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UK Board 10 Class Hindi Chapter 8 – धन्यं भारतम् (संस्कृत विनोदिनी)

UK Board 10 Class Hindi Chapter 8 – धन्यं भारतम् (संस्कृत विनोदिनी)

UK Board Solutions for Class 10th Hindi Chapter 8 – धन्यं भारतम् (संस्कृत विनोदिनी)

धन्यं भारतम् (भारत धन्य है)
पाठ का सार
वरतन्तु-शिष्य कौत्स का आगमन – महाराज रघु अपनी वाटिका का भ्रमण करते हुए प्रकृति – सौन्दर्य का आनन्द ले रहे हैं। तभी द्वारपाल द्वार पर एक ब्रह्मचारी के आगमन की सूचना देता है । रघु उसको सम्मानसहित ले आने का आदेश देते हैं। द्वारपाल के साथ प्रवेश किया ब्रह्मचारी महाराज रघु का अभिवादन स्वीकार करके अपना परिचय महर्षि वरतन्तु के शिष्य के रूप में देता है। महाराज रघु गुरु वरतन्तु की कुशलक्षेम पूछते हैं।
कौत्स का अपने आने का प्रयोजन बताना – महाराज रघु कौत्स से उनके आगमन का कारण पूछते हैं। कौत्स महाराज रघु के चारों ओर मिट्टी के बर्तन देखकर संकोच से कुछ भी नहीं कह पाते कि ये तो इस समय स्वयं दरिद्र बने हुए हैं। ऐसे में इनसे कुछ माँगना उचित नहीं, यही सोचकर वे रघु से कुछ नहीं कहते, किन्तु रघु के आग्रह पर वह बताते हैं, गुरुजी ने मुझे चौदह विद्याएँ सिखाई हैं। उन्होंने मेरी सेवाभक्ति को ही गुरुदक्षिणा के रूप में स्वीकार करके मुझे विद्या के प्रचार का आदेश दिया, किन्तु मेरे बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह करने पर उन्होंने क्रोधित होकर मुझसे गुरुदक्षिणा के रूप में चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ लाने के लिए कहा है। मैं इसी के लिए यहाँ आया हूँ । परन्तु ……।
रघु का कुबेर पर आक्रमण का निश्चय – कौत्स के ‘परन्तु’ कहने से महाराज रघु उनकी शंका को जान लेते हैं। वे कहते हैं कि आप चिन्ता न करें, कुछ समय आप मेरे महल में ठहरें, तब तक मैं आपके लिए धन की व्यवस्था करता हूँ। इसके बाद वे प्रतीहारी से कुबेर पर आक्रमण करने हेतु अपना रथ और तरकश सजाने के लिए कहते हैं और स्पष्ट करते हैं कि हम कल कुबेर पर आक्रमण करेंगे।
रघु के कोषागार में धन वर्षा – प्रातः काल कोषाध्यक्ष आकर महाराज रघु को बताता है कि कुबेर ने रात्रि में कोषागार में रत्नों और स्वर्णमुद्राओं की वर्षा करके उसे भर दिया है।
रघु का कौत्स से सम्पूर्ण धन ग्रहण करने का आग्रह – महाराज रघु कौत्स से सम्पूर्ण धन ग्रहण करने का आग्रह करते हैं, किन्तु कौत्स केवल चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ही ग्रहण करने को उद्यत हैं। वे गुरुदक्षिणा से अधिक एक भी मुद्रा लेने को तैयार नहीं हैं। दोनों अपनी-अपनी बातों पर दृढ़ हैं। तभी आकाश से पुष्प-वर्षा होती है।
पाठाधारित अवबोधन-कार्य एवं भावानुवाद
निर्देशः – अधोलिखितं नाट्यांशं पठित्वा प्रश्नान् उत्तरत—
(1) (स्थानम् — राजप्रासादस्य ………….. सह प्रविशति ) 
शब्दार्थाः – राजप्रासादस्य = राजमहल की; आसनानि = आसन, बेंच अथवा कुर्सियाँ; विहरति = घूम रहे हैं; वीक्ष्य = देखकर; तपश्चरति = (तपः + चरति ) तप का आचरण कर रहे हैं; निःस्पृहः = बिना किसी चाह अथवा इच्छा के; यवनिका = परदा; अपसरति = हटता है; प्रकृतेः = प्रकृति का; अवलोकयन् = देखते हुए; विहसन्ति = प्रफुल्लित हैं, हँस रही हैं, लहरा रही हैं; कूजन्ति = कूजते हैं; अतिथिसेवार्थ = अतिथि की सेवा के लिए; पादपाः = वृक्ष; दौवारिकः = द्वारपाल ; प्रविशति = प्रवेश करता है; प्रतीहारभूमौ = ड्यौढ़ी पर; सादरम् = आदर के साथ; प्रवेशय = प्रवेश कराओ।
सन्दर्भः – प्रस्तुत नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत विनोदिनी भाग- द्वितीयः ) ‘ के ‘धन्यं भारतम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसकी कथा महाकवि कालिदास के रघुवंशम् महाकाव्य से ग्रहण की गई है।
प्रसंग : – प्रस्तुत नाट्यांश में दिलीप के पुत्र रघु के परिचय और उनके वाटिका – विहार का वर्णन किया गया है।
श्लोकान्वयः – अयं दिलीपस्य पुत्रः माता च अस्य सुदक्षिणा (अस्ति) । (अयम्) विश्वजित् यज्ञं कृत्वा निःस्पृहः तपः चरति ।
हिन्दी- भावानुवाद:-
(स्थान – राजमहल की वाटिका। यहाँ अनेक आसन हैं। महाराज रघु वाटिका में भ्रमण (विहार) कर रहे हैं। उसकी सुन्दरता को देखकर प्रसन्न होते हैं।)
(नेपथ्य में)
यह दिलीप के पुत्र हैं और इनकी माता सुदक्षिणा है। यह विश्वजित् यज्ञ करके इच्छारहित हुए तप का आचरण कर रहे हैं।
(परदा हटता है)
रघु – (प्रकृति के सौन्दर्य को देखते हुए) अहो! वाटिका की रमणीयता (सुन्दरता), वातावरण शान्त है, लताएँ हँस रही हैं, पक्षी कूजते हैं, वृक्ष अतिथि की सेवा के लिए प्रस्तुत हैं, ये सब तप का आचरण करते हैं।
(द्वारपाल प्रवेश करता है)
द्वारपाल – जय हो, जय हो महाराज! कोई ब्रह्मचारी ड्यौढ़ी पर खड़ा है।
रघु – ब्रह्मचारी ! ……… शीघ्र, आदर के साथ उसको प्रवेश कराओ।
(द्वारपाल जाता है, ब्रह्मचारी के साथ प्रवेश करता है।)
प्रश्नोत्तर
प्रश्नाः- 1. एकपदेन उत्तरत-
(क) वाटिकायां कानि आरक्षितानि सन्ति?
(ख) रघोः माता का?
(ग) का : विहसन्ति?
(घ) ब्रह्मचारी कुत्र तिष्ठति ?
उत्तरम्—
(क) आसनानि
(ख) सुदक्षिणा,
(ग) लता:,
(घ) प्रतीहारभूमौ ।
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
(क) महाराज: रघुः कुत्र विहरति ?
(ख) किं वीक्ष्य रघुः प्रसन्नः भवति ?
(ग) रघु किं कृत्वा निःस्पृहः तपश्चरति ?
(घ) अतिथिसेवार्थं के प्रस्तुताः ?
(ङ) दौवारिकः प्रविश्य किं कथयति ?
उत्तरम् –
(क) महाराज: रघुः वाटिकायां विहरति ।
(ख) वाटिकायां सौन्दर्यं वीक्ष्य रघुः प्रसन्नः भवति ।
(ग) रघु: विश्वजित् यज्ञं कृत्वा निःस्पृहः तपश्चरति ।
(घ) अतिथिसेवार्थं पादपाः प्रस्तुताः ।
(ङ) दौवारिकः प्रविश्य रघुं प्रति कथयति — जयतु जयतु महाराजः। कश्चिद् ब्रह्मचारी प्रतीहारभूमौ तिष्ठति ।
3. निर्देशानुसारम् उत्तरत-
(क) ‘आरक्षितानि’ अस्य विशेष्यपदं चिनुत ।
(ख) ‘दृष्ट्वा’ अस्य पर्यायवाचिपदं किम् अत्र ?
(ग) ‘प्रकृतेः’ अत्र प्रयुक्ता विभक्तिः का?
(घ) ‘सेवाय’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं अत्र किम् ?
(ङ) ‘प्रवेशय’ अत्र प्रयुक्तः लकारः कः ?
(च) ‘प्र’ उपसर्गयुक्तम् एकं पदं लिखत ।
उत्तरम् —
(क) आसनानि,
(ख) वीक्ष्य,
(ग) षष्ठी,
(घ) सेवार्थम्,
(ङ) लोट्लकारः,
(च) प्रा
(2) रघुः – नमः समागताय ……….. निःशकं वदतु।
शब्दार्था:- समागताय = आए हुए के लिए; प्रणाममुद्राम् = प्रणाम की मुद्रा को; समर्पयति = समर्पित करता है; दर्शयन् = दिखाते हुए; उपविशतु = बैठे; उपविश्य = बैठकर; एवम् = इस प्रकार ; गुरवे = गुरु के लिए; तपस्यायाम् = तपस्या में; क्वचित् = कोई; नोत्पद्यन्ते = उत्पन्न नहीं होते हैं; स्थिते भवति = आपके रहते, आपके होने पर; विशिष्टम् = विशेष; प्रयोजनम् = प्रयोजन, कारण; परितः = चारों ओर; मृन्मयानि = मिट्टी के; विलोक्य = (दृष्ट्वा) देखकर ; स्वगतम् = मन-हीं-मन में; वदानि = कहूँ; दरिद्रताम् = दरिद्रता (गरीबी) को; आपन्नः = प्राप्त हुआ; दातुम् = देने के लिए; विचिन्तयति = सोच रहे हैं; दर्शनाय = दर्शन के लिए; भवादृशानाम् = आप जैसों का; लभते = प्राप्त करता है; निःशंकम् = निस्संकोच ।
प्रसंग :- रघु द्वारपाल के साथ आए ब्रह्मचारी को प्रणाम कर उसे आसन देते हैं। ब्रह्मचारी वरतन्तु ऋषि के शिष्य के रूप में अपना परिचय देता है । रघु उससे उसके गुरु और आश्रम की कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् उसके आने का कारण पूछते हैं। ब्रह्मचारी रघु के मिट्टी के बर्तनों को देखकर संकोचवश कुछ नहीं कह पाता। इसी का वर्णन प्रस्तुत नाट्यांश में किया गया है।
हिन्दी- भावानुवादः-
रघु – आए हुए ब्रह्मचारी को मेरा नमस्कार ( प्रणाम की मुद्रा प्रदर्शित करते हैं) आपका स्वागत है।
ब्रह्मचारी – आपका कल्याण हो ( आशीर्वाद की मुद्रा प्रदर्शित करता है, फल समर्पित करता है)।
रघु – (हाथ से आसन दिखाते हुए) आप बैठें अर्थात् आसन ग्रहण करें।
कौत्स – (बैठकर) मैं कौत्स, महर्षि वरतन्तु का शिष्य ।
रघु – ऐसा, गुरुजी के लिए नमस्कार। आपके दर्शन से ही मेरा जीवन पवित्र हो गया। आश्रम में सब कुशल हैं? तपस्या में कोई विघ्न तो उत्पन्न नहीं होते हैं?
कौत्स – सब कुशल हैं। आपके होते तपस्वियों को विघ्न कहाँ ? अर्थात् आपके रहते तपस्वियों को कोई विघ्न नहीं हो सकता।
रघु – अच्छा! आपके आगमन का कोई विशिष्ट प्रयोजन है?
कौत्स – (वहाँ चारों ओर स्थित मिट्टी के बर्तनों को देखकर मन-ही-मन) अरे, क्या कहूँ, यह तो स्वयं ही गरीबी को प्राप्त है। क्या दे सकता है ?
रघु – आप क्या सोच रहे हैं ?
कौत्स – नहीं …. नहीं …. नहीं ….। कुछ भी नहीं सोच रहा हूँ। आपके दर्शन के लिए ही आ गया हूँ।
रघु – (कौत्स के मुख को देखते हुए) बिना कारण के आप जैसों के दर्शन सामान्य व्यक्ति प्राप्त नहीं करता है। निस्संकोच कहो ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नाः- 1. एकपदेन उत्तरत-
(क) कं फलानि समर्पयति ?
(ख) वरतन्तो शिष्यः कः ?
(ग) कुत्र सर्वं कुशलम् अस्ति ?
(घ) रघु परितः कीदृशानि पात्राणि सन्ति?
(ङ) अयं तु स्वयं काम् आपन्नः ?
(च) सामान्यः जनः भवादृशानां किं न लभते ?
उत्तरम् –
(क) रघुम्,
(ख) कौत्स:,
(ग) आश्रमे,
(घ) मृन्मयानि,
(ङ) दरिद्रताम्,
(च) दर्शनम्।
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
(क) कौत्सः कः ?
(ख) केन मम जीवनं पवित्रम् अभवत्?
(ग) तपस्यायां के तु नोत्पद्यन्ते ?
(घ) स्थिते भवति क्व विघ्नाः केषाम् ?
(ङ) किं विलोक्य कौत्सः स्वमनसि विचिन्तयति ?
(च) कौत्स : आगमनविषये किं कथयति ?.
(छ) कारणं विना भवादृशानां दर्शनं कः न लभते ?
उत्तरम्-
(क) कौत्सः महर्षिवरतन्तो शिष्यः अस्ति ।
(ख) भवतः दर्शनेन एव मम जीवनं पवित्रम् अभवत् ।
(ग) तपस्यायां क्वचित् विघ्नाः तु नोत्पद्यन्ते ।
(घ) स्थिते भवति क्व विघ्नाः तपस्विनाम् ।
(ङ) रघु परितः स्थितानि मृन्मयानि पात्राणि विलोक्य कौत्सः स्वमनसि विचिन्तयति ।
(च) कौत्सः आगमनविषये कथयति – भवतः दर्शनाय एव आगतवान् अस्मि ।
(छ) कारणं विना भवादृशानां दर्शनं सामान्यः जनः न लभते ।
3. निर्देशानुसारम् उत्तरत-
(क) ‘नमः समागताय ब्रह्मचारिणे ।’ अत्र कथं ‘ब्रह्मचारिणे’ अस्मिन् पदे चतुर्थी विभक्तिः प्रयुक्ता ?
(ख) ‘दर्शयन्’ अत्र प्रयुक्तः प्रत्ययः कः ?
(ग) ‘नोत्पद्यन्ते’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरुत ।
(घ) ‘स्थिते भवति’ अत्र ‘भवति’ अस्ति-
संज्ञापदम्, सर्वनामपदम्, क्रियापदम्।
(ङ) ‘पात्राणि’ अस्य विशेषणपदं किम् अत्र प्रयुक्तम् ?
(च) ‘लभते’ अस्य कर्तृपदं किम् अत्र ?
उत्तरम् –
(क) ‘नमः’ योगात्,
(ख) शतृ,
(ग) न + उत्पद्यन्ते,
(घ) सर्वनामपदम्,
(ङ) मृन्मयानि,
(च) सामान्यः जनः ।
(3) कौत्स :- राजन्! मम ………….. आवश्यकता आक्रमणस्य ।
शब्दार्थाः— माम् = मुझको; चतुर्दशविद्याः = चौदह विद्याएँ; पाठितवान् = पढ़ाईं; सेवाभावमेव = सेवाभाव को ही; स्वीकृत्य = स्वीकार करके; विद्याप्रचारार्थम् = विद्या के प्रचार के लिए; प्रदत्त = प्रदान किया; परञ्च = और फिर; ममानुरोधात् = (मम + अनुरोधात्) मेरे चौदह अनुरोध से; परिमिताः = परिमाणवाली; चतुर्दश-कोटिमुद्राः = चौदह करोड़ मुद्राएँ; याचिताः = माँगी गईं; दक्षिणारूपेण = दक्षिणास्वरूप, दक्षिणा में; तदर्थमेव = (तद् + अर्थम् + एव) उसके लिए ही; चिन्ता माऽस्तु = चिन्ता मत करो; अनन्तरम् = चलते; कोषः = खजाना; सकाशात् = समीप में; रिक्तहस्तः = खाली हाथ; याति = जाता है; निश्चप्रचम् = निश्चित रूप से प्रचारित है; निस्सरति = निकल जाता है; धनुः = धनुष को; तूणीरम् = तरकश को; सज्जीकुरु = सजाओ; प्रातरेव = (प्रातः + एव) प्रातः ही; अभियास्यामि = आक्रमण/चढ़ाई करूंगा; आत्मगतम् = स्वयं से; साधयिष्यति = साधेगा, व्यवस्था करेगा; चन्द्रिकामृतम् = चन्द्रिकारूपी अमृत; वितीर्य = फैलाकर; क्षीणचन्द्रः = क्षीण चन्द्रमा; गगनचारिणः = आकाश में विचरण करनेवाले; आक्रमितुम् = आक्रमण करने के लिए; सिद्धः = सिद्ध, तैयार; विज्ञाय = जानकर; रात्रौ = रात्रि में; महाघैः = अतिमूल्यवानों से; आपूरितः कृतः = पूर्ण किया गया; पूरा भरा गया; साम्प्रतम् = इस समय ।
प्रसंग : – प्रस्तुत नाट्यांश में कौत्स अपने आने का कारण बताते हैं और रघु उसकी पूर्ति के लिए कुबेर पर आक्रमण करने की योजना बनाते हैं, किन्तु कुबेर रात्रि में ही धन की वर्षा करके उनके रिक्त राजकोष को पूरा भर देते हैं।
हिन्दी- भावानुवादः-
कौत्स – राजन्! मेरे गुरु ने मुझको चौदह विद्याएँ पढ़ाई । यद्यपि गुरु के द्वारा मेरे सेवाभाव को ही दक्षिणा के रूप स्वीकार करके विद्या के प्रचार के लिए आदेश प्रदान किया गया और फिर बार-बार मेरे अनुरोध (करने) से क्रोधित हुए उनके द्वारा चौदह विद्याओं के परिमाण से चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा के रूप में माँगी गईं। मैं उसी के लिए आया हूँ । परन्तु ….. ।
रघु- परन्तु क्या ? चिन्ता मत करो। यद्यपि विश्वजित् यज्ञ के चलते मेरा खजाना खाली हो गया, तथापि रघु के पास से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं गया, यह निश्चित प्रचारित है। कुछ समय तक आप राजभवन में ही ठहरें, मैं तब तक धन की व्यवस्था करता हूँ। (यह कहकर स्वयं निकलता है, प्रतीहारी को (कहता है) मेरा रथ, धनुष और तरकश सजाओ / तैयार करो, प्रातः ही कुबेर पर आक्रमण / चढ़ाई करूंगा।)
कौत्स- (स्वयं से) अहो! नहीं पता राजा कैसे सब साधेंगे अर्थात् व्यवस्था करेंगे। यह दान से खाली हुआ खजाना भी उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार चाँदनीरूपी अमृत कों फैलाकर क्षीण चन्द्रमा सुशोभित होता है ।
(नेपथ्य में)
आकाश में विचरण करनेवाले सावधान हों। यह सूर्यवंश के दीपकस्वरूप रघु कुबेर के खजाने पर आक्रमण करना चाहते हैं।
(द्वितीय दृश्य )
(प्रभातकाल के समय रघु युद्ध वेश को धारण किए हैं, वैसे ही कोषाध्यक्ष प्रवेश करके)
कोषाध्यक्ष – जय हो, जय हो महाराज !
रघु- आज कैसे प्रातः काल में ही आना हुआ ?
कोषाध्यक्ष – आश्चर्य महाराज! आश्चर्य, कुबेर द्वारा सब वृत्तान्त जानकर रात्रि में ही खजाना बहुमूल्य रत्नों और स्वर्णमुद्राओं से पूरी तरह भर दिया गया। इस समय आक्रमण की कोई आवश्यकता नहीं है।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नाः- 1. एकपदेन उत्तरत-
(क) कौत्सः कतिविद्याः पठितवान् ?
(ख) गुरुणाः किम् आदेशः प्रदत्तः ?
(ग) कस्य सकाशात् कश्चिदपि न्याचकः रिक्तहस्तः न याति ?
(घ) केन अयं कोष : रिक्त: ?
(ङ) केन कोष आपूरित: कृत: ?
(च) साम्प्रतं कस्य आवश्यकता नास्ति ?
उत्तरम्-
(क) चतुर्दशविद्या:,
(ख) विद्याप्रचारार्थम्,
(ग) रघोः,
(घ) दानेन,
(ङ) कुबेरेण,
(च) आक्रमणस्य ।
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
(क) गुरुणा किं स्वीकृत्य विद्याप्रचारार्थम् आदेशः प्रदत्तः ?
(ख) गुरुणा कथं चतुर्दशकोटिमुद्रा: दक्षिणारूपेण याचिता: ?
(ग) रघोः कोषः कदा रिक्तः ?
(घ) रघुः प्रतीहारिणं प्रति किं कथयति ?
(ङ) रघोः रिक्त: कोषः कीदृशं शोभते ?
(च) कोषाध्यक्षेण किं सूचितम् ?
उत्तरम् –
(क) गुरुणा कौत्सस्य सेवाभावमेव दक्षिणारूपेण स्वीकृत्य विद्याप्रचारार्थम् आदेशः प्रदत्तः ।
(ख) वारं वारं कौत्सस्य अनुरोधात् क्रुद्धेन गुरुणा चतुर्दशपरिमिता:· चतुर्दशकोटिमुद्रा: दक्षिणारूपेण याचिताः ।
(ग) विश्वजित्यज्ञानन्तरं रघोः कोषः रिक्तः ।
(घ) रघुः प्रतीहारिणं प्रति कथयति — मम रथं धनुः तूणीरं च सज्जीकुरु, प्रातरेव कुबेरम् अभियास्यामि।
(ङ) रघोः रिक्तः कोषः तथैव शोभते, यथा चन्द्रिकामृतं वितीर्य क्षीणचन्द्रः शोभते ।
(च) कोषाध्यक्षेण सूचितम् — कुबेरेण सर्वं वृत्तान्तं विज्ञाय प्रश्नाः रात्रौ एव कोषः महाघैः रत्नैः स्वर्णमुद्राभिः च आपूरितः कृतः ।
3. निर्देशानुसारम् उत्तरत-
(क) ‘मम सेवाभावमेव’ अत्र ‘मम’ इति सर्वनामस्थाने कः संज्ञाप्रयोगः कर्त्तव्यः ?
(ख) ‘आदरेण सहितम्’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किम् अत्र ?
(ग) ‘कालम्’ अस्य विशेषणपदं नाट्यांशात् चिनुत ।
(घ) ‘यातीति’ अस्य सन्धिच्छेदं कुरु ।
(ङ) ‘कोषस्य अध्यक्ष : ‘ अस्य समस्तपदं नाट्यांशात् चित्वा लिखत |
(च) ‘विज्ञाय’ अस्य पदस्य प्रकृति-प्रत्ययं लिखत ।
उत्तरम् –
(क) कौत्सस्य,
(ख) सादरम्,
(ग) किञ्चित्,
(घ) याति + इति,
(ङ) कोषाध्यक्षः,
(च) वि + √ज्ञा = ल्यप्।
(4) रघुः – शोभनोऽयं वृत्तान्तः ……….. ( पटाक्षेपः)
शब्दार्थाः – शोभनः = सुन्दर; अविलम्बमेव = बिना देर के ही, शीघ्र ही; समर्पयामः = समर्पित करते हैं; परिभ्रम्य = घूमकर; उपगम्य = पास जाकर; कोषागारस्थाः = खजाने में स्थित; कोणे = कोने में; साश्चर्यम् = आश्चर्यसहित; भवतः एव = आपकी ही; कदापि = कभी भी; स्वीकरिष्यामि = स्वीकार करूँगा; लुब्धकत्वेन = लोभी से, ठग से; गच्छतु = जाएँ; उभावपि = (उभौ + अपि) दोनों भी; दातुम् = देने के लिए; अस्वीकर्तुम् = अस्वीकार करने के लिए; दृढौ भवतः = दृढ़ हैं; तस्मिन्नेव = उसी; पुष्पवृष्टिः = फूलों की वर्षा; ईदृशः = ऐसा; उभाभ्याम् = दोनों से; धरणी = धरती; पटाक्षेपः = पर्दा गिरता है।
प्रसंग : — कोषाध्यक्ष द्वारा कोषागार में धन-वर्षा का वृत्तान्त सुनकर रघु प्रसन्न होते हैं और वे उस सम्पूर्ण धन को कौत्स से ग्रहण करने के लिए कहते हैं; किन्तु कौत्स सम्पूर्ण धन को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। दोनों अपने-अपने निश्चय पर दृढ़ हैं। तभी आकाश से पुष्पवर्षा होती है और सब उन्हें तथा भारतभूमि को धन्य कह उठते हैं।
हिन्दी – भावानुवादः-
रघु – यह सुन्दर वृत्तान्त (समाचार) है। तो हम शीघ्र ही कौत्स को सम्पूर्ण धन समर्पित करते हैं। ( घूमकर कौत्स के पास जाकर )
रघु – ब्रह्मचारि! सब सिद्ध हो गया है। आप खजाने में स्थित सब मुद्राएँ स्वीकार करें। (कोने में खजाना दिखाते हैं।)
कौत्स – (खजाने में स्थित मुद्रा देखकर आश्चर्यसहित) परन्तु इन मुद्राओं का मैं क्या करूँगा? मैं तो केवल गुरुदक्षिणा के योग्य मुद्राएँ स्वीकार करूँगा। अन्यथा ब्रह्मचारियों को मुद्राओं की क्या आवश्यकता है?
रघु – (यह) तो सत्य है, परन्तु स्वयं ही कुबेर के द्वारा मुद्राएँ सम्भावित ( उत्पन्न की गई) हैं। यह सब आपका ही है। मुद्राओं का मेरा प्रयोजन नहीं है।
कौत्स – नहीं, कभी भी अधिक नहीं स्वीकार करूँगा । जितनी गुरु के लिए देय हैं, उतनी ही स्वीकार करूँगा। अन्यथा लोभी के रूप में मेरी गिनती होगी।
रघु – परन्तु इनका मैं क्या करूँगा । सब आपका है। सब स्वीकार करके जाएँ।
(दोनों ही परस्पर देने के लिए और अस्वीकार करने के लिए दृढ़ हैं। उसी समय पुष्प वर्षा होती है।)
(नेपथ्य में)
ऐसा यह दाता धन्य है (और) यह याचक (भी) निश्चय ही धन्य है। दोनों से (यह ) धरती धन्य है और भारत धन्य है, धन्य है।
( पर्दा गिरता है।)
प्रश्नोत्तर
1. एकपदेन उत्तरत-
(क) अयं शोभनः कः ?
(ख) अविलम्बमेव कस्मै सर्वं धनं समर्पयामः ?
(ग) कौत्सः कतिमुद्राः स्वीकरिष्यति ?
(घ) अन्यथा केन मम गणना भविष्यति ?
उत्तरम् —
(क) वृत्तान्त:,
(ख) कौत्साय,
(ग) गुरुदक्षिणायोग्याम्,
(घ) लुब्धकत्वेन ।
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
(क) रघुः कौत्सं कां स्वीकर्तुं कथयति ?
(ख) कौत्सः कां स्वीकरिष्यति ?
(ग) कदा लुब्धकत्वेन कौत्सस्य गणना भविष्यति ?
(घ) उभावपि किं कर्तुं दृढौ भवतः ?
(ङ) कीदृश: दाता कीदृश: याचक: धन्यः ?
उत्तरम् –
(क) रघुः कौत्सं कोषागारस्थाः सर्वाः मुद्राः स्वीकर्तुं कथयति ।
(ख) कौत्सः केवलं गुरुदक्षिणायोग्यां मुद्राः स्वीकरिष्यति ।
(ग) यावत् गुरवे देयं तावदेव स्वीकरिष्यति अन्यथा लुब्धकत्वेन कौत्सस्य गणना भविष्यति ।
(घ) उभावपि परस्परं दातुम्, अस्वीकर्तुं च दृढौ भवतः ।
(ङ) रघुः सदृश: दाता, कौत्सः सदृशः याचकः धन्यः ।
3. निर्देशानुसारम् उत्तरत-
(क) अत्र सम्बोधनपदं किम् ?
(ख) ‘न तु’ इत्यर्थे प्रयुक्तम् अव्ययपदं किम् अत्र ?
(ग) ‘गुरवे ‘ अत्र प्रयुक्ता विभक्तिः का?
(घ) ‘उभावपि’ अस्य पदस्य सन्धिच्छेदं कुरुत ।
(ङ) ‘स्वीकर्तुम् अस्य विलोमपदं चिनुत ।
(च) ‘दृढौ भवतः’ अत्र ‘भवत:’ इति कीदृशं पदम् अस्ति— क्रियापदम्, सर्वनामपदम्, संज्ञापदम् ।
(छ) ‘पुष्पवृष्टिः’ अस्य क्रियापदं किम् ?
(ज) ‘लोभी’ अस्य पर्यायवाचिपदं किम् अत्र प्रयुक्तम् ?
उत्तरम्-
(क) ब्रह्मचारिन्,
(ख) अन्यथा,
(ग) चतुर्थी,
(घ) उभौ + अपि,
(ङ) अस्वीकर्तुम्,
(च) क्रियापदम्,
(छ) भवति,
(ज) लुब्धकः ।
सम्पूर्णपाठाधारिताः अभ्यासप्रश्नाः
(1) एकपदेन उत्तरत-
(क) ब्रह्मचारी कः आसीत्?
उत्तरम् — कौत्सः ।
(ख) रघुः कं यज्ञं कृतवान्?
उत्तरम् – विश्वजित्यज्ञम् ।
(ग) कौत्सः कस्य शिष्यः आसीत्?
उत्तरम् — महर्षिवरतन्तोः ।
(घ) कौत्सस्य विद्यानां संख्या का ?
उत्तरम् – चतुर्दश ।
(ङ) कौत्सः कति मुद्राः इच्छति स्म ?
उत्तरम् – चतुर्दशकोटिमुद्राः ।
(च) राजा रघुः कस्य पुत्रः आसीत्?
उत्तरम् – दिलीपस्य ।
(2) पूर्णवाक्येन उत्तरं लिखत-
(क) कौत्सः रघुं दृष्ट्वा किं विचारयति?
उत्तरम् — कौत्सः रघुं दृष्ट्वा विचारयति – अये किं वदानि, अयं तु स्वयं दरिद्रताम् आपन्नः । किं दातुं शक्नोति ?
(ख) वरतन्तोः शिष्यः कः आसीत्?
उत्तरम्— वरतन्तोः शिष्यः कौत्सः आसीत्।
(ग) कौत्सः फलानि कस्मै ददाति ?
उत्तरम्— कौत्सः फलानि रघवे ददाति ।
(घ) कौत्सः सर्वं धनं किमर्थं न गृह्णाति ?
उत्तरम् – कौत्सः सर्वं धनं न गृह्णाति; यतः यदि सः सर्वं धनं ग्रहीष्यति, तर्हि लुब्धकत्वेन तस्य गणना भविष्यति ।
(ङ) रघुः किमर्थं सर्वं धनं दातुम् इच्छति ?
उत्तरम् — स्वयमेव कुबेरेण तस्मै सम्भाविताः मुद्रा:; अतः रघुः सर्वं धनं दातुम् इच्छति ।
(च) रघुः कुत्र भ्रमति ?
उत्तरम् — रघुः वाटिकायां भ्रमति ।
(छ) सुदक्षिणा कस्य माता अस्ति?
उत्तरम् – सुदक्षिणा रघोः माता अस्ति ।
(3) रिक्तस्थानानि पूरयत-
(क) रघु: …………. अपश्यत्।
(ख) कौत्सः ………….. शिष्यः ।
(ग) उभाभ्यां ………… धन्या।
(घ) नम: ………….. ब्रह्मचारिणे ।
(ङ) क्व विघ्नाः ……………. ।
उत्तरम् —
(क) रघुः प्रकृतेः सौन्दर्यम् अपश्यत् ।
(ख) कौत्सः महर्षिवरतन्तोः शिष्यः ।
(ग) उभाभ्यां धरणी धन्या ।
(घ) नमः समागताय ब्रह्मचारिणे ।
(ङ) क्व विघ्नाः तपस्विनाम् ।

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