Geography 12

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 1

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 1 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति)

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 1

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राकृतिक वनस्पति से आप क्या समझते हैं? उसके प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
या
संसार में कोणधारी वनों का वितरण बताइए तथा उनकी आर्थिक उपयोगिता का वर्णन कीजिए। [2007]
या
विश्व के प्रमुख वन प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर

प्राकृतिक वनस्पति Natural Vegetation

विश्व के प्रत्येक भाग में किसी-न-किसी प्रकार की वनस्पति अवश्य ही पायी जाती है, चाहे वह झाड़ियों या घास के रूप में हो अथवा सघन वनों के रूप में हो। ये सभी प्राकृतिक रूप से उगते हैं। वास्तव में यह प्रकृति द्वारा मानव को दिये गये अमूल्य उपहार हैं। भूतल पर पेड़-पौधे आदिकाल से ही उगते आ रहे हैं; अतः तभी से मानव का सम्बन्ध उनसे स्थापित हुआ है। मानव प्राचीन काल से ही इनका शोषण करतो आयो है।
प्राकृतिक वनस्पति के प्रकार – सामान्यतया धरातल पर तीन प्रकार की प्राकृतिक वनस्पतियाँ पायी जाती हैं-

  1. वन,
  2. घास के मैदान तथा
  3. झाड़ियाँ।

उपर्युक्त तीनों में से वन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। विश्व के कुल क्षेत्रफल के 25,620 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर वनों का विस्तार है जिनमें से 59% पहुँच योग्य हैं, जिन्हें काटकर लकड़ियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। शेष वन मानव की पहुँच से बाहर हैं। ये वन रूस के भीतरी भागों, कनाडा, अलास्का, एशिया तथा दक्षिणी अमेरिका के अनेक भागों में विस्तृत हैं।

विश्व में वनों के प्रकार
Types of Forests in World

वनों को उनमें पाये जाने वाले वृक्षों एवं उनकी जातियों के आधार पर निम्नलिखित पाँच प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है –
(1) उष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले सदापर्णी वन (Tropical Evergreen Forests) – इन वनों का विस्तार विषुवत् रेखा के दोनों ओर 5°उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के मध्य है। उष्ण कटिबन्धीय भागों में अत्यधिक वर्षा एवं भीषण गर्मी पड़ने के कारण सघन वन आसानी से उग आते हैं। इन प्रदेशों में शीत एवं ग्रीष्म काल का तापान्तर बहुत ही कम होता है, जिससे वृक्षों में पतझड़ का कोई निश्चित समय नहीं होता।

इसी कारण वृक्षों में हर समय नयी पत्तियाँ निकलती रहती हैं जिससे इन्हें सदाबहार वन कहा जाता है। इनकी औसत ऊँचाई 60 से 100 मीटर तक होती है। इनके नीचे लताओं एवं झाड़ियों के फैले रहने के कारण सदैव अन्धकार छाया रहता है तथा सूर्य का प्रकाश भी धरातल तक नहीं पहुंच पाता जिससे यहाँ दलदल मिलती है। इन वनों की लकड़ी बड़ी कठोर होती है; अतः इन्हें काटने में भी बड़ी असुविधा रहती है। इन वनों के वृक्षों में आबनूस, महोगनी, बाँस, रोजवुड, लॉगवुड, रबड़, नारियल, केला, ग्रीन हार्ट, सागौन, सिनकोना, बेंत आदि मुख्य हैं।

वितरण – धरातल पर इन वनों का विस्तार 145 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर है। इनमें से 54.5% दक्षिणी अमेरिका में, 20% अफ्रीका में, 18% एशिया में, 7.5% ऑस्ट्रेलिया में तथा अन्य देशों में पाये जाते हैं। ये वन विशेषतः अमेजन बेसिन, अफ्रीका के पश्चिमी भागों तथा दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देशों में मिलते हैं, जहाँ वर्ष भर तापमान काफी ऊँचे तथा वर्षा का औसत 200 सेमी से अधिक रहता है।

(2) उष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती के पर्णपाती वन (Tropical Deciduous Forests) – विश्व के जिन भागों में 100 से 200 सेमी वार्षिक वर्षा का औसत रहता है, वहाँ सदाबहार वनों के स्थान पर मानसूनी वनों की अधिकता पायी जाती है। इन वनों से बहुमूल्य लकड़ी प्राप्त होती है जो फर्नीचर एवं इमारती कार्यों में प्रयुक्त की जाती है। इन वनों के प्रसिद्ध वृक्ष सागवान, बॉस, साल, ताड़, चन्दन, शीशम, आम, जामुन, नारियल आदि हैं।

वितरण – इन प्रदेशों में इस प्रकार के वन भारत, उत्तरी म्यांमार, थाईलैण्ड, लाओस, उत्तरी वियतनाम, मध्य अमेरिकी देशों, उत्तरी ऑस्ट्रेलिया, पूर्वी अफ्रीका, मलेशिया आदि देशों में मिलते हैं। इन वनों के वृक्ष की पत्तियाँ ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में गिर जाती हैं। केवल ग्रीष्म ऋतु में ही वर्षा होने के कारण विताने वाले वृक्ष उत्पन्न होते हैं जो वर्षा एवं शीत ऋतु में तो हरे रहते हैं, परन्तु ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में भीतरी जल का विनाश रोकने के लिए अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं।

(3) शीतोष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले शुष्क सदापर्णी वन (Temperate Deciduous Dry Forests) – ये वनं उत्तरी गोलार्द्ध में 30° से 45° अक्षांशों के मध्य महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में 40°अक्षांश से सुदूर दक्षिण तक पाये जाते हैं। इस प्रदेश की वनस्पति को मुख्य रूप से दो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है- शीत ऋतु में ठण्ड तथा ग्रीष्म ऋतु में जल का अभाव। इसी कारण केवल वसन्त ऋतु में ही यहाँ की वनस्पति भली-भाँति वृद्धि कर सकती है। ऐसा भूमध्यसागरीय जलवायु वाले प्रदेशों में होता है।

इन प्रदेशों में सदैव हरे-भरे रहने वाले वृक्ष मिलते हैं जो कम वर्षा तथा अनुपजाऊ मिट्टी के कारण कँटीली झाड़ियों में बदल गये हैं। यहाँ वृक्षों के हरे-भरे रहने का कारण शीतकाल की नमी का होना है जिससे इनकी पत्तियाँ झड़ नहीं पातीं। ग्रीष्म ऋतु की गर्मी से बचने के लिए इन वृक्षों में कुछ विशेषताएँ होती हैं। इन वृक्षों की जड़े लम्बी, मोटी, तने मोटे और खुरदरी छाल वाले होते हैं जिनमें काफी जल भरा रहता है। इनकी पत्तियाँ मोटी, चिकनी तथा लसदार होती हैं जिससे इनका जल वाष्प बनकर नहीं उड़ने पाता। इन वनों के मुख्य वृक्षों में ओक, जैतून, अंजीर, पाइन, फर, साइप्रस, कॉरीगम, यूकेलिप्टस, चेस्टनट, लारेल, शहतूत, वालनट आदि हैं। यहाँ पर रस वाले फलदार वृक्षों में नींबू, नारंगी, अंगूर, अनार, नाशपाती, शहतूत आदि मुख्य हैं।

वितरण – पृथ्वी पर इस प्रकार के वनों का विस्तार 47 केरोड़ हेक्टेयर भूमि पर है, जिसमें से 47.5%एशिया महाद्वीप में, 14.1% उत्तरी अमेरिका में, 16.2% यूरोप में, 9.6% दक्षिणी अमेरिका में, 9.4% अफ्रीका में तथा 1.2% ऑस्ट्रेलिया में पाये जाते हैं। इन वनों का विस्तार चीन, जापान, कोरिया, मंचूरिया, पश्चिमोत्तर यूरोप, पश्चिमी कनाडा, पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा के सेण्ट लॉरेंस प्रदेश में विशेष रूप से है।

(4) शीतोष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले पर्णपाती वन (Temperate Deciduous Forests) – भूतल पर सामान्यतया ये वन शीत-प्रधान, सम-शीतोष्ण या पश्चिमी यूरोप तुल्य जलवायु वाले प्रदेशों में उगते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनका विस्तार भीतरी महाद्वीपीय शुष्क भागों के पूर्व में 40°से 60° अक्षांश तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के पूर्वी तटीय भागों में 35° अक्षांश से तथा पश्चिमी तटीय भागों में 40° अक्षांशों से सुदूर दक्षिण तक है।

ग्रीष्म ऋतु में साधारण गर्मी, शीत ऋतु में कठोर सर्दी तथा वर्ष भर अच्छी वर्षा के कारण कठोर लकड़ी वाले वृक्ष उगते हैं। इनकी पत्तियाँ कड़ी ठण्ड से बचने के लिए शीत ऋतु में झड़ जाती हैं। इनके मुख्य वृक्ष ओक, मैपिल, बीच, एल्म, हैमलॉक, अखरोट, चेस्टनट, पॉपलर, एश, चेरी, हिकोरी, बर्च आदि हैं। ये वृक्ष इमारती लकड़ियों के भण्डार माने जाते हैं। कुछ क्षेत्रों में इन वनों को काटकर अबे कृषि की जाने लगी है।

वितरण – पृथ्वी पर इस प्रकार के वनों का विस्तार 47 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर है, जिसमें से 47.5% एशिया महाद्वीप में, 14 1% उत्तरी अमेरिका में, 16.2% यूरोप में, 9.6% दक्षिणी अमेरिका में, 9.4% अफ्रीका में तथा 12% ऑस्ट्रेलिया में पाये जाते हैं। इन वनों का विस्तार चीन, जापान, कोरिया, मंचूरिया, पश्चिमोत्तर यूरोप, पश्चिमी कनांडा, पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा के सेण्ट लॉरेंस प्रदेश में विशेष रूप से है।

(5) शीत कटिबन्धीय शंकुल सदापर्णी वन या टैगा वन (Temperate Coniferous Forests or Taiga Forests) – इन्हें टैगा या बोरियल वनों के नाम से जाना जाता है। एशिया महाद्वीप में इनकी दक्षिणी सीमा 55° उत्तरी अक्षांश है, जब कि उत्तरी पश्चिमी यूरोप में 60° उत्तरी अक्षांश तक है। उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के पूर्व में इन वनों की दक्षिणी सीमा 45° उत्तरी अक्षांश तक है, जब कि दक्षिणी गोलार्द्ध में ये वन अधिक नहीं मिलते हैं।
उत्तरी गोलार्द्ध में इन वनों का विस्तार शीतोष्ण कटिबन्ध के उत्तरी भागों में है। ग्रीष्म ऋतु में 10° सेग्रे तापमान तथा जल का अभाव वृक्षों की पत्तियों को नुकीली बना देता है जिससे पत्तियों के द्वारा वायु के साथ अधिक जल वाष्प बनकर नहीं उड़ पाता।

उपयोगिता – इन वनों में झाड़-झंखाड़ नहीं मिलते हैं। अत: इनका शोषण सरलता से किया जा सकता है। ये कोमल एवं उपयोगी होते हैं।
वितरण – इन वनों का विस्तार लगभग 106 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर है। इसमें से 30.5% उत्तरी अमेरिका में, 40% एशिया में, 215% यूरोप में, 5% दक्षिणी अमेरिका में तथा 3% अफ्रीका में हैं। ये वन मुख्यत: उत्तरी अमेरिका तथा यूरेशिया के उत्तरी भागों में पाये जाते हैं। पूर्व सोवियत संघ में साइबेरिया के वनों को टैगा कहते हैं, जो बहुत बड़े क्षेत्र पर विस्तृत हैं।
इन वनों में चीड़, स्पूस, हेमलॉक, फर, लार्च, सीडर, साइप्रस आदि उपयोगी वृक्ष उगते हैं, जो वर्ष भर हरे-भरे रहते हैं। ये हिम्न, पाला एवं कठोर शीत को सहने में सक्षम होते हैं। हिमावरण के कारण इने वनों का पूर्ण शोषण नहीं हो पाया है।

कोणधारी वनों की आर्थिक उपयोगिता – कोणधारी वन आर्थिक दृष्टि से बहुत उपयोगी होते हैं। हिमावरण एवं कठोर शीत में उगने के पश्चात् भी प्रकृति ने इन वनों को आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण बनाया है। कोणधारी वनों का आर्थिक महत्त्व निम्नवत् है –

  1. उपयोगी मुलायम लकड़ी की प्राप्ति – कोणधारी वनों से उपयोगी तथा मुलायम लकड़ी प्राप्त होती है। इस लकड़ी से कागज की लुग्दी, पेटियाँ तथा अन्य फर्नीचर बनाये जाते हैं। दियासलाई बनाने का उद्योग भी इन्हीं वनों पर निर्भर है। उपयोगी लकड़ी की दृष्टि से ये वन प्राकृतिक वरदान हैं।
  2. उपयोगी पशुओं की उपलब्धि – इन वनों में लम्बे बाल और कोमल खाल वाले समूरधारी पशु पाये जाते हैं। ये समूरधारी पशु उपयोगी खाल प्रदान करते हैं। इस खाल से मानवोपयोगी वस्त्र तथा मूल्यवान वस्तुएँ बनायी जाती हैं।
  3. मांस की प्राप्ति – कोणधारी वनों में रहने वाले पशु, आखेटकों को स्वादिष्ट मांस उपलब्ध कराते हैं। मांस यहाँ के निवासियों के जीवन का आधार है। ये लोग इन पशुओं को मारकर उनका मांस बर्फ में दबा देते हैं तथा समय-समय पर इसे निकालकर अपनी उदर-पूर्ति करते रहते हैं।
  4. उद्योग-धन्धों का आधार – इने वनों से अनेक उद्योग-धन्धों को कच्चे माल प्राप्त होते हैं। ये वन कागज उद्योग, फर्नीचर तथा दियासलाई उद्योग को पर्याप्त मात्रा में लकड़ी प्रदान करते हैं, जब कि खाल के वस्त्र बनाने वाले उद्योग के लिए ये समूर वाली खाले प्रदान करते हैं। इस प्रकार कोणधारी वन अनेक उद्योगों को कच्चा माल जुटाकर उन्हें सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं।

वनों का आर्थिक महत्त्व
Economic importance of Forests

वन प्रकृति प्रदत्त निःशुल्क उपहारों में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। मानव का नाता वृक्षों से चिर-प्राचीन है। पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “उगता हुआ वृक्ष, प्रगतिशील राष्ट्र का प्रतीक होता है।” वृक्षों की उपयोगिता को के० एम० मुंशी ने निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है, ”वृक्षों का अर्थ है-जल, जल का अर्थ है-रोटी और रोटी ही जीवन है।” मत्स्यपुराण में वृक्षों का महत्त्व इस प्रकार व्यक्त किया गया है, “एक पौधा रोपना दस गुणवान पुत्र उत्पन्न करने के समान है।”
वास्तव में वन किसी भी राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं, जो मानव की तीनों प्राथमिक आवश्यकताओं-भोजन, वस्त्र एवं आवास की आपूर्ति करते हैं। वन राष्ट्र की समृद्धि की नींव हैं।

इनसे प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। वन राष्ट्रीय सौन्दर्य में भी वृद्धि करते हैं। वर्तमान पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या का हल वनों द्वारा ही सम्भव है। वनों से ढकी भूमि तथा प्राकृतिक वनस्पति युक्त पर्वतीय ढाल बड़े ही रमणीक तथा सुरम्य प्रतीत होते हैं। वनों के आर्थिक महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है –
(1) वनों के प्रत्यक्ष लाभ – इसके अन्तर्गत वनों के वे लाभ सम्मिलित हैं जिनका अनुभव हमें प्रत्यक्ष रूप से होता है। इसके अन्तर्गत वनों के आर्थिक लाभों को सम्मिलित किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं –

  1. बहुमूल्ये लकड़ी की प्राप्ति –
    • फर्नीचर बनाने के लिए,
    • ईंधन के लिए,
    • व्यावसायिक उपभोग के लिए; जैसे-कागज, दियासलाई तथा पेटियाँ बनाने के लिए,
  2. विभिन्न उद्योग-धन्धों के लिए कच्चे मालों की प्राप्ति,
  3. पशुपालन एवं पशुचारण के लिए उत्तम चरागाह,
  4. फल-फूलों की प्राप्ति,
  5. वन्य पशुओं की प्राप्ति तथा उनका आखेट,
  6. जड़ी-बूटियों एवं ओषधियों की प्राप्ति,
  7. भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि,
  8. राष्ट्रीय आय में वृद्धि,
  9. वनों से प्राप्त निर्यातक वस्तुओं द्वारा विदेशी मुद्रा का अर्जन।

(2) वनों के अप्रत्यक्ष लाभ – वनों से हमें निम्नलिखित अप्रत्यक्ष लाभ भी होते हैं –

  1. वर्षा कराने में सहायक,
  2. बाढ़ों की रोकथाम में सहायक,
  3. मरुस्थल के प्रसार पर रोक,
  4. मिट्टी का अपक्षय एवं अपरदन रोकने में सहायक,
  5. भूमिगत-जल का स्तर ऊँचा बनाये रखने में सहायक,
  6. वायुमण्डल को प्रदूषण मुक्त करने में सहायक,
  7. प्राकृतिक सौन्दर्य का भण्डार,
  8. कृषि-कार्यों में सहायक,
  9. वन्य पशु-पक्षियों को आश्रय स्थल,
  10. वायुमण्डल की आर्द्रता में वृद्धि तथा
  11. पारिस्थितिक तन्त्र को सन्तुलित बनाये रखना।

प्रश्न 2
जीव-जन्तुओं, वनस्पति एवं जलवायु के पारस्परिक सम्बन्धों की समीक्षा कीजिए।
या
वनस्पति पर जलवायु कारकों के प्रभाव की विवेचना कीजिए। [2012, 15]
या
जलवायु तथा वनस्पति के जीव-जन्तुओं से सह-सम्बन्ध की सोदाहरण विवेचना कीजिए। [2012, 13]
उत्तर
पृथ्वी पर जलवायु एकमात्र ऐसा तत्त्व है जिसके व्यापक प्रभाव से पेड़-पौधों से लेकर छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े तथा हाथी जैसे विशालकाय पशु भी नहीं बच पाते। जलवायु का जीव पर समग्र प्रभाव पारिस्थितिकी तन्त्र कहलाता है। पारिस्थितिकी तन्त्र जैव जगत् के जैवीय सम्मिश्रण का ही दूसरा नाम है। ओडम के शब्दों में, “पारिस्थितिकी तन्त्र पौधों और पशुओं की परस्पर क्रिया करती हुई वह इकाई है जिसके द्वारा ऊर्जा का मिट्टियों से पौधों और पशुओं तक प्रवाह होता है तथा इस तन्त्र के जैव व अजैव तत्त्वों में पदार्थों का विनिमय होता है।”

हम जानते हैं कि प्रत्येक जीवोम अपने पारिस्थितिकी तन्त्र का परिणाम होता है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक जैव विकास की एक लम्बी कहानी है। सृष्टि के प्रारम्भ में जो जीवधारी उत्पन्न हुए प्राकृतिक पर्यावरण के साथ-साथ उनका स्वरूप भी बदलता गया। रीढ़विहीन प्राणी बाद में रीढ़ वाले प्राणी के रूप में विकसित हुए। डायनासोर से लेकर वर्तमान ऊँट और जिराफ तक सभी प्राणी जलवायु दशाओं के ही परिणाम हैं।

वनस्पति जगत् के जीवन-वृत्त में झाँकने से स्पष्ट हो जाता है कि अब तक पेड़-पौधे जलवायु दशाओं के फलस्वरूप नया आकार, प्रकारे और कलेवर धारण करते रहे हैं। काई से लेकर विशाल वृक्षों के निर्माण में लम्बा युग बीता है।

आइए निरीक्षण करें कि पेड़-पौधे और जीव-जन्तु जलवायु के साथ किस प्रकार के सह-सम्बन्ध बनाये हुए हैं –
(1) वनस्पति पर जलवायु को प्रभाव अथवा पेड़ – पौधों और जलवायु का सह-सम्बन्ध – प्राकृतिक वनस्पति अपने विशिष्ट पर्यावरण की देन होती है। यही कारण है कि पेड़-पौधों और जलवायु के मध्य सम्बन्धों की प्रगाढ़ता पायी जाती है। विभिन्न जलवायु प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों का पाया जाना यह स्पष्ट करता हैं कि जलवायु और वनस्पति का अटूट सम्बन्ध है। टुण्ड्रा प्रदेश में कठोर शीत, तुषार और हिमावरण के कारण वृक्ष कोणधारी होते हैं। ढालू वृक्षों पर हिमपात का कोई प्रभाव नहीं होता। इन प्रदेशों में स्थायी तुषार रेखा पायी जाने तथा भूमि में वाष्पीकरण कम होने के कारण पेड़-पौधों का विकास कम होता है। टुण्ड्रा और टैगा प्रदेशों में वृक्ष बहुत धीरे-धीरे बढ़ते हैं। इनकी लकड़ी मुलायम होती है।

उष्ण मरुस्थलीय भागों में वर्षा की कमी तथा उष्णता के कारण वृक्ष छोटे-छोटे तथा काँटेदार होते हैं। वृक्षों की छाल मोटी तथा पत्तियाँ छोटी-छोटी होती हैं। अनुपजाऊ भूमि तथा कठोर जलवायु दशाएँ वृक्षों के विकास में बाधक बन जाती हैं।
मानसूनी प्रदेशों में वृक्ष ग्रीष्म ऋतु की शुष्कता से बचने के लिए अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। वर्षा ऋतु में यहाँ वृक्षों का विकास सर्वाधिक होता है।
भूमध्यसागरीय प्रदेशों में जाड़ों में वर्षा होती है; अतः वृक्ष लम्बी गाँठदार जड़ों में जल एकत्र करके ग्रीष्म की शुष्कता से अपना बचाव कर लेते हैं। जाड़ों की गुलाबी धूप तथा हल्की ठण्ड ने यहाँ रसदार फलों के उत्पादन में बहुत सहयोग दिया है।
घास बहुल क्षेत्रों में वर्षा की कमी के कारण वृक्ष नहीं उगते। यहाँ लम्बी-लम्बी हरी घास उगती है। घास ही यहाँ की प्राकृतिक वनस्पति होती है।
भूमध्यरेखीय प्रदेशों में अधिक गर्मी तथा अधिक वर्षा के कारण घने तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्ष उगते हैं। इन वृक्षों को काटना सुविधाजनक नहीं है। वृक्षों के नीचे छोटे वृक्ष तथा लताएँ उगती हैं। ये वृक्ष सदाबहार होते हैं।

पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचाई के साथ जलवायु में बदलाव आने के साथ ही वनस्पति के प्रकार एवं स्वरूप में भी अन्तर उत्पन्न होता जाता है। उच्च अक्षांशों एवं पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ बर्फ पड़ती है, वहाँ नुकीली पत्ती वाले कोणधारी वन पाये जाते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी स्थान की जलवायु ही वहाँ की वनस्पति की नियन्त्रक होती है। इसके विपरीत जलवायु पर वनस्पति जगत् का प्रभाव भी पड़ता है। वनस्पति जलवायु को स्वच्छ करती है। पेड़-पौधे भाप से भरी पवनों को आकर्षित कर वर्षा कराते हैं। वृक्ष वायुमण्डल में नमी छोड़कर जलवायु को नम रखते हैं। वृक्ष पर्यावरण के प्रदूषण को रोककर जलवायु के अस्तित्व को बनाये रखते हैं। इस प्रकार पेड़-पौधे तथा जलवायु का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ पेड़-पौधे जलवायु को प्रभावित करते हैं, वहीं जलवायु पेड़-पौधों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है।

(2) जीव-जन्तुओं और जलवायु का सह-सम्बन्ध – किसी भी स्थान के जैविक तन्त्र की रचना जलवायु के द्वारा ही होती है। जीव-जगत् जलवायु पर उतना ही निर्भर करता है जितना वनस्पति जगत्। जीव-जन्तुओं के आकार, प्रकार, रंग-रूप, भोजन तथा आदतों के निर्माण में जलवायु सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
टुण्ड्रा और टैगी प्रदेश में शीत-प्रधान जलवायु के कारण ही समूरधारी जानवर उत्पन्न होते हैं। प्रकृति द्वारा दिये गये उनके लम्बे तथा मुलायम बाल ही उन्हें हिमपात तथा कठोर शीत से बचाते हैं। ये पशु इस क्षेत्र के पौधों के पत्ते खाकर जीवित रहते हैं। रेण्डियर, श्वेत ‘भालू तथा मिन्क इस क्षेत्र की जलवायु की ही देन हैं।

उष्ण मरुस्थलीय क्षेत्रों में ऊँट तथा भेड़-बकरियाँ ही पनप पाती हैं। ये पशु शुष्क जलवायु में रह सकते हैं। ऊँट रेगिस्तान का जहाज कहलाता है। ये सभी पशु मरुस्थलीय क्षेत्रों में उगी वनस्पतियों के पत्ते खाकर जीवित रहते हैं। ऊँची-ऊँची झाड़ियों के पत्ते खाने में भी ऊँट सक्षम है। मरुस्थलीय प्रदेशों में दूरदूर तक पेड़-पौधों तथा जल के दर्शन तक नहीं होते। यही कारण है कि यहाँ का मुख्य पशु ऊँट बगैर कुछ खाये-पिये. हफ्तों तक जीवित रह सकता है। इन क्षेत्रों के जीवों को पानी की कम आवश्यकता होती है।
मानसूनी प्रदेश के वनों में शाकाहारी तथा मांसाहारी पशुओं की प्रधानता है। शाकाहारी पशु वृक्षों के पत्ते खाकर तथा मांसाहारी पशु शाकाहारी पशुओं को खाकर जीवित रहते हैं।

घास बहुल क्षेत्रों में घास खाने वाले पशु ही अधिक विकसित हो पाते हैं। जेबरां तथा जिराफ सवाना तुल्य जलवायु के मुख्य पशु हैं। जिराफ ऊँची-से-ऊँचीं डाल की पत्तियाँ खाने का प्रयास करता है; अतः उसकी गर्दन लम्बी हो जाती है।
विषुवतेरेखीय प्रदेश की उष्ण एवं नम जलवायु में मांसाहारी पशुओं से लेकर वृक्षों की शाखाओं पर रहने वाले बन्दर, गिलहरी तथा साँप एवं जल में पाये जाने वाले मगरमच्छ तथा दरियाई घोड़े पाये जाते हैं। उष्ण जलवायु ने यहाँ के मक्खी और मच्छरों को विषैला बना दिया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि किसी भी स्थान पर पाये जाने वाले जीव-जन्तु उस स्थान की जलवायु का परिणाम हैं। जलवायु का प्रभाव जीव-जन्तुओं के आकार, रंग-रूप, भोजन, स्वभाव आदि सभी गुणों पर देखने को मिलती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
जैवमण्डल का अर्थ एवं उसके मुख्य तत्त्व बताइए। [2009, 16]
उत्तर
जैवमण्डल का अर्थ जैवमण्डल में पृथ्वी के निकट का वह कटिबन्ध सम्मिलित है जो किसी-न-किसी रूप में जैव विकास के लिए अनुकूल पड़ता है। इसका निर्माण स्थलमण्डल, जलमण्डल और वायुमण्डल तीनों के सम्पर्क क्षेत्र से होता है। इन तीनों के संयोग से ऐसा पर्यावरण बन जाता है जो वनस्पति जगत, जीव-जन्तु और मानव शरीर के विकास के लिए अनुकूल दशाएँ प्रदान करता है। पृथ्वी तेल के निकट स्थित यह क्षेत्र ही जैवमण्डल (Biosphere) कहलाता है। विद्वानों ने जैवमण्डल को तीन पर्यावरणीय उपविभागों में बाँटा है-

  1. महासागरीय,
  2. ताजे जल एवं
  3. स्थलीय जैवमण्डल।

इनमें स्थलीय जैवमण्डल अधिक महत्त्वपूर्ण है।
जैवमण्डल के तत्त्व जैवमण्डल के तीन प्रमुख तत्त्व हैं-

  1. वनस्पति के विविध प्रकार,
  2. जन्तुओं के विविध प्रकार,
  3. मानव समूह।

वनस्पति – जगत में समुद्री पेड़-पौधों से लेकर पर्वतों की उच्च श्रेणियों तक पाए जाने वाले वनस्पति के विविध प्रकार सम्मिलित हैं। जन्तु-जगत में समुद्रों में पाए जाने वाले विविध जीव, मिट्टियों को बनाने वाले बैक्टीरिया और स्थल पर पाए जाने वाले विविध जीव-जन्तु सम्मिलित हैं। जैवमण्डल के तत्त्व-वायु, जल, सूर्य के प्रकाश और मिट्टियों पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर होते हैं। जैवमण्डल के तत्त्वों में परस्पर गहरा सम्बन्ध होता है। किसी तत्त्व में कमी या अवरोध उत्पन्न होने पर जैवमण्डल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

 

प्रश्न 2
वनों के संरक्षण से आप क्या समझते हैं? [2016]
उत्तर
वन किसी भी देश की अमूल्य सम्पदा होते हैं। ये प्राकृतिक संसाधन ही नहीं, भौगोलिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण होते हैं। वनों को जलवायु का नियन्त्रक’ कहा जाता है। ये तापमानों की वृद्धि रोकते हैं तथा वर्षा कराने में उपयोगी होते हैं। ये बाढ़ों की आवृत्ति तथा भूमि अपरदन को भी रोकते हैं। वनों में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु रहते हैं जो पारिस्थितिकीय सन्तुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही नहीं, वनों में अनेक मानवे वर्ग (जनजातियाँ) भी निवास करते हैं। इन सब कारणों से वन बहुत उपयोगी हैं।

इनके विनाश को रोकना अनिवार्य है। विभिन्न देश वनों के संरक्षण के अनेक उपाय अपनाते हैं, जिनमें-अतिशय कटाई । पर नियन्त्रण, वैज्ञानिक विधि से लकड़ी काटना, वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन, वन-रोपण आदि प्रमुख उपाय हैं। वनों के संरक्षण के लिए विभिन्न देश अनेक कार्यक्रम अपनाते हैं। विश्व के प्राय: सभी देशों में वर्ष के किसी-न-किसी दिन या सप्ताह में वृक्षारोपण उत्सव (वन महोत्सव) मनाया जाता है। संयुक्त राज्य, फिलीपीन्स तथा कम्बोडिया में ‘ArborDay’, जापान में ‘Green Week’, इजराइल में ‘NewYear’s Day of Tree’, आइसलैण्ड में ‘Student’s Afforestation Day’ तथा भारत में ‘वन महोत्सव मनाया जाता है। देशों के स्तर पर ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी वनों का संरक्षण एक चिन्तनीय विषय है।

प्रश्न 3
वनों से होने वाले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ बताइए। [2011, 15, 16]
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 के अन्तर्गत ‘वनों का आर्थिक महत्त्व’ शीर्षक देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
जैवमण्डल को परिभाषित कीजिए। [2008, 09, 10, 11, 16]
उत्तर
जैवमण्डल धरातल से ऊपर कुछ ऊँचाई तक तथा समुद्रों, महासागरों एवं अन्य जलराशियों में कुछ गहराई तक विस्तृत वह संकीर्ण परत है जिसमें समस्त प्रकार का जीवन (वनस्पति, जीव-जन्तु, प्राणी, मानव, कीड़े-मकोड़े, पक्षी आदि) पाया जाता है।

प्रश्न 2
विश्व में वनों के विस्तार का कुल क्षेत्रफल कितना है और उसमें से कितना मनुष्य की पहुँच के योग्य है?
उत्तर
विश्व में वनों के विस्तार का कुल क्षेत्रफल 25,620 लाख हेक्टेयर है, जिसमें से 59% मनुष्य की पहुँच के योग्य है।

प्रश्न 3
वनस्पति को प्रभावित करने वाले मुख्य घटक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
वनस्पति को प्रभावित करने वाले मुख्य घटक हैं-

  1. तापमान
  2. जल-पूर्ति
  3. प्रकाश
  4. पवन और
  5. मिट्टी।

 

प्रश्न 4
दक्षिण अमेरिका के दो घास के मैदानों के नाम लिखिए।
उत्तर
दक्षिण अमेरिका के दो घास के मैदानों के नाम हैं-

  1. मानोज एवं
  2. सवाना।

प्रश्न 5
पृथ्वी पर ऐसा कौन-सा तत्त्व है जिसके प्रभाव से कोई नहीं बच सकता?
उत्तर
पृथ्वी पर जलवायु एकमात्र ऐसा तत्त्व है जिसके व्यापक प्रभाव से पेड़-पौधे से लेकर : छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े तथा हाथी जैसे विशालकाय पशु भी नहीं बच पाते।

प्रश्न 6
प्राकृतिक वनस्पति के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्राकृतिक वनस्पति तीन प्रकार की होती हैं-

  1. वन
  2. घास के मैदान तथा
  3. झाड़ियाँ।

प्रश्न 7
भूमध्यरेखीय प्रदेशों में घने तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्ष क्यों उगते हैं तथा इन वृक्षों की क्या विशेषता होती है?
उत्तर
भूमध्यरेखीय प्रदेशों में अधिक गर्मी तथा अधिक वर्षा के कारण घने तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्ष उगते हैं। ये वृक्ष सदाबहार होते हैं।

प्रश्न 8
मानसूनी प्रदेशों में वृक्ष अपनी पत्तियाँ क्यों गिरा देते हैं? इनका विकास किस ऋतु में सर्वाधिक होता है?
उत्तर
मानसूनी प्रदेशों में वृक्ष ग्रीष्म ऋतु की शुष्कता से बचने के लिए अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। वर्षा ऋतु में इनका विकास सर्वाधिक होता है।

प्रश्न 9
सवाना तुल्य. जलवायु के मुख्य पशु कौन-से हैं?
उत्तर
सवाना तुल्य जलवायु के मुख्य पशु हैं—जेबरा तथा जिराफ।

प्रश्न 10
सिनकोना का महत्त्व लिखिए। यह कहाँ पाया जाता है?
उत्तर
सिनकोना नामक वृक्ष की छाल से कुनैन बनाया जाता है। यह वृक्ष 200 सेमी से 300 सेमी वर्षा वाले भागों में भारत, श्रीलंका, मैलागासी और जावा में पाया जाता है।

 

प्रश्न 11
वन-संरक्षण हेतु कोई दो उपाय सुझाइए। [2013, 14]
उत्तर

  1. व्यापक वृक्षारोपण और सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों के द्वारा वन और वृक्ष के आच्छादन में महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी की जाए।
  2. वन उत्पादों के उचित उपयोग को बढ़ावा देना और लकड़ी के अनुकूलतम विकल्पों की खोज की जाए।

प्रश्न 12
शंकुल सदापर्णी वनों के प्रमुख वृक्षों के नाम लिखिए।
उत्तर
शंकुल सदापर्णी वनों के प्रमुख वृक्षों के नाम हैं-चीड़, स्पूहै, हैमलॉक, लार्च, सीडर, फर, साइप्रस आदि।

प्रश्न 13
चिपको आन्दोलन का उद्देश्य क्या है?
उत्तर
भारत में वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोकने के लिए उत्तराखण्ड में श्री सुन्दरलाल बहुगुणा द्वारा चिपको आन्दोलन वनों की सुरक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

प्रश्न 14
वन-विनाश के किन्हीं दो कारणों की विवेचना कीजिए। [2012]
या
वनों का संरक्षण क्यों आवश्यक हो गया है? दो कारण बताइए [2016]
उत्तर

  1. जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि की बढ़ती हुई माँग को पूरा करने के लिए वनों का अधिक मात्रा में काटा जाना।
  2. प्राकृतिक कारणों, जैसे भूस्खलन एवं वृक्षों को परस्पर घर्षण से वनाग्नि के कारण वनों का विनाश होना।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1
जैव-प्रदूषण समस्या का कारण है –
(क) झूमिंग कृषि
(ख) वनों का कटान
(ग) जलीय जीवों का संहार
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी।

प्रश्न 2
सामान्यतया धरातल पर प्राकृतिक वनस्पति पायी जाती है –
(क) वनों के रूप में
(ख) घास के रूप में
(ग) झाड़ियों के रूप में
(घ) इन सभी रूपों में
उत्तर
(घ) इन सभी रूपों में।

प्रश्न 3
प्रेयरी घास के मैदान निम्नलिखित में से किस महाद्वीप में पाये जाते हैं? [2007]
(क) दक्षिणी अमेरिका
(ख) उत्तरी अमेरिका
(ग) अफ्रीका
(घ) यूरोप
उत्तर
(ख) उत्तरी अमेरिका।

 

प्रश्न 4
निम्नलिखित में से किस जलवायु प्रदेश में कोणधारी वन पाए जाते हैं ? [2008, 10]
(क) मानसून
(ख) भूमध्यसागरीय
(ग) भूमध्यरेखीय
(घ) टेगा
उत्तर
(घ) टैगा।

प्रश्न 5
निम्नलिखित में से पतझड़ वन किस जलवायु प्रदेश में पाये जाते हैं –
(क) भूमध्यरेखीय जलवायु प्रदेश
(ख) टैगा जलवायु प्रदेश
(ग) टुण्ड्रा जलवायु प्रदेश :
(घ) मानसूनी जलवायु प्रदेश
उत्तर
(घ) मानसूनी जलवायु प्रदेश।

प्रश्न 6
सदाबहार वन निम्नलिखित में से किस प्रदेश में पाये जाते हैं?
(क) भूमध्यसागरीय जलवायु प्रदेश
(ख) विषुवत्रेखीय जलवायु प्रदेश
(ग) रेगिस्तानी जलवायु प्रदेश
(घ) टैगा जलवायु प्रदेश
उत्तर
(ख) विषुवत्रेखीय जलवायु प्रदेश।

प्रश्न 7
लानोज घास के मैदान निम्नलिखित में से किस महाद्वीप में पाये जाते हैं? [2009]
(क) अफ्रीका
(ख) दक्षिणी अमेरिका
(ग) ऑस्ट्रेलिया
(घ) उत्तरी अमेरिका
उत्तर
(ख) दक्षिणी अमेरिका।

प्रश्न 8
वेल्ड्स घास के मैदान कहाँ पाए जाते हैं? [2013, 14, 15]
(क) ब्राजील में
(ख) दक्षिण अमेरिका में
(ग) ऑस्ट्रेलिया में
(घ) मध्य एशिया में
उत्तर
(ख) दक्षिण अमेरिका में

प्रश्न 9
सवाना घास के मैदान कहाँ पाए जाते हैं? [2015, 16]
(क) अमेजन बेसिन में
(ख) सूडान में
(ग) मध्य एशिया में
(घ) टैगा प्रदेश में
उत्तर
(ख) सूडान में

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