UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 2 पारितन्त्र के प्रकार
UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 2 पारितन्त्र के प्रकार
UK Board Solutions for Class 9th Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 2 पारितन्त्र के प्रकार
• विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – पारिस्थितिक तन्त्र कितने प्रकार के होते हैं? उनकी विशेषताओं का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर – वास्तव में हमारी पृथ्वी स्वयं एक वृहद् पारितन्त्र है, जिसमें विभिन्न प्रकार के पारितन्त्र क्रियाशील रहते हैं। लघु स्तर पर एक गाँव, एक आवासीय परिसर, एक झील, नदी या तालाब आदि का भी अपना पारितन्त्र होता है।
प्रत्येक प्रकार के पारितन्त्र में भौतिक अवस्थाओं की विविधताएँ एवं विभिन्न प्रकार के जीवों के विशिष्ट अन्तर्सम्बन्ध पाए जाते हैं। इस दृष्टि विभिन्न प्रकार के पारितन्त्रों का सामान्य परिचय और विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- (1) वन पारितन्त्र – वृक्षप्रधान प्राकृतिक पौधों के समुदायों को वन कहा जाता है। वन पारितन्त्र को जीवोम (Biom) भी कहा जाता है। वन पारितन्त्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
- वन पारितन्त्र में कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ मृदा एवं वायुमण्डल में विद्यमान होते हैं।
- इस पारितन्त्र में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे उत्पादक के रूप में होते हैं।
- वन पारितन्त्र में तीन प्रकार के उपभोक्ता पाए जाते हैं— प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक ।
- वन पारितन्त्र में अनेक प्रकार के छोटे-छोटे सूक्ष्म जीव होते हैं। इनमें कवक और जीवाणु तथा एक्टीनोमाइसीट (कवक और जीवाणु के बीच के जीव) पाए जाते हैं।
- घास भूमि पारितन्त्र – पृथ्वी के उन भागों में जहाँ शीतकाल काफी ठण्डा और ग्रीष्मकाल काफी गर्म होता है, वहाँ घास भूमि पारितन्त्र की प्रधानता होती है। स्थलीय भाग के लगभग 24% भाग पर घास भूमि का विस्तार पाया जाता है। घास पारितन्त्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
- इस पारितन्त्र में वृक्षों की उपस्थिति अल्प मात्रा में पाई जाती है। यहाँ कुछ झाड़ियों वाले पौधे एवं विभिन्न प्रकार की घास उत्पादक के रूप में मिलती है।
- घास भूमि पारितन्त्र में भी तीनों प्रकार के उपभोक्ता होते हैं। प्राथमिक उपभोक्ताओं में यहाँ गाय, भैंसा, हिरण, भेड़ें, खरगोश, चूहे आदि घास खाने वाले जीवों की प्रधानता होती है।
- घास भूमि पारितन्त्र में वियोजक के रूप में अनेक प्रकार के कवक और जीवाणु पाए जाते हैं।
- मरुस्थलीय पारितन्त्र – पृथ्वी पर जहाँ 25 सेमी से कम वर्षा होती है उन क्षेत्रों में मरुस्थलीय वन पारितन्त्र का विकास होता है। मरुस्थलीय पारितन्त्र की प्रमुख विशेषताओं का विवरण इस प्रकार है-
- इस पारितन्त्र में कम वर्षा तथा उच्च तापमान मिलता है। मरुस्थलीय पारितन्त्र में अपक्षय शक्तियों की प्रबलता होती है; अत: रेतीली मिट्टी का निर्माण अधिक होता है।
- मरुस्थलीय पारितन्त्र में उत्पादक के रूप में चार प्रकार के पादपों की पहचान की जाती है— (क) वार्षिक पौधे, जिसमें अनेक प्रकार की घास उत्पन्न होती है। (ख) मरुस्थलीय झाड़ियाँ, जिनके पत्ते शुष्क मौसम में झड़ जाते हैं। (ग) मांसल तने वाले पौधे; जैसे- कैक्टसं । (घ) सूक्ष्म वनस्पति, जिसमें लाइकेन तथा नीली हरित शैवाल आदि सम्मिलित होती है।
- मरुस्थलीय पारितन्त्र में उपभोक्ताओं के रूप में अनेक प्रकार कीट, पूर्वानुकूली जीव तथा सरीसृप मिलते हैं। इनमें साँप, कुतरने वाले जीव तथा ऊँट प्रमुख हैं।
- शुष्क या मरुस्थलीय पारितन्त्र में अपघटन क्रिया कम होती है। इसका मुख्य कारण शुष्क जलवायु व जीवों तथा वनस्पति का अभाव है। फिर यहाँ कुछ मात्रा में उष्णजीवी कवक और जीवाणु पाए जाते हैं।
- जलीय पारितन्त्र – जलीय पारितन्त्र अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें लघु स्तर पर झील, तालाब, नदियाँ, ज्वारनदमुख आदि मृदुल जलीय पारितन्त्र तथा वृहत स्तर पर खाड़ी सागर, महासागर आदि (लवणीय जल) पारितन्त्र देखे जाते हैं।
• लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – पारिस्थितिकी का क्या आशय है?
उत्तर — “पारिस्थितिकी जीव विज्ञान का वह भाग है, जिसके द्वारा हमें जीव तथा पर्यावरण की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं का बोध होता है । ” इस प्रकार विभिन्न जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा उनका भौतिक पर्यावरण से सम्बन्धों का अध्ययन पारिस्थितिक विज्ञान (Ecology) के अन्तर्गत किया जाता है।
पारिस्थितिकी को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है—
(1) पारिस्थितिकी पर्यावरण के सम्बन्ध में जीवों के अन्तःसम्बन्धों का अध्ययन है।
(2) पारिस्थितिकी वह विज्ञान है, जिसमें जीवों का उनके पर्यावरण और दर्शन, जिसमें सांसारिक जीवन को प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा विश्लेषित किया जाता है, के सम्बन्धों का पता लगाया जाता है।
(3) पारिस्थितिकी प्रकृति की संरचना व कार्य का अध्ययन है।
(4) पारिस्थितिकी को मानव व वातावरण की समग्रता का विज्ञान कहा जाता है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पारिस्थितिकी ‘जीवों के निवास स्थानों एवं वातावरणों का अध्ययन है। इसके अन्तर्गत जीवों के चारों ओर विद्यमान उन भौतिक दशाओं की विवेचना की जाती है जो जीवों पर प्रभाव डालती है और स्वयं प्रभावित होती है।
प्रश्न 2 – विकृत पारिस्थितिक तन्त्र का आशय स्पष्ट कीजिए ।
अथवा पारिस्थितिक तन्त्र के विकृत होने के क्या कारण हैं?
उत्तर – हमारी पृथ्वी एक वृहत पारितन्त्र है। इस पारितन्त्र की कार्यशैली और संरचना प्रकृति के द्वारा क्रमबद्ध ढंग से एक मशीन के समान संचालित होती है। पारितन्त्र की संरचना में निर्जीव या अजैविक संघटक और सजीव या जैविक संघटकों का पूर्ण योगदान रहता है।
ये दोनों संघटक परस्पर अन्तःक्रिया करते हुए विभिन्न प्रकार के पारितन्त्रों का संचालन करते रहते हैं। इनमें से जब किसी संघटक के किसी भी तत्त्व भी में एक सीमा तक प्राकृतिक या मानवीय कारणों से हस्तक्षेप होता है तो पारितन्त्र के संचालन की क्षतिपूर्ति प्रकृति के द्वारा स्वतः ही हो जाती है।
वर्तमान समय में, मानव की प्रकृति शोषण प्रवृत्ति’ के कारण पारितन्त्र के संघटकों में इतने बड़े स्तर पर हस्तक्षेप हुआ है कि प्रकृति भी इस क्षति को पूरा करने में समर्थ नहीं है। इसी के परिणामस्वरूप आज विभिन्न पारितन्त्र विकृत होते जा रहे हैं। जीवों और पादपों की अनेक प्रजातियाँ समाप्त हो गई हैं। जलवायु एवं जलचक्र बिगड़ गया है और धीरे-धीरे पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने की समस्या जटिल होती जा रही है। पारिस्थितिकी असन्तुलन की यही समस्या विकृत पारितन्त्र कहलाती है या विकृत पारितन्त्र असन्तुलित पारिस्थितिकी का ही परिणाम है।
प्रश्न 3 – जैविक घटक के अन्तर्गत उत्पादक जीवधारियों तथा उपभोक्ता जीवधारियों के परस्पर सम्बन्धों को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – किसी पारितन्त्र के जैविक घटकों को पोषण सम्बन्धों के आधार पर मुख्यत: उत्पादक और उपभोक्ता वर्गों में रखा जाता है। पोषण के आधार पर उत्पादक और उपभोक्ता परस्पर सम्बन्धित होते हैं। उत्पादक यद्यपि स्वपोषी होते हैं और ये अपना भोजन सूर्य ऊर्जा और मृदा खनिज प्रवाह के सहयोग से स्वयं बना लेते हैं परन्तु चक्रीय प्रक्रिया के अन्तर्गत अप्रत्यक्ष रूप से ये उपभोक्ता जीवधारियों से भी सहयोग प्राप्त करते हैं। उदाहरण के लिए — उत्पादकों के लिए मृदा को पोषक तत्त्वों की प्राप्ति विघटकों के द्वारा प्राप्त होती है। इसी प्रकार उपभोक्ता जीवधारी तो पूर्ण रूप से उत्पादक जीवधारियों पर ही निर्भर होते हैं क्योंकि ये अपना भोजन स्वयं बनाने में असमर्थ होते हैं। उदाहरण के लिए – प्राथमिक उपभोक्ता उत्पादकों पर तथा द्वितीयक उपभोक्ता प्राथमिक उपभोक्ताओं पर निर्भर होते हैं। इसी क्रम में तृतीयक प्रकार के जीवधारी प्रथम दोनों प्रकार के उपभोक्ता जीवधारियों पर निर्भर होते हैं। ये पौधों एवं जीवों दोनों खाकर जीवित रह सकते हैं। मगरमच्छ, लोमड़ी और मानव आदि इसी श्रेणी के जीव हैं। अत: जैविक संघटक में पोषण सम्बन्धों के आधार उत्पादक एवं उपभोक्ता जीवधारी पारस्परिक रूप से सम्बन्धित होते हैं।
• अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – चार शाकाहारी जीवों के नाम लिखिए ।
उत्तर- चार शाकाहारी जीवों के नाम निम्नलिखित हैं-
(1) गाय, (2) बकरी, (3) खरगोश तथा (4) हाथी ।
प्रश्न 2 – अजैविक वस्तुओं में से किन्हीं चार का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर – अजैविक वस्तुओं में भूमि, मृदा, खनिज तथा जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही अजैविक वस्तुएँ जैविक वस्तुओं के उद्भव एवं विकास में पूर्ण योगदान देती हैं। भूमि, मृदा, खनिज एवं जल के अभाव में किसी भी प्रकार की सजीव वस्तु की कल्पना करना भी कठिन है।
प्रश्न 3 – होमो सेपिएन्स का क्या अर्थ है ?
उत्तर – होमो सेपिएन्स का अर्थ विकसित मानव प्राणी है।
प्रश्न 4- विघटक जीवधारी किसको विघटित करते हैं?
उत्तर – विघटक जीव मिट्टी और वायु में पाए जाते हैं। ये जीव मृत कार्बनिक पदार्थों को विघटित करते हैं।