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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 8

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 8 सुभाषित रत्नानि

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 8

गद्यांशों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

श्लोक 1
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।। (2013, 11)
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ नामक पाठ’ से उदधृत है।
अनुवाद सभी भाषाओं में देववाणी (संस्कृत) सर्वाधिक प्रधान, मधुर और दिव्य है। निश्चय ही उसका काव्य (साहित्य) मधुर है तथा उससे (काव्य से) भी अधिक मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियाँ) हैं।

श्लोक 2
सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।। (2018, 11, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद सुख चाहने वाले (सुखार्थी) को विद्या कहाँ तथा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ! सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या पाने की चाह त्याग देनी चाहिए और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख त्याग देना चाहिए।

श्लोक 3
जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।। (2010)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद बूंद-बूंद अल गिरने से क्रमशः घड़ा भर जाता है। यही सभी विद्याओं, धर्म तथा धन का हेतु (कारण) है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि विद्या, धर्म एवं धन की प्राप्ति के लिए उद्यम के साथ-साथ धैर्य का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन तीनों का संचय धीरे-धीरे ही होता है।

श्लोक 4
काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।। (2017, 10)
सन्दर्म पूर्ववत्।
अनुवाद बुद्धिमान लोगों का समय काव्य एवं शास्त्रों (की चर्चा) के आनन्द में व्यतीत होता है तथा मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों में, सोने में एवं झगड़ा झंझट में व्यतीत होता है।

श्लोक 5
न चौरहार्यं न च राजहार्य
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्द्धत एवं नित्यं ।
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्। (2018, 16, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद विद्यारूपी धन सभी धनों में प्रधान है। इसे न तो चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है और न तो यह बोझ ही बनता है। यहाँ कहने का तात्पर्य है कि अन्य सम्पदाओं की भाँति विद्यारूपी धन घटने वाला नहीं है। यह धन खर्च किए जाने पर और भी बढ़ता जाता है।
विशेष-

  1.  शास्त्र में अन्यत्र भी विद्या को श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए कहा गया
    है-‘स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’
  2.  इस दोहे में भी विद्या को इस प्रकार महिमामण्डित किया गया है।
    ‘सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।।
    ज्यों खर्च त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात।।”

श्लोक 6
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्ष प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।। (2018, 17, 14, 12, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद पीछे कार्य को नष्ट करने वाले तथा सम्मुख प्रिय (मीठा) बोलने वाले मित्र का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए, जिस प्रकार मुख पर दूध लगे विष से भरे घड़े को छोड़ दिया जाता है।

श्लोक 7
उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तुमेति च।।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।। (2017, 11, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद महान् पुरुष सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (दुःख) में उसी प्रकार एक समान रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य उदित होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने के समय भी। यह कहने का तात्पर्य यह है कि महान् अर्थात् ज्ञानी पुरुष को सुख-दुःख प्रभावित नहीं करते। न तो वह सुख में अत्यन्त आनन्दित ही होता है और न दुःख में हतोत्साहित

श्लोक 8
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खुलस्य साधोः विपरीतुमेत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।। (2016, 14, 13, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत् ।
अनुवाद दुष्ट व्यक्ति की विद्या वाद-विवाद (तर्क-वितर्क) के लिए, सम्पत्ति घमण्ड के लिए एवं शक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की विद्या ज्ञान के लिए, सम्पत्ति दान के लिए एवं शक्ति रक्षा के लिए होती है।

श्लोक 9
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।। (2018, 14, 12, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद बिना सोचे-विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। अज्ञान परम आपत्तियों (घोर संकट) का स्थान (आश्रय) है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले व्यक्ति का गुणों की लोभी अर्थात् गुणों पर रीझने वाली सम्पत्तियाँ (लक्ष्मी) स्वयं वरण करती हैं। यहाँ कहने का अर्थ यह है कि ठीक प्रकार से विचार कर किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है, अति शीघ्रता से बिना विचारे किए गए कार्य का परिणाम सर्वदा अहितकर ही होता है।

श्लोक 10
वज्रादपि कठोराणि मृदृनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।। (2017, 12, 10)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद असाधारण पुरुषों अर्थात् महापुरुषों के वज्र से भी कठोर तथा पुष्प से भी कोमल चित्त (हृदय) को भला कौन जान सकता है?

श्लोक 11
प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रो
यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम्।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्
एतत्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।। (2017, 13, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद अपने अच्छे आचरण (कर्म) से पिता को प्रसन्न रखने वाला पुत्र, (सदा) पति का हित (अर्थात् भला चाहने वाली पत्नी तथा आपत्ति (दुःख) एवं सुख में एक जैसा व्यवहार करने वाला मित्र, इस संसार में इन तीनों की प्राप्ति पुण्यशाली व्यक्ति को ही होती है।

श्लोक 12
कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी
कीर्ति सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।
शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां
धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः ।। (2011)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं प्रिय (सुभाषित) वाणी को शुद्ध, शान्त एवं मंगलों की मातारूपी गाय की संज्ञा दी है, जो इच्छाओं को दुहती अर्थात् पूर्ण करती है, दरिद्रता को हरती है, कीर्ति अर्थात् यश को जन्म देती। है एवं पाप का नाश करती हैं। इस प्रकार यहाँ सत्य और प्रिय (मधुर) वाणी को मानव की सिद्धियों को पूर्ण करने वाली बताया गया है।

श्लोक 13
व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः
न खलु बहिरुपाधी प्रीतयः संश्रयन्ते।
विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं
द्रवति च हिमरश्मावुद्गतेः चन्द्रकान्तः।। (2012)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद पदार्थों को मिलाने वाला कोई आन्तरिक कारण ही होता है। निश्चय ही प्रीति | (प्रेम) बाह्य कारणों पर निर्भर नहीं करती; जैसे-कमल सूर्य के उदय होने पर ही खिलता है। और चन्द्रकान्त-मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती हैं।

श्लोक 14
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। (2016, 13, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद नीति में दक्ष लोग निन्दा करें या स्तुति; चाहे लक्ष्मी आए या स्व-इच्छा से चली जाए; मृत्यु आज ही आए या फिर युगों के पश्चात्, धैर्यवान पुरुष न्याय-पथ से थोड़ा भी विचलित नहीं होते। | इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि धीरज धारण करने वाले लोग कर्म-पथ पर अडिग होकर चलते रहते हैं जब तक उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।

श्लोक 15
ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।
सा योनिः सर्ववैराणां सा हि लोकस्य निऋतिः।। (2014, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद ऋषियों ने उन्मत्त तथा अहंकारी लोगों की वाणी को राक्षसी वाणी कहा है, जो | सभी प्रकार के बैरों को जन्म देने वाली एवं संसार की विपत्ति का कारण होती है।

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न-पत्र में संस्कृत दिग्दर्शिका के पाठों (गद्य व पद्य) में से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

प्रश्न 1.
विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी किं त्यजेत्? अथवा विद्यार्थी किं त्यजेत? (2017, 14, 13, 11)
उत्तर:
विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी सुखं त्यजेत्।।

प्रश्न 2.
धीमतां कालः कथं गच्छति? (2015, 12, 11, 10)
उत्तर:
धीमता कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति।।

प्रश्न 3.
मूर्खाणां कालः कथं गच्छति? (2018, 17, 12)
उत्तर:
मूर्खाणां कालः व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा गच्छति।

प्रश्न 4.
सर्वधनप्रधानं किं धनम् अस्ति?
उत्तर:
सर्वधनप्रधानं विद्याधनम् अस्ति।।

प्रश्न 5.
खलस्य विद्या किमर्थं भवति? (2016)
उत्तर:
खलस्य विद्या विवादाय भवति।

प्रश्न 6.
लोकोत्तराणां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति? (2017, 19)
उत्तर:
लोकोत्तराणां चेतांसि वज्रादपि कठोराणि कुसुमादपि च कोमलानि भवन्ति।

प्रश्न 7. पुण्डरीकं कदा विकसति (2018, 14, 10)
उत्तर:
पुण्डरीकं सूर्य उदिते विकसति।

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