UK Board Class 10 Hindi – अपठित गद्यांश
UK Board Class 10 Hindi – अपठित गद्यांश
UK Board Solutions for Class 10 Hindi – अपठित गद्यांश
‘अपठित’ का सामान्य अर्थ है – ‘जिसे पूर्व में न पढ़ा गया हो।’ ‘गद्यांश’ का अर्थ है— ‘अनुच्छेद’। इस प्रकार ‘अपठित गद्यांश’ से आशय है— ‘वह अनुच्छेद, जो आपकी पाठ्यपुस्तक से न हो और जिसे आपने पहले न पढ़ा हो।’
उदाहरणों द्वारा स्पष्टीकरण
पाठ्यपुस्तक ‘शिक्षार्थी व्याकरण और व्यावहारिक हिन्दी’ में दिए गए अपठित गद्यांश एवं उनके हल |
⇒ निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा उनसे सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
उदाहरण (1)
तुम अपने जीवन के आगे काल्पनिक प्रश्नचिह्न क्यों लगाते हो ? जो उपस्थित नहीं, उससे भय क्या? अगर तुम्हारी कल्पना में शंकाओं एवं सन्देहों के आने का मार्ग है तो इसे बन्द कर दो और दूसरी ओर की खिड़की खोल लो, जिसमें से उत्साह, आशा व सफलता की बयार आती है। भिखमंगों के डर से क्या तुमने रोटी पकाना छोड़ दिया है? मृत्यु के डर से यदि तुम जीना नहीं छोड़ते तो कठिनाइयों के डर से कार्य न करना कौन-सी बुद्धिमत्ता है? उस नाविक को देखो, जो समुद्र में नाव खेने चला है। उसे मालूम है कि समुद्र की लहरों के थपेड़ों से उसकी नाव चकनाचूर हो सकती है, आँधी से पाल तार-तार हो सकता है, मस्तूल गिरकर टूट सकता है, पर इन सबसे घबराकर क्या वह समुद्र में जाना छोड़ दे ? समुद्र कितना ही विशाल क्यों न हो, पर उसकी विशाल साहसी भुजाओं का मुकाबला कर सकने की शक्ति उसमें नहीं है। इसलिए तुम भी संसार की कर्मस्थली में उतर आओ, अन्यथा चिन्ता एवं निराशा के सागर में डूब जाओगे ।
प्रश्न-
1. काल्पनिक प्रश्नचिह्न से क्या अभिप्राय है?
2. शंकाओं और सन्देहों से आप किस प्रकार छुटकारा पा सकते हैं?
3. किस बात बुद्धिमत्ता है ?
4. लेखक ने नाविक के दृष्टान्त द्वारा क्या प्रेरणा दी है ?
5. लेखक ने मनुष्य को विपत्तियों में हतोत्साहित न होने के लिए कौन-कौन से दृष्टान्त दिए हैं?
6. समुद्र मनुष्य की विशाल शक्ति का मुकाबला करने में क्यों अक्षम है?
7. व्यक्ति कब चिन्ता और निराशा के सागर में डूब जाता है?
8. इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
1. काल्पनिक प्रश्नचिह्न का अभिप्राय है— ऐसा भय अर्थात् शंका जो जीवन में कभी नहीं आया, जिसके आने की केवल कल्पना की गई है।
2. हम स्वयं में उत्साह और आशा का संचार करके शंकाओं और संदेहों से छुटकारा पा सकते हैं।
3. कठिनाइयों का साहसपूर्वक सामना करते हुए कार्य को निरन्तर करते रहने में ही बुद्धिमत्ता है।
4. लेखक ने नाविक के दृष्टान्त द्वारा जीवन की चुनौतियों से साहसपूर्वक जूझने की प्रेरणा दी है।
5. लेखक ने मनुष्य को विपत्तियों में हतोत्साहित न होने के लिए तीन दृष्टान्त दिए हैं-
(क) भिखमंगों के डर से रोटी पकाना न छोड़ने का दृष्टान्त ।
(ख) मृत्यु के भय से जीवन जीना न छोड़ने का दृष्टान्त ।
(ग) समुद्र की लहरों के भय से नाव खेना न छोड़ने का दृष्टान्त।
6. समुद्र मनुष्य की विशाल शक्ति का मुकाबला करने में इसलिए अक्षम है; क्योंकि उसमें मनुष्य जैसा धैर्य, साहस, उत्साह, आशा और कार्य में सफलता प्राप्त करने की दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव होता है।
7. जब व्यक्ति कर्मों से दूर भागता है तो वह चिन्ता और निराशा के सागर में डूब जाता है ?
8. शीर्षक – ‘निडरता और सफलता’, ‘साहस और सफलता’ ।
उदाहरण (2)
जीवन की कला ठूंठ की तरह खड़े रहने में नहीं है; यह जो पेड़ अपनी जवानी में ही सूख गया, जानते हो क्यों? क्योंकि इसकी जड़ों ने रस लेना बन्द कर दिया था। जीवन में लहलहाने का एक ही तरीका है। कि उसे विभिन्न रसों को लेने दो। एक विशेष विषय में निपुण होने का तात्पर्य यह नहीं है कि तुम फुटबॉल के ग्राउण्ड में मत जाओ, व्यापार में इतने तल्लीन मत हो जाओ कि बच्चों को भूल जाओ, पुस्तकों के कीड़े मत बन जाओ कि यार-दोस्तों की हँसी बुरी लगने लगे। जीवन में विविध रस लेना सीखो और इतना रस लो कि बुढ़ापे की झुर्रियों में उदासीनता और निराशा की एक झुर्री भी न पड़े। रहने का तरीका यही है कि गले में संगीत हो, होंठों पर मुस्कराहट हो, आँखों में हँसी हो, हृदय में उमंग हो और इस प्रकार गाते हुए बढ़ो, हँसते हुए मिलो, मुसकराते हुए विदा लो।
प्रश्न –
1. लेखक के अनुसार जीने की वास्तविक कला क्या है?
2. किसी विषय – विशेष में निपुण होने का क्या तात्पर्य नहीं है ?
3. ‘जीवन में विविध रस लेना सीखो’ से क्या तात्पर्य है?
4. व्यक्ति ठूंठ कब बन जाता है?
5. इस गद्यांश के लिए कोई उपयुक्त शीर्षक सुझाइए ।
उत्तर –
1. लेखक के अनुसार जीवन जीने की वास्तविक कला संसार के सब रसों अर्थात् जीवन के विविध क्षेत्रों के खट्टे-मीठे सभी अनुभवों का आस्वादन करके जीने में है।
2. किसी विषय विशेष में निपुण होने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम इस विषय के अतिरिक्त जीवन के अन्य किसी विषय अथवा क्षेत्र के विषय में जाने ही नहीं, केवल उसी विषय में डूबे रहे, जिसमें हम निपुण हैं।
3. ‘जीवन में विविध रस लेना सीखो’ का तात्पर्य है- अपने जीवन को एकाकी और एकरस न बनाओ। जीवन के जितने भी पक्ष हैं, सबमें उत्साहपूर्वक रुचि लो और सबका आनन्द उठाओ।
4. व्यक्ति जब अपने जीवन को किसी एक ढर्रे में ढाल देता है और स्वयं को तरह-तरह के अनुभवों से वंचित कर देता है, तब वह ठूंठ के समान हो जाता है।
5. शीर्षक – ‘जीने की कला’, ‘जीवन-रस’, ‘आनन्दमय जीवन का रहस्य’ ।
पाठ्यपुस्तक ‘शिक्षार्थी व्याकरण और व्यावहारिक हिन्दी ‘ के अभ्यासान्तर्गत दिए गए गद्यांश और उन पर आधृत प्रश्नोत्तर |
नीचे दिए गए गद्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(1)
सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ीं और क्रमशः अधिकाधिक जीव जगत् उसके सम्पर्क में आए। जीव-जगत् के अधिक विस्तृत रूप से उसका साक्षात्कार हुआ।
इस सम्पर्क और साक्षात्कार के विस्तार के साथ मनुष्य के अनुभवों में भी वृद्धि हुई और उसकी चेतना अधिकाधिक विस्तृत तथा परिमार्जित होती गई। धीरे-धीरे उसमें स्मृति, इच्छा, कल्पना आदि शक्तियों का आविर्भाव हुआ और विवेक-बुद्धि का विकास हुआ। आरम्भ में तो मनुष्य अपने आस-पास के दृश्यों से ही परिचित था और उसकी इच्छाशक्ति भी वहीं तक सीमित थी। क्रमशः वह अदृश्य और अश्रुत वस्तुओं की कल्पना करने लगा।
उसकी इच्छाओं और अभिलाषाओं का क्षेत्र भी बढ़ा और साथ ही उसमें सुन्दर – असुन्दर, सत्-असत् तथा उचित – अनुचित की धारणा भी बद्धमूल हुई। समय के साथ चेतना के अधिक विकसित होने के कारण उसकी बोध-वृत्ति सुव्यवस्थित तथा परिपुष्ट होती गई। मनुष्य के संस्कारों और वृत्तियों का मनुष्य-समाज से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होता गया। इन संस्कारों और वृत्तियों को ही मानव सभ्यता का मानदण्ड माना जाने लगा। जिस समाज की ये वृत्तियाँ जितनी अधिक व्यापक और समन्वयपूर्ण होती हैं, वह समाज उतना ही समुन्नत समझा जाता है।
प्रश्न –
1. मनुष्य की चेतना उत्तरोत्तर कैसे विकसित होती गई?
2. ‘उसकी इच्छाओं और अभिलाषाओं का क्षेत्र भी बढ़ा।’ इच्छाओं और अभिलाषाओं में क्या अन्तर है?
3. ‘आविर्भाव’ शब्द का अर्थ है – ( सही विकल्प के सामने (√) का चिह्न लगाइए)-
(क) विकास
(ख) विस्तार
(ग) प्रकट होना
(घ) सम्पर्क।
4. ‘इन संस्कारों और वृत्तियों को ही मानव-सभ्यता का मानदण्ड माना जाने लगा’ का अभिप्राय है कि यह माना जाने लगा कि ये संस्कार और वृत्तियाँ ही-
(क) मानव सभ्यता को जीवित रखे हुए हैं।
(ख) मानव सभ्यता को प्रेरणा देती हैं।
(ग) मानव सभ्यता को गौरव प्रदान करती हैं।
(घ) मानव सभ्यता की उन्नति की निर्धारक हैं।
5. किसी भी समाज को उन्नत समाज कब माना जाता है?
6. इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए ।
उत्तर-
1. मनुष्य की आवश्यकताएँ और जीव- जगत् से उसका सम्पर्क तथा अनुभव जैसे-जैसे बढ़ते गए वैसे-वैसे उसकी चेतना का विकास होता चला गया।
2. ‘इच्छा’ किसी सुख की प्राप्ति के लिए व्यक्ति के मन की वह कामना है, जिसकी प्राप्ति के संसाधन उसकी आँखों के सामने उपस्थित हैं, जब ‘अभिलाषा’ किसी सुख की प्राप्ति की कल्पना मात्र है और जिसकी प्राप्ति के साधन उसके सामने उपस्थित नहीं हैं।
3. (ग) प्रकट होना।
4. (घ) मानव सभ्यता की उन्नति की निर्धारक हैं।
5. किसी भी समाज को तब उन्नत माना जाता है जब उसकी वृत्तियाँ अत्यधिक व्यापक और समन्वयपूर्ण होती हैं।
6. शीर्षक – ‘मानव सभ्यता का क्रमिक विकास’ ।
(2)
पशुको बाँधकर रखना पड़ता है; क्योंकि वह निरंकुश है, चाहे जहाँ-तहाँ चला जाता है, इधर-उधर मुँह मार देता है। क्या मनुष्य को भी इसी प्रकार दूसरों का बन्धन स्वीकार करना चाहिए? क्या इससे उसमें मनुष्यत्व रह पाएगा? पशु के गले की रज्जु को एक हाथ में पकड़कर और दूसरे हाथ में एक लकड़ी लेकर उसे जहाँ चाहो हाँककर ले जाओ। जिन लोगों को इसी प्रकार हाँके जाने का स्वभाव पड़ गया है, जिन्हें कोई भी जिधर चाहे ले जा सकता है, लगा सकता है, उन्हें भी पशु ही कहा जाएगा। पशु को चाहे जितना मारो, चाहे जितना उसका अपमान करो, बाद में खाने को दे दो, वह पूँछ और कान हिलाने लगेगा। ऐसे नर पशु भी बहुत-से मिलेंगे, जो कुचल जाने और अपमानित होने पर भी जरा-सी वस्तु मिलने पर चट सन्तुष्ट और प्रसन्न जाते हैं। कुत्ते को कितनी ही ताड़ना देने के बाद उसके सामने एक टुकड़ा डाल दो, वह झट से मार-पीट को भूलकर उसे खाने लगेगा। यदि हम भी ऐसे ही हैं तो हम कौन हैं, इसे स्पष्ट कहने की आवश्यकता नहीं। पशुओं में भी कई पशु मार-पीट और अपमान को नहीं सहते । वे कई दिन तक निराहार रहते हैं। कई पशुओं ने तो प्राण त्याग दिए, ऐसा सुना जाता है। पर इस प्रकार के पशु मनुष्य- कोटि के हैं, उनमें मनुष्यत्व का समावेश है, यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी ।
प्रश्न-
1. पशु को क्यों बाँधकर रखा जाता है ?
2. किन स्थितियों में मनुष्य में ‘मनुष्यत्व’ नहीं रहता है ?
3. लेखक ने नर – पशुओं की क्या विशेषताएँ बताई हैं?
4. लेखक ने किस प्रकार के पशु को मनुष्य-कोटि में रखा है ?
5. इस गद्यांश के लिए कोई उपयुक्त शीर्षक सुझाइए ।
उत्तर-
1. पशु मनमानी करते हुए कहीं भी मुँह मारने लगता है अर्थात् उसमें आत्मानुशासन और विवेक नहीं होता है; अतः उसे बाँधकर रखा जाता है।
2. दूसरों की गुलामी करके और अपमान सहकर पेट भरने में मनुष्य का मनुष्यत्व नहीं रहता है।
3. लेखक के अनुसार जो मनुष्य लोभ के कारण अपमान और प्रताड़ना को सहता हुआ भी प्रसन्न और सन्तुष्ट रहता है, वह नर- पशु है।
4. लेखक ने अपमान की रोटी को ठुकरा देनेवाले पशु को मनुष्य- कोटि में रखा है।
5. शीर्षक – ‘मनुष्यत्व की कसौटी ।
अन्य परीक्षोपयोगी अपठित गद्यांश एवं उन पर आधृत प्रश्नोत्तर |
(1)
आधुनिक संस्कृत मूलतः बुद्धिवादी और विश्लेषणप्रिय है, जिसमें ज्ञान की अपार महिमा है, परन्तु हृदय के स्रोत निरन्तर सूखते जा रहे हैं। जिसे शिक्षा कहकर चलाया जा रहा है, वह सूचना मात्र है, उसमें अनुभूति को जगह नहीं मिली है, फलतः आज का शिक्षित मनुष्य व्यर्थता से भर गया है। कविता का स्रोत है— आनन्द, जिज्ञासा एवं रहस्य । हमारे ज्ञान की परिधि इतनी विस्तृत हो गई है कि कुछ भी अप्रत्याशित नहीं रह गया है। काव्य – रूढ़ियाँ आज हास्यास्पद जान पड़ती हैं। अद्भुत का थोड़ा भी स्पन्दन जीवन में शेष नहीं रह गया है। वैसे ज्ञान और कविता में निरन्तर विरोध ही हो, यह आवश्यक नहीं; क्योंकि विज्ञान रहस्योन्मुखी है, इसमें जिज्ञासा और समाधान के अनेक सूत्र हैं। परन्तु आज विज्ञान विश्लेषण के उस संसार में पहुँच गया है, जहाँ तालिकाओं का राज्य है और मानव शिशु तथ्यों की मरुभूमि में खो गया है, फल यह हुआ कि हम अहं के स्तूप बन गए हैं, हम चमत्कृत होने में मानहानि समझते हैं, हमारी सहज अन्तर्वृत्तियाँ जड़ होती जा रही हैं।
प्रश्न-
1. आधुनिक संस्कृत कैसी है?
2. आज की शिक्षा में क्या कमी है?
3. आज का शिक्षित मनुष्य व्यर्थता से क्यों भर गया है?
4. कविता के स्रोत कौन-कौन से हैं?
5. विज्ञान में क्या – क्या है
6. आज के विज्ञान की क्या विशेषता है?’
7. हम अहं के स्तूप कैसे बन गए हैं?
8. इस गद्यांश के लिए कोई उपयुक्त शीर्षक सुझाइए |
उत्तर-
1. आधुनिक संस्कृत मूलतः बुद्धिवादी और विश्लेषणप्रिय है, उसमें ज्ञान की अपार महिमा है।
2. आज की शिक्षा में यही कमी है कि वह सूचनामात्र है और उसमें अनुभूति की जगह नहीं है।
3. आज की शिक्षा केवल सूचनापरक हो गई है, उसमें अनुभूतिपक्ष का अभाव है, इसीलिए आज का शिक्षित मनुष्य व्यर्थता से भर गया है।
4. कविता के तीन स्रोत हैं— (क) आनन्द, (ख) जिज्ञासा, (ग) रहस्य।
5. विज्ञान रहस्योन्मुखी है, इसमें जिज्ञासा और उसके समाधान के अनेक सूत्र हैं।
6. आज का विज्ञान आँकड़ों और तथ्यों से परिपूर्ण है। उसमें रहस्यों को सुलझाने और मन को चमत्कृत करनेवाली प्रवृत्तियों का अभाव है।
7. हमने विज्ञान द्वारा प्रदत्त किए गए तथ्यों और आँकड़ों को आत्मसात् कर लिया है, जिस कारण हम स्वयं को महाज्ञानी समझते हैं। इस प्रकार हम अहं के स्तूप बन गए हैं।
8. शीर्षक – ‘ज्ञान और कविता’, ‘अनुपयोगी शिक्षा’, ‘शिक्षा और अनुभूति’ ।
(2)
रोटी के लिए प्रत्येक मनुष्य को श्रम करना चाहिए। शरीर को झुकाना चाहिए, यह ईश्वर का कानून है। भगवद्गीता में कहा गया है कि यज्ञ किए बिना जो खाता है, वह चोरी का अन्न खाता है। यहाँ यज्ञ का अर्थ स्वयं की मेहनत या पसीने की कमाई से है। जो श्रम नहीं करता, उसे खाने का क्या हक है? जो आदमी अपना एक मिनट भी बेकारी में बिताता है, वह अपने पड़ोसियों पर बोझ बनता है। ऐसा करना अहिंसा के पहले नियम का उल्लंघन करना है। अहिंसा यदि अपने पड़ोसी के हित का ध्यान रखना न हो तो उसका कोई अर्थ ही न रहे। आलसी आदमी अहिंसा की प्रारम्भिक कसौटी में ही खोटा सिद्ध होता है। बुद्धि भी हमें इसी ओर ले जाती है। जो श्रम नहीं करता उसे खाने का क्या हक है? बाइबिल कहती है, ‘अपनी रोटी तू पसीना बहाकर कमा और खा।’ करोड़पति भी अगर अपने पलंग पर लेट रहे और उसके मुँह में कोई खाना डाल दे तो वह अधिक समय तक खा नहीं सकेगा। इसमें उसको मजा भी नहीं आएगा। इसलिए वह कसरत वगैरह करके भूख पैदा करता है। अगर यों किसी-न-किसी रूप में अंगों की कसरत सबको करनी ही पड़ती है तो रोटी पैदा करने की कसरत ही सब क्यों न करें? किसान को हवाखोरी और कसरत करने के लिए कोई कहता नहीं। वह प्रकृति के सबसे करीब है। दुनिया के नब्बे फीसदी लोगों का निर्वाह खेती पर होता है। शेष दस फीसदी लोग अगर इनकी नकल करें तो जगत् में कितना सुख, कितनी शान्ति और कितना आरोग्य फैल जाए। खेती के साथ बुद्धि भी मिले तो बहुत-सी मुसीबतें आसान हो जाएँगी। शरीर श्रम के निरपवाद कानून को सब मानें तो ऊँच-नीच का भेद भी मिट जाए।
जिसे अहिंसा का पालन करना हो, सत्य की भक्ति करनी हो, ब्रह्मचर्य को कुदरती बनाना हो, उसके लिए शरीर श्रम रामबाण सिद्ध होगा। यदि सभी श्रम की कमाई खाएँ तो विश्व में अन्न की कमी न रहे। तब न किसी को जनसंख्या वृद्धि की शिकायत रहेगी और न किसी को बीमारी सताएगी। यह श्रम उच्च से उच्च प्रकार का यज्ञ होगा। इस अवस्था में न कोई राव होगा न रंक। तब हम जीने के लिए खाएँगे न कि खाने के लिए जीएँगे। बुद्धिपूर्वक किया हुआ शरीरश्रम समाज सेवा का सर्वोत्कृष्ट रूप है। (2009)
प्रश्न –
1. शरीर को झुकाने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
2. श्रम की तुलना यज्ञ से की गई है। क्यों?
3. ‘आलसी आदमी अहिंसा की प्रारम्भिक कसौटी में खोटा सिद्ध होता है।’ इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
4. जगत् में सुख, शान्ति और आरोग्य का सर्वोत्तम आधार क्या है और कैसे ?
5. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए ।
उत्तर-
1. शरीर को झुकाने से लेखक का अभिप्राय परिश्रम करने से है; क्योंकि परिश्रम शरीर को बिना झुकाए सीधे खड़े-खड़े अथवा लेटे-लेटे नहीं किया जा सकता है।
2. श्रम की तुलना यज्ञ से की गई है; क्योंकि यज्ञ स्वयं में श्रमसाध्य धार्मिक क्रिया है। यज्ञ करने के लिए व्यक्ति को जंगल से कुशा लानी होती है, कुशा को एकत्र करके लाना संसार का सबसे चतुराई अथवा बुद्धिपूर्ण कार्य माना जाता है; क्योंकि कुशा को क समय हाथों अथवा शरीर के दूसरे अंगों के घायल होने का भय बना रहता है। इसके अतिरिक्त यज्ञ के स्तम्भ के लिए मजबूत लकड़ी काटकर लाना, समिधाएँ एकत्र करना, वेदी बनाना, घृत, श्रुवा अगर आदि हवन सामग्रियों को एकत्र करना आदि अत्यधिक श्रमसाध्य कार्य हैं । अतः श्रम की तुलना यज्ञ से करना उचित ही है।
3. अहिंसा का वास्तविक अर्थ होता है- दूसरों को मन-वचन-कर्म से किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाना। आलसी व्यक्ति अपने भरण-पोषण के लिए दूसरों पर निर्भर होता है, जिसके लिए उन्हें अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त आलसी व्यक्ति संसार में किसी का हित नहीं कर सकता, जोकि अहिंसा के नियम के विरुद्ध है। उसकी बुद्धि भी श्रम के अभाव में सदैव नकारात्मक सोचती है, जिस कारण वह दूसरों में सदैव दोष खोजता रहता है। उसके इस छिद्रान्वेषण से सदैव दूसरों का मन आहत होता है। इस प्रकार आलसी व्यक्ति सब प्रकार से दूसरों के लिए कष्टकारी ही होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आलसी आदमी अहिंसा की प्रारम्भिक कसौटी में खोटा सिद्ध होता है।
4. जगत् में सुख, शान्ति और आरोग्य का सर्वोत्तम आधार कड़ी मेहनत करके रोटी कमाना है। इसका जीता-जागता प्रमाण किसान है। वह प्रकृति के सबसे करीब रहता है; सुबह से शाम तक जी-तोड़ मेहनत करता है, इसलिए संसार का कोई भी वैद्य अथवा डॉक्टर उसे स्वस्थ रहने के लिए प्रातः काल घूमने अथवा कसरत करने के लिए नहीं कहता। किसान जो कमाता है, उसी में वह सुख – सन्तोष का अनुभव करता है, प्रकृति के समीप रहने और परिश्रम करने के कारण वह ‘बिना हवाखोरी और कसरत के ही स्वस्थं बना रहता है। यदि संसार के सभी लोग किसान का अनुसरण करें तो इसमें कोई सन्देह नहीं संसार में चारों ओर सुख-शान्ति और आरोग्य का साम्राज्य होगा।
5. शीर्षक – ‘अहिंसा और श्रम’ ।
(3)
कहने को चाहे भारत में स्वशासन हो और भारतीयकरण का नारा हो, किन्तु वास्तविकता में सब ओर आस्थाहीनता बढ़ती जा रही है। मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों या चर्च में बढ़ती भीड़ और प्रचार माध्यमों द्वारा मेलों और पर्वो के व्यापक कवरेज से आस्था के सन्दर्भ में कोई भ्रम मत पालिए; क्योंकि यह सब उसी प्रकार भ्रामक है जैसे ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ की गांधीगीरी ।
वास्तविक जीवन में जिस आचरण की अपेक्षा व्यक्ति या समूह जाती है उसकी झलक तक पाना मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि गांधीगीरी की काल्पनिक अवधारणा से महत्त्व पाने के लिए कुछ लोगों की नौटंकी की वाहवाही प्रचार माध्यमों ने जमकर की, लेकिन अब गांधी जयंती बीतने के बाद न तो कोई गुलाब का फूल भेंट करता दिखाई देता है और न ही कोई छूटवाले काउण्टरों से गांधीटोपी ही खरीदता नजर आता है। गांधी को ‘गीरी’ के रूप में आँकने के सिनेमाई कथानक का कोई स्थायी प्रभाव हो भी नहीं सकता। फिल्म उतरी और प्रभाव चला गया। गांधी को बाह्य आवरण से समझने के कारण वर्षों से हम दो अक्टूबर और तीस जनवरी के कुछ आडम्बर अवश्य करते चले आ रहे हैं, लेकिन जिन जीवन-मूल्यों के प्रति आस्थावान् होने की हम सौगंध खाते हैं और उन्हें आचरण में उतारने का संकल्प व्यक्त करते हैं, उसका लेशमात्र प्रभाव भी हमारे आस-पास के जीवन में प्रतीत नहीं होता। जिसे हमने स्वतन्त्रता के लिए संग्राम की संज्ञा दी थी, उस सम्पूर्ण प्रयास को गांधीजी ने स्वराज्य के लिए अभियान की संज्ञा प्रदान की थी। “स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष ” और “स्वराज्य के लिए अभियान” का अन्तर अतीत का संज्ञान रखनेवाले ही समझ सकते हैं। विदेशियों की सत्ता में रहने के बावजूद हम स्वतन्त्र थे; क्योंकि हमारी आस्था ‘स्व’ निरंतर प्रगाढ़ होती जा रही थी। ‘स्व’ में आस्था की प्रगाढ़ता के लिए निरंतर प्रयास होते रहे। इसीलिए ‘गांधीजी का अभियान स्वराज्य का था स्वतन्त्रता का नहीं। उनके स्वराज्य की भी एक निश्चित अवधारणा थी । सर्वसाधारण को वह अवधारणा समझ में आ सके, इसलिए उन्होंने कहा था कि हमारा स्वराज्य रामराज्य होगा।
जिस सादे जीवन और उच्च विचार को आधार बनाकर वे भारत को आध्यात्मिक गुरु के रूप में विश्व के समक्ष खड़ा करना चाहते थे, उस भारत’ की ‘स्व- शासन’ व्यवस्था ने भौतिक भूख की आग को इतना अधिक प्रज्वलित कर दिया है कि अब हमने येन-केन-प्रकारेण सफलता हासिल करने के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने स्थापित मूल्यों को तिलांजलि दे दी है। (2009)
प्रश्न-
1. 2 अक्टूबर और 30 जनवरी किसलिए विशेष हैं?
2. स्वराज्य और स्वतन्त्रता में क्या अन्तर है ?
3. गांधीजी कैसा स्वराज्य चाहते थे? स्पष्ट कीजिए ।
4. स्वशासन व्यवस्था ने कौन-सी विसंगति दी है ?
5. उक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर-
1. 2 अक्टूबर को गांधीजी का जन्म हुआ था और 30° जनवरी को वे नाथूराम गोडसे की गोली का शिकार होकर शहीद हो गए थे। इसलिए 2 अक्टूबर को गांधी जयन्ती और 30 जनवरी को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। गांधीजी के जन्म और मृत्यु के. कारण ये दोनों दिवस विशेष हैं।
2. स्वराज्य में स्व की आस्था की प्रगाढ़ता की भावना होती है। इसमें सभी को अपने बराबर लाने की भावना निहित है, न कोई छोटा, न बड़ा न कोई राजा, न प्रजा, बल्कि न्याय की तराजू में सब एक बराबर । जबकि स्वतन्त्रता में स्व के तन्त्र अर्थात् आधिपत्य की भावना होती है। इसमें शासक और शासित की भावना काम करती है।
3. गांधीजी रामराज्य जैसा स्वराज्य चाहते थे, जिसमें किसी प्रकार का कोई भेद-भाव न हो। सब सुखी और समृद्ध हों।
4. स्वशासन व्यवस्था ने भौतिक भूख की आग को अत्यधिक प्रज्वलित किया और जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने स्थापित मूल्यों को तिलांजलि दे दी।
5. शीर्षक – ‘स्वशासन की वास्तविकता’, ‘गांधीगीरी और गांधित्व’ अथवा ‘आज का स्वशासन’ ।
(4)
शनि हमारे सौरमण्डल का सबसे सुन्दर ग्रह है। सौरमण्डल के. सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के बाद शनि का दूसरा स्थान है। यह ग्रह हमारी पृथ्वी से करीब 750 गुना बड़ा है। सूर्य से शनि की दूरी 143 करोड़ किलोमीटर है। हमारी पृथ्वी सूर्य से 15 करोड़ किलोमीटर दूर है। इस प्रकार शनि ग्रह पृथ्वी की अपेक्षा दस गुना अधिक दूर है। इसे आकाश में नंगी आँखों से भी पहचाना जा सकता है। ज्योतिषियों ने इस ग्रह के बारे में कई अंधविश्वास पैदा कर दिए हैं। उनके अनुसार यह ग्रह इतना अशुभ है कि जिस राशि में इसका निवास होता है, यह उस राशि पर भयंकर प्रभाव डालता है। काफी समय तक यह उस राशि का पीछा नहीं छोड़ता ।
ग्रहों के क्रमानुसार सौरमण्डल में शनि का स्थान छठे नम्बर पर है। यह बृहस्पति और यूरेनस के मध्य सूर्य की परिक्रमा करता है। यह ग्रह अत्यन्त मंद गति से सूर्य के चारों ओर करीब तीस वर्ष में एक चक्कर पूरा करता है। शनि का दिन हमारे दिन से छोटा होता है। शनि अत्यन्त ठण्डा ग्रह है। शनि के वायुमण्डल का तापमान शून्य से 150° सेंटीग्रेड नीचे रहता है। अतः यहाँ जीवन सम्भव नहीं है। शनि का सबसे बड़ा चंद्र टाइटन है। यह उपग्रह हमारे उपग्रह चन्द्रमा से काफी बड़ा है। टाइटन की अद्भुत चीज इसका वायुमण्डल है। इसके वायुमण्डल में मीथेन गैस पर्याप्त मात्रा में है। इस प्रकार मीथेन, पानी की तरह मानी जा सकती है। शनि को दूरबीन से देखा जाए तो इसके चारों ओर वलय या घेरे दिखाई देते हैं। इन वलयों या कंकड़ों से इसकी सुन्दरता काफी बढ़ जाती है। शनि जितने सुन्दर और स्पष्ट वलय किसी ग्रह के नहीं हैं। (2009)
प्रश्न –
1. शनि सूर्य का एक चक्कर कितने समय में पूरा करता है?
2. शनि पर जीवन सम्भव क्यों नहीं है?
3. ‘टाइटन’ क्यों अद्भुत है ?
4. शनि सबसे सुन्दर ग्रह कैसे है ?
5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
1. शनि सूर्य का एक चक्कर लगभग 30 वर्ष में पूरा करता है।
2. शनि अत्यन्त ठण्डा ग्रह है और तापमान शून्य से 150° सेंटीग्रेड नीचे रहता है; अतः यहाँ जीवन सम्भव नहीं है।
3. ‘टाइटन’ अपने वायुमण्डल के कारण अद्भुत है। इसके वायुमण्डल में मीथेन गैस पर्याप्त मात्रा है। यहाँ मीथेन पानी की तरह विद्यमान है।
4. शनि के चारों ओर सुन्दर और स्पष्ट वलय अथवा घेरे हैं, जो . इसकी सुन्दरता को बढ़ाते हैं।
5. शीर्षक – ‘अद्भुत शनि’ ।
(5)
संस्कृति, सामाजिक संस्कारों का दूसरा नाम है जिसे कोई समाज विरासत के रूप में प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में संस्कृति एक विशिष्ट जीवन शैली है, एक ऐसी सामाजिक विरासत है जिसके पीछे एक लम्बी परम्परा होती है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम तथा महत्त्वपूर्ण संस्कृतियों में एक है। प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर इसकी प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है। वेद संसार के प्राचीनतम ग्रंथ हैं। भारतीय संस्कृति के मूल रूप का परिचय हमें वेदों से मिलता है। वेदों की रचना ईसा से कई हजार वर्ष पूर्व हुई थी। सिन्धु घाटी की सभ्यता का विवरण भी भारतीय संस्कृति की प्राचीनता पर प्रकाश डालता है। इसका इतना लम्बा और अखण्ड इतिहास इसे महत्त्वपूर्ण बनाता है। मिस्र, यूनान और रोम आदि देशों की संस्कृतियाँ आज केवल इतिहास बनकर सामने हैं, जबकि भारतीय संस्कृति एक लम्बी ऐतिहासिक परम्परा के साथ आज भी निरन्तर विकास के पथ पर अग्रसर है।
विश्व संस्कृतियों के अच्छे विचारों को ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने कभी परहेज नहीं किया। ‘अनेकता में एकता’ ही भारतीय संस्कृति की विशिष्टता रही है। कवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत को इसीलिए ‘महामानवता का सागर’ कहा है। (2009)
प्रश्न –
1. ‘संस्कृति’ से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
2. भारतीय संस्कृति की प्राचीनता जानने के क्या आधार हैं?
3. भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता क्या है ?
4. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत को ‘महामानवता का सागर’ क्यों कहा है?
5. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए ।
उत्तर-
1. किसी समाज को विरासत के रूप में प्राप्त सामाजिक संस्कार ही संस्कृति हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि सामाजिक विरासत के रूप में प्राप्त जीवन की वह विशिष्ट जीवन शैली संस्कृति कहलाती है, जिसके पीछे एक लम्बी परम्परा होती है।
2. वेद आदि संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ और सिन्धु घाटी की सभ्यता का विवरण भारतीय संस्कृति की प्राचीनता को जानने के आधार हैं।
3. विश्व संस्कृतियों के अच्छे विचारों को ग्रहण करने से परहेज न करना और ‘अनेकता में एकता’ भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। –
4. ‘अनेकता में एकता’ की विशिष्टता के कारण रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत को ‘महामानवता का सागर’ कहा है।
5. शीर्षक – ‘भारतीय संस्कृति’ अथवा ‘भारतीय संस्कृति की विशेषता’ ।
(6)
भाषा समूची युग चेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है और ऐसी सशक्तता वह तभी अर्जित कर सकती है जब वह अपने युगानुकूल मुहावरों को ग्रहण कर सके। भाषा सामाजिक भाव प्रकटीकरण की सुबोधता के लिए ही उद्दिष्ट है। कभी-कभी अन्य संस्कृतियों के प्रभाव से और अन्य जातियों के संसर्ग से भाषा में नए शब्दों का प्रवेश होता हैं और इन शब्दों के सही पर्यायवाची शब्द अपनी भाषा में न प्राप्त हों तो उन्हें वैसे ही अपनी भाषा में स्वीकार करने में किसी भी भाषा-भाषी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । यही भाषा की आधुनिकता होती है। भाषा म्यूजियम की वस्तु नहीं है, उसकी एक स्वतः सिद्ध सहज गति है, जो सदैव नित्य नूतनता को ग्रहण कर चलनेवाली है।
भाषा स्वयं संस्कृति का एक अटूट अंग है। संस्कृति परम्परा से निःसृत होने पर भी परिवर्तनशील और गतिशील है। उसकी गति, विज्ञान की प्रगति के साथ जोड़ी जाती है। वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव के कारण उद्भुत नई सांस्कृतिक हलचलों को शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा के परम्परागत प्रयोग पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए नए प्रयोगों की, नई भाव योजनाओं की, अभिव्यक्ति के लिए नए शब्दों की खोज की महती आवश्यकता है।
अब प्रश्न यह है कि भाषा में ये परिवर्तन कैसे सम्भव हैं? यत्नसाध्य अथवा सहज – सिद्ध ? यत्नसाध्य से तात्पर्य यह है कि भाषा को युगानुरूप बनाने के लिए किसी व्यक्ति विशेष अथवा व्यक्ति समूह का प्रयत्न होना ही चाहिए। सहजसिद्ध से आशय इतना ही है कि भाषा की यह गति स्वाभाविक होने के कारण यह किसी प्रयत्न विशेष की अपेक्षा नहीं रखती है। हर भाषा की अपनी खास प्रवृत्ति होती है। शब्द-निर्माण तथा अर्थग्रहण की दिशा में उसका अलग रुख होता है। उस विशेष प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही, बिना उस भाषा की मूल आत्मा को विकृत बनाए हम अन्य भाषागत शब्दों को स्वीकार कर सकते हैं, चन्द रूपगत परिवर्तन के साथ। (2008)
प्रश्न-
1. भाषा किसका सशक्त माध्यम है?
2. वैज्ञानिक आविष्कारों का भाषा पर क्या प्रभाव पड़ा है?
3. हर भाषा का अपना अलग रुख किन दिशाओं में होता है? ,
4. किन्हीं दो का अर्थ स्पष्ट करें- अभिव्यक्ति, सशक्तसमसामयिक, यत्नसाध्य ।
5. विलोम शब्द लिखिए- प्रश्न, स्वीकार, विदेशी, ग्रहण।
6. उक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
1. भाषा सम्पूर्ण युग चेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है।
2. वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव के कारण उत्पन्न हुई नवीन सांस्कृतिक हलचलों की शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा के परम्परागत प्रयोग पर्याप्त नहीं थे। परिणामस्वरूप नए प्रयोगों की नई भावी योजनाओं की अभिव्यक्ति के लिए नई शब्दावली की खोज हुई।
3. प्रत्येक भाषा का शब्द निर्माण तथा अर्थग्रहण की दिशा में अलग रुख होता है।
4. अभिव्यक्ति-किसी बात को प्रकट करना।
सशक्त-पूर्णरूप से शक्तिशाली।
समसामयिक – वर्तमान में घटित होनेवाली घटनाएँ।
यत्नसाध्य – किसी कार्य को प्रयत्नपूर्वक करना।
5. शब्द विलोम
प्रश्न उत्तर
स्वीकार अस्वीकार
विदेशी देशी
ग्रहण त्याग।
6. शीर्षक ‘भाषा: अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम’, ‘भाषा और संस्कृति’ अथवा ‘भाषा का स्वरूप और विकास’।
(7)
प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने की दिशा में हम पिछले दो-तीन सौ वर्षों के दौरान इतना अधिक बढ़ चुके हैं कि अब पीछे हटना असम्भव-सा लगता है। जिस गति से हम विभिन्त क्षेत्रों में प्राकृतिक सन्तुलन बिगाड़ते रहे हैं, इसमें कोई भी व्यावहारिकता नहीं प्रतीत होती; क्योकि हमारी अर्थव्यवस्थाएँ और दैनिक आवश्यकताएँ उस गति के साथ जुड़-सी गई हैं। क्या हमें ज्ञान नहीं कि जिसे हम अपना आहार, समझ रहे हैं, वह वस्तुतः हमारा दैनिक विष है, जो सामूहिक आत्महत्या की दिशा में हमें लिए जा रहा है। जंगलों को ही लो! यह एक प्रकट तथ्य है कि विभिन्न देशों की वन-सम्पत्ति अत्यन्त तीव्रगति से क्षीण होती जा रही है। भारत के विभिन्न प्रदेशों; विशेषकर पूर्वांचल के राज्यों, तराई, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर आदि के जंगल भारी संख्या में काटे जा रहे हैं, खूब अच्छी तरह यह जानते हुए भी कि जंगलों को काटने का मतलब होगा – भूमि को अरक्षित करना, बाढ़ों को बढ़ावा देना और मौसम के बदलने में सहायक बनना।
प्रश्न –
1. हमारा आहार हमारा दैनिक विष कैसे है?
2. हमारी आवश्यकताएँ और अर्थव्यवस्थाएँ प्राकृतिक सन्तुलन बिगाड़ने में क्यों सहायक हैं?
3. जंगल कटने से हमें क्या हानियाँ हैं?
4. प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने की दिशा में हमारा अब पीछे हटना असम्भव-सा क्यों लगता है?
5. उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
1. जंगलों को काटकर और अन्य प्रकारों से पर्यावरण को प्रदूषित करके हम प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ रहे हैं। इससे जंगलों का कटना पर्यावरण के असन्तुलन को बढ़ावा देता है। यह वातावरण में वायु से लेकर हमारा आहार तक विषैला हो चुका है। हमारे लिए विष के समान दिन-प्रतिदिन घातक सिद्ध हो रहा है।
2. हमारी आवश्यकताएँ तथा अर्थव्यवस्थाएँ जंगलों के कटने से पूरी हो रही हैं। वास्तव इससे विश्व में प्राकृतिक असन्तुलन की स्थिति पैदा हो रही है। हमारी ही आवश्यकताएँ तथा अर्थव्यवस्थाएँ हमारे जीवन के विनाश में सहायक हो रही हैं।
3. जंगल कटने से भूमि अरक्षित हो रही है, बाढ़ का खतरा बढ़ गया है तथा विश्व का मौसम बदलने लगा है।
4. प्रकृति – सन्तुलन बिगाड़ने की दिशा में हमारा अब पीछे हटना इसलिए असम्भव-सा लगता है; क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्थाएँ और दैनिक आवश्यकताएँ उसके साथ जुड़- सी गई हैं।
5. शीर्षक – ‘प्राकृतिक असन्तुलन और हम’ ।
(8)
छात्रावस्था में मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह बन्धन होते हैं, उनमें न तो इतनी उमंग होती है, न उतनी खिन्नता। बाल मैत्री में जो मग्न करनेवाला आनन्द होता है, जो हृदय को बेधनेवाली ईर्ष्या और खिन्नता होती है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है? हृदय से कैसे-कैसे उद्गार निकलते हैं। वर्तमान कैसा, आनन्दमय दिखाई पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं। कितनी जल्दी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना मनाना होता है।
‘सहपाठी की मित्रता’ – इस उक्ति में हृदय की कितनी भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होंगे। पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन के झंझटों में चलता नहीं। जीवन संग्राम में साथ देनेवाले मित्रों में कुछ खास बातें होनी चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-छोटे काम तो हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर हम घृणा करते रहें। मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें। (2008)
प्रश्न –
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए ।
2. युवावस्था की मित्रता और बाल्यावस्था की मित्रता में क्या अन्तर है?
3. जीवन – संग्राम में साथ देनेवाले मित्र कैसे होने चाहिए?
4. सच्चा मित्र कैसा होना चाहिए?
5. अर्थ लिखिए – उमंग, अनुरक्ति, सहपाठी, स्नेह ।
6. विपरीतार्थक शब्द लिखिए- मित्रता, गुण, आनन्द, विश्वास ।
उत्तर-
1. शीर्षक – ‘मित्रता’ अथवा ‘सहपाठी की मित्रता’ ।
2. युवावस्था की मित्रता दृढ़, शान्त और गम्भीर होती है, जबकि बाल्यावस्था की मित्रता में उथल-पुथल का भाव भरा होता है। मन में जितना आनन्द होता है, इतनी ही ईर्ष्या और खिन्नता भी पाई जाती है।
3. जीवन – संग्राम में साथ देनेवाले मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होने चाहिए।
4. सच्चा मित्र जीवन – संग्राम में साथ देनेवाला होना चाहिए। वह सच्चा पथ-प्रदर्शक और पूर्ण विश्वासी भी होना चाहिए ।
5. शब्द अर्थ
उमंग जोश
अनुरक्ति आसक्ति, प्रेम
सहपाठी साथ पढ़नेवाला
स्नेह प्रेम, प्यार
6. शब्द विपरीतार्थक शब्द
मित्रता शत्रुता
गुण अवगुण
आनन्द क्लेश
विश्वास अविश्वास
(9)
जिस जगह शरीर – सफाई, घर की सफाई और ग्राम सफाई हो तथा युक्ताहार और योग्य व्यायाम हो, वहाँ कम-से-कम बीमारी होती है और अगर चित्तशुद्धि भी हो तो कहा जा सकता है कि बीमारी असम्भव हो जाती है। ईश्वर के स्मरण के बिना चित्तशुद्धि नहीं हो सकती है। यदि लोग इतनी बात समझ लें तो डॉक्टर या हकीम की जरूरत ही न रह जाए।
अगर हम सफाई के नियम जानें, उनका पालन करें और सही खुराक लें तो हम खुद अपने डॉक्टर बन जाएँ। जो आदमी जीने की कला जानता है, जो पाँच महाभूतों अर्थात् मिट्टी, पानी, आकाश, सूरज और हवा का दोस्त बनकर रहता हैं, जो उनको बनानेवाले ईश्वर का दास बनकर जीता है, वह कभी बीमार नहीं पड़ेगा। डॉक्टर लोग बताते हैं कि प्रायः रोग गन्दगी से, न खाने जैसा खाने से और खाने लायक चीजों के न मिलने और न खाने से होते हैं। अगर लोगों को जीने की कला सिखा दें तो समस्या हल हो सकती है। आज हमें न अच्छा पानी मिलता है, न अच्छी मिट्टी और न साफ हवा ही मिलती है। हम सूरज से छिप-छिपकर रहते हैं। ऐसा सब क्यों? इन परिस्थितियों की हमें सही-सही जानकारी होनी चाहिए। इतना तो हम स्कूल और कॉलेजों की शिक्षा के माध्यम से थोड़ी ही मेहनत और थोड़े समय में कर सकते हैं।
प्रश्न-
1. बीमारियों से बचने का सरल उपाय क्या है ?
2. पंच महाभूत किन्हें का गया है?
3. व्यायाम का महत्त्व बताइए।
4. पंच महाभूत का दोस्त बनकर रहने का क्या आशय है?
5. ‘न खाने जैसा खाने’ से आप क्या समझते हैं?
6. अच्छा पानी और साफ हवा न मिलने का प्रमुख कारण बताइए |
7. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
1. बीमारियों से बचने का सरल उपाय स्वच्छता है।
2. मिट्टी, पानी, आकाश, सूरज और हवा को पंच महाभूत कहा गया है।
3. शरीर चुस्त-दुरुस्त बना रहता है। इससे चित्त की शुद्धि होती है, जिस कारण व्यक्ति स्वस्थ रहता है और इसे कभी भी डॉक्टर की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
4. पंच महाभूत का दोस्त बनकर रहने का आशय प्रकृति के सान्निध्य में रहने से है।
5. समय पर भोजन न करना, पर्याप्त भोजन न करना, भोजन करने में जल्दबाजी करना आदि ‘न खाने जैसा खाना’ है।
6. अच्छा पानी और साफ हवा न मिलने का प्रमुख कारण प्रदूषण है।
7. शीर्षक – ‘स्वच्छता’ अथवा ‘स्वच्छता और स्वास्थ्य’ ।
(10)
निन्दा की ऐसी ही महिमा है। दो-चार निन्दकों को एक जगह बैठकर निन्दा में निमग्न देखिए और तुलना कीजिए उन दो चार ईश्वर भक्तों से जो रामधुन लगा रहे हैं। निन्दकों की-सी एकाग्रता, परस्पर आत्मीयता, निमग्नता भक्तों में दुर्लभ है। इसलिए सन्तों ने निन्दकों को ‘आंगन कुटी छवाय’ पास रखने की सलाह दी है।
कुछ ‘मिशनरी’ निन्दक मैंने देखे हैं। उनका किसी से बैर नहीं, द्वेष नहीं। वे किसी का बुरा नहीं सोचते। पर चौबीसों घण्टे वे निन्दा कर्म में बहुत पवित्र भाव से लगे रहते हैं। उनकी नितान्त निर्लिप्तता, निष्पक्षता इसी से मालूम होती है कि वे प्रसंग आने पर अपने बाप की पगड़ी भी उसी आनन्द से उछालते हैं, जिस आनन्द से अन्य लोग दुश्मन की। निन्दा इनके लिए ‘टॉनिक’ होती है।
ट्रेड यूनियन के इस जमाने में निन्दकों के संघ बन गए हैं। संघ के सदस्य जहाँ-तहाँ से खबरें लाते हैं और अपने संघ के प्रधान की सौंपते हैं। यह कच्चा माल हुआ। अब प्रधान उनका पक्का माल बनाएगा और सब सदस्यों को ‘बहुजन हिताय’ मुफ्त बाँटने के लिए देगा। यह फुरसत का काम है, इसलिए जिनके पास कुछ और करने को नहीं होता वे इसे बड़ी खूबी से करते हैं। एक दिन हमसे एक ऐसे ही संघ के अध्यक्ष ने कहा, “यार आजकल लोग तुम्हारे बारे में बहुत बुरा – बुरा कहते हैं।” हमने कहा, “आपके बारे में मुझसे कोई भी बुरा नहीं कहता। लोग जानते हैं कि आपके कानों के घूरे में इस तरह का कचरा मजे से डाला जा सकता है । “
ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा भी होती है। लेकिन इसमें वह मजा नहीं, जो मिशनरी भाव से निन्दा करने में आता है। इस प्रकार का निन्दक बड़ा दुःखी होता है। ईर्ष्या-द्वेष से चौबीसों घण्टे जलता है और निन्दा का जल छिड़ककर कुछ शांति अनुभव करता है। ऐसा निन्दक बड़ा दयनीय होता है। अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है। ईर्ष्या द्वेष से प्रेरित निन्दा करने वाले को कोई दण्ड देने की जरूरत नहीं है। वह निन्दक बेचारा स्वयं दण्डित होता है। आप चैन से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता। उसे और क्या दण्ड चाहिए? निरन्तर अच्छे काम करते जाने से उसका दण्ड भी सख्त होता जाता है। (2010)
प्रश्न-
1. लेखक ने निन्दकों की तुलना किससे की है?
2. जिनके पास कुछ और करने को नहीं होता वे इसे बड़ी खूबी से करते हैं, यहाँ इसे’ शब्द का संकेत किसी ओर है?
3. ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दक की किन विशेषताओं का उल्लेख इस अवतरण में किया गया है?
4. ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दक की दण्ड देने की आवश्यकता क्यों नहीं है?
5. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर-
1. लेखक ने निन्दकों की तुलना उन ईश्वर भक्तों से की है, जो बैठे रामधुन लगा रहे हैं।
2. जहाँ-तहाँ से कच्चे माल के रूप में प्राप्त खबरों को निन्दा के रूप में पक्का माल तैयार करने के कार्य की और लेखक ने ‘इसे’ शब्द द्वारा संकेत किया है।
3. ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दक की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख इस अवतरण में किया गया है-
ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दक सदैव बड़ा दुःखी रहता है और चौबीसों घण्टे ईर्ष्या से जलता रहता है। दूसरों की निन्दा करके वह थोड़ा शान्ति का अनुभव करता है। ऐसे निन्दक की स्थिति बड़ी दयनीय होती है; क्योंकि वह बेचारा दूसरों की उन्नति को देखकर उसी प्रकार सारी – सारी रात नहीं सो पाता, जिस प्रकार कोई कुत्ता चाँद को देखकर सारी रात भौंकता रहता है।
4. ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दक को दण्ड देने की आवश्यकता इसलिए नहीं होती; क्योंकि वह तो ईर्ष्यावश सारी सारी रात नहीं सो पाता है। भला किसी का सुख-चैन छीनने से बड़ा दण्ड भी कोई ही सकता है?
5. शीर्षक – ‘निन्दा की महिमा’, ‘निन्दा की सकारात्मकता’।