प्राचीन भारत

सुदूर दक्षिण में इतिहास का उद्भव | The Origin of History in the Far South

सुदूर दक्षिण में इतिहास का उद्भव | The Origin of History in the Far South

सुदूर दक्षिण में इतिहास का उद्भव

महापाषाणिक पृष्ठभूमि

प्रागैतिहासिक युग के बाद कई वस्तुएँ, ऐतिहासिक युग की शुरुआत का संकेत देती हैं-जैसे लोहे के फाल वाले हल से खेतों की जुताई करने वाले ग्रामीण समुदायों का बड़े पैमाने पर बसना; राज्य व्यवस्था का गठन, सामाजिक वर्गों का उदय, धातु के
सिक्कों की शुरुआत, लिखने की कला का प्रचलन और लिखित साहित्य की शुरुआत। ई.पू. दूसरी शताब्दी तक, इनमें से कोई भी घटना भारतीय प्रायद्वीप के केन्द्र कावेरी डेल्टा के ऊपरी हिस्सों में नहीं घटी थी। इस समय तक इस प्रायद्वीप के ऊपरी हिस्से में बसे लोग महापाषाण निर्माता कहलाते थे। जिनका पता उनकी दुर्लभ वास्तविक बस्तियों से नहीं बल्कि उनकी कब्रों की संरचनाओं से चलता है। पत्थर के बड़े-बडे टुकड़ों से घिरे होने के कारण इन कब्रों को महापाषाण कहा जाता था। इनमें केवल दफनाए गए मनुष्यों के कंकाल ही नहीं, मृदभांड और लोहे की वस्तुएँ भी मिली हैं। हमारे पास प्रारम्भिक लौह युग या प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल के महापाषाणीय एवं काले लाल मृदभांडों के 104 उत्खनन स्थलों की सूची है। यद्यपि उनमें से कुछ महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी पाए जाते हैं, किन्तु अधिकतर दक्षिण भारत में ही स्थित हैं। महापाषाणीय लोग लाल मृदभांडों सहित विभिन्न प्रकार के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, लेकिन लोगों के बीच काले और लाल मृदभांड ज्यादा लोकप्रिय थे। ये इतने ज्यादा प्रचलित और महत्त्वपूर्ण थे कि पुरातत्त्वविद द्वारा शुरू-शुरू में काले-लाल मृदभांडों को महापाषाणिक मृदभांड कहा जाने लगा था। मृत शरीर के साथ कब्रों में सामान दफनाने की प्रथा स्पष्टत: इस विश्वास पर आधारित थी कि मृतात्मा को परलोक में इन वस्तुओं की आवश्यकता होगी। आज हमें इन सामानों से उनकी आजीविका के स्रोतों का पता चलता है।
इन महापाषाणीय वस्तुओं में लोहे के बने तीर, भाले, खुरचन, हँसिया और त्रिशूल पाए गए हैं, त्रिशूल को बाद में शिव से जोड़कर देखा गया। हालाँकि, दफनाए गए सामानों में कृषि उपकरणों की संख्या की तुलना में लड़ने और शिकार करने वाले हथियारों की संख्या अधिक है। जिससे प्रतीत होता है कि महापाषाणीय लोग उन्नत कृषि नहीं करते थे।
महापाषाणिक लोग प्रायद्वीप के सभी ऊपरी इलाकों में पाए जाते हैं, लेकिन उनकी बहुतायत आबादी पूर्वी आन्ध्र और तमिलनाडु में मिलती है। महापाषाणीय संस्कृति का आरम्भ ई.पू. 1000 से माना जा सकता है, हालाँकि कई उदाहरणों में, महापापाणिक अवस्था ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से लेकर ई.पू. पहली शताब्दी तक और कहीं-कहीं तो ईसा की शुरुआती शताब्दियों तक भी मालूम पड़ती है।
अशोक के अभिलेखों में उल्लिखित चोल, पाण्ड्य और केरलपुत्र (चेर) सम्भवतः भौतिक संस्कृति के उत्तर महापाषाण युग के थे। तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों के महापापाणीय लोगों में कुछ विशेष लक्षण पाए जाते हैं। वे मृतकों की अस्थियाँ लाल बर्तननुमा कलश में डालकर गड्ढों में दफनाते थे। कई जगह, ये कलश पत्थर से घिरे नहीं होते थे, और कब्र में भी अधिक वस्तुएँ नहीं होती थीं। कलशनुमा बर्तन में दफनाने की यह प्रथा, कृष्णा-गोदावरी घाटी में प्रचलित पत्थरों से घिरे शवों या खोदी गई कब्रों से भिन्न थी। लोहे का प्रयोग करने के बावजूद, यह महापाषाणीय लोग बसने एवं शवों को दफनाने के लिए पहाड़ी ढलानों को पसन्द करते थे। महापाषाणीय लोग धान और रागी का उत्पादन तो करते थे किन्तु उनके द्वारा की जा रही खेती बहुत ही कम जमीन पर होती थी, वे सामान्यत: घने जंगल के कारण मैदानी या निचले इलाकों में नहीं रहते थे।

राज्य निर्माण और सभ्यता का विकास

ई.पू. दूसरी शताब्दी तक, महापाषाणीय लोग ऊपरी क्षेत्रों से उतरकर नदी तट के उपजाऊ घाटियों में बस गए और डेल्टाई क्षेत्रों को कृषि योग्य बनाया। कई व्यापारी, विजेता, जैन, बौद्ध और कुछ ब्राह्मण धर्म प्रचारक उत्तर से प्रायद्वीप के अन्तिम हिस्सों तक पहुंचे। जिनके साथ लाए गए विभिन्न भौतिक सांस्कृतिक तत्वों के साथ इन स्थानीय महापाषाणिक लोगों का सम्पर्क हुआ। जिसके कारण यह लोग भी बरसाती धान जैसी फसलें उपजाने लगे। उन्होंने कई गाँव एवं नगर बसाए और उनके बीच सामाजिक वर्ग विकसित किए। उत्तर और सुदूर दक्षिण के बीच का सांस्कृतिक और आर्थिक सम्पर्क, जिसे तमिषकम कहा जाता है, ई.पू. चौथी शताब्दी के बाद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गया। उत्तर के लोगों ने दक्षिण जाने वाले मार्ग, दक्षिणापथ का महत्त्व जाना क्योंकि दक्षिण से सोना, मोती एवं विभिन्न कीमती रत्न प्राप्त होते थे। पाटलिपुत्र में रहने वाले मेगस्थनिज को पाण्ड्यदेश का ज्ञान था। प्रारम्भिक संगम ग्रन्थों में गंगा और सोन नदी तथा मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र का उल्लेख है। अशोक के अभिलेखों में साम्राज्य की सीमाओं पर बसे चोल, पाण्ड्य, केरलपुत्र और सतियपुतों का उल्लेख है; इनमें से अभी तक केवल सतियपुतों की स्पष्ट जानकारी नहीं हुई है। इनमें ताम्रपर्णी या श्रीलंका के लोगों का भी उल्लेख है। अशोक की ‘देव प्रिय’ उपाधि
भी एक तमिल नायक ने ही धारण की। यह सब जैनों, बौद्धों, आजीविकों और ब्राह्मणों द्वारा धर्म प्रचार एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ ही व्यापारियों के आगमन के फलस्वरूप हुआ। उल्लेखनीय है कि अशोक के अभिलेख मुख्य-मुख्य राजमार्गों पर स्थापित किए गए थे। इन प्रारम्भिक तमिल ब्राह्मी अभिलेखों में विभिन्न सम्प्रदायों की गतिविधियों का उल्लेख है। जिनसे स्पष्ट होता है कि दक्षिण में गंगा नदी का सांस्कृतिक महत्व अत्यधिक प्रभावशाली था। किन्तु बाद में ब्राह्मणिक प्रभाव तमिषकम पर भी प्रचुरता से मिलता है,
जो कि चौथी शताब्दी के बाद सम्भव हुआ। अन्ततः तमिल संस्कृति के कई तत्त्व उत्तर में फैले और ब्राह्मणिक ग्रन्थों में भी कावेरी को भारत की पवित्र नदियों में से एक माना गया। दक्षिण में लोहे के तकनीकी प्रयोग से वनों की कटाई और हल द्वारा खेती को बढ़ावा मिला, शायद जिसके प्रसार के बिना ये दक्षिणी राज्य विकसित नहीं होते। इसके अलावा जनपद और मगध साम्राज्य के पंच-चिह्नित सिक्कों के प्राप्त होने से भी उत्तर-दक्षिण व्यापार के विकसित होने के संकेत मिलते हैं। रोमन साम्राज्य के साथ बढ़ते हुए व्यापार ने चोल, चेर और पाण्ड्य राज्यों के उदय में भी योगदान दिया। पहली शताब्दी से ही इन तीनों राज्यों के शासक, एक ओर, दक्षिण भारत के तटीय हिस्सों से, दूसरी ओर, रोमन साम्राज्य के पूर्वी उपनिवेशों से, विशेषकर मिस्र के
साथ, किए गए निर्यात और आयात गतिविधियों से लाभान्वित होते रहे।

तीन प्रारम्भिक साम्राज्य

कृष्णा नदी के दक्षिण में स्थित भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर तीन राज्यों में विभाजित था-चोल पाण्ड्य और चेर या केरल। पाण्ड्याओं का पहला उल्लेख मेगस्थनीज ने किया है, उन्होंने कहा कि यह राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था और एक महिला द्वारा शासित था, जो पाण्ड्य समाज में कुछ हद तक मातृसत्तात्मक प्रभाव को दर्शाता है। पाण्ड्य राज्य भारतीय प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी भाग पर था, जिसमें वर्तमान तमिलनाडु की राजधानी मदुरै सहित आधुनिक जिले तिरुनेलवेली, रामनद और मदुरै शामिल थे। ईसा की शुरुआती शताब्दियों में रचित तमिल साहित्य को संगम साहित्य कहा जाता है, जिसमें पाण्ड्य शासकों का उल्लेख हैं, किन्तु इसका कोई सुसंगत इतिहास नहीं मिलता। सिर्फ दो-एक पाण्ड्य विजेताओं का ही उल्लेख मिलता है। हालाँकि, संगम साहित्य के अनुसार राज्य धनी और समृद्ध था। पाण्ड्य राजा रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार
से लाभ प्राप्त करते थे। बाद में इन्होंने रोमन सम्राट ऑगस्टस के पास अपने राजदूत भी भेजे। इस राज्य में ब्राह्मणों का काफी प्रभाव था; और ईसा की शुरुआती शताब्दियों में पाण्ड्य राजा वैदिक यज्ञ करते थे।
चोल साम्राज्य प्रारम्भिक मध्ययुगीन काल में चोलमण्डलम (कोरोमण्डल) कहा जाता था, यह पाण्ड्य क्षेत्र के उत्तर-पूर्व में पेन्नार और वेलार नदियों के बीच स्थित था। संगम ग्रन्थों से चोलों के राजनीतिक इतिहास का भी कुछ पता चलता है। इनका मुख्य
राजनीतिक केन्द्र उरैयुर में था, जो कपास के व्यापार के लिए प्रसिद्ध है। ऐसा लगता है कि ई.पू. दूसरी शताब्दी के मध्य में, एलारा नामक एक चोल राजा ने श्रीलंका पर कब्जा कर लिया और लगभग पचास वर्षों तक इस पर शासन किया। चोलों का स्पष्ट इतिहास दूसरी शताब्दी में उनके प्रसिद्ध राजा करकल से शुरू होता है। उन्होंने पुहार की स्थापना की और कावेरी नदी के किनारे 160 किलोमीटर लंबा बांध बनाया। यह श्रीलंका से बन्दी बनाकर लाए गए 12,000 गुलामों के श्रम से बनाया गया था। चोल राजधानी पुहार की पहचान कावेरीपट्टणम से की गई है। यह व्यापार और वाणिज्य का एक अच्छा केन्द्र था; उत्खननों से पता चलता है कि यहाँ एक विशाल बन्दरगाह था। सूती कपड़े का व्यापार, चोलों की सम्पत्ति के प्रमुख स्रोतों में से एक था और उनके पास एक कुशल नौसेना भी थी।
करकल के उत्तराधिकारियों के समय चोल साम्राज्य की शक्ति में तेजी से गिरावट आई। उनकी राजधानी कावेरीपट्टणम को नष्ट कर उस पर कब्जा कर लिया गया। उनकी दो पड़ोसी शक्तियों, चेर और पाण्ड्यों, ने चोल साम्राज्य के अंदर अपना-अपना राज्य फैलाना प्रारम्भ किया। चोलों की जो बची-खुची शक्ति थी वह भी उत्तर से पल्लवों के हमलों में समाप्त हो गई। अतः ईसा की चौथी से लेकर नौवीं शताब्दी तक, चोलों ने दक्षिण भारतीय इतिहास में आंशिक भूमिका ही निभाई।
चेर या केरल देश पाण्ड्य के उत्तर और पश्चिम में स्थित था। इसमें समुद्र और पहाड़ के बीच की वह संकरी भूमि शामिल थी, जिसमें आधुनिक केरल एवं तमिलनाडु के हिस्से शामिल हैं। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में, चेर राज्य चोल और पाण्ड्य की तरह महत्त्वपूर्ण थे। उनकी यह प्रगति रोमनों के साथ व्यापार के कारण हुई थी। रोमन ने अपने हितों की सुरक्षा हेतु मुजिरीस में दो सैनिक टुकड़ियाँ स्थापित की थी, जो चेर साम्राज्य में कांगनोर नाम से जाने जाते थे। कहा जाता है कि उन्होंने वहाँ ऑगस्टस का एक मन्दिर भी बनाया था।
चेरों का इतिहास चोलों और पण्ड्यों के साथ लगातार युद्धों का इतिहास है। यद्यपि चेरों ने चोल राजा करकल के पिता को मार डाला, किन्तु इस संघर्ष में चेर राजा को भी अपना जीवन खोना पड़ा। बाद में, दोनों राज्य अस्थायी रूप से मित्र भी बन गए और वैवाहिक गठबन्धन भी कर लिया। इसके बावजूद चेर राजा पाण्ड्य शासकों के साथ मिलकर चोलों के विरुद्ध हो गए, लेकिन चोलों ने इन दोनों ही सहयोगियों को हरा दिया। कहा जाता है चेर राजा पीठ की तरफ से घायल हो गया था, जिस शर्मिन्दगी के कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली।
चेर कवियों के अनुसार, उनके सबसे महान राजा सेंगुत्तुवन थे जिन्हें लाल या अच्छे चेर भी कहा जाता था। उसने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को हराकर अपने चचेरे भाई को सिंहासन पर बैठाया था। कहा जाता है कि उन्होंने उत्तर दिशा पर हमला कर गंगा पार किया। हालाँकि, यह अतिशयोक्ति लगती है। ईसा की दूसरी शताब्दी के बाद चेर का पतन हो गया और हम आठवीं शताब्दी तक इसके इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं जानते।
इन तीनों राज्यों का राजनीतिक इतिहास मुख्य रूप से एक-दूसरे और श्रीलंका के साथ युद्ध की कहानी में है। हालाँकि, ये राज्य युद्ध के कारण कमजोर तो हुए, परन्तु वे उनके प्राकृतिक संसाधनों और विदेशी व्यापार से लाभान्वित भी बहुत हुए। वे मसाले, विशेष रूप से काली मिर्च उपजाते थे, जिसकी पश्चिमी दुनिया में बहुत माँग थी। उन्हें अपने हाथियों से हाथी दाँत प्राप्त होते थे जिसे उन्होंने पश्चिम में आपूर्ति की, जहाँ हाथी दाँत अत्यधिक मूल्यवान हुआ करते थे। वे समुद्र से मोती निकालते थे और खानों से कीमती पत्थर भी, जिनका पश्चिम में पर्याप्त निर्यात हुआ। इसके अलावा, उन्होंने मलमल और रेशम का भी उत्पादन किया। कहा जाता है कि इनके सूती कपड़े साँप के केंचुल जैसे महीन होते थे।
प्राचीन तमिल कविताओं में रेशम पर नक्काशीदार बुनाई का भी उल्लेख है। उरैयुर अपने सूती कपड़े के व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। प्राचीन काल में, तमिलों ने एक ओर ग्रीक या मिस्र के हेलेनिस्टिक साम्राज्य और अरब के साथ, तो दूसरी ओर मलय द्वीपसमूह और चीन के साथ व्यापार किया। इस व्यापार के परिणामस्वरूप, चावल, अदरख, दालचीनी आदि अन्य सामाग्रियों के लिए यूनानी भाषा में नए शब्द तमिल भाषा से ही आए। जब मिस्र एक रोमन प्रान्त बन गया और पहली शताब्दी की शुरुआत में मानसून की खोज की गई तो इस व्यापार को काफी प्रोत्साहन मिला। इस प्रकार, पहले ढाई शताब्दियों तक, दक्षिणी राज्यों और रोम के बीच लाभदायक व्यापार चलता रहा। बाद में इस व्यापार में आई गिरावट के साथ, इन राज्यों का पतन होना भी शुरू हुआ।

धन और शक्ति

स्थानीय और विदेशी व्यापार दोनों ही राज्य के आय के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्रोत थे। पुहार के अधिकारियों के काम करने के तरीके से हम अवगत हैं। जो व्यापारी अपने सामान अन्य जगहों पर ले जाकर बेचते थे उनसे परिवहन चुंगी भी लिया जाता था। व्यापारियों की सुरक्षा और तस्करी की रोकथाम के लिए सड़कों पर सैनिक निरन्तर निगरानी रखते थे। युद्ध में लूटी गई सम्पत्ति को भी राजकोषीय आय माना जाता था। किन्तु युद्ध और राज्य व्यवस्था की वास्तविक नींव कृषि से मिलने वाली नियमित आय पर निर्भर थी। हालांकि ऐसा स्पष्ट नहीं है कि राजा द्वारा कृषि उत्पाद का कितना हिस्सा वसूला जाता था। प्रायद्वीप और उससे जुड़े क्षेत्र अत्यन्त उपजाऊ थे। यहाँ धान, रागी और गन्ना का उत्पादन होता था।
कावेरी मुहाने के बारे में कहा गया है कि जितनी जगह में एक हाथी लेट सकता है, उतनी जमीन में सात व्यक्तियों को खिलाने लायक कृषि होती थी। इसके अलावा, तमिल क्षेत्र में अनाज, फल, काली मिर्च और हल्दी की भी उपज होती थी। ऐसा लगता है कि इन सबमें राजा का हिस्सा होता रहा होगा। जाहिर है कि किसानों द्वारा एकत्र हुए करों से, राज्य सेना को बनाए रखे। इसमें बैल से खींचे जाने वाले रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदल सिपाही होते थे। युद्ध में हाथियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती थी। पाण्ड्य के साम्राज्य में घोड़ों को समुद्री रास्ते के द्वारा मंगवाया जाता था। सामन्त और राजकुमार या सेना के कप्तान हाथी से चलते थे और सेनापति रथ से पैदल सिपाही और घुड़सवार अपने पैरों की रक्षा के लिए चमड़े की चप्पलें पहनते थे।

सामाजिक वर्गों का उदय

व्यापारिक आय, युद्ध में लूटी गई सम्पत्ति और कृषि से प्राप्त आमदनी ने राजा को वेतनभोगी सैनिकों को बनाए रखने और भाटों एवं पुजारियों, जो अधिकतर ब्राह्मण होते थे, को भी शरण देने में सक्षम बनाया। तमिल में ब्राह्मण सबसे पहले संगम युग में आए। ब्राह्मणों को कभी न सताने वाला राजा, आदर्श राजा कहलाता था। कई ब्राह्मण कवि थे जिनकी रचनाओं के लिए राजा उन्हें उदारतापूर्वक पुरस्कृत करते थे। कहा जाता है कि करकल ने एक कवि को 16,00,000 स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में दिया था, किन्तु यह अतिशयोक्ति लगती है। स्वर्ण के अलावा, कवियों या भाटों को नकद, भूमि, रथ, घोड़े और यहाँ तक कि हाथी भी प्रदान किए जाते थे।
तमिल ब्राह्मण माँस और मदिरा का भी सेवन करते थे। संगम ग्रन्थों में क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ण का विधिवत् उल्लेख है। राज्य व्यवस्था और समाज में योद्धा वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान था। औपचारिक समारोहों में सेना के कप्तानों को एनादि की उपाधि से नवाजा जाता था। हालाँकि, वैश्यों के बारे में कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है। चोलों और पाण्ड्यों, दोनों राज्यों में असैनिक और सैन्य कार्यालयों में वल्लाल या अमीर किसान ही होते थे। शासकवर्ग को अरसर कहा जाता था, इनके वैवाहिक सम्बन्ध वल्लालाओं के साथ होते थे, जबकि वल्लाल चौथी जाति में आते थे। किन्तु सर्वाधिक जमीनें उनके पास ही थीं; इसीलिए वे कृषक वर्ग में आते थे। ये अमीर और गरीब दोनों होते थे। अमीर खेतों में खुद काम नहीं करते थे; बल्कि खेतों में काम करने के लिए मजदूर रखते थे।
ये मजदूर आम तौर पर सबसे निचले वर्ग (कडैसियर) के होते थे, जिनकी स्थिति गुलामों से मिलती-जुलती थी। कुछ कारीगरों को भी कृषि मजदूरों से अलग नहीं माना जाता था। पेरियार कृषि मजदूर थे, वे पशु की खाल निकालते थे और उन्हें चटाई के रूप में इस्तेमाल करते थे। कई अछूत और वनवासी अत्यधिक गरीबी से पीड़ित थे और दाने-दाने को मोहताज थे। हमें संगम युग में व्याप्त सामाजिक असमानता का स्पष्ट रूप देखने को मिलता है। अमीर ईंट और गारे से बने पक्के घरों में रहते थे, और गरीब झोपड़ियों में। शहरों के अमीर व्यापारी घरों की ऊपरी मंजिल में रहते थे। हालाँकि, यह स्पष्ट नहीं है कि संस्कार और धर्म का इस्तेमाल सामाजिक असमानताओं को बनाए रखने के लिए किया गया था या नहीं। यहाँ ब्राह्मणों और क्षत्रिय जातियों का उदय तो दिखता है, किन्तु संगम युग की शुरुआत में वैसा घोर जातिभेद मौजूद नहीं था, जैसा कि संगम युग के अंतिम काल में हो गया था।

बामणिक संस्कृति की शुरुआत

ईसा की शुरुआती शताब्दियों में तमिल क्षेत्र में जो राज्य और समाज स्थापित हुए, उन पर ब्रामणिक संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। किन्तु यह प्रभाव तमिल क्षेत्र के एक छोटे से हिस्से के ऊपरी वर्गों तक ही सीमित था। राजा वैदिक यज्ञ करते थे; वेदों के अनुयायी ब्राह्मण शास्त्रार्थ करते थे। परन्तु पहाड़ी क्षेत्र के लोगों द्वारा स्थानीय देवता मुरुगन की पूजा की जाती थी, जो मध्यकालीन युग के प्रारम्भ में सुब्रह्मण्यम कहलाते थे। विष्णु की पूजा का भी उल्लेख किया गया है, शायद यह परम्परा बाद में शुरू हुई होगी। मृतकों के साथ जीवनोपयोगी वस्तुओं को दफन करने की महापाषाणीय प्रथा जारी रही। मृतकों के नाम धान
दिया जाता था। शवों को श्मशान में जलाने की प्रथा अस्तित्व में आई, साथ में महापाषाण काल से चली आ रही दफनाने की परम्परा भी विद्यमान रही।

तमिल भाषा और संगम साहित्य

ऐतिहासिक काल की शुरुआत में तमिलों के जीवन के बारे में ऊपर जो भी बताया गया है वे संगम साहित्य पर आधारित हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, संगम तमिल कवियों का एक संगम या सम्मेलन भी था, जो सम्भवत: किन्हीं प्रमुखों या राजाओं के संरक्षण में ही आयोजित होती थी। हालाँकि, हम न तो ऐसे संगमों की संख्या जानते है, न ही वह अवधि, जब उन्हें आयोजित किया जाता था। आठवीं शताब्दी के मध्य में तमिल टिप्पणी में कहा गया है कि तीन संगम 9990 वर्षों तक चले, इनमें 8598 कवियों ने भाग लिया और 197 पाण्ड्य राजा उनके संरक्षक थे। हालांकि यह अतिशयोक्ति प्रतीत होती है। किन्तु यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के संगम या बैठकें मदुरै में राजाओं के संरक्षण में ही आयोजित किए जाते थे।
इन विधान सभाओं द्वारा तैयार किए गए जो भी साहित्य उपलब्ध हैं, उन्हें सन् 300-600 ईस्वी में संकलित किया गया था। हालाँकि, इस साहित्य के कुछ हिस्सों में दूसरी शताब्दी का वर्णन है, जिससे यह ईसा पूर्व दूसरी सदी के भी प्रतीत होते हैं। संगम साहित्य को दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है-आख्यानात्मक/कथात्मक और उपदेशात्मक। इन आख्यान ग्रन्थों को मेलकणक्कु या अठारह महान ग्रन्थ कहा जाता है। इसमें अठारह प्रमुख कृतियाँ शामिल हैं, जिनमें आठ कथा संग्रह और दस गीत या काव्य शामिल हैं और उपदेशात्मक ग्रन्थों को मेलकणक्कु या अठारह लघु ग्रन्थ कहा जाता है।

संगम ग्रन्थों में सामाजिक विकास

उपर्युक्त दोनों प्रकार के ग्रन्थ सामाजिक विकास के कई चरणों को दर्शाते हैं। इन आख्यान ग्रन्थों को वीरगाथा काव्य भी कहा जाता है, जिनमें वीर नायकों की महिमा, निरंतर चलते रहने वाले युद्ध और पशुओं के छीनने के उल्लेख मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि आरम्भ में तमिल लोग मुख्य रूप से पशुचारक थे। संगम ग्रन्थों में प्राचीन महापाषाणीय जीवन के प्रमाण मिलते हैं। प्राचीनतम महापाषाणीय लोग मुख्य रूप से पशुचारक, शिकारी और मछुआरे थे, हालाँकि वे चावल का भी उत्पादन करते थे
प्रायद्वीपीय भारत में कई जगहों पर फावड़े और हँसिए के साक्ष्य मिले हैं किन्तु लोहे के फाल वाले हल नहीं प्राप्त होते। अन्य लौह वस्तुओं में पच्चड़, आदिम कुल्हाड़ी, तीर, लम्बी तलवारें, बल्लम, बरछी, भाला, घोड़ों के नाल, इत्यादि शामिल हैं। ये उपकरण मुख्य रूप से युद्ध और शिकार के लिए थे। संगम ग्रन्थों में भी निरन्तर युद्ध और पशुहरण का उल्लेख है।
संगम ग्रन्थों के अनुसार युद्ध की लूट से अर्जित सम्पत्ति आजीविका के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत थी। ग्रन्थ यह भी कहते हैं कि नायक मरने पर पत्थर का टुकड़ा मात्र हो जाता है। यह हमें पत्थर के उन टुकड़ों की याद दिलाता है, जो महापाषाणीय लोगों की कब्रों पर बनाए जाते थे। इसके बाद, अपने परिवार और अन्य चीजों के लिए लड़ते हुए मारे जाने वाले वीरों के सम्मान में स्मारकस्वरूप वीर-प्रस्तर या स्मृति-शिला की स्थापना की प्रथा शुरू हुई, जिसे वीरकल कहा गया। सम्भव है कि संगम ग्रन्थों में वर्णित सामाजिक विकास के शुरुआती अवस्था प्राचीन महापाषाण काल से ही सम्बन्धित हों। पाव आख्यानक संगम ग्रन्थों में राज्य के गठन संबंधी विचार मिलते हैं, जिसमें योद्धाओं के दल, कर व्यवस्था और न्यायिक व्यवस्था के आरम्भिक चरणों के अलावा व्यापार, वणिकों, कारीगरों और किसानों के बारे में भी पता चलता है। इनमें काँची, कोरकाई, मदुरै, पुहार और उरैयुर जैसे कई शहरों का भी उल्लेख है। जिनमें पुहार या कावेरीपट्टणम सबसे प्रसिद्ध थे। इन संगम ग्रन्थों में उल्लिखित कस्बों और आर्थिक गतिविधियों के प्रमाण यूनानी और. रोमन दस्तावेजों के अलावा संगम स्थलों की खुदाई से भी मिले हैं।
बहुत से संगम ग्रन्थ प्राकृत या संस्कृत के ब्राह्मण विद्वानों द्वारा लिखे गए, जिनमें उपदेशात्मक ग्रन्थ भी शामिल हैं। उपदेशात्मक ग्रन्थों में ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों का वर्णन है। इसके अलावा यह न केवल राजा और उनके न्यायिक व्यवस्था के लिए, बल्कि विभिन्न सामाजिक समूहों और व्यवसायों के लिए आचार संहिता भी है। यह कहा जा सकता है कि यह रचनाएँ सब ईसा की चौथी शताब्दी के बाद ही सम्भव हुई होंगी, जब पल्लवों के शासन काल में राजाश्रित ब्राह्मणों की संख्या बढ़ गई थी। इन ग्रन्थों में ग्राम दान, तथा सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी राजाओं की वंशावली का भी उल्लेख है।
संगम ग्रन्थों के अलावा, एक तोल्क्काप्पियम ग्रन्थ है, जिसमें व्याकरण और काव्यों की चर्चा है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तमिल ग्रन्थ तिरुक्कुरल में दार्शनिक विचार और सूक्तियाँ हैं। इसके अतिरिक्त छठी शताब्दी के आस-पास रचे गए तमिल के दो महाकाव्य
सिलाप्पादीकारम और मणिमेकले हैं। सिलाप्पादीकारम ग्रन्थ तमिल साहित्य का सबसे उज्ज्वल रत्न माना जाता है। इसमें एक प्रेम कहानी है, जिसमें कोवलन नामक एक अमीर सम्मानित व्यक्ति एक कुलीन परिवार से आने वाली अपनी पत्नी कन्नगी के बजाय कावेरीपट्टणम की माधवी नामक वेश्या को पसन्द करता है। इसके लेखक एक जैन प्रतीत होते हैं, जिन्होंने पूरे तमिल राज्य में इस कहानी के दृशयों को स्थापित करने की कोशिश की। दूसरा महाकाव्य, मणिमेकलै, मदुरै के अनाज के एक व्यापारी द्वारा रचित है। यह कोवलन और माधवी से जन्म लेने वाली बेटी के साहसिक वर्णनों से सम्बन्धित है।
हालाँकि, यह महाकाव्य साहित्यिक कम, धार्मिक ज्यादा है। दोनों महाकाव्यों के प्रस्तावना में यह कहा गया है कि इनके लेखक दूसरी शताब्दी के चेर राजा सेंगुत्तुवन के दोस्त और समकालीन थे। यद्यपि इन महाकाव्यों की शुरुआत इतनी जल्दी नहीं हुई होगी, क्योंकि इनमें लगभग छठी शताब्दी तक के तमिल लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन पर प्रकाश डाला गया है। निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ईस्वी सन् के प्रारम्भ से ही तमिलों को लेखन की कला का ज्ञान था। ब्राह्मी लिपि में अशोक के बारह अभिलेखों की खोज दक्षिण क्षेत्रों में ही हुई, जिनमें से आन्ध्र में तीन और कर्नाटक में नौ अभिलेख पाए गए हैं। लगभग दो शताब्दियों बाद ब्राह्मी लिपि में छोटे-छोटे पचहत्तर अभिलेख प्राकृतिक गुफाओं से भी मिले हैं, जिनमें मदुरै मुख्य क्षेत्र था। इनमें प्राकृत शब्दों के साथ मिश्रित तमिल का प्रारम्भिक स्वरूप दिखलाई देता है। वे ई.पू. दूसरी-पहली शताब्दी से सम्बन्धित हैं, जब जैन और बौद्ध प्रचारक इस क्षेत्र में आए। हाल के उत्खननों में अभिलिखित मृदभांड पाए गए हैं। जिनसे ईसा की शुरुआती तमिल भाषा की शैली का पता चलता है। ईस्वी सन् की शुरुआत में प्रचुर संगम साहित्य का निर्माण हुआ, हालाँकि इसे अन्ततः सन् 600 ई. के आस-पास ही संकलित किया जा सका।

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