वह शकुन्तला (शकुन्तला के) वण्यं (सौन्दर्य) को देखो’ ऐसा अर्थ ग्रहण करता है।
दोनों – नाम की समानता के कारण माँ का प्यारा बालक भ्रान्त हो गया, इसलिये ऐसा कहता है।
दूसरी – पुत्र! इस मिट्टी से बने हुए मोर की सुन्दरता को देखो। मैं ऐसा कह रही हूँ।
राजा – (मन में) क्या इसकी माता का नाम शकुन्तला है? नाम की समानता तो सब जगह होती है।
बालक – माँ, यह सुन्दर मोर मुझे अच्छा (रुचिकर) लगता है। ऐसा कहकर खिलौने को उठा लेता है।
पहली – (देखकर, उत्तेजित हुई) अरे अचम्भे की बात है। रक्षासूत्र तो इसकी कलाई में दृष्टिगत ही नहीं होता है।
राजा – उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है। यह गण्डा (रक्षासूत्र) तो सिंह शावक के साथ संघर्ष करते समय नीचे गिर गया था। (ऐसा कहकर वह रक्षासूत्र को ग्रहण करना चाहता है।
दोनों – इसे नहीं लेना चहिये। क्या, यह तो इसने उठा लिया। इस प्रकार आश्चर्यचकित हुई एक दूसरी को देखती हैं।
राजा – इस करण्डक को ग्रहण करने से आप हमें क्यों रोक रही थीं?

व्याकरणिक बिन्दवः –
मातुराख्या – मातुः + आख्या (विसर्ग रुत्व)। नामौषधिरस्य – नाम + औषधिः + अस्य (वृद्धि संधि तथा विसर्ग रुत्व सन्धि)। पश्येति – पश्य + इति (गुण संधि)।

4.
प्रथमा – शृणोतु महाराज:! एषाऽपराजिता नामौषधिरस्य जातकर्मसमये भगवता मारीचेन दत्ता। एतां किल मातापितरावात्मानं च वर्जयित्वाऽपरो भूमिपतितां न गृह्णाति।
राजा – अथ गृह्णाति?
प्रथमा – ततस्तं सर्पो भूत्वा दशति।
राजा – भवतीभ्यां कदाचिदस्याः प्रत्यक्षीकृता विक्रिया? उभे अनेकशः।
राजा – (सहर्षम् आत्मगतम्) कथमिव सम्पूर्णमपि मे मनोरथं नाभिनन्दामि? (इति बालं परिष्वजते)।
बालः – मुञ्च माम्। यावन्मातुः सकाशं गमिष्यामि।
राजा – पुत्रक, मया सहैव मातरमभिनन्दिष्यसि।
बालः – मम खलु तातो दुष्यन्तः। न त्वम्।
राजा – (सस्मितम्) एष विवाद एव प्रत्याययति।

शब्दार्थाः
जातकर्मसंमये = जातकर्म संस्कारस्य काले (जन्म संस्कार के समय)। वर्जयित्वा = त्यक्त्वा (अलावा)। विक्रिया = प्रतिक्रिया। विकारः = विकृति। अनेकशः = अनेकवारम् (बहुवार)। परिष्वजते = आलिंगनं करोति (गले लगाता है)। यावन्मातुः = जब तक मुझ/मैं माँ। सकाशम् = निकटम् (साथ)। प्रत्याययति = विश्वासमुत्पादयति (विश्वास पैदा करता है/समाप्त हुआ)। सस्मितम् = स्मृत्यासहितम् (मुस्कराते हुए)।

हिन्दी अनुवाद –
प्रथमा – सुनो महाराज! यह अपराजिता (जिसे जीता नहीं जा सकता) नाम की औषधि भगवान मारीच ने इसके जातकर्म संस्कार के समय दी थी। वास्तव में इसे माता – पिता और स्वयं इसके अलावा दूसरा कोई धरती पर गिरी हुई को उठा नहीं सकता। ले नहीं सकता।
राजा – यदि उठा लेता है तो?
पहली – तब उसको साँप बनकर काट (डस) लेता है।
राजा – आपने कभी इसके विकार या प्रतिक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से देखा है?
दोनों – अनेक बार।
राजा – (हर्ष के साथ अपने आपसे) मैं अपने पूरे हुए मनोरथ का अभिनन्दन क्यों न करूं। (इस प्रकार कहकर वह बालक का आलिंगन करता है अर्थात् गले लगाता है)
बाल – मुझे छोड़ दो। जब तक मैं माँ के पास जाऊँगा।
राजा – बेटा, मेरे साथ माँ का अभिनन्दन करेगा।
बाल – मेरे पिताजी दुष्यन्त हैं। तुम नहीं।
राजा – (मुस्कराहट के साथ) यह विवाद ही विश्वास दिलाता है।

♦ सप्रसंग संस्कृत व्यारव्या।
प्रसङ्गः – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं ‘स्पन्दना’ इति पाठ्य – पुस्तकस्य ‘जृम्भस्व सिंह’ दन्तांस्ते गणयिष्ये’ इति पाठात् उद्धृतः। पाठोऽयं महाकवि कालिदास – विरचितात् ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ इति नाटकात् संकलितः। अस्मिन् नाट्यांशे सर्वदमनः शकुन्तला – दुष्यन्तयोः एव पुत्रः इति स्पष्टं भवति। सर्वदमनः स्पष्टमेव कथयति यत् मम पिता तु दुष्यन्तः।

(यह नाट्यांश हमारी ‘स्पन्दना’ पाठ्यपुस्तक के ‘जृम्भस्व सिंह! दन्तांस्ते गणयिष्ये’ पाठ से उद्धृत है। यह पाठ महाकवि कालिदास विरचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ नाटक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में सर्वदमन शकुन्तला और दुष्यन्त का पुत्र है, यह स्पष्ट हो जाता है। सर्वदमन यह स्पष्ट ही कह देता है – मेरे पिताजी तो दुष्यन्त हैं – )

व्याख्याः
प्रथमा – निशाम्यतु अधिपः। इयम् ‘अपराजिता नाम्’ औषधि, जन्मकाले जात – कर्म संस्कारे भगवान् कश्यपः एनां दत्तवान्। इमाम् औषधिं पितरौ आत्मानं च भिन्नः कोऽपि पृथिव्यां पतितां न ग्रहीतुं शक्नोति।
राजा – यदि गृह्णाति तदा किं भवति?।
प्रथमा – ततः तं जनं नागस्य रूपं धृत्वा दशति।
राजा – किं युष्माभिः एवं एतस्याः विकारं साक्षात् दृष्टम्?
उभे – अनेषु कालेषु अस्माभिः एषः विकारः स्व नेत्राभ्याम् दृष्टः।
राजा – (हर्षेण सह स्वगतम्) कथं नु अहं मे सफलं (संपन्नं) मनषोभिलाषां न अभिवादयामि। कथं न अस्याः उपलब्ध्याः स्वागतं करोमि। एवं विचार्य असौ नृपः बालकं सर्वदमन आलिङ्गनं करोति।
बालकः – माम् मुक्ति प्रदेहि। यावत् अहं मम मातुः समीपे गमिष्यामि।
राजा – वत्स, मया सार्धमेवात्मनः जननीम् अभिनन्दय।
बालकः – वस्तुत: दुष्यन्तः मे जनकः। न भवान्।
राजा – स्मितेन सह विहसन् वा, एतत्तु विवादमेव निराकृतः। एतद्वचनं मयि विश्वासम् उत्पादयति।

हिन्दी अनुवाद –
प्रथमा – (सुनो महाराज ! यह अपराजिता नाम की औषधि है। जन्म के समय जातकर्म संस्कार पर भगवान् कश्यप ने इसको दिया था। धरती पर पड़ी हुई इस औषधि को माता – पिता और स्वयं के अतिरिक्त कोई भी ग्रहण नहीं कर सकता।
राजा – यदि ग्रहण करे तो क्या होता है?
पहली – तब उस व्यक्ति को नाग का रूप धारण कर डश लेती है।
राजा – क्या तुमने इस प्रकार के इसके विकार को अपनी आँखों से देखा है?
दोनों – हाँ, अनेकों बार हमने इसका यह विकार को अपनी आँखों से देखा है?
राजा – (प्रसन्नता के साथ मन में) क्यों न मैं अपने सफलतापूर्वक सम्पन्न मनोरथ (मन की अभिलाषा) का अभिनन्दन करूं? क्यों नहीं इस उपलब्धि का स्वागत करू। ऐसा विचार करके वह राजा बालक सर्वदमन को गले लगा लेता है।
बालक – मुझे छोड़ो। मैं अपनी माँ के पास जाऊँगा।
राजा – बेटा, मेरे साथ अपनी माता का अभिवादन करना।
बालक – वास्तव में मेरे पिताजी तो दुष्यन्त हैं।
राजा – (मुस्कराहट के साथ) तो यह विवाद ही समाप्त हुआ। यह वचन मुझमें (मेरे हृदय में) विश्वास पैदाकरता है।)

व्याकरणिक बिन्दवः –
मातापितरावात्मानम् – मातापितरौ + आत्मानम् च अयादि संधि। सदैव – सद् + एव (वृद्धि संधि)

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