UK Board 10 Class Hindi Chapter 14 – एक कहानी यह भी (गद्य-खण्ड)
UK Board 10 Class Hindi Chapter 14 – एक कहानी यह भी (गद्य-खण्ड)
UK Board Solutions for Class 10th Hindi Chapter 14 एक कहानी यह भी (गद्य-खण्ड)
1. लेखिका परिचय
प्रश्न- मन्नू भण्डारी का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत दीजिए-
जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक विशेषताएँ, भाषा-शैली ।
उत्तर- मन्नू भण्डारी
जीवन-परिचय — आधुनिक युग की महिला कहानीकारों में श्रीमती मन्नू भण्डारी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्तमानकाल में ‘नई कहानी’ के नाम से कहानी रचना का जो रूप सामने आया है, उसके विकास में मन्नू भण्डारी का भी विशेष योगदान है। इस दृष्टि से कहानी – जगत् में मन्नू भण्डारी का विशेष महत्त्व है।
मन्नू भण्डारी का जन्म सन् 1931 ई० में भानपुरा नामक गाँव में हुआ था। भानपुरा गाँव जिला मन्दसौर ( म०प्र०) में स्थित है। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी मध्य प्रदेश में ही सम्पन्न हुई। स्नातक की शिक्षा मन्नूजी ने राजस्थान के अजमेर नगर में प्राप्त की। बाद में उन्होंने हिन्दी में एम०ए० किया। कालान्तर में वे दिल्ली आ गईं और मिराण्डा हाउस कॉलेज में अध्यापन कार्य से जुड़ गईं।
रचनाएँ – स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कथा – साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर मन्नू भण्डारी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं—
(i) कहानी-संग्रह – कील और कसक, मैं हार गई, यही सच है, बिना दीवारों के घर, एक प्लेट सैलाब, तीन निगाहों की तस्वीर, त्रिशंकु आदि ।
(ii) उपन्यास – आपका बण्टी, महाभोज ।
इसके अलावा उन्होंने फिल्म एवं टेलीविजन धारावाहिकों के लिए पटकथाएँ भी लिखी हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ- आधुनिक युग के कुछ समालोचकों का मत है कि सन् 1950 ई० के बाद हिन्दी कहानी का जो नया रूप सामने आया है, उसके विकास में मन्नू भण्डारी का प्रमुख हाथ है। सामाजिक कहानियों के क्षेत्र में मन्नू भण्डारी का विशिष्ट योगदान है। मन्नू भण्डारी ने अपनी रचनाओं में भारतीय जीवन एवं समाज को अत्यन्त निकट से देखने का प्रयास किया है। लेखिका ने पारिवारिक दशा का सूक्ष्म अध्ययन एवं मनम किया है। उनकी रचनाएँ यथार्थवाद को प्रकट करती हैं। मन्नू भण्डारी की साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें हिन्दी अकादमी के शिखर सम्मानसहित अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी आदि द्वारा प्रदत्त पुरस्कार शामिल हैं।
भाषा-शैली – मन्नू भण्डारी की कहानियाँ हों या उपन्यास, उनमें भाषा और शिल्प की सादगी तथा प्रामाणिक अनुभूति मिलती है। उनकी भाषा शुद्ध, सरस, सरल एवं सजीव खड़ीबोली है। यत्र-तत्र उर्दू की शब्दावली भी दिखाई दे जाती है। उनकी रचनाओं में स्त्री – मन से जुड़ी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति भी मिलती है। उनकी शैली सरल और आडम्बरविहीन है।
2. गद्यांश पर अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
(1) पर यह सब ……… आते ही रहते।
अथवा और शायद गिरती ………… आते ही रहते।
प्रश्न –
(क) पाठ तथा लेखिका का नाम लिखिए।
(ख) गद्यांश का आशय लिखिए।
(ग) लेखिका के पिता के क्रोध के क्या कारण थे?
(घ) हाशिए पर सरकने का क्या अर्थ है?
(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए – ‘सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया।
(च) लेखिका के पिता अपनी विवशताओं को अपने परिवार के सामने भी स्पष्ट क्यों नहीं कर पाते थे?
(छ) लेखिका के अनुसार जीवन के अंतिम दिनों में पिता के बहुत अधिक शक्की बन जाने के क्या कारण थे?
उत्तर –
(क) पाठ का नाम-एक कहानी यह भी। लेखिका – मन्नू भण्डारी ।
(ख) आशय- लेखिका ने पिता के अच्छे दिनों की दरियादिली के चर्चे, उनके स्वभाव की कोमल, संवेदनशील, क्रोधी और अहंवादी प्रवृत्तियों के बारे में केवल सुना था। जब देखा तो पिता को इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पाया; अर्थात् बुरे दिनों में भी वे अपनी आदतों को नहीं छोड़ पाए थे। एक बहुत बड़े आर्थिक नुकसान के कारण उन्हें इन्दौर छोड़ना पड़ गया। वे अजमेर आकर रहने लगे। उन्होंने अकेले ही केवल अपने भरोसे और कठिनाइयों में हौसला रखते हुए विषयवार अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश की रचना आरम्भ की। यह काम बहुत समय से अधूरा पड़ा हुआ था। यह अपनी तरह का प्रथम और एकमात्र शब्दकोश था। इस शब्दकोश ने पिताजी को ख्याति और प्रतिष्ठा तो बहुत दिलाई, किन्तु धनाभाव बना रहा। घर की आर्थिक दशा दिन-प्रतिदिन गिरती ही जा रही थी। पिताजी के व्यक्तित्व के सभी पक्षों पर इस दशा का गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनके सभी सकारात्मक पहलू सिकुड़ने शुरू हो गए। अर्थात् उनकी सकारात्मक सोच धीरे-धीरे समाप्त होने लगी। दिन-प्रतिदिन गिरती आर्थिक स्थिति के कारण पिताजी का अहं और अधिक बढ़ गया। इसी अहं के कारण वे अपने बच्चों को भी अपनी आर्थिक विवशताओं के विषय में कुछ भी नहीं बताते थे। पिताजी की नवाबी आदतें, जीवन की अधूरी महत्त्वाकांक्षाएँ और हमेशा ऊँचाई पर रहनेवाले पिता जब निरन्तर प्रयासों के बाद भी उन ऊँचाइयों पर नहीं बने रह सके तथा धीरे-धीरे पतन की ओर जाने लगे – इससे उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। यही पीड़ा उनमें हमेशा क्रोध बनकर फूटती और माँ को कँपकँपाती – थरथराती रहती । अर्थात् माँ सदैव उनके क्रोध के कारण भय से काँपती रहती थीं।
(ग) लेखिका के पिता के क्रोध के निम्नलिखित कारण थे-
(i) आर्थिक विवंशताएँ,
(ii) अधूरी महत्त्वाकांक्षाएँ,
(iii) हमेशा शीर्ष पर रहने की इच्छा, पर शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरक आना।
(घ) हाशिए पर सरकने का अर्थ है रिक्तस्थान की ओर अर्थात् जीवन में खालीपन की ओर बढ़ना। यानि मुख्य स्थान से हटकर उपेक्षित स्थान की ओर बढ़ते जाना ।
(ङ) इस पंक्ति का आशय है कि उनकी बिगड़ती आर्थिक हालत ने उनके प्रेम, विश्वास, अच्छाइयों, गुणों तथा सहानुभूति को कम करना शुरू कर दिया । अर्थात् उनके जीवन की जो सकारात्मक सोच थी, वह निरन्तर नकारात्मक होती जा रही थी।
(च) लेखिका के पिता अपनी विवशताओं को धन के दिनोंदिन बढ़ते अभाव और अपनी अत्यधिक विस्तृत अहंकारी प्रवृत्ति के कारण अपने परिवार के सामने स्पष्ट नहीं कर पाते थे।
(छ) जीवन के अंतिम दिनों में पिता के शक्की होने का कारण उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ थीं, जो उनके अपने लोगों के अपेक्षित सहयोग न मिलने के कारण पूरी न हो सकीं। जिन लोगों से वे अपने मान-सम्मान की अपेक्षा रखते थे, उन्हीं के द्वारा अपनी उपेक्षा किए जाने तथा उन लोगों द्वारा विश्वासघात किए जाने, जिन पर वे आँख मूँदकर विश्वास करते थे, के कारण वे अत्यधिक शक्की हो गए थे।
(2) ‘अपनों’ के हाथों ………… कर सकता!
प्रश्न –
(क) पाठ तथा लेखिका का नाम लिखिए।
(ख) गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ग) गद्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए ।
(घ ) अपनों के विश्वासघात का लेखिका के पिता पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(ङ) ‘मेरी टक्कर ही चलती रहती’ का आशय स्पष्ट कीजिए ।
(च) लेखिका के पिता उसमें किन-किन रूपों में विद्यमान हैं?
(छ) व्यक्ति किस बात से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता?
उत्तर –
(क) पाठ का नाम – एक कहानी यह भी। लेखिका – मन्नू भण्डारी ।
(ख) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश मन्नू भण्डारी द्वारा रचित आत्मकथ्य, ‘एक कहानी यह भी’ से अवतरित है। इस आत्मकथ्य में लेखिका ने बहुत खूबसूरती से साधारण लड़की के असाधारण बनने के प्रारम्भिक पड़ावों को प्रकट किया है।
(ग) आशय – लेखिका के पिताजी को जीवन में अपने लोगों के हाथों जो विश्वासघात (धोखा) मिला था, उससे वे शक्की स्वभाव के हो गए थे। अर्थात् वे प्रत्येक व्यक्ति पर शक करते थे कि यह उसे धोखा अवश्य देगा। लेखिका जब से समझदार हुई थी, तब से ही उसकी अपने पिता के साथ नहीं बनती थी, अर्थात् वैचारिक म रहता था। मगर क्या यह मनमुटाव उचित था। लेखिका कहती है कि वे न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं। अर्थात् उन्होंने मुझे न जाने कितने प्रकार से प्रभावित किया है। मेरे मन में जो कुण्ठाएँ हैं, वे मुझे पिता से ही प्राप्त हुई हैं। जो प्रतिक्रियाएँ हैं, वे पिता की प्रतिच्छाया ही हैं। लेखिका ऐसे लोगों पर व्यंग्य करती है, जो अपनी परम्पराओं और पीढ़ियों को नकारने लगते हैं। बाहरी रूप, आकार-प्रकार के आधार पर लोग अपनी परम्पराओं और पीढ़ियों को स्वीकार नहीं करते, जबकि उन्हें देखना चाहिए कि गुजरा हुआ समय उनके अन्तर्मन में, उनके व्यक्तित्व में जड़ें जमाए बैठा है। समय भले ही बदल जाए और हम उसके प्रभाव से अन्य दिशाओं में सोचने लगें, परिस्थितियों का दबाव भले ही हमारा स्वरूप बदल दे, किन्तु हमें अपने अतीत से मुक्ति नहीं मिल सकती।
आशय यह है कि व्यक्ति का अतीत हमेशा उसके साथ रहता है व्यक्ति उससे कभी भी छुटकारा नहीं पा सकता है।
(घ ) अपनों के विश्वासघात का लेखिका के पिता पर यह प्रभाव पड़ा कि वे प्रत्येक व्यक्ति को शक की दृष्टि से देखते थे।
(ङ) ‘मेरी टक्कर ही चलती रहती’ का आशय यह है कि लेखिका का अपने पिता से सदैव वैचारिक विरोध रहता था।
(च) लेखिका के पिता उसके व्यक्तित्व में रमी कुण्ठाओं और उनकी प्रतिक्रियाओं के रूप में विद्यमान हैं।
(छ) व्यक्ति अपने अतीत से किसी भी प्रकार पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता।
(3) पिता के ठीक ……… लौटती हूँ।
प्रश्न –
(क) गद्यांश के आधार पर लेखिका के पिता के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
अथवा लेखिका अपनी माँ को पिता के ठीक विपरीत क्यों देखती है? (2009)
(ख) माँ का चरित्र भारतीय संस्कृति के अनुरूप था अथवा विपरीत? स्पष्ट कीजिए ।
(ग) माँ के त्याग को असहाय मजबूरी में लिपटा हुआ त्याग कहने से यहाँ क्या आशय है?
(घ) माँ के सद्गुण भी लेखिका के आदर्श नहीं बन सके, आखिर क्यों?
अथवा अपनी पाँ का त्याग और सहिष्णुता से भरा व्यक्तित्व लेखक का आदर्श नहीं बन पाया, क्यों?
(ङ) लेखिका ने अपनी माँ में कौन-कौन से गुण देखे और किस रूप में?
(च) गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि लेखिका महिला सशक्तिकरण की पक्षधर रही हैं।
उत्तर—
(क) लेखिका की माता अनपढ़, धैर्यशालिनी, सहिष्णु, त्यागी, दब्बू, सहज-सरल, उत्तरदायित्वों को समझने और निर्वहन करनेवाली महिला थीं। जबकि उनके पिता माँ के स्वभाव के विपरीत पढ़े-लिखे, असहिष्णु, हुक्म चलानेवाले, हठी हुक्मरान, मुखर, अपने प्रति सजग सब कुछ प्राप्त करने की लालसा रखनेवाले कुछ गुस्सैल किस्म के व्यक्ति थे।
(ख) भारतीय संस्कृति के अनुसार एक स्त्री को अपने पति की उचित – अनुचित प्रत्येक आज्ञा को शिरोधार्य करके उसका अक्षरशः पालन करना चाहिए। अपने परिवार तथा घर-गृहस्थी के उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना चाहिए और उसे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे समाज में उसके पति, बच्चों अथवा परिवार की फजीहत हो। लेखिका की माँ भारतीय संस्कृति के साँचे में पूरी तरह ढली थीं; क्योंकि उसने सदैव अपने पति की प्रत्येक ज्यादती को ईश्वर का प्रसाद मानकर सहजभाव से स्वीकार किया। बच्चों की जिद और उचित-अनुचित फरमाइशों को भी सम्भवतः यही सोचकर पूरा किया कि यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो बच्चे निरंकुश हो जाएँगे अथवा अपनी उन आवश्यकताओं की पूर्ति वे घर से बाहर नैतिक-अनैतिक का ध्यान रखे बिना करेंगे, जिससे परिवार की प्रतिष्ठा धूमिल भी हो सकती है।
(ग) माँ के त्याग को असहाय मजबूरी में लिपटा हुआ त्याग कहने से लेखिका का आशय यह है कि माँ यदि पढ़ी-लिखी कुछ कर पाने में समर्थ महिला होतीं तो वे निश्चय ही पिता की ज्यादतियों को चुपचाप सहन न करतीं, यदि उनमें उचित – अनुचित की विवेक बुद्धि होती तो हम बच्चों की जिदों और अनुचित फरमाइशों को कदापि न स्वीकार करतीं, यदि वे अपने समाज के वातावरण के प्रति सजग होतीं तो निश्चय ही कभी-न-कभी कुछ-न-कुछ अपने लिए भी अवश्य ही माँगतीं, यदि उन्होंने यह सब नहीं किया तो इसे उनका त्याग नहीं कहा जा सकता, वह निश्चय ही उनकी मजबूरी थी, असहायावस्था थी। वास्तव में त्याग वह होता है, जो सुविधाओं के उपलब्ध होते हुए स्वेच्छा से किया जाता है।
(घ) माँ के सद्गुण लेखिका के आदर्श इसलिए नहीं बन सके; क्योंकि उनके त्याग और सहिष्णुता आदि गुण आत्मसंयम और कर्मों द्वारा अर्जित नहीं थे, वरन् वे उनकी असहाय मजबूरी के परिणाम थे और किसी की असहायावस्था अथवा मजबूरी किसी की सहानुभूति का कारण तो अवश्य बन सकती है, किसी का आदर्श और प्रेरणास्त्रोत कदापि नहीं।
(ङ) लेखिका ने अपनी माँ में धैर्य और सहनशीलता के गुण दब्बूपन के रूप में देखे । इसीलिए पिताजी की ज्यादती तथा बच्चों की फरमाइश एवं जिद को सहजभाव से स्वीकार करती थीं। उनमें त्याग का गुण विद्यमान था, किन्तु मजबूरी के रूप में; क्योंकि वे अपने दब्बूपन और अज्ञानता के कारण कभी कुछ अपने लिए नहीं माँगती थीं ।
(च) लेखिका निश्चय ही महिला सशक्तीकरण की पक्षधर रही हैं, यही कारण है कि उन्होंने माँ के प्रति पिता की ज्यादतियों का उल्लेख करने में कोई संकोच नहीं किया। माँ को अपने अधिकार या तो उन्हें स्वयं मिलने चाहिए थे अथवा उन्हें अपने पति और बच्चों से माँगने चाहिए थे। उन्होंने ऐसा नहीं किया और सब कुछ चुपचाप सहन करती रहीं, उनकी इसी अवस्था पर क्षोभ प्रकट करते हुए ही उन्होंने ‘निहायत असहाय में लिपटा हुआ त्याग’ जैसा कथन प्रस्तुत गद्यांश में किया है।
(4) हाँ, इतना …….. बना दिया है।
प्रश्न –
(क) पाठ तथा लेखिका का नाम लिखिए।
(ख) गद्यांश का आशय लिखिए ।
(ग) पड़ोस – कल्चर से विच्छिन्न होकर क्या विषमताएँ उत्पन्न हो गई हैं?
(घ) घर की दीवारें पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं, लेखिका के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ङ) लेखिका को बड़ी शिद्दत के साथ क्या महसूस होता है?
(च) ‘पड़ोस – कल्चर’ से विच्छिन्न होने का क्या दुष्परिणाम हमें प्राप्त हुआ है?
उत्तर-
(क) पाठ का नाम – एक कहानी यह भी । लेखिका – मन्नू भण्डारी ।
(ख) आशय – लेखिका अपने भाइयों के साथ लड़कों के क्रियाकलापों में भी भाग लेती। लेकिन भाइयों का खेल का दायरा घर के बाहर अधिक रहता और लेखिका का केवल ‘घर’ तक। लेखिका के अनुसार उस समय ‘घर’ का मतलब केवल घर नहीं था, बल्कि पूरा मोहल्ला ही ‘घर’ हुआ करता था; अर्थात् मोहल्ले के सभी घरों में एकता, प्यार, अपनापन, पारिवारिकता होती थी। इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में आने-जाने पर कोई पाबन्दी नहीं थी। बल्कि मोहल्ले के कुछ घरों से तो अत्यन्त मधुर पारिवारिक सम्बन्ध थे। आज ऐसा नहीं है। महानगरीय जीवन-शैली के अपनी जिन्दगी खुद जीने के आधुनिक दबाव ने महानगरों में बने फ्लैट में रहनेवाले लोगों को भारतीय संस्कृति के इस ‘पड़ोस कल्चर’ से अलग कर दिया है। आशय यह है कि महानगरीय व्यक्ति आज केवल अपने तक सीमित होकर रह गया है, अपने पड़ोसी के सुख-दुःख से उसे कोई सरोकार नहीं रह गया है, इसलिए पड़ोसी भी उसके सुख-दुःख में भागीदार नहीं होते । व्यक्ति अपने सुख भी अकेले ही बाँटता है और दुःख भी उसे अकेले ही सहन करने पड़ते हैं। न सुख में कोई उसे उत्साहित करता है, न दुःख में सांत्वना देता है। इस प्रकार आज व्यक्ति की सोच संकुचित हो गई है। वह स्वयं को असहाय अनुभव करने लगा है और इसीलिए वह स्वयं को असुरक्षित समझता है।
(ग) पड़ोस कल्चर से विच्छिन्न होकर संकोच, असहायता, असुरक्षा जैसी विषमताएँ उत्पन्न हो गई हैं।
(घ) घर की दीवारें पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं, लेखिका के इस कथन का आशय यह है कि वे जिस समय की बात कर रही हैं, उस समय के समाज में आपस में मेलजोल, प्रेम और सुख – दुःख में एक-दूसरे का हाथ बँटाने की भावना बड़ी प्रबल थी। यही कारण था कि पूरा मोहल्ला एक परिवार के समान होता था। पड़ोसी का सुख – दुःख पूरे मोहल्ले का सुख – दुःख होता था, किसी एक की भी बहू-बेटी पूरे मोहल्ले की बहू-बेटी होती थी, जिस कारण दुराचरण का भय समाज में प्रायः नहीं था, अतः बहू-बेटियों को मोहल्ले के घरों में आने-जाने की पूरी स्वतन्त्रता थी। लोगों का यही मानना था कि बहू-बेटियाँ जितनी अपने घर में सुरक्षित हैं, उतनी ही पूरे मोहल्ले में सुरक्षित हैं।
(ङ) लेखिका को बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि . आज पुराने जमाने की वह ‘पड़ोस कल्चर’ आदमी की अपनी जिन्दगी खुद जीने की महानगरीय फ्लैट परम्परा के कारण समाप्त हो गई है।
(च) ‘पड़ोस कल्चर’ से विच्छिन्न होने का हमें यह दुष्परिणाम प्राप्त हुआ है कि हम पहले से अधिक संकुचित, असहाय और असुरक्षित हो गए हैं।
(5) आज पीछे ………. टकराहट का है?
प्रश्न –
(क) पाठ तथा लेखिका का नाम लिखिए।
(ख) लेखिका को आज क्या समझ में आता है?
(ग) किसके मूल में क्या रहने की बात यहाँ कही गई है ?
(घ) पिताजी के अन्तर्विरोधों का जो उदाहरण लेखिका ने दिया है, उसे स्पष्ट कीजिए।
(ङ) लेखिका जिसे टकराहट का रास्ता कह रही है, वह रास्ता क्या था और क्या आप लेखिका के मत से सहमत हैं?
उत्तर-
(क) पाठ का नाम – एक कहानी यह भी । लेखिका – मन्नू भण्डारी ।
(ख) लेखिका को आज समझ में आता है कि छात्र आन्दोलन के दौरान दिया गया उसका भाषण निश्चय ही उस उच्चस्तर का नहीं रहा होगा कि डॉ० अम्बालाल जैसा प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्ति उसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करे तथा जिसे सुनने के लिए शहर के चारों ओर से भीड़ उमड़ पड़े। लेखिका की दृष्टि में ऐसा होने के कारण स्पष्ट थे कि डॉ० अम्बालाल के उसके भाषण की प्रशंसा करने का कारण उनका लेखिका के प्रति स्नेहभाव था तथा चारों ओर से भीड़ उमड़ने का कारण यह है कि उस जमाने में जब लड़कियों के घर से बाहर निकलने पर पाबन्दी थी, उस समय एक लड़की बीच शहर भरे चौराहे पर बिना किसी संकोच और झिझक के धुआँधार बोले चली जा रही थी, उस लड़की का वह साहस तब एक आश्चर्य से कम न था, जिसे कुतूहलपूर्वक देखने के लिए लोग वहाँ उमड़ आए थे।
(ग) डॉ० अम्बालाल जैसे प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्ति द्वारा एक नादान – सी लड़की के भाषण की प्रशंसा करने तथा भीड़ के उमड़ आने के मूल में लेखिका तत्कालीन सामाजिक स्थिति को मानती कि उस समय लेखिका का वैसा करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए कुतूहल और आश्चर्य की बात थी।
(घ) पिताजी समाज में विशिष्ट बनने और बनाने की लालसा रखने के साथ यह भी चाहते थे कि उनकी सामाजिक छवि निर्दोष बनी रहे, यही बात उनके व्यक्तित्व के अन्तर्विरोधों को स्पष्ट करने के लिए `पर्याप्त थी। व्यक्ति समाज में कोई विशिष्ट स्थिति रखे और कोई उसका आलोचक न हो, ऐसा सम्भव नहीं है, जबकि पिताजी इन दोनों विरोधी बातों को सम्भव होते देखना चाहते थे। उनकी इस स्थिति को लेकर लेखिका ने जो टिप्पणी की है कि पिताजी अन्तर्विरोधों के बीच जीते थे, वह उचित ही है।
(ङ) समाज में विशिष्ट और निर्दोष बने रहना दोनों विरोधी बातें हैं। विशिष्ट व्यक्ति पर लोग कीचड़ उछालते ही हैं और जो पूरे समाज की दृष्टि में निर्दोष हो, वह विशिष्ट नहीं हो सकता; क्योंकि विशिष्ट व्यक्ति तभी बन सकता है, जब वह किसी विचारधारां का पक्षधर अथवा विरोधी बनकर समाज प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि का केन्द्र बन जाए। इस दृष्टि से विशिष्ट और निर्दोष बनने के रास्ते परस्पर टकराहटवाले हैं, लेखिका का यह मत सर्वथा उचित और सनातन है।
3. पाठ पर आधारित विषयवस्तु सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1 – लेखिका ने स्वयं में हीनभावना तथा आत्मविश्वास की कमी का क्या कारण बताया है?
उत्तर – लेखिका ने स्वयं में हीनभावना तथा आत्मविश्वास की कमी का कारण इस प्रकार बताया है—
मैं काली हूँ। बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिताजी की कमजोरी थी, सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही, मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन भाव की ग्रन्थि पैदा कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई। आज भी परिचय करवाते समय जब कोई कुछ विशेषता लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियों का जिक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती, बल्कि गड़ने-गड़ने को हो आती हूँ। शायद अचेतन की किसी पर्त के नीचे दबी इसी हीन भावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती….सब कुछ मुझे तुक्का ही लगता है।
प्रश्न 2 – शीला अग्रवाल कौन थीं? लेखिका उनसे किस प्रकार प्रभावित थी?
उत्तर – शीला अग्रवाल लेखिका क़ी हिन्दी की प्राध्यापिका थीं। लेखिका सावित्री गर्ल्स हाईस्कूल में पढ़ती थी, जहाँ शीला अग्रवाल से उसकी भेंट हुई थी। उन्होंने लेखिका का साहित्य में प्रवेश कराया । श्रेष्ठ साहित्य का चयन करके पढ़ने की सलाह दी, पढ़ी हुई किताबों पर विचार-विमर्श किया। शीला अग्रवाल ने साहित्य का दायरा ही नहीं बढ़ाया, बल्कि लेखिका को घर की चहारदीवारी के बीच से बाहर निकलकर कुछ आगे बढ़ने की भी प्रेरणा दी।
4. विचार/सन्देश से सम्बन्धित लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1 – ‘ एक कहानी यह भी’ मन्नू भण्डारी की आत्मकथा का एक अंश है। आत्मकथा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- आत्मकथा
जब लेखक किसी कृति में अपने जीवन की घटनाओं को स्वयं लिपिबद्ध करता है तो उसे ‘आत्मकथा’ कहते हैं।
आत्मकथा के लेखक को अपने जीवन-विषयक तथ्यों के प्रति तटस्थ रहना पड़ता है। इसलिए अनेक बार उसे अपने गुण-दोषों का निर्मम होकर वर्णन करना पड़ता है। आत्मकथा लेखक का उद्देश्य भी यही होता है कि वह आत्मनिरीक्षण भी करे और अतीतकालीन स्मृतियों शब्दों में- “जहाँ तक आत्मकथा लिखने का उद्देश्य है, उसमें एक ओर को ललित-पद्धति से उपस्थित करे। डॉ० पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश के आत्मनिरीक्षण या आत्म-परीक्षण होता है और दूसरी ओर अतीत की स्मृतियों को पुनर्जीवित करके निश्चय अपनी स्थिति का स्पष्ट दर्शन करना या अपने अनुभवों से दूसरों को लाभान्वित करना होता है। इसीलिए आत्मकथा को ‘आत्मचरित’ या ‘आत्म-कहानी’ भी कहा जाता है। “
इस प्रकार आत्मकथा लेखन के सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके लेखक के पास ऐसा खुला हुआ मन होना चाहिए, जो अपनी समस्त दुर्बलताओं को भी स्वीकार कर सके ।
प्रश्न 2 – ‘एक कहानी यह भी’ की विषयवस्तु क्या है?
उत्तर – ‘एक कहानी यह भी’ लेखिका मन्नू भण्डारी की आत्मकथा का एक अंशमात्र है, इसलिए हम इसे आत्मकथा तो नहीं कह सकते। हाँ, इसे आत्मकथ्य अवश्य कहा जा सकता है; क्योंकि इसमें लेखिका को अपने माता-पिता और हिन्दी शिक्षिका को व्यक्तित्व के अपने ऊपर पड़े प्रभावों का उल्लेख किया है। अपने कॉलेज जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं को भी उसने प्रस्तुत करते हुए यह समझाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार एक साधारण लड़की असाधारण (विशेष) बन गई। अपने इस आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के ही विषय में लिखा है, जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं। प्रस्तुत अंश में मन्नूजी के किशोर जीवन से जुड़ी घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का व्यक्तित्व विशेष तौर पर उभरकर सामने आया है, जिन्होंने आगे चलकर उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सन् 1946-47 ई० की आजादी की आँधी ने मन्नूजी को भी अछूता नहीं छोड़ा। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आजादी की लड़ाई में जिस तरह भाग लिया उसमें उसका उत्साह, ओज, संगठन – क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है और इन्हीं सबने उसे साधारण से असाधारण बना दिया ।
5. पाठ्यपुस्तक के ‘प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1—लेखिका ( मन्नू भण्डारी) के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का किस रूप में प्रभाव पड़ा?
अथवा ‘एक कहानी यह भी’ के आधार पर लेखिका मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का किस रूप में प्रभाव पड़ा?
उत्तर – लेखिका के व्यक्तित्व पर उसके पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। लेखिका में कुण्ठा, प्रतिक्रिया की प्रतिच्छाया पिता से ही आई। हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से प्रभावित होकर लेखिका के व्यक्तित्व में साहित्यकार के गुण आ गए। लेखिका की माँ का लेखिका के व्यक्तित्व पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा था। लेखिका ने इस विषय में स्वयं लिखा है- “हम भाई-बहिनों का सारा लगाव ( शायद सहानुभूति से उपजा ) माँ के साथ था, लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका।”
प्रश्न 2–इस आत्मकथ्य में लेखिका के पिता ने रसोई को ‘भटियारखाना’ कहकर क्यों संबोधित किया है?
उत्तर – लेखिका के पिता ने रसोई को ‘भटियारखाना’ इसलिए कहा है कि वे सोचते थे कि रसोई में लेखिका का रहना या कार्य करना उसका अपनी क्षमता और प्रतिभा को चूल्हे में झोंकना है।
प्रश्न 3 – वह कौन-सी घटना थी, जिसके बारे में सुनने पर लेखिका को न अपनी आँखों पर विश्वास हो पाया और न अपने कानों पर ?
उत्तर – लेखिका ने वह घटना इस प्रकार बयान की है— एक बार कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिताजी आकर मिलें और बताएँ कि मेरी गतिविधियों के कारण मेरे खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए? पत्र पढ़ते ही पिताजी आग-बबूला। “यह लड़की मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी…. पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर ! चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया।” गुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे। लौटकर क्या कहर बरपा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। माँ को कह दिया कि लौटकर जब बहुत-कुछ गुबार निकल जाए, तब बुलाना। लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो खुश ही हैं, चली चल, तो विश्वास नहीं हुआ। गई तो सही, लेकिन डरते-डरते। “सारे कॉलेज की लड़कियों पर इतना रौब है तेरा… सारा कॉलेज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है? प्रिंसिपल बहुत परेशान थी और बार-बार आग्रह कर रही थी कि मैं तुझे घर बिठा लूँ, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर, डाँट-डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। तुम लोगों के मारे कॉलेज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए।” कहाँ तो जाते समय पिताजी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है…इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला? बेहद् गद्गद स्वर में पिताजी यह सब सुनाते रहे और मैं अवाक् । मुझे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था, न अपने कानों पर। पर यह हकीकत थी।
प्रश्न 4 – लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – लेखिका के घर पिताजी के पास राजनैतिक पार्टियों के लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। जमकर बहस होती थी। पिताजी लेखिका को भी इन बैठकों में कही बातों को सुनने को कहते, जिससे पता चले कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। पिताजी की आजादी की सीमा यही थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठूं-बैठूं, जानू – समझू; जबकि लेखिका सड़कों पर नारे लगाती, बन्द करवाती, सड़कें नापती फिरती । पिताजी को लेखिका की ये गतिविधियाँ पसन्द न थीं। इसी बात पर उनमें वैचारिक टकराहट बनी रहती थी।
प्रश्न 5 – इस आत्मकथ्य के आधार पर स्वाधीनता – आंदोलन के परिदृश्य का चित्रण करते हुए उसमें मन्नूजी की भूमिका को रेखांकित कीजिए।
उत्तर— सन् 1946-47 ई० का समय था । स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष जोरों पर था। मन्नूजी अजमेर में रहती थीं। प्रभातफेरियाँ, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चरित्र था। मन्नूजी युवा थीं। वे भी स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने लगीं। हाथ उठा-उठाकर नारे लगातीं, हड़तालें करवातीं, लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापतीं। एक बार आजाद हिन्द फौज के मुकदमे के सिलसिले में अजमेर में मुख्य चौराहे पर भाषण भी दिया। उसकी बहुत प्रशंसा हुई । अन्ततः 15 अगस्त को देश स्वतन्त्र हो गया । लेखिका की भी इसमें छोटी-सी भूमिका थी। इस स्वतन्त्रता की सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई।