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RBSE Class 10 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद्

RBSE Class 10 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद्

प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Summary and Translation in Hindi

पाठ परिचय :

प्रस्तुत नाट्यांश महाकवि विशाखदत्त द्वारा रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। नन्दवंश का विनाश करने के बाद उसके हितैषियों को खोज-खोजकर पकड़वाने के क्रम में चाणक्य अमात्य राक्षस एवं उसके कुटुम्बियों की जानकारी प्राप्त करने के लिए चन्दनदास से वार्तालाप करता है किन्तु चाणक्य को अमात्य राक्षस के विषय में कोई सुराग न देता हुआ चन्दनदास अपनी मित्रता पर दृढ़ रहता है। उसके मैत्री भाव से प्रसन्न होता हुआ भी चाणक्य जब उसे राजदण्ड का भय दिखाता है, तब चन्दनदास राजदण्ड भोगने के लिये भी सहर्ष प्रस्तुत हो जाता है। इस प्रकार अपने सुहृद् (मित्र) के लिए प्राणों का भी उत्सर्ग करने के लिए तत्पर चन्दनदास अपनी सुहृद्-निष्ठा का एक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत करता है।

पाठ के नाट्यांशों का सप्रसंग हिन्दी-अनुवाद-

1. चाणक्यः – वत्स मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि।
शिष्यः – तथेति (निष्क्रम्य चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इतः इतः श्रेष्ठिन्। (उभौ परिक्रामतः)
शिष्यः – (उपसृत्य) उपाध्याय! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः।
चन्दनदासः – जयत्वार्यः।
चाणक्यः – श्रेष्ठिन्! स्वागतं ते। अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभा?
चन्दनदासः – (आत्मगतम्) अत्यादरः शङ्कनीयः। (प्रकाशम्) अथ किम्। आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता मे वणिज्या।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः, किं कियत् च अस्मज्जनादिष्यते इति।

कठिन शब्दार्थ :

  • मणिकारश्रेष्ठिनम् = रत्नों के व्यापारी को (रत्नकारं वणिजम्)।
  • इदानीम् = इस समय (अधुना)।
  • निष्क्रम्य = निकलकर (बहिर्गत्वा)।
  • इतः = इधर (अत्र)।
  • परिक्रामतः = (दोनों) परिभ्रमण करते हैं (परिभ्रमणं कुर्वतः)।
  • उपसृत्य = पास जाकर (समीपं गत्वा)।
  • प्रचीयन्ते = बढ़ रहे हैं (वृद्धिं प्राप्नुवन्ति)।
  • संव्यवहाराणाम् = व्यापारों का (व्यापाराणाम्)।
  • आत्मगतम् = मन ही मन (स्वगतम्)।
  • अत्यादरः = अत्यधिक आदर (अत्यधिकः सम्मानः)।
  • शङ्कनीयः = शंका करने योग्य (सन्देहास्पदम्)।
  • प्रकाशम् = प्रकट रूप से (प्रकटम्)।
  • प्रसादेन = प्रसन्नता से (कृपया)।
  • अखण्डिता = बाधा रहित (निर्बाधा)।
  • वणिज्या = व्यापार (वाणिज्यम्)।
  • प्रीताभ्यः = प्रसन्न लोगों से (प्रसन्नाभ्यः)।
  • प्रकृतिभ्यः = प्रजाजनों से (प्रजाजनेभ्यः)।
  • प्रतिप्रियम् = प्रत्युपकार, उपकार के बदले किया गया उपकार (प्रत्युपकारम)।
  • आज्ञापयत = आज्ञा दीजिए (आदिशत)।
  • कियत (कियन्मानम्)। इष्यते = चाहते हैं, चाहा गया है (आज्ञां दीयते)।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी-द्वितीयो भागः’ के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत किया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त विरचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अंक से संकलित है। इस अंश में चाणक्य एवं चन्दनदास का वार्तालाप है, जिसमें अमात्य राक्षस के मित्र चन्दनदास को विरोधी प्रधानमंत्री चाणक्य के द्वारा आदर-सत्कार करने से सन्देह उत्पन्न होता है।

हिन्दी अनुवाद –

  • चाणक्य – वत्स! रत्नों के व्यापारी चन्दनदास को इस समय मैं देखना चाहता हूँ।
  • शिष्य – ऐसा ही होगा। (निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) इधर से, इधर से सेठजी! (दोनों घूमते हैं)
  • शिष्य – (पास जाकर) हे उपाध्याय ! यह सेठ चन्दनदास हैं।
  • चन्दनदास – आर्य की जय हो। चाणक्य-हे सेठ! तुम्हारा स्वागत है। क्या व्यापार में वृद्धिगत लाभ बढ़ रहे हैं ?
  • चन्दनदास – (मन ही मन) अत्यधिक आदर शंका करने योग्य होता है। (प्रकट रूप से) और क्या। आर्य की प्रसन्नता (कृपा) से मेरा व्यापार बाधा रहित चल रहा है।
  • चाणक्य – हे सेठ! प्रसन्न प्रजाजनों से राजा लोग भी प्रत्युपकार चाहते हैं।
  • चन्दनदास – हे आर्य! आदेश दीजिए, क्या और कितना हमसे चाहिए।

2. चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम्। नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति।
चन्द्रगुप्तस्य तु भवताम-परिक्लेश एव।
चन्दनदासः – (सहर्षम्) आर्य! अनुगृहीतोऽस्मि।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति इति ननु भवता प्रष्टव्याः स्मः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः।
चाणक्यः – राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।
चन्दनदासः – आर्य! कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते ?
चाणक्यः – भवानेव तावत् प्रथमम्।
चन्दनदासः – (कर्णी पिधाय) शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। कीदृशस्तृणानामग्निना सह विरोधः?
चाणक्यः – अयमीदृशो विरोधः यत् त्वमद्यापि राजापथ्यकारिणोऽमात्य-राक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे
रक्षसि। चन्दनदासः – आर्य! अलीकमेतत्। केनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्।

कठिन शब्दार्थ :

  • अर्थसम्बन्धः = धन का सम्बन्ध (धनस्य सम्बन्धः)।
  • प्रीतिमुत्पादयति = प्रसन्नता उत्पन्न करता है (स्नेहं जनयति)।
  • अपरिक्लेशः = दुःख न होना, सुख (दुःखाभावः)।
  • आविर्भवति = उत्पन्न होता है (उत्पन्नं भवति)।
  • ननु = निश्चय ही (निश्चयेन)।
  • प्रष्टव्याः = पूछने योग्य (प्रष्टुं लोग्याः)।
  • अविरुद्धवृत्तिः = विरोधरहित स्वभाव वाला (अविरुद्धस्वभावः)।
  • अवगम्यते = जाना जाता है (ज्ञायते)।
  • पिधाय = बन्द करके (आच्छाद्य)।
  • तृणानामग्निना सह = तिनकों का अग्नि के साथ (अनलेन सह घासस्य)।
  • राजापथ्यकारिणः = राजाओं का अहित करने वाले (नृपापकारकारिषः)।
  • गृहजनम् = परिवार को (परिवारम्)।
  • अलीकम् = झूठ (असत्यम्)।
  • अनार्येण = दुष्ट के द्वारा (दुष्टेन)।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी-द्वितीयो भागः’ के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ शीर्षक पाठ से उद्धत है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त द्वारा रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अंक से संकलित किया गया है। इसमें चन्दनदास के रूप में सुहृद्-निष्ठा (मित्रता) का एक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत हुआ है। वह मित्र के लिए अपने प्राणों का भी उत्सर्ग करने हेतु तत्पर हो जाता है। इस अंश में चाणक्य अपने शत्रु राजा के अमात्य राक्षस एवं उसके परिवार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए चन्दनदास से वार्तालाप करता है।

हिन्दी अनुवाद –

  • चाणक्य – हे सेठ! यह चन्द्रगुप्त का राज्य है, नन्द का राज्य नहीं है। नन्द के राज्य में ही धन का सम्बंध प्रसन्नता को उत्पन्न करता है। चन्द्रगुप्त की तो प्रसन्नता आपके सुख में ही है।
  • चन्दनदास – (प्रसन्नतापूर्वक) आर्य ! मैं अनुगृहीत हूँ।
  • चाणक्य – हे सेठ! और वह सुख किस प्रकार उत्पन्न होता है, ऐसा निश्चय ही आपके द्वारा हमसे पूछने योग्य है।
  • चन्दनदास – हे आर्य ! आदेश दीजिए। चाणक्य-राजा के अनुकूल ही (विपरीत नहीं) व्यवहार करना चाहिए।
  • चन्दनदास – हे आर्य ! ऐसा कौन अभागा है जो कि राजा के विपरीत आपकी दृष्टि में आया है ?
  • चाणक्य – सर्वप्रथम तो आप ही हैं। चन्दनदास-(कानों को बन्द करके) पाप शान्त हो, पाप शान्त हो। तिनकों का अग्नि के साथ विरोध कैसा?
  • चाणक्य – यह विरोध ऐसा है कि तुम अब भी राजा (चन्द्रगुप्त) का अनिष्ट करने वाले अमात्य राक्षस के परिवार की अपने घर में रक्षा कर रहे हो।
  • चन्दनदास – हे आर्य! यह झूठ है। किसी दुष्ट के द्वारा आपसे कह दिया गया है।

3. चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! अलमाशङ्कया। भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं
निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति। ततस्तत्प्रच्छादनं दोषमुत्पादयति।
चन्दनदासः – एवं नु इदम्। तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
चाणक्यः – पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् ‘आसीत्’ इति परस्परविरुद्धे वचने।
चन्दनदासः – आर्य! तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षस्य गृहजन इति।
चाणक्यः – अथेदानी क्व गतः?
चन्दनदासः – न जानामि।
चाणक्यः – कथं न ज्ञायते नाम? भो श्रेष्ठिन्! शिरसि भयम्, अतिदूरं तत्प्रतिकारः।

कठिन शब्दार्थ :

  • अलमाशङ्कया = शंका मत कीजिए (सन्देहं मा कुरु)।
  • भीताः = डरे हुए (भयाक्रान्ताः)।
  • पूर्वराजपुरुषा : = पूर्व राजा के सैनिक।
  • पौराणाम् = नगर के लोगों के (नगरवासिनाम्)।
  • इच्छतामपि = चाहने वालों को भी (वाञ्छतामपि)।
  • निक्षिप्य = रखकर (स्थापयित्वा)।
  • देशान्तरम् = दूसरे देश में (परदेशम्)।
  • व्रजन्ति = जाते हैं (गच्छन्ति)।
  • प्रच्छादनम् = छिपाना (आच्छादनम्)।
  • उत्पादयति = उत्पन्न करता है (जनयति)।
  • अमात्यः = मन्त्री (मन्त्री)।
  • क्व = कहाँ (कुत्र)।
  • शिरसि = सिर पर (मस्तके)।
  • प्रतिकारः = उपाय (उपायः)।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी-द्वितीयो भागः’ के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त द्वारा रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अंक से संकलित किया गया है। इसमें चन्दनदास के रूप में सुहृद्-निष्ठा (मित्रता) का एक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत हुआ है। वह मित्र के लिए अपने प्राणों का भी उत्सर्ग करने हेतु तत्पर, हो जाता है। इस अंश में चाणक्य द्वारा चन्दनदास को भय दिखलाकर अमात्य राक्षस के परिवार के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया गया है।

हिन्दी अनुवाद –

  • चाणक्य – हे सेठ! आशङ्का मत करो। भयभीत पूर्व राजा के सैनिक नगरवासियों की इच्छा के अनुसार भी (इच्छा न होने पर भी) उनके घरों में अपने परिवार को छोड़कर दूसरे देश में चले जाते हैं। तदनन्तर उनको छिपाये रखना ही अपराध उत्पन्न करता है।
  • चन्दनदास – वास्तव में ऐसा ही है। उस समय मेरे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।
  • चाणक्य – पहले ‘झूठ है’, और इस समय ‘था’, ये दोनों वचन परस्पर में विपरीत हैं।
  • चन्दनदास – हे आर्य! उस समय ही मेरे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था। चाणक्य- और अब कहाँ गया?
  • चन्दनदास – नहीं जानता हूँ। चाणक्य-क्यों नहीं जानते हो? अरे सेठ! सिर पर भय है और उससे बचने का उपाय बहुत दूर है।

4. चन्दनदासः – आर्य! किं मे भयं दर्शयसि? सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षस्य गृहजनं न समर्पयामि, किं – पुनरसन्तम् ?
चाणक्यः – चन्दनदास! एष एव ते निश्चयः?
चन्दनदासः – बाढम्, एष एव मे निश्चयः।
चाणक्यः – (स्वगतम्) साधु! चन्दनदास साधु।
सुलभेष्वर्थलाभेषु, परसंवेदने जने।
क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना॥

श्लोक का अन्वय – परस्य संवेदने अर्थलाभेषु सुलभेषु इदं दुष्करं कर्म जने (लोके) शिविना विना क: कुर्यात्।

कठिन शब्दार्थ :

  • दर्शयसि = दिखाते हो (अवलोकयसि)।
  • सन्तमपि = रहने पर भी (विद्यमानमपि)।
  • गेहे = घर में (गृहे)।
  • गृहजनम् = पुत्र पत्नी आदि परिवार को (परिजनम्)।
  • असन्तम् = न रहने वाले (न निवसन्तम्)।
  • बाढम् = हाँ (आम्)।
  • परसंवेदने = दूसरों को समर्पित करने पर (परस्य समर्पणे कृते सति)।
  • अर्थलाभेषु = धन प्राप्त होने पर (धनप्राप्तेषु)।
  • जने = संसार में (लोके)।
  • दुष्करम् = कठिन कार्य को (कठिनम्)।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी-द्वितीयो भागः’ के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त द्वारा रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अंक से संकलित किया गया है। इसमें चन्दनदास के रूप में सुहृद्-निष्ठा (मित्रता) का एक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत हुआ है। वह मित्र के लिए अपने प्राणों का भी उत्सर्ग करने हेतु तत्पर हो जाता है। इस अंश में अपने मित्र धर्म के लिए प्राणों का भी उत्सर्ग करने हेतु तत्पर चन्दनदास की चाणक्य मन ही मन प्रशंसा करता है।

हिन्दी अनुवाद –

चन्दनदास – हे आर्य! आप मुझे क्या भय दिखा रहे हो? मेरे घर में अमात्य राक्षस के परिवार के होने पर भी मैं उसे समर्पित नहीं करूँगा, फिर नहीं होने पर तो क्या कर सकता हूँ?
चाणक्य – चन्दनदास! क्या यही तुम्हारा निश्चय है ?
चन्दनदास – हाँ, यही मेरा निश्चय है।
चाणक्य – (अपने ही मन में) शाबास चन्दनदास! शाबास। दूसरों की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन प्राप्त होने की स्थिति में भी दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक (दानवीर राजा) शिवि को छोड़कर दूसरा कौन कर सकता है?
श्लोक का आशय – इस श्लोक के द्वारा महाकवि विशाखदत्त ने बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में चन्दनदास के गुणों का वर्णन किया है। इसमें कवि ने कहा है कि दूसरों की वस्तु की रक्षा करनी कठिन होती है। यहाँ चन्दनदास के द्वारा अमात्य राक्षस के परिवार की रक्षा का कठिन काम किया गया है। न्यासरक्षण को महाकवि भास ने भी दुष्कर कार्य मानते हुए स्वप्नवासवदत्तम् में कहा है-दुष्करं न्यासरक्षणम्।

RBSE Class 10 Sanskrit प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरं लिखत
(क) कः चन्दनदासं द्रष्टुम् इच्छति?
(ख) चन्दनदासस्य वणिज्या कीदृशी आसीत् ?
(ग) किं दोषम् उत्पादयति?
(घ) चाणक्यः कं द्रष्टुम् इच्छति?
(ङ) कः शङ्कनीयः भवति
उत्तराणि-
(क) चाणक्यः
(ख) अखण्डिता
(ग) प्रच्छादनम्
(घ) चन्दनदासम्
(ङ) अत्यादरः।

प्रश्न 2.
अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत –
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए-)
(क) चन्दनदासः कस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षति स्म?
(चन्दनदास किसके परिवार की अपने घर में रक्षा करता था?)
उत्तरम् :
चन्दनदासः अमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षति स्म।
(चन्दनदास अमात्य राक्षस के परिवार की अपने घर में रक्षा करता था।)

(ख) तृणानां केन सह विरोधः अस्ति?
(तिनकों का किसके साथ विरोध है ?)
उत्तरम् :
तृणानाम् अग्निना सह विरोधः अस्ति।
(तिनकों का अग्नि के साथ विरोध है।)

(ग) पाठेऽस्मिन् चन्दनदासस्य तुलना केन सह कृता?
(इस पाठ में चन्दनदास की तुलना किसके साथ की गई है ?)
उत्तरम् :
पाठेऽस्मिन् चन्दनदासस्य तुलना शिविना नृपेण सह कृता।
(इस पाठ में चन्दनदास की तुलना राजा शिवि के साथ की गई है।)

(घ) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियं के इच्छन्ति ?
(प्रसन्न प्रजा से प्रत्युपकार कौन चाहते हैं ?)
उत्तरम् :
प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियं राजानः इच्छन्ति।
(प्रसन्न प्रजा से प्रत्युपकार राजा चाहते हैं।)

(ङ) कस्य प्रसादेन चन्दनदासस्य वाणिज्या अखण्डिता?
(किसकी कृपा से चन्दनदास का व्यापार विघ्नरहित है ?)
उत्तरम् :
आर्यस्य चाणक्यस्यं प्रसादेन चन्दनदासस्य वाणिज्या अखण्डिता।
(आर्य चाणक्य की कृपा से चन्दनदास का व्यापार विघ्नरहित है।)

प्रश्न 3.
स्थूलाक्षरपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) शिविना विना इदं दुष्करं कार्यं कः कुर्यात्।
(ख) प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृत्।
(ग) आर्यस्य प्रसादेन मे वणिज्या अखण्डिता।
(घ) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः राजानः प्रतिप्रियमिच्छन्ति।
(ङ) तृणानाम् अग्निना सह विरोधो भवति।
उत्तरम् :
प्रश्ननिर्माणम्
(क) केन विना इदं दुष्करं कार्यं कः कुर्यात् ?
(ख) प्राणेभ्योऽपि प्रियः कः?
(ग) कस्य प्रसादेन मे वाणिज्या अखण्डिता?
(घ) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः के प्रतिप्रियमिच्छन्ति?
(ङ) केषाम् अग्निना सह विरोधो भवति?

प्रश्न 4.
यथानिर्देशामुत्तरत
(क) ‘अखण्डिता मे वणिज्या’-अस्मिन् वाक्ये क्रियापदं किम् ?
उत्तरम् :
अखण्डिता।

(ख) पूर्वम् ‘अनृतम्’ इदानीम् ‘आसीत्’ इति परस्परविरुद्ध वचने-अस्मात् वाक्यात् ‘अधुना’ इति पदस्य समानार्थकपदं चित्वा लिखत।
उत्तरम् :
इदानीम्।

(ग) ‘आर्य! किं मे भयं दर्शयसि’ अत्र ‘आर्य’ इति सम्बोधनपदं कर युक्तम् ?
उत्तरम् :
चाणक्याय।

(घ) ‘प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः’ अस्मिन् वाक्ये कर्तृपदं किम् ?
उत्तरम् :
राजानः।

(ङ) तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे’ अस्मिन् वाक्ये विशेष्यपदं किम्?
उत्तरम् :
समये।

प्रश्न 5.
निर्देशानुसारं सन्धिं/सन्धिविच्छेदं कुरुत –
(क) यथा-कः + अपि = कोऽपि
उत्तरम् :
प्राणेभ्यः + अपि = प्राणेभ्योऽपि
सज्जः + अस्मि = सज्जोऽस्मि।
आत्मनः + अधिकारसदृशम् = आत्मनोऽधिकारसदृशम्।

(ख) यथा-सत् + चित् = सच्चित्
उत्तरम् :
शरत् + चन्द्रः = शरच्चन्द्रः
कदाचित् + च = कदाचिच्च।

प्रश्न 6.
कोष्ठकेषु दत्तयोः पदयोः शुद्धं विकल्पं विचित्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) ………. विना इदं दुष्करं कः कुर्यात्। (चन्दनदासस्य/चन्दनदासेन)
(ख) ………. इदं वृत्तान्तं निवेदयामि। (गुरवे/गुरोः)
(ग) आर्यस्य …………. अखण्डिता मे वाणिज्या। (प्रसादात्/प्रसादेन)
(घ) अलम्। ……… (कलहेन/कलहात्)
(ङ) वीरः ……….. बालं रक्षति। (सिंहेन/सिंहात्)
(च) ………. भीत: मम भ्राता सोपानात् अपतत्। (कुक्कुरेण/कुक्कुरात्)
(छ) छात्रः ………… प्रश्नं पृच्छति। (आचार्यम्/आचार्येण)
उत्तरम् :
(क) चन्दनदासेन
(ख) गुरवे
(ग) प्रसादेन
(घ) कलहेन
(ङ) सिंहात्
(च) कुक्कुरात्
(छ) आचार्यम्।

प्रश्न 7.
अधोदत्तमञ्जूषातः समुचितपदानि गृहीत्वा विलोमपदानि लिखत –
आदरः, असत्यम्, गुणः, पश्चात्, तदानीम्, तत्र.
उत्तरम् :
(क) अनादरः – आदरः
(ख) दोषः – गुणः
(ग) पूर्वम् – पश्चात्
(घ) सत्यम् – असत्यम्
(ङ) इदानीम् – तदानीम्
(च) अत्र – तत्र

प्रश्न 8.
उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितानि पदानि प्रयुज्य पञ्चवाक्यानि रचयत –
यथा – निष्क्रम्य-शिक्षिका पुस्तकालयात् निष्क्रम्य कक्षां प्रविशति।
उत्तरम् :
(क) उपसृत्य – छात्रः गुरुम् उपसृत्य तिष्ठति।
(ख) प्रविश्य – सः गृहं प्रविश्य कार्यं करोति।
(ग) द्रष्टुम् – अहं चलचित्रं द्रष्टमिच्छामि।
(घ) इदानीम् – इदानीम् त्वं कुत्र गमिष्यसि?
(ङ) अत्र – रमेशः अत्र पठति।

भाषिकविस्तारः

पृथक् और विना शब्दों के योग में द्वितीया, तृतीया और पंचमी तीनों विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
यथा-

  • जलं विना जीवनं न सम्भवति। – द्वितीया
  • जलेन विना जीवनं न सम्भवति। – तृतीया
  • जलात् विना जीवनं न सम्भवति। – पंचमी
  • परिश्रमं पृथक् नास्ति सुखम्। – द्वितीया
  • परिश्रमेण पृथक् नास्ति सुखम्। – तृतीया
  • परिश्रमात् पृथक् नास्ति सुखम्। – पंचमी

अनीयर् प्रत्ययप्रयोगः :

  • अत्यादरः – शङ्कनीयः
  • जन्तुशाला – दर्शनीया
  • याचकेभ्यः दानं – दानीयम्
  • वेदमन्त्राः – स्मरणीयाः

पुस्तकमेलापके पुस्तकानि क्रयणीयानि।

(क) अनीयर् प्रत्ययस्य प्रयोगः योग्यार्थे भवति।
(ख) अनीयर् प्रत्यये ‘अनीय’ इति अवशिष्यते।
(ग) अस्य रूपाणि त्रिषु लिङ्गेषु चलन्ति।
यथा –


इनके रूप क्रमशः देववत्, लतावत् तथा फलवत् चलेंगे।

उभ सर्वनामपदम् :

RBSE Class 10 Sanskrit प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Important Questions and Answers

भावार्थ-लेखनम् :

अधोलिखितश्लोकस्य संस्कृते भावार्थ लिखत-

सुलभेष्वर्थलाभेषु ………………………………. शिविना विना॥
उत्तरम् :
भावार्थः – चाणक्यः चन्दनदासस्य प्रशंसां कुर्वन् कथयति यत् यथा राज्ञा शिविना परोपकारार्थं कपोतरक्षणार्थं स्वशरीरमपि अर्पितम्, तथैव चन्दनदासः स्वमित्रस्य अमात्यराक्षसस्य गृहजनं राजदण्डं स्वीकृत्य अपि स्वगृहे रक्षति। वस्तुतः संसारे अर्थलाभेषु सुलभेषु परसंवेदने शिविना विना एतादृशं दुष्करं कोऽपि कर्तुं न प्रभवति।

अन्वय-लेखनम् :

मञ्जूषातः पदानि चित्वा अधोलिखितस्य श्लोकस्य अन्वयं पूरयत –

सुलभेष्वर्थलाभेषु …………………………….. शिविना विना॥
अन्वयः-परस्य (i) ………….. अर्थलाभेषु (ii) …………. इदं दुष्करं कर्म जने (लोके) (iii) …………. विना (iv) ……….. कुर्यात्।
मञ्जूषा :
शिविना, संवेदने, कः, सुलभेषु।
उत्तरम् :
(i) संवेदने, (ii) सुलभेषु, (iii) शिविना, (iv) कः।

संस्कृतमाध्यमेन प्रश्नोत्तराणि :

(अ) एकपदेन उत्तरत

प्रश्न 1.
प्राणेभ्योऽपि प्रियः कः?
उत्तरम् :
सुहृद्।

प्रश्न 2.
‘मुद्राराक्षसम्’ इति नाटकस्य रचयिता कः?
उत्तरम् :
महाकविः विशाखदत्तः।

प्रश्न 3.
केषां वृद्धिलाभाः प्रचीयन्ते?
उत्तरम् :
संव्यवहाराणाम्।

प्रश्न 4.
प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः राजानः किम् इच्छन्ति ?
उत्तरम् :
प्रतिप्रियम्।

प्रश्न 5.
चाणक्यानुसारेण कस्य एव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति?
उत्तरम् :
नन्दस्य।

प्रश्न 6.
अमात्यराक्षसस्य गृहजनं कः स्वगृहे रक्षति ?
उत्तरम् :
चन्दनदासः।

प्रश्न 7.
पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् ‘आसीत्’ इति कीदृशे वचने ?
उत्तरम् :
परस्परविरुद्ध।

प्रश्न 8.
चन्दनदासाय कः भयं दर्शयति?
उत्तरम् :
चाणक्यः।

(ब) पूर्णवाक्येन उत्तरत

प्रश्न 1.
‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ इति पाठः कुतः सङ्कलितः?
उत्तरम् :
इति पाठः महाकविविशाखदत्तविरचितस्य ‘मुद्राराक्षसम्’ इति नाटकस्य प्रथमाकाद् सङ्कलितः।

प्रश्न 2.
चाणक्यः कं द्रष्टुम् इच्छति स्म?
उत्तरम् :
चाणक्यः मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासं द्रष्टुम् इच्छति स्म।

प्रश्न 3.
राजानः केभ्यः प्रतिप्रियम् इच्छन्ति?
उत्तरम् :
राजानः प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियम् इच्छन्ति।

प्रश्न 4.
चाणक्यः कस्मिन् अविरुद्धवृत्तिः भवितुं कथयति?
उत्तरम् :
चाणक्यः राजनि अविरुद्धवृत्तिः भवितुं कथयति।

प्रश्न 5.
भीताः पूर्वराजपुरुषाः कुत्र व्रजन्ति?
उत्तरम् :
भीताः पूर्वराजपुरुषाः देशान्तरं व्रजन्ति।

प्रश्न 6.
चन्दनदासस्य गृहे कस्य गृहजनम् आसीत् ?
उत्तरम् :
चन्दनदासस्य गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजनम् आसीत्।

प्रश्न 7.
‘शिरसि भयम्, अतिदूरं तत्प्रतिकारः’ इति कः के प्रति कथयति?
उत्तरम् :
इति चाणक्यः चन्दनदासं प्रति कथयति।

प्रश्न 8.
चन्दनदास: केषु सुलभेषु अपि दुष्करं कर्म करोति ?
उत्तरम् :
चन्दनदासः अर्थलाभेषु सुलभेषु अपि दुष्करं कर्म करोति।

प्रश्ननिर्माणम् :

अधोलिखितवाक्येषु रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत

1. चाणक्यः चन्दनदासं द्रष्टुमिच्छति।
2. चन्दनदासः चाणक्यस्य शिष्येन सह आगच्छति।
3. चन्दनदासः चाणक्यम् उपसृत्य प्रणमति।
4. अत्यादरः शङ्कनीयः भवति।
5. आर्यस्य प्रसादेन मे वणिज्या अखण्डिता।
6. प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।
7. इदं चन्द्रगुप्तस्य राज्यमस्ति न तु नन्दस्य।
8. नन्दस्य अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति।
9. चन्द्रगुप्तस्य तु प्रजानामपरिक्लेश एव प्रीतिमुत्पादयति।
10. ‘अनुगृहीतोऽस्मि’ इति चन्दनदासः कथयति।
11. संव्यवहाराणां वृद्धिलाभाः प्रचीयन्ते।
12. ननु भवता प्रष्टव्याः स्मः।
13. राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।
14. तृणानाम् अग्निना सह विरोधः न भवति।
15. त्वम् अमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि।
16. केनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्।
17. तत्प्रच्छादनं दोषम् उत्पादयति।
18. शिरसि भयम्, अतिदूरं तत्प्रतिकारः।
19. अमात्यराक्षसस्य गृहजनं न समर्पयामि।
20. एष एव मे निश्चयः।
उत्तरम् :
प्रश्ननिर्माणम्
1. कः चन्दनदासं द्रष्टुमिच्छति?
2. चन्दनदासः केन सह आगच्छति?
3. चन्दनदासः कम् उपसृत्य प्रणमति?
4. अत्यादरः कीदृशः भवति? .
5. कस्य प्रसादेन मे वणिज्या अखण्डिता?
6. केभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः?
7. इदं कस्य राज्यमस्ति न तु नन्दस्य?
8. नन्दस्य कः प्रीतिमुत्पादयति?
9. कस्य तु प्रजानामपरिक्लेश एव प्रीतिमुत्पादयति?
10. ‘अनुगृहीतोऽस्मि’ इति कः कथयति?
11. केषां वृद्धिलाभाः प्रचीयन्ते?
12. ननु केन प्रष्टव्याः स्मः?
13. कस्मिन् अविरुद्धवृत्तिर्भव?
14. केषाम् अग्निना सह विरोधः न भवति?
15. त्वम् कस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि?
16: केनाप्यनार्येण कस्मै निवेदितम् ?
17. तत्प्रच्छादनं किम् उत्पादयति?
18. शिरसि भयम्, कुत्र तत्प्रतिकारः?
19. कस्य गृहजनं न समर्पयामि?
20. एष एव कस्य निश्चयः?

शब्दार्थ-चयनम् :

अधोलिखितवाक्येषु रेखाङ्कितपदानां प्रसङ्गानुकूलम् उचितार्थं चित्वा लिखत

प्रश्न 1.
अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभाः?
(क) शिष्टाचाराणाम्
(ख) व्यापाराणाम्।
(ग) मित्राणाम्
(घ) शत्रूणाम्
उत्तरम् :
(ख) व्यापाराणाम्

प्रश्न 2.
अत्यादरः शङ्कनीयः।
(क) सन्देहास्पदम्
(ख) स्वीकरणीयः
(ग) विचारणीयः
(घ) पालनीयः
उत्तरम् :
(क) सन्देहास्पदम्

प्रश्न 3.
प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।
(क) मन्त्रिभ्यः
(ख) वृक्षेभ्यः
(ग) प्रजाजनेभ्यः
(घ) पुरुषेभ्यः
उत्तरम् :
(ग) प्रजाजनेभ्यः

प्रश्न 4.
कर्णौ पिधाय, शान्तं पापम्।
(क) आच्छाद्य
(ख) पीत्वा
(ग) दत्वा
(घ) दृष्ट्वा
उत्तरम् :
(क) आच्छाद्य

प्रश्न 5.
आर्य! अलीकम् एतत्।
(क) सत्यम्
(ख) उचितम्
(ग) सुन्दरम्
(घ) असत्यम्
उत्तरम् :
(घ) असत्यम्

प्रश्न 6.
केनापि अनार्येण आर्याय निवेदितम्।
(क) सज्जनेन
(ख) पुरुषेण
(ग) वैदेशिकेन
(घ) दुष्टेन
उत्तरम् :
(घ) दुष्टेन

प्रश्न 7.
भीताः पूर्वराजपुरुषाः देशान्तरं व्रजन्ति।
(क) आगच्छन्ति
(ख) तिष्ठन्ति
(ग) गच्छन्ति।
(घ) हसन्ति
उत्तरम् :
(ग) गच्छन्ति

प्रश्न 8.
अखण्डिता मे वणिज्या।
(क) बाधायुक्ता
(ख) निर्बाधा
(ग) मन्दा
(घ) खण्डनसहिता
उत्तरम् :
(ख) निर्बाधा

प्रश्न 9.
तत् प्रच्छादनं दोषमुत्पादयति।
(क) आच्छादनम्
(ख) प्रकटनम्
(ग) प्रकाशितम्
(घ) स्वगतम्
उत्तरम् :
(क) आच्छादनम्

प्रश्न 10.
सन्तमपि गेहे गृहजनं न समर्पयामि।
(क) गुहायाम्
(ख) गृहे
(ग) देवालये
(घ) विद्यालये
उत्तरम् :
(ख) गृहे।

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